रूद्रयामल द्वितीय पटल भाग ३
रुद्रयामल द्वितीय पटल भाग- ३ में कुलाचार विधि अतर्गत इसके बाद गुरु के लक्षण वर्णित है (५०-५७)। फिर शिष्य के लक्षण और उसके
कर्तव्य का प्रतिपादन है (५७-९३)।
रूद्रयामलम् द्वितीय पटल भाग- ३
रूद्रयामलम् द्वितीय: पटल: तृतीय: भाग
रुद्रयामल तंत्र पटल २ भाग ३
रूद्रयामलम्
(उत्तरतन्त्रम्)
अथ द्वितीयः पटलः - गुरूलक्षणम्
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
गुरूलक्षणम्
आदौ साधकदेवश्च सदाचारमतिः सदा ॥४९॥
पशुभावस्ततो वीरः सायाहेन
दिव्यभाववान् ।
प्रथम प्रहर में वह साधकों में
श्रेष्ठ,
सदैव सदाचार युक्त बुद्धि वाला होकर पशुभाव में स्थित रहता है । फिर
वीरभाव में, तदनन्तर सांयकाल में दिव्यभाव संपन्न हो जाता है
॥४९ - ५०॥
एतेषां भाववर्गाणां
गुरुर्वेदान्तपारगः ॥५०॥
शान्तो दान्तः कुलीश्च विनीतः
शुद्धवेषवान् ।
शुद्धाचारः सुप्रतिष्ठः सुचिर्दक्षः
सुबुद्धिमान् ॥५१॥
आश्रमी ध्याननिष्ठश्च
मन्त्रतन्तविशारदः ।
निग्रहानुग्रहे शक्तो वशी
मन्त्रार्थजापकः ॥५२॥
इन तीनों भावों का ज्ञाता गुरु
वेदान्त का पारगामी विद्वान् होना चाहिए । शान्त, दान्त (जितेन्द्रिय), उत्तम कुल वाला, विनयशील, शुद्ध वेष वाला, शुद्ध
आचरण वाला, उत्तम स्थिति में रहने वाला, शुचि, दक्ष, बुद्धिमान्,
आश्रम धर्म का पालन करने वाला, ध्यान में
निष्ठा रखने वाला, मन्त्र तथा तन्त्र शास्त्रों का विशारद,
शिष्य के ऊपर निग्रह औरा अनुग्रह करने में सर्वक्षा समर्थ, जितेन्द्रिय, मन्त्रो के अर्थ का ज्ञानपूर्वक जप
करने वाला गुरु होना चाहिए ॥५० - ५२॥
निरोगी निरहङ्करो विकाररहितो महान्
।
पण्डितो वाक्पतिः श्रीमान् सदा
यज्ञविधानकृत् ॥५३॥
पुरश्चरणकृत सिद्धो हिताहितविवर्जित
।
सर्वलक्षणसंयुक्तो महाजनगणादृतः
॥५४॥
प्राणायामादिसिद्धान्तो ज्ञानी मौनी
विरागवान् ।
तपस्वी सत्यवादी च सदा ध्यानपरायणः
॥५५॥
आगमार्थविशिष्टज्ञो निरधर्मपरायणः ।
अव्यक्तलिङुचिहनस्थो भावको
भद्रदानवान् ॥५६॥
लक्ष्मीवान् धृतिमान्नाथो
गुरुरित्यभिधीयते ।
शिष्यस्तु तादृशो भूत्त्वा सद्गुरुं
पर्युपाश्रयेत् ॥५७॥
स्वस्थ,
अहङ्काररहित, (कामक्रोधादि) विकारों से सर्वथा
दूर रहने वाला, महान , पण्डित,
वाणी की कला में दक्ष, श्रीसंपन्न, सर्वथा यज्ञ - विधानवेत्ता, पुरश्चरण करने वाला,
सिद्ध, हित एवं अहित से विवर्जित, सर्वलक्षण युक्त, महाजनों से आदृत, प्राणायामादि का सिद्धान्ती, ज्ञानी, मौनी, वैराग्ययुक्त, तपस्वी,
सत्यवादी, सर्वथा धानपरायण, आगमार्थ का विशेष रूप से ज्ञान रखने वाला, अपने धर्म
में परायण, लिङ्ग तथा चिन्ह से अपने को अव्यक्त रखने वाला,
होनहार, उत्तम दान देने वाला, लक्ष्मीवान, धैर्यशाली और प्रभुतासम्पन्न लक्षणों
वाला गुरु होना चाहिए ॥५३ - ५७॥
रूद्रयामलम् द्वितीय पटल भाग- ३
