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भूतशुद्धितन्त्र पटल ३

भूतशुद्धितन्त्र पटल ३          

भूतशुद्धितन्त्र पटल ३ में आज्ञाचक्र आदि कुण्डलिनी चक्र का वर्णन किया गया है ।

भूतशुद्धितन्त्र पटल ३

भूतशुद्धितन्त्र पटल ३   

Bhoot shuddhi tantra Patal 3

भूतशुद्धितन्त्रम् तृतीयः पटल:

भूतशुद्धितन्त्र तृतीय पटल

भूतशुद्धितन्त्र तीसरा पटल

भूतशुद्धितन्त्रम्

अथ तृतीयः पटलः

तदूर्ध्वमाज्ञाचक्रं च द्विदलं धूम्रधूमकम् ।

हस्ताभ्यां लसितं शङ्खमालाधिष्ठितमद्भुतम् ॥ 1

कर्णिकायां त्रिकोणस्थं मत्तालिप्रणवाकृतिम् ।

जलद्वीपनिभं चोर्ध्वं नादरूपं मनोरमम् ॥

बिन्दुं मकाररूपं च तदूर्ध्वं मनसालयम् ॥2

उसके ऊपर दो पत्तों वाला धूम्रधूमक आज्ञाचक्र है, जो सुगन्धित धुंए धूमित है। जिसके दोनों हाथों में अद्भुत शंख माला शोभित है। जिसकी कर्णिका में मदमत्त भ्रमर द्वारा प्रणव (ऊंकार) की आकृति वाला जलद्वीप के समान ऊपर मनोरम नाद रूप है अर्थात् ॐ नाद है, उसके ऊपर मकाररूप बिन्दु है, उसके ऊपर मनसालय स्थित है।।1-2।।

चक्रस्थां शुक्लवर्णा डमरुकरयुतामक्षसूत्रां कपालं

विद्यां मुद्रां दधानां त्रिनयनविलसद्रक्तसद्वक्त्रयुक्ताम् ।

हारिद्रान्ने प्रसक्तां मधुमदमुदितां शुक्लमब्जस्वरूपां

देवीं देवेन्द्ररत्नाकरमधुदितां भावयेत् शाकिनीं ताम् ॥3

उस मनसालय के चक्र में स्थित शुक्ल वर्ण वाली हाथ में डमरू ली हुई, अक्षमालासूत्र और कपाल, विद्या, मुद्रा धारण करती हुई, तीनों नेत्रों में शोभायुक्त लाल मुख वाली हरिद्र अन्न में प्रसक्त मधु के मद से मुदित शुक्ल कमल के स्वरूप वाली देवेन्द्र और रत्नाकर (समुद्र) के मधु से मुदित उस शाकिनी का ध्यान करना चाहिए ।।3।।

नादस्थानं तदूर्ध्वे तु नादान्तं च तदूर्ध्वतः ।

शक्तिस्थानं तदूर्ध्वेतु समनिं च तदूर्ध्वतः॥4

उन्मनीं चिन्तयेदूर्ध्वे ततो ब्रह्मपुरं व्रजेत् ।

ब्रह्मरन्ध्रस्थितं शुद्धं सहस्रच्छदमद्भुतम् ॥5

शङ्खिनीशिखरासीनं प्रफुल्लं भानुतेजसा ।

सर्वदेवाधिसंस्थानं गुरुराष्ट्रेण वर्त्मना ॥6

उस मनसालय के ऊपर नादस्थान है, वह नाद स्थान उसके ऊपर से नाद के अन्त तक है। उसके ऊपर शक्तिस्थान है, उसके ऊपर से समनि स्थान है। उसके ऊपर उन्मनी देवी का ध्यान करना चाहिए, उसके बाद ब्रह्मपुर जाना चाहिए। उस ब्रह्मपुर में ब्रह्मरन्ध्र है, जो शुद्ध सहस्रदल कमल से अद्भुत है, उस सहस्रदल कमल पर सूर्य के तेज से प्रफुल्लित शंखिनी शिखर पर आसीन है। फिर गुरु राष्ट्र मार्ग द्वारा सब देवताओं का अधिष्ठान है।।4-6।।

हृदिस्थां कुञ्जिकां कृत्वा गत्वा तदुपरि शिवे !

कण्ठाद्यं समनुप्राप्य द्वारं सङ्कोचयेद् हठात् ॥ 7

भगवान् शंकर ने कहा कि हे पार्वति ! कुञ्जिका को हृदय में स्थित करके उसके ऊपर जाना चाहिए। फिर कण्ठ आदि को प्राप्त करके द्वार को दृढ़पूर्वक बन्द कर देना चाहिए ।। 7 ।।

