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कर्मकाण्ड

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रुद्रयामल तंत्र पटल २९

रुद्रयामल तंत्र पटल २९                      

रुद्रयामल तंत्र पटल २९ में पुन: षट्चक्र भेदन कहा गया है। षट्‌ चक्र का ज्ञाता साधक सर्वशास्त्रार्थ का ज्ञाता होता है। मूल पद्म के चार दलों पर व श ष स वर्ण होते है। (१) श्रेष्ठभाव से साधन के योग्य, नारायण स्वरूप भावना के योग्य, पञ्च स्थान से उच्चरित होने वाले, तेजोमय आद्याक्षर वकार का ध्यान करना चाहिए । (२) सुवर्णाचल के समान प्रभा वाले, गौरीपति को श्री सम्पन्न करने वाले, पुराणपुरुष लक्ष्मीप्रिय, सुवर्णं वर्ण से वेष्टित शकार का प्रसन्नता से सर्वदा कमल के दक्षिण पत्र पर ध्यान करना चाहिए। (३) ईश्वरी के षष्ठ गुणों के अवतंस षट्पद संभेदन करने वाले हेमाचल के समान वर्णं वाले ष वर्ण का ध्यान तृतीय पत्र पर करे। (४) माया तथा महामोह का विनाश करने वाले घननाथ मन्दिर में विराजमान जय प्रदान करने वाले सकार का चतुर्थं पत्र पर ध्यान करे। फिर इसके बाद इन चार वर्णो का क्रमशः ध्यान तथा स्वयम्भूलिङ्ग का ध्यान और उन्हे घेरे हए सर्प के समान कुण्डलिनी का ध्यान वर्णित है (१२-२०) । फिर सुषुम्ना, वज्र, चित्रिणी, ब्रह्म आदि नाडियों का विवेचन है। अन्त में योगियों द्वारा महालय में मन को लीन करना विवेचित है जिसे महाप्रलय" के नाम से जाना जाता है।

रुद्रयामल तंत्र पटल २९

रुद्रयामल तंत्र पटल २९                      

Rudrayamal Tantra Patal 29

रुद्रयामल तंत्र उन्तीसवाँ पटल 

रुद्रयामल तंत्र एकोनत्रिंश: पटल:

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथैकोनत्रिंशः पटल:

आनन्दभैरवी उवाच

अथ षट्चक्रयोगं च प्रवक्ष्यामीह तत्त्वतः ।

कुण्डलीयोगविविधं कृत्वा योगी भवेन्नरः ॥ १ ॥

मूलादिब्रह्मरन्ध्रान्तं षट्चक्रभेदनं मतम् ।

षट्चक्रे योगशास्त्राणि विविधानि वसन्ति हि ॥ २ ॥

यो जानातीह षट्चक्रं सर्वशास्त्रार्थविद्भवेत् ।

चतुर्द्दलं मूलपद्यं वादिसान्तार्णसम्भवम् ॥ ३ ॥

आनन्दभैरवी ने कहाहे महाभैरव ! अब षट्चक्र योगों को कहती हूँ क्योंकि कुण्डलिनी योग के अनेक प्रकार हैं जिनके करने से साधक योगी बन जाता है। मूलाधार से प्रारम्भ कर ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त षट्चक्रों का भेदन करना चाहिए। इन षट्चक्रों में अनेक प्रकार के योग शास्त्रों का निवास है। जो इन षट्चक्रों का स्वरूप जानता है, वह सर्वशास्त्रार्थ वेत्ता हो जाता है। मूलाधार में रहने वाला पद्म चार दलों का है जिस पर व श ष स ये चार वर्ण हैं ।। १-३ ।।

