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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रूद्रयामल तृतीय पटल
रुद्रयामल तृतीय पटल में दीक्षाक्रम
में चक्र विचार वर्णित है। भगवती आनन्द भैरवी के द्वारा कालाकाल का विचार करने
वाले विभिन्न चक्रों का वर्णन है। यहाँ अकडम चक्र(१७--२४),
पद्माकार अष्टदल महाचक्र(२४-३३), कुलाकुल चक्र
(३३-३९), तारा चक्र (४०--६१), राशिचक्र
(६२--७२), कूर्मचक्र (७३-८४), शिवचक्र और
गणना विचार (८५--११४), विष्णु चक्र और उसकी गणना (११४-१४५)
वर्णित है।
रूद्रयामलम् तृतीय पटल
रूद्रयामलम् तृतीय: पटल:
रुद्रयामल तंत्र पटल ३
रूद्रयामलम्
(उत्तरतन्त्रम्)
तृतीयः पटलः - दीक्षायां चक्रविचारः
दीक्षायां सर्वचक्रानुष्ठानम्
तंत्र
शास्त्ररूद्रयामल
दीक्षा चक्रविचार
दीक्षायां चक्रविचारः
अथ रूद्रयामल तृतीय पटल
भैरवी उवाच
अथ चक्रं प्रवक्ष्यामि
कालाकालविचारकम् ।
यदाश्रितो महवीरो दीव्यो वा
पशुभाववान् ॥१॥
दीक्षायां
चक्रविचारः
चक्राराजं प्रविचार्य सिद्धमन्त्रं
न चालयेत् ।
प्रबलस्य प्रचण्डस्य प्रासादस्य
महामनोः ॥२॥
श्रीभैरवी ने कहा --- अब काल और
अकाल के विचार वाले चक्रों को कहूँगी जिसका आश्रय लेने से वीर,
दिव्य अथवा पशुभाव की सिद्धि होती है । चक्रराज का विचार कर प्रबल,
प्रचण्ड और प्रसाद गुण महामन्त्र के सिद्ध मन्त्र को इधर उधर नहीं
करना चाहिए ॥१ - २॥
शक्तिकूटादिमन्त्राणां
सिद्धादीन्नैव शोधयेत् ।
वराहार्कनृसिंहास्य तथा
पञ्चाक्षरस्य च ॥३॥
महामन्त्रस्य कालस्य चन्द्रचूडस्य
सन्मनोः ।
नपुंसकस्य मन्त्रस्य सिद्धादीन्नैव
शोधयेत् ॥४॥
शक्ति कूटादि मन्त्रों को सिद्धादि
प्रक्रिया से शोधन नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार वराह,
सूर्य, नृसिंह
तथा पञ्चाक्षर ( नमः शिवाय ) चन्द्रचूड काल का महामन्त्र ( महामृत्युञ्जय
मन्त्र ) का तथा नपुंसक मन्त्रों ( जिसके अन्त में ’ हुं ’ तथा ’ नमः ’ पद का प्रयोग हो वह नपुंसक मन्त्र है ) के भी सिद्धादि प्रक्रिया द्वारा
शोधन की आवश्यकता नहीं है ॥३ - ४॥
विंशत्यर्णाधिका मन्त्रा
मालामन्त्राः प्रकीर्तिताः ।
सूर्यमन्त्रस्य योगस्य
कृत्यामन्त्रस्य शङ्कर ॥५॥
शंभूबीजस्य देवस्य सिद्धादीन्नैव
शोधयेत् ।
चक्रेश्वरस्य चंन्द्रस्य वरुणस्य
महामनोः ॥६॥
कालीतारादिमन्त्रस्य सिद्धादीन्नैव
शोधयेत् ।
तथापि शोधयेन्मंत्र प्रशंसापरमेव
तत् ॥७॥
२० अक्षरों से अधिक अक्षर वाले
मन्त्र माला मन्त्र कहे जाते हैं । उन मन्त्रों का,
सूर्य के मन्त्र का, योग के मन्त्र का, कृत्या मन्त्रों का, शिव के बीजमन्त्र का तथा देव ( श्रीविष्णु
) के मन्त्र का सिद्धादि प्रक्रिया से शोधन नहीं करना चाहिए । चक्रेश्वर, चन्द्रमा, वरुण के
महामन्त्र का तथा काली और तारा के मन्त्रों का भी सिद्धादि
प्रक्रिया से शोधन नहीं करना चाहिए । फिर भी यदि इन मन्त्रों का शोधन किया जाय तो
वह प्रशंसा की बात है ॥५-७॥
यत्र प्रशंसापरमं तत्कार्यं दैवतं
स्मृतम् ।
प्रशंसा यत्र नास्त्येव तत्कार्यं
नापि कारयेत ॥८॥
अत्यन्तफलदं मन्त्रं गृहणीयात्
कुलरक्षणात् ।
धनिमन्त्रं न गृहणीयाद् अकूलञ्च
तथैव च ॥९॥
जो मन्त्र शोधन करने पर प्रशंसास्पद
हों उस कार्य को करने की बात तो दूर उसे किसी से करवाना भी नहीं चाहिए । अत्यन्त
फल देने वाला मन्त्र ग्रहण करना चाहिए कारण कि उससे कुल की रक्षा होती है ,
धनी, मन्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए । इसी
प्रकार अकुल मन्त्र भी ग्रहण न करे ॥८ - ९॥
गृहीत्वा निधनं याति कोटिजाप्येन सिद्धयति
।
मननं विश्ववविज्ञानं त्राणं
संसारबन्धनात् ॥१०॥
यतः करोति संसिद्धौ मन्त्र
इत्यभिधीयते ।
इन मन्त्रों के ग्रहण करने से
मनुष्य की मृत्यु होती है और करोड़ों की संख्या में जप करने से उसकी सिद्धि होती
है। ’मन्त्र’ शब्द में म का अर्थ ’मनन’
है, जिसका अर्थ विश्व विज्ञान है और ’त्र’ का अर्थ संसार रुप बन्धन से त्राण है । क्योंकि
मन्त्र सिद्ध हो जाने पर संसार का ज्ञान कराता है तथा संसार बन्धन से रक्षा करता
है इस कारण उसे मन्त्र कहा जाता है ॥१० - ११॥
प्रणवाद्यं न दातव्यं मन्त्रं
शूद्राय सर्वथा ॥११॥
आत्ममन्त्रं गुरोर्मन्त्रं मन्त्र
चानपसंज्ञकम् ।
पितुर्मन्त्रं तथा
मातुर्मन्त्रसिद्धिप्रदं शुभम् ॥१२॥
जिस मन्त्र के आदि में प्रणव ( ॐ )
हो वह मन्त्र शूद्र को कदापि प्रदान न करे । आत्म मन्त्र,
गुरुमन्त्र, अपसंज्ञा से विहीन अर्थात्
शुद्धमन्त्र, पितृमन्त्र और मातृमन्त्र सिद्धि प्रदान करता
है और कल्याणकारी भी है ॥११ - १२॥
शूद्रो निरयमाप्नोति ब्राह्मणो
यात्यधोगतिम।
अदीक्षिता ये कुर्वन्ति जपपूजादिकाः
क्रियाः ॥१३॥
न भवन्ति श्रिये तेषां
शिलायामुप्तजीवत् ।
देवीदीक्षाविहीनस्य
न सिद्धिर्न च सद्गतिः ॥१४॥
दीक्षा
--- बिना दीक्षा लिए ही जो मनुष्य जप - पूजादि अनुष्ठान करते हैं,
उनमें अदीक्षित शूद्र को नरक की प्राप्ति होती है और अदीक्षित
ब्राह्मण की अधोगति होती है । बिना दीक्षा लिए मन्त्र का प्रयोग जो लोग करते हैं
वे मन्त्र उन्हें कोई फल नहीं देते जिस प्रकार शिला पर बोया गया बीज फलदायी नहीं
होता । देवी की दीक्षा से विहीन पुरुष को न सिद्धि प्राप्त होती है और न उसकी सद्गति
ही होती है ॥१३ - १४॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरुणा
दीक्षितो भवेत् ।
विचारं चक्रसारस्य करणीयवश्यकम्
॥१५॥
अदीक्षातोऽपि मरणे रौरवं नरकं
व्रजेत् ।
तस्माद्दीक्षा प्रयत्नेन सदा कार्या
च तान्त्रिकात् ॥१६॥
इसलिए हर संभव प्रयासों से साधक को गुरु
से दीक्षा लेनी चाहिए । दीक्षा लेने के समय दीक्षा वाले मन्त्र का (अकडमादि)
चक्रसार द्वारा आवश्यक विचार कर लेना चाहिए । जो दीक्षा नहीं ग्रहण करता,
मर जाने पर उसे रौरव नरक की प्राप्ति होती है । इसलिए
प्रयत्नपूर्वक तान्त्रिक द्वारा दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए ॥१५ - १६॥
रूद्रयामल तन्त्र तृतीय पटल -
अकडमचक्र
तृतीयः पटलः - अकडमचक्रम्
दीक्षापूर्वदिने कुर्यात् सुविचारं
प्रयत्नतः ।
तत्प्रकारं प्रयत्नेन कार्यं
पर्वतपूजित ॥१७॥
आदावकडवे सिद्धिर्मन्त्रं
सञ्चारयेद् बुधः ।
रेखाद्वयं पूर्वपरे मध्ये रेखाद्वयं
लिखित् ॥१८॥
चतुष्कोणे चतूरेखाकडमं चक्रमण्डकलम्
।
भ्रामयित्वा महावृत्तं निर्माय
वर्णमालिखेत् ॥१९॥
दीक्षा लेने से प्रथम दिन साधक को
प्रयत्नपूर्वक विचार करना चाहिए । हे पर्वतपूजित ! ( कैलाशवासिन् ) फिर उस
प्रकार के प्रयत्न से साधक को दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए । बुद्धिमान् को चाहिए कि
दीक्षा वाले मन्त्र को प्रथम अकडम चक्र पर परीक्षित कर लेवे । उस अकडम चक्र को
बनाने की विधि इस प्रकार है -
पूर्व से पश्चिम तथा दक्षिण से
उत्तर दो दो रेखा बनाकर चतुर्भुज निर्माण कर उसमें भी मध्य में पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण दो दो रेखा खींचे । फिर उस
चतुर्भुज के प्रत्येक चारों कोनों से घुमाकर महावृत्त रूप ’अकडम’ चक्र की रचना करे और उनमें वर्णों का लेखन करे
॥१७ - १९॥
अकारादिक्षकारान्तान् क्लीबहीनान्
लिखेत्ततः ।
एकैकमतो लेख्यान मेषादिषु (वृषा?)
