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कर्मकाण्ड

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दुर्गा कवच

दुर्गा कवच 

यह दुर्गा कवच सिद्धिकारक है । इसके नित्य पाठ करने पर शीघ्र सिद्धि लाभ होता और सद्गति की प्राप्ति होती है। इसका पाठ साधक कहीं भी मूल में, दल में, फल में, अनल में अथवा अनिल में एवं जल में, शुद्ध काल (समय) में, मन में अथवा परम भक्ति-युक्त होकर शून्यागार में, श्मशान में, कामरूप में, महाघट में, निज स्त्री के मन्दिर में अथवा काममन्दिर में, महा उत्पात में, महान् दुःख में, महाविपत्ति में, एवं संकटकाल में इस कवच का पाठ करें ।

श्रीदुर्गाकवचम्

श्रीदुर्गाकवचम् 

श्रीदेव्युवाच -

पुरा श्रुतं महादेव ! शवसाधनमेव च ।

श्मशान-साधनं नाथ ! श्रुतं परममादरात् ॥ १॥

श्री देवी ने कहा हे महादेव ! पहले शवसाधन को मैंने सुना है । हे नाथ ! आदर के साथ श्रेष्ठ श्मशान-साधन को भी मैंने सुना है ।

न स्त्रोतं कवचं नाथ ! श्रुतं न शवसाधने ।

कवचेन महादेव ! स्त्रोत्रेणैव च शङ्कर ! ।

कथं सिद्धिर्भवेद् देव ! क्षिप्रं तद् ब्रूहि साम्प्रतम् ॥ २॥

हे नाथ ! शवसाधन (प्रकरण) में मैंने स्तोत्र नहीं सुना है, कवच भी नहीं सुना है। हे महादेव! हे देव ! हे शङ्कर ! कवच के द्वारा एवं स्तोत्र के द्वारा किस प्रकार सिद्धि प्राप्त होती है, सम्प्रति इसे शीघ्र बतावें ।

शिव उवाच -

श्रृणु देवि! वरारोहे ! दुर्गे ! परमसुन्दरि ! ।

सिद्ध्यर्थे विनियोगः स्यात् शङ्करस्य नियन्त्रणात् ॥ ३॥

श्री शिव ने कहा - हे वरारोहे ! हे परम-सुन्दरि ! हे दुर्गे, सुनें । शङ्कर के शासन (उपदेश) के अनुसार सिद्धिलाभ के लिए कवच का प्रयोग किया जाता है ।

श्रीदुर्गा कवचम् 

अथ दुर्गाकवचम् ।

सिद्धिं सिद्धेश्वरी पातु मस्तकं पातु कालिका ।

कपालं कामिनी भालं पातु नेत्रं नगेश्वरी ॥ ४॥

सिद्धेश्वरी सिद्धि की रक्षा करें । कालिका मस्तक की रक्षा करें । कामिनी कपाल एवं ललाट की रक्षा करें । नगेश्वरी नेत्र की रक्षा करें ।         

कर्णौ विश्वेश्वरी पातु हृदयं जगदम्बिका ।

काली सदा पातु मुखं जिह्वां नील-सरस्वती ॥ ५॥

विश्वेश्वरी दोनों कर्णों की रक्षा करें । जगदम्बिका हृदय की रक्षा करें । काली सर्वदा मुख की रक्षा करें। नील सरस्वती जिह्वा की रक्षा करें ।

करौ कराल-वदना पातु नित्यं सुरेश्वरी ।

दन्तं गुह्यं नखं नाभिं पातु नित्यं हिमात्मजा ॥ ६॥

करालवदना सुरेश्वरी दोनों हाथों की सर्वदा रक्षा करें । हिमात्मजा दन्त, गुह्य, नाभि एवं नखों की नित्य रक्षा करें ।

नारायणी कपोलञ्च गण्डागण्डं सदैव तु ।

केशं में भद्रकाली च दुर्गा पातु सुरेश्वरी ॥ ७॥

नारायणी कपोल एवं गण्डद्वय की सर्वदा रक्षा करें । सुरेश्वरी भद्रकाली दुर्गा केश की रक्षा करें ।

पुत्रान् रक्षतु मे चण्डी धनं पातु धनेश्वरी ।

स्तनौ विश्वेश्वरी पातु सर्वाङ्गं जगदीश्वरी ॥ ८॥

चण्डी मेरे पुत्रों की रक्षा करें । धनेश्वरी धन की रक्षा करें। विश्वेश्वरी स्तनद्वय की रक्षा करें । जगदीश्वरी सर्वाङ्ग की रक्षा करें ।

