मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १६
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १६ में महामृत्युञ्जय,
रुद्र एवं गङ्गा तथा मणिकर्णिका के मन्त्र कहे गए हैं।
मन्त्रमहोदधि षोडशः तरङ्गः
मन्त्रमहोदधि - षोडश तरङ्ग
मंत्रमहोदधि तरंग १६
मंत्रमहोदधि सोलहवां तरंग
मन्त्रमहोदधि
अथ षोडश: तरङ्गः
अरित्र
महामृत्युञ्जयमन्त्रः
सञ्जीविनीविद्या
महामृत्युञ्जयं वक्ष्ये
दुरितापन्निवारणम् ।
यं प्राप्य भार्गवः शम्भोमतान्
दैत्यानजीवयत् ॥ १॥
अब पाप तथा विपत्तियों को दूर करने
वाले महामृत्युञ्जय मन्त्र को कहता हूँ, जिसे
शुक्राचार्य ने भगवान् शंकर से प्राप्त कर मरे हुये दैत्यों को जिलाया था ॥१॥
तारः खं
व्यापिनीचन्द्रयुक्तारश्चतुराननः ।
अर्धीशबिन्दुसंयुक्तो हंसः सर्गी च
भूर्भुवः ॥ २॥
सकारो बालसर्गाढ्यस्त्र्यम्बकं
वैदिको मनुः।
भूर्भुवः स्वर्भुजङ्गेशस्तारी
जूंसर्गवान् भृगुः ॥ ३ ॥
आकाशो मनुबिन्द्वादयः प्रणवान्तो
मनूत्तमः ।
महामृत्युञ्जयाख्योऽयं
पञ्चाशद्वर्णनिर्मितः ॥ ४ ॥
महामृत्युञ्जय मन्त्र का उद्धार
- तार (ॐ), व्यापिनी चन्द्र युक्त (औ),
बिन्दु सहित खं (ह), अर्थात् (हौं), फिर तार (ॐ), फिर अर्धीश (ऊकार), बिन्दु (अनुस्वार) से युक्त चतुरानन ‘ज’ अर्थात् (जूं), सर्गी हंसः (सः) इसके बाद ‘भूर्भुवः फिर वाल (ब) विसर्ग युक्त सकार अर्थात् (स्वः), फिर ‘त्र्यम्बकं यजामहे० यह वैदिक मन्त्र, फिर ‘भूर्भुवः स्वः’, तारयुक्त
भुजङेश रों जूं, फिर सर्गवान् भृगु (मनु और बिन्दु सहित आकाश
(ह) अर्थात हौं, पुनः प्रणव जोडने से पचास अक्षरों का
महामृत्युञ्जय संज्ञक श्रेष्ठतम मन्त्र बनता है ॥२-४॥
विमर्श - महामृत्युञ्जय मन्त्र
का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं यजामहे
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् भूर्भुवः
स्वरों जूं सः हौं ॐ (५०) ॥२-४॥
वामदेवकहोलाख्यवसिष्ठा मुनयोऽस्य तु
।
छन्दांस्युक्तानि रुद्रेण
पंक्तिगायत्र्यनुष्टुभः ॥ ५॥
सदाशिवमहामृत्युञ्जयरुद्रोऽस्य
देवता ।
मायाशक्ती रमाबीजं
विनियोगोऽर्थसिद्धये ॥ ६ ॥
इस मन्त्र के वामदेव,
कहोल एवं वशिष्ठ ऋषि हैं, भगवान् रुद्र से इस
मन्त्र का पंक्ति, गायत्री और अनुष्टुप् छन्द कहा है ।
सदाशिव महामृत्युञ्जय रुद्र इसके देवता हैं । माया (ह्रीं) शक्ति है, रमा (श्रीं) बीज है । अभीष्ट सिद्धि हेतु इसका विनियोग किया जाता है ॥५-६॥
विनियोग - अस्य
श्रीमहामृत्युञ्जयामन्त्रस्य वामदेवकहोलवशिष्ठा ऋषयः
पंक्तिर्गायत्र्यनुष्टुप्छन्दांसि सदाशिवमहामृत्युञ्जयरुद्रो देवता हीं शक्तिः
श्रीं बीजमात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
मूर्ध्नि वक्त्रे हृदि शिवे पदो
मुन्यादिकान्न्यसेत् ।
ऋष्यादिन्यास
- शिर,
मुख, हृदय, लिङ्ग,
एवं पैरों पर ऋष्यादिन्यास करना चाहिए ॥७॥
विमर्श
- यथा- वामदेवहोलवशिष्ठऋषिभ्यो नमः शिरसि,
पंक्तिर्गायत्र्यनुष्टुप्छन्दोभ्यः
नमः मुखे,
सदाशिवमहामृत्युञ्जरुद्राख्यदेवतायै
नमः हृदि,
ह्रीं शक्तये नमः लिङ्गे श्रीं बीजाय नमः पादयोः ॥७॥
मुनिन्यासवर्णादिन्यासविधिकथनम्
त्रिचतुर्वसुनन्देषु
गुणवर्णाननुष्टुभः ॥ ७ ॥
तारो नमो भगवते रुद्रायेति
पदान्वितान् ।
मूलादिनववर्णाधानुक्त्वा कुर्यात्
षडङ्गकम् ॥ ८ ॥
शलान्ते पाणये स्वाहा
हृन्मन्त्रान्ते नियोजयेत् ।
अमृतान्ते मूर्तये मां जीवयेति
शिरोन्तिमम् ॥ ९॥
शिखान्ते चन्द्रशिरसे जटिने
वहिनवल्लभा ।
त्रिपुरान्तकाय हां ही कवचान्ते
मनुस्मृतः ॥ १० ॥
प्रवदेत्रिपदस्यान्ते लोचनाय पदं
पुनः।
ऋग्यजुःसाममन्त्राय
वर्णान्नेत्रमनोः पठेत् ॥ ११॥
अग्नित्रयाय ज्वल च ज्वल मां रक्ष
रक्ष च ।
अघोरास्त्राय
मन्त्रोऽयमस्त्रमन्त्रस्ततः स्मृतः ॥ १२॥
अब षडङ्गन्यास कहते हैं -
अनुष्टुप् छन्द के ३, ४, ५, ९, ५, तथा ३ वर्णों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है -
प्रारम्भ में मूलमन्त्र के ९ अक्षरों के बाद त्र्यबकादि अक्षर लगाकर, फिर तार (ॐ), फिर ‘नमो भगवते
रुद्राय’ पद, फिर क्रमशः ‘शूलपाणये स्वाहा’ पद से हृदय में, फिर ‘अमृतमूर्तये मां जीवय’ से
शिर में, फिर ‘चन्दशिरसे जटिने स्वाहा’
से शिखा में, फिर ‘त्रिपुरान्तकाय
हां हीं’ से कवच में, फिर ‘त्रिलोचनाय ऋग्यजुःसाममन्त्राय’ से नेत्र में,
फिर ‘अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल मां रक्ष रक्ष ॐ
अघोरास्त्राय’ से अस्त्र में लगाकर न्यास करे ॥७-१२॥
विमर्श
- यथा –
१. ॐ हौ ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः,
२. ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः
यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये मां जीवय शिरसे स्वाहा,
३. ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ॐ नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्,
४. ॐ हौं जूं सः भूर्भुवः स्वः
उर्वारुकमिव बन्धनत् ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं कवचाय हुम्,
५. ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय नेत्रत्रयाय
वौषट्,
६. ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
मामृतात् ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वलं माम रक्ष रक्ष ॐ
अघोरास्त्राय अस्त्राय फट् ॥७-१२॥
द्वात्रिंशत्
त्र्यम्बकाद्यान्नमोन्तान्विन्दुसंयुतान् ।
तारादिनववर्णाद्यानङ्गेष्वेषु
प्रविन्यसेत् ॥ १३ ॥
पूर्वपश्चिमयाम्योदङ्मुखेपूरसि
कण्ठतः।
वदने नाभिहत्पृष्ठे कुक्षौ लिङ्गे
गुदे न्यसेत् ॥ १४ ॥
ऊरुमूलोरुमध्ये च
जानुनोर्जानुवृत्तयोः।
स्तनयोः पार्श्वयोरंध्योः
करयोर्नसिमूर्द्धनि ॥ १५ ॥
अब उक्त मन्त्र का वर्णन्यास
कहते है - प्रारम्भ में मूल मन्त्र के ९ वर्ण लगाकर फिर त्र्यम्बकादि ३२ अक्षरों
के एक एक वर्ण पर बिन्दु तथा अन्त में नमः लगाकर पूर्व,
पश्चिमे, दक्षिण, उत्तर
पूर्वक मुख में, फिर उरःस्थल कण्ठ, पुख,
नाभि, हृदय, पीठ,
कुक्षि, लिङ्ग और गुदा में न्यास करना चाहिए ।
फिर दोनो ऊरुओं के मूल और मध्य में, दोनों जानुओं में एवं
दोनों जानुवृत्त में, स्तनों में, पार्श्वो
में, पैरो में, हाघों में, नासिका, रन्ध्रों में तथा शिर इन ३२ स्थानों में इस
प्रकार न्यस करना चाहिए ॥१३-१५॥
विमर्श - वर्णन्यास की विधि
-
(१) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
त्र्यं नमः पूर्वमुखे,
(२) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
वं नमः पश्चिममुखे,
(३) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
कं नमः दक्षिणमुखे,
(४) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
यं नमः उत्तरमुखे,
(५) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
जां नमः उरसि,
(६) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
मं नमः कण्ठे,
(७) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
हें नमः मुखे,
(८) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
सुं नमः नाभौ,
(९) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
गं नमः हृदि,
(१०) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः धिं नमः पृष्ठे,
(११) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः
पुं नमः कुक्षौ,
(१२) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः ष्टिं नमः लिङ्गे,
(१३) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः वं नमः गुदे,
(१४) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः र्धं नमः दक्षिणोरुमूले,
(१५) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः नं नमः वामोरुमूले,
(१६) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः ॐ नमः दक्षिणोरुमध्ये,
(१७) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः र्वा नमः वामोरुमध्ये,
(१८) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः सं नमः दक्षिणजानुवृत्ते,
(१९) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः कं नमः वामजानुनि,
(२०) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः मिं नमः दक्षिणजानुवृत्ते,
(२१) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः वं नमः वामजानुवृत्ते,
(२२) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः बं नमः दक्षिणस्तने,
(२३) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः न्धं नमः वामस्तने,
(२४) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः नां नमः दक्षिणपार्श्वे,
(२५) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः मृं नमः वामपार्श्वे,
(२६) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः त्यों नमः दक्षिणपादे,
(२७) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः र्मुं नमः वामपादे,
(२८) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः क्षीं नमः दक्षिणकरे,
(२९) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः यं नमः वामकरे,
(३०) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः मां नमः दक्षिणनासापुटे,
(३१) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः मृं नमः वामनासापुटे,
(३२) ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः तां नमः मूर्ध्नि ॥१३-१५॥
अथैकादशविन्यस्येत्पदानि शिरसि
भ्रवोः ।
नेत्रयोर्वदने गण्डे हृदये जठरे
शिवे ॥ १६ ॥
ऊर्वोर्जानुप्रदेशे च पादयोः क्रमशः
पुनः ।
त्रिवेदगुणबाणाब्धिद्विरामाक्षिगुणेन्दुभिः
॥ १७ ॥
त्रिभिर्वर्णैश्च विशेया
पदसंख्याक्रमाद् बुधैः।
मूलेन व्यापकं कृत्वा ततो ध्यायेत्
त्रिलोचनम् ॥ १८ ॥
तदनन्तर ग्यारह पदों का शिर,
भौह, नेत्र, मुख,
गण्डस्थल, हृदय, उदर,
लिङ्ग, ऊरु, जानु और
दोनो पैरो में न्यास करना चाहिए । ‘त्र्यम्बकं यजामहे’
इत्यादि मन्त्र के ३, ४, ३, ५, ४, २, ३, २, ३, १ और ३ वर्णों से विद्वान् एक एक पद बना लें ।
फिर मूल मन्त्र से व्यापक न्यास कर भगवान् शंकर का ध्यान करना चाहिए
॥१६-१८॥
विमर्श - एकादश पदन्यास ।
यथा –
१. त्र्यम्बकं शिरसि,
२. यजामहे भ्रुवोः ३. सुगन्धिं नेत्रयो. ४. पुष्टिवर्धनम् मुखे,
५. उर्वारुकं गण्डयोः, ६. एव हृदये, ७, बन्धनात् जठरे, ८. मृत्योः
लिङ्गे, ९. मुक्षीय उर्वोः, १०. मा
जान्वोः, ११. अमृतात् पादयोः ॥१६-१८॥
त्रिलोचनध्यानवर्णनम्
हस्ताम्भोजयुगस्थकुम्भयुगलादुद्धृत्य
तोयं शिरः
सिञ्चन्तं करयोर्युगेन दधत स्वाके
सकुम्भौ करौ ।
अक्षस्रङ्मृगहस्तमम्बुजगतं
मूर्द्धस्थचन्द्रस्रवत्
पीयूषोऽत्रतर्नु भजे सगिरिजं
मृत्युञ्जयं त्र्यम्बकम् ॥ १९ ॥
अब भगवान शंकर द्वारा उपयोग में
लाये गये हाथों का वर्णन करते हुए ध्यान कहते हैं - अपने अङ्गास्थ दो करों
में अमृत कुम्भ धारण किए हुये, उसके ऊपर वाले
दो हाथों से उस अमृत कुम्भ से सुधामय जल निकालते हुये, उसके
ऊपर के दोनों हाथों से उस अमृत जल को शिर पर अभिषिक्त करते हुये, शेष दो हाथो में क्रमशः मृग और अक्षमाला धारण किए हुये, शिरःस्थित चन्द्रमण्डल से स्त्रवित अमृत धारा से अपने शरीर को आप्लावित
करते हुये, पार्वती सहित त्रिनेत्र सदाशिव मृत्युञ्जय का मैं
ध्यान करता हूँ ॥१९॥
मुष्टिसारङ्गशक्त्याख्या
लिङ्गपञ्चमुखाभिधाः ।
मुद्राः प्रदर्य प्रजपेल्लक्षं तस्य
दशांशतः ॥ २०॥
मुष्टि सारङ्ग,
शक्ति, लिङ्ग, एवं
पञ्चमुख मुद्रायें प्रदर्शित कर एक लाख की संख्या में इस मन्त्र का जप करना
चाहिए ॥२०॥
विमर्श - मुष्टि मुद्रा -
दाहिने हाथ की हथेली से मुष्टिका बना कर ऊपर की ओर प्रदर्शित करने से मुष्टि
मुद्रा बनती है । यह मुद्रा सभी विघ्नों का विनाश करने वाली कही गई है ।
मृगमुद्रा
- दहिने हाथ की अनामिका और अँगूठे को मिलाकर उस पर मध्यमा को भी रख्खे । शेष दो
उँगलियों को ऊपर की ओर सीधा खडा करे । यह मृग मुद्रा है ।
शक्ति मुद्रा
- दोंनों हाथों से मुठ्ठी बन कर बॉये हाथ की मुठ्ठी के ऊपर दाहिने हाथ की मुठ्ठी
को रख कर शिर के ऊपर संयोजन करने से शक्ति मुद्रा निष्पन्न होती है ।
लिङ्गमुद्रा
- दाहिने हाथ के अँगूठे को ऊपर उठाकर उसे
बायें अँगूठे से बाँधे । उसके बाद दोंनो हाथों की उँगलियों को परस्पर बाँधे । यह शिवसान्निध्यकारक
लिङ्गमुद्रा है ।
पञ्चमुख मुद्रा
- दोनों हाथों के मणिबन्धों को मिलाकर आगे की अंगुलियों को परस्पर मिलाना चाहिए ।
शिव को संतुष्ट करने वाली यह पञ्चमुख मुद्रा कही गई है ॥२०॥
दशद्रव्यैः प्रजुहुयात्तानि
बिल्वफलं तिलाः।
पायसं सर्पिषा दुग्धं दधिदूर्वा च
सप्तमी ॥ २१॥
बटात्पलाशात् खदिरात्समिधो
मधुरप्लुताः।
जप करने के बाद दश द्रव्यों से
दशांश होम करना चाहिए । १. बिल्वफल २. तिल, ३.