मीनान्तकान् ॥२०॥
वामावर्तेन गणयेत् क्रमशो वीरवल्लभ
।
तन्त्रमार्गेण
गणयेन्नामादिवर्णाकादिमान् ॥२१॥
क्लीव वर्णों ( ऋ ॠ लृ ॡ ) को छोड़कर
अकार से ले कर क्षकारान्त वर्णों को उन कोष्ठकों में बारी बारी से लिखना चाहिए ।
इसी प्रकार, हे वीरवल्लभ ! उन कोष्ठों में
मेष मीन आदि राशियों को वामावर्त से ( वृष ? ) मीन पर्यन्त
लिखना चाहिए । फिर तन्त्र की रीति से साधक के आदि अक्षर वाले नाम से कोष्ठक में
आये मन्त्र के आदि वर्णों से गणना करनी चाहिए ॥२१॥
मेषादितोऽपि मीनान्तं क्रमशः
शास्त्रपण्डितः ।
सिद्धसाध्यसुसिद्धादीन् पुनः
सिद्धादयः पुनः ॥२२॥
नवैकपञ्चमे सिद्धः साध्यः षड्दशयुग्मके
।
सुसिद्धस्त्रिसप्तके रुद्रे
वेदाष्टद्वादशे रिपुः ॥२३॥
इसी प्रकार तन्त्रशास्त्र का
विद्वान क्रमशः ( नाम के आदि अक्षर से ) मेषादि से मीनान्त राशियों में भी पुनः
गणना करे । ऐसा करने पर सिद्ध, साध्य,
सुसिद्ध तथा शत्रु रुप फल जानना चाहिए । इसी प्रकार पुनः सिद्धादि
फलों को १२ कोष्ठ पर्यन्त परीक्षित करना चाहिए । निष्कर्ष यह है कि - ( १ ) नाम का
आद्य अक्षर यदि १ , ५ . ९ कोष्ठक में मिले तो साध्य और
मन्त्र के आदि अक्षरों से मिले तो सिद्ध, ( २ ) २ , ६ , १० कोष्ठक में मिले तो साध्य ( ३ ) ३ , ७ , ११ , में मिले तो सुसिद्ध
तथा ( ४ ) ४ , ८ , १२ , वें कोष्ठ में मिले तो शत्रु योग समझना चाहिए । इसी प्रकार नामाक्षर की
राशि मन्त्राक्षर के मेषादि राशियों से लेकर मीनान्त गणना करे । उसका फल भी
उपर्युक्त रीति से समझ लेना चाहिए ॥२२ - २३॥
एतत्ते कथितं नाथ अकडमादिकमुत्तमम्
।
हे नाथ ! इस प्रकार हमने अकडमादि
चक्र में ( परीक्षित मन्त्र का फल ) कहा--अब अन्य चक्रों की परीक्षा विधि सुनिए ॥
२४ ॥
रूद्रयामलम् तंत्र तृतीयः पटलः - पद्माकार
अष्टदल महाचक्रम्
रूद्रयामल तंत्र पटल ३ - पद्माकार अष्टदल महाचक्र
पद्माकारं महाचक्रं
दलाष्टकसमन्वितम् ॥२४॥
अ आ वर्णद्वय पूर्वे द्वितीये च
द्वितीयकम् ।
तृतीये कर्णयुग्मञ्च चतुर्थे
नासिकाद्वयम् ॥२५॥
पञ्चमे नयनं प्रोक्तं षष्ठे
ओष्ठाधरं तथा ।
सप्तमे दन्तयुग्मञ्च अष्टमे
षोडशस्वरम् ॥२६॥
कवर्गञ्च पूर्वदले द्वितीये च
चवर्गकम् ।
तृतीये च टवर्गञ्च चतुर्थे च
तवर्गकम् ॥२७॥
पवर्गं पञ्चमे प्रोक्तं यवान्तं
षष्ठपत्रके ।
सप्तमे शषसान् लिख्य (ल?)
हक्षमष्टमके पदे ॥२८॥
पहले ८ दलों वाला पद्माकार महाचक्र
का निर्माण करें । पूर्वपत्र पर ’ अ आ ’ वर्ण लिखे , द्वितीय पत्र पर द्वितीय ’ इ ई ’ लिखे , तृतीय पत्र पर
कर्णयुग्म ’ उ ऊ ’, चतुर्थ पत्र पर
नासिकाद्वय ’ ऋ ॠ ’, पञ्चम पर नयन ’
लृ ॡ ’, षष्ठ पर ओष्ठाधर ’ ए ऐ ’, सप्तम पर दन्तयुग्म ’ ओ
औ ’ तथा अष्टम पत्र पर षोडश ’ अं अः ’
स्वरों को लिखे । इसी प्रकार पूर्वदल पर क वर्ग , द्वितीय दल पर च वर्ग , तृतीय पर ट वर्ग , चतुर्थ पर त वर्ग , पञ्चम पर प वर्ग , षष्ठ पर य र ल व , सप्तम पत्र पर श ष स और अष्टम पर
ह क्ष - इन व्यञ्जनों को भी लिखें ॥२४ - २८॥
सुखं राज्यं धनं विद्यां
यौवनायुशमेव च ।
विचार्य चक्रमाप्नोति पुत्रत्त्वञ्च
स्वजीवनम् ॥२९॥
स्वीय - नामाक्षरं तत्र
देवनामाक्षरं तथा ।
एकस्थान युगस्थान विरोध द्विविधं
स्मृतम् ॥३०॥
पद्ममहाचक्र का फल
--- सुख राज्य , धन विद्या , यौवन , आयुष्य , पुत्र और
दीर्घजीवन ये ८ फल उस चक्र पर विचार करने से प्राप्त होते हैं । उसमें यदि साधक के
अपने नाम का अक्षर और मन्त्र के नाम का अक्षर यदि दोनों एक स्थान में अथवा दूसरे
स्थान में मिल जायँ तो ये दो स्थान तन्त्रशास्त्र के विद्वानों द्वारा विरोध वाले
कहे गये है ॥२९ - ३०॥
जीवनं मरणं तत्र अकारादिसु पत्रके ।
लिखित्वा गणयेन्मन्त्री मरणं
वर्जयेत् सदा ॥३१॥
इसलिए प्रथम ’
अ आ ’ वाले प्रथम पत्र में जीवन और मरण दोनों
का विचार किया जाता है । मन्त्रि साधक इसे लिखकर गणना करे और सदैव मरण का वर्जन
करे ॥३१॥
विमर्श
--- इस प्रकार आठ दलों में आठ स्वरों और ३४ व्यञ्जनों को लिखकर साधक नाम के आद्य
अक्षर से परीक्षा करे । मरण फल वाले मन्त्र का सर्वदा परित्याग करे ।
यत्रास्ति मरणं तत्र जीवनं जास्ति
निश्चितम् ।
परस्परविरोधेन सिद्धमन्त्रञ्च मूलदम
॥३२॥
जीवने जीवनं ग्राह्यं सर्वत्र मरणं
त्यजेत् ।
यह बात निश्चित है कि जहाँ मरण है
वहाँ जीवन रह नहीं सकता । क्योंकि दोनों का परस्पर विरोध है,
अतः सिद्धिप्राप्ति के लिए ग्रहण किए जाने वाले मन्त्र फलदायी होना
चाहिए । यदि परीक्षित मन्त्र का फल जीवन है तो उस जीवन वाले मन्त्र को अवश्य ग्रहण
करना चाहिए और मरण फल वाले मन्त्र का सदैव त्याग करना चाहिए ॥३२ - ३३॥
यहाँ तक दूसरी परीक्षा विधि हुई ।
अब मन्त्र परीक्षण की तीसरी विधि कहते हैं –
रूद्रयामल तन्त्र तृतीय पटल -
कुलाकुलचक्र
रूद्रयामलम् तृतीयः पटलः -
कुलाकुलचक्रम्
कुलाकुलस्य भेदं हि वक्ष्यामि मन्त्रिणामिह ॥३३॥
वाय्वग्निभूजलाकाशाः पञ्चाशल्लिनपयः
क्रमात् ।
पञ्चह्रस्वाः पञ्चदीर्घाः
बिन्द्वन्ताः सन्धिसम्भवाः ॥३४
कादयः पञ्चशः (षक्ष)यादिलसहक्षन्ताः
प्रकीर्तिताः ।
अब साधकों के लिए कुलाकुल का भेद
कहता हूँ यतः सृष्टि पाञ्चभौतिक है, इसलिए
५० वर्ण भी वायु, अग्नि, भू, जल और आकाश रूप से पञ्चतत्त्वात्मक ही हैं । उन ५० वर्णों की संख्या इस
प्रकार है - पाँच ह्स्व, पाँच दीर्घ, बिन्दु
अन्त वाले दो ( अं अः ) और सन्धि से युक्त चार ( ए ऐ ओ औ ), इस
प्रकार कुल १६ स्वर हैं । ककारादि ५ वर्ग में कुल २५ , य र ल
व श ष स ह और क्ष - इस प्रकार कुल मिलाकर ये ५० वर्ण हैं ॥३३ - ३५॥
साधकस्याक्षरं पूर्वं मन्त्रस्यापि
तदक्षरम् ॥३५॥
यद्येकभूतदैवस्यं जानीयात्सकुलं
हितम् ।
कुलाकुल फलविचार
- साधक के नाम का आद्य अक्षर तथा मन्त्र का आद्याक्षर यदि एक ही ( भूत एवं देवता
वाला ) हो तो उस मन्त्र को सकुल और हितकारी जानना चाहिए ॥३५ - ३६॥
