कुण्डलिनीस्तवः
कुण्डलिनीस्तवः या कुण्डलिनी स्तोत्र अथवा कन्दवासिनि स्तोत्र
आनन्दभैरव
उवाच
षट्चक्रभेदनकथां कथयस्व वरानने ॥
२८-७१॥
हिताय सर्वजन्तूनां हिरण्यवर्णमण्डितम्
।
प्रकाशयस्व वरदे योगानामुदयं वद ॥
२८-७२॥
आनन्दभैरव
ने कहा -हे वरानने ! अब आप सभी प्राणियों के हित के लिए षट्चकों के भेदन की क्रिया
को कहिए। हे वरदे ! हिरण्यवर्ण से मण्डित उन षट्चकों को प्रकाशित कीजिए तथा जिससे
योगों का उदय होता है उसे भी कहिए ।
येन योगेन धीराणां हितार्थं
वाञ्छितं मया ।
कालक्रमेण सिद्धिः स्यात्
कालजालविनाशनात् ॥ २८-७३॥
कालक्षालनहेतोश्च पुनरुद्यापनं
कृतम् ।
जिस योग से मैं धीर पुरुषों का हित
चाहता हूँ तथा उनके काल जाल के विनाश के द्वारा कालक्रम से उनको सिद्धि भी मिले,
उसे कहिए । काल के प्रक्षालन के लिए ही मैने इस प्रकार के उद्यापन
का आरम्भ किया है।
आनन्दभैरवी उवाच
आदौ कुर्यात् परानन्दं
रससागरसम्भवम् ॥ २८-७४॥
मान्द्यं मन्दगुणोपेतं श्रृणु
तत्क्रममुत्तमम् ।
स्तोत्रं कुर्यात् मूलपद्मे
कुण्डलिन्याः पुरष्क्रियाम् ॥ २८-७५॥
आनन्दभैरवी ने कहा -हे शङ्कर
! साधक सर्वप्रथम रस सागर से उत्पन्न एवं मन्दगुण से युक्त परानन्द प्राप्ति का
प्रयत्न करे । अतः उसका उत्तम क्रम सुनिए । मूलपद्म में रहने वाली कुण्डलिनी का
पुरश्चरण करे तथा उसका स्तोत्र पढ़े ।
पुरश्चरणकाले तु जपान्ते
नित्यकर्मणि ।
काम्यकर्मणि धर्मेषु तथैव
धर्मकर्मसु ॥ २८-७६॥
गुर्वाद्यगुरुनित्येषु भक्तिमाकृत्य
सम्पठेत् ।
इस स्तोत्र का पाठ साधक पुरश्चरण
काल में,
जप के अन्त में, नित्य कर्म के पश्चात्,
काम्य कर्म में, धर्म में तथा धर्म कार्य में
करे । इस स्तोत्र का पाठ गुरु, आद्यगुरु तथा नित्यगुरु का
भक्तिपूर्वक ध्यान कर करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है-
ॐ नमो गुरवे ॐ नमो
गुर्वम्बपरदेवतायै ॥ २८-७७॥
सर्वधर्मस्वरूपायै
सर्वज्ञानस्वरूपायै ।
ॐ भवविभवायै ॐ दक्षयज्ञविनाशिन्यै ॥
२८-७८॥
ॐ भद्रकाल्यै ॐ कपालिन्यै ॐ उमायै ॐ
माहेश्वर्यै
ॐ सर्वसङ्कटतारिण्यै ॐ महादेव्यै
नमो नमः ॥ २८-७९॥
ॐ गुरु के लिए नमस्कार है । ॐ अम्ब
परदेवता स्वरूपा गुरु के लिए नमस्कार है । ॐ सर्व धर्मस्वरूप वाली,
सर्वज्ञान स्वरूप वाली, ॐ भव विभव स्वरूपा,
ॐ दक्षयज्ञ विनाशिका, ॐ भद्रकाली, ॐ कपालिनी, ॐ उमा, ॐ माहेश्वरी,
ॐ सर्वसङ्कटतारिणी और ॐ महादेवी के लिए नमस्कार है, पुनः नमस्कार है ।
कुण्डलिनी स्तोत्र अथवा कन्दवासिनि स्तोत्र
ॐ या माया मयदानवक्षयकरी शक्तिः
क्षमा कर्त्तृका
शुम्भश्रीमहिषासुरासुरबलप्रात्रोलचण्डामहा
।
भद्रार्द्रा रुधिरप्रिया प्रियकरी
क्रोधाङ्गरक्तोत्पला
चामुण्डा रणरक्तबीजरजनी ज्योत्स्ना