खीर, ४. घी, ५. दूध, ५. दही, ७. दूर्वा, ८. वट की
समिधा, ९. पलाश की समिधा एवं १०. खैर की समिधायें दश
द्रव्य कहे गये हैं । इन तीनों समिधाओं को घी, शहद और
शक्कर में डुबोकर होम करना चाहिए ॥२१-२२॥
वामादिशक्तिसंयुक्त पीठे शैवे
यजेच्छिवम् ॥ २२ ॥
वामा ज्येष्ठा तथा रौद्रीकाली
प्रोक्ता चतुर्थिका ।
कलादिका विकारिणी बलाधाविकरण्यपि ॥
२३ ॥
बलप्रमथनी चान्या सर्वभूतदमन्यपि ।
मनोन्मनीति शर्वस्य नवोक्ताः
पीठशक्तयः ॥ २४ ॥
अब पीठ शक्तियाँ कहते हैं -
वामादि शक्तियों के साथ शैव पीठ पर शिव का पूजन करना चाहिए । १. वामा,
२. ज्येष्ठा, ३. रौद्री, ४. काली चौथी शक्ति कही गई है । इसके बाद ५. कलविकरणी, ६. बलविकरणी, ७. बलप्रमथनी, ८.
सर्वभूतदमनी, ९ शक्तियाँ कही गई हैं ॥२२-२४॥
तारो नमो भगवते सकलेति पदं ततः।
गुणात्मशक्तियुक्ताय अनन्ताय
वदेत्पदम् ॥ २५॥
योगापीठात्मने पीठमन्त्रः प्रोक्तो
नमोन्तिकः ।
पीठे पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा
मूर्तिमूलेन कल्पयेत् ॥ २६ ॥
तार (ॐ),
फिर ‘नमो भगवते सकल’, फिर
‘गुणात्मशक्तियुक्ताय अनन्ताय’ पद,
फिर ‘योगपीठात्मने ’ पद
और ‘नमः’ इस मन्त्र से पीठ पर
पुष्पाञ्जलि देकर मूल मन्त्र से मूर्ति की कल्पना करे यह पीठ मन्त्र कहा है
॥२५-२६॥
विमर्श - पीठपूजा विधि -
वृत्ताकार कर्णिका अष्टदल फिर भूपुर लिख कर यन्त्र बनाना चाहिए । उसी पर
महामृत्युञ्जय भगवान् का पूजन करना चाहिए । सर्वप्रथम (१६. १९ में वर्णित) भगवान्
मृत्युञ्जय के स्वरुप का ध्यान कर, मानसोपचार
से पूजन कर, उनके लिए विधिवत् अर्घ्य स्थापित कर पीठदेवताओं
का पीठ के मध्य में इस प्रकार पूजन करना चाहिए - ॐ आधारशक्तयै नमः, ॐ प्रकृत्यै नमः, ॐ कूंर्माय नमः,
ॐ शेषाय नमः, ॐ पृथिव्यै नमः, ॐ क्षीरसमुद्राय नमः,
ॐ श्वेतद्वीपाय नमः, ॐ मणिमण्डपाय नमः, ॐ कल्पवृक्षाय नमः,
ॐ मणिवेदिकायै नमः ॐ
रत्नसिंहासनाय नमः,
फिर आग्नेयादि कोणों में
धर्म आदि का तथ पूर्वादि दिशाओं में अधर्म आदि का पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ धर्माय नमः,
आग्नेये, ॐ ज्ञानाय नमः नैऋत्ये,
ॐ वैराग्याय नमः वायव्ये, ॐ ऐश्वर्याय नमः ऐशान्ये,
ॐ अधर्माय नमः पूर्वे, ॐ अज्ञानाय नमः
दक्षिणे,
ॐ अवैराग्याय नमः पश्चिमे, ॐ अनैश्वर्याय नमः उत्तरे
।
पुनः पीठ के मध्य में अनन्त
आदि का इस प्रकार पूजन करना चाहिए -
ॐ अनन्ताय नमः, ॐ पदम्नाभाय नमः,
ॐ अं द्वादशकलात्मने सूर्यमण्डलाय
नमः, ॐ उं षोडशकलात्मने सोममण्डलाय
नमः,
ॐ रं दशकलात्मने वहिनण्डलाय नमः, ॐ सं सत्त्वाय नमः,
ॐ रं रजसे नमः, ॐ तं तमसे नमः,
ॐ आं आत्मने नमः, ॐ पं परमात्मने
नमः
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः ।
तत्पश्चात् केशरों में पूर्वादि ८ दिशाओं में तथा मध्य
मे वामादि शक्तियों की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ वामायै नमः,
पूर्वे ॐ
ज्येष्ठायै नमः, आग्नेये,
ॐ रौद्र्यै नमः,
दक्षिणे, ॐ काल्यै नमः नैऋत्ये,
ॐ कलविकरण्यै नम्ह पश्चिमे ॐ बलविकरण्यैः,
वायव्ये,
ॐ बलप्रमथिन्यै नमः,
उत्तरे, ॐ सर्वभूतदमन्यै नमः, (पीठ्यमध्ये),
फिर ‘ॐ नमो भगवते सकलगुणात्मशक्तियुक्ताय अनन्ताय योगपीठात्मने नमः’ इस मन्त्र से आसन देकर, मूल मन्त्र से मूर्ति का
ध्यान कर, आवाहनादि उपचारों से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त
महामृत्युञ्जय का पूजन कर, उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा
प्रारम्भ करनी चाहिए ॥२२-२६॥
दशावरणपूजाप्रकारः
पाद्यादिकुसुमान्तोपचारान्ते
त्वावृतीर्यजेत् ।
पाद्यादि उपचारों से आरम्भ कर
पुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त मृत्युञ्जय का पूजन करने के बाद आवरण पूजा करनी चाहिए
॥२७॥
ईशानं शम्भुकोणे तु
यजेदीशानमन्त्रतः ॥ २७ ॥
तत्पुरुषमघोरं च वामदेवं तृतीयकम् ।
सद्योजातं यजेदिक्षु
वेदोक्तस्वस्वमन्त्रतः ॥ २८ ॥
प्रथम आवरण
में ‘ईशानः सर्वविद्यानाम०" (तैतिरीय संहितोक्त) मन्त्र से ईशान कोण में
ईशान का, फिर ‘तत्पुरुषाय विद्महे०’
‘अघोरभ्योथ घोरेभ्यो०’ ‘वामदेवाय नमः’ तत्पुरुष, अघोर, वामदेव,
और सद्योजात का पूजन कर्ना चाहिए ॥२७-२८॥
ईशानादिसमीपेषु निवृत्त्याद्याः
कलाक्रमात् ।
निवृत्तिश्च प्रतिष्ठा च
विद्याशान्तिश्चतुर्थ्यपि ॥ २९ ॥
शान्त्यतीता पञ्चवीति ततोऽङ्गानि
यजेच्च षट् ।
द्वितीय आवरण
में पुनः ईशानादि के समीप में क्रमश निवृत्ति आदि कलाओं का पूजन करना चाहिए ।
निवृत्ति,
प्रतिष्ठा, विद्या, शान्ति
एवं शान्त्यतेता ये पाँच कलायें है । फिर षडङ्गन्यास पूजा करनी चाहिए ॥२९-३०॥
सूर्येन्दुक्षितितोयाग्निपवनाकाशयज्वनाम्
॥ ३० ॥
मूर्तयोऽष्टौ क्रमात्
पूज्यास्तृतीयावरणस्थिताः ।
सूर्य,
चन्द्र, पृथ्वी, जल,
अग्नि, पवन, आकाश एवं वायु, वायु, तृतीयावरण में स्थित इन आठ देवताओं का पूजन करना चाहिए ॥३०-३१॥
रमा राकाप्रभाज्योत्स्ना
पूर्णोषापूरणीसुधा ॥ ३१॥
चतुर्थावरणे पूज्याः शक्तयो
धवलप्रभाः।
चतुर्थ आवरण
में श्वेत आभा वाली रमा, रमा, राका, प्रभा,
ज्योत्स्ना, पूर्णा, उषा,
पूरणी एवं सुधा - इन ८ शक्तियों का पूजन करना चाहिए ॥३१-३२॥
विश्वावन्द्यासिता प्रहह्वा
सारासंध्याशिवानिशा ॥ ३२ ॥
पञ्चमावरणेभ्याः शक्तयः
श्यामविग्रहाः ।
पञ्चम आवरण
में विश्वा, वन्द्या, सिता,
प्रहवा, सारा, सन्ध्या,
शिवा एवं निशा इन श्याम शरीर वाली ८ शक्तियों का पूजन करना चाहिए
॥३२-३३॥
आर्याप्रज्ञाप्रभामेधा शान्तिः
कान्तिधृतिर्मतिः ॥ ३३ ॥
षष्ठावरणगाह्यष्टौ संपूज्या
अरुणप्रभाः ।
षष्ठ आवरण
में अरुण आभावाली आर्या, प्रज्ञा, प्रभा, मेघा, शान्ति, कान्ति घृति तथा मति - इन ८ शक्तियों का पूजन करना चाहिए ॥३३-३४॥
धरोमापावनीपद्माशान्ता मोघा जयाऽमला
॥ ३४ ॥
सप्तमावृतिगाः पूज्याः शक्तयः
काञ्चनप्रभाः।
अनन्तसूक्ष्मसंज्ञश्च तृतीयस्तु
शिवोत्तमः ॥ ३५ ॥
एकनेत्रैकरुद्रौ च त्रिमूर्तिः षष्ठ
ईरितः।
श्रीकण्ठोऽथ शिखण्डी च संपूज्या
अष्टमावृतौ ॥ ३६ ॥
सप्तम आवरण
में सोने जैसी आभा वाली धरा, उमा, पावनी, पद्मा, शान्ता, अमोघा, जया तथा अमला - इन आठ शक्तियों का पूजन करना
चाहिए ।
फिर अनन्त,
सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकनेत्र,
एकरुद्र, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ
तथा शिखण्डी, का अष्टम आवरण में पूजन करना चाहिए
॥३४-३६॥
उत्तरादियजेत्पश्चादुमा चण्डेश्वरं
पुनः।
नन्दिनं च महाकालं गणेशं वृषभं पुनः
॥ ३७ ॥
यजेद् भृङ्गिरिटिस्कन्दं
नवमावरणस्थितान् ।
ब्राह्मयाद्या मातरः पूज्या
दशमावरणे ततः ॥ ३८॥
इन्द्रादयश्च वजाद्या एवं सिद्धो भवेन्मनुः
।
फिर नवम आवरण में उत्तर आदि
दिशाओं के क्रम से उमा एवं चण्डेश्वर का, नन्दि
एवं महाकाल का, गणेश एवं वृषभ का, भृङ्गिरिटि एवं
स्कन्द का पूजन करना चाहिए ।
तत्पश्चात दशम आवरण में
ब्राह्यी अष्ट मातृकाओं का पूजन करना चाहिए । फिर इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा
उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार के पूजन से यह मन्त्र सिद्ध
होता है ॥३७-३९॥
विमर्श - आवरण पूजा -
सर्वप्रथम कर्णिका के ईशान कोण में ‘ॐ
ईशान सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्याधिपति ब्रह्मणोधिपतिर्ब्रह्माशिवो मे
अस्तु सदाशिवोम्’ इस वैद्क मन्त्र से प्रथम आवरण में ईशान
देव का पूजन करना चाहिए ।
फिर पूर्व में -‘ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्’ इस वैदिक मन्त्र से तत्पुरुष का, इसके बाद दक्षिण
दिशा में - ‘अघोरेभ्यो अथ घोरेभ्या घोरघोरतरेभ्यः ।
सर्वेभ्यः सर्वसर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररुपेभ्यः’ इस
वैदिक मन्त्र से अघोर का, तत्पश्चात् ‘ॐ
वामदेवाय नमो बलविकरणाय नमः’ इस वैदिक मन्त्र से पश्चिमे
दिशा में वामदेव का, तदनन्तर ‘ॐ
अद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमः । भवेभवे नातिभवे भवस्य मां भवदेवाय नमः’
इस वैदिक मन्त्र से सद्योजात का उत्तर दिशा में पूजन करना
चाहिए । फिर ईशानादि देवों के पास निवृत्ति आदि ५ कलाओं का निम्न मन्त्रों
से पूजन करना चाहिए ।-
ॐ निवृत्यै नमः, ॐ प्रतिष्ठायै नमः, ॐ विद्यायै नमः,
ॐ शान्त्यै नमः ॐ शान्त्यतीतायै नमः ।
इस प्रकार प्रथम आवरण का पूजन कर द्वितीयावरण
में षडङ्ग मन्त्रों का आग्नेयादि कोणो में, मध्य
में तथा दिशाओं में निम्न मन्त्रों से पूजन करना चाहिए । ॐ ह्रौं ॐ जूं सः
भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः,