भौमस्य वारुणं मित्रमाग्नेयस्यापि
मारुतम् ॥३६॥
पार्थिवाणाञ्च सर्वेषां
शत्रुराग्नेयम्भसाम् ।
ऐन्द्र्वारुणयोः शत्रुर्मारुतः
परिकीर्तितः ॥३७॥
पृथ्वी तत्त्व वाले वर्णों के जल
तत्त्व वाले वर्ण मित्र हैं, अग्नि तत्त्व
वाले वर्णों के वायु तत्त्वात्मक वर्ण मित्र हैं, सभी
पार्थिव तत्त्व तथा जल तत्त्व वाले वर्णों के अग्नि तत्त्व वाले वर्ण शत्रु हैं
तथा आकाशीय एवं जल तत्त्व वाले वर्णों के वायु तत्त्व वाले वर्ण शत्रु कहे गये हैं
॥३६ - ३७॥
पार्थिवे वारुणं मित्रं तैजसं
शत्रुरीरितः ।
नाभसं सर्वमित्रं स्याद्विरुद्धं
नैव शीलयेत् ॥३८॥
रेखाष्टकं हि पूर्वाग्रं
रेखैकादशमध्यत ।
पार्थिव तत्त्वों के जल तत्त्व वाले
वर्ण मित्र तथा तैजस तत्त्व वाले वर्ण शत्रु कहे गये हैं । किन्तु आकाश तत्त्व
वाले वर्ण सभी तत्त्वों के मित्र होते हैं । उनमें विरोध की कल्पना नहीं करनी
चाहिए । दक्षिणोत्तर के क्रम से दक्षिण दिशा पर्यन्त ११ रेखा का निर्माण करे ।
उसके मध्य में ८ रेखा पूर्व से पश्चिम की ओर लिखे ॥३८ - ३९॥
यहाँ तक हमने कुलाकुल चक्र कहा ।
रूद्रयामलम् तृतीयः पटलः - ताराचक्रम्
रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र पटल ३ -
ताराचक्र
दक्षिणोत्तरभागेन
दक्षिणावधिमालिखेत् ॥३९॥
कुलाकुलञ्च कथितं ताराचक्रं पुनः
श्रृणु ।
दक्षिणोत्तरदेशे तु रेखाचतुष्ठयं
लिखेत् ॥४०॥
दशरेखाः पश्चिमाग्राः कर्तव्याः
वीरवन्दित ।
अश्विन्यादिक्रमेणैव विलिखेत्तारकाः
पुनः ॥४१॥
अब तारा चक्र के निर्माण का प्रकार
सुनिए - दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर चार रेखा तथा हे वीरवन्दित ! पूर्व से पश्चिम
दश रेखा का निर्माण करना चाहिए । इस प्रकार कुल तीन पंक्तियों मे बने २७ कोष्ठकों
में अश्विन्यादि के क्रम से २७ नक्षत्र के नाम लिखना चाहिए ॥३९ - ४१॥
वक्ष्यमाणक्रमेणैव नन्मध्ये
वर्णकान् लिखेत् ।
युग्ममेकं तृतीयञ्च
वेदमेकैकयुग्मकम् ॥४२॥
एकयुग्मं तथैकञ्च युगलं युगलं युगम्
।
एकं युग्मं तृतीयञ्च चन्द्रनेत्रं
विविधं विधुम् ॥४३॥
चन्द्रयुग्मं चन्द्रयुग्मं रामवेदं
गृहे शुभे ।
वर्णाः
क्रमाः स्वराण्येव रेवत्यश्विगतावुभौ ॥४४॥
तदनन्तर वक्ष्यमाण क्रम से उनमें
वर्णों को इस प्रकार लिखे - अश्विनी में ’ अ
आ ’ दो वर्ण , भरणी में ’ इ ’ एक वर्ण , कृर्त्तिका में ’
ई उ ऊ ’ तीन वर्ण , रोहिणी
में ’ ऋ ॠ लृ ॡ ’ चार वर्ण , मृगशिरा में ’ ए ’ एक वर्ण ,
आर्द्रा में ’ ऐ ’ एक
वर्ण , पुनर्वसु में ’ ओ औ ’ दो वर्ण , पुष्य में ’ क ’
एक वर्ण , आश्लेषा में ’ ख ग ’ दो वर्ण , दूसरी पंक्ति
में मघा में ’ घ ङ ’ दो वर्ण , पूर्वाफाल्गुनी में ’ च ’ एक
वर्ण , उत्तराफाल्गुनी में ’ छ ज ’
दो वर्ण , हस्त में ’ झ
ञ ’ दो वर्ण , चित्रा में ’ ट ठ ’ दो वर्ण , स्वाती में ’
ड ’ एक वर्ण , विशाखा
में ’ ढ ण ’ दो वर्ण , अनुराधा में ’ त थ द ’ तीन
वर्ण , ज्येष्ठा में ’ ध ’ एक वर्ण , तीसरी पंक्ति में मूल में ’ न प फ ’ तीन वर्ण , पूर्वाषाढा़
में ’ ब ’ एक वर्ण , उत्तराषाढा़ में ’ भ ’ एक वर्ण
, श्रावण में ’ म ’ एक वर्ण , धनिष्ठा में ’ य र ’
दो वर्ण, शताभिषा में ’ ल
’ एक वर्ण, पूर्वाभाद्रपदा में ’
व श ’ दो वर्ण , उत्तरभाद्रपदा
में ’ ष स ह ’ तीन वर्ण तथा रेवती में ’
क्ष अं अः ’ इन चार वर्णों को - इस प्रकार सभी
स्वर और व्यञ्जन वर्ण दोनों को अश्विनी से लेकर रेवती नक्षत्र पर्यन्त कोष्ठकों
में लिखना चाहिए ॥४२ - ४४॥
रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र तृतीय पटल
- गणविचार
रूद्रयामलम् तृतीयः पटलः - गणविचारः
वर्णानां देवत्वादेवत्वगणविचारः
अकारद्वयमश्विन्यां देवतागणसम्भवाः
।
इकारं भरणी सत्यां
कृत्स्नमुस्वरकृत्तिका ॥४५॥
राक्षसी कृत्तिका भूमौ
सर्वविध्नविनाशिनी ।
नासिकागण्डमन्त्रञ्च रोहिणीशवरुपिणी
॥४६॥
वर्णों के देवत्वादेवत्वगण का विचार
--- अश्विनी नक्षत्र में रहने वाले ’ अ
आ ’ दो वर्ण देवतागण से उत्पन्न हैं । भरणी में इकार सत्या
कहा गया है । ’ इ उ ऊ ’ से युक्त
कृत्तिका राक्षसी है जो भूमि पर रहती है और समस्त विघ्नों को नष्ट करती है ।
नासिका ’ ऋ ॠ ’ एवं गण्डमन्त्र ’
लृ ॡ ’ से युक्त रोहिणी शव स्वरूपा है ॥४५ -
४६॥
ओष्ठमध्ये मृगशिरा देवता
परिकीर्तिता ।
अधरान्तमार्द्रया च मानुषं
सर्वलक्षणम् ॥४७॥
दन्तयुग्मं
पुनर्वस्वाच्छादितं मानुषं प्रियम् ।
कः पुष्या देवता ज्ञेया खगाश्लेषा च
राक्षसी ॥४८॥
ओष्ठ एकार युक्त मृगशिरा देवता गण
में कही गई हैं ’ ऐ ’ से युक्त आर्द्रा नक्षत्र सर्वलक्षणयुक्त मनुष्य का स्वरूप है। दन्त युग्म
’ ओ औ ’ इन दो वर्णों से युक्त
पुनर्वसु प्रच्छन्न रूप से मनुष्य है । क से युक्त पुष्य देवतागण हैं । ख ग से
युक्त आश्लेषा को राक्षसी समझना चाहिए ॥४७ - ४८॥
मघावक्षे घङान्ता च तथा च
पूर्वफाल्गुनी ।
छजोत्तरा - फल्गुनी च मनुष्याः
परिकीर्तिताः ॥४९॥
झञहस्ता देवगणा टठचित्रा च राक्षसी
।
डस्वाती देवरमणी विशाखा ढणराक्षसी
॥५०॥
तथदानराधया च शोभिता देवनायिका ।
ध ज्येष्ठा राक्षसी ज्ञेया
मूलानपफराक्षसी ॥५१॥
घ ङ से युक्त मघा,
च से युक्त पूर्वाफाल्गुनी और छ ज से युक्त उत्तराफाल्गुनी मनुष्य
गण में कही गई हैं । झ ञ से युक्त हस्त देवगण हैं। ट ठ से युक्त चित्रा राक्षसी
है। ड से युक्त स्वाती अप्सरा है। ढ ण से युक्त विशाला राक्षसी है। त थ द से युक्त
अनुराधा देवनायिका है। ध से युक्त ज्येष्ठा राक्षसी है। न प फ से युक्त मूल
राक्षसी है ॥४९-५१॥
पूर्वाषाढा मानुसानी
बकाराक्षयमालिनी ।
भोत्तरषाढ्या मर्त्यो मकारः श्रवणः
मतः ॥५२॥
बकार रूप अक्षर माला वाली
पूर्वाषाढा मानुषी कही गई है । भकार से युक्त उत्तराषाढ़ मनुष्य है । इसी प्रकार
मकार से युक्त श्रवण को भी( मनुष्य गण में ) जानना चाहिए ॥५२॥
धनिष्ठा यररक्षः स्तीलस्था शतभिषा
तथा ।