मुखेन्दीवरा ॥ २८-८०॥
जो माया स्वरूपा है,
मयदानव की संहारकारिणी है, शक्ति तथा क्षमा
करने वाली है, जो शुम्भ एवं महिषासुर तथा समस्त असुर बलों को
समुन्मूलित करने के लिए महाक्रोध से परिपूर्ण हैं, जो सब का
कल्याण करती हैं, सब के ऊपर दया करती हैं, जिन्हें रुधिर प्रिय है, जो सब का प्रिय करने वाली
हैं, जिनके प्रत्येक अङ्ग क्रोध से परिपूर्ण होने पर लाल कमल
के समान शोभित होते हैं, जो रण में रक्त बीज के लिए रजनी के
समान है, चण्डमुण्ड की विनाशिका होने से जो चामुण्डा
है, जिनका मुख कमल सर्वदा देदीप्यमान है उन कुण्डलिनी को
नमस्कार है ।
या जाया जयदायिनी नृगृहिणी
भीत्यापहा भैरवी
नित्या सा परिरक्षणं कुरु शिवा
सारस्वतोत्पत्तये ।
सा मे पातु कलेवरस्य
विषयाह्लादेन्द्रियाणां बलं
वक्षः
स्थायिनमुल्वणोज्ज्वलशिखाकारादिजीवाञ्चिता ॥ २८-८१॥
जो ब्रह्मदेव की जाया है,
जय देने वाली विजया हैं, मनुष्यों के घर में
रहने वाली लक्ष्मी हैं, भयहरण करने वाली भैरवी हैं और
जो सब का कल्याण करने के कारण शिवा है। इस प्रकार की कुण्डलिनी देवी मुझ में
सारस्वत ज्ञान देने के लिए नित्य मेरी रक्षा करें तथा अत्यन्त तेजस्वी शिखाकार जीव
रूप से स्थित वही कुण्डलिनी देवी मेरे शरीर के वक्षःस्थल पर रहने वाले विषयाह्लाद
से इन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले बल की रक्षा करे ।
कृत्वा योगकुलान्वितं स्वभवने
नित्यं मनोरञ्जनं
नित्यं संयमतत्परं परतरे
भक्तिक्रियानिर्मलम् ।
शम्भो रक्षरजोऽपनीशचरणाम्भोजे सदा
भावनं
विद्यार्थप्रियदर्शनं त्रिजगतां
संयम्ययोगी भवेत् ॥ २८-८२॥
हे शम्भो ! अपने घर में नित्य मन को
प्रसन्न करने के लिए योग कुल का अनुष्ठान कर सर्वदा संयम में तत्पर रहने वाले,
परात्पर परमात्मा में भक्ति क्रिया से निर्मल चित्त वाले, मेरे रजो गुण को दूर कर मेरी रक्षा कीजिए । जिससे आपके चरणाम्भोज में मेरी
भावना बनी रहे, क्योंकि तीनों जगत के लिए आपका चरण कमल
विद्या प्राप्ति के लिए प्रियदर्शन है, जिसमें संयम करने से
साधक योगी बन जाता है ।
आकाङ्क्षापरिवर्जितं निजगुरोः
सेवापरं पावनं
प्रेमाह्लादकथाच्युतं
कुटिलताहिंसापमानप्रियम् ।
कालक्षेपण दोषजालरहितं शाक्तं
सुभक्तं पतिं
श्रीशक्तिप्रियवल्लभं
सुरुचिरज्ञानान्तरं मानिनम् ॥ २८-८३॥
हे प्रभो ! मुझे आकांक्षा से
परिवर्जित कीजिए । अपने गुरु की पवित्र सेवा में मेरा मन लगाइए । मेरा मन
आपके प्रेम तथा आलाह्द उत्पन्न करने वाली कथा से कभी विच्युत न हो मुझे कुटिलता
एवं हिंसा करने वालों के द्वारा किए गए अपमान से ग्लानि न हो । आप कालक्षेप रूप
दोष जाल से रहित कीजिए । शक्ति देवी में सुभक्ति प्रदान कर यति तथा श्री शक्ति का प्रेम