ॐ हौं ॐ जूं भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ रुद्राय अमृत मूर्तये याजीवय
शिरसे स्वाहा, ॐ हौ ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः सुगन्धिं
पुष्टिवर्धनं ॐ रुद्राय चन्द्र शिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्, ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात् ॐ रुद्राय
त्रिपुरान्तकाय हां हीं कवचाय हुम्, ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः
स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ रुद्राय त्रिलोचनाय० नेत्रत्रया वौषट्, ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः मामृतात् ॐ रुद्राय अग्निनत्रयाय ज्वल०
अस्त्राय फट् ।
फिर तृतीय आवरण में अष्टपत्र
में पूर्व आदि दिशाओं में नाम मन्त्रों से सूर्य आदि अष्टमूर्तियों का इस
प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ सूर्यमूर्तये नमः, ॐ चन्द्रमूर्तये नमः, ॐ क्षितिमूर्तये नमः,
ॐ जलमूर्तये नमः, ॐ अग्निमूर्तये नमः, ॐ वायुमूर्तये नमः,
ॐ आकाशमूर्तये नमः, ॐ यज्ञमूर्तये नमः,
चतुर्थ आवरण
में पूर्वादि ८ दिशाओं के क्रम से श्वेत आभावाली रमा आदि का निम्न प्रकार से पूजन
करना चाहिए । यथा -
ॐ रमायै नमः, ॐ राकायै नमः, ॐ प्रभायै नमः,
ॐ ज्योत्स्नायै नमः, ॐ पूर्णायै नमः, ॐ उषायै नमः,
ॐ पूरण्यै नमः, ॐ सुधायै नमः,
पञ्चम आवरण
में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से श्याम वर्ण वाली विश्वा आदि का निम्न मन्त्रों से
पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ विश्वायै नमः, ॐ वन्द्यायै नमः, ॐ सितायै नमः,
ॐ प्रहवायै नमः, ॐ सारायै नमः, ॐ सन्ध्यायै नमः,
ॐ शिवायै नमः, ॐ निशायै नमः,
षष्ठ आवरण
में पूर्वादि दिशाओं में अरुण आभा वाली आर्या आदि का निम्न मन्त्रों से पूजन करना
चाहिए । यथा -
ॐ आर्यायै नमः, ॐ प्रज्ञायै नमः, ॐ प्रभायै नमः,
ॐ मेधायै नमः, ॐ शान्त्यै नमः, ॐ काल्यै नमः,
ॐ धृत्यै नमः, ॐ मत्यै नमः
सप्तम आवरण
में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से स्वर्ण जैसी आभा वाली धरा आदि की इस प्रकार पूजा
करनी चाहिए। यथा -
ॐ धरायै नमः, ॐ उमायै नमः, ॐ पावन्यै नमः,
ॐ पद्मायै नमः, ॐ शान्तायै नमः, ॐ अमोघायै नमः,
ॐ जयायै नमः, ॐ अमलायै नमः,
अष्टम आवरण
में पूर्वादि दिशओं के क्रम से अनन्त आदि ८ रुद्रों की निम्न मन्त्रों से
पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ अनन्ताय नमः, ॐ सूक्श्माय नमः, ॐ शिवोत्तमाय नमः
ॐ एकनेत्राय नमः, ॐ एकरुद्राय नमः, ॐ त्रिमूर्तये नमः,
ॐ श्रीकण्ठाय नमः, ॐ शिखण्डिने नमः,
नवम आवरण
में उत्तर दिशा से विलोम क्रम द्वारा उमा आदि की निम्न मन्त्रों से पूजा करनी
चाहिए । यथा -
ॐ उमायै नमः,
उत्तरे, ॐ चण्डेश्वराय नमः वायव्ये,
ॐ नन्दिने नमः पश्चिमे, ॐ महाकालाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ गणेशाय नमः दक्षिणे, ॐ वृषभाय नमः आग्नेये,
ॐ भृङ्गरिटिने नमः पूर्वे, ॐ स्कन्दाय नमः ऐशान्ये,
फिर दशम आवरण में पूर्व आदि
दिशाओं में ब्राह्यी आदि मातृकाओं का निम्न मन्त्रों से पूजन करना चाहिए।यथा-
ॐ ब्राह्ययै नमः, ॐ माहेश्वर्यै नमः, ॐ कौमार्यै नमः,
ॐ वैष्णव्यै नमः ॐ वाराह्यै नमः ॐ इन्द्राण्यै नमः,
ॐ चामुण्डायै नमः, ॐ महालक्ष्म्यै नमः,
।
इसके बाद भूपुर में अपनी
अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का निम्न मन्त्रों से पूजन करना चाहिए ।
यथा - ॐ लं इन्द्राय नमः
ॐ रं अग्नये नमः ॐ मं यमाय नमः ॐ लं इन्द्राय नमः
ॐ वं वरुणाय नमः ॐ यं वायवे नमः ॐ क्षं निऋत्ये नमः
ॐ ईशानाय नमः, ॐ आं ब्रह्मणे नमः, ॐ ह्रीं अनन्तयाय नमः
फिर भूपुर के बाहर पूर्वादि
दिशाओं में वज्रादि आयुधों की इस प्रकार पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ शं शक्तये नमः, ॐ दं दण्डाय नमः, ॐ वं वज्राय नमः,
ॐ पां पाशय नमः, ॐ अं अंकुशाय नमः, ॐ गं गदायै नमः,
ॐ शूं शूलाय नमः, ॐ चं चक्राय नमः, ॐ पं पद्माय नमः,
इस प्रकार आवरण पूजा करने के बाद
धूप दीपादि उपचारों से विधिवत् भगवान् महामृत्युञ्जय का पूजन करना चाहिए
॥२६-३९॥
प्रयोगकथनम्
जन्मभे दशमे
तस्मात्पुनश्चैकोनविंशके ॥ ३९॥
जहयाद्यः सुधावल्याः
समिधश्चतुरंगुलाः ।
सरोगान्त्सकलाञ्छत्रून पराभूय
श्रियायुतः ॥ ४०॥
मोदते पुत्रपौत्राद्यैः शतवर्षाणि
साधकः ।
काम्य प्रयोग
- जन्म नक्षत्र से १० वें नक्षत्र में अथवा २१ में गुडूची की चार अंगुल
वाली समिधाओं से जो व्यक्ति हवन करता है वह अपने रोग एवं शत्रुओं का विनाश कर
संपत्ति प्राप्त करता है और पुत्र पौत्रों के साथ आमोद पूर्वक सौ वर्ष तक जीवित
रहता है ॥३९-४१॥
समिदिभः श्रीफलोत्थाभिर्होमः
सम्पत्तिसिद्धये ॥ ४१॥
पलाशतरुजाभिस्तु ब्रह्मवर्चससिद्धये
।
संपत्ति प्राप्त करने के लिए श्रीफल
की समिधाओं से हवन करना चाहिए । ब्रह्मवर्चस् वृद्धि के लिए पलाश वृक्ष की लकडी से
होम करना चाहिए । धन प्राप्ति के लिए बरगद की समिधाओं से तथा कान्त बढाने के लिए
खदिर की समिधाओं से हवन करना चाहिए ॥४१-४२॥
वटोत्थाभिर्धनप्राप्त्यैखादिराभिस्तु
कान्तये ॥ ४२ ॥
तिलैरधर्म नाशाय सर्षपैः
शत्रुनष्टये ।
पायसेन कृतो होमः
कान्तिश्रीकीर्तिदायकः ॥ ४३॥
कृत्या मृत्युक्षयकरो दध्ना
संवादसिद्धिदः ।
होमसंख्या तु सर्वत्रायुतमानेन
कीर्तिता ॥ ४४ ॥
अधर्म नाश के लिए तिलों से और
शत्रुनाश के लिए सरसों का होम करना चाहिए । खीर का होम करने कान्ति,
लक्ष्मी तथा कीर्ति प्राप्त होती है ।
दही का होम परप्रयुक्त कृत्या एवं अपमृत्यु का नाश करता है तथा विवाद में सफलता है
॥४२-४४॥
इन सभी आहुतियों में होम की
संख्या दश हजार कही गई है ॥४४॥
अष्टोत्तरशतं दूर्वात्रिकहोमागुजां
क्षयः ।
स्वजन्मदिवसे यस्तु
पायसैमधुरान्वितैः ॥ ४५ ॥
जुहोति तस्य
वर्द्धन्तेमलारोग्यकीर्तयः ।
तीन पत्तों वाले तीन तीन दूर्वाओं
के १०८ होम से रोग नष्ट होते है । जो व्यक्ति अपने वर्षगांठ के दिन त्रिमधुर (घी,
मधु और शर्करा) मिश्रित खीर से होम करता है जीवन में उसकी लक्ष्मी,
आरोग्य एवं कीर्ति का विस्तार होता है ॥४५-४६॥
गुडूचीबकुलोत्थाभिः समिभिर्हवनं
नृणाम् ॥ ४६ ॥
जन्म तारात्रयेरोगं मृत्यं चापि
विनाशयेत् ।
जन्म नक्षत्र से तीन नक्षत्र
पर्यन्त गुडूची एवं बकुल (माल श्रीं) की समिधाओं से होम करने से मनुष्यों का रोग
एवं अपमृत्यु दूर हो जाता है ॥४६-४७॥
प्रत्यहजुहुयाद् दूर्वा
अपमृत्युविनष्टये ॥ ४७॥
किंबहूक्तेन सर्वेष्टं प्रयच्छति
शिवो नृणाम् ।
अपामार्गसमिद्भिश्च सिद्धान्नैवरनष्टये
॥ ४८ ॥
दुग्धाक्तरमृताखण्डैमांसहोमोऽखिलाप्तये
।
अपमृत्यु को नष्ट करने के लिए
प्रतिदिन दूर्वाओं का होम करना चाहिए । इस विषय में हम विशेष क्या कहें भगवान्
शिव उपासना से मनुष्यों को समस्त अभीष्ट फल देते हैं ॥४७-४९॥
ज्वर नष्ट करने के लिए अपामार्ग की
समिधाओं का होम करना चाहिए । तथा समस्त अभिलषित प्राप्ति हेतु दुग्ध में डुबोये
गये गियोय के टुकडो से एक मास पर्यन्त होम करना चाहिए ॥४८-४९॥
रुद्रजपांगभूतोऽपरो दशार्णमन्त्रः
तारो हृद्भगवान्डेन्तो रुद्रायेति
दशाक्षरः ॥ ४९ ॥
अब महामृत्युञ्जय के दशाक्षर मन्त्र
का उद्धार कहते हैं -
तार (ॐ) हृत् (नमः) चतुर्थ्यन्त
भगवच्छन्द (भगवते), फिर ‘रुद्राय’ - यह दशाक्षर मन्त्र है ।
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ‘ॐ नमो भगवते रुद्राय’
॥४९॥
इस मन्त्र के बोधायन ऋषि हैं,
पंक्ति छन्द तथा महारुद्र देवता है ॥४९॥
बोधायनो मुनिः पंक्तिश्छन्दो
रुद्रोऽस्य देवता ।
रुद्रविधाने एकविंशतिऋचात्मकन्यासः
पञ्चन्यासान् प्रकुर्वीत
स्वस्वरुद्रत्वसिद्धये ॥ ५० ॥
यजुर्वेदस्थितान
मन्त्रानेकत्रिंशत्स्थले न्यसेत् ।
इस मन्त्र में आये हुये,
अपने उन उन रुद्र स्वरुपों को बनाने के लिए यजुर्वेद में आये
हुये मन्त्रों से शरीर के इकत्तीस स्थानों पर इस प्रकार पञ्च न्यास करना चाहिए
॥५०-५१॥
या ते रुद्रशिखादेशे
ह्यस्मिन्महतिमस्तके ॥ ५१॥
सहस्राणि ललाटे तु हंसः शुचि
भ्रुवोर्च्यसेत् ।
त्र्यम्बकं नेत्रयोः श्रुत्योर्नम
सुत्याय विन्यसेत् ॥ ५२ ॥
मानस्तोके नासिकायामवतत्यमुखे तथा ।
नीलग्रीवा इति ऋचोर्द्वयं कण्ठे
न्यसेद बुधः ॥ ५३ ॥
नमस्ते अस्त्वायुधेति
मन्त्रमंसद्वये न्यसेत् ।
या ते हेतिरिमा बाह्वोर्ये
तीर्थानीति हस्तयोः ॥ ५४ ॥
सद्योजातं प्रपद्यामीत्यूचमंगुष्ठयोर्त्यसेत्
।
वामदेवाय तर्जन्योरघोरेभ्योऽथ
मध्ययोः ॥ ५५॥
तत्पुरुषायाः नामायामीशानस्तु
कनिष्ठयोः।
