कन्दवासिनी स्तोत्र

कन्दवासिनी स्तोत्र

रुद्रयामल तंत्र पटल ३२ में कुण्डलिनी देवी के स्तोत्र, ध्यान, न्यास तथा मंत्र को कहा गया है। पहले कुण्डलिनी का ध्यान है (५--१३)। फिर कन्दवासिनी स्तोत्र (कुण्डलिनी स्तोत्र) है (२१९--४२)।

जब तक कुण्डलिनी सिद्ध न हो तब तक जप करे। मानस होम, मानस ध्यान, मानस जप, मानस अभिषेक से भावशुद्धि द्वारा भगवती कुण्डलिनी सिद्ध होती है । जो प्रणव से सम्पुटित कर पवित्रतापूर्वक नियम से इस कन्दवासिनी स्तोत्र का पाठ करता है वह पृथ्वी में कुण्डलिनी पुत्र हो जाता है- यह इस स्तोत्र की फलश्रुति है ।

कन्दवासिनी स्तोत्र

रुद्रयामल तंत्र पटल ३२                         

Rudrayamal Tantra Patal 32

रुद्रयामल तंत्र बत्तीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र द्वात्रिंश: पटल:

कुण्डलिनीस्तोत्रम् अथवा कन्दवासिनीस्तोत्रम्

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथ द्वात्रिंश: पटल:

श्री आनन्दभैरवी उवाच

अथ कान्त प्रवक्ष्यामि शृणुष्व मम तत्त्वतः ।

शक्तिः कुण्डलिनी देवी सर्वभेदन भेदिनी ॥ १ ॥

श्रीआनन्दभैरवी ने कहाहे मेरे कान्त ! अब तत्त्वतः श्रवण कीजिए। सभी ग्रन्थियों का भेदन करने वाली देवी कुण्डलिनी महती शक्ति हैं ॥ १ ॥

कलिकल्मषहन्त्री च जगतां मोक्षदायिनी ।

तस्याः स्तोत्रं तथा ध्यानं न्यासं मन्त्रं शृणु प्रभो ॥ २ ॥

यस्य विज्ञानमात्रेण मूलपद्मे मनोलयः ।

चैतन्यानन्दनिरतो भवेत् कुण्डलिसङ्गमात् ॥ ३ ॥

आकाशगामिनीं सिद्धिं ददाति कुण्डली भृशम् ।

अमृतानन्दरूपाभ्यां करोषि पालनं नृणाम् ॥ ४ ॥

वे कलि के समस्त कालुष्य को नष्ट करने वाली, जगत् को मोक्ष देने वाली हैं । अब हे प्रभो ! उन कुण्डलिनी के स्तोत्र, ध्यान, न्यास तथा मन्त्र को सुनिए। जिसके जान लेने मात्र से मूल पद्म में मन का लय हो जाता है तथा साधक कुण्डलिनी को प्राप्त कर चैतन्यानन्द में निरत हो जाता है । यह कुण्डलिनी प्रसन्न हो जाने पर आकाश गामिनी सिद्धि प्रदान करती हैं। इतना ही नहीं वह पुरुषों को अमरत्व प्रदान कर आनन्द भी प्रदान करती हैं ।। २-४ ॥

कुण्डलिनीस्तोत्रम् अथवा कन्दवासिनीस्तोत्रम्

कुण्डलिनी ध्यानम्

श्वासोच्छ्वासकलाभ्यां च शरीरं त्रिगुणात्मकम् ।

पञ्चभूतावृता नित्यं पञ्चानिला भवेद् ध्रुवम् ॥ ५ ॥

कोटिसूर्यप्रतीकाशां* निरालम्बां विभावयेत् ।

सर्वस्थितां ज्ञानरूपां श्वासोच्छ्वासनिवासिनीम् ॥ ६ ॥

(*पाल्यतेऽखिललोकानां संसारस्थितये मया ।

कुण्डल्या धारणं तत्र ब्रह्मणो निकटे घंटे ॥

कुण्डल्या धारणं कृत्वा भोगी जितेन्द्रियो भवेत् ।

परिपालनशक्तिः स्यान्नाशक्तिभवेद् ध्रुवम् ।। इतिक० पु० अधि० पाठः ।)

