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मंत्रमहोदधि पन्द्रहवां तरंग
मन्त्रमहोदधिः
अथ पञ्चदशः तरङ्गः
अरित्र
अथ वक्ष्ये रवर्मन्त्रं
रोगदारिद्र्यनाशनम्।
रोगदारिद्र्यनाशनो रविमन्त्रः
प्रणवो भुवनेशानीमेधारेचिकयान्विता
॥ १॥
उमाकान्तोक्षियुक्सर्गीसूर्यआदित्यइन्दिरा
।।
अब रोग एवं दारिद्रता को नष्ट करने
वाले रवि मन्त्र को कहता हूँ -
प्रणव (ॐ),
भुवनेश्वरी (ह्रीं), रेचिका सहित मेधा (घृ),
अक्षि सहित सर्गी उमाकान्त (णिः), फिर ‘सूर्य आदित्यः’ पद, इसके अन्त
एं इन्दिरा (श्रीं), लगाने से दश अक्षरों का दारिद्रय नाशक
मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१-२॥
दशवर्णो मनुर्देव भागोऽस्य
मुनिरीरितः ॥ २॥
गायत्रीछन्द उद्दिष्टं
देवतादिवसेश्वरः ।
मायाबीजं
रमाशक्तिर्नियोगोऽभीष्टसिद्धये ॥ ३॥
इस मन्त्र के भृगु ऋषि हैं,
गायत्री छन्द तथा सूर्य देवता कहे गये हैं । माया (ह्रीं) बीज है,
रमा (श्रीं) शक्ति हैं । अभीष्टसिद्धि हेतु इसका विनियोग किया जाता
है ॥२-३॥
विमर्श - दारिद्रय नाशक मन्त्र
का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ ह्रीं घृणिः पूर्य आदित्यः श्रीं (१०) ।
विनियोग
- अस्य श्रीसूर्यमन्त्रस्य भूगृऋषिः गायत्रीछन्दः भगवान् दिवाकरो देवता ह्रीं बीजं
श्री शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥२-३॥
षडङ्गाष्टाङ्गपञ्चाङ्गवर्णमण्डलाग्नीषोमहंसग्रहात्मका
अष्टन्यासा:
सत्येतिहृदयं ब्रह्मशिरो विष्णुशिखा
स्मृता ।
रुद्रवर्माग्निनेत्रं स्यात्
सर्वेत्यस्त्रमुदीरितम् ॥ ४ ॥
तेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहान्ता
मनवोऽङ्गजाः ।
(१) अब षडङ्गन्यास कहते
हैं - सत्य से हृदय, ब्रह्मा से शिर, विष्णु
से शिखा, रुद्र से कवच, अग्नि से नेत्र
तथा सर्व से अस्त्रन्यास करना चाहिए । अङ्गन्यास में कहे गये सभी मन्त्रों के अन्त
में ‘तेजोज्वालामणे’ हुं फट् स्वाहा’
इतना और जोड देना चाहिए ॥४-५॥
विमर्श - षडङ्गन्यास विधि
-
सत्यतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा
हृदयाय नमः,
ब्रह्मातेजोज्वालामणे हुं फट्
स्वाहा शिरसे स्वाहा,
विष्णुतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा
शिखायै वषट्,
रुद्रतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा
कवचाय हुम्,
अग्नितेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा
नेत्रत्रयाय वौषट्,
सर्वतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा
अस्त्राय फट् ॥४॥
भूयः षडङ्ग षड्वर्णाः
कृत्वान्तःस्थैः शिवाश्रियोः ॥ ५॥
शेषाणैर्जठरे पृष्ठे उन्तनाम्ना
तयोर्त्यसेत्।
(२) अब अष्टाङ्गन्यास कहते
हैं - इसके बाद क्रमशः शिवा (ह्रीं) तथा श्री (श्रीं) के बीच में मन्त्र के ७
वर्णों में एक एक को रखकर पुनः षडङ्गन्यास करना चाहिए । शेष वर्णों से पुनः उसी
प्रकार उदर और पृष्ठ में चतुर्थ्यन्त ‘नमः’ लगाकर उदर पृष्ठ में न्यास करना चाहिए ॥५-६॥
विमर्श - अष्टाङ्गन्यास विधि
- ह्रीं ॐ श्रीं हृदयाय नमः,
ह्रीं घृं श्रीं शिरसे स्वाहा, ह्रीं ॐ श्रीं हृदयाय नमः,
ह्रीं सूं श्रीं कवचाय हुम्, ह्रीं णिं श्रीं शिखायै
वषट्,
ह्रीं आं श्रीं अस्त्राय फट्, ह्रीं दिं श्रीं उदराय नमः
उदरे,
ह्रीं त्यं श्रीं पृष्ठाय नमः
पृष्ठे ॥५॥
आदित्यं च रवि भानु भास्करं
सूर्यमेव च ॥ ६ ॥
मूर्ध्नि वक्त्रे हृदि शिवे
पादयोश्च प्रविन्यसेत् ।
सद्यादिपञ्चहृस्वाद्याश्चतुर्थीनमसान्वितान्
॥ ७ ॥
(३) अब पञ्चमूर्तिन्यास
कहते हैं - आदित्य, रवि, भानु, भास्कर एवं सूर्य के नाम के आगे चतुर्थ्यन्त तथा नमः लगाकर तथा आदि में
प्रणवयुक्त विलोमक्रम से पञ्च ह्रस्व (लृ ऋं उं इं अं) लगाकर, क्रमशः शिर, मुख, हृदय,
लिङ्ग, एवं पैरों में न्यास करे ॥६-७॥
विमर्श - पञ्चमूर्तिन्यास
- ॐ लृं आदित्याय नमः शिरसि,
ॐ ऋं रवये नमः मुखे, ॐ उं भानवे नमः हृदि,
ॐ इं भास्कराय नमः लिङ्गे ॐ अं सूर्याय नमः पादयोः ॥६-७॥
माया रमागतानष्टौ वर्णमूर्धमुखे गले
।
हृत्कुक्षिनाभिजंघे च पादयोश्च
प्रविन्यसेत् ॥ ८ ॥
(४) अब वर्णन्यास कहते हैं
- माया (ह्रीं) और रमा (श्रीं) के मध्य में उक्त मन्त्र के आठो वर्णों को एक एक के
क्रम से स्थापित कर अन्त मे नमः लगाकर शिर, मुख, कण्ठ, हृदय, कुक्षि, नाभि, जंघा एवं पैरों में इस प्रकार न्यास करना
चाहिए ॥८॥
विमर्श - वर्णन्यास की
विधि -
ॐ ह्रें श्रीं नमः मूर्ध्नि, ॐ ह्रीं घृं श्रीं नमः
मुखे,
ॐ ह्रीं णिं श्रीं नमः कण्ठे, ॐ ह्रीं सूं श्री नमः हृदि
ॐ ह्रीं र्य नमः कुक्षौ, ॐ ह्रीं आं श्रीं नमः नाभौ
ॐ ह्रीं दिं श्री नमः जंघ्यो ॐ ह्रीं त्यं श्रीं नमः पादयोः ॥८॥
स्वरान्सबिन्दूनुच्चार्य डेंन्तं
शीतांशुमण्डलम् ।
शिखादिकण्ठपर्यन्तं विन्यसेत्
संस्मरन्विधुम् ॥ ९ ॥
(५) अब मण्डन्यास कहते हैं
- चन्द्रमा का स्मरण करते हुये सानुस्वार षोडशस्वरों का उच्चारण कर नमः
शब्दान्त चतुर्थ्यन्त सोममण्डल का शिखा से कण्ठ पर्यन्त न्यास करना चाहिए ॥९॥
स्पर्शान्सेन्दून्समुच्चार्य उन्तं
भास्करमण्डलम् ।
कतादिनाभिपर्यन्त
न्यसेद्ध्यायन्प्रभाकरम् ॥ १०॥
इसके बाद सूर्य का ध्यान करते
हुये सानुस्वार २५ व्यञ्जनों का उच्चारण कर ‘नमः’
शब्द’ शब्द में चतुर्थ्यन्त सूर्यमण्डल का
कण्ठ से नाभिपर्यन्त न्यास करना चाहिए ॥१०॥
यादीन्सेन्दूश्चतुर्थ्यन्तं
वह्निमण्डलमुच्चरन् ।
नाभ्यादिपादपर्यन्तं विन्यसेत्पावकं
स्मरन् ॥ ११॥
मण्डलत्रयविन्यासः प्रोक्तस्तेजोविधायकः
।
अकारादिठकरान्तवर्णाढ्यं सोमण्डलम्
॥ १२॥
पुनः अग्नि का स्मरण करते
हुये सानुस्वार यकारादि १० व्यञ्जन वर्णों का उच्चारण करते हुये नमः शब्दान्त
चतुर्थ्यन्त वह्निमण्डल का नाभि से पैर पर्यन्त न्यास करना चाहिए । इस प्रकार से
किया गया मण्डत्रयन्यास तेजोवर्द्धक बताया गया है ॥११-१२॥
विमर्श-मण्डलन्यास विधि - अं
आं ....अः सोममण्डलाय नमः शिखादि कण्ठान्तम्,
कं खं ....... मं सूर्यमण्डलाय नमः
कण्ठादि नाभ्यन्तम्,
यं रं..... क्षं वहिनमण्डलाय नमः
नाभ्यादि पादान्तम ॥११-१२॥
ऊँ नमोन्तं न्यसेन्मन्त्री
मूर्द्धादिचरणावधि ।
डकारादिक्षकारान्तं वर्णाद्यं
वहिनमण्डलम् ॥ १३॥
हृदादिपादपर्यन्तं
विन्यसेन्डेनमोन्वितम् ।
अग्नीषोमात्मको न्यासः कथितः
सर्वसिद्धिदः ॥ १४ ॥
(६) अब अग्नीषोमात्मक न्यास
कहते हैं - सानुस्वार अकरादि ठान्त समुदायात्मक वर्णो के साथ नमः शब्दान्त
चतुर्थ्यन्त सोम मण्डल का शिर से पैर पर्यन्त न्यास करना चाहिए । डकारादि क्षान्त
