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- दुर्गा स्तोत्र
- शतचण्डीसहस्रचण्डी विधान
- नारद संहिता
- षोडशी हृदय स्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ५१
- श्रीविद्याकवच
- नारदसंहिता अध्याय ५०
- त्रिपुट (त्रिशक्तिरूपा) लक्ष्मीकवच
- नारदसंहिता अध्याय ४९
- गायत्री पञ्जर स्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ४८
- भवनभास्कर
- नारदसंहिता अध्याय ४७
- भवनभास्कर अध्याय २१
- नारदसंहिता अध्याय ४६
- भवनभास्कर अध्याय २०
- नारदसंहिता अध्याय ४५
- भवनभास्कर अध्याय १९
- नारदसंहिता अध्याय ४४
- भवनभास्कर अध्याय १८
- नारदसंहिता अध्याय ४३
- भवनभास्कर अध्याय १७
- नारदसंहिता अध्याय ४२
- भवनभास्कर अध्याय १६
- नारदसंहिता अध्याय ४१
- भवनभास्कर अध्याय १५
- नारदसंहिता अध्याय ४०
- भवनभास्कर अध्याय १४
- नारदसंहिता अध्याय ३९
- भवनभास्कर अध्याय १३
- नारदसंहिता अध्याय ३८
- भवनभास्कर अध्याय १२
- नारदसंहिता अध्याय ३७
- भवनभास्कर अध्याय ११
- नारदसंहिता अध्याय ३६
- भवनभास्कर अध्याय १०
- वार्षिक नवचण्डी विधान
- भवनभास्कर अध्याय ९
- दैनिक व मास नवचण्डी विधान
- भवनभास्कर अध्याय ८
- नवचण्डीविधान
- भवनभास्कर अध्याय ७
- देवी के नवनाम और लक्षण
- भवनभास्कर अध्याय ६
- सप्तशती प्रति श्लोक पाठ फल प्रयोग
- भवनभास्कर अध्याय ५
- दत्तात्रेयतन्त्र
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २२
- भवनभास्कर अध्याय ४
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २१
- भवनभास्कर अध्याय ३
- वराह स्तोत्र
- दुर्गा सप्तशती शापोद्धारोत्कीलन
- भवनभास्कर अध्याय २
- भवनभास्कर अध्याय १
- नारदसंहिता अध्याय ३५
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २०
- नारदसंहिता अध्याय ३४
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १९
- नारदसंहिता अध्याय ३३
- दुर्गा सप्तशती प्रयोग
- कुमारी तर्पणात्मक स्तोत्र
- दुर्गे स्मृता मन्त्र प्रयोग
- बगलामुखी सहस्त्रनामस्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ३२
- बगलामुखी शतनाम स्तोत्र
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १०
- बगलामुखी कवच
- नारदसंहिता अध्याय ३१
- विद्वेषण प्रयोग
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १८
- गायत्रीस्तोत्र
- स्तम्भन प्रयोग
- गायत्री हृदय
- वशीकरण प्रयोग
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
गायत्री पञ्जर स्तोत्र