यह शरीर श्वास तथा उच्छ्वास की कला से त्रिगुणात्मक है। इसमें पञ्च महाभूतों से आवृत तथा पञ्च प्राणों से नित्य युक्त कुण्डलिनी का निवास निश्चय ही होता है। साधक को करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान, आलम्ब से रहित, सबमें स्थित, ज्ञानस्वरूपिणी तथा श्वासोच्छ्वास में वर्तमान रहने वाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ।। ५-६ ।

स्वयम्भूकुसुमोत्पन्नां ध्यानज्ञानप्रकाशिनीम् ।

मोक्षदां शक्तिदां नित्यां नित्यज्ञानस्वरूपिणीम् ॥ ७ ॥

स्वयंभू लिङ्ग रूप कुसुम से उत्पन्न होने वाली, ध्यान एवं ज्ञान को प्रकाशित करने वाली, मोक्ष तथा शक्ति प्रदान करने वाली, नित्य स्वरूपा, नित्य ज्ञान रूपिणी कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥ ७ ॥

लोला लीलाधरां सर्वा शुद्धज्ञानप्रकाशिनीम् ।

कोटिकालानलसमां विद्युत्कोटिमहौजसाम् ॥ ८ ॥

साधक को अत्यन्त लोल स्वभाव वाली, लीला धारण करने वाली, शुद्ध ज्ञान को प्रकाशित करने वाली, करोड़ों कालाग्नि के सदृश, करोड़ों विद्युत् के समान प्रभा वाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥ ८ ॥

तेजसा व्याप्तकिरणां मूलादूर्ध्वप्रकाशिनीम् ।

अष्टलोकप्रकाशाढ्यां फुल्लेन्दीवरलोचनाम् ॥ ९ ॥

अपने तेज के किरणों से सर्वत्र व्याप्त रहने वाली, मूलाधार से ऊपर प्रकाश करने वाली, आठों लोकों में प्रकाश उत्पन्न करने वाली फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाली कुण्डलिनी का ध्यान करे ।। ९ ॥

सर्वमुखीं सर्वहस्तां सर्वपादाम्बुजस्थिताम् ।

मूलादिब्रह्मरन्ध्रान्तस्थानलोकप्रकाशिनीम्॥ १० ॥

सर्वत्र व्याप्त मुख वाली, सर्वत्र व्याप्त हाथों वाली, सर्वत्र अपने चरण कमलों से स्थित रहने वाली, मूलाधार से लेकर ब्रह्मपर्यन्त स्थित स्थानों तथा लोकों को प्रकाशित करने वाली कुण्डलिनी का ध्यान करें ॥ १० ॥

त्रिभाषां सर्वभक्षां च श्वासनिर्गमपालिनीम् ।

ललितां सुन्दरीं नीलां कुण्डलीं कुण्डलाकृतिम् ॥ ११ ॥

परा, पश्यन्ती तथा मध्यमा रूप तीन स्थानों से भाषण करने वाली, सब का भक्षण करने वाली, श्वास के निकलने वाले मार्ग का पालन करने वाली, ललिता सुन्दरी, नीला तथा सर्पाकृति वाली कुण्डलिनी का ध्यान करे ॥। ११ ॥

अभूमण्डलबाह्यस्थां बाह्यज्ञानप्रकाशिनीम् ।

नागिनीं नागभूषाढ्यां भयानककलेवराम् ॥ १२ ॥

पृथ्वी मण्डल में न रहकर उसके बाहर निवास करने वाली, बाह्य ज्ञान को प्रकाशित करने वाली, नागिनी, नाग का भूषण धारण करने वाली तथा भयानक शरीर वाली कुण्डलिनी का ध्यान करे ।। १२ ।

योगिज्ञेयां शुद्धरूपां विरलामूर्ध्वगामिनीम् ।

एवं ध्यात्वा मूलपद्मे कुण्डलीं परदेवताम् ॥ १३ ॥

योगिजनों से जानी जाने वाली, शुद्धस्वरूप वाली, अकेली ऊर्ध्वगामिनी, इस प्रकार की परदेवता स्वरूपा कुण्डलिनी का मूलाधार स्थित पद्म में ध्यान करे ।। १३ ।।