सानुस्वार व्यञ्जन वर्णों को प्रारम्भ में लगाकर नमः शब्दान्त चतुर्थन्त वह्निमंडल
का हृदय स पैर तक न्यास करना चाहिए । इस प्रकार किया गया अग्नीषोमात्मक न्यास
सर्वसिद्धिप्रद माना गया है ॥१३-१४॥
विमर्श - न्यास विधि - अं आं इं ...टं ठं सोममण्डलाय नमः मूर्धादि
पादान्तम् डं ढं णं ...क्षं वहिनमण्डलाय नमः हृदयादि पादान्तम् ॥१३-१४॥
सबिन्दून्मातृकावर्णानजपापुरुषात्मने
।
नमोन्तं व्यापकं
न्यस्येद्धसन्यासोऽयमीरितः ॥ १५॥
(७) अब हंसन्यास कहते हैं
- स बिन्दु (सानुस्वार), मातृका वर्ण, फिर
अजपा (हंस), पुरुषात्मने और अन्त में नमः लगाकर व्यापक न्यास
करना चाहिए । इसे हंसन्यास कहा गया है ॥१५॥
विमर्श
- यथा अं आं ई ... क्षं हंस पुरुषात्मने नमः इति सर्वाङ्गे ॥१५॥
अष्टावष्टौ स्वरान्पञ्चपञ्चशः
शेषवर्णकान् ।
उक्तादित्यमुखान्न्यस्येच्चतुर्भिश्च
ग्रहान्नव ॥ १६ ॥
आधारलिङ्गनाभीहृत्कण्ठे च
मुखमध्यतः।
भ्रूमध्ये भालदेशे च ब्रह्मरन्धे
क्रमान्न्यसेत् ॥ १७ ॥
वदेत्खेचरनामान्ते पदं भगवते नमः ।
हंसाख्यमग्नीषोमाख्यं
मण्डलत्रयसंज्ञकम् ।
पुनासत्रयं कुर्यान्मूलेन व्यापकं
चरेत् ॥ १८॥
(८) अब ग्रहन्यास कहते हैं, आठ आठ स्वरों
से दो ग्रह, पाँच वर्णों से ५ ग्रह तथा शेष ४, ४ वर्णों से २ ग्रहों का भगवते नमोन्त मन्त्रों से क्रमशः आधार, लिङ्ग, नाभि, हृदय कण्ठ,
मुख, भ्रूमध्य ललाट एवं ब्रह्मरंध्र मे न्यास
करना चाहिए ॥१६-१८॥
विमर्श - ग्रहन्यास विधि -
अं आं .... ऋं आदित्याय भगवते नमः आधारे,
लृं लृं ... अः सोमाय भगवते नमः
लिङ्गे,
कं खं गं घं डं अंगारकाय नमः नाभौ,
चं छं जं झं नं बुधाय भगवते नमः
हृदि,
टं ठं डं ढं णं बृहस्पतये भगवते नमः
कण्ठे,
तं थं दं धं नं शुक्राय भगवते नमः
मुखमध्ये,
पं फं बं भं मं शनैश्चराय भगवते नमः,
भूमध्ये,
यं रं लं वं राहवे भगवते नमः भाले,
शं षं सं हं केतवे भगवते नमः
ब्रह्मरन्ध्रे ॥१६-१८॥
इसके बाद पुनः हंसन्यास,
अग्नीषोमात्मकन्यास तथा मण्डलन्यास करके मूलमन्त्र से व्यापक न्यास
करना चाहिए ॥१८॥
ध्यानावरणादिपूजाकथनम्
शोणाम्भोरुहसंस्थित त्रिनयनं
वेदत्रयीविग्रहं
दानाम्भोजयुगाभयानि दधतं हस्तैः
प्रवालप्रभम् ।
केयूराङ्गदहारकंकणधरं
कर्णोल्लसत्कुण्डलं
लोकोत्पत्तिविनाशपालनकर सूर्य
गुणाब्धिं भजे ॥ १९ ॥
अब ध्यान कहते हैं - रक्त
वर्ण के कमल पर आसीन, त्रिनेत्र, वेदत्रयमूर्ति अपने चारों हाथो में क्रमशः दान, कमल,
पद्म एवं अभय धारण करन एवं
अभय धारण करन वाले, प्रवाल जैसी कान्ति से युक्त,
केयूर, अङ्गद, हार,
और कंकण धारण किए हुये, कानों में कुण्डल से
उल्लसित सारे जगत् के उत्पत्ति, स्थिति, तथा पालन कर्ता गुणागार भगवान् सूर्य की उपासना करता हूँ ॥१९॥
एवं ध्यायजपेल्लक्षदशकं तद्दशांशतः।
पौस्तिलैर्वा जुहुयात्तर्पयेद्
भोजयेद् द्विजान् ॥ २० ॥
उक्त प्रकार का ध्यान करते हुये दश
लाख जप करना चाहिए। कमल अथवा तिलों से दशांश हवन करना चाहिए। तदनन्तर दशांश तर्पण
कर ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए ॥२०॥
प्रयजेत्पीठपूजायां
धर्माद्यष्टस्थलेष्विमान् ।
प्रभूतं विमलं सारं समारध्यं
विदिक्ष्वथ॥ २१ ॥
पीठ पूजा करते समय धर्मादि अष्टक के
स्थान पर,
कोणो में प्रभृत, विमल सार एवं समाराध्य का,
तथा मध्य में परममुख - इन पाँच का पूजन करना चाहिए ॥२१॥
परमादिसुख
मध्येऽनन्तादीन्पूर्ववद्यजेत् ।
सोमाग्निमण्डले प्रोच्य
रविमण्डलमर्चयेत् ॥ २२॥
ततोऽष्टदिक्षु मध्ये च पीठशक्तीरिमा
नव ।
दीप्तासूक्ष्माजयाभद्राविभूतिर्विमला
तथा ॥ २३ ॥
अमोघा विद्युता सर्वतोमुखीपीठशक्तयः
।
फिर पूर्वोक्त (१ तरंग) विधि से
अनन्तादि का पूजन करना चाहिए । फिर सोमग्निमण्डल की अर्चना कर रविमण्डल की अर्चना
करे । तदनन्तर आठो दिशाओं में तथा मध्ये में १. दीप्ता,
२. सूक्ष्मा, ३. जया, ४.
भद्रा, ५. विभूति, ६. विमला, ७. अमोघा, ८. विद्युता तथा ९. सर्वतोमुखी इन ९ पीठ
शक्तियों का पूजन करे ॥२२-२४॥
हस्वत्रयक्लीवहीनस्वरान्वनीन्दुसंयुतान्
॥ २४ ॥
बीजानि पीठशक्तीनां तदाद्यास्ताः
प्रपूजयेत् ।
ह्रस्वत्रय (अ इ उ) तथा क्लीव (ऋ ऋ
लृ लृ) स्वरों को छोडकर शेष स्वरों को अनुस्वार तथा वह्नि (र) से युक्त करने पर इन
शक्तियों के (रां रीं रूं रें रैंम रों रौं रं रः ) बीज मन्त्र बन जाते हैं ।
इन्हें प्रारम्भ में लगाकर उनका पूजन करना चाहिए ॥२४-२५॥
ह्मब्रविष्णुशिवात्मान्ते
कायसौराययो स्मृतिः ॥ २५॥
पीठात्मने नमस्तारपूर्वः पीठमनुः
स्मृतः ।
‘ब्रह्मविष्णुशिवात्म’ के बाद ‘काय सौराय यो’, फिर
स्मृति ‘ग’ पीठात्मने नमः, इसके प्रारम्भ में तार (ॐ) लगाने से सूर्य का पीठ मन्त्र बन जाता है
॥२५-२६॥
तारसेन्दुवियत्कान्तौ बिन्दुमद्
बिन्दुवर्जितौ ॥ २६ ॥
खोल्कायहृदयं मन्वो नवार्णो
मूर्तिकल्पने ।
अनेन मूर्ती क्लृप्तायां
यजेत्प्रद्योतनं प्रभुम् ॥ २७ ॥
तार (ॐ),
सेन्दु वियत् (हं), बिन्दु सहित कान्त (खं),
बिन्दु रहित कान्ता (ख), फिर ‘खोल्काय’ फिर हृदय (नमः) इस नवार्ण मन्त्र से सूर्य
मूर्ति की कल्पना कर लेनी चाहिए । तदनन्तर भगवान् सूर्य का पूजन करना चाहिए
॥२६-२७॥
विमर्श - सूर्य पीठ पूजा विधि
- सर्वप्रथम १५. १९ में वर्णित सूर्य के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर
ताम्रपात्र में अर्घ्य स्थापित करे । फिर विधिवत् गुरुपंक्तित का पूजन कर
वृत्ताकार कर्णिका, अष्टदल, और भूपुर सहित यन्त्र लिखे । तदनन्तर नाम मन्त्रों से पीठ देवताओं का इस
प्रकार पूजन करे । यथा -
प्रथम पीठ मध्ये-
ॐ मं मण्डूकाय नमः, ॐ कं कालाग्निरुद्राय
नमः ॐ आधारशक्तये नमः,
ॐ प्रकृत्यै नमः, ॐ कूर्माय नमः, ॐ शेषाय नमः,
ॐ पृथिव्यै नमः ॐ क्षीरसमुद्राय नमः, ॐ श्वेतद्वीपाय नमः,
ॐ मणिमण्डपाय नमः, ॐ कल्पवृक्षाय नमः, ॐ मणिवेदिकायै नमः,
ॐ रत्नसिंहासनाय नमः,
फिर आग्नेयादि कोणों में तथा
मध्य में प्रभूत आदि की यथा -
प्रभूताय नमः आग्नेये, विमलाय नमः नैऋत्ये, साराय नमः वायव्ये
समाराध्याय नमः,
ऐशान्ये परमसुखाय नमः
मध्ये,
पुनः पीठ के मध्य में अनन्तादि
नाम मन्त्रों से यथा -
ॐ अनन्ताय नमः, ॐ पद्माय नमः आनन्दकन्दाय नमः,
ॐ संविन्नालाय नमः, ॐ पञ्चादशद्वर्न कर्णिकायै
नमः, ॐ
प्रकृत्यात्मकपत्रेभ्यो नमः,
ॐ पञ्चादशद्वर्ण कर्णिकायै नमः
पुनस्तत्रैव
- ॐ उं षोडशकलात्मने सोममण्डलाय नमः,
ॐ रं दशकलात्मनेः सोममण्डलाय नमः,
ॐ अं द्वादशकलात्मने सूर्यमण्डलाय
नमः
इसके बाद केशरों में तथा मध्य
में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से नव शक्तियों की यथा - रां दीप्तायै नमः, रीं सूक्ष्मायै नमः, रुं जयायै नमः