हिरण्यवर्णममलं ध्यायेद्योगी पुनः पुनः ।

निर्जने विपिने शून्ये पशुपक्षिगणावृते ॥ ४ ॥

निर्भये सुन्दरे देशे दुर्भिक्षादिविवर्जिते ।

कृत्वा दृढासनं मन्त्री योगमार्गपरो भवेत् ॥ ५ ॥

योगी हिरण्य वर्ण के उन शुभ वर्णों का पुनः पुनः ध्यान करे। निर्जन में, वन में, शून्य स्थान में, पशुपक्षि गणों से घिरे हुए स्थान में, निर्भय अथवा सुन्दर प्रदेश में जहाँ दुर्भिक्षादि का भय न हो इस प्रकार के स्थान में दृढ़ता पूर्वक आसन लगाकर मन्त्रज्ञ साधक योग मार्ग में लग जावे ।। ४-५ ।।

तदा योगी भवेत् क्षिप्रं मम शास्त्रानुसारतः ।

पूर्वदले वकारं च ध्यायेद्योगी सदा सुखी ॥ ६ ॥

सुवर्णवर्णं हितकारिणं नृणां सत्वोद्भवं पूर्वदलस्थितं सुखम् ।

मत्तप्रियं वारणमत्तमन्दिरं मन्त्रार्थकं शीतलरूपधारिणम् ॥ ७ ॥

ऐसा करने से मेरे शास्त्र के अनुसार वह शीघ्र ही योगी बन जाता है । सर्वप्रथम पूर्वदिशा वाले दल पर सुखपूर्वक साधक को 'वकार' (१) का ध्यान करना चाहिए । इस गुण वकार का वर्ण सोने के समान है, वह मनुष्यों का हितकारी है सत्त्व गुण से उत्पन्न हुआ है तथा पूर्व वाले दल पर सुखपूर्वक निवास करता है। वह मत्तों का प्रिय तथा मदमस्त हाथियों के निवास का मन्दिर है । समस्त मन्त्रों के अर्थों से युक्त शीतल रूप वकार का ध्यान करना चाहिए ।। ६-७ ॥

योगानुभावाश्रयकालमन्दिरं तेजोमयं सिद्धिसमृद्धिदं गुरुम् ।

आद्याक्षरं वं वरभावसाधनं नारायणं भावनपञ्चमच्युतम् ॥ ८ ॥

वकार का ध्यान जो योगानुभाव के आश्रय का समयोचित मन्दिर है, तेजोमय, सिद्धि तथा समृद्धि प्रदान करने वाला, गुरु, आद्याक्षर श्रेष्ठ भाव से साधन योग्य है ऐसे नारायण स्वरूप भावना के योग्य (१. कण्ठ, २. तालु, ३. मूर्धा, ४. दन्त तथा ५ ओष्ठ ) स्थान से उच्चरित होने वाले वकार का ध्यान करना चाहिए ॥ ८ ॥

ध्यायेत् शकारं कनकाचलप्रभं गौरीपतेः श्रीकरणं पुराणम् ।

लक्ष्मीप्रियं सर्वसुवर्णवेष्टितं सदा मुदा दक्षिणपत्रमुत्तमम् ॥ ९ ॥

शकार का ध्यान इसके बाद कमल के दक्षिण पत्र पर उत्तम रूप से विराजमान सुवर्णाचल के समान प्रभा वाले गौरीपति को श्री सम्पन्न करने वाले पुराण, लक्ष्मी प्रिय, सुवर्ण वर्ण से वेष्टित 'शकार' (२) का प्रसन्नतापूर्वक सर्वदा ध्यान करना चाहिए ॥ ९ ॥

शमीश्वरीषष्ठगुणावतंसं षट्पद्मसम्भेदनकारकं परम् ।

परापरस्थाननिवासिनं गुणं हेमाचलं पत्रमहं भजामि ॥ १० ॥

इसके बाद ईश्वरी के षष्ठ गुणों का अवतंस षट् पद्म संभेदन करने वाले, परात्पर स्थान में निवास करने वाले, गुणों से युक्त हेमाचल के समान वर्ण वाले '' (३) वर्ण से युक्त पत्र को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १० ॥