नमो वः किरिकेभ्यस्तु हृदि
मन्त्रमिमं न्यसेत् ॥ ५६ ॥
नमो गणेभ्यः पृष्ठे तु
विन्यसेत्साधकोत्तमः ।
ततः पार्श्वद्वये न्यस्येन्नमो
हिरण्यबाहवे ॥ ५७ ॥
हिण्यगर्भो नाभौ च
कट्योर्मीढुष्टमेति च ।
ये भूतानामिमं गुह्ये मन्त्रं
विन्यस्य साधकः ॥ ५८ ॥
अपाने शिरसा युक्तां जातवेदस
इत्यूचम् ।
मानो महान्तमित्यूर्वोरेषते
जानुनोय॑सेत् ॥ ५९ ॥
ये पथां पादयोय॑स्याध्यवोचत् कवचे
न्यसेत् ।
मन्त्रं नमो बिल्मिने चेत्युपवर्मणि
विन्यसेत् ॥ ६०॥
नमोऽस्तु नीलग्रीवाय तृतीयेऽक्षिणि
साधकः ।
प्रमुञ्च धन्वन इति
मन्त्रेणाऽस्त्रं प्रविन्यसेत् ॥ ६१॥
इत्येकत्रिंशदङ्गानां न्यासः प्रथम
ईरितः।
ततः कुर्वीत दिग्बन्धं य एतावन्त
इत्यूचा ॥ ६२ ॥
(१) ‘याते रुद्र०’ मन्त्र का
शिखा पर, ‘अस्मिन महति०’ का भौं पर,
‘त्र्यम्बकं यहामहे०’ का नेत्रों पर, ‘नमः स्त्रुत्यायच०’ का कर्ण पर, ‘मानस्तोके०’ का नाक पर, ‘अवतत्यं
धनुः०’ का मुख पर, ‘नीलग्रीवा०’
इन दो ऋचाओं का कण्ठ पर न्यास करना चाहिए । ‘नमस्तेअस्त्वायुधि०’
इस मन्त्र का दोनों कन्घों पर, ‘यात हेति०’
इस मन्त्र से दोनों बाहु में, ‘ये तीर्थानि०’
इस मन्त्र का दोनों हाथों में, ‘संद्योजातं
प्रपद्यामि०’ इस मन्त्र का दोनों अंगूठो में, ‘वामदेवाय०’ इस मन्त्र का दोनो तर्जनी में, ‘अघोरेभ्य०’ इस मन्त्र का दोनों मध्यमा में, ‘तत्पुरुषाय०’ इस मन्त्र का दोनों अनामिका में,
ईशानः०’ इस मन्त्र का दोनों कनिष्ठा में,
‘नमो वः किरिकेभ्यः०’ इस मन्त्र का हृदय में,
‘नमो गणेभ्यः०’ इस मन्त्र का पृष्ठ में,
‘नमो हिरण्यबाहवे०’ इस मन्त्र का दोनों
पार्श्वभाग में, ‘हिरण्यगर्भः०’ इस
मन्त्र का नाभि में, ‘मीढुष्टम०’ इस
मन्त्र का दोनों कटिभाग में, ‘ये भूता नाम०’ इस मन्त्र का गुह्यस्थान में, ‘जातवेद’ से लेकर दो ऋचाओं का शिरः युक्त अपान में, ‘मानो
महान्तं०’ इस मन्त्र का दोनो ऊरुप्रदेश में ‘एष ते रुद्रभगः०’ इस मन्त्र का दोनो जानुओं में,
‘ये पथामृ०’ दोनों पैरो में, ‘अध्यवोचदधिवक्ता०’ का कवच में, ‘नमो विल्मिने च कवचिने०’ इस मन्त्र का उपकवच में,
‘नमोस्तु नीलग्रीवाय०’ नेत्रत्रय में,
‘प्रमुञ्चधन्वनः०’ का अस्त्र में न्यास करना
चाहिए । इस प्रकार से उक्त अंगों में मन्त्रों का न्यास करना प्रथम न्यास
कहा है ॥५१-६२॥
विमर्श
- १. ॐ या ते रुद्र... चाकशीहि (यजु०. १६. २) शिखायाम्,
२. ॐ अस्मिन् महति ... तन्मसि,
(यजु०. १६. ५५)) शिरस,
३. ॐ सहस्त्राणि... कृधि,
(यजु०. १६. ५३) भाले,
४. ॐ हंसः... शुचिषद्,
(यहु०. १०. २४) भ्रुवोः,
५. ॐ त्र्यम्बकं ... मामृतात्,
(यजु०. ३. ६०) नेत्रयाः,
६. ॐ नमः स्त्रुत्याय ... नमः,
(यजु०. १६. ३७) कर्णयोः,
७. ॐ मानस्तोके ... हवामहे,
(यजु०. १६. १६) नसोः,
८. ॐ अवतत्य ... भवः,
(यजु०. १६. १३) मुखे,
९. ॐ नीलग्रीवाः... क्षमाचराः
(यजु०. १६. ५६, ५७) कण्ठे,
१०. ॐ नमस्ते ... परिभुज (यजु०.१६.
१४) स्कन्धयोः,
११. ॐ या ते ... परिभुज,
(यजु०. १६. ११) बाहोः,
१२. ॐ ये तीर्थानि ... तन्मसि,
(यजु०. १६. ६१) हस्तयोः,
१३. ॐ सद्योजातं ....नमः,
(तै० आ०. १०. ४३. १) अंगुष्टयोः,
१४. ॐ वामदेवाय ... नमः,
(तै० आ०. १०. ४४. १) तर्जन्यो,
१५. ॐ अघोरेभ्यः ... रुद्ररुपेभ्यः,
(तै० आ०. १०. ४५.१) मध्यमयोः,
१६. ॐ तत्पुरुषाय ... प्रचोदयात्,
(तै० आ०. १०. ४६. १) अनामिकयोः,
१७. ॐ ईशानः ... सदाशिवोम् (तै आ०.
१०. ४७. १) कनिष्ठयोः,
१८. ॐ नमो वः ... नम आनिहंतेभ्यः,
(यजु० १६. ४६) हृदये,
१९. ॐ नमो गणेभ्यो ... नमो नमः,
(यजु. १६. २५) पृष्ठे,
२०. ॐ नमो हिरण्यबाहवे ... पतये नमः,
((यजु०. १६. १७.) पार्श्वयोः,,
२१. ॐ हिरण्यगर्भः... विधेम (यजु०.
१३. ४.) नाभौं,
२२. ॐ मीढुष्टम ... गहि,
(यजु०. १६. ५१) कट्योः,
२३. ॐ ये भूतानाम ... तन्मसि,
(यजु० १६. ५९) गुह्ये,
२४. ॐ जातवेदसे .... दुरितात्यग्निः,
(तै० आ०. १०. १. १६) तामाग्निवर्णाम्० नमः ... (तै० आ०. १०. १. १)
दो ऋचाओं से शिरोयुक्त अपाने,
२५. ॐ मानो महान्तं ... रीरिषः,
(यजु०. १६. १५.) उर्वोः,
२६. ॐ एष ते ... पशुः,
(यजु०. ३. ५७) जान्वाः,
२७. ॐ ये पथां ... तन्मसि,
(यजु०. १६. ६०) पादयोः,
२८. ॐ अध्यवोचदधिवक्ता ... परासुव,
(यजु०. १६. ५) कवचे,
२९. ॐ नमो बिल्मिने ... चाहन्याच च,
(१६. ३५) उपकवचे,
३०. ॐ नमोस्तु ... नम,
(यजु०. १६ ८) तृतीय नेत्रे,
३१. ॐ नमोस्तु ... भगवोवप,
(यजु. १६. ८) अस्त्रे,
उक्त मन्त्रों से शरीर के ३१
अङ्गों पर न्यास करन के बाद ‘एतअवन्तश्च
भूयांसश्च दिशो रुद्रान्वितस्थिरे०’ (यजु०. १६. ६३) मन्त्र
से दिग्बन्ध करना चाहिए यहाँ तक प्रथमन्यास कहा गया ॥५१-६२॥
अक्षरादिन्यासकथनम्
मूलवास्ततो न्यस्येन्मस्तके नसि
चालिके ।
मुखे कण्ठे हृदि
पुनर्हस्तयोर्दक्षवामयोः ॥ ६३ ॥
नाभौ पदोरिति न्यासो दशाङ्गेषु
द्वितीयकः।
(२) अब दशाक्षर मन्त्र का अक्षरन्यास कहते हैं - मूल मन्त्र के
वर्णो से क्रमशः मस्तक, नासिका, ललाट,
मुख, कण्ठ, हृदय,
दाहिन हाथ, बाया हाथ, नाभि
एवं पैरों पर इस प्रकार कुल १० अङ्गों पर न्यास द्वितीय न्यास कहा जाता है
॥६३-६४॥
विमर्श - यथा - ॐ नमः मूर्ध्नि, नं नमः नासिकायाम्
मों नमः ललाटे, भं नमः मुखे, गं नमः कण्ठे,
वं नमः हृदये, तें नमः दक्षिणहस्ते, रुं नमः वामहस्ते,
द्रां नमः नाभौ, यं नमः पादयोः ॥६३-६४॥
पादोरुहन्मुखे मूर्ध्नि
सद्योजातमुखा ऋचः ॥ ६४॥
विन्यस्य प्रत्यूचं ब्रूयाद्धसहसेति
साधकः।
तृतीयन्यास इत्युक्तः कृते
यस्मिन्छिवो भवेत् ॥ ६५॥
(३) अब इस दशाक्षर मन्त्र का तृतीय न्यास कहते हैं -
सद्योजातं प्रपद्यानि से लेकर -
ईशानः सर्वविद्यानां पर्यन्त ५ ऋचाओं से क्रमशः पैर, ऊरु, हृदय, मुख और शिर पर
न्यास करते समय साधक प्रत्येक ऋचा के अन्त में हंस हंस का उच्चारण करे । यह तृतीय
न्यास है । इसके करने से वह साधक शिव स्वरुप बन जाता है ॥६४-६५॥
विमर्श - न्यास विधि -
ॐ सद्योजातं प्रपद्यानि ... नमः,
हंस हंस (तै० आ० १०. ४३. १) पादयोः,
ॐ वामदेवाय ... नमः,
हंस हंस (तै० आ० १९. ४. ४१) ऊर्वोः,
ॐ अघोरेभ्यो ... रुद्ररुपेभ्यः,
हंस हंस (तै० आ० १०. ४५. १) हृदि,
ॐ तत्पुरुषाय ... प्रचोदयात् हंस
हंस (तै० आ० १० ४६. १) मुखे,
ॐ ईशान ... शिवोम् हंस हंस (तै० आ०
१०. ४०. १) मूर्ध्नि, यहाँ तक तृतीय
न्यास कहा गया ॥६४-६५॥
एवं न्यासत्रयं कृत्वा संपुटं
रचयेत्ततः ।
दिक्षु वासवमुख्यानां न्यासः संपुट
उच्यते ॥ ६६ ।।
इस प्रकार तीनों न्यासों को करने के
बाद संपुटीकरण करना चाहिए । दिशाओं में इन्द्रादि मुख्य देवताओं का न्यास
संपुट न्यास कहा जाता है ॥६६॥
त्रातारमिन्द्रमन्त्रेण प्राच्या
न्यस्येद्विडोजसम् ।
त्वन्नो अग्ने ऋचावह्नि सुगं न इत्यूचा
यमम् ॥ ६७ ॥
असुन्वन्तनिर्ऋतिं च तत्त्वायामीति
तोयपम् ।
आ नो नियुभिर्वायु च वयं सोमेत्यूचा
विधुम् ॥ ६८ ॥
तमीशानमितीशानमाग्नेयादिषु
विन्यसेत् ।
अस्मे रुद्राविधिं चोर्ध्व स्योनेति
पृथिवीमधः ॥ ६९ ॥
‘त्रातारमिन्द्रं०’ मन्त्र से पूर्व में इन्द्र का, त्वन्ने अग्ने०’
इस मन्त्र से अग्निकोण में अग्नि का, ‘सुगन्नु
पन्था०’ इस मन्त्र से दक्षिण में यम का न्यास, ‘असुन्वन्तं०’ इस मन्त्र से निऋति का, ‘तत्त्वायामि०’ इस मन्त्र से पश्चिम में वरुण का,
आनो नियुदिभः०’ इस मन्त्र से वायव्य में वायु
का, ‘वयं सोम०’ इस ऋचा से उत्तर में
सोम का, ‘तमीशानम्०’ इस ऋचा से ईशान
में ईशानदेव का न्यास करना चाहिए । ‘अस्मे रुद्रमेहना०’
मन्त्र से ऊपर ब्रह्यदेव का तथा ‘स्योना
पृथिवी०’ इस मन्त्र से नीचे पृथ्वी का न्यास करना
चाहिए ॥६७-६९॥
एवं यः संपुटं कुर्यात् स
स्यात्किल्विषवर्जितः।
तं दीप्यमानमीक्षन्ते
प्रेतचौराद्युपद्रवाः ॥ ७० ॥
न पराभवितुं शक्ताः
पलायन्तेऽतिदूरतः ।
इस प्रकार जो साधक संपुटन्यास करता
है वह पाप रहित हो जाता है । उसके तेज से प्रेत और चौरादि उपद्रवी तत्त्व उसे
धर्षित नहीं कर सकते । किन्तु स्वयं पराभूत हो कर उससे दूर भाग जाते हैं ॥७०-७१॥
विमर्श - सम्पुटीकरण प्रयोग-
ॐ त्रातारमिन्द्र ...
मधवाधात्विन्द्रः (यजु०. २०. ५०) पूर्वे इन्द्रं न्यसामि,
ॐ त्वन्नो ... रक्षमाणस्तव्वृते,
(यजु०. ३४. १३) आग्नेये अग्नि न्यसामि,
ॐ सुगन्नु पन्थां ... कृणोतु,
(का० सं० २. १५) दक्षिणे यम न्यसामि,
ॐ असुन्वन्तं ... तुभ्यस्तु,
(यजु० १२. ६२) नैऋत्ये निऋतिं न्यसामि,
ॐ तत्त्वायामि ... प्रमोषी (यजु०
१९. ४९) पश्चिमे वरुणं न्यसामि,
ॐ आनो नियुदिभः... सदानः (यजु०.
२७. २८) वायव्ये वायुं न्यसामि,
ॐ वयं ... सचेमहि (यजु०. ३. ५६)
उत्तरे सोमं न्यसामि,
ॐ तमीशानं ... स्वस्तये (यजु०. २५.
