योगिनीस्तोत्रसार
रुद्रयामल तंत्र पटल ३१ में भेदिनी स्तोत्र
इसके बाद छेदिनी स्तोत्र का वर्णन है। इसके बाद योगिनीस्तोत्रसार का वर्णन है
(३६-४५)। इस स्तोत्र के पाठ से साधक शिव का भक्त हो जाता है। वह मूलाधार चक्र में
स्थिर होने के बाद षट्चक्र में विचरण करता हुआ स्वराज्य प्राप्त करता है ।
रुद्रयामल तंत्र पटल ३१
Rudrayamal Tantra Patal 31
रुद्रयामल तंत्र इकतीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र एकत्रिंश: पटल:
योगिनीस्तोत्रसार
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथैकत्रिंशः पटल:
शृणुष्व परमानन्द रससागरसम्भव ॥ ३६
॥
योगिनीस्तोत्रसारं च
श्रवणाद्धारणाद् यतिः ।
अप्रकाश्यमिदं रत्नं
नृणामिष्टफलप्रदम् ॥ ३७ ॥
यस्य विज्ञानमात्रेण शिवो भवति
साधकः ॥ ३८ ॥
अब हे परमानन्द ! हे रस सागर ! संभव
! अब योगिनी स्तोत्र सार को सुनिए,जिसके
श्रवण से एवं धारण से साधक योगी बन जाता है। यह मनुष्य को अभीष्ट प्रदान करता है,
किन्तु इसे रत्न के समान गोपनीय रखना चाहिए। इसके ज्ञान मात्र से
साधक साक्षात् शिव हो जाता है ।। ३६-३८ ।।
कङ्काली कुलपण्डिता कुलकला कालानला
श्यामला
योगेन्द्रेन्द्रसुराज्यनाथयजिताऽन्या
योगिनीं मोक्षदा ।
मामेकं कुजडं सुखास्तमधनं हीनं च
दीनं खलं
यद्येवं परिपालनं करोषि नियतं त्वं
त्राहि तामाश्रये ॥ ३९ ॥
जो कङ्काली,
कुलमार्ग की पण्डिता, कुल की कला, कालाग्निस्वरूपा एवं श्याम वर्णा हैं। जो योगेन्द्रों से, इन्द्र से तथा श्रेष्ठ श्रेष्ठ देवताओं से यजन
की जाती हैं, सबसे विलक्षण हैं, योगिनी
तथा मोक्षदायिनी हैं, ऐसी योगिनी भगवती सुख रहित, निर्धन, हीन, दीन, खल तथा अत्यन्त कुत्सित एवं जड़ मात्र मेरा यदि पालन करती रहें तो निश्चय
ही मेरी रक्षा भी करें। अतः मैं उनका आश्रय ग्रहण करता हूँ ॥ ३९ ॥
यज्ञेशी शशिशेखरा स्वमपरा हेरम्बयोगास्पदा
दात्री दानपरा
हराहरिहराऽघोरामराशङ्करा ।
भद्रे बुद्धिविहीन देहजडितं
पूजाजपावर्जितं
मामेकार्थमकिञ्चनं यदि सरत्त्वं
योगिनी रक्षसि ॥ ४० ॥
जो यज्ञ की अधीश्वरी हैं,
अपने ललाट में चन्द्रमा को धारण करती हैं, जो स्वकीय हैं तथा अपरा भी हैं, गणेश से युक्त रहने
वाली हैं, भोग मोक्ष की दानपरायण होने के कारण दात्री हैं,
सब कुछ हरण करने वाली हैं, हरिहर स्वरूपा,
सर्वथा निष्पाप, अमरा तथा कल्याणकारिणी हैं,
इस प्रकार की हे भद्रे योगिनी देवी ! बुद्धिरहित, जड़ देह वाले, पूजा तथा जप से वर्जित, मुझ अकिञ्चन अर्भक की यदि रक्षा करती हो तो आप ही सर्वश्रेष्ठ हो ॥ ४० ॥
भाव्या भावनतत्परस्य करणा सा चारणा
योगिनी
चन्द्रस्था निजनाथदेहसुगता
मन्दारमालावृता ।
योगेशी कुलयोगिनी त्वममरा
धाराधराच्छादिनी
योगेन्द्रोत्सवरागयागजडिता या
मातृसिद्धिस्थिता ॥ ४१ ॥
जो भाव्या हैं,
भावना में तत्पर साधक की करणा ( असाधारण कारण) हैं, अरणा तथा योगिनी हैं, चन्द्रमा में तो निवास करती ही
हैं, अपने नाथ महेश्वर के देह में भी विराजने वाली हैं,
मन्दार माला से आवृत्त हैं, योगेशी कुल योगिनी
हैं, धाराधर बादल पर सवार होकर उसे आच्छादित करने वाली हैं।