भावसिद्धिर्भवेत् क्षिप्रं कुण्डलीभावनादिह ।

ततो मानसजापं हि मानसं होमतर्पणम् ॥ १४ ॥

इस प्रकार ध्यान करने वाले साधक को इस लोक में बड़ी शीघ्रता से सिद्धि मिल जाती है इसके बाद मानस जाप तथा मानस होम तर्पण करना चाहिए ।। १४ ।।

अभिषेकं मुदा कृत्वा प्रातः काले पुनः पुनः ।

प्राणायामं ततः कृत्वा स्तोत्रं च कवचं पठेत् ॥ १५ ॥

एतत्स्तोत्रस्य पाठेन स्वयं सिद्धान्तविद् भवेत् ।

कुण्डली सुकृपा तस्य मासाद् भवति निश्चितम् ॥ १६ ॥

इस प्रकार प्रातः काल में प्रसन्नता पूर्वक अभिषेक सम्पादन कर प्राणायाम करे फिर बारम्बार स्तोत्र तथा कवच का पाठ करे। इस स्तोत्र का पाठ करने से साधक स्वयं सिद्धान्तों का ज्ञाता हो जाता है। उसके ऊपर एक महीने में ही निश्चित रूप से कुण्डली की सुकृपा हो जाती हैं ।। १५-१६ ।।

निद्रादोषादिकं त्यक्त्वा प्रकाश्याहं शरीरके ।

अहं दात्री सुयोगानामधिपाहं जगत्त्रये ॥ १७ ॥

हे सदाशिव ! ऐसे साधक के शरीर में रहने वाली निद्रादि समस्त दोषों को दूर कर मै स्वयं प्रकाशित होती हूँ, इस प्रकार के सुयोगों को देने वाली मैं ही हूँ तथा तीनों लोकों की स्वामिनी भी मैं ही हूँ ॥ १७ ॥

अहं कर्म अहं धर्मः अहं देवी च कुण्डली ।

यो जानाति महावीर कुण्डलीरूपसेवनात् ॥ १८ ॥

इति तं पात्रकं कर्तुमवतीर्णास्मि सर्वदा ।

अत एव परं मन्त्रं कुण्डलिन्याः स्तवं शुभम् ॥ १९ ॥

प्रपठेत् सर्वदा देहे यदि वश्या न कुण्डली ।

तावत् कालं जपं कुर्याद् यावत् सिद्धिर्न जायते ॥ २० ॥

मैं ही कर्म हूँ, मैं ही धर्म हूँ, मैं ही देवी कुण्डलिनी हूँ। हे महावीर ! जो कुण्डलिनी के स्वरूप के सेवन से ऐसा जानता है उसी को अपना सत्पात्र बनाने के लिए मैं पृथ्वी पर सर्वदा अवतीर्ण होती हूँ । इसीलिए कुण्डलिनी का मन्त्र तथा कुण्डलिनी का स्तोत्र सर्वोत्कृष्ट है और कल्याणकारी तो है ही। यदि शरीर में रहने वाली कुण्डलिनी वश में न हो तो स्तोत्र का पाठ सर्वदा करते रहना चाहिए, तबतक जप भी करे जब तक सिद्धि न हो॥१८-२०॥

कुण्डलिनी स्तोत्रम् अथवा कन्दवासिनी स्तोत्रम्

आधारे परदेवता भवनताधोकुण्डली देवता ।

देवानामधिदेवता त्रिजगतामानन्दपुञ्जस्थिता ॥ २१ ॥

मूलाधारनिवासिनी त्रिरमणी या ज्ञानिनी मालिनी ।

सा मे मातृमनुस्थिता कुलपथानन्दैकबीजानना ॥ २२ ॥

जो आधार में परदेवता, उसके अधोभाग में देवता हैं तथा देवताओं की अधि देवता हैं तीनों लोकों में आनन्द पुञ्ज रूप से स्थित रहने वाली हैं। मूलाधार में निवास करने वाली सत्त्व, रज तथा तमोगुण वाली रमणी हैं, ज्ञान सम्पन्न हैं, मालाधारण करने वाली हैं, कुलपथ में आनन्द बीज स्वरूपा मुख वाली हैं हमारे मातृका वर्णों के मन्त्र में निवास करने वाली वह हमारी रक्षा करें ॥ २१-२२ ॥