वशपूर्वभाद्रपदा मनुजाः
परिकीर्तिताः ॥५३॥
तथोत्तराभाद्रपदा मानुषी - मङुलोदभवा
।
अं अः ळक्षरेवती च देवकन्याः
प्रकीर्तिताः ॥५४॥
य र से युक्त धनिष्ठा ,
ल से युक्त शतभिषा स्त्री गण कही गई है । व श से युक्त
पूर्वभाद्रपदा मनुष्य गण में कही गई है । ष स ह से युक्त तीन वर्ण वाली
उत्तराभाद्रपदा मानुषी कुल में उत्पन्न हुई है । अं अः ळ क्ष अं अः से युक्त रेवती
( देवगण वाली ) देवकन्या कही गई है ॥५४ - ५४॥
स्वजातौ परमा प्रीतिर्मध्यमा
भिन्नजातिषु ।
रक्षोमानुषयोर्नाशी वैरं दानवदेवयोः
॥५५॥
जनसम्पत् विपत् क्षेमप्रत्यरिः
साधको वधः ।
मित्रं परमामित्रञ्च गणयेच्च पुनः
पुनः ॥५६॥
अपने गण में परम प्रीति होती हैं ।
भिन्न जाति में मध्यम प्रीति होती है । रक्षस और मनुष्य में नाश होता है इसी प्रकार
देवता और दानव में भी बैर समझना चाहिए । उनके जन्म , संपत्ति , विपत्ति , क्षेम ,
शत्रु , साधक , वध ,
मित्र , परममित्र - ये ९ क्रमशः फल समझना
चाहिए । इसी प्रकार बारम्बार तीनों पंक्तियों में नाम के नक्षत्र से लेकर मन्त्र
नक्षत्र पर्यन्त गणाना करनी चाहिए ॥५५ - ५६॥
वर्जयेज्जन्मनक्षत्रं तृतीयं
पञ्चसप्तकम् ।
षडष्टनवभद्राणि युगञ्च युग्मकं तथा
॥५७॥
यदीह निजनक्षत्रं न जानति
द्विजोत्तमः ।
नामाद्यक्षरसम्भूतं
स्वतारविरोधकम् ॥५८॥
जन्म नक्षत्र वाला मन्त्र वर्जित है
। जन्म नक्षत्र से तीसरा , पाँचवाँ एवं सातवाँ
मन्त्राक्षर वर्जित है । ६ , ८ , और ९
शुभकारक है । इसी प्रकार चौथा और दूसरा भी प्रशस्त माना गया है । यदि श्रेष्ठ
ब्राह्मण को अपने जन्म नक्षत्र का ज्ञान न हो तो उसे अपने नाम के आद्यक्षर से गणना
करनी चाहिए । क्योकि नामाक्षर का अपना नक्षत्र निषिद्ध नहीं है ॥५७ - ५८॥
विनीय गणयेन्मन्त्री
शुभाशुभविचारवान् ।
प्रादक्षिण्येन गणयेन्
साधकाद्यक्षरात् सुधीः ॥५९॥
इत्येतत् कथितं नाथ ममात्मा
पुरुषेश्वर ।
कुलाकुलमान्ताख्यं ताराचक्रं
मनोर्गुणम् ॥६०॥
शुभ और अशुभ फल का विचार करने वाला
मन्त्रज्ञ एवं बुद्धिमान् साधक इस प्रकार कोष्ठ रचना कर प्रदक्षिणा क्रम से अपने
नाम के आद्य अक्षर से गणना करे । हे नाथ ! हे मेरे सर्वस्व ! हे पुरुषेश्वर ! यहाँ
तक हमने कुलाकुल तथा अनन्त नामक तारा चक्र ( नक्षत्रचक्र ) के विषय में मन्त्र के
गुणों को कहा ॥५९ - ६०॥
तारामंन्त्र प्रदीपाभं
रत्नभाण्डस्थितामृतम् ।
एतद्विचारे महतीं सिद्धिमाप्नोति
मानवः ॥६१॥
तारामन्त्र प्रदीप के समान
दीप्तिमान है । तारामन्त्र रत्न है और भाण्ड में संस्थित अमृत के समान है । इस
प्रकार मन्त्र का विचार करने से मनुष्य को बहुत बडी़ सिद्धि प्राप्त होती है ॥६१॥
रूद्रयामल तन्त्र पटल ३ - राशिचक्र
रूद्रयामलम् तृतीयः पटलः -
राशिचक्रम्
राशिचक्रं प्रवक्ष्यामि
सिद्धिलक्षणमुत्तमम् ।
क्रमेण देया युगला रेखा
पूर्वापरोद्गमा ॥६२॥
तन्मध्यतो द्वयं दद्याद्
रेखाग्निदक्षिणे ततः ।
अग्निनैऋतिवायवीशक्रमेण रेखयेत् तथा
॥६३॥
अब सिद्धि के लक्षण वाले उत्तम राशि
चक्र को कहती हूँ - पूर्व से पश्चिम की ओर दो रेखा तथा पर में दक्षिण से उत्तर को
दो रेखा खीचें , फिर उनके मध्य से दो दो रेखा
अग्निकोण से दक्षिण कोणा तक खीचे । तदनन्तर अग्निकोण से वायव्य कोण तथा नैऋत्य कोण
से ईशान कोण पर्यन्त दो रेखा खीचें ॥६२ - ६३॥
विलिखेन्मेषराश्यादि मीनान्तं
सर्ववर्णकान् ।
कन्यागृहगतान् शादिवर्णानालिख्य
यत्नतः ॥६४॥
गणयेत्साधकश्रेष्ठो
लग्नाद्यामव्ययान्तकान् ।
स्वराशिदेवकोष्ठानामनुकूलान्
भजेन्मनून् ॥६५॥
इसके बाद मेष से लेकर मीन पर्यन्त
राशि तथा उसमें होने वाले सभी वर्णों को भी लिखे । फिर कन्या राशि में स्थित
शकारादि वर्णों को भी यत्नपूर्वक लिखे । तदनन्तर श्रेष्ठ साधक लग्न के आदि से
लेकरा आय व्यय पर्यन्त कोष्ठों में अपने नाम के आद्य अक्षर की राशि से गणना करें ।
यदि मन्त्र स्वराशि में हो अथवा देवतात्मक हो तो उसे ग्रहण करे ।
विमर्श
--- क्रमेण विलिखेद् वीर राशिचक्रे च साधक । वेदरामं रामहस्तं भज लोचनमेव च ॥
पञ्चभूतं पञ्चभूतं पञ्चवेदादिवर्णकान् इति वा पाठः ॥६४ - ६५॥
राशींना शुद्धता ज्ञेया त्यजेत्
शत्रुमृतिं व्ययम् ।
स्वराशेर्मन्त्रराश्यन्तं गणनीयं
विचक्षणैः ॥६६॥
शुद्ध राशि वाला मन्त्र ग्रहण करे ।
परन्तु शत्रु स्थान ( छठाँ ) मृत्यु स्थान ( आठवाँ ) और व्यय स्थान ( १२ वें ) में
पड़ने वाले मन्त्र का त्याग कर देना चाहिए । विद्वान् पुरुष को अपनी राशि से
मन्त्र की पर्यन्त गणना करनी चाहिए ॥६६॥
साध्याद्यक्षराश्यन्तं गणयेत्
साधकाक्षरात् ।
एकं वा पञ्च नवमं बान्धवं
परिकीर्तितम् ॥६७॥
द्विषड्दशमसंस्थाश्च सेवकाः
परिकीर्तिताः ।
रामरुद्राश्च मुनयः पोषकाः
परिकीर्तिताः ॥६८॥
साधक ( दीक्षा लेने वाले ) के अक्षर
की राशि से साध्य ( मन्त्र ) की राशि पर्यन्त गणना करनी चाहिए । साधक की राशि से
यदि मन्त्र की राशि एक , पाँच और नव स्थान
में पडे़ तो वह मन्त्र बान्धव के समान ’ रक्षक ’ होता है । २ , ६ , और १० वें
स्थान में पड़े तो ’ सेवक ’ कहा जाता है
। ३ , ७ , ११ , स्थान
में पड़े तो ’ पोषक ’ कहा जाता है ॥६७ -
६८॥
सूर्याष्टवेदयुक्तास्तु घातकाः सर्वदोषदाः
।
शक्त्यादौ तु महादेव
कुलचूडामणिर्यतिः ॥६९॥
चौथे ,
आठवें , और बारहवें स्थान में पड़े तो संपूर्ण
दोष उत्पन्न करता है और घातक कहा जाता है । हे महादेव ! शक्ति आदि का मन्त्र ग्रहण
करने में कुल शास्त्र का विद्वान् यति ही श्रेष्ठ होता है ॥६९॥
वर्जयेत् षष्ठगेहञ्च अष्टमं द्वादशं
तथा ।
लग्नं धनं
भ्रातृबन्धपुत्रशत्रुकलत्रकाः ॥७०॥
मरणं धर्मकर्मायव्यया द्वादशराशयः ।
नामानुरुपमेतेषां शुभाशुभफलं दिशेत्
॥७१॥
शक्ति मन्त्र के ग्रहण में छवावाँ ,
और आठवाँ स्थान वर्जित है । १ . लग्न में शरीर , २ . धन , ३ . भाई , ४ . बन्धु ,
५ . पुत्र , ६ . शत्रु , ७ . भार्या , ८ . मृत्यु , ९ .