द्वितीय पटल - शिष्यलक्षण
द्वितीयः पटलः - शिष्यलक्षणम्
वर्जयेच्च परानन्दरहितं रुपवर्जितम्
।
कुष्ठिनं क्रूरकर्माणं निन्दितं
रोगिणं गुरुम् ॥५८॥
अष्टप्रकारकुष्ठेन गलत्कुष्ठिनमेव च
।
श्वित्रिणं जनहिंसार्थं
सदार्थग्राहिणं तथा ॥५९॥
शिष्य के लक्षण --- शिष्य भी इन्ही
उपरोक्त लक्षणों से युक्त हो कर सदगुरु की सेवा में संलग्न रहे । श्रेष्ठ शिष्य
परानन्दरहित, कुरुप, कुष्ठी,
क्रूरकर्मा, निन्दित तथा रोगी को गुरु न बनावे
। आठ प्रकार के कुष्ठों से ग्रस्त, गलित्कुष्ठी, श्वित्ररोग (सफेद कोढ़) से संयुक्त, हिंसा करने वाला
तथा सदैव धन चाहने वाले को गुरु न बनावे ॥५७ - ५९॥
स्वर्नविक्रयिणं चौरं बुद्धिहीनं
सुखर्वकम् ।
श्यावदन्तं कुलाचाररहितं
शान्तिवर्जितम् ॥६०॥
सकलङ्क नेत्ररोगैः पीडितं परदारगम्
।
असंस्कार प्रवक्तारं स्त्रीजितं
चाधिकाङुकम् ॥६१॥
स्वर्ण विक्रयी,
चोर, मूर्ख, अत्यन्त
तुच्छ, काले दाँत वाले, कुलाचार से
रहित तथा शान्तिवर्जित एवं चञ्चल पुरुष को गुरु न बनावे । पापी, नेत्ररोग से पीड़ित, परदारगामी, संस्कार रहित वाणी बोलने वाला, स्त्री के वश में
रहने वाला एवं (छः अंगुली आदि अधिक अङ्ग वाले को गुरु न बनावे ॥६० - ६१॥
कपटात्मानकं हिंसाविशिष्टं
बहुजल्पकम् ।
बहवाशिनं हि कृपणं मिथ्यअवादिनमेव च
॥६२॥
अशान्त भावहीनं च
पञ्चाचारविवर्जितम् ।
दोषजालैः पूरिताङुं पूजयेन्न गुरुं
बिना ॥६३॥
कपटात्मा,
हिंसक, बहुत एवं व्यर्थ बोलने वाले, बहुत भोजन करने वाले, कृपण तथा झूठ बोलने वाले को
गुरु नहीं बनावे । अशान्त, भावहीन, पञ्चाचार
विवर्जित एवं दोषों से परिपूर्ण अङ्ग वाले गुरु की पूजा न करे (किन्तु पिता की
पूजा करे) ॥६२ - ६३॥
गुरौ मानुषबुद्धिं तु मन्त्रेषु
लिपिभावनम् ।
प्रतिमासु शिलारुपं विभाव्य नरकं
व्रजेत् ॥६४॥
जन्महेतू हि पितरौ पूजनीयौ
प्रयत्नतः ।
गुरुर्विशेषतः पूज्यो
धर्माधर्मप्रदर्शकः ॥६५॥
गुरु में मनुष्य बुद्धि,
मन्त्र में लिपि की भावना तथा प्रतिमा में पत्थर की भावना करने वाला
साधक रौरव नरक में जाता है । यतः माता पिता जन्म देने में हेतु है, अतः प्रयत्नपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए । गुरु की विशेष रूप से इसलिए
पूजा करनी चाहिए क्योंकि वे धर्म और अर्धम के प्रदर्शक हैं ॥६४ - ६५॥
गुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो
गुरुर्गतिः ।
शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ
रुष्टे न कश्चन ॥६६॥
गुरोर्हितं प्रकर्तव्यं वाङ्मनःकायकर्मभिः
।
अहिताचरणाद् देव विष्ठायां जायते
कृमिः ॥६७॥
गुरु पिता है,
गुरु माता हैं, गुरु देवता हैं, गुरु ही गति हैं । शिव के रुष्ट होने पर गुरु रक्षा कर सकते हैं । किन्तु