रें भद्रायै नमः, रैं विभूत्यै नमः रों विमलायै नमः,
रौं अमोघायै नमः रं विद्युतायै नमः रः सर्वतोमुख्यै नमः (मध्ये)
फिर ‘ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाय सौराय योगपीठात्मने नमः’ मन्त्र
से सूर्य की आसन देकर ‘ॐ हं खं खखोल्काय नमः’ इस मन्त्र से मूर्ति की कल्पना कर उसी में विधिवत् आवाहनादि उपचारों से
जगत्पति सूर्य की पूजा करनी चाहिए । तदनन्तर उनकी आज्ञा लेकर आवरण पूजा प्रारम्भ
करनी चाहिए ॥२१-२७।
प्राग्वत्षडङ्ग सम्पूज्य
दिक्ष्वष्टाङ्ग प्रपूजयेत् ।
आदित्यं मध्यतोऽभ्यर्च्य रविं भानु
च भास्करम् ॥ २८॥
सूर्य दशासु
सद्यादिपञ्चहस्वादिकान्यजेत् ।
अब आवरण पूजा कहते हैं -
पूर्वोक्त विधि से केशरों में (द्र ० १५. ४) षडङ्गपूजा कर दिशाओं में अष्टाङ्ग
(द्र० १५.५) पूजन करे । आदि में प्रणव, सद्य
(लृ), आदि पञ्च ह्रस्व लगाकर आदित्य का मध्य में, तदनन्तर रवि भानु, भास्कर, और
सूर्य का पूर्वादि दिशाओं मे पूजन करे ॥२८-२९॥
उषां प्रज्ञा प्रभां
सन्ध्यामाद्यर्णाद्या विदिक्ष्वपि ॥ २९ ॥
ब्राह्मयाद्या
दिग्दलेष्वर्चेन्महालक्ष्मीस्थलेरुणम् ।
सोमं बुध गुरुं शुक्र
दिक्ष्वाद्यर्णादिकान्यजेत् ॥ ३० ॥
अङ्गारकं शनि राहु केतुं कोणेषु
पूजयेत् ।
इन्द्राद्यानायुधैर्युक्तान्पार्षदानर्चयेद्रवेः
॥ ३१॥
तदनन्तर विदिशाओं (कोणों) में अपने
आद्य वर्ण सहित उषा, प्रज्ञा, प्रभा, और संध्या का पूजन करे । तदनन्तर पूर्वादि
दिशाओं के दलों पर ब्राह्यी आदि अष्ट मातृकाओं की पूजा करे । केवल महालक्ष्मी
के स्थान पर अरुण की पूजा करे । पुनः दिशाओं में सोम, बुध,
गुरु और शुक्र का तथा कोणों में मङ्गल, शनि,
राहु और केतु का पूजन करना चाहिए । फिर आयुध सहित इन्द्रादि दिक्पालों
का तथा रवि के पार्षदों का पूजन करना चाहिए ॥२९-३१॥
विमर्श - संक्षेप में आवरण पूजा
विधि - सर्वप्रथम केशरों के आग्नेयादि कोणों में,
मध्यम में, तथा चारों दिशाओं में षडङगपूजा करे
। यथा -
ॐ सत्यतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा
हृदयाय नमः,
ॐ ब्रह्मतेजोज्वालांमणे हुं फट् स्वाहा
शिरसे स्वाहा,
ॐ विष्णुतेजोज्वालामणे हुं फट्
स्वाहा शिखायै वषट्,
ॐ रुद्रतेजोज्वालामणे हुं फट्
स्वाहा कवचाय हुम्
ॐ अग्नितेजोज्वालामणे हुं फट्
स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट,
ॐ
सर्वतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा अस्त्राय फट,
इसके बाद पूर्वादि दिशाओं में
अनुलोम क्रम से अष्टाङ्गपूजा यथा -
ह्रीं ॐ श्रीं हृदयाय नमः, ह्रीं घृं श्रीं शिरसे
स्वाहा,
ह्रीं णिं श्रीं शिखायै वषट्, ह्रीं सूं श्रीं कवचाय
हुम्,
ह्रीं र्यं श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्रीं आं श्रीं अस्त्राय
फट्,
ह्रीं दिं श्रीं उदराय नमः उदरे, ह्रीं त्यं श्रीं पृष्ठाय
नमः पृष्ठे,
तत्पश्चात् मध्य में आदित्य का,
पूर्वादि चारों दिशाओं के दलों में रवि आदि का तथा आग्नेयादि कोणों
के दलों में उषा आदि का - यथा -
ॐ लृं आदित्याय नमः मध्ये, ॐ ऋ रवये नमः पूर्वदले,
ॐ उं भानवे नमः दक्षिणदले, ॐ इं भास्कराय नमः
पश्चिमदले,
ॐ अं सूर्याय नमः उत्तरदले, ॐ उं उषायै नमः आग्नेयदले,
ॐ प्रं प्रज्ञायै नमः नैऋत्यदले, ॐ प्रं प्रभायै नमः वायव्यदले,
ॐ सं सन्ध्यायै नमः ईशानदले ।
फिर अष्टदल के अग्रभाग में
पूर्वादि दिशाओं के अनुलोम क्रम से ब्राह्यी आदि का यथा -
ॐ ब्राह्ययै नमः, ॐ माहेश्वर्यै नमः,
ॐ कौमार्यै नमः, ॐ वैष्णव्यै नमः ॐ वाराह्यै नमः,
ॐ इन्द्राण्यै नमः, ॐ चामुण्डायै नमः, ॐ अरुणाय नमः
तत्पश्चात मण्डल के बाहर
पूर्वादि दिशाओं में सोमादि चार ग्रहो का तथा आग्नेयादि चार कोणो में
अङ्गाकादि ग्रहों का यथा -
ॐ सों सोमाय नमः पूर्वे, ॐ बुं बुधाय नमः दक्षिणे,
ॐ गुं गुरवे नमः पश्चिमे, ॐ शुं शुक्राय नमः उत्तरे,
ॐ अं अङ्गारकाय नमः आग्नेये, ॐ शं शनये नमः नैऋत्ये,
ॐ रां राहवे नमः वायव्ये, ॐ कें केतवे नमः ऐशान्ये,
तदनन्तर भूपुर में अपनी अपनी
दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का
ॐ लं इन्द्राय नमः, ॐ रं अग्नये नमः, ॐ मं यमाय नमः,
ॐ क्षं निऋतये नमः ॐ वं वरुणाय नमः ॐ यं वायवे नमः
ॐ सं सोमाय नमः ॐ
हं ईशानाय नमः,
ॐ आं ब्राह्मणे नमः,
ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः, पुनः रविपार्षदेभ्यो नमः
फिर भूपुर के बाहर बज्रादि
आयुधों का - ॐ वं वज्राय नमः,
ॐ शं शक्तये नमः, ॐ दं दण्डाय नमः, ॐ वं वज्राय नमः,
ॐ पां पाशाय नमः, ॐ अं अंकुशाय नमः, ॐ गं गदायै नमः,
ॐ शूं शूलाय नमः, ॐ पं पद्माय नमः, ॐ चं चक्राय नमः,
इस प्रकार आवरण पूजन कर धूप दीप आदि
उपचारों से भगवान् सूर्य का पूजन करे ॥२८-३१॥
इत्थं सिद्ध मनौ दद्याद् भानवेऽयं च
तद्दिने ।
अर्घ्यदानप्रकारवर्णनम्
प्राणायम षडङ्ग च कृत्वा
न्यासान्पुरोदितान् ॥ ३२ ॥
स्वमण्डले यजेदक मानसैरुपचारकैः ।
इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर
साधक को उस दिन भगवान् भास्कर के लिए अर्घ्य प्रदान करना चाहिए । उसकी विधि
इस प्रकार हैं - प्राणायाम षडङ्गन्यास तथा पूर्वोक्त अन्य सभी न्यास कर साधक को
अपने मण्डल में भगवान् सूर्य का मानसोपचारों से पूजन करना चाहिए ॥३२-३३॥
सुताम्रघटित प्रस्थतोयग्राहिमनोहरम्
॥ ३३॥
मण्डले स्थापयेत्पात्रं
रक्तचन्दनचर्चितम् ।
विलोमा मातृकां मूलं विलोमं च
पठजलैः ॥ ३४ ॥
रविमण्डलनिर्गच्छत्सुधाबुद्धिविभावितैः
।
प्रथम सुन्दर ताँबे का पात्र,
जिसमें लगभग १ प्रस्थ (६४ तोला) जल अँट सके, उस
मनोहर पात्र को रक्त चन्दन से विभूषित कर मण्डल में स्थापित करना चाहिए । फिर
विलोम क्रम से मातृकाओं तथा विलोम क्रम से मूल मन्त्र को पढते हुये जल में रवि
मण्डल से निकलते हुई अमृत धारा की भावना कर उस ताम्र पात्र में उस जल को भर देना
चाहिए ॥३३-३५॥
त्रयोदशैव वस्तूनि
प्रक्षिपेन्मूलमुच्चरन् ॥ ३५ ॥
तिलतण्डुलदर्भाग्रशालिश्यामाकराजिका
।
हयारिकुसुमं रक्त चन्दनं
रक्तचन्दनम् ॥ ३६ ॥
गोरोचनं कुंकुमं च जयां वेणुयवानिति
।
फिर मूल मन्त्र पढते हुये उसमें १.
तिल,
२. तण्डुल. ३. कुशाग्रभाग, ४. शालि (साठी धान),
५. श्यामाक, ६. राई, ७.
लाल कनेर का पुष्प, ८. लालचन्दन, ९.
श्वेत चन्दन, १०. गोरोचन, ११. कुंकुम,
१२. जौ और १३. वेणुजव ये १३ वस्तुयें छोडनी चाहिए ॥३५-३७॥
तज्जले पीठमभ्यर्च्य बाह्यभानु
स्वमण्डलात् ॥ ३७॥
अखिलैरुपचारैस्त पूजयेदावृतीरपि ।
प्राणायामत्रयं कृत्वा
षडङ्गन्यासमाचरेत् ॥ ३८॥
फिर उसे जल में पीठ पूजा (द्र० १५.