१८) ऐशान्ये ईशानं न्यसामि,
ॐ अस्मे रुद्रा ... अवन्तु देवाः,
(यजु०. ३३.५०) ऊर्ध्वे ब्रह्मणं न्यसामि,
ॐ स्योना ... शर्म्मसप्प्रथाः,
(यजु०. ३५. २१) अघः पृथ्वीं न्यसामि ॥६७-७१॥
मनोजूतिय॑सेद्
गुह्येऽबोध्यग्निर्जठरानले ॥७१॥
मूर्धानं हृदये न्यस्येन्मुखे
मर्माणि ते ऋचम् ।
जातवेदास्तु शिरसि न्यासः
प्रोक्तश्चतुर्थकः ॥ ७२ ॥
(४) अब चतुर्थ न्यास कहते
हैं - ‘मनोजूतिर’ इस ऋचा का गुह्य में,
‘अबोध्यग्नि’ इस ऋचा का उदर में, ‘मूर्धानं दिवो’ इस ऋचा का हृदय में, ‘मर्माणि ते’ इस ऋचा का मुख में तथा ‘जातवेदाः दिवा’ इस ऋचा का शिर पर न्यास करना चाहिए ।
यज चतुर्थन्यास कहा जाता है ॥७१-७२॥
विमर्श
- यथा - ॐ मनोजूतिर ... प्रतिष्ठ (यजु०. २. १३) गुह्ये,
ॐ अबोध्यग्नि ... (यजु०. १५-२४)
उदरे,
ॐ मूर्द्धा ... देवाः (यजु०. ७. २४)
हृदि,
ॐ मर्म्माणि ... मदन्तु (यजु०. ७.
४९) मुखे,
ॐ जातवेदाय ... (तै ब्रा. ३. १०. ५.
९) शिरसि ॥७१-७२॥
हृदयं शिवसंकल्पं शिरः
पुरुषसूक्तकम् ।
शिखाद्भ्यः संभृत इति वर्मप्रतिरथं
मतम् ॥ ७३॥
विभ्राडिति स्मृतं नेत्रमस्त्रं तु
शतरुद्रियम् ।
अयं तु पञ्चमो न्यासः कृतः
सर्वेष्टसिद्धिदः ॥ ७४ ॥
(५) अब पञ्चमन्यास कहते हैं - ‘यज्जाग्रतो०’
इत्यादि शिवसंकल्प के ६ सूत्रों का हृदय पर, ‘सहस्त्रशीर्षाः... देवाः’ इत्यादि १६ पुरुषसूक्तों का शिर पर, ‘अदभ्यः संभृतं’ इत्यादि ६ मन्त्रों का शिखा पर, ‘आशुः शिशानः’
इत्यादि १२ मन्त्रों का कवच पर, ‘विभ्राट०’
इत्यादि १७ मन्त्रों का नेत्र पर तथा ‘नमस्ते
रुद्रमन्यवे’ इत्यादि शतरुद्रिय अध्याय का अस्त्राय पर न्यास
करना चाहिए । यह सर्वाभीष्टसाधक पञ्चम न्यास कहा गया है ॥७३-७४॥
विमर्श - षडङ्गन्यास - ॐ
यज्जाग्रतो०, येनकर्माणि०, यत्प्रज्ञान०, येनेदम्भूत०, यस्मिन्नृचः०,
सुषारथिः०, (यजु०. १. ५-१०) हृदयाय नमः ।
ॐ सहस्त्रशीर्षा०,
पुरुषऽएवेद०, एतावानस्त०, त्रिपादूर्ध्व०, ततोव्विराड०,
तस्माद्यज्ञात् सर्व०, तस्माद्यज्ञात्सर्व०
तस्मादश्वा०, तं य्यज्ञं०, तत्पुरुषं०,
ब्राह्यणो०, चन्द्रमा मनसो०, नाभ्याऽआसीद०, यत्पुरुषेण०, सप्तास्यासन्०,
यज्ञेन०, (यजु०. २. १-१६) शिरसे स्वाहा ।
ॐ अद्भयः संभृतं०,
त्वेदाहमेतं०, प्रजापतिश्चरति०, यो देवेभ्यो०, रुचंम्ब्राह्य०, श्रीश्चते०, (यजु०. २. १७-२२) शिखायै वषट् ।
आशुः शिशानो०,
संक्रन्दनेना०, सऽइषुहस्तै०, बृहस्पते परिदीया०, बल०, गोत्रमिदं०,
अभिगोत्राणि०, इन्द्रऽआसान्नेता०, इन्द्रस्य०, उद्धर्षयम०, अस्माकमिन्द्रः०,
अमीषां चित्त०, (यजु०, ३.
१-१२) कवचाय हुम् ।
ॐ व्विभ्राट् वृहत्०,
उदुत्यञ्जातवेद सं०, येनापावक०, देव्यावद्धवर्य०, तम्प्रत्नवा पूर्व ०
अयंव्वेनश्चोदय०, चित्रं देवाना०, आ
इडाभि० यदद्य०, तरणि०, तत्सूर्यस्य०,
तन्मित्रस्य०, वण्णमहार०, वट सूर्य०, आयन्त एव०, अद्यादेवा०,
आकृष्णेन०, (र,१-१७)
नेत्रत्रयाय वौषट् ।
‘ॐ नमस्ते रुद्रमन्यव
तमेशाञ्जभेदद्ध्मः’ (यजु०. ५. १-६६) अस्त्राय फट् । यहां रुद्राष्टाध्यायी
की संख्या दी गई है ॥७३-७४॥
रुद्रपूजनप्रकारः अष्टकानि च
एवं न्यस्य प्रणम्याऽथ
ध्यायेदात्मनि शंकरम् ॥ ७५ ॥
इस प्रकार षडङ्गन्यास कर प्रणाम
करने के बाद अपनी आत्मा में भगवान् शंकर का ध्यान करना चाहिए ॥७५॥
कैलासाचलसन्निभं त्रिनयनं
पञ्चास्यमम्बायुतं
नीलग्रीवमहीशभूषणधरं
व्याघ्रत्वचाप्रावृतम् ।
अक्षस्रग्वरकुण्डिकाभयकर चान्द्री
कलां बिभ्रतं
गङ्गाम्भो विलसज्जट दशभुजं वन्दे
महेशं परम् ॥ ७६ ॥
इस मन्त्र के अनुष्ठान में ध्यान
का स्वरुप कहते हैं - कैलाश पर्वत पर विराजमान त्रिनेत्र,
पञ्चमुख, नीलकण्ठ, दशभुजाओं
से युक्त पार्वती सहित परम शिव की मैं वन्दना करता हूँ, जो
सर्पों की माला धारण किए हुये हैं, व्याघ्रचर्म का परिधान
लपेटे हुये हैं, हाथों में क्रमशः अक्षमाला, वर, कुण्डिका, अभय मुद्रा और
मस्तक पर चन्द्रकला धारण किए हुये, तथा जटाओं में स्थित गङ्गा
जल से शोभित हो रहे हैं ॥७६॥
दशलक्ष जपेन्मन्त्रमयुतं परमान्नकैः
।
सघृतैर्जुहुयादग्नौ पीठे पूर्वोदिते
यजेत् ॥ ७७॥
इस मन्त्र का दश लाख जप करना चाहिए
। खीर एवं घी की १० हजार आहुतियाँ देनी चाहिए तथा पूर्वोक्त पीठ पर पूजन करना
चाहिए (द्र० १६. २२-२५) ॥७७॥
पूजायन्त्रमथो वक्ष्ये तथावरणदेवताः।
अष्टपत्रं षोडशारं
चतुर्विंशतिपत्रकम् ॥ ७८ ॥
दन्तपत्रं ततः
कुर्याच्चत्वारिंशद्दलं ततः।
तबहिर्भूपुरं कुर्यात् तत्र रुद्रं
प्रपूजयेत् ॥ ७९ ॥
अब मैं भगवान् रुद्र के पूजा यन्त्र तथा आवरण देवताओं को कहता हूँ -
सर्वप्रथम कार्णिका में अष्टदल,
उसके ऊपर षोडशदल, पुनः चतुर्विशति दल, द्वात्रिंशदल एवं चत्वारिंशदल बनाकर उसके बाहर भूपुर निर्माण कर रुद्र का
पूजन करे ॥७८-७९॥
इष्ट्वा तं कर्णिकामध्ये
सद्योजातादिकान् यजेत् ।
दिक्षु मध्ये ततोऽष्टारे
नन्द्यादीनष्टसेवकान् ॥ ८०॥
नन्दी महाकालसंज्ञो गणेशो वृषभस्तथा
।
ततो भृङ्गीरिटिः
स्कन्दउमाचण्डीश्वरोऽष्टमः ॥ ८१॥
कर्णिका के मध्य में भगवान रुद्र का पूजन कर चारों दिशाओं में तथा मध्य में क्रमशः सद्योजात, वामदेव, अघोर तत्पुरुष और ईशान देव का पूजन करें । फिर अष्टदल में उनके ८ सेवक नन्दी आदि का पूजन करे । १. नन्दी, २. महाकाल, ३. गणेश, ४. वृषभ, ५. भृङ्गीरिटी, ६. स्कन्द. ७. उमा और ८. चण्डीश्वर - ये आठ उनकें सेवकगण कहे जाते हैं ॥८०-८१॥
ततस्तु षोडशदले द्वितीयावरणे
स्थिताः।
अनन्तसूक्ष्मौ च शिव एकपादेकरुद्रकः
॥ ८२॥
ततस्त्रिमूर्तिश्रीकण्ठौ
वामदेवोऽष्टमो मतः।
ज्येष्ठ: श्रेष्ठो रुद्रकालौ
कलाद्विकर्णाभिधः ॥ ८३॥
बलो बलाद्विकरणो बलप्रमथनस्तथा ।
फिर द्वितीय आवरण में षोडशदल
स्थित देवताओं का पूजन करे । अनन्त, सूक्ष्म,
शिव, एकपाद, एकरुद्र,
त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ, वामदेव,
ज्येष्ठ, रुद्र, काल,
कलविकरण, बल, बलविकरण
एवं बलप्रमथन ये १६ देव कहे गये हैं ॥८२-८४॥
एतान् सम्पूज्य तार्तीये
तत्त्वसंख्यान सुरान्यजेत् ॥ ८४॥
सिद्ध्योऽष्टौ मातरोऽष्टौ
भैरवाष्टकमित्यमून ।
इसके बाद तृतीय आवरण में २४
दलों में स्थित २४ देवताओं का पूजन करे । आणिमा आदि ८ सिद्धियाँ,
ब्राह्यी आदि ८ मातृकायें तथा अष्टभैरव - ये २४ तृतीय आवरण
के देवता हैं ॥८४-८५॥
ततश्चतुर्थावरणे
भवान्नगान्नृपानिगरीन् ॥ ८५॥
भवः शर्वस्तथेशानः पशुपो रुद्र एव च
।
उग्रो भीमो महादेवः
शिवाऽष्टकमुदाहृतम् ॥ ८६॥
अनन्तो वासुकिश्चाऽथ तक्षकश्च
कुलीरकः ।
कर्कोटकः शङ्खपालः कम्बलाश्वतरावपि
॥ ८७॥
इमे नागा
वैन्यपृथूहैहयोऽर्जुनसंज्ञकः ।
शाकुन्तलेयो भरतो नलो रामो
नृपाष्टकम् ॥ ८८ ॥
हिमवान्निषधो विन्ध्यो
माल्यवान्पारियात्रकः ।
मलयो हेमकूटश्च गन्धमादन इत्यपि ॥ ८९
॥
गिर्यष्टकं पञ्चमे तु
चत्वारिंशत्सुरान् यजेत् ।
वासवादय इत्येषां शक्तयो
ह्यायुधान्यपि ॥ ९० ॥
इसके बाद चतुर्थ आवरण में ३२
दलों में स्थित भव आदि ३२ देवताओं का, नागों,
नृपों और पर्वतों का पूजन करना चाहिए । भव आदि ८ शिव, अनन्त आदि ८ नाग, वैन्य आदि ८ नृप तथा हिमवान् आदि
८ पर्वतों के नाम इस प्रकार हैं -
अष्ट शिव
- १. भव,
२. शर्व, ३. ईशान, ४. पशुपति,
५. रुद्र, ६. उग्र, ७.
भीम, एवं ८. महादेव ।
अष्ट नाग
- १- अनन्त, २. वासुकि, ३. तक्षक, ४. कुलीरक, ५.
कर्कोटक, ६. शंखपाल, ७. कम्बल तथा ८.
अश्वतर - ये ८ नाग हैं ।
अष्ट नृप
- १. वैन्य, २. पृथु, ३.
हैहय, ४. अर्जुय, ५. शाकिन्तलेय,
६. भरत, ७. नल और ८. राम ये ८ राजा हैं। अष्ट पर्वत १. हिमवान्,
२.निषधः, ३. विन्ध्य, ४.