गुरु के रुष्ट होने पर कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है । शिष्य को वाणी, मन, काय तथा कर्म के द्वारा अपने गुरु का हित संपादन
करना चाहिए । गुरु का अहित करने से शिष्य को विष्टा का कृमि बनना पड़ता है ॥६६ -
६७॥
मन्त्रत्यागाद्
भवेन्मृत्युर्गरुत्यागाद् दरिद्रता ।
गुरुमन्त्रपरित्यागाद् रौरवं नरकं
व्रजेत् ॥६८॥
गुरौ सन्निहिते यस्तु
पूजयेदन्यदेवताम् ।
प्रयाति नरकं घोरं सा पूजा विफला
भवेत् ॥६९॥
मन्त्र के त्याग से मृत्यु होती है,
गुरु के त्याग से दरिद्रता आती है, गुरु और
मन्त्र दोनों के त्याग से रौरव नरक में जाना पड़ता है । गुरु के सन्निहित रहने पर
जो अन्य देवता का पूजन करता है, उसकी पूजा निष्फल होती है और
उसे घोर नरक में जाना पड़ता है ॥६८ - ६९॥
गुरुवद् गुरुपुत्रेषु गुरुवत्
तत्सुतादिषु ।
आविद्यो वा सविद्यो वा गुरुरेव तु
दैवतम् ॥७०॥
अमार्गस्थोऽपि मार्गस्थो गुरुरेव तु
दैवतम् ।
उत्पादकब्रह्मदत्रोर्गरीयान्
ब्रह्मदो गुरुः ॥७१॥
गुरुपुत्र में गुरुवद् बुद्धि रखे
। इसी प्रकार उनकी कन्याओं में भी गुरु के समान् बुद्धि रखनी चाहिए । गुरु चाहे
विद्या रहित हो अथवा सविद्य हो गुरु ही देवता है ऐसा समझना चाहिए । गुरु चाहे
विमार्गगामी हो, चाहे मार्गगामी हो, गुरु में देवता बुद्धि रखनी चाहिए । जन्म देने वाले पिता तथा वेदज्ञान का
उपदेश करने वाले पिता इन दोनों में ज्ञान देने वाले पिता रुप गुरु सर्वश्रेष्ठ कहे
गए हैं ॥७० - ७१॥
तस्मान्मन्येत सततं पितरप्यधिकं
गुरुम् ।
गुरुदेवाधीनश्चास्मि शास्त्रे
मन्त्रे मुलाकुले ॥७२॥
इसलिए गुरु को अपने पिता से भी अधिक
सम्मान देना चाहिए । शिष्य को यह सोंचना चाहिए कि शास्त्र में,
मन्त्र में तथा कुलाकुल (कुण्डलिनी के उत्थान) में मैं
सर्वदा अपने गुरुदेव के वश में हूँ ॥७२॥
नाधिकारी भवेन्नाथ श्रीगुरोः
पदभावकः ।
गुरुर्माता पिता स्वामी बान्धवः
सुह्र्त् शिवः ॥७३॥
इत्याधाय मनो नित्यं भजेत्
सर्वात्मना गुरुम् ।
एकमेव परं ब्रह्म
स्थूलशुक्लमणिप्रभम् ॥७४॥
भैरवी ने कहा --- हे नाथ ! गुरु के
चरण कमलों की सेवा करने वाला मनुष्य विद्या का अधिकारी होता है,
क्योंकि गुरु, माता, पिता,
स्वामी, बान्धव, सुहृद्
एवं शिव स्वरूप हैं । इस प्रकार का विचार कर शिष्य को चाहिए कि वह
सर्वात्मना अपने गुरु की सेवा करे और उसे सोचना चाहिए कि स्थूल एवं शुक्ल मणि की
प्रभा वाले गुरु ही एकमात्र परब्रह्म हैं ॥७३ - ७४॥
सर्वकर्मनियन्तारं
गुरुमात्मानमाश्रयेत् ।
गुरुश्च सर्वभावानां भावमेकं न
संशयः ॥७५॥
निःसन्दिग्धं गुरोर्वाक्य संशयात्मा
विनश्यति ।
निःसंशयी गुरुपदे सर्वत्यागी पदं
व्रजेत् ॥७६॥
सभी कर्मों के नियन्ता गुरु को अपनी
आत्मा में स्थान देना चाहिए । सभी भावों में गुरु विषयक भावना सर्वश्रेष्ठ भावना