सकारमानन्दरसं प्रियं प्रियं ध्याये महाहाटकपर्वताग्रकम् ।

ध्याये मुदाहं घननाथमन्दिरे मायामहामोहविनाशनं जयम् ॥ ११ ॥

इसके बाद आनन्द रस वाले, प्रिय से भी प्रिय महान् सुर्वण पर्वत के अग्रभाग के समान देदीप्यमान, घननाथ मन्दिर में विराजमान, माया तथा महामोह का विनाश करने वाले जय प्रदान करने वाले 'सकार' (४) का मैं आनन्दपूर्वक ध्यान करता हूँ ।। ११ ।।

चतुर्भुजं भुजयुगं अष्टादशभुजं तथा ।

अष्टहस्तं सदा ध्यायेन्मन्त्री भावविशुद्धये ॥ १२ ॥

ततो ध्यायेत् कर्णिकायां मध्यदेशे मनोरमम् ।

स्वयम्भूलिङ्गपरमं योगिनां योगसिद्धिदम् ॥ १३ ॥

इस प्रकार चार पत्रों पर स्थित चार वर्णों का क्रमशः चारभुजा से युक्त, दो भुजा से युक्त, अष्टादश भुजा से युक्त तथा आठ हाथों से युक्त उन-उन वर्णों का भाव विशुद्धि के लिए मन्त्रज्ञ साधक ध्यान करे। इसके बाद कर्णिका के मध्य देश में स्थित अत्यन्त मनोरम योगियों को सिद्धि प्रदान करने वाले परम स्वयम्भू लिङ्ग का ध्यान करे ।। १२-१३ ।।

प्रातः सूर्यसमप्रख्यं तडित्कोटिसमप्रभम् ।

तं संवेष्ट्य महादेवी कुण्डली योगदायिनी ॥ १४ ॥

सार्धत्रिवेष्टनग्रन्थियुता सा मुक्तिदायिनी ।

निद्रिता सा सदा भद्रा महापातकघातिनी ॥ १५ ॥

प्रातः कालीन सूर्य के समान अरुण वर्ण करोड़ों तडित्पुञ्ज प्रभा वाले उन स्वयंभू लिङ्ग को परिवेष्टित कर योगदायिनी कुण्डली देवी स्थित हैं। वह उन स्वयंभूलिङ्ग को साढ़े तीन बार घेर कर ग्रन्थि से उन्हें बाँधी हुई हैं, मुक्ति देती हैं, किन्तु निद्रित रहती हैं, सदा उपासकों का कल्याण करती हैं तथा महापातकों का नाश भी करती हैं ।। १४-१५ ।।

निरन्तरं तस्य शीर्षे विभाति शशधारिणी ।

तच्छ्वासधारिणी नित्या जगतां प्राणधारिणी ॥ १६ ॥

सुप्ता सर्पसमा भ्रान्तिः यथार्कशतकोटयः ।

यदा लिङ्गं सा विहाय 'प्राक्तिष्ठति महापथे ॥ १७ ॥

तदा सिद्धो भवेद्योगी ध्यानधारणकृत् शुचिः ।

सदानन्दमयो नित्यश्चैतन्यकुण्डली यदा ॥ १८ ॥

उस स्वयंभू लिङ्ग के शिर पर निरन्तर वह चन्द्रकला के रूप में विराजती रहती हैं उस शिवलिङ्ग से निर्गत श्वास धारण करती हैं, नित्या हैं तथा वही समस्त जगत् के प्राणों को धारण करती हैं। वह कुण्डलिनी साँप के समान हैं, सोई रहती है तथा सैकड़ो करोड़ सूर्य के समान कान्तिमती हैं। जब लिङ्ग छोड़कर वह महापथ में ऊपर की ओर गमन करती है, उस समय साधक सिद्ध योगी बन जाता ध्यान तथा धारणा करने लगता है, पवित्र हो जाता है जब उसकी कुण्डलिनी सचेतनावस्था में जागने लगती है तब साधक, सदानन्दमय तथा नित्य हो जाता है ।। १६-१८ ।।