माल्यवान्, ५. पारियात्र, ६. मलय,
७. हेमकूट और ८. गन्धमादन ये ८ पर्वत हैं ॥८५-९०॥
अब पञ्चम आवरण में पूजा के
योग्य ४० देवताओं के नाम कहते हैं - इन्द्रादि ८ दिक्पाल,
इन्द्राणी आदि ८ उनकी शक्तियाँ, वज्रादि उनके
८ आयुध, ऐरावत आदि उनके ८ वाहन तथा ८ दिग्गज ये ४० देवता हैं
॥९०॥
वाहनानि गजाश्चेति चत्वारिंशत्सुराः
स्मृताः ।
इन्द्राग्नियमरक्षांसि
वरुणानिलभाधिपाः ।
ईशान इति दिक्पालाः शचीस्वाहावराहजा
॥ ९१॥
खड्गिनीवारुणी चाऽपि वायवी च
कुबेरजा ।
ईशानीशक्तयः प्रोक्ताः कुलिशं
शक्तिदण्डको ।
खड्ग पाशोंकुशं चैव गदाशूले च हेतयः
॥ ९२ ॥
ऐरावतोऽजमहिषो प्रेतमीनपृषन्नराः ।
वृषभो वाहनानि स्युर्दिक्पालानां
क्रमादमी ॥ ९३ ॥
ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोञ्जनः
।
पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च
दिग्गजाः ॥ ९४ ॥
इन्द्र,
अग्नि, यम, निऋति, वरुण,
वायु, कुबेर एवं ईशान ये ८ दिक्पाल है
। शची, स्वाहा, वराहजा, खड्गिनी, वारुणी, वायवी,
कुबेरजा एवं ईशानी ये ८ उनकी शक्तियाँ कही गई हैं । वज्र,
शक्ति, दण्ड, खड्ग,
पाश, अंकुश, गदा एवं शूलेय ८ उनके आयुध
है । ऐरावत् , अज, महिष, प्रेत, मीन, पृषद्, नर एवं
वृषभ ये ८ उनके वाहन है । ऐरावत, पुण्डरीक, वामन, कुमुद, अन््जन, पृष्यदन्त, सार्वभौम और सुप्रतीक ये ८ दिग्गज है ॥९१-९४॥
पञ्चाब्जान्येवमापूज्य भूगृहे
दिक्षु दिक्पतीन् ।
पुनरभ्यर्चयेद्धीमान् षष्ठमावरणं
स्मृतम् ॥ ९५॥
इस प्रकार पञ्चावरण में तत्तदेवताओं
की पूजा कर भूपुर में दिशाओं में विद्वान् साधक को पुनः पञ्चावरण की पूजा करनी
चाहिए । यहाँ तक षष्ठ आवरण का पूजन कहा गया ॥९५॥
आग्नेयां भूगृहस्याऽथ विरूपाक्षं
प्रपूजयेत् ।
विश्वरूपं यातुधानं वायव्यां तु
पशोः पतिम् ॥ ९६ ॥
ऊर्ध्वलिङ्गमथैशान्यामथो भूसदनाद्
बहिः ।
दिक्षु नागाष्टकं पूज्यमेवं
सप्तावृतिर्यजिः ॥ ९७ ॥
इसके बाद भूपुर के अग्नि कोण में
विरुपाक्ष की, नैऋत्य में विश्वरुप की,
वायव्य में पशुपति की तथा ईशान कोण में ऊर्ध्वलिङ्ग का पूजन करना
चाहिए । फिर भूपुर के बाहर ८ दिशाओं में आठ नागों का पूजन करना चाहिए । इस
विधि से सप्तम आवरण की पूजा करनी चाहिए ॥९६-९७॥
नागानां वर्णजातिफणादिकथनम्
शेषाख्यस्तक्षकोऽनन्तो वासुकिः
शंखपालकः ।
महापद्मः कम्बलश्च कर्कोटक इमेऽहयः
॥ ९८ ॥
श्वेतो नीलः कुंकुमाभः
पीतकृष्णावथोज्ज्वलः ।
शेष, तक्षक, अनन्त, वासुकि, शंखपाल, महायज्ञ, कम्बल और
ककोर्टक ये ८ नागों के नाम है । इन नागों का वर्ण क्रमशः श्वेत,
नीला, कुंकुम जैसा, पीला,
काला तथा शेष तीनों का उज्ज्वल है ॥९८-९९॥
वर्णतः शेषमुख्याः स्युस्तेषां
जातीः फणान् ब्रुवे ॥ ९९ ॥
विप्रो वैश्यस्तथाविप्रः क्षत्रियो
वैश्यशूद्रको ।
शूद्रश्च क्रमतो ज्ञेयाः शेषाद्याः
पूजने बुधैः ॥ १०० ॥
दिग्बाणदशसप्ताद्रिशरसंख्यानि तु
क्रमात् ।
शतानि त्रिंशत्रिशच्च फणास्तेषां
समीरिताः ॥ १०१॥
अब उन नागों की जाति तथा फणों की
संख्या कहता हूँ - पूजा में शेष आदि नागों की जाति क्रमशः १. ब्राह्यण,
२. वैश्य, ३. ब्राह्मण, ४.
क्षत्रिय, ५. वैश्य, ६. शूद्र, ७. तथा दो शूद्र हैं । उनके फणों की संख्या क्रमशः १. हजार, ५ सौ, एक हजार, ७ सौ, ७ सौ, ५ सौ, ३० तथा पुनः ३०
बतलाई गई है ॥९९-१०१॥
विमर्श - आवरण पूजा विधि -
सर्वप्रथम १६. ७६ में वर्णित भगवान् महामृत्युञ्जय के स्वरुप का ध्यान कर
मानसोपचारों से उनका पूजन करे, पुनः विधिवत्
अर्घ्य स्थापित कर पूर्ववत् पीठ शक्तियों का पूजन कर (द्र० १६. २१, २६) पीठ पर आसन देकर भगवान् महामृत्युञ्जय का धूप दीपादि उपचारों से पूजन
करे । पुनः उनकी अनुज्ञा लेकर आवरणपूजा प्रारम्भ करे । आवरणपूजा के प्रारम्भ में
१६.५१-७४ पर्यन्त वर्णित पाँचों न्यास करे । तदनन्तर इस प्रकार आवरण पूजा करे -
कर्णिका के मध्य में मूल में भगवान्
रुद्र का पूजन करे । फिर दिशाओं तथा मध्य में सद्योजात आदि पूजन करे ।
यथा
- ॐ अघोराय नमः, पश्चिमे
ॐ वामदेवाय नमः,
दक्षिणे ॐ अघोराय नमः,
पश्चिमे,
ॐ तत्पुरुषाय नमः,
उत्तरे, ॐ ईशानाय नमः मध्ये
इसके बाद प्रथमावरण में
अष्टदल में पूर्वादि दल के क्रम से नन्दी आदि का निम्न प्रकार से पूजन करना चाहिए –
ॐ नन्दिने नमः पूर्वे, ॐ महाकालाय नमः आग्नेये,
ॐ गणेशाय नमः दक्षिणे, ॐ वृषभाय नमः नैऋत्यदले,
ॐ भृङ्गीरिटिने नमः पश्चिमदले, ॐ स्कन्दाय नमः वायव्ये,
ॐ उमायै नमः उत्तरे, ॐ चण्डीश्वराय नमः
ऐशान्ये
इसके पश्चात् द्वितीयावरण
में षोडश दल में पूर्वादिदल के क्रम से अनन्तादि की पूजा करनी चाहिए-
ॐ अनन्ताय नमः, ॐ सूक्ष्माय नमः, ॐ शिवाय नमः,
ॐ एकपादाय नमः, ॐ एकरुद्राय नमः, ॐ त्रिमूर्तये नमः,
ॐ श्रीकण्ठाय नमः, ॐ वामदेवाय नमः, ॐ ज्येष्ठायै नमः,
ॐ श्रेष्ठाय नमः, ॐ रुद्राय नमः, ॐ कालाय नमः,
ॐ कलविकरणाय नमः, ॐ बलाय नमः, ॐ बलविकरणाय नमः,
ॐ बलप्रमथनाय नमः,
तदनन्तर तृतीयावरण में
चतुर्विंशति दलों में पूर्वादि दलों में अनुलोम क्रम से अणिमादि अष्ट सिद्धियों की,
ब्राह्यी आदि अष्ट मातृकाओं की तथा अष्टभैरवों की निम्नलिखित
मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए -
ॐ अणिमायै नमः, ॐ महिमायै नमः, ॐ लघिमायै नमः,
ॐ गरिमायै नमः, ॐ प्राप्त्यै नमः, ॐ प्राकाम्यै नमः,
ॐ ईशितायै नमः, ॐ वशितायै नमः, ॐ ब्राह्ययै नमः,
ॐ माहेश्वर्यै नमः, ॐ कौमार्यै नमः ॐ वैष्णव्यै नमः,
ॐ वाराह्यै नमः, ॐ इन्द्राण्यै नमः ॐ चामुण्डायै नमः,
ॐ चण्डिकायै नमः, ॐ असिताङ्गभैरवाय नमः, ॐ रुरुभैरवाय नमः,
ॐ चण्डभैरवाय नमः, ॐ क्रोधभैरवाय नमः, ॐ उन्मत्तभैरवाय नमः,
ॐ कालभैरवाय नमः, ॐ भीषणभैरवाय नमः, ॐ संहारभैरवाय नमः ।
फिर चतुर्थ आवरण में ३२ दलों
में भव आदि ८ शिवों की अनन्त आदि ८ नागों की वैन्य आदि ८ नृपों की तथा हिमवान् आदि
८ पर्वतों की पूजा करनी चाहिए-
ॐ भवाय नमः, ॐ शर्वाय नमः, ॐ ईशानाय नमः,
ॐ पशुपतये नमः, ॐ रुद्राय नमः, ॐ उग्राय नमः,
ॐ भीमाय नमः, ॐ महादेवाय नमः ॐ अनन्ताय नमः,
ॐ वासुकये नमः, ॐ तक्षकाय नमः, ॐ कुलीरकाय नमः,
ॐ कर्कोटकाय नमः, ॐ शंखपालाय नमः, ॐ कम्बलाय नमः,
ॐ अश्वतराय नमः, ॐ वैन्याय नमः, ॐ पृथवे नमः,
ॐ हैहयाय नमः, ॐ अर्जुनाय नमः, ॐ शाकुन्तलेयाय नमः,
ॐ भरताय नमः, ॐ नलाय नमः, ॐ रामाय नमः,
ॐ हिमवते नमः, ॐ निषधाय नमः, ॐ विन्ध्याय नमः,
ॐ माल्यवते नमः, ॐ पारियात्राय नमः, ॐ मलयाचलाय नमः,
ॐ हेमकूटाय नमः ॐ गन्धमादनाय नमः,
इसके बाद पञ्चम आवरण में
चत्वारिंशदल में ८ दिक्पाल, उनकी ८ शक्तियाँ
उनके ८ आयुध आठ वाहन तथा अष्ट दिग्गजों का पूजन करना चाहिए -
ॐ इन्द्राय नमः, ॐ अग्नये नमः, ॐ यमाय नमः,
ॐ निऋतये नमः, ॐ वरुणाय नमः, ॐ वायवे नमः,
ॐ कुबेराय नमः, ॐ ईशानाय नमः, ॐ शच्चै नमः,
ॐ स्वाहायै नमः, ॐ वराहजायै नमः, ॐ खडिगन्यै नमः,
ॐ वारुण्यै नमः, ॐ वायव्ये नमः, ॐ कुबेरजायै नमः,
ॐ ईशान्ये नमः, ॐ वज्राय नमः, ॐ शक्त्यै नमः,
ॐ दण्डाय नमः, ॐ खड्गाय नमः, ॐ पाशाय नमः,
ॐ अंकुशाय नमः, ॐ गदायै नमः, ॐ शूलाय नमः,
ॐ ऐरावताय नमः, ॐ अजाय नमः, ॐ महिषाय नमः,
ॐ प्रेताय नमः, ॐ मीनाय नमः, ॐ पृषदे नमः,
ॐ नराय नमः, ॐ वृषभाय नमः, ॐ ऐरावताय नमः,
ॐ पुण्डरीकाय नमः, ॐ वामनाय नमः, ॐ कुमुदाय नमः,
ॐ अञ्जनाय नमः, ॐ पुष्पदन्ताय नमः, ॐ सार्वभौमाय नमः,
ॐ सुप्रतीकाय नमः ।
फिर षष्ठ आवरण में भूपुर में
पूर्व आदि दिशाओं के क्रम से इन्द्रादि की निम्न मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए –
ॐ रं अग्नये नमः, ॐ मं यमाय नमः, ॐ लं इन्द्राय नमः,
ॐ वं वरुणाय नमः, ॐ यं वायवे नमः, ॐ क्षं निऋतये नमः,
ॐ हं ईशानाय नमः, ॐ आं ब्रह्मणे नमः, ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः ।
फिर सप्तम आवरण में भूपुर के
आग्नेयादि कोणो में विरुपाक्ष आदि का पूजन करना चाहिए –
ॐ विरुपाक्षाय नमः आग्नेये, ॐ विश्वरुपाय नमः नैऋत्ये,
ॐ पशुपतये नमः वायव्ये, ॐ ऊर्ध्वलिङ्गाय नमः ऐशान्ये,
इसके बाद भूपुर के बाहर पूर्व
आदि ८ दिशाओं में शेष आदि ८ नागों का उनके वर्ण, जाति, और फणों को आदि में लगाकर निम्न रीति से पूजन
करना चाहिए -
ॐ श्वेताय विप्रवर्णाय सहस्त्रफणाय
शेषाय नमः,
ॐ नीलाय वैश्यवर्णाय पञ्चशतफणाय
अनन्ताय नमः,
ॐ कुंकुमाभाय विप्रवर्णाय
सहस्त्रफणाय अनन्ताय नमः,
ॐ पीताय क्षत्रियवर्णाय सप्तशतफणाय
वासुकये नमः,
ॐ कृष्णाय वैश्यवर्णाय सप्तशतफणाय
