नारदसंहिता अध्याय ५१

नारदसंहिता अध्याय ५१                                 

नारदसंहिता अध्याय ५१ में श्राद्धलक्षण व श्राद्ध विचार का वर्णन किया गया है।  

नारदसंहिता अध्याय ५१

नारदसंहिता अध्याय ५१     

अथ श्राद्धलक्षणाध्यायः ।

चतुर्दशी तिथिर्नंदा भद्रा शुक्रवासरौ ॥

सितेज्ययोरस्तमयं व्द्यंघ्रिभं विषमांघ्रिभम् ॥ १ ॥

चतुर्दशी और नंदातिथि व भद्रातिथि विषे शुक्र और मंगळ, गुरु, शुक्र का अस्त दो चरणों का नक्षत्र और विषमांघ्रि चरणवाला नक्षत्र जैसे कृत्तिका का १ पाद मेष में है यह विषमांघ्रि है और मृगशिर आधा वृष में है यह दो चरणवाला है ऐसे सब जगह जानों ॥ १ ॥

शुक्लपक्षं च संत्यज्य पुनर्दहनमुत्तमम् ॥

वसूत्तरार्द्धतः पंच नक्षत्रेषु त्रिजन्मसु ॥ २॥

पौष्णब्रह्मर्क्षयोः पौनर्दहनं कुलनाशनम् ॥

दिनोत्तरार्द्धे तत्कर्तुश्चंद्रताराबलान्विते ॥ ३॥

और शुक्लपक्ष को त्याग कर पुत्तल विधान आदि से प्रेत दाह करना श्रेष्ठ है और धनिष्ठा का उत्तरार्द्ध आदि पांच पंचकों में तथा त्रिपुष्करयोग में और रेवती तथा रोहिणी में पुत्तलविधान आदि दाहकर्म किया जाय तो कुल का नाश हो किन्तु मध्याह्न पीछे और क्रिया करनेवाले को चंद्र तारा का बल होने के दिन ।। २॥३॥

पापग्रहे बलयुते शुक्रलग्नांशवर्जिते ।

तत्पुनर्दहनं चोक्तं श्राद्धकालमथोच्यते ॥ ४॥

तथा पापग्रह बलवंत हो शुक्र लग्न में नहीं हो ऐसे मुहूर्त्त में दाह कर्म करना शुभ है । अब श्राद्धकाल को कहते हैं ।

सपिंडीकरणं कार्यं वत्सरे वार्द्धवत्सरे ॥

त्रिमासे वा त्रिपक्षे वा मासि वा द्वादशेह्नि वा ॥ ५ ॥

सपिंडीकर्म वर्ष दिन में अथवा छह महीनों में करना तीन महीनों में अथवा डेढमहीनों में वा दाहकर्म से बारहवें दिन सपिंडीकर्म करना शुभ है ॥ ५ ॥ ।

एष्वेव कालेष्वेतानि ह्येकोद्दिष्टानि षोडश ॥

कृत्तिकासु च नंदायां भृगोर्वारे त्रिजन्मसु ॥ ६॥

इनही समय में एकोद्दिष्ट षोडशश्राद्ध करने चाहियें और कृत्तिका नक्षत्र और नंदातिथि शुक्रवार, त्रिपुष्करयोग इन्होंमें ॥ ६ ॥

पिंडदानं न कर्तव्यं कुलक्षयकरं यतः ॥

त्रिजन्मसु त्रिपाद्भेषु नंदायां भृगुवासरे ॥ ७ ॥

पिंडदान नहीं करना चाहिये क्योंकि पिंडदान करनेवाले के कुल का नाश होता है त्रिषुष्करयोग तीन चरणोंवाला नक्षत्र जैसे पुनर्वसु ( पादत्रयं मिथुनतो-तहां पुनर्वसु तीन चरणोंवाला जानना ) और शुक्रवार ।। ७ ।।

धातृपौष्णभयोः श्राद्धे न कर्तव्यं कुलक्षयात् ॥

नंदासु च भृगोर्वारे कृत्तिकायां त्रिजन्मसु ॥ ८ ॥

रोहिण्यां च मघायां च कुर्यान्नापरपाक्षिकम् ।

सकृन्महालये काम्यं न्यूनश्राद्धेऽखिलेषु च ॥ ९ ॥

रोहिणी रेवती, इन विषे श्राद्ध नहीं करना चाहिये श्राद्ध करने से कुल का नाश होता है । और नंदातिथि शुक्रवार कृतिका नक्षत्र त्रिपुष्करयोग, रोहिणी व मघा नक्षत्र में सपिंडी आदि श्राद्ध नहीं करना चाहिये परंतु महालय श्राद्ध अर्थात् कनागतों में पार्वण श्राद्ध तो कर देना चाहिये अन्य सम्पूर्ण न्यूनश्राद्धों में । ८॥ ९॥

अतीतविषये चैव ह्यैतत्सर्वं विचिंतयेत् ॥

नभस्यमासे संप्राप्ते कृष्णपक्षे समागते ॥ १० ॥

साधरण कामनावाले श्राद्धों में यह पूर्वोक्त मुहूर्त विषय विचार लेना चाहिये भाद्रपद महीने में कृष्णपक्ष मे ।