२११-२७) कर अपने मण्डल से उसमें बाह्य सूर्य का आवाहन कर समस्त उपचारों से
उनका पूजन करना चाहिए । तदनन्तर ३ बार प्राणायाम कर षडङ्गन्यास करे ॥३७-३८॥
चन्दनेन सुधाबीज दक्षे करतले न्यसेत्
।
आच्छादयेदर्घपात्रं वामाक्रान्तेन
तेन च ॥ ३९॥
अष्टोत्तरशतावृत्त्या
मूलेनाम्भोभिमन्त्रयेत् ।
पुनः पञ्चोपचारैस्तं पूजयेन्मूलमन्त्रतः॥
४०॥
चन्दन से सुधाबीज (वं) का दाहिने
हाथ पर न्यास करे । बायें हाथ में अर्घ्यपात्र लेकर दाहिने से उसे ढंक कर १०९ बार
मूलमन्त्र से उस जल को अभिमन्त्रित कर पुनः मूलमन्त्र से पञ्चोपचार पूजन करे
॥३९-४०॥
पाणिभ्यां पात्रमादाय जानुनीभूतले
न्यसेत् ।
आमूधं पात्रमुद्धृत्यदृष्टिं चाधाय
मण्डले ॥ ४१॥
मनसा पूजयेत्तत्र भानुमावरणान्वितम्
।
फिर अर्घ्य पात्र को दोनो हाथों में
लेकर घुटनों के बल पृथ्वी पर बैठ कर पात्र का शिर पर्यन्त ऊँचा उठाकर रविमण्डल में
अपनी दुष्टि लगाकर आवरण सहित सूर्य का ध्यान कर मानसोपचारों से सूर्य का पूजन करे ॥४१-४२॥
अयं दद्यादविं
ध्यायन्रक्तचन्दनमण्डले ॥ ४२ ॥
ततः पुष्पाञ्जलिं दद्यान्मण्डलस्थाय
भानवे ।
अष्टोत्तरशतं मूलं जपेदासनसंस्थितः
॥ ४३ ॥
फिर रक्त चन्दन से विभूषित मण्डल
में सूर्य नारायण को अर्घ्य प्रदा बैठकर एक सौ आठ मूल का जप करे ॥४२-४३॥
प्रत्यकं प्रातरेवं यो दद्यादऱ्या
विवस्वते ।
लक्ष्मीयशः सुतान्विद्यामैश्वर्य
सोऽधिगच्छति ॥ ४४॥
प्रतिदिन प्रातः काल के समय जो
व्यक्ति इस विधि से सूर्य नारायण को अर्घ्य देता है वह लक्ष्मी,
यश, पुत्र, विद्या,
और ऐश्वर्य से पूर्ण हो जाता है ॥४४॥
गायत्र्युपासनासक्तः
सन्ध्यावन्दनतत्परः ।
दशवर्ण जपन्विप्रो नैव
दुःखमवाप्नुयात् ॥ ४५ ॥
गायत्री
की निरन्तर उपासना करने वाला, सन्ध्यावन्दन
में तत्पर और इस दशाक्षर मन्त्र का जप करने वाला ब्राह्मण कभी दुःखी नहीं होता
॥४५॥
सुतधनप्रदो
मङ्गलमन्त्रस्तद्विधिवर्णनम्
अथ वच्मि धरासूनुमन्त्रं
सुतधनप्रदम् ।
तारो वियद्दीघं बिन्दुयुक्तं
चन्द्रांकितं पुनः ॥ ४६ ॥
भृगुर्विसर्गीचण्डीशौ
क्रमाद्रात्रीशसर्गिणौ ।
षड्वर्णो मनुराख्यातोऽभीष्टदायी
ऋणापहः ॥ ४७ ॥
अब पुत्र और धनदायक मङ्गल के
मन्त्र का उद्धार कहता हूँ -
तार (ॐ),
दीर्घ बिन्दु सहित वियत् (हां), फिर
चन्द्रांकित वियत् (हं), विसर्गी भृगु (स), फिर रात्रीश और विसर्ग सहित दो चण्डीश (ख), अर्थात
खं खः यह ६ अक्षरों वाला अभीष्टफलदायक तथा ऋणनाशक मङगल का मन्त्र कहा गया
है –
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप ॐ
हां हंसः खं खः ॥४६-४७॥
मुनिर्विरूपागायत्री छन्दो देवो
धरात्मजः ।
षड्भिर्वर्णैः षडङ्गानि मनोः
कुर्वीत साधकः ॥ ४८॥
इस मन्त्र के विरुपा मुनि हैं,
गायत्री छन्द है तथा धरात्मज (मङ्गल) देवता हैं । साधक को मन्त्र के
६ वर्णों से क्रमशः एक एक द्वारा षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४८॥
विमर्श - विनियोग विधि -
अस्य श्रीमङ्गलमन्त्रस्य विरुपाऋषिर्गायत्रीच्छन्दः धरात्मजो
मङ्गलदेवताऽऽत्मनोऽभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
- ॐ हृदयाय नमः, हां शिरसे स्वाहा, हं शिखायै वषट्, स: कवचाय हुम्, खं नेत्रत्रयाय वौषट्,
ख: अस्त्राय फट् ॥४८॥
जपाभं शिवस्वेदजं हस्तपद्मै-गदाशूलशक्तीवरं
धारयन्तम् ।
अवन्तीसमुत्थं सुमेषासनस्थं धरानन्दनं
रक्तवस्त्रं समीडे ॥ ४९॥
अब इस मन्त्र का ध्यान कहते
हैं - शिव के स्वेद से उत्पन्न जिन मङ्गल के शरीर की कान्ति जपा
कुसुम के समान है, जो अपने चारों
हस्तकमलों में क्रमशः गदा, शूल, शक्ति
और वरमुद्रा धारन किए हुये हैं, अवन्तिका देश में उत्पन्न
मनोहर मेष पर सवार, रक्त वस्त्र पहने हुये, ऐसे भूमिपुत्र मङ्गल की मैं वन्दना करता हूँ ॥४९॥
रसलक्ष जपो होमः समिभिः खदिरस्य च ।
शैवे पीठे यजेद् भौम प्रागङ्गानि
प्रपूजयेत् ॥ ५०॥
उक्त मन्त्र का ६ लाख जप करना चाहिए
तथा खैर की लकडी से उसका दशांश होम करना चाहिए । शैव-पीठ पर भौम की पूजा
करनी चाहिए और सर्वप्रथम अङ्गपूजा करनी चाहिए ॥५०॥
एकविंशतिकोष्ठेषु
मङ्गलादीन्प्रपूजयेत् ।
तबहिः ककुभा
नाथान्कुलिशादींस्ततोर्चयेत् ॥ ५१ ॥
इत्थं जपादिभिः सिद्ध स्वेष्टसिद्धौ
प्रयोजयेत् ।
तदन्तर २१ कोष्ठों में बने यन्त्र
पर मङ्गल के भिन्न भिन्न नामों से पूजा करनी चाहिए । फिर उसके बाहर इन्द्रादि दश
दिक्पालों की तथा उनके बज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार से मन्त्र
सिद्ध कर अपने काम्य प्रयोगों में इसका उपयोग करना चाहिए ॥५१-५२॥
विमर्श - पीठ पूजा विधि -
साधक को २१ कोष्ठात्मक त्रिकोण और उसके भूपुर का निर्माण करना चाहिए । उसी पर मङ्गल
का पूजन करना चाहिए । श्लोक १५. ४९ में वर्णित मङ्गल के स्वरुप का ध्यान कर,
मानसोपचार से पूजन कर, विधिवत् अर्घ्य स्थापित
करे । फिर ‘आधारशक्तये नमः’ से ‘ह्रीं ज्ञानात्मने नमः’ पर्यन्त सामान्य पीठ पूजा के
मन्त्रों से पीठ देवतओं का पूजन करे । फिर पूवादि आठ दिशाओं में तथा मध्य में
वामादि ९ शक्तियों का इस प्रकार पूजन करे -
ॐ वामायै नमः पूर्वे ॐ ज्येष्ठायै नमः आग्नेये,
ॐ रौद्रयै नमः दक्षिणे ॐ काल्यै नमः नैऋत्ये,
ॐ कलविकरण्यै नमः पश्चिमे ॐ बलविकरण्यै नमः वायव्ये
ॐ बलप्रमथिन्यै नमः उत्तरे, ॐ सर्वभूतदमन्यै नमः ऐशान्ये,
ॐ मनोन्मन्यै नमः मध्ये (द्र० १६.