सुषुम्ना नाडिकामध्ये महासूक्ष्मविले स्थितः ।

मनो निधाय यो योगी श्वासमार्गपरो भवेत् ॥ १९ ॥

तदा सा द्रवति क्षिप्रं चैतन्या कुण्डली परा ।

जो योगी सुषुम्ना नाड़िका के मध्य में रहने वाले महासूक्ष्म बिल में स्थिर होकर अपने मन को धारण करता है, तब योगी में श्वास ग्रहण की योग्यता आ जाती है। इस प्रकार सुषुम्ना मध्य स्थित सूक्ष्म बिल में साधक का मन जब प्रविष्ट हो जाता है तब परा कुण्डलिनी शीघ्र ही द्रवीभूत होकर चैतन्य होने लगती है ।। १९-२० ॥

पृष्ठदेशे महादण्डे मेरुमूले महाप्रभे ॥ २० ॥

मूलादिब्रह्मरन्ध्राः सदास्थिरूपधारकः ।

कनकाचलनाम्ना च प्रतिभाति जगत्त्रये ॥ २१ ॥

तन्मध्ये परमा सूक्ष्मा सुषुम्ना बहुरूपिणी ।

मनोमुनिस्वरूपा च मनश्चैतन्यकारिणी ॥ २२ ॥

मनुष्यों के पृष्ठदेश में एक महादण्ड है, जो महाप्रभावान् मेरु का मूल कहा जाता है। वह मूलाधार से ब्रह्मरन्ध पर्यन्त अस्थि रूप में विराजमान है। तीनों जगत् में उसे सुवर्णाचल नाम से पुकारा जाता है। उस मेरुदण्ड के मध्य भाग में अत्यन्त सूक्ष्म बहुरूपा सुषुम्ना नाड़ी है, जो मनो मुनिस्वरूपा है तथा मन को चेतना प्रदान करती रहती है ।। २०-२२ ॥

तन्मध्ये भाति वज्राख्या घोरपातकनाशिनी ।

सिद्धिदाभावविज्ञानां मोक्षदा कुलरूपिणाम् ॥ २३ ॥

तन्मध्ये चित्रिणी देवी देवताप्रीतिवर्द्धिनी ।

हितैषिणी महामाया कालजालविनाशिनी ॥ २४ ॥

उस सुषुम्ना के मध्य में महाघोर पापों को नष्ट करने वाली वज्रा नाम की नाड़ी है, जो भाव विज्ञों को सिद्धि प्रदान करती है तथा शक्ति के उपासकों को मोक्ष प्रदान करती है। उस वज्रा नामक नाड़ी के मध्य में चित्रिणी देवी हैं जो देवताओं में प्रीति उत्पन्न करती हैं, सबकी हितैषणी, महामाया तथा कालरूपी जाल को विनष्ट करने वाली है ।। २३-२४ ॥

सा पाति सकलान् चक्रान् पद्मरूपधरान् परान् ।

त्रैलोक्यमण्डलगतान् साक्षादमृतविग्रहान् ॥ २५ ॥

स्वयं दधार सा देवी चित्राख्या चारुतेजसी ।

तले पृष्ठे ऊर्ध्वदेशे शीर्षे वक्षसि नाभिषु ॥ २६ ॥

कण्ठकूपे चक्रमध्ये ब्रह्माण्डं पाति सर्वदा ।

शरीरात्मकमीशार्थं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ २७ ॥

वह कमल रूप धारण करने वाले, त्रैलोक्य मण्डल में स्थित, साक्षात् अमृत का शरीर धारण करने वाले समस्त षट्चक्रों का पालन करती है। उत्तम तेज वाली उस चित्रा नाम की नाड़ी ने ही उन षट्चक्रों को धारण किया है, वही दोनों तलवे, पृष्ठभाग, शीर्षस्थान, वक्ष:-स्थल, नाभि प्रदेश, कण्ठकूप तथा चक्र के मध्य में रहकर समस्त ब्रह्माण्ड का पालन करती हैं । किं बहुना वही शरीरात्मक सचराचर त्रैलोक्य की ईश्वरी है ।। २५-२७ ।।