गायत्री पञ्जर स्तोत्र अथवा सावित्री पञ्जर स्तोत्र को नियमित पाठ करने से व्यक्ति की सभी मनोकामनाए पूर्ण होती है गायत्री पंजर स्तोत्र पढ़ने से साधना में सफ़लता, अपने शरीर की रक्षा कवच का कार्य करता हैं ! पीपल की छाया (पीपल मूल) में जप करने से राजा का वशीकरण, बिल्व मूल से रूपवान्, पलाश जड़ से विद्या, सूर्य के सम्मुख जपने से तेज, पुत्री की अभिलाषा के लिये देवी मन्दिर में, लक्ष्मी की कामना के लिये श्री विष्णु भगवान् के मन्दिर में आरोग्य की कामना के लिये स्वयं के घर में, मोक्ष की आकांक्षा के लिये पर्वत पर तथा सभी कार्यों की कामना पूर्ति के लिये भगवान् विष्णु के मन्दिर में जप करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। नारदजी ने जिस ब्रह्म स्वरुप का दर्शन किया था उसका वर्णन श्लोक १ से ४ तक है ।
गायत्री पञ्जर स्तोत्रम् अथवा सावित्री पञ्जर स्तोत्रम्
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
भगवन्तं देव-देवं ब्रह्माणं
परमेष्ठिनम् ।
विधातारं विश्व-सृजं पद्म-योनिं
प्रजापतिम् ॥ १ ॥
शुद्ध-स्फटिक-सङ्काशं
महेन्द्र-शिखरोपमम् ।
बद्ध-पिङ्ग-जटाजूटं (जटाजूटा)
तडित्कनककुण्डलम् ॥ २ ॥
शरच्चन्द्राभ-वदनं
स्फुरदिन्दीवरेक्षणम् ।
हिरण्मयं विश्व-रूपमुपवीताजिनावृतम्
॥ ३ ॥
मौक्तिकाभाक्ष-वलयस्तन्त्रीलय
समन्वितः ।
कर्पूरोद्धूलिततनुः
स्रष्टुर्नयन-वर्द्धनम् ॥ ४ ॥
विनयेनोपसङ्गम्य शिरसा प्रणिपत्य च
।
नारदः परिपप्रच्छ देवर्षिगणमध्यगः ॥
५ ॥
एक बार देवाधिदेव,
परमेष्ठी, विश्वसृज, पद्मयोनि,
प्रजापति, शुद्ध स्फटिक के समान महेन्द्रपर्वत
के शिखर पर विराजमान, पिंगल जटाजूट बाँधे हुए, बिजली की तरह स्वर्ण के कुण्डल पहने हुए, शरद्कालीन
चन्द्रमा के समान मुखवाले, कमल के समान शोभित नेत्रों वाले,
स्वर्णमय, विश्वरूप, यज्ञोपवीत
तया अजिन धारण किए हुए, मोती के समान आभा वाले, रुद्राक्ष का कंकण धारण किये, वीणालय से युक्त,
कपूर से लिप्त शरीर वाले, प्रजापति के आँखों
को आनन्द देने वाले, ब्रह्माजी से देवताओं और ऋषियों के साथ
नारदजी ने विनय से शिर झुकाकर प्रश्न किया:
॥ नारद उवाचः ॥
भगवन् देव-देवेश सर्वज्ञ करुणानिधे
।
श्रोतुमिच्छामि प्रश्नेन
भोग-मोक्षैकसाधनम् ॥ ६ ॥
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य फलदं
द्वन्द्ववर्जितम् ।
ब्रह्म-हत्यादि-पापघ्नं
पापाद्यरिभयापहम् ॥ ७ ॥
यदेकं निष्कलं सूक्ष्मं
निरञ्जनमनामयम् ।
यत्ते प्रियतमं लोके तन्मे ब्रूहि
पितर्मम ॥ ८ ॥
नारद ने पूछा : हे देवताओं के
स्वामिन् करुणानिधे ! मैं यह जानना चाहता हूं कि भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन,
समस्त ऐश्वर्य का फल देने वाला, द्वन्दों से
रहित, ब्रह्महत्या आदि पापों को नष्ट करने वाला, पाप आदि तथा शत्रुओं के भय को दूर करने वाला जो एक निरञ्जन, दोषों से रहित सूक्ष्म और संसार में प्रिय हो उस साधन को हे पिता जी आप