है - इसमें संशय नहीं । गुरु की आज्ञा में संशय नहीं करना चाहिए । उसमें संशय करने
वाला विनष्ट हो जाता है । जो गुरु की आज्ञा का पालन संशय रहित हो कर करता है वह
सर्वत्यागी पद तक पहुँच जाता हैं ॥७५ - ७६॥
खेचरत्वमवाप्नोति मासादेव न संशयः ।
सद्गुरुमाश्रितं शिष्यं वर्षमेकं
प्रतीक्शयेत् ॥७७॥
सगुणं निर्गुणं वापि ज्ञात्वा
मन्त्रं प्रदापयेत् ।
शिष्यस्य लक्षणं सर्व
शुभाशुभविवेचनम् ॥७८॥
गुरु की सेवा में निरत रहने वाला
शिष्य एक मास के भीतर (गुरु कृपा से) खेचरत्व को प्राप्त कर लेता है,
इसमें संशय नहीं । गुरु को चाहिए कि एक वर्ष पर्यन्त शिष्य को अपने
आश्रय में रखकर उसकी परीक्षा करें । फिर उसके गुण और दोषों के लक्षण का एवं उसके
शुभाशुभ का विचार कर उसे मन्त्र प्रदान करें ॥७७ - ७८॥
अन्यथा विप्रदोषेण सिद्धिपूजाफलं
दहेत् ।
कामुकं कुटिलं लोकनिन्दितं
सत्यवर्जितम् ॥७९॥
अविनीतसमर्थं प्रज्ञाहीनं
रिपुप्रियम् ।
सदापापक्रियायुक्तं विद्याशून्यं
जडात्मकम् ॥८०॥
कलिदोषसमूहाङं वेदक्रियाविवर्जितम्
।
आश्रमाचारहीनं
चाशुद्धान्तःकरणोद्यतम् ॥८१॥
सदा श्रद्धाविरहितमधैर्य क्रोधिनं
भ्रमम् ।
असच्चरित्रं विगुणं परदारातुरं सदा
॥८२॥
असद्बुद्धिसमूहोत्थमभक्तं
द्वैतचेतसम् ।
नानानिन्दावृताङ च तं शिष्यं
वर्जयेद् गुरुः ॥८३॥
ऐसा न करने से विशिष्ट दोषों के
कारण साधक की सिद्धि और पूजा का फल दोनों ही विनष्ट हो जाता है । कामी,
कुटिल, लोकनिन्दित, झूठ
बोलने वाले, उच्छृखंल स्वभाव वाले, सामर्थ्यहीन,
बुद्धिहीन, शत्रुप्रिय, सदा
पापप्रिय, विद्याशून्य, जडात्मक,
कलियुग के कलह आदि के दोष से भरे हुए, वेद
क्रिया से हीन, आश्रमाचार से वर्जित, अशुद्ध
अन्तःकरण वाले, सर्वदा श्रद्धा से रहित, धैर्यहीन, क्रोधी, भ्रमयुक्त,
असच्चरित्र, गुणरहित, परदारगामी,
दिन रात बुरे विचारों में निरत, अभक्त,
इधर की बात उधर एवं उधर की बात इधर करके कहने वाले और अनेक प्रकार
की निन्दा से भरे हुए मनुष्य को कभी शिष्य न बनावे ॥७९ - ८३॥
यदि न त्यज्यते वीर धनादिदानहेतुना
।
नारकी शिष्यवत् पापी
तद्विशिष्टमवाप्नुयात् ॥८४॥
क्षणादसिद्धः स भवेत्
शिष्यासाधितपातकैः ।
अकस्मान्नारकं प्राप्य कार्यनाशाय
केवलम् ॥८५॥
हे सदाशिव ! गुरु यदि धन दान
आदि के कारण ऐसे शिष्य का त्याग नहीं करता तो वह गुरु भी शिष्य ही के समान नारकी
अथवा उससे भी विशिष्ट नरक का भागी होता है । इसा प्रकार के गुरु में शिष्य का पाप
संक्रान्त हो जाता है जिससे उसकी सिद्धि क्षणमात्र में ही विनष्ट हो जाती है और अकस्मात्
उसे नरक की प्राप्ति हो कर उसके किए गए सारे कार्य नष्ट हो जाते हैं ॥८४ - ८५॥
विचार्य यत्नात् विधिवत्
शिष्यंसंग्रहमाचरेत् ।
अन्यथा शिष्यदोषेण नरकस्थो भवेद्
गुरुः ॥८६॥
न पत्नीं दीक्षयेद् भर्ता न पिता
दीक्षयेतु सुताम् ।
न पुत्रं च तथा भ्राता भ्रातरं नैव दीक्षतेत्