२२-२४) ।
फिर ‘ॐ नमो भगवते सकलगुणात्मशक्तियुक्तानन्ताय योगपीठात्मने नमः’ (द्र० १६. २५) इस मन्त्र से मन्त्र पर आसन देकर, मूल
मन्त्र से मूर्ति की कल्पना कर, ध्यान आदि उपचारों से
पुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त विधिवत् मङ्गल देवता का पूजन करचा चाहिए । इसके बाद
आवरण की अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ।
आवरण पूजा
- प्रथम आग्नेयादि कोणों में मध्य में तथा चारों दिशाओं में यथा -
ॐ हृदयाय नमः,
आग्नेये, हां शिरसे स्वाहा, नैऋत्ये,
हं शिखायै वषट्,
वायव्ये, सः कवचाय हुं, ऐशान्ये
खं नेत्रत्रयाय वौषट्,
मध्ये, खः अस्त्राय फट्, चतुर्दिक्षु ।
इसके बाद त्रिकोणान्तर्गत २१
कोष्ठकों में मङ्गल के नाम मन्त्रों से यथा -
ॐ मङ्गलाय नमः ॐ भूमिपुत्राय नमः, ॐ ऋणहर्त्रे नमः,
ॐ धनप्रदाय नमः, ॐ स्थिरासनाय नमः, ॐ महाकायाय नमः,
ॐ सर्वकर्मावरोधकाय नमः ॐ लोहिताय नमः ॐ लोहिताक्षाय नमः,
ॐ सामगानां कृपाकराय नमः ॐ धरात्मजाय नमः, ॐ कुजाय नमः,
ॐ भौमाय नमः, ॐ भूतिदाय नमः, ॐ भूमिनन्दनाय नमः,
ॐ अङ्गारकाय नमः, ॐ यमाय नमः ॐ सर्वरोगोपहारकाय नमः,
ॐ वृष्टिकर्त्रे नमः, ॐ वष्टिहर्त्रे नमः, ॐ सर्वकामफलप्रदाय नमः,
फिर त्रिकोण के बाहर भूपुर में
इन्द्रादि दश दिक्पालों की तथा उसके बाहर उनके बज्रादि आयुधों की पूजा करना चाहिए
। इस प्रकार धूप, दीप आदि उपचारों से
मङ्गल का पूजन सम्पन्न करना चाहिये ॥५०-५२॥
पुत्रप्राप्तिकरं भौमव्रतम्
नारीपुत्रमभीप्सन्ती भौमाहे तव्रतं
चरेत् ॥ ५२ ॥
मार्गशीर्षेथ वैशाखे तस्यारम्भः
प्रशस्यते ।
अब पुत्रदायक भौमव्रत कहते
हैं - पुत्र चाहने वाली स्त्री को मङ्गलवार का व्रत करना चाहिए ।
मार्गशीर्ष अथवा वैशाख से इस व्रत का आरम्भ श्रेयस्कर माना गया हैं ॥५२-५३॥
अरुणोदयवेलायामुत्थाय शुचिविग्रहा ॥
५३॥
दन्तान् धावेदपामार्गसमिधामौनसेविनी
।
नद्यादिसलिले स्नात्वा
धारयेद्रक्तवाससी ॥ ५४ ॥
नैवेद्यकुसुमालेपारक्तान्सम्पाद्य
संयता ।
विधिज्ञ विप्रमाहूय
भौममर्चेत्तदाज्ञया ॥ ५५ ॥
अरुणोदय काल में उठकर मुह धोकर मौन
हो कर अपामार्ग की दातून से मुख प्रक्षालन करना चाहिए । तदनन्तर नदी आदि के जल में
स्नान कर दो रक्त वक्त्र, एक पहनने के लिए
दूसरा उत्तरीय के लिए धारण करना चाहिए । तदनन्तर लाल पुष्प, लाल
नैवेद्य, लाल आलेपनादि एकत्रित कर विधिवेत्ता ब्राह्मण बुला
कर उसकी आज्ञा से मङ्गल देवता की अर्चना करनी चाहिए ॥५३-५५॥
रक्तगोगोमयालिप्तं देशे पीठनिषेविणी
।
मङ्गलादीनि नामानि स्वप्रतीकेषु
विन्यसेत् ॥ ५६ ॥
मङ्गलं विन्यसेदघ्योभूमिपुत्रं तु
जानुनोः।
ऊर्ध्वोश्च ऋणहर्तारं कटिदेशे
धनप्रदम् ॥ ५७ ॥
स्थिरासनं गुह्यदेशे महाकायमथोरसि ।
वामबाहौ ततो
न्यस्येत्सर्वकर्मावरोधकम् ॥ ५८ ॥
लाल वर्ण वाली गौ के गोबर से
लिपे पुते शुचि स्थान पर लाल रङ्ग के आसन पर बैठकर अपने शरीर पर मङ्गल आदि नामों
का न्यास (द्र० १५.५१) इस प्रकार करना चाहिए । दोनो पैरों में मङ्गल का,
दोनो जानुमें भूमिपुत्र का, दोनों उरु प्रदेश
में ऋणहर्ता का, कटि में धनप्रद का, स्थिरासन
का गुह्यप्रदेश में तथा महाकाय का हृद्देश में न्यास करना चाहिए ॥५६-५८॥
लोहितं दक्षिणे बाहौ लोहिताक्षं गले
न्यसेत् ।
वदने विन्यसेत्साध्वीं सामगानां
कृपाकरम् ॥ ५९॥
धरात्मजं नसोरक्ष्णोः कुजं भौमं
ललाटतः।
भूतिदं तु भ्रूवोर्मध्ये मस्तके
भूमिनन्दनम् ॥ ६०॥
अङ्गारकं शिखादेशे सर्वाङ्गे
विन्यसेद्यमम् ।
ततो बाहुद्वये
न्यस्येत्सर्वरोगापहारकम् ॥ ६१॥
मूर्द्धादिपादपर्यन्तं
वृष्टिकर्तारमणके ।
विन्यसेदृष्टिहर्तारं मूर्धान्तं
चरणादितः ॥ ६२ ॥
दिक्षु प्रविन्यसेदन्त्यं
सर्वकामफलप्रदम् ।
आरं वक्र भूमिज च नाभौ वक्षसि
मूर्द्धनि ॥ ६३ ॥
तदनन्तर सर्वकर्मावरोधक का बायें
हाथ में,
लोहित का दाहिने हाथ में, लोहिताक्ष का कण्ठ
में न्यास करना चाहिए । फिर साध्वी स्त्री को मुख में सामगानकृपाकर का, नासिका में धरात्मज का, नेत्रों में कुज का, ललाट में भौम का, भ्रूमध्य में भूतिदायक का, मस्तक में भूमिनन्दन का, शिखाप्रदेश में अङ्गारक का,
तदनन्तर सर्वाङ्ग में यम का न्यास करना चाहिए । फिर दोनों हाथों में
सर्वरोगापहारक का, शिर से पैर तक वृष्टिकर्ता का, पैरों से शिर तक वृष्टिहर्ता का तथा दिशाओं में २१ वें सर्वकामप्रद का
न्यास करना चाहिए । फिर आर का नाभि स्थान में, वक्र का
वक्षःस्थल में तथा भूमिज का मूर्ध्दा में न्यास करना चाहिए ॥५९-६३॥
विमर्श - न्यास विधिः -
ॐ मङ्गलाय नमः,
पादयोः, ॐ भूमिपुत्राय नमः, जानुनोः,
ॐ ऋणर्त्रे नमः, ॐ धनप्रदाय नमः, कटिप्रदेशे,
ॐ स्थिरासनाय नमः,
गुह्ये, ॐ महाकायाय नमः, उरसि,
ॐ सर्वकामावरोधकाय नमः वामबाहौ, ॐ लोहिताय नमः, दक्षिणबाहौ,
ॐ लोहिताक्षाय नमः,
कण्ठेः, ॐ सामगानाम कृपाकराय नमः, गुह्ये,
ॐ धरात्मजाय नमः,
नसोः, ॐ कुजाय नमः, नेत्रोः,
ॐ भौमाय नमः,
ललाटे, ॐ भूतिदाय नमः, भ्रूमध्ये,
ॐ भूमिनन्दाय नमः,
मस्तके, ॐ अङगारकाय नमः शिखाप्रदेशे,
ॐ यमाय नमः,
सर्वाङ्गे ॐ
सर्वरोगापहारकाय नमः, हस्तद्वये,
ॐ वृष्टिकर्त्रे नमः
मूर्धादिपादान्तम, ॐ वृष्टिहर्त्रे नमः
पाददिमूर्धान्तम्
ॐ सर्वकामफलप्रदाय नमः,
दिक्षु, ततश्च ॐ आराय नमः, नाभौ,
ॐ वक्राय नमः,
वक्षःस्थले ॐ
भूमिजाय नमः मूर्ध्नि ॥५९-६३॥
एवं न्यस्तशरीरोसौ
ध्यायेद्धरणिनन्दनम् ।
अर्घ संस्थाप्य
विधिवत्पूजयेदुपचारकैः ॥ ६४ ॥
एकविंशतिकोष्ठाढ्ये त्रिकोणे
ताम्रपात्रगे ।
आवाह्य धरणीपुत्रं शोणैः पुष्पैश्च
चन्दनैः ॥ ६५॥
अङ्गानि
पूजयेत्प्राग्वदेकविंशतिकोष्ठके ।
मङ्गलादीस्त्रिकोणेषु वक्रमारं च
भूमिजम् ॥ ६६॥
ब्राम्याधामातृकाबाह्ये
शक्रादीनायुधान्यपि ।
धूपदीपौ विधायाथ गोधूमान्न
निवेदयेत् ॥ ६७ ।।
अब पूजा विधि कहते हैं - इस
प्रकार नाम मन्त्रों का शरीर पर न्यास कर साश्वी मङ्गल का ध्यान करे,
तथा अर्घ्य स्थापित कर विविध उपचारों से उनका पूजन भी करे । उसकी
विधि इस प्रकार है - २१ कोष्ठात्मक त्रिकोण युक्त ताम्रपात्र पर लाल पुष्पों से मङ्गल
देव का आवाहन करे । लाल पुष्प एवं रक्त चन्दनादि से प्रथम उनके अक्षरों को पूजन
करे । फिर २१ कोष्टकों में मङ्गल के २१ नामों का, फिर
त्रिकोण में चक्र, आर और भूमिज का पूजन करना चाहिए । त्रिकोण
के बाहर ब्राह्यी आदि मातृकाओं का, इन्द्रादि दश दिक्पालों
का, फिर उनके बज्रादि आयुधों का धूप, दीपादि
तथा गोधूम निर्मित वस्तुओं का नैवेद्य निवेदित कर पूजा करनी चाहिए ॥६४-६७॥
जलपूर्णे ताम्रपत्रे
गन्धपुष्पाक्षतान्विते ।
फलं निधाय मन्त्राभ्यां भौमायाय
निवेदयेत् ॥ ६८ ॥
भूमिपुत्रमहातेजः
स्वेदोद्भवपिनाकिनः ।
सुतार्थिनी प्रपन्ना त्वां गृहाणायं
नमोऽस्तु ते ॥ ६९॥
रक्तप्रवालसंकाश जपाकुसुमसन्निभ ।
महीसुत महाबाहो गृहाणाय नमोऽस्तु ते
॥ ७० ॥
इस प्रकार पूजनोपरान्त भूमिपुत्र
को इस प्रकार अर्घ्य दान देवे । ताम्र पात्र में जल भर कर उसमें गन्ध,
पुष्प और अक्षत तथा फल डालकर-
‘भूमिपुत्र महातेजः स्वेदोद्भवपिनाकिन
।
सुतार्थिनी प्रपन्नां त्वां
गृहानार्घ्यं नमोऽस्तु ते ॥’
‘रक्तप्रवालसंकाश जपाकुसुमसन्निभ
।
महीसुत महाबाहो गृहाणार्घ्यं
नमोऽस्तु ते ॥’
इन दो मन्त्रों से मङ्गल को