मुझे बतायें।
॥ ब्रह्मोवाच ॥
श्रृणु नारद वक्ष्यामि ब्रह्ममूलं
सनातनम् ।
सृष्ट्यादौ मन्मुखे क्षिप्तं
देवदेवेन विष्णुना ॥ ९ ॥
प्रपञ्च-बीजमित्याहुरुत्पत्ति-स्थिति-हेतुकम्
।
पुरा मया तु कथितं कश्यपाय सुधीमते
॥ १० ॥
सावित्रीपञ्जरं नाम रहस्यं
निगमत्रये ।
ऋष्यादिकं च दिग्वर्णं साङ्गावरणकं
क्रमात् ॥ ११ ॥
वाहनायुध मन्त्रास्त्रं
मूर्ति-ध्यान-समन्वितम् ।
स्तोत्रं श्रृणु प्रवक्ष्यामि तव
स्नेहाश्च नारद ॥ १२ ॥
ब्रह्म-निष्ठाय देयं स्याददेयं यस्य
कस्यचित् ।
आचम्य नियतः पश्चादात्म-ध्यानपुरः
सरम् ॥ १३ ॥
ब्रह्मा ने कहा: हे नारद! उस सनातन,
ब्रह्ममूल साधन को मैं कहता हूं जिसे सृष्टि के प्रारम्भ में देवों
के देव भगवान् विष्णु ने मेरे मुख में छोड़ा था। यह इस संसार का मूल कारण है। यही
इस संसार की उत्पत्ति और स्थिति का कारण है। मैंने इसे बुद्धिमान् कश्यप को
बतलाया था। यह सावित्री पञ्जर अथवा गायत्री पञ्जर तीनों नियमों में अत्यन्त रहस्यमय है । ऋषि आदि,
दिशाओं के वर्ण, अङ्गों सहित आवरण, वाहन, आयुध, मन्त्र, अस्त्र तथा मूर्ति के ध्यान से युक्त स्तोत्र मैं स्नेहवश तुम्हें
बतलाऊँगा। हे नारद ! इसे ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति को ही देना चाहिये अन्य के लिए यह
अदेय है। साधक प्रथम आचमन करके आत्मा का ध्यान और तदुपरान्त इसका पाठ करें :
ओमित्यादौ विचिन्त्याथ
व्योम-हेमाब्ज-संस्थितम् ।
धर्म-कन्द-गत-ज्ञानमैश्वर्याष्ट-दलान्वितम्
॥ १४ ॥
वैराग्य-कर्णिकाऽऽसीनां
प्रणव-ग्रह-मध्यगाम् ।
ब्रह्म-वेदि-समायुक्तां
चैतन्य-पुर-मध्यगाम् ॥ १५ ॥
तत्त्व-हंस-समाकीर्णां शब्द-पीठे
सुसंस्थिताम् ।
नाद-बिन्दु-कलातीतां
गोपुरैरुप-शोभिताम् ॥ १६ ॥
विद्याविद्या-मृतत्वादि प्रकारैरभि
संवृताम् ।
निगमार्गल-सञ्च्छन्नां
निर्गुण-द्वार-वाटिकाम् ॥ १७ ॥
चतुर्वर्गं फलोपेतां महाकल्प
वनैवृताम् ।
सान्द्रानन्द (साद्रानन्द)
सुधा-सिन्धु निगम द्वारवाटिकाम् ॥ १८ ॥
ध्यान-धारण
योगादि-तृण-गुल्म-लता-वृताम् ।
सद-सच्चित्स्वरूपाख्यां
(सच्चित्स्वरूपाख्य) मृग-पक्षि-समाकुलाम् ॥ १९ ॥
विद्याविद्या-विचारत्वाल्लोकालोका
चलावृताम् ।
अविकार-समाश्लिष्ट-निज-ध्यान
गुणावृताम् ॥ २० ॥
पञ्ची-करण
पञ्चोत्थ-भूत-तत्त्व-निवेदिताम् ।
वेदोपनिषदर्थाख्य
देवर्षि-गण-सेविताम् ॥ २१ ॥
इतिहास-ग्रह-गणैः
सदारैरभि-वन्दिताम् ।
गाथाप्सरोभिर्यक्षैश्च गणकिन्नर
सेविताम् ॥ २२ ॥
नारसिंह पुराणाख्यैः पुरुषैः
कल्पचारणैः ।
कृतगान-विनोदादि कथालापनतत्पराम् ॥
२३ ॥
तदित्यवाङ्मनोगम्य तेजोरूपधरां
पराम् ।
जगतः प्रसवित्रीं तां सवितुः
सृष्टिकारिणीम् ॥ २४ ॥
वरेण्यमित्यन्नमयीं
पुरुषार्थ-फल-प्रदाम् ।
अविद्या-वर्ण-वर्ज्यां च