पात्र बनाइए जिस प्रकार मेरा अन्तःकरण ज्ञान में सुरुचि पूर्ण रहे ऐसा तथा मुझे
मानी बनाइए ।
मालासूक्ष्म सुसूक्ष्मबद्धनिलयं
सल्लक्षणं साक्षिणं
नानाकारणकारणं ससरणं
साकारब्रह्मार्पणम् ।
नित्या सा जडितं महान्तमखिले
योगासनज्ञानिनं
तं वन्दे पुरुषोत्तमं त्रिजगतामंशार्कहंसं
परम् ॥ २८-८४॥
तीनों जगत् के अंशार्क एवं हंसरूप
उस परमात्मा पुरुषोत्तम की मैं वन्दना करता हूँ, जो सूक्ष्म से सुसूक्ष्म सभी पदार्थों में माला के समान सर्वत्र अनुस्यूत
है, सल्लक्षण से युक्त सबके साक्षी हैं अनेक कारणों के मात्र
अकेले कारण हैं, सर्वत्र गमन करने वाले तथा साकार ब्रह्मरूप
में रहने वाले हैं, जिस अखिल ब्रह्माण्ड नायक में यह नित्य
महाशक्ति महान् रूप से जुड़ी हुई हैं और जो समस्त योगासन के ज्ञाता है ।
मायाङ्के प्रतिभाति
चारुनयानाह्लादैकबीजं विधिं
कल्लोलाविकुलाकुला समतुला
कालाग्निवाहानना ।
हालाहेलन कौलकालकलिका केयूरहारानना
।
सर्वाङ्गा मम पातु पीतवसना
शीघ्रासना वत्सला ॥ २८-८५॥
पीताम्बरालंकृता,
शीघ्रासना वत्स के समान कृपा करने वाली सर्वांगा देवी मेरी रक्षा
करें । जो हालाहल विष से शक्ति स्वरूपा काल की कलिका हैं, केयूर तथा हार से सुमण्डित जिनका मुख है तथा जो अपने मुख में कालाग्नि का
वहन करते हैं जो समानता में अतुलनीय हैं जो भ्रमर समूहों के गुञ्जार से
आकुलित हैं जो सुन्दर नेत्र वाली कुण्डलिनी भगवती माया के अङ्क में शोभा पा रही
हैं । जो समस्त आह्लाद देने वाले पदार्थों की एकमात्र बीज हैं तथा सबकी विधात्री
हैं वे मेरी रक्षा करें ।
सा बालाबलवाहना सुगहना सम्मानना
धारणा
खं खं खं खचराचरा कुलचरा वाचाचरा
वङ्खरा ।
चं चं चं चमरीहरीभगवती गाथागताः
सङ्गतिः
बाहौ मे परिपातु पङ्कजमुखी या
चण्डमुण्डापहा ॥ २८-८६॥
कं कं कं कमलाकला गतिफला
फूत्कारफेरूत्करा
पं पं पं परमा रमा जयगमा व्यासङ्गमा
जङ्गमा ।
तं तं तं तिमिरारुणा सकरुणा मातावला
तारिणी
भं भं भं भयहारिणी प्रियकरी सा मे
भवत्वन्तरा ॥ २८-८७॥
खं खं खं खचरा,
अचरा, कुलचरा, वाचाचरा,
वंखरा, चं चं चं चमरी, हरी,
भगवती, गाथागता, सङ्गति
ऐसी चण्डमुण्डापहा पङ्कजमुखी भगवती मेरे दोनों बाहुओं की रक्षा करें । कं कं कं
कमला, कला, गतिफला, फूत्कारफेरूत्करा, पं पं पं परमा, रमा, जयगमा, व्यासङ्गमा,
जगमा, तं तं तं तिमिरारुणा, सकरुणा, मातावला, तारिणी,
भं भं भं भयहारिणी एवं प्रियकरी कुण्डलिनी देवी मेरी रक्षा करें ।
झं झं झं झरझर्मरीगतिपथस्थाता
रमानन्दितं
मं मं मं मलिनं हि मां हयगतां
हन्त्रीं रिपूणां हि ताम् ।
भक्तानां भयहारिणी रणमुखे शत्रोः
कुलाग्निस्थिता
सा सा सा भवतु प्रभावपटला