उग्रतारा सदा पातु महानील-सरस्वती ।

पातु जिह्वां महामाया पृष्ठं में जगदम्बिका ॥ ९॥

उग्रतारा महानील सरस्वती सर्वदा मेरी रक्षा करें । महामाया जिह्वा की रक्षा करें । जगदम्बिका पृष्ठ की रक्षा करें ।

हरप्रिया पातु नित्यं श्मशाने जगदीश्वरी ।

सर्वान् पातु च सर्वाणी सदा रक्षतु चण्डिका ॥ १०॥

जगदीश्वरी हरप्रिया श्मशान में सर्वदा मेरी रक्षा करें। सर्वाणी सभी की रक्षा करें । चण्डिका मेरी सर्वदा रक्षा करें।

कात्यायनी कुलं पातु सदा च शववाहिनी ।

घोरदंष्ट्रा करालास्या पार्वती पातु सर्वदा ॥ ११॥

शववाहिनी कात्यायनी सर्वदा कुल की रक्षा करें । घोरदंष्ट्रा करालास्या पार्वती सर्वदा रक्षा करें ।

कमला पातु बाह्यं मे मन्त्रं मन्त्रेश्वरी तथा ।

इत्येवं कवचं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥ १२॥

कमला मेरे बाह्यदेश की रक्षा करें । मन्त्रेश्वरी मेरे मन्त्र की रक्षा करें । हे देवि ! इस प्रकार यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है ।

श्रीदुर्गाकवचम् फलश्रुति  

यः पठेत् सततं भक्त्या सिद्धिमाप्नोति निश्चितम् ।

सिद्धिकाले समुत्पन्ने कवचं प्रपठेत् सुधीः ॥ १३॥

जो सर्वदा भक्ति के साथ इस कवच का पाठ करता है, वह निश्चय ही सिद्धिलाभ करता है । सुधी व्यक्ति सिद्धिकाल उत्पन्न होने पर कवच का पाठ करें ।

अज्ञात्वा कवचं देवि ! यश्च सिद्धिमुपक्रमः ।

स च सिद्धिं न वाप्नोति न मुक्तिं न च सद्गतिम् ॥ १४॥

हे देवि ! इस कवच को न जानकर जो सिद्धि लाभ के लिए प्रयत्न करता है, वह सिद्धि लाभ नहीं करता है, मुक्ति को भी प्राप्त नहीं करता, सद्गति का लाभ भी नहीं करता है ।

अतएव महामाये ! कवचं सिद्धिकारकम् ।

देवानाञ्च नराणाञ्च किन्नराणाञ्च दुर्लभम् ।

पठित्वा कवचं चण्डि ! शीघ्र सिद्धिमवाप्नुयात् ॥ १५॥

हे महामाये ! इसलिए यह कवच सिद्धिकारक है । वह (कवच) देवगण, मनुष्यगण एवं किन्नरगण के लिए भी दुर्लभ है । हे चण्डि ! कवच का पाठ करने पर शीघ्र सिद्धि लाभ करता है ।

महोत्पाते महादुःखे महाविपदि सङ्कटे ।

प्रपठेत् कवचं देवि ! पठित्वा मोक्षमाप्नुयात् ॥ १६॥

हे देवि ! महा उत्पात में, महान् दुःख में, महाविपत्ति में, एवं संकटकाल में इस कवच का पाठ करें । इस कवच का पाठ करने से मोक्षलाभ किया जा सकता है ।

शून्यागारे श्मशाने ना कामरूपे कामरूपे महाघटे ।

स्ववामा-मन्दिरे कालेऽप्यथवा काममन्दिरे ।

मन्त्री मन्त्रं जपेद् बुद्ध्या भक्त्या परमया युतः ॥ १७॥

मन्त्री विहितकाल (=बताये गये समय) में परम भक्ति-युक्त होकर शून्यागार में, श्मशान में, कामरूप में, महाघट में, निज स्त्री के मन्दिर में अथवा काममन्दिर में ज्ञानपूर्वक मन्त्र जप करें ।

मूले दले फले वाप्यनले कालेऽनिलेऽनले ।

जले पठेत् प्राणबुद्ध्या मनसा साधकोत्तमः ॥ १८॥

साधकोत्तम मूल में, दल में, फल में, अनल में अथवा अनिल में एवं जल में, शुद्ध काल (= समय) में, प्राण-बुद्धि से ('प्राण'-ऐसा समझकर) मन के द्वारा जप करें ।

इति श्रीमुण्डमालातन्त्रे षष्ठं पटलान्तर्गतं दुर्गाकवचं सम्पूर्णम् ।

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