॥८७॥
इसलिए गुरु चाहिए कि अच्छी तरहसे
विचार कर शिष्य का संग्रह करे । अन्यथा शिष्य के दोष से गुरु को भी नरकगामी होना
पड़ता है । पति अपनी स्त्री को दीक्षा न देवे । पिता अपनी कन्या को दीक्षित न करे
और न पुत्र को ही दीक्षा दे । इसी प्रकार भाई भी भाई को दीक्षा न देवे ॥८६ - ८७॥
सिद्धमन्त्रो यदि पतिस्तदा पत्नीं स
दीक्षतेत् ।
शक्तित्त्वेन भैरवस्तु न च सा
पुत्रिका भवेत् ।
मन्त्राणां देवता ज्ञेया देवता
गुरुरुपिणी ॥८८॥
तेषां भेदो न कर्तव्यो
यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।
यदि पति सिद्धिमन्त्र वाला है तो वह
पत्नी को दीक्षित कर सकता है । मन्त्र की शक्ति विद्यमान रहने के कारण वह भैरव
है । इस कारण उस सिद्धि की पत्नी पुत्री नहीं हो सकती । मन्त्र के अक्षरों को
देवता समझना चाहिए और देवता गुरु रूप हैं । इसलिए यदि अपना कल्याण चाहे तो मन्त्र,
देवता और गुरु में भेद बुद्धि नहीं करनी चाहिए ॥८८ - ८९॥
एकग्रामे स्थितः शिष्यस्त्रिसन्ध्यं
प्रणमेद् गुरुम् ॥८९॥
क्रोशमात्रस्थितो भक्त्या गुरुं
प्रतिदिनं नमेत् ।
यदि एक ग्राम में शिष्य और गुरु
दोनों निवास करते हों तो शिष्य को चाहिए कि वह तीनों सन्ध्या में जा कर
अपने गुरु को प्रणाम करें । यदि दोनों के निवास में १ क्रोश का अन्तर हो तो शिष्य
को शक्ति के साथ नित्य प्रतिदिन प्रणाम करना चाहिए ॥८९ - ९०॥
अर्धयोजनतः शिष्यः प्रणमेत्
पञ्चपर्वसु ॥९०॥
एकयोजनमारभ्य योजनद्वादशावधिः ।
दूरदेशास्थितः शिष्यो भक्त्या तत्सन्निधिं
गतः ॥९१॥
तन्त्रयोजनसंख्योमासेन प्रणमेद्
गुरुम् ।
यदि आधे योजन का अन्तर हो तो पाँचो
पर्वों में प्रणाम करना चाहिए । यदि एक योजन से द्वादश योजन पर्यन्त दोनों के
निवास में अन्तर हो तो दूर देश में रहने वाला शिष्य भक्ति से अपने गुरु के पास जा
कर योजन संख्या के अनुसार उतने उतने मास में अपने गुरु को प्रणाम करे ॥९० - ९२॥
वर्षैकेण भवेद् योग्यो विप्रो हि
गुरुभावतः ॥९२॥
वर्षद्वयेन राजन्यो वैश्यस्तु
वत्सरैस्त्रिभिः ।
चतुभिर्वत्सरैः शूद्रः कथिता
शिष्ययोग्यता ॥९३॥
गुरु में भावना करने वाला ब्राह्मण एक वर्ष में शिष्यता की योग्यता प्राप्त कर लेता हैं, क्षत्रिय दो वर्ष में, वैश्य तीन वर्ष में और शूद्र चार वर्ष में शिष्यत्व की योग्यता प्राप्त कर लेता है - ऐसा कहा गया है ॥९२ - ९३॥
॥इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने गुरु शिष्य लक्षण: भैरवीभैरवसंवादे
द्वितीयः पटलः ॥२॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल
उत्तरतन्त्र का द्वितीय पटल भाग ३ समाप्त हुआ ॥२ ॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र द्वितीय पटल अंतिम भाग
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