चित्रासुग्रथनं पद्यं योऽवभाव्यति भावकः ।

भावेन लभ्यते योगं भावेन भाव्यते शिवः ॥ २८ ॥

भावेन शक्तिमाप्नोति तस्माद्भावं समाश्रयेत् ।

षट्चक्रभावनां कृत्वा महायोगी भवेन्नरः ॥ २९ ॥

अतः साधना करने वाला भावक उस चित्रा में अच्छी तरह गूँथे गए पद्म की भावना करता है । क्योंकि भाव से योग की प्राप्ति होती है भाव से ही अपना शिव भावित होता है। यतः भाव से ही शक्ति की प्राप्ति होती है, इसलिए भाव का आश्रय लेना चाहिए । षट्चक्रों में भावना करने से मनुष्य महायोगी हो जाता है ।। २८-२९ ॥

सर्वधर्मान्वितो भूत्वा राजते क्षितिमण्डले ।

सर्वत्रगामी स भवेत् यदि पद्ये मनोलयम् ॥ ३० ॥

पद्मभावनमात्रेण आकाशसदृशो भवेत् ।

महापद्मे मनो दत्वा महाभक्तो भवेद्ध्रुवम् ॥ ३१ ॥

षट्चक्रों की भावना से सभी धर्मों से युक्त हुआ पुरुष पृथ्वीतल पर शोभा प्राप्त करता है, इस प्रकार यदि षटचक्र पद्मों में मन लीन हो जावे तो साधक सर्वत्र गमन करता है, इस प्रकार यदि षट्चक्र पद्मों में मन लीन हो जावे तो साधक सर्वत्र गमन करने वाला हो जाता है । षट्चक्र रूप पद्म में भावना मात्र से साधक आकाश के सदृश हो जाता है। महापद्म स्वरूप षट्चक्रों में मन लगाने से साधक निश्चय ही महाभक्त हो जाता है ।। ३०-३१ ॥

यदि भक्तो भवेन्नाथ तदा मुक्तो न संशयः ।

यदि मुक्तो महीमध्ये ध्यानयोगपरायणः ॥ ३२ ॥

तदा कालपरां ज्ञात्वा सर्वदर्शी च सर्ववित् ।

सर्वज्ञः सर्वतोभद्रो भवतीति न संशयः ॥ ३३ ॥

हे नाथ ! यदि महाभक्त हो जाता है तो वह मुक्त भी हो जाता है इसमें संशय नहीं यदि पृथ्वी पर रहकर ही ध्यान योग परायण साधक मुक्त हो जाता है तो वह काल से परे कुण्डलिनी का ज्ञान कर सर्वदर्शी, सर्ववेत्ता, सर्वज्ञ तथा सर्वतो भावेन कल्याणकारी हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥। ३२-३३ ।।

चित्रिणी मध्यदेशे च ब्रह्मनाडी महाप्रभा ।

सर्वसिद्धिप्रदा नित्या सा देवी सकला कला ॥ ३४ ॥

व्योमरूपा भगवती सर्वचैतन्यरूपिणी ।

एकरूपं परं ब्रह्म ब्रह्मातीतं जगत्त्रयम् ॥ ३५ ॥

इस चित्रिणी के मध्य प्रदेश में अत्यन्त दीप्त रहने वाली ब्रह्मनाड़ी है। वह देवी सभी प्रकार की सिद्धि देने वाली, नित्या सकला तथा अकला है। वही भगवती व्योमरूपा है, सर्व चैतन्यरूपिणी है, एक रूप परब्रह्म है, यह सारा जगत् उस महा ब्रह्म से अतीत है ।। ३४-३५ ।।