दीप्ताङ्घ्रियुग्मोज्ज्वला ॥ २८-८८॥
झं झं झं झर,
झमरी, गतिपथस्थाता, रमानन्दितं,
मं मं में मलिन मेरी रक्षा करें हयगता, रिपूणां
हन्त्री, जो भक्तों का भय हरण करने वाली, शत्रु कुल को भस्म करने के लिए रणभूमि में अग्नि के समान स्थित रहने वाली,
सा सा सा कुण्डलिनी भगवती अपने प्रभाव को प्रदर्शित करें । जिनके
दोनों चरण कमल अत्यन्त उज्ज्वल हैं ।। ८८ ॥
गं गं गं गुरुरूपिणी
गणपतेरानन्दपुञ्जोदया
तारासारसरोरुहारुणकला
कोटिप्रभालोचना ।
नेत्रं पातु(सदा) शिवप्रियपथा
कौट्यायुतार्कप्रभा
तुण्डं मुण्डविभूषणा नरशिरोमाला
विलोला समा ॥ २८-८९॥
गं गं गं गुरु रूपिणी गणपति के लिए
आनन्द पुञ्ज के समान उदय होने वाली ताराओं की सारभूता कमल के समान अरुण कला वाली
करोड़ों विद्युत्प्रभा के समान देदीप्यमान नेत्रों वाली,
शिव के लिए प्रशस्त पथ वाली एवं करोड़ों हजार सूर्य के समान प्रभा
वाली भगवती कुण्डलिनी सर्वदा मेरे नेत्र की रक्षा करें । मुण्डमाला का विभूषण धारण
करने वाली, मनुष्य के शिरों की माला से चञ्चल समदर्शिनी
भगवती मेरे तुण्ड (मुखाग्र भाग ठोड़ी) की रक्षा करें ।
योगेशी शशिशेखरोल्वणकथालापोदया
मानवी
शीर्षं पातु ललाटकर्ण युगलानन्तस्ततः सर्वदा ।
मूर्त्तं मेरुशिखा स्थिता व्यवतु मे
गण्डस्थलं कैवली
तुष्टं चाष्टमषष्टिकाधरतलं धात्री धराधारिणी ॥
२८-९०॥
शशि शेखर भगवान् सदाशिव
उल्वण कथालाप से उदय को प्राप्त होने वाली मानुषी रूपधारिणी कुण्डलिनी मेरे शिर,
ललाट तथा दोनों कानों की अन्तः करण की सर्वदा रक्षा करें । सुमेरु
पर्वत के अग्रभाग पर रहने वाली मूर्तिमान् केवली मेरे गण्डस्थल की रक्षा करें ।
धरा धारण करने वाली एवं सब का पोषण करने वाली संतुष्ट होकर मेरे अष्टम षष्टिका
अधरतल की रक्षा करें ।
नासाग्रद्वयगह्वरं भृगुतरा
नेत्रत्रयं तारिणी
केशान् कुन्तलकालिका सुकपिला
कैलासशैलासना ।
कङ्कालामलमालिका सुवसना दन्तावलीं
दैत्यहा
बाह्यं मन्त्रमनन्तशास्त्रतरणी
संज्ञावचःस्तम्भिनी ॥ २८-९१॥
भृगुतरा देवी मेरे दोनों नासिका के
अग्रभाग में रहने वाले दोनों गह्वरों की, तारिणी
दोनों नेत्रों की, कुन्तल कालिका केशों की, सुकपिला कैलास शैल पर आसनासीन कट्टालों की अमल माला धारण करने वाली सुवसना
दन्तावलियों की दैत्यहा बाह्य स्थानों की, अनन्त शस्त्र तरणी
मन्त्र की तथा स्तम्भिनी संज्ञा (नाम) तथा वचनों की रक्षा करे ।
हं हं हं नरहारघोररमणी सञ्चारिणी
पातु मे
शत्रूणां दलनं करोतु नियतं मे
चण्डमुण्डापहा ।
भीमा सन्दहतु प्रतापतपना संवर्द्धनं
वर्द्धिनी
मन्दारप्रियगन्धविभ्रममदा
वैदग्धमोहान्तरा ॥ २८-९२॥
हं हं हं मनुष्य के मुण्डमाला का
हार धारण करने से घोर रमणी स्वरूपा, सञ्चारिणी