अर्घ्य निवेदित करे ॥६८-७०॥
एकविंशतिकृत्वोऽथ
प्रणमेत्पूर्वनामभिः ।
प्रदक्षिणा विधातव्यास्तावत्यो
वसुधात्मजे ।। ७१ ॥
इस प्रकार अर्घ्यदान दे कर
पूर्वोक्त (द्र० १५. ५६-६२) २१ नामों में चतुर्थ्यन्त विभक्ति तथा अन्त में ‘नमः’ लगाकर २१ बार उन्हें प्रणाम कर उतनी ही
प्रदक्षिणा करनी चाहिए ॥७१॥
खदिराङ्गारकेनाथ कुर्याद्रेखात्रिकं
समम् ।
वामपादेन मन्त्राभ्यामेताभ्यां
तत्प्रमार्जयेत् ॥ ७२ ॥
रेखामार्जनमन्त्रकथनम्
दुःखदौर्भाग्यनाशाय
पुत्रसन्तानहेतवे ।
कृतरेखात्रयं वामपादेनैतत्प्रमार्म्यहम्
॥ ७३ ॥
ऋणदुःखविनाशाय मनोऽभीष्टार्थसिद्धये
।
मार्जयाम्यसितारेखास्तिस्रो
जन्मत्रयोद्भवाः ॥ ७४ ॥
फिर खैर की लकडी के अङ्गारे से तीन
रेखायें समान रुप में खींचनी चाहिए । और उसे -
‘दुःखदौर्भाग्यनाशाय
पुत्रसन्तानहेतवे ।
कृतं रेखात्रयं वामपादेनैतत् प्रमार्ज्म्यहम्
॥
ऋणदुःखविनाशाय मनोऽभीष्टार्थसिद्धये
।
मार्जयाम्यसितारेखास्तिस्त्रो
जन्मत्रयोद्भवाः ॥’
इन दो मन्त्रों को पढकर बायें पैर
से मिटा देना चाहिए ॥७२-७४॥
ततः पुष्पाञ्जलिकरा स्तुवीत
धरणीसुतम् ।
ध्यायन्ती चरणाम्भोज
पूजासाङ्गत्वसिद्धये ॥ ७५ ॥
तदनन्तर वह साध्वी स्त्री हाथों में
पुष्पाञ्जलि लेकर पूजा की साङ्गतासिद्धि के लिए मङ्गल के चरणों का ध्यान कर
‘धरणीगर्भसंभूतं’ से ‘धनं यशः’
पर्यन्त ५ श्लोकों से प्रार्थना करे ॥७५॥
स्तुतिकथनम्
धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्तेजः
समप्रभम् ।
कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं
प्रणमाम्यहम् ॥ ७६ ॥
भूमि के गर्भ से उत्पन्न - बिजली के
तेज के समान जगमगाते सदैव कुमारावस्था में रहने वाले,
शक्ति धारन करने वाले मङ्गल को मैं प्रणाम करती हूँ ॥७६॥
ऋणहर्त्रे नमस्तुभ्यं
दुःखदारिद्र्यनाशिने ।
नभसि द्योतमानाय सर्वकल्याणकारिणे ॥
७७ ॥
ऋण को नष्ट करने वाले प्रभो । आप को
नमस्कार हैं । दुःख एवं दारिद्रय के नाशक आकाश में देदीप्यमान सबका कल्याण करने
वाले आप मङ्गल को नमस्कार हैं ॥७७॥
देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः ।
सुखं यान्ति यतस्तस्मै नमो
धरणिसूनवे ॥ ७८ ॥
जिनकी कृपा प्राप्त कर देव,
दानव, गन्धर्व, यक्ष,
राक्षस एवं नाग सुखी हो जाते हैं उन भूमिपुत्र को हमारा
नमस्कार है ॥७८॥
यो वक्रगतिमापन्नो नृणां दुःखं
प्रयच्छति ।
पूजितः सुखसौभाग्यं तस्मै मासूनवे
नमः ॥ ७९ ॥
जो वक्रगति होने पर समस्त जनों का
दुःख प्रदान करते है तथा पूजित होने पर सुख सौभाग्य प्रदान करते हैं उन धरापुत्र
को नमस्कार है ॥७९॥
प्रसाद कुरु मे नाथ
मङ्गलप्रद मङ्गल ।
मेषवाहनरुद्रात्मन् पुत्रान्देहि
धनं यशः ॥८०॥
हे मङ्गलप्रद मङ्गल,
हे नाथ, हे रुद्रात्मन्, हे मेष वाहन, मुझ पर प्रसन्न होइये तथा पुत्र,
धन, एवं यश प्रदान कीजिये ॥८०॥
एवं संस्तूय सम्पूज्य
गृहणीयाब्राह्मणाशिषः ।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा
भुञ्जीतान्नं निवेदितम् ॥ ८१॥
इस प्रकार मङ्गल की पूजा तथा
प्रार्थना करने के बाद ब्राह्मण का आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए । इसके बाद गुरु को
दक्षिणा देकर भोग लगाये गये नैवेद्य का स्वयं भक्षण करना चाहिए ॥८१॥
प्रति भौमदिने कुर्यादेवं
सम्वत्सरावधि ।
तिलैस्संजुहुयाद्धोमं शताद्धं
भोजयेद्विजान् ॥ ८२॥
माहेयमूर्तिसौवर्णीमाचार्याय
निवेदयेत् ।
मण्डलस्थो घटेभ्यर्च्य
सुतसौभाग्यसिद्धये ॥ ८३॥
एवं व्रतपरा नारी
प्राप्नुयात्सुभगान् सुतान् ।
धनाप्त्यै ऋणनाशाय व्रतं
कुर्यात्पुमानपि ॥ ८४ ॥
इस व्रत को निरन्तर एक वर्ष पर्यन्त
प्रति मङ्गलवार को अनुष्ठित करना चाहिए । उसके बाद तिलों से होम करना चाहिए
तथा ५० ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए । गोलाकार चौके पर सुत एवं सौभाग्यादि
प्राप्ति के लिए कलश स्थापित कर उस पर सुवर्णमयी ताम्र प्रतिमा का पूजन कर आचार्य
को दान करना चाहिए । ऐसा करने से व्रत परायणा साध्वी स्त्री सौभाग्यशाली पुत्रों
को प्राप्त करती है । धन प्राप्ति एवं ऋण के अपाकारण के लिए पुरुषो को भी यह व्रत
करना चाहिए ॥८२-८४॥
अग्निर्मूर्द्धत्यपि मनुं वैदिकं
ब्राह्मणो जपेत् ।
तथाङ्गारकगायत्रीं सर्वाभीष्टस्य
सिद्धये ॥ ८५॥
अब मङ्गल का वैदिक मन्त्र एवं
उनकी गायत्री कहते हैं -
ब्राह्मण को मङ्गल ग्रह की शान्ति
के लिए ‘अग्निर्मूधार्धादिवः’ इस मन्त्र का जप करना चाहिए
तथा समस्त अभीष्ट सिद्धि हेतु अङ्गारक गायत्री का जप करना चाहिए ॥८५॥
अङ्गारकगायत्रीकथनम् ।
अङ्गारकायशब्दान्ते विग्रहपदमुच्चरेत्
।
शक्तिहस्ताय च पदं धीमहीति ततो
वदेत् ॥ ८६॥
तन्नो भौमः प्रचोवर्णान्दयादिति च
कीर्तयेत् ।
एषाङ्गारकगायत्री
जप्ताभीष्टप्रदायिनी ॥ ८७॥
‘अङ्गारकाय’ इस पद के बाद ‘विद्महे’, फिर ‘शक्तिहस्ताय’ बोलकर ‘धीमहि’
बोलना चाहिए । फिर ‘तन्नो भौमः प्रचोदयात् यह
बोलना चाहिए । यह अङ्गारक गायत्री जप करने पर अभीष्ट फल देती है ॥८६-८७॥
विमर्श - वैदिक मन्त्र - ॐ
अग्निमूर्ध्दा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्यामयम् अपां रेतांसि जिन्वति ।
गायत्री - ॐ अङ्गारकाय विद्महे
शक्तिहस्ताय धीमहि । तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥८६-८७॥
माहेयोपासनं प्रोक्तं गुरुमन्त्र
उदीर्यते ।
गुरुमन्त्रस्तद्विधिकथनं च
खड्गीशौ भारभूतिस्थौ तत्राद्यः
क्रूरसंयुतः ॥ ८८ ॥
नभो भृगुर्लोहितस्थो
हरिर्वायुर्भगान्वितः ।
हृदयान्तोऽष्टवर्णोऽयं
मनुब्रह्मामुनिः स्मृतः ॥ ८९ ॥
यहाँ तक हमने मङ्गल ग्रह की
उपासना कही । अब गुरु (बृहस्पती) मन्त्र का उद्धार कहता हूँ -
भारभूतिस्थ दो ऋकार वर्ण से युक्त
खड्गीशौ,
दो वकार जिसमें प्रथम क्रूर से युक्त अर्थात् बृं, बृ, इसके बाद नभ (ह), फिर
लोहतस्थ भृगु पकार से युक्त सकार (स्प), फिर हरि (त),
भगान्वित वायु (ये) और अन्त में हृदय लगाने से ८ अक्षरों का गुरु
मन्त्र बनता है ।
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
निम्न है - बृं बृहस्पतये नमः ॥८८-८९॥
छन्दोनुष्टुप्सुराचार्यो
देवताबीजमादिमम् ।
वराभ्यां दीर्घयुक्ताभ्यां षडङ्गानि
प्रकल्पयेत् ॥ ९० ॥
इस मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं,
अनुष्टुप् छन्द है तथा सुराचार्य बृहस्पति देवता हैं । आद्य बृं
बीजु है । षड् दीर्घ युक्त वकार रकार से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥९०॥
विनियोग
- अस्य श्रीबृहस्पतिमन्त्रस्य ब्रह्माऋषिरनुष्टुप्च्छपः सुराचार्यो
बृहस्पतिर्देवता बृं बीजमात्मनोऽभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥
न्यास - व्रां हृदयाय नमः व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौ नेत्रत्रयाय वौषट्, व्रः अस्त्राय अस्त्राय
फट् ॥९०॥
रत्नाष्टापदवस्त्रराशिममलं
दक्षात्किरन्त
करादासीनं विपणौ करनिदधतं
रत्नादिराशौपरम् ।
पीतालेपनपुष्पवस्त्रमखिलालंकारसम्भूषितं
विद्यासागरपारगं सुरगुरुं वन्दे
सुवर्णप्रभम् ॥ ९१॥
अब बृहस्पति का ध्यान कहते
हैं - अपने दाहिने हाथ से रत्न, सुवर्ण तथा
वक्त्रों की राशि देते हुये तथा बायें हाथ को रत्नादि राशियों पर रखते हुये,