सर्वाङ्गस्थितिकारिणी सुरगणानन्दैकचिन्हा शिवा ।

वीरेन्द्रा नवकामिनी वचनदा श्रीमानदा ज्ञानदा ॥ २३ ॥

सानन्दा घननन्दिनी घनगणा छिन्ना भवा योगिनी ।

धीरा धैर्यवती समाप्तविषया श्रीमङ्गली कुण्डली ॥ २४ ॥

वह सभी अङ्गों में स्थित रहने वाली, देवताओं में आनन्द संचार के चिन्ह से प्रगट होती हैं। सबका कल्याण करती हैं। वीरेन्द्रा तथा नव युवती हैं, उत्कृष्ट वचन देने वाली, श्री तथा मान देने वाली एवं ज्ञान देने वाली हैं। वह आनन्द के साथ रहती हैं, घन-नन्दिनी घनगणा, छिन्ना, भवपत्नी तथा योगिनी हैं। धीरा, धैर्यवती तथा विषयों को समाप्त करने वाली हैं ऐसी श्री तथा मङ्गल स्वरूपा कुण्डलिनी हमारी रक्षा करे ।। २३-२४ ।।

सर्वाकारनिवासिनी जयधराधाराधरस्थागया ।

गीता गोधनवर्द्धिनी गुरुमयी ज्ञानप्रिया गोधना ॥ २५ ॥

मैं सभी प्रकार के आकारों में निवास करने वाली, विजय धारण करने वाली, धाराधर(बादलों) में रहने वाली विद्युत् हूँ। गीता, गोधनवर्द्धिनी, गुरुमयी, ज्ञानप्रिया और गोधना हैं ऐसी कुण्डलिनी हमारी रक्षा करें ॥ २५ ॥

गार्हाग्निस्थिति चन्द्रिका सुलतिका जाड्यापहा रागदा ।

दारा गोधनकारिणी मृगमना ब्रह्माण्डमार्गोज्ज्वला ॥ २६ ॥

वह गार्हपत्य अग्नि में निवास करने वाली चन्द्रिका स्वरूपा, सुन्दर लता स्वरूपा हैं जाड्य का अपहरण करने वाली, राग प्रदान करने वाली हैं, सबको दलन करने के कारण दारा, गोधन, कारिणी, मृ (वन) में गमन करने वाली, ब्रह्माण्ड मार्ग को प्रकाशित करने वाली हैं ऐसी कुण्डलिनी हमारी रक्षा करें ॥ २६ ॥

माता मानसगोचरा हरिचरा सिंहासनेकारणा ।

यामा दासगणेश्वरी गुणवती छायापथस्थायिनी ॥ २७ ॥

जो पालन करने के कारण माता हैं, जिनका प्रत्यक्ष मन से होता है, जो हरि की परिचारिका हैं, राजसिंहासन की कारणभूता हैं, यामा (रात्रि) स्वरूपा, दास गणों की ईश्वरी,गुणवती तथा छायापथ में निवास करती हैं वह हमारी रक्षा करें ।। २७ ।।

निद्रा क्षुब्धजनप्रिया वरतृषा भाषाविशेषस्थिता ।

स्थित्यन्तप्रलयापहा नरशिरोमालाधरा कुण्डली ॥ २८ ॥

जो निद्रा, दुःखी मनुष्यों से प्रेम करने वाली, श्रेष्ठ तृष्णा स्वरूपा, भाषा विशेष में स्थित रहने वाली स्थिति करने वाली तथा अत्यन्त प्रलयकाल में अपहरण करने वाली, नर शिरो माला को धारण करने वाली कुण्डलिनी हैं वे हमारी रक्षा करें ॥ २८ ॥

गाङ्गेशी यमुनेश्वरी गुरुतरी गोदावरी भास्करी ।

भक्तार्तिक्षयकारिणी समशिवं यद्येकभावान्विता ॥ २९ ॥

जो गाङ्गेशी, यमुनेश्वरी, गुरुतरी, गोदावरी, भास्करी, भक्तों के आर्ति का विनाशकरने वाली, एकभाव में सम्मिलित हो जाने पर शिव की समता वाली हैं ऐसी कुण्डलिनी हमारी रक्षा करें ॥ २९ ॥