शंखपालाय नमः,
ॐ उज्ज्वलाय शूद्रवर्णाय पञ्चशतफणाय
महापद्माय नमः,
ॐ उज्ज्वलाय शूद्रवर्णाय त्रिंशद्फणाय
कम्बलाय नमः,
ॐ उज्ज्वलाय शूद्रवर्णाय त्रिशद्फणाय
कर्कोटकाय नमः ।
इस प्रकार आवरण पूजा निष्पन्न कर
धूप दीपादि उपचारों से पुनः भगवान् रुद्र का पूजन करे ॥१०१॥
एवमर्चन्महादेवं
पञ्चाङ्गन्यासपूर्वकम् ।
दशाक्षरजपासक्तो न
सीदेत्त्स्वेष्टसाधने ॥ १०२ ॥
मनोहराणि गेहानि सुन्दर्यो
वामलोचनाः ।
धनमिच्छापूरणान्तं लभते शिवसेवनात्
॥ १०३ ॥
इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर महादेव का पूजन करने वाला तथा दशाक्षर मन्त्र का जप करने वाला ब्राह्मण बिना कष्ट के
अपनी इष्टसिद्धि कर लेता है । वह भगवान् सदाशिव की आराधना से सुन्दर मकान,
साध्वी, पतिव्रत स्त्री तथा यथेष्ट धन प्राप्त
करता है ॥१०२-१०३॥
प्रयोगान्पूर्वमन्त्रोक्तान्
कुर्वीताऽत्र दशाक्षरे ।
दशाक्षरं भजन्विप्रो रुद्रजापी
भवेत्सदा ॥ १०४ ॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं -
इस दक्षाक्षर मन्त्र में भी महामृत्युञ्जय के अनुष्ठान में बताये गये काम्य
प्रयोगों की तरह काम्य प्रयोग अनुष्टित करना चाहिए । ब्राह्मण को दशाक्षर मन्त्र
का जप करते हुये रुद्रजापी बनना चाहिए ॥१०४॥
कुबेरमन्त्रस्तद्विधिश्च
अथ मन्त्र कुबेरस्य वक्ष्ये
सर्वसमृद्धिदम् ।
यक्षाय पदमुच्चार्य कुबेराय पदाच्च
वै ॥ १०५॥
श्रवणाय धनार्णान्ते धान्याधिपतये
धनम् ।
धान्यशब्दात्समृद्धिं मे देहि
दापयठद्वयम् ॥ १०६ ॥
अब सब प्रकार की सिद्धि देने वाले कुबेर
के मन्त्र को कहता हूँ -
‘यक्षाय’ पद
बोलकर, ‘कुबेराय’, फिर ‘वैश्रवणाय धन’ इन पदों का उच्चारण कर ‘धान्याधिपतये धनधान्य समृद्धिम में देहि दांपय’, फिर
ठद्वय (स्वाहा) लगाने से यह ३५ अक्षरों का कुबेर मन्त्र निष्पन्न होता है
॥१०५-१०६॥
बाणरामाक्षरो मन्त्री
विश्रवामुनिरस्य तु ।
छन्दस्तु बृहती देवः शिवमित्रं
धनेश्वरः ॥ १०७ ।।
इस मन्त्र के विश्रवा ऋषि हैं,
बृहती छन्द है तथा शिव के मित्र कुबेर इसके देवता ॥१०७॥
विमर्श - कुबेरमन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं मे देहि
दापय स्वाहा (३५)।
विनियोग
- अस्य श्रीकुबेरमन्त्रस्य विश्रवाऋषिर्बृहतीच्छन्दः शिवमित्रं धनेश्वरो
देवताऽत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥१०५-१०७॥
त्रिचतुः
पञ्चवस्वष्टमुनिवर्णैर्मनूद्भवैः ।
कृत्वा षडङ्ग धनदं चिन्तयेदलकागतम्
॥ १०८ ॥
मन्त्र के ३,
४, ५, ८, ८, एवं ७ वर्णों से षडङ्गन्यास करे । फिर अलकापुरी
में विराजमान कुबेर का इस प्रकार ध्यान करे ॥१०८॥
विमर्श - न्यास विधि -
यक्षाय हृदयाय नमः, कुबेराय शिरसे स्वाहा,
वैश्रवणाय शिखायै वषट्, धनधान्यधिपतये कवचाय हुम्,
धनधान्यसमृद्धिम
मे नेत्रत्रयाय वौषट्, देहि दापय स्वाहा अस्त्राय
फट् ॥१०८॥
मनुजवाह्यविमानवरस्थितं
गरुडरत्ननिभं निधिनायकम् ।
शिवसखं मुकुटादिविभूषितं
वरगदे दधतं भज तुन्दिलम् ॥ १०९ ॥
अब अलकापुरी में विराजमान कुबेर
का ध्यान कहते हैं - मनुष्य श्रेष्ठ, सुन्दर
विमान पर बैठे हुये, गारुडमणि जैसी आभा वाले, मुकुट आदि आभूषणों से अलंकृत, अपने दोनों हाथो में
क्रमशः वर और गदा धारण किए हुये, तुन्दिल शरीर वाले, शिव के मित्र निधीश्वर कुबेर का मैं ध्यान करता हूँ ॥१०९॥
लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं
जुहुयात्तिलैः ।
धर्मादिपीठे प्रयजेदङ्गलोकपहेतयः ॥
११० ॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करना
चाहिए । तिलों से उसका दशांश होम करना चाहिए तथा धर्मादि वाले पूर्वोक्त पीठ पर
षडङ्ग दिक्पाल एवं उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥११०॥
शिवालये जपेन्मन्त्रमयुतं धनवृद्धये
।
बिल्वमूलोपविष्टेन जप्तो लक्षं
धनर्द्धिदः ॥ १११ ॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं -
धन की वृद्धि के लिए शिव मन्दिर में इस मन्त्र का दश हजार जप करना चाहिए ।
बेल के वृक्ष के नीचे बैठ कर इस मन्त्र का एक लाख जप करने से धन-धान्य रुप समृद्धि
प्राप्त होती है ॥१११॥
सर्वदारिद्र्यनाशनोऽपरः
कुबेरमन्त्रः
आदौ तारपुटा लक्ष्मीस्ततो मायापुटा
रमा ।
ततः कामपुटा सैव डेन्तो वित्तेश्वरो
नमः ॥ ११२ ॥
षोडशाक्षरमन्त्रोऽयं
सर्वदारिद्र्यनाशनः ।
त्रिनेत्रनयनद्वीषु युग्माणैरङ्गकं
मनोः ।
ध्यानार्चनादिकं सर्वमस्य
पूर्ववदाचरेत् ॥ ११३ ॥
अब कुबेर का सर्वदारिद्रयनाशक
अन्य मन्त्र कहते हैं -
सर्वप्रथम तार (ॐ) से संपुटित
लक्ष्मी(श्रीं) अर्थात् (ॐ श्रीं ॐ), फिर
माया बीज से संपुटित रमा (श्रीं) (ह्रीं श्रीं ह्रीं) । तत्पश्चात् काम (क्लीं)
बीज से पुटित लक्ष्मी (श्रीं) फिर चतुर्थ्यन्त वित्तेश्वर शब्द (वित्तेश्वराय) और
अन्त में नमः जोडने से १६ अक्षरों का कुबेर का अन्य मन्त्र बनता है । ३, २, २, २, ५, और २ वर्णों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । इस
मन्त्र का विनियोग, ध्यान एवं पूजनादि की विधि पूर्ववत् है
॥११२-११३॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नमः
(१६) ।
विनियोग
- अस्य श्रीकुबेरमन्त्रस्य विश्रवाऋषिर्बृहतीच्छन्दः शिवमित्रधनेश्वरी
देवताऽत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
– ॐ श्रीं ॐ हृदयाय नमः, ह्रीं श्रीं शिरसे
स्वाहा,
ह्रीं क्लीं शिखायै वषट्,
श्रीं क्लीं कवचाय हुम्
वित्तेश्वराय नेत्रत्रयाय वौषट्,
नमः अस्त्राय फट् ।
कुबेर के ध्यान के लिए द्र० १६. १०९
॥ ११३ ॥
गंगामन्त्रास्तद्विधिश्च
अथ शम्भोः शिरस्थायादेवसिन्धोर्मनून
ब्रुवे ।
प्रणवो हृदयं उन्ते शिवानारायणीपदे ।
तद्वद् दशहरागङ्गे
वह्निजायानखाक्षरः ॥ ११४ ॥
(१) अब भगवान् सदाशिव के शिर के
ऊपर रहने वाली गङ्गा के मन्त्रों को कहता हूँ - सर्वप्रथम प्रणव,
फिर हृदय (नमः), इसके बाद चतुर्थ्थन्त शिवा और
नारायणी ( शिवाय नारायण्यै ), इसके बाद चतुर्थ्थन्त दशहरा और
गङ्गा शब्द ( दशहरायै गङ्गायै) और इसके अन्त में वह्निजाया (स्वाहा ) जोड़ने से २०
अक्षरों का गङ्गा मन्त्र निष्पन्न होता है – ॐ नमः शिवायै नारायण्यै दशहरायै गङ्गायै
स्वाहा ॥ ११४ ॥
मनुर्व्यासो मुनिश्छन्दः
कृतिर्गङ्गास्य देवता ।
त्रिवनिवेदबाणाग्निनेत्रवर्णैः
षडङ्गकम् ॥ ११५ ।।
इस मन्त्र के व्यास ऋषि हैं, कृति छन्द तथा गङ्गा देवता है । मन्त्र के क्रमश: ३, ३, ४, ५, ३, एवं दो अक्षरों से षडड्न्यास करना चाहिए ॥ ११५ ॥
विमर्श - विनियोग – अस्य श्रीगङ्गामन्त्रस्य
वेदव्यासऋषि: कृतिश्छन्दः गङ्गादेवतात्मनोऽभिलषितसिद्धधर्थ
जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
- ॐ ॐ नमः हृदयाय नमः, ॐ शिवायै शिरसे
स्वाहा,
ॐ नारायण्यै शिखायै वषट्, ॐ दशहरायै कवचाय हुम्,
ॐ गङ्गायै नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ स्वाह अस्त्राय फट्
॥११५॥
उत्फुल्लामलपुण्डरीकरुचिरा कृष्णेश
विध्यात्मिका
कुम्भेष्टाभयतोयजा निदधती
श्वेताम्बरालंकृता ।
हृष्टास्या शशिशेखराखिलनदीशोणादिभिः
सेविता
ध्येया पापविनाशिनी मकरगा भागीरथी
साधकैः ।। ११६ ॥
अब मन्त्र का ध्यान कहते हैं
- फूले हुये अत्यन्त स्वच्छ कमल के समान मनोहर अंगो वाली,
विष्णो, सदाशिव एवं ब्रह्यस्वरुपिणी, अपेन हाथों में कुम्भ, वर, अभय,
एवं कमल धारण किए हुये, श्वेत वस्त्रों से
विभूषित, प्रसन्नवदना, मस्तक पर
चन्द्रकलाओं से सुशोभित, मगर पर विराजमान, समस्त नदियों से आराधित, पापों को विनष्ट करने वाली
भगवती भागीरथी का साधकों को ध्यान करना चाहिए ॥११६॥
लक्षं जपेदशांशेन
जुहुयात्सघृतैस्तिलैः ।
जयादिशक्तिभिर्युक्ते पीठे भागीरथीं
यजेत् ॥ ११७ ॥
प्रयजेत्केसरेष्वङ्गं दले रुद्रं
हरिं विधिम् ।
सूर्य हिमाचल मेनां भगीरथमपांपतिम्
॥ ११८ ॥
उक्त मन्त्र का एक लाख जप
करना चाहिए तथा तिलों से दशांश होम करना चाहिए । जया आदि से युक्त पीठ पर
भगवती भागीरथी की पूजा करनी चाहिए । केसरों में अङ्गपूजा तथा अष्टदलों में १.
रुद्र,
२. हरि, ३. ब्रह्या, ४.
सूर्य, ५. हिमालय, ६. मेना, ७. भगीरथ एवं ८. सागर का पूजन करना चाहिए ॥११७-११८॥
दलाग्रतो मीनकूर्ममण्डूकमकरानपि ।
हंसाकारण्डवाश्चक्रवाकान
सारसकान्यजेत् ॥ ११९ ॥
चतुरसे शक्रमुख्यानायुधैः
संयुतान्यजेत् ।
एवं संसाधितो मन्त्रोऽभीष्टं यच्छति
मन्त्रिणाम् ।। १२० ॥
दलों के अग्रभाग
पर १. मीन, २. कूर्म, ३. मण्डूक, ४. मकर, ५. हंस ६.