बाजार में आसीन, पीले वस्त्र तथा पीला आलेपन
लगाये हुये, पीत पुष्प एवं पीत आभूषणों से अलंकृत, विद्यारुपी सागर के पारगामी विद्वान् और सुवर्ण की तरह देदीप्यमान्
देवगुरु की मैं वन्दना करता हूँ ॥९१॥
जपित्वाशीतिसाहस्त्र हुत्वान्नेन
घृतेन वा ।
धर्माधर्मादिपीठे तं
पूजयेदङ्गदिग्भवैः ॥ ९२ ॥
उक्त मन्त्र का ८० हजार जप करे ।
फिर उसका दशांश अन अथवा घी से होम करे । धर्म और अधर्मादि शक्तियों वाले पीठ पर
अङ्ग एवं दिक्पालों के साथ उनका पूजन करे ॥९२॥
विमर्श - पूजा विधि -
(१५.९१) श्लोक में वर्णित गुरु के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से उनका
पूजन कर अर्घ्य स्थापित करे । सामान्य पूजा पद्धति के अनुसार ‘आधारशक्तये नमः’ इत्यादि मन्त्रों से पीठ देवताओं का
पूजन करे । फिर धर्मादि पीठ शक्तियों का इस प्रकार पूजन करे - यथा
ॐ धर्माय नमः, ॐ ज्ञानाय नमः, ॐ वैराग्याय नमः,
ॐ ऐश्वर्याय नमः, ॐ अधर्माय नमः, ॐ अज्ञानाय नमः,
ॐ अवैराग्याय नमः, ॐ अनैश्वर्याय नमः ।
फिर पीठ मन्त्र से आसन देकर पीठ पर
आवाहनादि उपचारों से पञ्च पुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त बृहस्पति की पूजा कर आवरण
पूजा करनी चाहिए ।
प्रथम आग्नेयादि कोणों में मध्य में,
तथा चारों दिशाओं में षडङ्ग मन्त्रों से षडङगपूजा करनी चाहिए
। यथा -
व्रां हृदयाय नमः, व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, व्रः अस्त्राय फट्
इसके बाद पूर्ववत् दिक्पालों का एवं
उनके आयुधों का पूजन कर पुनः धूप दीपादि उपचारों से बृहस्पति की विधिवत् पूजा
करनी चाहिए ॥९२॥
सिद्ध मनौ प्रकुर्वीत
प्रयोगानिष्टसिद्धये ।
हरिद्राकुंकुमैर्हत्वा
घृताक्तैर्दिवसत्रयम् ॥ ९३॥
स विंशतिशत मन्त्री वासांसि लभते
मणीन् ।
इस प्रकार मन्त्र सिद्ध कर लेने पर
अभीष्टसिद्धि हेतु काम्य प्रयोग करना चाहिए । घी मिश्रित हल्दी एवं कुंकुम से
निरन्तर ३ दिन पर्यन्त १२० की संख्या में आहुतियाँ देने से साधक मणियों और
वस्त्रों को प्राप्त करता है ॥९३-९४॥
शत्रुरोगादिपीडासु स्वजने कलहोद्भवे
॥ ९४ ॥
जुहुयात्पिप्पलोत्थाभिः
समिभिस्तन्निवृत्तये ।
शत्रु तथा रोग जन्य पीडा होने पर
अथवा स्वजनों में कलह होने पर उसकी निवृत्ति के लिए पीपल की समिधाओं से होम करना
चाहिए ॥९४-९५॥
शुक्रमन्त्रस्तद्विधिश्च
तारो वस्त्रं भगीसूर्यो देहि
शुक्राय ठद्वयम् ॥ ९५॥
एकादशाक्षरो मन्त्रों
हेमवस्त्रप्रदायकः ।
अब शुक्र मन्त्र का उद्धार
कहते हैं - तार (ॐ), फिर ‘वस्त्रं पद’, फिर भगी सूर्य (ए से युक्त म) अर्थात्
‘मे’ के बाद ‘देहि’
शुक्राय’ पद, फिर ठ द्वय
(स्वाहा) लगाने से ११ अक्षरों का सुवर्ण एवं वस्त्रदायक शुक्र मन्त्र
निष्पन्न हो जाता है ॥९५-९६॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ॐ वस्त्रं में देहि शुक्राय स्वाहा’ ॥९५-९६॥
ब्रह्मामुनिर्विराट्छन्दो
देवतादैत्यपूजितः ॥ ९६ ॥
बीज तारोग्निभार्या तु शक्तिरस्य
प्रकीर्तिता ।
एकद्विचन्द्रनेत्राग्निनेत्रवर्णैः
षडङ्गकम् ।
मन्त्रवणैस्तु कृत्वाथ
ध्यायेद्विद्यानिधिं सितम् ॥ ९७ ॥
इस मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं ।
विराट् छन्द है । दैत्य पूजित शुक्र देवता है ।
प्रणव बीज तथा स्वाहा शक्ति कही गई
है । मन्त्र के १, २, १, २, ३ और २ अक्षरों से
षडङ्गन्यास कर विद्या निधान शुक्र का ध्यान करना चाहिए ॥९६-९७॥
विमर्श - विनियोग - अंस्य
श्रीशुक्रमन्त्रस्य ब्रह्माऋषिर्विराट्छन्दः दैत्यपूजित शुक्रो देवता ॐ बीजं
स्वाहाशक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
- ॐ हृदयाय नमः,
वस्त्रं शिरसे स्वाहा,
मे शिकायै वषट् देहि कवचाय हुम् शुक्राय नेत्रत्रयाय वौषट्,
स्वाहा अस्त्राय फट् ॥९६-९७॥
श्वेताम्भोजनिषण्णमापणतटे
श्वेताम्बरालेपनं
नित्यं भक्तजनाय सम्प्रददतं
वासोमणीन्हाटकम् ।
वामेनैवकरेण दक्षिणकरे
व्याख्यानमुद्रांङ्कितं
शुक्र दैत्यवरार्चितं स्मितमुख
वन्देसिताङ्गप्रभम् ॥ ९८॥
अब शुक्र का ध्यान कहते हैं
- बाजार के किसी एक स्थान (दुकान) में सफेद वर्ण के कमल पर बैठे हुये,
श्वेत वस्त्र एवं श्वेत चन्दन से अलंकृत, अपने
बायें हाथ से भक्त जनों को वस्त्र, मणि तथा सुवर्ण देते हुये
तथा दाहिने हाथ में व्याख्यान मुद्रा धारण किए, दैत्यराज से
पूजित प्रसन्न, मुख तथा श्वेत कान्ति वाले शुक्र की
मैं वन्दना करता हूँ ॥९८॥
अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं दशांशं
जुहुयाद् घृतैः।
यजेद्धर्मादिपीठे तं
नगेन्द्रादितदायुधैः ॥ ९९ ॥
इस मन्त्र का दश हजार जप करना चाहिए
। फिर घी से उसका दशांश होम करना चाहिए तथा धर्मादि शक्तियों वाले पीठ पर अङ्गपूजा,
दिक्पाल पूजा एवं उनके आयुधों की पूजा कर शुक्र का पूजन करना चाहिए
॥९९॥
विमर्श - आवरण पूजा विधान -
श्लोक १५. ९८ में वर्णित शुक्र के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर
अर्घ्यपात्र स्थापित करे । फिर १५. ९२ के विमर्श में कही गई रीति से पीठ देवताओं
एवं धर्मादि शक्तियों का पूजन कर पीठ मन्त्र से आसन देकर उस पर ध्यान आवाहन से
पुष्पाञ्जलि प्रदान प्रर्यत्न शुक्र का पूजन कर आवरण पूजा करनी चाहिए ।
सर्वप्रथम षडङ्गन्यास मन्त्रों ,
फिर दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों की तथा उनके आयुधों का पूजन
करे । फिर शुक्र का विधिवत् पूजन करे ॥९९॥
सुगन्धै: श्वेतकुसुमैर्जुहुयाच्छुक्रवासरे
।
एकविंशतिवारं यो लभतेसोंशुक मणीन् ॥
१०० ॥
काम्य प्रयोग
- सुगन्धित श्वेत पुष्पों से जो व्यक्ति २१ शुक्रवारों को हवन करता है अवश्य ही
वस्त्र एवं मणियों को प्राप्त करता है ॥१००॥
मृत्युञ्जयपुटितेन सहितः
व्यासमन्त्रः
बालः पवनदीर्धेन्दुयुक्तो
झिण्टीशयुग्जलम् ।
अत्रिर्व्यासायहृदयं मनुरष्टाक्षरो
मतः ॥ १०१ ॥
अब व्यास मन्त्र का उद्धार
कहते हैं - बाल (व), दीर्घेयुत् पवन
(यां) अर्थात् (व्यां), फिर झिण्टीश (ए) सहित जल (व) अर्थात्
(वे), फिर अत्रि (द), फिर ‘व्यासाय’ पद, उसमें हृदय (नमः)
जोडने से ८ अक्षरों का व्यास मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१०१॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप
निम्न है - व्यां वेदव्यायाय नमः ॥१०१॥
ब्रह्मानुष्टुम्मुनिश्छन्दो देवः
सत्यवतीसुतः ।
आद्य बीजं नमः
शक्तिर्दीर्घाट्येनादिनाङ्गकम् ॥ १०२॥
इस व्यास मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं
अनुष्टुप् छन्द है, सत्यवती सुत व्यास
देवता हैं, व्यां बीज तथा नमः शक्ति है । षड्दीर्घ सहित
आद्य बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१०२॥
विमर्श - विनियोग - अस्य
श्रीव्यासमन्त्रस्य ब्रह्याषिरनुष्टुप्छन्दः सत्यवतीसुतो देवता व्यां बीजं नमः
शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
- व्यां हृदयाय नमः, व्यीं शिरसे स्वाहा,
व्यः शिखायै वषट्
व्यै कवचाय हुम्, व्यौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्यः अस्त्राय फट् ॥१०२॥
व्याख्यामुद्रिकयालसत्करतलं
सद्योगपीठस्थितं
वामे जानुतले दधानमपरं हस्तं
सुविद्यानिधिम् ।
विप्रव्रातवृतं प्रसन्नमनसं
पाथोरुहाङ्गद्युतिं
