नारदसंहिता अध्याय ४१
नारदसंहिता अध्याय ४१ में शिथिल जनन
शांति का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय ४१
उत्पाता ह्यखिलानृणामगम्याः
शुभसूचकाः ॥
तथापि सद्यः फलदं शिथिलीजननं महत् ॥
१ ॥
शुभसूचक संपूर्ण उत्पात,
मनुष्यों को प्राप्त होने दुर्लभ हैं। परंतु शिथिलीजनन अर्थात्
अचानक से शिथिल होकर किसी वस्तु का गिरना उछडना आदि उत्पात तत्काल महान फल करते
हैं ॥१॥
शिथिलीज़ननं ग्रामे सेतौ वा
देवतालये ।
तत्फलं ग्रामपस्यैव सीम्नि
सीमाधिपस्य च ॥ २॥
ग्राम में अथवा पुल पर वा देवता के मंदिर
में जो यह पूर्वोक्त उत्पात होय तो ग्राम के स्वामी को अशुभ फल होता है सीमा पर हो
तो सीमा के मालिक को अशुभ फल होता है ॥ २ ॥
शिथिलीजनने हानिः सर्वस्थानेषु
दिक्षु च ॥
तदोषशमनायैव शांतिकर्म समाचरेत् ॥ ३
॥
सब स्थानों में सब दिशाओं में जहां
शिथिलजनन उत्पात (किसी वस्तु का रूप बिगडना अचानक से ढीला होना) होता है वहां हानि
होती है तिस दोष को शमन करने के वास्ते शांति करनी चाहिये।।३॥
स्वर्णान् मृत्युप्रतिमां कृत्वा
वित्तानुसारतः ॥
रक्तवर्णं चर्मदंडधरं महिषवाहनम् ॥
४ ॥
सुवर्ण करके वित्त के अनुसार मृत्यु
की मूर्ति बनवावे लालवर्ण, ढाल तथा दंड को
धारण किये, भैंसा की सवारी ऐसी मूर्ति बनवानी चाहिये ।। ४ ।।
नववस्त्रं च संवेष्टय तंदुलोपरि
पूजयेत् ॥
तल्लिंगेन च मंत्रेण नैवेद्यं तु
यथाविधि॥ ५
तिस मूर्ति को नवीन वस्र से लपेटकर
चावलों पर स्थापित कर तिसका पूजन करै तिस धर्मराज के मंत्र का उच्चारण कर यथार्थ विधि
से नैवेद्य चढावे ॥ । ५ ।।
पूर्णकुंभं तदीशान्यां रक्तवस्त्रेण
वेष्टितम् ।
पंचत्वक्पल्लवैर्युक्तं जलं मंत्रैः
समर्पयेत् ॥ ६ ॥
जल का पूर्ण कलश ईशानकोण में
स्थापित कर तिस पर लालवस्त्र चढावे पंचपल्लव, पंचवल्कल,
आम्रआदिकों से युक्तकर मंत्रों करके तिस कलश में जल डालै ।। ६ ।। ।
अग्निसंस्थापनं प्राच्यां
स्वगृह्योक्तविधानतः ।
प्रत्येकमष्टोत्तरशतमघोरेणैव
होमयेत्।। ७ ॥
अपने कुल की संप्रदाय के अनुसार
पूर्वदिशा में अग्नि स्थापन करे अघोर मंत्र अष्टोत्तरशत १०८ होम करै ।। ७ ।।
मंत्रेण समिदाज्यान्नैः शेषं
पूर्ववदाचरेत् ।।
द्विजाय प्रतिमां
दद्यात्सर्वदोषापनुत्तये ॥ ८॥
समिध, घृत, तिलादिक अन्न इनसे होम करना अन्य सब विधि पहिले
की तरह करना और संपूर्ण दोष पूर्ण होने के
वास्ते उस सुवर्ण की मूर्ति को ब्राह्मण के अर्थ देवे ।। ८ ॥
जलमंत्रेण संप्रोक्ष्य तत्स्थानं
तीर्थवारिभिः ॥
एवं यः कुरुते सम्यक्स तु
दोषात्प्रमुच्यते ॥ ९ ॥
इति श्रीनारदीयसंहितायां
शिथिलीजननशांति रध्याय एकचत्वारिंशत्तमः ॥ ४१ ॥
वरुण मंत्र उच्चारण कर तिस उत्पात वाले
स्थान को गंगा आदि तीर्थ के जल से छिडक देवे इस प्रकार जो पुरुष करता है वह
उत्पादि दोष से छूट जाता है । । ९ ॥
इति श्रीनारदीयसंहितामाषाटीकायां
शिथिलीजननशांति रध्याय एकचत्वारिंशत्तमः ॥ ४१ ॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ४२ ॥
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