तेजोवद्गर्भ-संज्ञिकाम् ॥ २५ ॥
देवस्य
सच्चिदानन्द-पर-ब्रह्म-रसात्मिकाम् ।
धीमह्यहं स वै तद्वद्
ब्रह्माद्वैत-स्वरूपिणीम् ॥ २६ ॥
धियो यो नस्तु सविता
प्रचोदयादुपासिताम् ।
परोऽसौ सविता साक्षादेनोनिर्हरणाय च
॥ २७ ॥
परो रजस इत्यादि परं ब्रह्म सनातनम्
।
आपो ज्योतिरिति द्वाभ्यां
पाञ्च-भौतिक-संज्ञकम् ॥ २८ ॥
रसोऽमृतं (रसोकतं) ब्रह्मपदैस्तां
नित्यां तपिनीं पराम् ।
भूर्भुवः
सुव(सुर)-रित्येतैर्निगमत्व प्रकाशिकाम् ॥ २९ ॥
महर्जनस्तपः सत्य-लोकोपरि सुसंस्थिताम्
।
तादृगस्या विराङ्रुपरहस्यं
प्रवदाम्यहम् (विराङ्रुपकिरीटवरराजिताम्) ॥ ३० ॥
व्योमकेशालकाकाशद्यो
किरीटवरराजिताम् (व्योमकेशालकाकाशरहस्यं प्रवदाम्यहम्) ।
मेघ-भ्रुकुटिमाक्रान्तविधि
विष्णुशिवार्चिताम् ॥ ३१ ॥
गुरु-भार्गव-कर्णान्तां
सोम-सूर्याग्नि-लोचनाम् ।
इडा-पिङ्गल-सूक्ष्माभ्यां
वाम(वायु)नासापुटान्विताम् ॥ ३२ ॥
सन्ध्याद्विरोष्ठ-पुटितां
लसद्वाग्भूपजिह्विकाम् ।
सन्ध्यासौ द्युमणेः कण्ठलसद्बाहु
समन्विताम् ॥ ३३ ॥
पर्जन्य-हृदयासक्त
वसु-सुस्तन-मण्डलाम् ।
आकाशोदर
वित्रस्तनाभ्यवान्तर-देशिकाम् ॥ ३४ ॥
प्रजापत्याख्यजघनां कटीन्द्राणीति
संज्ञिकाम् ।
ऊरू मलय-मेरुभ्यां
शोभमानाऽसुरद्विषाम् ॥ ३५ ॥
जानुनी जह्नुकुशिक
वैश्वदेव-सदाभुजाम् ।
अयन-द्वय-जङ्घाद्य
सुरा(खुरा)द्यपितृसंज्ञिकाम् ॥ ३६ ॥
पदाङ्घ्रिनखरोमाणि(द्य) भूतलद्रुम
लाञ्छिताम् ।
ग्रह-राश्यर्क्षदेवर्षि-मूर्तिं च
परसंज्ञिकाम् ॥ ३७ ॥
तिथि-मासर्तु वर्षाख्यसुकेतु
निमिषात्मिकाम् ।
अहोरात्रार्द्धमासाख्यां
सूर्य-चन्द्र-मसात्मिकाम् ॥ ३८ ॥
माया-कल्पित
वैचित्र्य-सन्ध्याच्छादन सम्वृताम् ।
ज्वलत्कालानल-प्रख्यां तडित्कोटि
समप्रभाम् ॥ ३९॥
कोटि-सूर्य-प्रतीकाशां
चन्द्र-कोटि-सुशीतलाम् ।
सुधा-मण्डल-मध्यस्थां
सान्द्रानन्दाऽमृतात्मिकाम् ॥ ४० ॥
वाग(प्राग)तीतां मनोरम्यां वरदां
वेदमातरम् ।
चराचर-मयीं नित्यां ब्रह्माक्षर
समन्विताम् ॥ ४१ ॥
(विनियोग एवं ध्यान श्लोक ४२ से ५१
तक हैं)
ध्यात्वा स्वात्मनि भेदेन
ब्रह्मपञ्जरमारभेत्(ब्रह्मपञ्जरमारभे) ।
पञ्जरस्य ऋषिश्चाहं छन्दो
विकृतिरुच्यते ॥ ४२ ॥
देवता च परो हंसः परब्रह्माधिदेवता
।
प्रणवो बीजशक्तिः स्यादों
कीलकमुदाहृतम् ॥ ४३ ॥
तत्तत्त्वं धीमहि क्षेत्रं धियोऽस्रं
यत् परं पदम् ।
मन्त्रमापो ज्योतिरिति योनिर्हंसः
सवेधकम्(सबन्धकम्) ॥ ४४ ॥
विनियोगस्तु सिद्धयर्थं
पुरुषार्थ-चतुष्टये ।
ततस्तैरङ्गषट्कं स्यात्तैरेव
व्यापक-त्रयम् ॥ ४५ ॥
पूर्वोक्तदेवतां ध्यायेत् साकार-गुण
संयुताम् ।
पञ्च-वक्त्रां दश-भुजां त्रिपञ्च-नयनैर्युताम्
॥ ४६ ॥
मुक्ताविद्रुम-सौवर्णां
सित-शुभ्र-समाननाम् ।
वाणीं परां रमां मायां
चामरैर्दर्पणैर्युताम् ॥ ४७ ॥