पाराशर्यमतीवपुण्यचरितं व्यासं
स्मरेत्सिद्धये ॥ १०३ ॥
अब व्यास देव का ध्यान कहते
हैं - व्याख्यान मुद्रा से जिनके करतल सुशोभित हैं, जो मनोहर योगपीठ पर आसीन हैं, वाम जानु पर अपना दूसरा
हाथ रखे हुये जो विद्यानिधान विप्रसमुदायों से परिवेष्टित हैं, जिनका मुख मण्डल प्रसन्न है एवं जिनके शरीर की कान्ति नील वर्ण की है,
ऐसे पुण्यात्मा पुण्य चरित्र पराशर के पुत्र भगवान् व्यास का सिद्धि
प्राप्ति हेतु स्मरण करना चाहिए ॥१०३॥
इस मन्त्र का आठ हजार जप करना चाहिए
। तदनन्तर खीर से उसका दशांश होम करना चाहिए ।
जपेदष्टसहस्राणि पायसैोममाचरेत् ।
पूर्वोक्तपीठे व्यासस्य
पूर्वमङ्गानि पूजयेत् ॥ १०४ ॥
प्राच्यादिषु यजेत्पैलं
वैशम्पायनजैमिनी ।
सुमन्तु कोणभागेषु श्रीशुकं
रोमहर्षणम् ॥ १०५॥
उग्रश्रवसमन्यांश्च मुनीन्
सेन्द्रादिकायुधान् ।
पूर्वोक्त पीठ पर प्रथम व्यास के
षडङ्गों की पूजा करनी चाहिए । फिर पूर्वादि दिशाओं में पैल,
वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु का तथा कोणों
में श्रीशुक, रोमहर्षण, उग्रश्रवस् और
अन्य मुनीद्रों का, पुनः इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा उनके
वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥१०४-१०६॥
एवं सिद्धमनुमन्त्री कवित्वं शोभनाः
प्रजाः ॥ १०६ ॥
व्याख्यानशक्ति कीर्ति च लभते
सम्पदां चयम् ।
मृत्युञ्जयेन पुटितं यो व्यासस्य
मनुं जपेत् ॥ १०७ ।।
इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर
साधक को सुन्दर कवित्व शक्ति, उत्तम सन्तान,
व्याख्यान- शक्ति, कीर्ति एवं सम्पत्ति का
खजाना प्राप्त होता हैं ॥१०६-१०७॥
विमर्श - पूजा विधि सर्वप्रथम
वृत्ताकार कर्णिका, अष्टदल तथा भूपुर
सहित मन्त्र का निर्माण करना चाहिए । उसी पर भगवान् वेदव्यास का इस प्रकार पूजन
करना चाहिए ।
१५. १०३ में वर्णित व्यास के स्वरुप
का ध्यान कर मानसोपचारों से उनका पूजन कर अर्घ्य स्थापित करे । फिर १५. ९२ में कही
गई विधि से पीठ देवताओं का, तदनन्तर धर्मादिकों
का पूजन कर पीठ मन्त्र से यन्त्र पर आसन देकर, मूल मन्त्र से
उस पर मूर्ति की कल्पना कर ध्यान, आवाहन से पुष्पाञ्जलि
समर्पण पर्यन्त उपचारों से भगवान् व्यास का पूजन कर आवरण पूजन की आज्ञा ले इस
प्रकार आवरण पूजा प्रारम्भ करे ।
कर्णिका के आग्नेयादि कोणों में
मध्य में तथा चतुर्दिक्षु षडङ्गपूजा इस प्रकार करनी चाहिए । यथा -
व्यां हृदयाय नमः आग्नेये, व्यीं शिरसे स्वाहा,
नैऋत्ये,
व्यूं शिखायै वषट् वायव्ये, व्यैं कवचाय हुम्, ऐशान्यै,
व्यौं नेत्रत्रयाय वौषट्,
मध्ये, व्यः अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु ।
इसके बाद पूर्वादि चारों दिशाओं
में पैल आदि की निम्नलिखित मन्त्रों से पूजन करनी चाहिए । यथा -
ॐ पैलाय नमः पूर्वे, ॐ वैशम्पायनाय नमः दक्षिणे,
ॐ जैमिन्यै नमः पश्चिमे, ॐ सुमन्तवे नमः दक्षिणे,
इसके बाद आग्नेयादि चारों कोणों
में श्रीशुकादि की पूजा करे । यथा -
ॐ श्रीशुकाय नमः,
आग्नेये, ॐ श्रीरोमहर्षणाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ उग्रश्रवसे नमः,
वायव्ये, ॐ अन्यमुनीन्द्रेभ्यो नमः ऐशान्ये
इसके बाद भूपुर में
इन्द्रादि दश दिक्पालों की । यथा -
ॐ लं इन्द्राय नमः,
पूर्वे, ॐ रं अग्नये नमः, आग्नेये,
ॐ मं यमाय नमः,
दक्षिणे, ॐ क्षं निऋतये नमः, नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमे ॐ यं वायवे नमः,
वायव्ये
ॐ सं सोमाय नमः,
उत्तरे ॐ हं ईशानाय
नमः, ऐशान्ये,
ॐ ब्रह्मणे नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये, ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः
निऋतिपश्चिमयोर्मध्ये
फिर भूपुर के बाहर पूर्वादि
दिशाओं के क्रम से वज्रादि आयुधों की निम्नलिखित मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए -
ॐ वं वज्राय नमः, ॐ शं शक्तये नमः, ॐ दं दण्डाय नमः,
ॐ खं खड्गाय नमः, ॐ पां पाशाय नमः, ॐ अं अंकुशाय नमः
ॐ गं गदायै नमः, ॐ शूं शूलाय नमः, ॐ पं पद्माय नमः,
चं चक्राय नमः,
इस प्रकार आवरण पूजा कर धूप दीपादि
उपचारों से विधिवत् भगवान् वेदव्यास की पूजा करनी चाहिए ॥१०४-१०७॥
सर्वोपद्रवसंत्यक्तो लभते वाञ्छितं
फलम् ।
तारः शूलीवामकर्णबिन्दुयुक्तः
ससर्गसः ॥ १०८ ॥
मृत्युञ्जयस्य मन्त्रोऽयं त्रिवर्णो
मृत्युनाशनः।
जप्तोऽयं केवलो नृणामिष्टसिद्धिं
प्रयच्छति ।
किंपुनस्तेन पुटितो'
वेदव्यासमनूत्तमः ॥ १०९ ॥
अब मृत्युजय संपुटित व्यास
मन्त्र की महिमा कहते हैं -
जो व्यक्ति मृत्युजय मन्त्र से
संपुटित व्यास मन्त्र का जप करता है वह सभी उपद्रवों से मुक्त होकर वाञ्छित फल
प्राप्त करता हैं ॥१०७-१०९॥
विमर्श - मृत्युञ्जय व्यास
मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ जूं सः व्यां वेदव्यासाय नमः सः जूं ॐ
॥१०७-१०८॥
मृत्युञ्जय मन्त्र का उद्धार
- तार (ॐ), वामकर्ण (ऊकार) एवं बिन्दु
अनुस्वार सहितः शूली (ज), इस प्रकार (जूं), इसके आगे विसर्ग सहित सकार (सः) , यह तीन अक्षर का
मृत्युनाशक मृत्युञ्जय मन्त्र है ॥१०८-१०९॥
केवल इसका ही जप करने से मनुष्य
इष्ट सिद्धि प्राप्त कर लेता है, फिर इससे
संपुटित व्यास मन्त्र का जप किया जाय तो इसके फल के विषय में क्या कहना है ?
॥१०९॥
विमर्श - मृत्युञ्जय मन्त्र का
स्वरुप इस प्रकार है - ॐ जूं सः ॥१०९॥
विनियोग
- अस्य श्रीमृत्युञ्जयमन्त्रस्य कहोलऋषिर्दैवीगायत्रीछन्दः मृत्युञ्जयो देवता जूम
बीजं सः शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - सां हृदयाय नमः सीं शिरसे स्वाहा सूं शिखायै वषट्
सैं कवचाय हुम् सौं नेत्रत्रयाय वौषट् सः अस्त्राय फट्
ध्यान - चन्द्रार्काग्निविलोचनं
स्मितमुखं पद्मद्वयान्तःस्थितं
मुद्रापाशमृगाक्षसूत्रविलसत् पाणिं
हिमांशुप्रभम् ।
किरीटन्दुगलत्सुधाप्लुततनुं हारादि
भूशोञ्ज्वलं
कान्त्या विश्वविमोहनं पशुपतिं
मृत्यञ्जयं भावयेत॥
जिनके सूर्य,
चन्द्र और अग्नि स्वरुप तीन
नेत्र हैं, जिनका मुखमण्डल स्मित से युक्त है, जिनके शिरोभाग दो कमलों के मध्य स्थित हैं अर्थात् एक ऊर्ध्वमुकिह एवं
उसके ऊपर विद्यमान दूसरा कमल अधोमुख रुप से विद्यमान हैं । जिन्होंने अपने हाथों
में मुद्रा, पाश, मृग, अक्षमाला धारण किया है, जिनके शरीर की कान्ति चन्द्रमा
के समान उज्ज्वल है, जिनका शरीर किरीट में जटित चन्द्र मण्डल
से चूते हुए अमृतकणों से आप्लावित है और हारादि नाना प्रकार के भूषणों से उज्ज्वल
है - ऐसे महामृत्युञ्जय पशुपति का ध्यान करना चाहिए जो अपनी कान्ति से
विश्व को मोहित कर रहे हैं ॥१०८-१०९॥
इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ सूर्यादि लघुमृत्युञ्जयव्यासमन्त्रनिरूपणं नाम पञ्चदशस्तरङ्गः ॥ १५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित
मन्त्रमहोदधि के पञ्चदश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ०
सुधाकर मालवीयकृत 'अरित्र' नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १५ ॥
आगे पढ़ें- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १६
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