धर्म , १० . कर्म , ११ . आय , १२ . व्यया का विचार द्वादश राशियों से किया जाता है । नाम के अनुसार इनके
शुभाशुभ फलों का निर्देश करना चाहिए ॥७० - ७१॥
वैष्णव तु महाशत्रोः स्थाने बन्धुः
प्रकीर्तितः ।
वैष्णव मन्त्र की दीक्षा में
महाशत्रु के स्थान में बन्धु का विचार करना चाहिए ॥७२॥
रूद्रयामलम् तृतीयः पटलः -
कूर्मचक्रम्
रूद्रयामल तन्त्र तृतीय पटल -
कूर्मचक्र
कूर्मचक्रं प्रवक्ष्यामि
शुभाशुभफलात्मकम् ॥७२॥
यज्ज्ञात्वा सर्वशास्त्राणि जानाति
पण्डितोत्तमः ।
अभेद्यभेदकं चक्रं
श्रृणुष्वादरपूर्वकम् ॥७३॥
अब शुभाशुभ फल देने वाला कूर्मचक्र
कहता हूँ । बुद्धिमान् पुरुष , कूर्मचक्र को
जान लेने पर सारे शास्त्र का पण्डित हो जाता है । अब अभेद्य को भेदन करने वाले इस
कूर्मचक्र को आदरपूर्वक सुनिए ॥७२ - ७३॥
कूर्माकारं महाचक्रं
चतुष्पादसमावृतम ।
मुण्डे स्वरा दक्षपादे कवर्ग
वामपादके ॥७४॥
चवर्ग कीर्तितं पश्चाद् अधःपादे
टवर्गकम ।
तधधस्तु तवर्गं स्यादुदरे च
पवर्गकम् ॥७५॥
चार पैरों वाले कूर्म के आकार का
महाचक्र निर्माण करे । उसके शिरः स्थान पर १६ स्वरों को ,
आगे के दाहिने पैर पर क वर्ग , बायें पैर पर च
वर्ग , पीछे के दाहिने पैर पर ट वर्ग तथा बायें पैर पर त
वर्ग लिले । फिर उदर स्थान पर प वर्ग लिखे ॥७४ - ७५॥
यवान्त ह्रदये प्रोक्तं सहान्तं
पृष्ठमध्यके ।
लाङ्गूले शत्रुबीजञ्च क्षकारं
लिङुमध्यके ॥७६॥
लिखित्वा गणयेन्मन्त्री चक्रम कलिमलापहम्
।
स्वरे लाभं कवर्गे श्रीश्चवर्गे च
विवेकदम् ॥७७॥
हृदय स्थान पर य र स ह ,
पुच्छ पर शत्रुबीज तथा लिङ्ग पर क्षकार वर्ण लिखे । इस प्रकार
कूर्मचक्र पर सभी वर्णों को लिख कर मन्त्रज्ञ साधक कलिदोष नाशक कूर्मचक्र पर
मन्त्राक्षर से गणना करे । स्वरों पर यदि मन्त्र का आद्य अक्षर पडे तो लाभ ,
क वर्ग पर मन्त्राद्याक्षर पडे तो श्री और च वर्ग पर विवेक की
प्राप्ति होती है ॥७६ - ७७॥
टवर्ग राजपदवीं तवर्गे धनवान् भवेत्
। न्
उदरे सर्वनाशः स्याद् ह्रदये
बहुदुःखदम् ॥७८॥
पृष्ठे च सर्वसन्तोषं लाङ्गूले
मरणं ध्रुवम् ।
वैभवं (पृष्ठ?)
लिङुदेशे तु दुःखञ्च वामपादके ॥७९॥
ट वर्ग पर राजपदवीं ,
त वर्ग पर धन की प्राप्ति , उदर पर सर्वनाश ,
ह्रदय पर दुःख पृष्ठ पर सब प्रकार का संतोष , पूँछ
पर निश्चित मरण , लिङ्ग ( दाहिने पैर ) पर वैभव तथा वामपाद
पर मन्त्राद्याक्षर पड़ने से दुःख होता है ॥७८ - ७९॥
विरुद्धद्वयलाभे तु न
कुर्याच्चक्रचिन्तनम् ।
विरुद्धैके धर्मनाशो युग्मदोषे च
मारणम् ॥८०॥
यत्र देवाक्षरञ्चास्ति तत्र
चेन्निजवर्णकम् ।
विरुद्धञ्चेत्त्यजेत्
शत्रुमन्यमन्त्रं विचारयेत् ॥८१॥
यदि दो विरुद्ध की प्राप्ति हो तो
चक्र का विचार त्याग देना चाहिए , क्योंकि एक
विरुद्ध से धर्म का नाश होता है। दो विरुद्ध पड़्ने से मरण निश्चित है । जहाँ
देवाक्षर हो वहाँ यदि अपने नाम का अक्षर आवे ( तो ग्राह्म है ) यदि विरुद्ध हों तो
त्याग कर देवे , क्योंकि वह शत्रु होता है । अतः दूसरे
मन्त्र का विचार करना चाहिए ॥८० - ८१॥
पृथक्स्थाने यदि भवेद्वर्नमाला
महेश्वर ।
यदि तत् सौख्यभावः स्यात् सौख्यं
नापि विवर्जयेत् ॥८२॥
विभिन्नगेहे दोषश्चेत् शुभमन्त्रञ्च
सन्त्यजेत् ।
इति ते कथितं देवि (देव)
दृष्टादृष्टफलप्रदम् ॥८३॥
यः शोधयेच्चरेद् वर्णं
मन्त्रमालामहेश्वरः ।
यदि शुध्यति चक्रेन्द्रं
मन्त्रसिद्धिप्रदं शुभम् ॥८४॥
हे महेश्वर ! यदि वर्णमाला पृथक्
स्थान में हो , किन्तु उसमें सौख्य भाव हो तो
उस सौख्य भाव का परित्याग नहीं करना चाहिए । अनेक गेहों पर विचार करने पर भी यदि
दोष ही दोष आवे तो उस उत्तम मन्त्र का भी परित्याग कर देना चाहिए । हे देव ! यहाँ
तक हमने दृष्टादृष्ट फल देने वाले मन्त्रों का वर्णन किया । मन्त्र माला का
महेश्वर जो साधक वर्णों को स्थापित कर शुद्ध करता है ऐसा करने से यदि चक्रेन्द्र
शुद्ध मिले तो वह मन्त्र सिद्धि देने वाला तथा शुभकारी होता है ॥८२ - ८४॥
रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र पटल ३ - शिवचक्र
रुद्रयामलम् तृतीयः पटलः -
शिवचक्रम्
शिवचंक्र प्रवक्ष्यामि
महाकालकुलेश्वर ।
अवश्यं सिद्धिमाप्नोति
शिवचक्रप्रभावतः ॥८५॥
हे महाकाल ! हे कुलेश्वर ! अब
शिवचक्र कहती हूँ । जिस शिवचक्र के प्रभाव से साधक निश्चित रुप से सिद्धि प्राप्त
कर लेता है ॥८५॥
षट्कोणमध्यदेशे तु चतुरस्त्र्म
लिखेद् बुधः ।
तन्मध्ये विलिखेच्चारु चतुरस्त्रं