षडङ्ग-देवता-मन्त्रै
रूपाद्यवयवात्मिकाम् ।
मृगेन्द्र वृष(मृग)
पक्षीन्द्र-मृग-हंसासने स्थिताम् ॥ ४८ ॥
अ(ऊ)र्धेन्दु-बद्ध-मुकुट-किरीट-मणि-कुण्डलाम्
।
रत्न-ताटङ्कामाङ्गल्यपरग्रैवेयनूपुराम्
॥ ४९ ॥
अङ्गुलीयक-केयूर
कङ्कणाद्यै(कङकणाघै)रलङ्कृताम् ।
दिव्य-स्रग्वस्त्र
सञ्च्छन्न-रवि-मण्डल-मध्यगाम् ॥ ५० ॥
वराभयाब्ज-युगलां
शङ्ख-चक्र-गदाङ्कुशाम् ।
शुभ्रं कपालं दधतीं
वहन्तीमक्ष-मालिकाम् ॥ ५१ ॥
गायत्रीं वरदां देवीं सावित्रीं
वेदमातरम् ।
आदित्य पथ-गामिन्यां(पथगां नित्यां)
स्मरेद्ब्रह्मस्वरूपिणीम् ॥ ५२ ॥
विचित्र-मन्त्र-जननीं
स्मरेद्विद्यां सरस्वतीम् ।
त्रिपदा ऋषिङ्मयी पूर्वामुखी
ब्रह्मास्त्र-संज्ञिका ॥ ५३ ॥
चतुर्विंशति-तत्त्वाख्या पातु
प्राचीं दिशं मम ।
चतुष्पाद यजुर्ब्रह्म-दण्डाख्या
पातु दक्षिणाम् ॥ ५४ ॥
षट्त्रिंश-त्तत्त्व-युक्ता सा पातु
मे दक्षिणां दिशम् ।
प्रत्यङ्मुखी पञ्च-पदी
पञ्चाश-त्तत्त्वरूपिणी ॥ ५५ ॥
पातु प्रतीचीमनिशं
साम-ब्रह्मशिरोऽङ्किता ।
सौम्या ब्रह्म-स्वरूपाख्या
साथर्वाङ्गि-रसात्मिका ॥ ५६ ॥
उदीचीं षट्पदा पातु चतुः
षष्टि-कलात्मिका ।
पञ्चाश-त्तत्त्व-रचिता भवपादा
शताक्षरी ॥ ५७॥
व्योमाख्या पातु मे चोर्ध्वां दिशं
वेदाङ्ग-संस्थिता ।
विद्युन्निभा ब्रह्म-संज्ञा
मृगारूढा चतुर्भुजा ॥ ५८॥
चापेषुचर्मासिधरा पातु मे पावकीं
दिशम् ।
ब्राह्मी कुमारी गायत्री रक्ताङ्गी
हंसवाहिनी ॥ ५९ ॥
बिभ्रत्कमण्डल्वक्षस्रक्स्न्नुवान्मे(स्रक्स्त्रुवान्मे)
पातु नैऋतीम् ।
चतुर्भुजा वेदमाता शुक्लाङ्गी
वृषवाहिनी ॥ ६० ॥
वराभय-कपालाक्ष-स्रग्विणी पातु
वारुणीम् ।
श्यामा सरस्वती वृद्धा वैष्णवी
गरुडासना ॥ ६१॥
शङ्खार्य(शङ्खारा)ब्जाभयकरा पातु
शैवीं दिशं मम ।
चतुर्भुजा वेदमाता गौराङ्गी
सिंहवाहना ॥ ६२ ॥
वराभयाब्जयुगलैर्भुजैः
पात्व-धरां(परां) दिशम् ।
तत्तत्पार्श्वस्थिताः
स्वस्ववाहनायुध-भूषणाः ॥ ६३ ॥
स्वस्वदिक्षु स्थिताः पान्तु ग्रह-शक्त्यङ्ग-देवताः
।
मन्त्राधिदेवता रूपा मुद्राधिष्ठान
देवता ॥ ६४ ॥
व्यापकत्वेन
पात्वस्मानादतलमस्तकम्(पात्वस्मानापहृत्तलमस्तकी) ।
तत्पदं मे शिरः पातु भालं मे सवितुः
पदम् ॥ ६५ ॥
वरेण्यं मे दृशौ पातु
श्रुतीर्भगः(भर्गः) सदा मम ।
घ्राणं देवस्य मे पातु पातु धीमहि
मे मुखम् ॥ ६६ ॥
जिह्वां मम धियः पातु कण्ठं मे पातु
यः पदम् ।
नः पदं पातु मे स्कन्धौ भुजौ पातु
प्रचोदयात् ॥ ६७ ॥
करौ मे च पराः पातु पादौ मे
रजसोऽवतु ।
ॐ मे नाभिं सदा पातु कटिं मे पातु
मे सदा (असौ मे हृदयं पातु मम मध्यं सदावतु ) ॥ ६८ ॥
ओमापः सक्थिनी पातु गुह्यं ज्योतिः
सदा मम ।
ऊरू मम रसः पातु जानुनी अमृतं मम ॥
६९ ॥
जङ्घे ब्रह्म-पदं पातु गुल्फौ भूः
पातु मे सदा ।
