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भूतशुद्धितन्त्र पटल ४

भूतशुद्धितन्त्र पटल ४          

भूतशुद्धितन्त्र अंतिम पटल ४ में तीन नाड़ियों इडा, पिङ्गला और सुषुम्णा का वर्णन किया गया है ।

भूतशुद्धितन्त्र पटल ४

भूतशुद्धितन्त्र पटल ४    

Bhoot shuddhi tantra Patal 4

भूतशुद्धितन्त्रम् चतुर्थः पटल:

भूतशुद्धितन्त्र अंतिम पटल ४

भूतशुद्धितन्त्र चौंथा पटल

भूतशुद्धितन्त्रम्

अथ चतुर्थ पटल

भैरव उवाच

इडायां सञ्चरेच्चन्द्रः पिङ्गलायां च भास्करः ।

सुषुम्णायां सदा वह्नी रेतायोगविशेषतः ॥1

भैरव ने कहा कि हे पार्वती तीन नाड़ियां होती हैं इडा, पिङ्गला और सुषुम्णा । इडा नाड़ी मेरु के बायीं ओर होती है। पिङ्गला दांयी ओर होती है और सुषुम्णा नाड़ी मेरु (रीढ़ की हड्डी के अन्दर स्थित रहती है। अतः इडा नाड़ी में चन्द्रमा संचरण करते हैं और पिङ्गला में सूर्य संचरण करते हैं तथा सुषुम्णा नाड़ी में सदैव वीर्य के योग से वह्नि (अग्नि) संचरण करती है।।1।।

युगपत्रक्रमोद्योगमहं वेद्मि न चापरः ।

शुद्धिचित्तेन सिद्धेन गुरोः प्रियहुतं क्वचित् ॥ 2

जानाति परमेशानि ! गुरुपादप्रसादतः ।

युगपत्र कम से अर्थात् सत्युग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग इनके आगमन क्रम से मैं इस योग को जानता हूँ। दूसरा कोई नहीं जानता है। कहीं-कहीं गुरु के सिद्ध शुद्ध चित्त द्वारा गुरु के पाद - प्रसाद से कोई जान लेता है।।2।।

त्रिधारां वहते तास्तु यस्तां वेत्ति स सर्ववित् ॥3

इडायां यमुना देवि! पिङ्गलायां सरस्वती ।

सुषुम्णायां वहेद् गङ्गा तासां योगस्त्रिधा भवेत् ॥4

उन तीनों नाड़ियों में तीन धारायें बहती हैं, जो उसको जानता है, वह सब जानने वाला होता है। इडा नाड़ी में यमुना देवी बहती है। पिङ्गला नाड़ी में सरस्वती देवी बहती है तथा सुषुम्णा नाड़ी में गङ्गा देवी बहती है। इस प्रकार उनका योग तीन प्रकार का होना चाहिए ।। 3-4 ।।

सङ्गता ध्वजमूलेन विमुक्ता भ्रूवियोगतः ।

त्रियोगवेणी सा प्रोक्ता तत्र स्नानं महाफलम् ॥5

ध्वजमूल से सङ्गत भोहों के वियोग से विमुक्त वह त्रियोग वेणी कही गयी है। अतः वहाँ पर स्नान महाफल को प्रदान करने वाला है ।। 5 ।।

ग्रहणेऽर्कस्य चेन्दोर्वा सुषुम्णायां सदा शुभे ।

गत्वा त्रिवेण्यां स्नात्वा च मनः सङ्कल्पपूर्वकम् ॥6

ग्रासाद् विमुक्तिपर्यन्तं जप्त्वा सिद्धीश्वरो भवेत् ।

सूर्य और चन्द्रमा के शुभ ग्रहणकाल में सुषुम्णा में त्रिवेणी में जाकर और स्नान करके मन के सङ्कल्पपूर्वक ग्रास से विमुक्ति पर्यन्त जपकर मनुष्य सिद्धियों का ईश्वर हो जाता है। अर्थात् जब सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण पड़ रहा हो, उस समय साधक सुषुम्णा में ध्यान लगाकर इडा पिङ्गला और सुषुम्णा तीनों नाड़ियों में ध्यान लगाकर मन में सङ्कल्प पूर्वक ग्रहण शुरू होने से अन्त तक जप करे तो वह सिद्धियों का ईश्वर हो जाता है तथा जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है ।।6।।