त्वं शीघ्रं कुरु कौलिके मम शिरोरन्ध्रं तदब्जं मुदा ।

तत्पत्रस्थितदैवतं कुलवती मातृस्थलं पाहिकम् ॥ ३० ॥

भालोद्वें धवला कलारसकला कालाग्निजालोज्ज्वला ।

फेरुप्राणनिकेतने गुरुतरा गुर्वी सुगुर्वी सुरा ॥ ३१ ॥

हे कौलिके! हे कुलवती ! आप मेरे शिरोरन्ध्र रूप कमल के पत्रों पर स्थित मातृका वर्णों के स्थल की तथा मेरे शिर की रक्षा कीजिए। जो माथे के ऊपर धवल वर्ण वाली हैं, समस्त कलारसों की कला हैं, कालाग्नि समूहों से प्रकाशित रहने वाली हैं फेरु प्राण निकेतन में गुरुतरा हैं गुर्वी सुगुर्वी तथा देवता हैं ऐसी कुण्डलिनी हमारे शिरो भाग की रक्षा करें ।। ३०-३१ ॥

हालोल्लाससमोदया यतिनया माया जगत्तारिणी ।

निद्रामैथुननाशिनी मम हरा मोहापहा पातुकम् ॥ ३२ ॥

भालं नीलतनुस्थिता मतिमतामर्थप्रिया मैथिली ।

भालानन्दकरा महाप्रियजना पद्मानना कोमला ॥ ३३ ॥

उल्लास के साथ जिनका उदय होता है, जो यतियों को नय मार्ग में ले जाती हैं माया तथा जगत् का तरण तारण करने वाली हैं, निद्रा एवं मैथुन का नाश करती हैं, मोह का अपहरण करने वाली हैं ऐसी कुण्डलिनी हमारे शिरोभाग की रक्षा करें। जो शरीर से नीलवर्ण वाली गतिमानों को अर्थ सिद्धि प्रदान करने के कारण प्रिय हैं, मिथिला में उत्पन्न होने वाली, मस्तक ( सहस्रार चक्र) में प्रविष्ट हो कर आनन्द देने वाली, मनुष्यों से अत्यन्त प्रेम करने वाली, कमल के समान मुखवाली कोमला हैं वे हमारे शिरः प्रदेश की रक्षा करें।

नानारङ्गसुपीठदेशवसना सिद्धासना घोषणा ।

त्राणस्थावररूपिणी कलिहनी श्रीकुण्डली पातुकम् ॥ ३४ ॥

अनेक प्रकार के रूपों से सुन्दर पीठों में निवास करने वाली, सिद्धासना तथा घोषणा हैं, जगज्जनों के संत्राण के लिए स्थावर (पृथ्वी) रूप से रहने वाली, कलिकाल में बचाने वाली ऐसी श्री कुण्डलिनी हमारे शिर की रक्षा करें ।। ३४ ।

भ्रूमध्यं बगलामुखी शशिमुखी विद्यामुखी सम्मुखी ।

नागाख्या नगवाहिनी महिषहा पञ्चाननस्थायिनी ॥ ३५ ॥

पारावार विहारहेतुसफरी सेतुप्रकारा परा ।

काशीवासिनमीश्वरं प्रतिदिनं श्रीकुण्डली पातुकम् ॥ ३६ ॥

बगलामुखी जो भ्रूमध्य में चन्द्रमा के समान मुख वाली, विद्यामुख वाली, भक्तों के सम्मुख रहने वाली, नागा नाम से प्रसिद्ध नग ( पर्वत एवं वृक्ष) को अपना वाहन बनाने वाली महिषमर्दिनी सिंह पर स्थित रहने वाली श्री कुण्डलिनी मेरे शिरो भाग की रक्षा करें। समुद्र विहार करने के लिए सफरी मछली के समान तथा सेतु स्वरूप वाली परा भगवती श्री कुण्डलिनी, काशीवासी ईश्वर स्वरूप हमारे शिरोभाग की प्रतिदिन रक्षा करें।।३५-३६।।