पादौ मम भुवः पातु सुवः पात्वखिलं
वपुः ॥ ७०॥
रोमाणि मे महः पातु रोमकं पातु मे
जनः ।
प्राणश्च धातुतत्त्वानि तदीशः पातु
मे तपः ॥ ७१ ॥
सत्यं पातु ममायूंषि हंसो
वृद्धिं(शुद्धिं) च पातु मे ।
शुचिषत्पातु मे शुक्रं वसुः पातु
श्रियं मम ॥ ७२ ॥
मतिं पात्वन्तरिक्षे सद्धोता दानं च
पातु मे ।
वेदिषत् पातु मे विद्यामतिथिः पातु
मे गृहम् ॥ ७३ ॥
धर्मं दुरोणसत् पातु नृषत् पातु
सुतान्मम ।
वरसत् पातु मे भार्यां(माया) मृतसत्
पातु मे सुतान् ॥ ७४ ॥
व्योमसत्पातु मे बन्धून्
भ्रातॄनब्जाश्च पातु मे ।
पशून्मे पातु गोजाश्च ऋतजाः पातु मे
भुवम् ॥ ७५ ॥
सर्वं मे अद्रिजाः पातु यानं मे
पातवृतं सदा ।
अनुक्तमथ यत्स्थानं
शरीरेऽन्तर्बहिश्च यत् ॥ ७६ ॥
तत्सर्वं पातु मे नित्यं हंसः
सोऽहमहर्निशम् ।
गायत्री पञ्जर स्तोत्रम् माहात्म्य
गायत्री पञ्जर स्तोत्रम् अथवा
सावित्री पञ्जर स्तोत्रम्
इदं तु कथितं सम्यङ् मया ते
ब्रह्मपञ्जरम् ॥ ७७ ॥
सन्ध्ययोः प्रत्यहं भक्त्या जपकाले
विशेषतः ।
धारयेद्द्विजवर्यो यः श्रावयेद्धा
समाहितः ॥ ७८ ॥
स विष्णुः स शिवः सोऽहं सोऽक्षरः स
विराट् स्वराट् ।
शताक्षरात्मकं
देव्यानामाष्टाविंशतिः शतम् ॥ ७९ ॥
श्रृणु वक्ष्यामि तत्सर्वमतिगुह्यं
सनातनम् ।
हे नारद! यह मैंने अच्छी तरह
ब्रह्मपंजर बता दिया है। सायं-प्रात : दोनों समय भक्तिपूर्वक प्रतिदिन जपकाल में
विशेषरूप से इसे जो द्विज धारण करता है या दूसरों को समाहित होकर सुनाता है,
वह विष्णु, शिव, स्वयं
मैं अक्षर, विराट् तथा स्वराट् हो जाता है। सौ अक्षरों
वाले अट्टाइस सौ देवी के जो नाम हैं वे अत्यन्त गुह्य और सनातन हैं। मैं उन सभी को
तुम्हें बता रहा हूं:
भूतिदा भुवना वाणी वसुधा सुमना मही
॥ ८० ॥
हरिणि जननी नन्दा सविसर्गा तपस्विनी
।
पयस्विनी सती त्यागा वैन्दवी
सत्यवीरसा ॥ ८१ ॥
विश्वा तुर्य परा रेच्या निर्घृणी
यमिनी भवा ।
गोवेद्या च जरिष्ठा च स्कन्दिनी
धीर्मतिर्हिमा ॥ ८२ ॥
भीषणा योगिनी यक्षी नदी प्रज्ञा च
चोदिनी ।
धनिनी यामिनी पद्मा रोहिणी रमणी
ऋषिः ॥ ८३ ॥
सेनामुखी सामयी च वकुला दोष-वर्जिता
।
सर्व-काम-दुघा सोमोद्भावाहङ्कार-वर्जिता
॥ ८४ ॥
द्विपदा च चतुष्पदा त्रिपदा
चैकषट्पदा ।
अष्टापदी नवपदी सा
सहस्त्राक्षरात्मिका ॥ ८५ ॥
गायत्री पञ्जर स्तोत्र फल-श्रुति
गायत्री पञ्जर स्तोत्रम् अथवा
सावित्री पञ्जर स्तोत्रम्
इदं यः परमं गुह्यं
सावित्री-मन्त्र-पञ्जरम् ।
नामाष्ट-विंशति-शतं
श्रृणुयाच्छावयेत्पठैत् ॥ ८६ ॥
मर्त्यानाममृतत्वाय भीतानाम-भयाय च
।
मोक्षाय च मुमुक्षूणां श्रीकामानां
निये सदा ॥ ८७ ॥
जो इस परम गुह्य सावित्रीमन्त्र
पंजर को,
जिसमें अट्टाइस सौ नांम हैं: सुनता है या सुनाता है, वह मर्त्य अमरता