सवर्णकम् ॥८६॥
मस्तकस्थत्रिकोणे तु
शिवसंस्थानमन्त्रकम् ।
दक्षिणावर्तमानेन गणयेत्
सर्वमन्त्रकम् ॥८७॥
बुद्धिमान् साधक षट्चक्र कोण के
मध्य में चतुरस्त्र ( चौकोर चतुर्भुज ) निर्माण करे । फिर उसके मध्य में वर्णों के
सहित मनोहर चतुरस्त्र इस प्रकार लिखे । ऊपर मस्तक स्थान पर स्थित त्रिकोण में शिव
संस्थान के मन्त्र को लिखे । फिर दक्षिण दिशा के क्रम से सभी मन्त्रों की गणना करे
॥८६ - ८७॥
विष्णुस्थाने स्वमन्त्रञ्च द्वितीये
च त्रिकोणके ।
त्रिकोणे च तृतीये च
ब्रह्मासंस्थानमन्त्रकम् ॥८८॥
शक्तिमन्त्रदिसंस्थानं त्रिकोणाधो
मुखे तथा ।
नायिकामन्त्रसंस्थानं त्रिकोणाधो
मुखे तथा ॥८९॥
इसके बाद द्वितीय त्रिकोण में ,
जहाँ विष्णु का स्थान है , वहाँ अपना मन्त्र
लिखे । इसके बाद तृतीय त्रिकोण में ब्रह्मसंस्थान के मन्त्रों को लिखे । तदनन्तर
त्रिकोण के अधोमुख में शक्ति मन्त्रादि संस्थान लिखे । फिर वहीं नायिकामन्त्र
संस्थान भी लिखे ॥८८ - ८९॥
नायिकामन्त्रसंस्थानं तद्वामे
दुर्लभं शुभम ।
तदूद्र्ध्वे च त्रिकोण च
भूतसंस्थानमन्त्रकम् ॥९०॥
शिवाधो यक्षमन्त्रस्य
संस्थानमतिदुर्लभम् ।
विष्णुब्रह्मसन्धिदेशे महाविद्यापदं
ध्रुवम् ॥९१॥
ऐसे तो दुर्लभ नायिका मन्त्र
का संस्थान बायें लिखे तो शुभ होता है । इसके बाद ऊपर वाले त्रिकोण में भूत
संस्थान मन्त्र लिखे । शिव के अधोभाग में यक्ष के मन्त्र का संस्थान लिखे
जो अत्यन्त दुर्लभ है । विष्णु तथा ब्रह्म के सन्धि प्रदेश में
महाविद्या के मन्त्र के पदों को अवश्य लिखना चाहिए ॥९० - ९१॥
स्वरस्थानं तथा वर्णस्थानं श्रृणु
महाप्रभो ।
अ-आवर्णद्वयं शैवे कवर्गञ्च सबिन्दुकम्
॥९२॥
विष्णौ नेत्रं चवर्गञ्च टवर्गं
ब्रह्मणि श्रुतम् ।
तवर्गं नासिकशक्तौ
सर्वमन्त्रार्थचेतनम् ॥९३॥
हे महाप्रभो ! अब स्वरस्थान तथा
वर्ण स्थानों के स्थापन का प्रकार सुनिए । शिव कोण में अ आ दो स्वर तथा बिन्दु
सहित क वर्ग ( कं खं गं घं ङं ) स्थापित करे । विष्णु के कोण में नेत्र (इकार) तथा
च वर्ग एवं ट वर्ग लिखे । ब्रह्मकोण में त वर्ग तथा अनुनासिक लिखे ,
जो सभी मन्त्रों में चेतना प्रदान करने वाले हैं ॥९२ - ९३॥
नायिकायां पवर्गञ्च न युगं
परिकीर्तितम् ।
भूते यवान्तं
विलिखेदोष्ठाधरसमन्वितम् ॥९४॥
प्रणवं यक्षमन्त्रे च शकारं
परिकीर्तितम् ।
अधोदन्तं पिशाचे च षयुक्तं
बिन्दुभूषितम् ॥९५॥
नायिका वाले मन्त्र के कोण में प
वर्ग लिखे तथा दो न लिखें - ऐसा कहा गया है । भूतमन्त्र वाले कोण में य र ल व
वर्णों को उ ऊ ओष्ठाक्षरों के साथ लिखे । यक्ष मन्त्र वाले कोण में प्रणव ( ॐ )
तथा शकार लिखे । पिशाच वाले मन्त्र में अधोदन्त मूल और ष जो बिन्दु से भूषित हों (
लं षं ) लिखे ॥९४ - ९५॥
शिवो बीजं देवमन्त्रे सकारञ्च
सबिन्दुकम् ।
महाविद्यादिसंस्थाने लक्षवर्णं
प्रकीर्तितम् ॥९६॥
इति ते कथितं शम्भो श्रृणु वर्णाङ्क
(ङ्ग) वर्णनम् ।
शिवे एकविंशातिश्च
द्वात्रिंशाद्विष्णुकोणके ॥९७॥
देव मन्त्र में शिवबीज ( ॐ ?
) तथा सकार जो बिन्दु से विभूषित हो , उसे
लिखे । इसके बाद महा विद्यादि संस्थान में ल और क्ष वर्ण लिखे , ऐसा कहा गया है । हे शम्भो ! इस प्रकार मैंने स्वर वर्ण स्थापन की विधि
कही । अब अङ्क के स्थापन प्रकार को सुनिए । शिव ( गृह ) में २१ संख्या तथा विष्णु
के गृह में ३२ संख्या स्थापित करे ॥९६ - ९७॥
ब्रह्मणे षोडशाद्यञ्च शक्तिकूटे
युगाष्टकम् ।
नायिकायाम वहिनबाणं भूते
सप्ताङ्कमेव च ॥९८॥
यक्षे च चन्द्रवेदञ्च
पिशाचेऽष्टवसुः स्मृतः ।
सर्वदेवे बाणवेदं कृत्यायाम
षष्ठषष्ठकम् ॥९९॥
ब्रह्मसंस्थान में १६ का आद्य
अर्थात् १५ , शक्तिकूट में ८ का दुगुना
अर्थात् १६ , नायिका में ८ तथा भूत संस्थान में ७ अङ्क
स्थापित करे । यक्ष में ५ और पिशाच में ८ तथा सभी देवी के संस्थान में ९ और कृत्या
में १२ अङ्क स्थापित करे ॥९८ - ९९॥
मध्ये षष्ठे हुताशञ्च महाविद्यागृहे
शुभे ।
साधकस्य च साध्यस्यैकाङ्कं
साध्यमन्दिरे ॥१००॥
साधकाङ्कमूर्ध्वदेशे साध्याङ्क
गणयेदधः ।
भुजयुग्मंम शिवे प्रोक्तं विष्णौ
वामाष्टकं तथा ॥१०१॥
इसके बाद कल्याणकारी महाविद्या के
छठें गृह में ३ अङ्क स्थापित करे । साध्य मन्दिर में साधक तथा साध्य के एक एक अङ्क
स्थापित करें ।
विमर्श
--- १ . शिव २१ २ . विष्णु ३२
३ . ब्रह्म १५ ४ . शक्ति १६
५ . नायिका ८ ६ . भूत ७
७ . यक्ष में ५ ८ . पिशाच में ८
९ . देवी संस्थान ९ ,
कृत्या १२ १० .
