क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल २१
क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल २१में
विजयानुपान का वर्णन किया गया है।
क्रियोड्डीश महातन्त्रराजः एकोविंशतितमः पटलः
Kriyoddish mahatantraraj Patal 21
क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल २१
क्रियोड्डीश महातन्त्रराज एकोविंशतितम
पटल
क्रियोड्डीश महातन्त्रराज इक्कीसवाँ पटल
क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजः
अथैकविंशतितमः पटलः
क्रियोड्डीश महातन्त्रराज
पटल २१ - विजयानुपानम्
दुग्धयोगेन विजया महातेजस्करी
स्मृता ।
क्षुद्बोधबलकारित्वाच्चक्षुर्दोषापहारिणी
।। १।।
जलयोगेन सा हन्ति
ह्यजीर्णादिगदान्क्षणात् ।
घृतेन मेधाजननी वाग्देवी वशकारिणी
।। २ ।।
कफदोषानशेषांस्तु मधुना सह नाशयेत्
।
सैन्धवेन युता सा हि जठराग्निं
विवर्द्धयेत् ।। ३ ।।
सितया लवणेनापि गुडेन सह सेविता ।
अम्लपित्तं तथा शूलं विनाशयति
तत्क्षणात् ।।४।।
फलपुष्टिप्रदा प्रोक्ता
मधुरस्वरकारिणी ।
कैवल्यज्ञानदा चेत्थं
सर्वसिद्धिप्रदायिनी ।।५।।
दुग्ध के साथ विजया (भांग) का सेवन
महातेजस्करी कहा गया है; इससे तेज की वृद्धि
होती है एवं नेत्र आदि का दोष दूर हो जाता है। यदि विजया का सेवन जल में पीस-छान
कर किया जाय तो अजीर्ण दूर हो जाता है। घृत के योग से विजया का सेवन वाक् वृद्धि
करता है एवं वाक्चातुर्य प्रदान करता है। मधुयोग से विजया का सेवन समस्त कफादि
दोषों का नाश करता है। सेंधा नमक के साथ विजया का सेवन करने से जठराग्नि की वृद्धि
होती है। श्वेत नमक तथा गुड़ के साथ सेवन करने से शूल एवं अम्ल पित्त का तत्काल
विनाश होता है। इसके सेवन से बल एवं पुष्टि की प्राप्ति होती है। यह मधुर स्वरकारक,
कैवल्य ज्ञानदायक एवं सर्वसिद्धि प्रदायक है ।। १-५ ॥
इति क्रियोड्डीशे महातन्त्रराजे
शिवगौरीसंवादे एकविंशतितमः पटलः । । २१ ।।
क्रियोड्डीश महातन्त्रराज में
गौरी-शंकरसंवादात्मक इक्कीसवाँ पटल पूर्ण हुआ ।। २१ । ।
॥ समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥
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