को प्राप्त करता है। भयभीत अभय को प्राप्त करता है। मोक्ष चाहने वाले मुक्ति को
प्राप्त करता है। लक्ष्मी चाहने वाला सदा लक्ष्मी को प्राप्त करता है।
विजयाय युयुत्सूनां
व्याधितानामरोगकृत् ।
वश्याय वश्यकामानां
विद्यायैवेदकामिनाम ॥ ८८ ॥
यह पंजर युद्ध करने वालों को विजय
देता है। रोगियों को स्वस्थ करता है। वशीकरण करने वालों को वश्यता प्रदान करता है।
जो वेद ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें यह विद्या प्रदान करता है।
द्रविणाय दरिद्राणां पापिनां
पापशान्तये ।
वादिनां वादिविजये कवीनां
कविताप्रदम् ॥ ८९ ॥
द्ररिद्रों को द्रव्य देता है।
पापियों के पाप को शान्त करता है। शास्त्रार्थियों को बाद में विजय प्रदान करता
है। कवियों के लिए कवित्य शक्ति प्रदान करता है।
अन्नाय क्षुधितानां च
स्वर्गायनाममिच्छताम् ।
पशुभ्यः पशुकामानां पुत्रेभ्यः
पुत्रकांक्षिणाम ॥ ९० ॥
भूखों को अन्न देता है। स्वर्ग
चाहने वालों को स्वर्ग देता है। पशु चाहने वालों को पशु देता है। पुत्र चाहने
वालों को पुत्र देता है।
क्लेशिनां शोकशान्त्यर्थं नृणां
शत्रुभयाय च ।
राजवश्याय दृष्टव्यं पञ्जरं
नृपसेविनाम् ॥ ९१ ॥
क्लेश पाने वालों को यह शान्ति
प्रदान करता है । इस पंजर से साधक के शत्रु को भय प्राप्त होता है। जो राज-सेवा
में लगे हैं उन्हें राजा को वश में करने के लिए इस पंजर को देखना चाहिये।
भक्त्यर्थं विष्णुभक्तानां विष्णौ
सर्वान्तरात्मनि ।
नायकं विधिसृष्टानां शान्तये भवति
ध्रुवम् ॥ ९२ ॥
यह पंजर विष्णुभक्तों को पूर्णरूप
से उनके हृदय में भक्ति प्रदान करता है। यह पंजर ब्रह्मा से निर्मित समस्त संसार
का नायक है और सबको शान्ति प्रदान करता है।
निः स्पृहाणां नृणां मुक्तिः
शाश्वती भवति ध्रुवम् ।
जप्यं त्रिवर्ण-संयुक्तं गृहस्थेन
विशेषतः ॥ ९३ ॥
मुनीनां ज्ञानसिद्धयर्थं यतीनां मोक्षसिद्धये
।
निस्पृह लोगों की निश्चितरूप से
शाश्वत मुक्ति होती है; विशेषरूप से गृहस्थ
को चाहिये कि वह त्रिवर्ग सहित इसका जप करे । मुनियों को ज्ञान की सिद्धि के लिए
तथा यतियों को मोक्ष प्राप्ति के लिए इसका जप करना चाहिये ।
उद्यन्तं चन्द्र-किरणमुपस्थाय
कृताञ्जलिः ॥ ९४ ॥
कानने वा स्वभवने तिष्ठञ्छुद्धो
जपेदिदम् ।
साधक को चन्द्रमा के उदय होने पर
हाथ जोड़ कर वन में या अपने घर पर शुद्ध होकर इसका जप करना चाहिये।
सर्वान्कामानवाप्नोति तथैव
शिवसन्निधौ ॥ ९५ ॥
मम प्रीतिकरं दिव्यं विष्णु-भक्ति-विवर्द्धनम्
।
वह उसी प्रकार से सभी कामनाओं की
सिद्धि प्राप्त करता है जैसे शिव के निकट भगवान् विष्णु की भक्ति को बढ़ाने वाला
यह दिव्य पंजर मुझे बहुत प्रिय है।
ज्वरार्त्तानां कुशाग्रेण
मार्जयेत्कुष्ठरोगिणाम् ॥ ९६ ॥