हे देवी योगिनी ! आप इस प्रकार की अमरा (देवता) हो जो योगेन्द्रों के उत्सव राग
तथा याग से जटित है तथा मातृ रूप से सिद्धि प्रदान करती हैं ॥। ४१ ।।
त्वं मां पाहि परेश्वरी सुरतरी
श्रीभास्करी योगगं
मायापाशविबन्धनं तव
कथालापामृतावर्जितम् ।
नानाधर्मविवर्जितं कलिकुले संव्याकुलालक्षणं
मय्येके यदि दृष्टिपातकमला तत्
केवलं मे बलम् ॥ ४२ ॥
मायामयी हदि यदा मम चित्तलग्नं
राज्यं तदा किमु फलं फलसाधनं वा ।
इत्याशया भगवती मम शक्तिदेवी
भाति प्रिये श्रुतिदले मुखरार्पणं
ते ॥ ४३ ॥
हे परमेश्वरी ! हे सर्वश्रेष्ठ देवी
! हे श्री भास्करी ! योग में गमन करने वाले, किन्तु
मायापाश से बँधे हुए, आपकी कथा एवं वार्ता से वर्जित,
किसी भी प्रकार के धर्म से वर्जित, कलिकाल से
व्याकुल तथा सभी प्रकार के अलक्षणों से युक्त रहने वाले मुझ में आपकी दृष्टि के
पात रूप कमल का ही एकमात्र बल है। यदि मायामयी भगवती योगिनी में मेरा चित्त लग गया
तो राज्य से क्या, कर्म के फल से क्या तथा फल के लिए साधना
का क्या फल है? अर्थात् कुछ भी नहीं। इस प्रकार की आशा करने
वाले मुझ साधक की शक्ति देवी हैं, इष्ट देवी हैं, मुझे यही अच्छा भी लगता है, श्रुतियाँ तो मुखर हैं
।। ४२-४३ ॥
या योगिनी सकलयोगसुमन्त्रणाढ्या
देवी महद्गुणमय करुणानिधाना ।
सा मे भयं हरतु वारणमत्तचित्ता
संहारिणी भवतु सोदरवक्षहारा ॥ ४४ ॥
सम्पूर्ण योग में सुन्दर मन्त्रणा
देने वाली, महान् गुणों वाली, करुणा की निधान, वह योगिनी देवी जिनका चित्त वारण
(हाथी) के समान मदमत्त है और जो अपने उदर तथा वक्षःस्थल पर हार धारण करने वाली हैं
ऐसी योगिनी देवी मेरा भय दूर करें तथा भय का संहार करने वाली होवें ॥ ४४ ॥
योगिनीस्तोत्रसार फलश्रुति
यदि पठति मनोज्ञो गोरसामीश्वरं यो
वशयति रिपुवर्गं क्रोधपुञ्ज विहन्ति
।
भुवनपवनभक्षो भावुकः स्यात् सुसङ्गी
रतिपतिगुणतुल्यो रामचन्द्रो यथेशः ॥
४५ ॥
जो वाणी की अधीश्वरी योगिनी के इस
स्तोत्र का पाठ मन लगाकर करता है, वह अपने
शत्रुओं को वश में कर लेता है तथा शत्रुवर्ग के क्रोधपुञ्ज को विनष्ट कर देता है ।
समस्त भुवनरूपी पवन का भक्षण कर लेता है, भावुक हो जाता है,
सत्सङ्गति करता है तथा कामदेव के समान गुणवान् एवं रामचन्द्र
के समान ईश्वर बन जाता है ।। ४५ ।।
एतत्स्तोत्रं पठेद्यस्तु स भक्तो
भवति प्रियः ।
मूलपद्मे स्थिरो भूत्वा षट्चक्रे
राज्यमाप्नुयात् ॥ ४६ ॥
जो इस स्तोत्र का पाठ करता है,
वह मेरा प्रिय भक्त बन जाता है तथा मूलाधार चक्र में स्थिर होने के
बाद षट्चक्र में विचरण करता हुआ स्वराज्य प्राप्त कर लेता है ।। ४६ ।।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने षट्चक्रप्रकाशे सिद्धिमन्त्रप्रकरणे भैरव भैरवीसंवादे योगिनीस्तोत्रसारं
नाम एकत्रिंशः पटलः ॥ ३१ ॥
॥ श्री रुद्रयामल के उत्तरतन्त्र
में महातन्त्रोद्दीपन के षट्चक्र प्रकाश में सिद्धिमन्त्र प्रकरण में भैरवभैरवी
संवाद में इक्तीसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३१
॥
शेष जारी............ रूद्रयामल तन्त्र पटल ३२
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