देवी मेरी रक्षा करें । चण्ड मुण्ड का विनाश करने वाली भगवती नियत रूप से मेरे
शत्रुओं का दलन करें । अपने प्रताप से जाज्वल्यमान भीमा मेरे शत्रुओं को जलावें,
वर्द्धिनी मेरा संवर्धन करें और मन्दार के प्रिय गन्ध के विलास से
मदमत्त अपनी विदग्धता से मेरे समस्त मोहों को नष्ट करें ।
श्यामा पातु पतङ्गकोटिनिनदा
हङ्कारफट्कारिणी
आनन्दोत्सवसर्वसारजयदा सर्वत्र सा
रक्षिका ।
क्षौं क्षौं क्षौं कठिनाक्षरा
क्षयकरी सर्वाङ्गदोषंहना
देहारेः कचहा परा
कचकुचाकीलालपूराशिता ॥ २८-९३॥
करोड़ों पतङ्ग के समान निनाद करने
वाली,
हङ्कार एवं फट्कारिणी, आनन्दोत्सव, सर्वसार जयदा एवं रक्षिका वह श्यामा सर्वत्र हमारी रक्षा करें । क्षौं क्षौं
क्षौं कठिनाक्षरा, क्षयकरी, सर्वाङ्ग
दोषों का विनाश करने वाली, परा, कचकुचा,
कीलाल, पूराशिता, पर एवं
कचहा मेरे देह के शत्रुओं से रक्षा करें ।
घं घं घं घटघर्घरा विघटिता जायापतेः
पातु मे
कल्पे कल्पा कुलानामतिभयकलितं
सर्वत्र मे विग्रहम् ।
निद्रोद्रावितकालिका मम कुलं
लङ्कातटाच्छादिनी
नं नं नं नयनानना सुकमला सा लाकिनी
लक्षणा ॥ २८-९४॥
घं घं घं घटघर्घरा,
विघटिता एवं जायापति मेरी रक्षा करें । कल्प, कल्पा,
कुलों की अति भयकलिता सर्वत्र मेरे शरीर की रक्षा करें ।
निद्रोद्रावितकालिका, लङ्कातटाच्छादिनी देवी मेरे कुल की
रक्षा करें । नं नं नं नयनानना, सुकमला, लक्षणा एवं लाकिनी देवी मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करें ।
कुक्षौ पृष्ठतलं सदा मम धनं सा पातु
मुद्रामयी
मोक्षं पातु करालकालरजकी या रञ्जकी
कौतुकी ।
कृत्या नापितकन्यका शशिमुखी
सूक्ष्मा मम प्राणगं
मन्दारप्रियमालया मणिमयग्रन्थ्या
महन्मण्डिता ॥ २८-९५॥
वह मुद्रामयी भगवती मेरी कुक्षि,
पृष्ठभाग तथा मेरे धन की सदा रक्षा करें । जो सबका रञ्जन करती है,
सब में कुतूहल उत्पन्न करती है तथा कराल काल की रजकी है वह हमारे
मोक्ष की रक्षा करे । चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाली, अत्यन्त सूक्ष्म, नापित कन्यका एवं कृत्या अपनी
प्रिय मन्दार माला से जिसमें मणिमय ग्रन्थि लगी हुई हैं, उससे
मण्डित हो कर हमारे प्राण में निवास कर हमारी रक्षा करें ।
पूज्या योगिभिरुत्सुकी भगवती
मूलस्थिता सत्क्रिया
मत्ता पातु पतिव्रता मम गृहं धर्मं
यशः श्रेयसम् ।
धर्माम्भोरुहमध्यदर्शनिकरे काली
महायोगिनी
मत्तानामतिदर्पहा हरशिरोमाला कला
केवला ॥ २८-९६॥
योगियों के द्वारा पूज्य,
उत्सुकता से युक्त, मूल में निवास करने वाली,
सक्रिया पतिव्रता एवं मत्ता भगवती मेरे घर की, मेरे धर्म की, मेरे यश की तथा मेरे श्रेयस (परलोक के