यस्तु मन्त्री सुषुम्णायां विमले बिन्दुतीर्थके ॥7

गया श्राद्धं कृतं तेन शताब्दं नात्र संशयः ।

जो मन्त्री (मन्त्र जाप करने वाला) सुषुम्णा में विमलबिन्दु तीर्थ में गया श्राद्ध करे, वह सौ वर्ष तक जीता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। 7 ।।

त्रिवेण्यां यस्तु स्नायाद्वै पुष्करे वा द्विजाकुले ॥8

तस्य पुण्यफलं वक्तुं न शक्नोमि महेश्वरि ।

नित्यं स्नात्वा च तीर्थेऽस्मिन् जपपूजादिकं चरेत् ॥9

मन्त्रसिद्धिर्भवेत् तस्य पुरश्चर्यादिभिर्विना ।

सहस्त्रारे गुरं ध्यात्वा परमानन्दनिर्वृतः ।

कुर्वीताहरहः कृत्यं न च पापैर्विलिप्यते ॥10

शंकर भगवान् ने कहा कि हे देवि पार्वति ! त्रिवेणी में पुष्कर और द्विजाकुल में स्नान करने से निश्चय ही उसके पुण्य फल को हे देवि! मैं बता नहीं सकता हूँ। अर्थात् असीमित पुण्यफल होता है। इस तीर्थ में नित्य स्नान करके यदि मनुष्य जप पूजा आदि करे, उस व्यक्ति को पुरश्चर्या आदि के बिना ही मन्त्रसिद्धि हो जाती है। सहस्रार सहस्रदल कमल में गुरु (भगवान् शिव ) का ध्यान करके परमानन्द से पूर्णत: आवृत होकर (युक्त) होकर दिन प्रतिदिन यह कार्य करे तो वह व्यक्ति पापों से विलिप्त नहीं होता है ।। 8 -10 ।।

सहस्रदलपङ्कजं सकलशीतरस्मिप्रभं

वराभयकराम्बुजं विविधग्रन्थमालान्वितम्।

प्रसन्नवदनेक्षणं सकलदेवतारूपिणं

स्मरेत् शिरसि हंसगं तदभिधानपूर्वं गुरुम् ॥11

अतः जब साधक परम गुरु सदाशिव के ध्यान में लीन हो जाये, तब वहाँ उसे उस हजार पत्तों वाले कमल में स्थित, समस्त कलाओं से युक्त चन्द्रमा की प्रभा को धारण करने वाले, प्रसन्न मुख और नेत्रों वाले, समस्त देवता रूपी, हंसग (आत्मा में गमन करने वाले, उसी गुरु नाम वाले सदाशिव भगवान् शंकर का स्मरण करना चाहिये ।।11

एतत् ते कथितं तत्त्वं सुगोप्यं पशुसङ्कटे ।

न कस्मैचित् प्रवक्तव्यं यदीच्छेत् सिद्धिमात्मनः ।। 1 2

इस प्रकार भगवान् शंकर ने पार्वती से कहा कि हे देवि पार्वति ! यह मैंने तुमसे पशु सङ्कट में अच्छी तरह से गोपनीय तत्त्व को कहा है। अतः यदि सिद्धि चाहती हो तो किसी को भी कभी मत बताना।।12।।

।। इति श्रीभूतशुद्धितन्त्रे परम रहस्ये चतुर्थः पटलः ।।

।। इस प्रकार श्री भूतशुद्धितन्त्र के परम रहस्य में चतुर्थ पटल समाप्त हुआ तथा यह ग्रन्थ भी समाप्त हुआ ।। 

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