महाविद्या के छठे गृह में ३
११ . साध्य मन्दिर में १ १२ . साधक मन्दिर में १
फिर ऊर्ध्वदिशा में साधक के अङ्क
तथा नीचे साध्य के अङ्क की गणना करे । शिव चक्र में भुजयुग्म की तथा विष्णु चक्र
में वामाष्टक की गणना करे ॥१०० - १०१॥
ऋषिचन्द्रं विधौ प्रोक्तं शक्तौ
रामाष्टंक तथा ।
नायिकायां वेदबाण भूतेऽष्टनवमं तथा
॥१०२॥
यक्षे
युग्मं चतुर्थं च पिशाचे वज्रकाष्टकम् ।
शक्तौ वशकृतौ ज्ञेयौ कृत्या(ल)यां
मुनिषष्ठकम् ॥१०३॥
ब्रह्मचक्र में ऋषि चन्द्र ( १ ,
७ ), की , शक्ति में
रामाष्टक ( ८ , ३ ) की नायिका चक्र में वेदवाण ( ४ , ५ ) की तथा भूतचक्र में अष्टम नवम नवम की गणना करे । यक्ष में दो तथा चौथे
की , पिशाच में वज्रक ( १ ) तथा अष्टक की , शक्ति में और कृत्या में मुनि( ७ ) एवं षष्ठ को गणना
करे ॥१०२ - १०३॥
यस्मिन् यस्मिन् गृहस्था ये
देवतास्तु महाफलाः ।क०।
अनामाक्षरदेहस्थक्षरं द्विगुणं
स्मृतम् ।
साध्याङ्केन योजयित्वा
पूरयेत्षष्ठपञ्चमैः ॥१०४॥
तद्गेहं ग्राहयेद् यत्नात
देवताद्यक्षरं यथा ।
एकशेषस्थितं वर्णं कुर्यान्नपि
विवेचनम् ॥१०५॥
शुद्धं तद्धि
विजानीयाद्विचारमन्यतोऽपि च ।
गणना की प्रक्रिया
--- जिस जिस घर में स्थित रहने वाले देवता हों वे वहाँ महाफलदायी हैं । अकार नाम
वाले अक्षर तथा देहस्थ अक्षर को द्विगुणित करें । फिर उसे साध्य अङ्क से जोड़कर
षष्ठ तथा पञ्चम से पूर्ण कर देवे । उस गेह के अक्षर को तथा देवता के आद्य अक्षर को
प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करे । यदि शेष १ बचे तो फिर विवेचना की आवश्यकता नहीं है ।
उसे सर्वथा शुद्ध समझे ॥१०४ - १०५॥
षष्ठाङ्केन च वेदाङ्कं तथा च
देववर्णकम् ॥१०६॥
शशाङ्कं मिश्रित चाङ्कं द्विगुणं
देवतार्णकम् ।क०।
पश्चात् कृत्वा तदङ्कञ्च हरेद्रामेण
वल्लभ ।
यदि साध्याङ्कं विस्तीर्णं तदा नैव
शुभं भवेत् ॥१०७॥
साधकाङ्कञ्च विस्तीर्णं यदि
स्याज्जायते गृहे ।
तदा
सर्वकुलेशः स्याद् रुद्रश्रवणसंशयः ॥१०८॥
षष्ठ अङ्क से वेदाङ्क ४ को तथा
देवता के वर्ण को चन्द्रमा से मिला देवे । इसके पश्चात देवता वर्ण को द्विगुणित
करे । फिर हे वल्लभ ! उसमें ३ का भाग देवे । यदि साध्य का अङ्क अधिक आवे तब उसे
शुभ फल वाला नहीं समझना चाहिए। यदि उस घर में साधक का अङ्क अधिक आवे तब वह मन्त्र
सर्व कुलेश होता है॥१०६- १०८॥
द्विगुणं देवतावर्णं साधकाङ्केन
योजयेत् ।
वर्णसंख्याङ्कमालिख्य गणयेत्
साधकोत्तमः ॥१०९॥
देवतावर्ण को द्विगुणित कर साधक के
अङ्क से मिला देना चाहिए । फिर उन दोनों के वर्ण संख्या का अङ्क लिख कर उत्तम ,
साधक गणना करे ॥१०९॥
रसबाणेन सम्पूर्य संहरेत् रससंख्यया
।
आत्माङ्कमिश्रित पश्चाद् यदि
किञ्चिन तिष्ठति ॥११०॥
स्वीयाभिधानकाङ्कस्य द्विगुणञ्चापि
योजयेत् ।
पश्चादनलसंख्याभिर्हरेत्
सौख्यार्थिमुक्तये ॥१११॥
अङ्कं बहुतरं ग्राह्यं साधकस्य
सुखावहम् ।
न ग्राह्यं साध्यविस्तीर्णमि(म?)तिशास्त्रार्थनिश्चयम् ॥११२॥
उसमें ( रस ) ६ एवं ( बाण ) ५
संख्या मिलाकर ६ से भाग देवे । फिर उसमें अपने नाम का अङ्क मिश्रित करें । यदि कुछ
भी शेष न रहे तो अपने नाम के अङ्क का द्विगुणित कर उसे जोड़ देवे । इसके बाद अनल (
३ ) संख्या से सौख्य अर्थ तथा भुक्ति के लिए भाग देवे । यदि अङ्क ( लब्धि ) बहुतर
प्राप्त हो तो वह साधक को सुख प्राप्त कराने वाला होता है । किन्तु यदिअ साध्य से
अङ्कलब्धि विस्तीर्ण हो तो उसे न ग्रहण करे - ऐसा शास्त्र के अर्थ का निश्चय है
॥११० - ११२॥
विचारादस्य चक्रस्य राजत्वं लभते
ध्रुवम् ।
समानाङ्केन गृहणीयाद् गुण्याङ्कं
वर्जयेदिह ॥११३॥
अवश्यं चक्रमेवं हि गोपनीयं
सुरासुरैः ।
इस चक्र पर विचार करने पर साधक
अवश्य ही राजत्व प्राप्त कर लेता है । अतः समान अङ्क होने पर उसे ग्रहण कर लेना
चाहिए ,
किन्तु इसमें गुण्याङ्क अवश्य वर्जित करे । अवश्य ही यह चक्र
देवताओं तथा असुरों से भी गोपनीय रखना चाहिए॥११३ - ११४॥
रूद्रयामलम् तृतीयः पटलः -
विष्णुचक्रम्
रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र तृतीय पटल
- विष्णुचक्र
विष्णुचक्रं प्रवक्ष्यामि चक्राकारं
सुगोपनम् ॥११४॥
सर्वसिद्धिप्रदं शुद्धं चक्रं
कृत्वा फलप्रदम् ।
श्रृणु नाथ महाविष्णोः स्थानं
मङुलदायकम् ॥११५॥
लक्ष्मीप्रियमङ्कमयं नवकोण
महाप्रभम् ।
तदूर्ध्वे च तमालिख्य तदूद्र्ध्वेऽष्टग्रहं
शुभम् ॥११६॥
अब चक्राकार विष्णु चक्र के विषय
में कह रही हूँ , जो अत्यन्त गुप्त
है । यह सर्वसिद्धि प्रदान करने वाला चक्र शुद्ध कर लेने पर फलदायी होता है । हे
नाथ ! अब महाविष्णु के मङ्रल देने वाले उस स्थान के विषय में सुनिए । यह अङ्कमय
चक्र लक्ष्मी जी को अत्यन्त प्रिय है । इसमें महा प्रभा वाले नवकोण होते हैं ।
इसलिए ऊपर उसे लिखकर उसके भी ऊपर शुभ अष्ट ग्रह का निर्माण करे ॥११४ - ११६॥
चतुष्कोणाकारगेहं सन्धौ शून्याष्टकं
लिखेत् ।
तदूर्ध्वे च तमालिख्य चक्रमेतद्धनेश्वर
॥११७॥
पूर्वे महेन्द्राभरण मूद्र्ध्वदेशोल्लसत्करम्
।
मुनिरामखचन्द्राद्यमङ्कं
सर्वसमृद्धिदम् ॥११८॥
वह गृह चतुष्कोण के आकार का होना
चाहिए । उसकी सन्धि में शून्य तथा ८ अङ्क लिखे । इस प्रकार उसले ऊपर लिखे तो हे
धनेश्वर ! वह विष्णुचक्र बन जाता है । पूर्व में महेन्द्र का आभरण ( गृण ) निर्माण
करे । जिसका प्रकाश पुञ्ज ऊपर की ओर उठ रहा हो उसमें मुनि ७ ,
राम ३ , ख शून्य , चन्द्र
१ आदि अङ्क लिखे । यह महेन्द्रगृह सर्वसमृद्धियों को देने वाला है ॥११७ - ११८॥
दक्षिणे वहिनभरणं रसवेदे खयुग्मकम्
।
तदधो रामचक्रञ्च सप्तषट्सु च
रामकम् ॥११९॥
तदधो निऋते स्वर्गे
युगाङशून्यवेदकम् ।
केवलाधो जलेशस्य मन्दिरं सुमनोहरम्
॥१२०॥
दक्षिण में अग्नि का घर निर्माण करे
। उसमें रस ६ , वेद ४ , ख
शून्य तथा युग्म २ अङ्क लिखे । उसके नीचे राम चक्र निर्माण करे । जिसमें ७ एवं ६
अङ्क ( एवं शून्य ) तथा राम ३ अङ्क लिखे । उसके निऋति ( दिक् ) के स्वर्ग ( गृह
) में युग २ अड्क , ९ शून्य तथा वेद ४ अङ्क लिखे । उसके नीचे
नीचे जलेश ( वरुण ) का अत्यन्त मनोहर गृह निर्माण करे ॥११९ - १२०॥
रामेषु शून्यबाणाढ्यं
तस्यामेवायुमन्दिरम् ।
भुजहस्तखरसाढ्यं
चक्रेदमीश्वरात्मकम् ॥१२१॥
नवकोणं मध्यदेशे पञ्चाङुभागमालिखेत्
।
तन्मध्ये रचयेद्वर्णं पञ्चकोणे
त्रिकोणके ॥१२२॥
उसमें राम ५ ,
इषु ५ , शून्य एवं बाण ५ लिखे । उसी में वायु
का मन्दिर लिले । जिसमें भुज २ , हस्त २ , शून्य तथा रस ६ अङ्क लिखे । यह ईश्वरात्मक चक्र कहा गया है । मध्य देश के
पञ्चाङ्र भाग में नवकोण का निर्माण करे । उसके मध्य में पञ्चकोण में तथा त्रिकोण
में वर्णों को इस प्रकार लिखे ॥१२१ - १२२॥