कारण्डव, ७. चक्रवाक और ८. सारसों का पूजन करना चाहिए । भूपुर
में इन्द्रादि दश दिक्पालों का उनके आयुधों के साथ पूजन करना चाहिए । इस
प्रकार उपासना किया गया मन्त्र साधकों को अभीष्ट फल देता है ॥११९-१२०॥
विमर्श - पूजा विधि -
वृत्ताकार कर्णिका, अष्टदल एवं भूपुर
सहित यन्त्र का निर्माण करना चाहिए । सर्वप्रथम १६. ११६ में वर्णित भगवती गङ्गा
के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से उनका पूजन कर अर्घ्य स्थापित कर पीठ पर पीठ
देवताओं का इस प्रकार पूजन करे ।
यथा - पीठमध्ये -
ॐ आधारशक्तये नमः, ॐ प्रकृत्यै नमः,
ॐ कूर्माय नमः, ॐ शेषाय नमः, ॐ पृथिव्यै नमः,
ॐ क्षीरसमुद्राय नमः, ॐ श्वेतद्वीपाय नमः ॐ मणिमण्डपाय नमः
ॐ कल्पवृक्षाय नमः, ॐ मणिवेदिकायै नमः ॐ रत्नसिंहासनाय नमः ।
तदनन्तर आग्नेयादि चारों कोणो
में धर्म आदि का पूजन करना चाहिए -
ॐ धर्माय नमः,
आग्नेये, ॐ ज्ञानाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ वैराग्याय नमः वायव्ये, ॐ ऐश्वर्याय नमः, ऐशान्ये,
फिर पूर्वादि चारों दिशाओं
में अधर्म आदि का निम्न विधि से पूजन करना चाहिए
ॐ अधर्माय नमः पूर्वे, ॐ अज्ञानाय नमः, दक्षिणे,
ॐ अवैराग्याय नमः पश्चिमे ॐ अनैश्वर्याय नमः,
उत्तरे,
फिर पीठ के मध्य में अनन्त
आदि देवताओं का पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ अनन्ताय नमः ॐ पद्माय नमः, ॐ द्वादशकलात्मने
सूर्यमण्डलाय नमः,
ॐ षोडशकलात्मने सोममण्डलाय नमः, ॐ दशकलात्मने वहिनमण्डलाय नमः,
ॐ सं सत्वाय नमः, ॐ रं रजसे नमः, ॐ तं तमसे नमः,
ॐ आं आत्मने नमः ॐ अं अन्तरात्मने नमः, ॐ पं परमात्मने नमः,
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः
फिर केसरों में पूर्वादि
दिशाओं में तथा मध्य में जयादि पीठशक्तियों की पूजा करनी चाहिए -
ॐ जयायै नमः, ॐ विजयायै नमः, ॐ अजितायै नमः,
ॐ अपराजितायै नमः, ॐ नित्यायै नमः, ॐ विलासिन्यै नमः,
ॐ दोग्ध्र्यै नमः, ॐ अघोरायै नमः, ॐ मङ्गलायै नमः पीठमध्ये
फिर १६. ११६ में वर्णित भगवती
भागीरथी के स्वरुप का ध्यान कर, मूल मन्त्र से
मूर्ति की कल्पना कर ‘ॐ सर्वशक्तिकमलासनाय नमः’, इस मन्त्र से पीठ पर आसन देकर, सामान्य उपचारों से
आवाहन से लेकर पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् पूजा करे, आवरण
पूजा की अनुज्ञा लेकर आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ।
आवरण पूजा विधि
- सर्वप्रथम केसरों में षडङ्गन्यास के मन्त्रों से आग्नेयादि चारों कोणो में,
मध्य में तथा चतुर्दिक् अङ्गपूजा करनी चाहिए । यथा-
ॐ नमः हृदयाय नमः,
आग्नेये, ॐ शिवायै शिरसे स्वाहा नैऋत्ये
ॐ नारायण्यै शिखायै वषट्,वायव्ये ॐ दशहरायै कवचाय
हुम् ऐशान्ये,
ॐ गङ्गायै नेत्रत्रयाय वौषट् ,
पीठ मध्ये, ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु,,
फिर भूपुर के बाहर दिक्पालों
के पास वज्रादि आयुधों की निम्नलिखित मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ वं वज्राय नमः
ॐ शं शक्तये नमः, ॐ दं दण्डाय नमः, ॐ खं खड्गाय नमः,
ॐ पां पाशाय नमः, ॐ अं अंकुशाय नमः, ॐ गं गदायै नमः,
ॐ शूं शूलाय नमः, ॐ पं पद्माय नमः, ॐ चं चक्राय नमः ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर पुनः धूप
दीप नैवेद्यादि उपचारों से भगवती भागीरथी का विधिवत् पूजन करना चाहिए
॥११९-१२०॥
ज्येष्ठशुक्लदशम्यां तां विशेषेण
भजेद् बुधः ।
दद्यादशभ्यो विप्रेभ्यो
दशप्रस्थमितास्तिलान् ॥ १२१ ।।
जप्त्वा सहस्र हुत्वा चोपोष्य तत्र
विकल्मषः ।
सर्वभोगसमायुक्तो जायते मानवो भुवि
॥ १२२ ॥
गङ्गापूजन
में दशहरा का विशेष महत्त्व प्रतिपादित करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं -
विद्वान् साधक ज्येष्ठ शुक्ल दशमी
(दशहरा( को विशेष रुप से भगवती भागीरथी की उपासना करे । इसे दिन १० ब्राह्मणों को
१० प्रस्थ तिल का दान करे । दश सहस्त्र उक्त मन्त्र का जप कर १ हजार की संख्या में
तिलो की आहुति दे तथा उपवास करे । ऐसा करने से वह निष्पाप हो जाता है और संसार में
सभी भोगों को प्राप्त करता है ॥१२१-१२२॥
तारो नमो भगवतिवाक्सदृग्गगनं हिलि ।
क्रियातन्द्रीपिनाकीशविषलाः
सूक्ष्मसंयुताः ॥ १२३ ॥
गङ्गे मां पावयद्वन्द्वमन्ते
हुतवहाङ्गना ।
गिरिनेत्राक्षरीविद्या स्मृता
पातकसङ्घहृत् ॥ १२४ ॥
(२) अब गङ्गा के अन्य मन्त्रों का उद्धार कहते हैं -
तार (ॐ),
फिर ‘नमो भगवति’ फिर
वाक् (ऐं), सदृग् इ से युक्त गगन और क्रिया (हिलि हिलि),
तत्पश्चात सूक्ष्म (इ) सहित तन्द्री (म), पिनाकीश
(ल), विष (म) और ल, (मिलि मिलि),
फिर ‘गङ्गे मां’ के बाद
दो बार ‘पावय’ (पावय पावय), और अन्त में हुतवहाङ्गना (स्वाहा) जोडने से २७ अक्षरों का पातकसंघों को
नष्ट करने वाला गङ्गा का अन्य अन्य निष्पन्न होता है ॥१२३-१२४॥
विमर्श - गङ्गा मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ॐ नमो भगवति ऐं हिलि हिलि मिलि मिलि गङ्गे मां पावय पावय स्वाहा
(२७) ॥१२३-१२४॥
रामवेदाङ्गवहयङ्कनेत्राणैरङ्गमीरितम्
।
इयमादिमसप्ताणत्यक्तोक्ता नखराक्षरी
॥ १२५ ॥
मन्त्र के ३,
४, ६, ३, ९ एवं दो वर्णों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१२५॥
विमर्श - षडङ्गन्यास - ॐ नमो
हृदयाय नमः,
भगवति शिरसे स्वाहा ऐं हिलि हिलि मि शिखायै वषट,
लि मिलि कवचाय हुम् गङ्गे मां पावय पावय नेत्रत्रयाय वौषट्
स्वाहा अस्त्राय फट् ॥१२५॥
(३) इस मन्त्र के आदि के ७
अक्षरों को निकाल देने से २० अक्षरों का अन्य गङ्गा मन्त्र बनता है ॥१२५॥
विमर्श - गङ्गा मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ऐं हिलि हिलि मिलि मिलि गङ्गे मा पावय पावय स्वाहा (२०) ॥१२५॥
बाणवेदाग्निरामाग्निनेत्राणैरङ्गमीरितम्
।
तारो हिलिमिलिद्वन्द्वे गङ्गे देवि
नमो मनुः ॥ १२६ ॥
इस मन्त्र के ५,
४, ३, ३, ३, और २ वर्णों से षडङ्गन्यास का विधान है ॥१२६॥
विमर्श -
यथा - ऐं हिलि हिलि हृदयाय नमः, मिलि मिलि
शिरसे स्वाहा,
गङ्गे मां शिखायै वषट्, पावय कवचाय हुम्,
पावय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा अस्त्राय फट् ॥१२६॥
(४) तार (ॐ), फिर ‘हिलि मिलि’ दो बार,
फिर ‘गङ्गे देवि नमः’, यह
१५ अक्षरों का एक अन्य गङ्गा का मन्त्र बनता है ॥१२६-१२७॥
तिथिवर्णो
यमस्याग्निनेत्राक्ष्यक्षियुगाक्षिभिः ।
तारो मायारमाहार्द ततो भगवतीति च ॥
१२७ ॥
मन्त्र के ३,
२, २, २, ४ एवं २ वर्णों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१२७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ॐ हिलि हिलि मिलि मिलि गङ्गे देवि नमः (१५)।
षडङ्गन्यास
- ॐ हिलि हृदयाय नमः हिलि शिरसे स्वाहा, मिलि
शिखायै वषट् मिलि कवचाय हुम् गङ्गे देवि नेत्रत्रयाय वौषट् नमः अस्त्राय फट्
॥१२६-१२७॥
गं स्मृत्ये त्रिसदृग्वायुस्ते नमो
वर्मफड्मनुः ।
त्रिनेत्रवेदपञ्चाक्षियुग्माणैरङ्गमीरितम्
॥ १२८ ॥
एषां चतुर्णा मन्त्राणामुपास्तिः
पूर्ववन्मता ।
(५)
गङ्गा का अन्य मन्त्र कहते हैं -
तार (ॐ),
माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), हार्द (नमः) फिर ‘भगवति गं’ , फिर
स्मृति (ग), अत्रि (द), सदृग् वायु
(यि), ते, फिर ‘नमो’,
फिर वर्म (हुं) तथा अन्त में फट् लगाने से १८ अक्षरों का गङ्गा
मन्त्र निष्पन्न होता है । मन्त्र के ३, २, ४, ५, २ और २ अक्षरों से
षडङ्गन्यास करना चाहिए । इन चारों मन्त्रों की उपासना पद्धति पूर्वोक्त है
॥१२७-१२९॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ॐ ह्रीं श्रीं नमो भगवति गङ्गदयिते नमो हुं फट् (१८) ।
षडङ्गन्यास
- ॐ ह्रीं श्री हृदयाय नमः, नमो शिरसे स्वाहा,
भगवति शिखायै वषट्, गङ्गयिते हुम् नमो
नेत्रत्रयाय वौषट्, हुं फट् अस्त्राय फट ।
ऊपर कहे गये चारों मन्त्रों की
साधना विधि के लिए (द्र० १६. ११७-१२०) ॥१२७-१२९॥
मणिकर्णिकामन्त्रौ
वाङ्मायाकमलाकामवेदाद्यो
विषमिन्दुयुक् ॥ १२९ ॥
मणिकर्णिभगीब्रह्मा हृदयं
ध्रुवसम्पुटः ।
अब मणिकर्णिका मन्त्र का उद्धार
कहते हैं - वाग् (ऐं) माया (ह्रीं), कमला
(श्रीं), काम (क्लीं) तथा वेदादि (ॐ), फिर
इन्दुयुत् विष (मं), फिर ‘मणिकणि’
पद, फिर ब्रह्मा (के), तदनन्तर
हृदय (नमः) इसे प्रणव से संपुटित करने पर १५ अक्षरों का मणिकर्णिका मन्त्र
निष्पन्न होता है ॥१२९-१३०॥
विमर्श - मणिकर्णिका का मन्त्र
- ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ॐ मं मणिकर्णिके नमः ॐ (१५) ॥१२९-१३०॥
मन्त्रः पञ्चदशार्णोऽस्य
मुनिर्व्यासोऽतिशक्वरी ॥ १३० ॥
छन्दः श्रीमणिकर्णी तु देवता
सुखपुत्रदा ।
चन्द्रनेत्राक्षिनेत्रेषु
वह्निवर्णैः षडङ्गकम् ॥ १३१॥
इस मन्त्र के वेद व्यास ऋषि हैं,
अतिशक्वरी छन्द है, श्रीमणिकर्णी देवता हैं जो
मनुष्यों को सुख तथा पुत्र देती है ॥१३०-१३१॥
विमर्श - विनियोग - अस्य
श्रीमणिकर्णिकामन्त्रस्य वेदव्यास ऋषिरतिशक्वरीच्छदः श्रीमणिकर्णिका
देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
मन्त्र के क्रमशः चन्द्र १,
नेत्र २, अक्षि २, नेत्र
२, ईषू ५, एवं वहिन ३ अक्षरों से
षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१३१॥
षडङ्गन्यास
- ॐ हृदयाय नमः, ॐ ऐं ह्रीं शिरसे स्वाहा,
ॐ श्रीं क्लीं शिखायै वषट्, ॐ मं कवचाय हुम्,
ॐ मणिकर्णिके नेत्रत्रयाय वौषट् नमः, ॐ नमः ॐ अस्त्राय फट्
॥१२९-१३१॥
फुल्लेन्दीवरनिर्मिता करतले
मालामसव्ये करे
बीजापूरफलं सिताम्बुजमयीं मालां
दधाना हृदि ।
श्वेतक्षौमवृता शरद्विधुनिभा
त्र्यक्षा निबद्वाञ्जलि
र्ध्यातव्या मणिकर्णिका रविसमा
तोयेशकाष्ठामुखी ॥ १३२ ॥
अब मणिकर्णिका भगवती का ध्यान
कहते हैं -
फूले हुये कमलों से बनी माला अपने
दाहिने हाथ में तथा विजौरा का फल अपने बायें में लिए,
श्वेत कमलों की माला अपने गले में धारण किए, श्वेत
वस्त्रों से अलंकृत, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान शरीर की आभा
वाली, त्रिनेत्रा, सूर्य के समान
तेजस्विनी पश्चिमाभिमुखी अञ्जलि बाँधे हुई श्रीमणिकर्णिका भगवती का ध्यान करना
चाहिए ॥१३२॥
लक्षत्रयं जपेन्मन्त्रं
जुहूयात्तद्दशांशतः ।
पुण्डरीकैस्त्रिमध्वक्तैर्यजेत्तां
गङ्गया समम् ॥ १३३ ॥
उक्त का ३ लाख जप तथा
त्रिमधुर (शहद् घी एवं शर्करा) मिश्रित कमलों का दशांश होम करना चाहिए । गङ्गा के
समान इनकी भी आवरण पूजा करनी चाहिए (द्र० १६. ११७ - १२०) ॥१३३॥
अयं मनुर्जनैर्जप्तो मोक्षलक्ष्मी
प्रयच्छति ।
सुखं समस्तं सन्तानं सौभाग्यं
धनसञ्चयम् ॥ १३४ ॥
मनुष्यों के द्वारा इस मन्त्र की
साधना करने पर वह उन्हे मोक्ष, लक्ष्मी,
समस्त सौभाग्य एवं सन्तानादि सभी सौख्य तथा अपार धन प्रदान करता है
॥१३४॥
प्रणवो बिन्दुयुङ्मोन्ते मण्यन्ते
कर्णिकेप्रण ।
वात्मिके हृदयं मन्त्रो
मनुवर्णोऽस्य पूर्ववत् ॥ १३५ ॥
अब मणिकर्णिका देवी का अन्य
मन्त्र कहते हैं - प्रणव (ॐ) बिन्दु युग म (मं) फिर ‘मणि’ के बाद ‘कर्णिके प्रण
वात्मिके’ अन्त में हृदय (नमः) लगाने से १४ अक्षरों का
मणिकर्णिका का एक अन्य मन्त्र निष्पन्न होता है॥१३५॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
ॐ ,मणिकर्णिके प्रणवात्मिक नमः ॥१३५॥
विधेयोपासना सर्वा मणिका उपासकः ।
कुदेशेऽपि मृतो याति
ब्रह्मेवामलमव्ययम् ॥ १३६ ॥
मणिकर्णिका की उपासना की महिमा
- सभी लोगों को मणिकर्णिका की उपासना करनी चाहिए । क्योंकि इनकी उपासना के प्रभाव
से मगध आदि निन्दित प्रदेश में मृत्यु होने पर भी साधक अमल,
अव्यय तथा ब्रह्यत्व प्राप्त करता है ॥१३६॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ शिवादिमन्त्रकथनं नाम षोडशस्तरङ्गः ॥ १६ ॥
॥ इस प्रकार श्रीमन्महीपर विरचित
मन्त्रमहोदधि के षोडश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ.
सुधाकर मालवीयकृत 'अरित्र' नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १६ ॥
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