उत्थाप्य परमेशानि! परमात्मनि दीपयेत् ।

हुताशनं प्रतप्त्वा तु तापसम्भूतमूर्ध्वता ॥ 8

प्रसुप्ता नागिनी लिङ्गे योनिवक्त्रे प्रधापयेत् ।

ततः प्रचालयेद् वायुं यावन्नाभ्यन्तरेषु च ॥ 9

गुरुराष्ट्रेण मार्गेण सकृत् तु कुम्भकेन वै ।

आक्रम्यैवं ततो जीवः श्वासत्वेन यथाम्भसः ॥ 10

ऊर्ध्वश्वासेनोर्ध्वमुखान् कोरकान् पङ्कजान् शिवे ! ।

प्रबोधयन् शनैर्भग्नमेरुशृङ्गं नयेत् सुधीः ॥11

फिर हे परमेशानि! वहाँ उस द्वार को उठाकर परम आत्मा में दीप जलाना चाहिए, फिर वहाँ पर हुताशन प्रतप्त करके ताप से ऊर्ध्वता वाली सम्भूत सोयी हुई नागिनी (कुण्डलिनी) को लिङ्ग में और योनि के मुख में अच्छी तरह धारण करा देना चाहिए। उसके बाद उसके अन्तर्गत वायु को चलाना चाहिए तथा उस वायु को एक बार गुरु (विशाल) राष्ट्र मार्ग द्वारा कुम्भक नामक प्राणायाम से चलाना चाहिए। इस प्रकार तेजी से श्वास द्वारा जीव जल से बाहर निकलने के समान निकलकर ऊपर को श्वास ले जाने की क्रिया द्वारा नीचे को मुख किए हुए कमल की कोरकों पंखड़ियों को जगाते हुए (खिलाते हुए) धीरे-धीरे भग्न श्वास को मेरुदण्ड के शृङ्ग अर्थात् रीढ़ की हड्डी के सबसे ऊपरी भाग की ओर ले जाना चाहिए ।। 8-11।।

गृहीत्वा प्रविसेद् वापि तत्तद्देवस्वरूपिणीम् ।

चित्रिणींविवरे रक्तभेदपङ्कसमुद्भवाम् ॥12

सत्यदक्षे पार्श्वयोश्च नालस्थां वाहयेच्चताम् ।

पद्मान् नाडीन् मध्यवर्त्मबोधितान् परमेश्वरि ॥13

नालं वार्य विशेत् पद्मान् तेन भेदः प्रजायते ।

यथाऽसौ परतिं रश्मिवह्निं नाययति प्रभुः ॥14

भेदयित्वा तथा चक्रं स उ जीवं नयेष्टताम् ।

शिरः स्थानि महेशानि ! चिन्तयेद् गुरुमार्गतः ॥15

उसके बाद वहाँ से उस देवी के स्वरूप वाली, रक्तभेदपङ्क से उत्पन्न चित्रिणी को विवर में प्रवेश कराना चाहिये, फिर उसकी ठीक दक्षिण की ओर और पीछे की ओर कमलनाल में स्थित उस चित्रिणी को और मध्य मार्ग बोधित पद्मों को नाड़ियों को छोड़ देना चाहिये। फिर पद्मनाल को हटाकर कमलों में प्रवेश करना चाहिये और उसके द्वारा उसका भेदन कर देना चाहिये। उसके बाद उस कमल तथा चक्र का भेदन करके उस जीव को अपने इष्ट देव की ओर ले जाना चाहिये। अत: हे महेशानि! इन शिर के स्थानों को गुरु द्वारा बताये मार्ग से चिन्तन करना चाहिये। अन्यथा दुर्घटना भी हो सकती है ।। 12-15 ।।

साङ्गत्ये चतयोरित्थं सामरस्यं विभाव्य च ।

तदुद्भूतरसेनैव तर्पयेद् देहदेवताम् ॥16

पाननिष्ठां सदा हृष्टामानन्दाप्लुतविग्रहाम् ।

तथा जब आत्मा की उस परमात्मा इष्टदेवता में संगति हो जाये, तब उन दोनों में समरसता की कल्पना करके उससे उत्पन्न रस से ही पाननिष्ठ प्रसन्न और आनन्द से युक्त शरीर वाले देहदेवता का तर्पण करना चाहिये।।16।।

पुनस्तेन पथा देवि ! आनयेत् कुलगह्वरम् ॥17

एवं यो चिन्त्येद् देवि! योगं चाहरहः सुधीः ।

आजातयाममन्त्रस्थस्तुभ्यं नित्यं न संशयः ॥ 18

भगवान् शंकर ने कहा कि हे देवि ! फिर उसी मार्ग से अर्थात् उसी तरीके से उस देह देवता को कुलगह्वर में लाना चाहिये। हे देवि ! जो सुधी इस प्रकार आजातयाम मन्त्र को हृदय में स्थिर करके नित्य तुम्हारा चिन्तन करे तो इसमें सन्देह नहीं कि वह अवश्य सफलता प्राप्त करेगा ।।17-18 ।।

एतद्योगं विना देवि ! दीक्षापूजाजपादिकम् ।

निष्फलं नात्र सन्देहो विजस्थे चषकं यथा ॥ 19

हे देवि! इस योग के बिना दीक्षा पूजा जप आदि सब उसी प्रकार निष्फल हो जाता है, जिस प्रकार (विज) पर रखा हुआ चषक निष्फल हो जाता है ।।19।।

एतत् तत्त्वं परं तत्त्वं यो जानाति स एव हि ।

इत्येतत् कथितं तत्त्वं परं पिण्डविशोधनम् ॥

विना येन न सिद्धि स्यात् सप्तजन्मकृतात् श्रमात् ॥20

हे देवि ! यह जो मैंने बताया वह परमतत्त्व है, जो जानता है, वही तत्त्वज्ञानी है। इस प्रकार यह कहा हुआ तत्त्व समस्त शरीर को पूर्णरूप से शुद्ध करने वाला है। इस योग के बिना सात जन्म के किये गये परिश्रम से सिद्धि (सफलता) नहीं हो सकती ।। 20 ।।

तथाऽन्यत् सम्प्रवक्ष्यामि गुह्याद् गुह्यतरं महत् ।

यज्ज्ञात्वा सिद्धिमाप्नोति षण्मासादपि साधकः ॥21

इसके अतिरिक्त दूसरे गुह्य से महान् गुह्यतर तत्त्व को कहूँगा, जिसको जानकर साधक छः माह में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।।21।।

।। इति श्रीभूतशुद्धितन्त्रे परमरहस्ये तृतीयः पटलः।।

।।इस प्रकार श्रीभूतशुद्धितन्त्र के परमरहस्य में तीसरा पटल समाप्त हुआ।।

आगे जारी..... भूतशुद्धितन्त्र पटल 4

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