यदा जगत्त्रयं ब्रह्म तदा सत्त्वालयं प्रभो ।

महालये मनो दत्वा सर्वकालजयो भवेत् ॥ ३६ ॥

मृत्युञ्जयो महावीरो महाच्छत्रो महागतिः ।

सर्वव्यापकरूपेण ईश्वरत्वेन भाषते ॥ ३७ ॥

हे प्रभो ! जिसके मत में जगत्त्रय ही ब्रह्म है, तो यह सत्त्व का आलय है। अतः महा लय में मन लगाने से साधक सर्वकाल पर विजय प्राप्त करने वाला हो जाता है। वह मृत्युञ्जय है, महावीर है, महाच्छत्र है, महागति है तथा सर्वव्यापक रूपेण वही ईश्वर पद से वाच्य होता है ।। ३६-३७ ।।

सर्वदा मन्त्रसम्भूतो विशालाक्षः प्रसन्नधीः ।

एकस्थानस्थितो याति नक्षत्रं स हि शङ्कर ॥ ३८ ॥

एकदृष्टिः क्षुधातृष्णारहितो वाक्यवर्जितः ।

निराकारे मनो दद्यात्तदा महानयं प्रभो ॥ ३९ ॥

हे शङ्कर ! वह सर्वदा मन्त्र संभूत, विशालाक्ष तथा प्रसन्न बुद्धि वाला रहता है, वह एक स्थान पर स्थित हो कर कभी विनष्ट नहीं होता। वह सर्वत्र एक दृष्टि से देखता है, क्षुधा एवं तृष्णा से रहित तथा मौन रहता है। हे प्रभो ! इसलिए निराकार में मन लगाना चाहिए तभी वह महान् बन जाता है ।। ३८-३९ ॥

किन्तु नाथाज्ञानिनां हि नापि नापि महालयः ।

महाप्रलय एवं हि योगिनां नात्र संशयः ॥ ४० ॥

यदा मनोयोग विशुद्धये मनोलयं यः कुरुतेऽप्यहर्निशम् ।

स एव मोक्षो गुणसिन्धुरूपी कालाग्निरूपी निजदैवदैवतः ॥ ४१ ॥

किन्तु हे नाथ ! अज्ञानी लोगों का उसमें महा लय नहीं होता, नहीं होता, योगियों का महा लय में मन को लीन करना ही महालय है, इसमें संशय नहीं। जब जो साधक अपने मनोयोग की शुद्धि के लिए दिन रात अपना मन उस परब्रह्म में लीन करता है तब वही मोक्ष है, वही गुण सिन्धुरूपी एवं कालाग्निरूपी तथा निजदेव का देवता है ।। ४०-४१ ।।

महामनोयोग विकारवर्जितः

कामक्रिया काण्डविशुद्धमण्डितः ।

हितो गतीनां मतिमान्निरस्तो

महालयस्थोऽमर एव भक्तः ॥ ४२ ॥

महालय में रहने वाला साधक अमर है, भक्त है, वह महा मनोयोग के विकार से वर्जित रहता है। वह काम तथा क्रिया काण्ड में विशुद्ध रूप से मण्डित रहता है। वह सभी गतियों का हितकारी एवं मतिमान् होता है तथा आसक्ति से दूर रहता है ।। ४२ ।।

मानी विचारार्थविवेकचित्तर-

चातुर्य चित्तोल्बणताविवर्जितः ।

योगी भवेत्साधक चक्रवर्ती

व्योमाम्बुजे चित्तविसर्जनं सदा ॥ ४३ ॥

वही मानी है, विचार करने वाला है, विवेक युक्त चित्त वाला, चातुर्य युक्त चित्त वाला एवं उल्बणता से विवर्जित है। इस प्रकार जो व्योमाम्बुज में अपने चित्त का विसर्जन कर देता है, वही साधक चक्रवर्ती है ॥ ४३ ॥

इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने षट्चक्र प्रकाशे भैरवीभैरवसंवादे महाप्रलयनामा एकोनत्रिंशः पटलः॥२९॥

॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र में महातन्त्रोद्दीपन में षट्चक्रप्रकाश में भैरवी-भैरव संवाद के महाप्रलय नामक उन्तीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २९ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ३०

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