अमङ्गमङ्गं यथालिङ्गं कवचेन तु साधक:
।
मण्डलेन विशुद्ध्येत् सर्वरोगैनै
संशय ॥ ९७ ॥
साधक ज्वर रोगियों को तथा कुष्ठ
रोगियों को कुशा के अग्रभाग से विधि के अनुसार कवच से प्रत्येक अङ्ग का ४९ दिन से
मार्जन करे। इससे पुराने रोगी शुद्ध होकर सब रोगों से मुक्त हो जाते हैं।
मृतप्रजा च या नारी जन्मवन्ध्या
तथैव च ।
कन्यादिवन्ध्या या नारी तासामङ्गं
प्रमार्जयेत् ॥ ९८ ॥
पुत्रानरोगिणस्तास्तु लभन्ते
दीर्घजीविनः ।
तास्ताः संवत्सरादर्वाग्गर्भन्तु
दधिरे पुनः ॥ ९९ ॥
जिस स्त्री के बच्चे होकर मर जाते
हैं या जिसे बच्चे होते ही नहीं, जो जन्म से ही
वंध्या है या जो केवल कन्या ही जन्म देती है ऐसी स्त्रियों के अङ्गों का मार्जन
करने से उन स्त्रियों को नीरोग और दीर्घजीवी पुत्र प्राप्त होते हैं। ऐसी
स्त्रियाँ एक वर्ष के अन्दर गर्भ धारण करती हैं।
पतिविद्वेषिणी या स्त्री अङ्गं
तस्याः प्रमार्जयेत् ।
तमेव भजते सा स्त्री पतिं कामवश
नयेत् ॥ १०० ॥
जो स्त्री पति से विरोध रखती है
उसके अङ्गों का मार्जन करने से वह स्त्री उस पति के वश में होकर उसे ही चाहने लगती
है।
अश्वत्थे राजवश्यार्थं बिल्वमूले
स्वरूपभाक् ।
पलाशमूले विद्यार्थी तेजसाभिमुखो
रवौ ॥ १०१ ॥
राजा को वश में करने के लिए पीपल या
बेल के वृक्ष के नीचे जप करना चाहिये। विद्या प्राप्त के लिए पलाश वृक्ष के नीचे
जप करना चाहिये। तेज प्राप्ति के लिए सूर्य के सम्मुख जप करना चाहिये।
कन्यार्थी चण्डिकागेहे जपेच्छत्रुभयाय
च ।
श्रीकामो विष्णुगेहे च उद्याने
श्रीवशी भवेत् ॥ १०२ ॥
कन्या प्राप्ति के लिए और शत्रु को
भय देने के लिए चण्डिका के मन्दिर में जप करना चाहिये । लक्ष्मी की प्राप्ति के
लिए विष्णु के मन्दिर में तथा बगीचे में जप करने से लक्ष्मी को वश में किया जा
सकता है।
आरोग्यार्थे स्वगेहे व मोक्षार्थी
शैलमस्तके ।
सर्वकामो विष्णुगेहे मोक्षार्थी
यत्र कुत्रचित् ॥ १०३ ॥
आरोग्यप्राप्ति के लिए अपने घर में
तथा मोक्षप्राप्ति के लिए पर्वत पर जप करना चाहिये। समस्त कामनाओं की सिद्धि के
लिए विष्णुमन्दिर में तथा मोक्षप्राप्ति के लिए कहीं 'भी जप करना फलदायक है।
जपारम्भे तु हृदयं जपान्ते कवचं
पठेत् ।
किमत्र बहुनोक्तेन श्रृणु नारद
तत्त्वतः ।
यं यं चिन्तयते नित्यं तं तं
प्राप्नोति निश्चितम् ॥ १०४ ॥
जप के आरम्भ में देवता का हृदय-स्तोत्र
तथा जप के अन्त में कवच का पाठ करना चाहिये। हे नारद! अधिक कहने से क्या
लाभ इस जप से मनुष्य जो कुछ सोचता है, उसे
वह अवश्य प्राप्त करता है।
॥इति श्रीमद् वसिष्ठ संहितायां ब्रह्म-नारद संवादे श्रीमद् गायत्री पञ्जर स्तोत्रम् अथवा सावित्री पञ्जर स्तोत्रं ॥
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