कल्याण) की रक्षा करें । मदमत्तों के अत्यन्त दर्प को दलन करने वाली, शिव के शिरो माला केवला कला महायोगिनी काली
धर्म रूप कमल के मध्य दर्श निकर में हमारी रक्षा करें ।
मे गुह्यं जयमेव लिङ्गमपि मे
मूलाम्बुजं पातु सा
या कन्या हिमपर्वतस्य भयहा
पायान्नितम्बस्थलम् ।
सर्वेषां
हृदयोदयानलशिखाशक्तिर्मनोरूपिणी
मे भक्तिं परिपातु कामकुशला
लक्ष्मीः प्रिया मे प्रभो ॥ २८-९७॥
मेरे गुह्य स्थान की जय की तथा लिङ्ग
की मूलाम्बुज पर निवास करने वाली वह भगवती रक्षा करें,
जो हिमालय पर्वत की कन्या हैं । सबके भय को हरण करने वाली मेरे
नितम्ब स्थल की रक्षा करें । सभी के हृदय पर उदीयमान अनल शिखा शक्ति जो मनोरूपिणी
हैं । हे प्रभो ! सबकी प्रिय कामकुशला ऐसी महालक्ष्मी मेरी भक्ति की रक्षा
करें ।
गौरी गौरवकारिणी भुवि महामाया
महामोहहा ।
वं वं वं वरवारुणी सुमदिरा मे पातु
नित्यं कटिम् ।
कूटा सा रविचन्द्रवह्निरहिता
स्वेच्छामयी मे मुखम् ॥ २८-९८॥
एतत्स्तोत्रं पठेद् यस्तु सर्वकाले
च सर्वदा ।
स भवेत् कालयोगेन्द्रो
महाविद्यानिधिर्भवेत् ॥ २८-९९॥
सबके गौरव की कारणभूता,
महामाया एवं महामोह का हरण करने वाली गौरी वं वं वं वर
वारुणी सुमिदरा मेरे कटि प्रदेश की नित्य रक्षा करें । सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि के बिना भी जो
सर्वत्र विद्यमान् हैं ऐसी स्वेच्छामयी भगवती मेरे मुख की रक्षा करें । जो
इस कुण्डलिनी के स्तोत्र को सर्वदा सर्वकाल में पढ़ता है, वह
काल विजयी योगेन्द्र बन जाता है तथा महाविद्या का निधान हो जाता है ।
मूलपद्मबोधने च मूलप्रकृतिसाधने ।
निजमन्त्रबोधने च घोरसङ्कटकालके ॥
२८-१००॥
आपदस्तस्य नश्यन्ति अन्धकारं विना
रविः ।
सर्वकाले सर्वदेशे महापातकघातकः ॥
२८-१०१॥
स भवेद् योगिनीपुत्रः कलिकाले न
संशयः ॥ २८-१०२॥
मूलाधर पद्म को उद्बुद्ध करने में,
मूल प्रकृति ( कुण्डलिनी) के साधन में अथवा अपने इष्टदेव के मन्त्र
को जागरूक करने में या घोर सङ्कट काल उपस्थित होने के समय इस स्तोत्र का पाठ करना
चाहिए । इस स्तोत्र का पाठ करने वाले साधक की सारी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं,
वह इस प्रकार प्रकाशित होता है जैसे बिना अन्धकार के सूर्य
प्रकाशित होता है। ऐसा पुरुष सर्वकाल में तथा सर्वदेश में महापातकों को विनष्ट कर
देता है । इस प्रकार का साधक कलिकाल में योगिनी पुत्र बन जाता है, इसमें संशय नहीं ।
इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने भावासननिर्णये पाशवकल्पे षट्चक्र प्रकाशे भैरवभैरवीसंवादे कुण्डलिनीस्तवः या कुण्डलिनी स्तोत्रं अथवा कन्दवासिनि स्तोत्रं नाम अष्टाविंशः पटलः ॥ २८॥
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