इन्द्राधो विलिखेद् धीरो
वर्णमाद्यञ्च सप्तकम् ।
भागे दक्षिणकोणेषु ऋअकारादङ्कक
लिखेत् ॥१२३॥
ककारादिकारान्तं तदधो विलिखेद्
बुधः ।
तद्वामे ठादिमान्तञ्च
वर्णलक्षणकारणम् ॥१२४॥
धीर साधक इन्द्र के नीचे आद्य वर्ण
तथा सातवाँ वर्ण अ आ इ ई उ ऊ ऋ लिखे । उसके दक्षिण कोण में दीर्घ ऋकार से अङ्क
लिखे । उसके नीचे बुद्धिमान् साधक क से ट पर्यन्त वर्ण लिखे । उसके वाम भाग में
ठ से म पर्यन्त वर्ण लिखे ॥१२३ - १२४॥
तदूद्र्ध्वे यादिवर्णञ्च चक्रञ्च
गणयेत्ततः ।
पूर्वकोणपतिः शक्रो द्वितीयेशो
यमानलौ ॥१२५॥
निऋतिर्वरुणश्चैव तृतीयमन्दिरेश्वरः
।
चतुर्थाधिपतिर्वायुः
कुबेरो नाथ इत्यपि ॥१२६॥
उसके ऊपर य से लेकर सभी वर्ण लिखे ।
फिर चक्र की गणना करे । पूर्व कोण के पति इन्द्र हैं । इसके बाद दूसरे कोण
के पति यम तथा अग्नि है । तृतीय मन्दिर के ईश्वर निऋति तथा वरुण
हैं । हे नाथ ! चतुर्थ गृह के अधिपति वायु तथा तथा कुबेर हैं ॥१२५ - १२६॥
पञ्चगेहस्याधिपतिरिशो
विश्वविदाम्बरः ।
पञ्चकोण प्रतिष्ठन्ति
पञ्चभूताशयास्थिताः ॥१२७॥
प्राणे सिद्धिवाप्नोति चापाने
व्याधिपीडनम् ।
समाने सर्वसम्पत्तिरुदाने निर्धनं
भवेत् ॥१२८॥
पाँचवें गृह के अधिपति विश्व
वेत्ताओं में श्रेष्ठ ईश्वर हैं । पञ्चकोणों में प्राणियों के भीतर रहने वाले पञ्च
वायु का निवास है । प्राण में सिद्धि , अपान
में व्याधि एवं पीडा़ , समान में सर्वसंपत्ति तथा उदान में
निर्धनता होती है ॥१२७ - १२८॥
व्याने च ईश्वरप्राप्तिरेतस्मिन्
लक्षणं शुभम् ।
पूर्वगेहे महामन्त्रं मन्त्रत्यागं
करोति यः ॥१२९॥
स तावत् साधकश्रेष्ठो विष्णुमार्गेण
शङ्कर ।
विशेषं श्रृणु यत्नेन सावधानावधारय
॥१३०॥
व्यान में ईश्वर प्राप्ति होती है ।
इस प्रकार इसमें शुभ लक्षण कहा गया है । पूर्वगेह में महामन्त्र का जो त्याग कर
देता है वही श्रेष्ठ साधक है । हे शङ्कर ! अब विष्णु मार्ग से होने वाले विशेष को
सुनिए और सावधानी से उसे धारण करिए ॥१२९ - १३०॥
सप्ताक्षरं त्र्यक्षरं च
दशमाक्षरमेव च ।
पूर्वगेहे यदि
भवेदाद्याक्षरसमन्वितम् ॥१३१॥
तदा भवति सिद्धिश्च
सर्वमेवंप्रकारकम् ।
षष्ठाक्षरं वेदवर्णं विंशत्यर्णं
महामुनम् ॥१३२॥
आमनायाद्यक्षरं व्याप्तं सफल गणयेद्
बुद्धः ।
तथास्मिन् मन गेहे च मन्त्रं
सप्ताक्षरं शुभम् ॥१३३॥
सप्ताक्षर मन्त्र ,
त्र्यक्षरा मन्त्र तथा दशाक्षर मन्त्र यदि आद्य अक्षर के साथ
पूर्वगृह में स्थित हो तो निश्चित ही सिद्धि होती है । सर्वत्र मन्त्रों में यही
विधि प्रयुक्त होती है । ६ अक्षर वाला , ४ अक्षर वाला ,
२० अक्षरों वाला महामन्त्र तथा आम्नाय का आद्यक्षर हो तो मन्त्र फल देने
वाला होता है । इसी प्रकार बुद्धिमान् साधक गणना करे । मेरे गृह में ७ अक्षरों
वाला मन्त्र शुभ है ॥१३१ - १३३॥
षष्ठाक्षरञ्च गणयेत्त्रिंशदक्षरमेव
च ।
आद्याक्षरसमायुक्त साध्यसाधकयोरपि
॥१३४॥
एकस्यापि च लाभे च
मन्त्रसिद्धिरखण्डिता ।
मन्त्राक्षरादिलाभञ्च अवश्यं
गणेयेदिह ॥१३५॥
साध्य तथा साधक के आद्य अक्षर से
युक्त षष्ठाक्षर ६ तथा ३० त्रिशदक्षरों की गणना करें ,
यदि उसमें एक भी ठीक - ठीक से प्राप्त हो जाय तो मन्त्र सिद्धि
निश्चित है । इसलिए मन्त्राक्षर के आदि लाभ के लिए यहाँ गणना अवश्य करे ॥१३४ -
१३५॥
नैऋते च जलेशस्य द्वयक्षरञ्च
नवाक्षरम् ।
शून्यदेवाक्षरं नाथ गणनीयं
विचक्षणैः ॥१३६॥
तथात्र
अक्षरं मन्त्रं पञ्चाक्षरमनुं तथा ।
पञ्चाशदक्षरं मन्त्रं मन्दिरे
गणयेत् शुभम् ॥१३७॥
नैऋत्य में वरुण के दो अक्षर वाले ,
नव अक्षर वाले , शून्य युक्त वेदाक्षर ( ४० )
अक्षर वाले मन्त्रों की गणना विचक्षणों को अवश्य ही करनी चाहिए । इसी में अक्षर
मन्त्र ( ॐ कार संयुक्त ) तथा ५ अक्षरों वाले मन्त्रों की भी गणना करे । इसी
प्रकार १५ अक्षरों वाले मन्त्रों की भी गणना करे तो शुभ फल होता है ॥१३६ - १३७॥
वायुकोणे कुबेरस्य मन्दिरे
गणयेत्तथा ।
द्वाविंशत्यक्षरं मन्त्रं
शून्यषष्ठमनुं तथा ॥१३८॥
पञ्चाक्षरं तारिकायाः शिवे
पञ्चाक्षरं तथा ।
सुसप्तन्त्रग्रहणे सफलं
परिकीर्तितम् ॥१३९॥
वायुकोण में तथा कुबेर के मन्दिर
में २२ अक्षरों वाले शून्य युक्त षष्ठ ( ६० ) अक्षरों के मन्त्रों की गणना करे ।
तारा के पञ्चाक्षर तथा शिव के पञ्चाक्षर मन्त्र की गणना करे । ७ अक्षर वाले मन्त्र
ग्रहण करने से उत्तम फल कहा गया है ॥१३८ - १३९॥
ईशानपञ्चकोणे च सफलञ्च नवाक्षरम् ।
अष्टाक्षरं हि विद्याया गणयेत्
सहितं सुधीः ॥१४०॥
एतदुक्तञ्च गणयेद्विरुद्धं नैव
शीलयेत् ।
प्राणमित्रं समानञ्च समानो
व्यानबान्धवः ॥१४१॥
ईशान के पञ्चकोण में नवाक्षर मन्त्र
से फल कहे गये हैं । हैं । सुधी साधक महाविद्या के अष्टाक्षर मन्त्र की भी गणना
करे । जैसा हमने पूर्व में कहा है , गणना
उसी प्रकार करनी चाहिए । इससे विरुद्ध कभी भी गणना न करे । प्राण का मित्र समान है
और समान व्यान का बन्धु है ॥१४० - १४१॥
एतत्स्थितञ्च गृहणीयाद् दोषभाक् स भवेत् क्वचित् ।
एकदैव प्रिये प्रीतिरेकगेहे तथा
प्रियम् ॥१४२॥
इस प्रकार गणना से स्थित मन्त्र
ग्रहण करे तो कदाचित् ही वह दोष का भागी हो सकता है । एक समय में प्रिय होने पर
प्रीति तथा एक गृह में प्रिय होता है ॥१४२॥
गृहीत्वा विष्णुपदवीं प्राप्नोति
मानवः क्षणात् ।
यदि चक्रं न विचार्य रिपुमन्त्रं
सदा न्यसेत् ॥१४३॥
निजायुषं छिनत्त्येव मूको भवति
निश्चितम् ।
विचार्य यदि यत्नेन सर्वचक्रे
प्रियं हितम् ॥१४४॥
महामन्त्रं
महादेव लघु सिद्ध्यति भूतले ॥१४५॥
इस प्रकार गणना कर मन्त्र ग्रहण
करने से मानव क्षण मात्र में विष्णु पदवी प्राप्त कर लेता है । यदि चक्र पर मन्त्र
का विचार किए बिना साधक शत्रु मन्त्र का ग्रहण करे तो वह अपनी आयु का ही विनाश
करता है । बहुत क्या वह निश्चित रुप से गूँगा हो जाता है । हे महादेव ! यदि सभी
चक्रों पर विचार पूर्वक यत्न से अपना प्रिय तथा हितकारी महा मन्त्र ग्रहण करें तो
पृथ्वी में वह शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥१४३ - १४५॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सर्वचक्रानुष्ठाने सिद्धमन्त्रप्रकरणे भावनिर्णये भैरव
भैरवीसंवादे तृतीयः पटलः ॥३॥
॥ इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र
में महातंत्रोद्दीपन में सर्वचक्रानुष्ठान में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भाव निर्णय
में भैरव-भैरवी संवाद में तीसरे पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या
पूर्णं हुई ॥ ३ ॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र चतुर्थ पटल
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