तत्र श्राद्धं प्रकुर्वीत सकृद्ध चेदशक्तिमान् ।

विशिष्टदिवसे कर्तुश्चंद्रताराबलान्विते ॥ ११ ॥

एक वार तो निर्धन पुरुष ने भी श्राद्ध करना चाहिये और अन्य शुभमुहूर्त के दिन करनेवाले को चंद्रमा तथा तारा का पूर्ण बल होय तब श्राद्ध करना चाहिये ।। ११ ॥

नंदाश्च तिथयो निंद्या भूतायां शस्त्रघातिनाम् ॥

द्वितीया मध्यमा ज्ञेया तृतीया भरणीयुता ॥ १२॥

नंदातिथियों को वर्ज देवे और चतुर्दशी के शस्त्रघात से मरने बालों का श्राद्ध करना चाहिये । द्वितीया मध्यम तिथि है और भरणी नक्षत्र युक्त तृतीया ।। १२॥

पूज्या यदि चतुर्थी वा श्रीप्रदा पितृकर्मणि ।

आनंदयोगः पंचम्यां याम्यर्क्षस्थे निशाकरे ॥ १३ ॥

अथवा चतुर्थी श्रेष्ठ है पितृकर्म में लक्ष्मी देनेवाली है पंचमी को चंद्रमा भरणी नक्षत्र पर हो तो पितृकर्म में आनंदयोग जानना ।

भोजयेद्यः पितृंस्तत्र पुत्रपौत्रधनं लभेत् ॥

यशस्करी सप्तमी स्यादष्टमी भोगदायिनी ॥ १४ ॥

तहाँ जो पुरुष पितरों को भोजन कराता है वह पुत्र पौत्र व धन- को प्राप्त होता है सप्तमी तिथि श्राद्धकर्म में यश करनेवाली है और अष्टमी भोग देनेवाली है ।। १४ ॥

श्राद्धकर्तुश्च नवमी सर्वकामफलप्रदा ।

सूर्ये कन्यागते चंद्रे रौद्रनक्षत्रगे यदा ॥ १५॥

और नवमी तिथि श्राद्ध करनेवाले के संपूर्ण मनोरथों को सिद्धकर तीहे कन्या राशि पर सूर्य हो तब चंद्रमा आर्द्रा नक्षत्र पर आवे उस दिन ॥ । १५ ॥ ।

सप्तम्यां च तथाष्टम्यां नवम्यां च तिथौ तथा ।

योगोऽयं पितृकल्याणः पितृन्यस्मिन्प्रपूजयेत् ॥ । १६॥

सप्तमी, अष्टमी, नवमी तिथि होय तो यह पितृकल्याणनामक योग कहा है इस योगविषे पितरों का पूजन करना चाहिये ।। १६॥

इह संपदमाप्नोति पश्चात्स्वर्गे ह्यवाप्यते ॥

दशम्यां पुष्यनक्षत्रे सुयोगोऽमृतसंज्ञकः ॥ १७ ॥

इस पूर्वोक्त योग में पितरों का पूजन करनेवाला मनुष्य इस लोक में संपत्ति ( लक्ष्मी ) को प्राप्त होता है और परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है । दशमी तिथि को पुष्य नक्षत्र आ जाय तो सुंदर अमृतसंज्ञक योग होता है ॥

अर्चयेद्यः पितृंस्तत्र नित्यं तृप्तास्तु तस्य ते ।

सर्वसंपत्प्रदाःकर्तुर्द्वाद्दशी तिथिरुत्तमा ॥ १८॥

इस योग में जो पितरों का पूजन करता हैं उसके पितर नित्य तृप्त रहते हैं और कर्ता यजमान को संपूर्ण संपत्ति देनेवाली उत्तम द्वादशी तिथि कही है ।।१८।।

त्रयोदश्यां चतुर्दश्यां हानिर्धनकलत्रयोः ॥

अनंतपुण्यफलदा गजच्छाया त्रयोदशी ॥ १९ ॥

त्रयोदशी वा चतुर्दशी को श्राद्ध करे तो धन स्त्रि की हानि हो परंतु गजच्छाया योगवाली त्रयोदशी अनंत पुण्यफल देनेवाली है ।। १९ ।।

श्राद्धकर्मण्यमावास्या पक्षश्राद्धफलप्रदा ॥ २० ॥

श्राद्ध कर्म में अमावस्या तिथि पक्ष का फल देती है अर्थात् १५ दिन तक श्राद्ध करने का पुण्य होता है ॥ २० ॥

पौष्णद्वये पुष्यचतुष्टये च हस्तत्रये मैत्रचतुष्टये च॥

सौम्यद्वये च श्रवणत्रये च श्राद्धप्रदाता बहुपुत्रवान्स्यात् ॥ २१ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां श्राद्धलक्षणाध्यायः एकपंचाशत्तमः ॥५१॥   

और रेवती, अश्विनी, पुष्प, आदि चार नक्षत्र हस्त आदि ३ नक्षत्र अनुराधा आदि चार नक्षत्र, और मृगशिर आदि दो नक्षत्र श्रवण आदि ३ नक्षत्र इनमें श्राद्ध करनेवाला जन बहुत पुत्रोंवाला होता है अर्थात् इन नक्षत्रों के दिन श्राद्ध करना श्रेष्ठ है ।। २१ ।।

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां श्राद्धलक्षणाध्यायः एकपंचाशत्तमः ॥५१॥   

।। इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां सम्पूर्ण ।।

इस प्रकार श्रीनारद संहिता  समाप्त हुआ ।।

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