या कुण्डोद्भवसारपाननिरता मोहादिदोषापहा ।

सा नेत्रत्रयमम्बिका सुवलिका श्रीकालिका कौलिका ॥ ३७ ॥

काकस्था द्विकचञ्चुपारणकरी संज्ञाकरी सुन्दरी ।

मे पातु प्रियया तया विशदया सच्छायया छादिता ॥ ३८ ॥

उत्पन्न सार ( हविष्य धूम) के पान में निरत रहने वाली भक्तों के मोहादि दोषों को विनाश करने वाली, सुन्दर वलि वाली, कौलिका ( महाशक्ति स्वरूपा ) श्री कालिका हमारे तीन नेत्रों की रक्षा करें। जो काक पर स्थित रहने वाली अपने दो चञ्चुपुटों से पारण करने वाली, संज्ञाकरी अर्थात् चेतना प्रदान करने वाली तथा सुन्दरी हैं अपने प्रिय उस विशद श्री छाया (माया) से आच्छादित श्री कुण्डलिनी मेरी रक्षा करें ॥ ३७-३८ ।।

श्रीकुण्डे रणचण्डिका सुरतिका कङ्कालिका बालिका ।

साकाशा परिवर्जिता सुगतिका ज्ञानोर्मिका चोत्सुका ॥ ३९ ॥

सौकासूक्ष्मसुखप्रिया गुणनिका दीक्षा च सूक्ष्माख्यका ।

मामन्द्यं मम कन्दवासिनि शिवे सन्त्राहि सन्न्राहिकम् ॥ ४० ॥

श्रीकुण्ड में रणचण्डिका सुरति प्रदान करने वाली, कङ्काल रूप धारण करने वाली बालिका हैं, सर्वथा एकान्त में, आकाश में निवास करने वाली, सुन्दर गति (मोक्ष) देने वाली, ज्ञान की लहर रूप तथा उत्सुक रहने वाली हैं वे हमारे शिरोभाग की रक्षा करें। जो सौका, सूक्ष्म, सुखप्रिया, गुणनिका ( माला की दाना ) दीक्षा स्वरूपा तथा सूक्ष्म रूप वाली हैं ऐसी हे कन्दवासिनि शिवे ! मेरी मन्दता को विनष्ट कीजिए और शिर की रक्षा कीजिए ।। ३९-४० ।।

कुण्डलिनी स्तोत्र अथवा कन्दवासिनी स्तोत्र फलश्रुति

एतत्स्तोत्रं पठित्वा त्रिभुवनपवनं पावनं लौकिकानाम् ।

राजा स्यात् किल्विषाग्निः क्रतुपतिरिह यः क्षेमदं योगिनां वा ॥ ४१ ॥

सर्वेशः सर्वकर्ता भवति निजगृहे योगयोगाङ्गवक्ता ।

शाक्त: शैवः स एकः परमपुरुषगो निर्मलात्मा महात्मा ॥ ४२ ॥

समस्त लौकिक जनों को तथा त्रिलोकी को पवित्र करने वाले इस स्तोत्र को पढ़कर साधक राजा बन जाता है । पापों को नष्ट कर अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है और क्रतुओं का पति तथा योगियों का कल्याणकर्ता हो जाता है। वह सर्वेश, सर्वकर्ता हो जाता है। अपने घर पर योग एवं योगाङ्ग का उपदेष्टा होता है। वह अकेला शक्ति का उपासक एवं शिव का उपासक होकर परम पुरुष को प्राप्त करने वाला निर्मलात्मा महात्मा बन जाता है ।। ४१-४२ ॥

प्रणवेन पुटितं कृत्वा यः स्तौति नियतः शुचिः ।

स भवेत् कुण्डलीपुत्रो भूतले नात्र संशयः ॥ ४३ ॥

जो प्रणव से सम्पुटित कर पवित्रतापूर्वक नियम से इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह पृथ्वी में कुण्डलिनी का पुत्र हो जाता है, इसमें संशय नहीं ।। ४३ ।।

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने मूलचक्रसारसङ्केते भैरव भैरवीसंवादे कन्दवासिनीस्तोत्रं नाम द्वात्रिंशः पटलः ॥ ३२ ॥

॥ श्री रुद्रयामल के उत्तरतन्त्र के महातन्त्रोद्दीपन के मूलचक्रसारसङ्केत में भैरवीभैरव संवाद में कन्दवासिनीस्तोत्र नामक बत्तीसवें पटल की डॉ सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३२ ॥

आगे जारी............ रूद्रयामल तन्त्र पटल ३३

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