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- गंगा सहस्त्रनाम स्तोत्र
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- रुद्रयामल तंत्र पटल ४ भाग २
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
सूर्य स्तवन
आदिकर्ता भगवान् सूर्य की इस स्तवन
या स्तुति का पाठ करने से सम्पूर्ण लोकों के कार्य सिद्ध होता है। मोक्षाभिलाषी
पुरुष को अपने हृदय-मन्दिर में स्थित भगवान् सूर्य का ध्यान करना चाहिए । समस्त
शुभ लक्षणों से हीन अथवा सम्पूर्ण पातकों से युक्त ही क्यों न हो,
भगवान् सूर्य का शरण लेने से मनुष्य सब पापों से तर जाता है।
अग्निहोत्र, वेद तथा अधिक दक्षिणावाले यज्ञ भगवान् सूर्य की
भक्ति एवं नमस्कार की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते। भगवान् सूर्य तीर्थों
में सर्वोत्तम तीर्थ, मङ्गलों में परम मङ्गलमय और पवित्रों में
परम पवित्र हैं। अतः विद्वान् पुरुष उनकी शरण लेते हैं। जो इन्द्र आदि के द्वारा
प्रशंसित सूर्यदेव को नमस्कार करते हैं, वे सब पापों से
मुक्त हो सूर्यलोक में जाते हैं।
भगवान् सूर्य को परमात्मा जानकर ब्रह्मा
ने दिव्य स्तुतियों के द्वारा उनका स्तवन आरम्भ किया-
सूर्य स्तवन ब्रह्माकृत
ब्रह्मोवाच
आदिदेवोऽसि देवानामैस्वर्य्याच्च
त्वमीश्वरः।
आदिकर्त्ताऽसि भूतानां देवदेवो
दिवाकरः॥ ३३.९ ॥
'भगवन्! तुम आदिदेव हो। ऐश्वर्य से
सम्पन्न होने के कारण तुम देवताओं के ईश्वर हो। सम्पूर्ण भूतों के आदिकर्ता भी तुम्ही
हो। तुम्ही देवाधिदेव दिवाकर हो।
जीवनः सर्व्वभूतानां
देवगन्धर्व्वरक्षसाम् ।
मुनिकिन्नरसिद्धानां
त्थैवोरगपक्षिणाम् ॥ ३३.१० ॥
सम्पूर्ण भूतों,
देवताओं, गन्धर्वो, राक्षसों,
मुनियों, किन्नरों, सिद्धों,
नागों तथा पक्षियों का जीवन तुमसे ही चलता है।
त्वं ब्रह्मा त्वं महीदेवस्त्वं
विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।
वायुरिन्द्रश्च सोमश्च
विवश्वान्वरुणस्तथा ॥ ३३.११ ॥
तुम्ही ब्रह्मा,
तुम्ही महादेव, तुम्ही विष्णु, तुम्ही प्रजापति तथा तुम्ही वायु, इन्द्र, सोम, विवस्वान् एवं वरुण हो।
त्वं कालः सुष्टिकर्त्ता च हर्त्ता
भर्त्ता तथा प्रभुः।
सरितः सागराः शैला
विद्युदिन्द्रधनूंषि च ॥ ३३.१२ ॥
प्रलयः प्रभवश्चैव व्यक्ताव्यक्तः
सनातनः।
ईश्वरात्परतो विद्या विद्यायाः परतः
शिवः॥ ३३.१३ ॥
शिवात्परतरो देवस्त्वमेव परमेश्वरः।
तुम्ही काल हो। सृष्टि के कर्ता,
धर्ता, संहर्ता और प्रभु भी तुम्ही हो। नदी,
समुद्र, पर्वत, बिजली,
इन्द्र-धनुष, प्रलय, सृष्टि
व्यक्त, अव्यक्त एवं सनातन पुरुष भी तुम्ही हो। साक्षात्
परमेश्वर तुम्ही हो।
सर्व्वतः पाणिपादान्तः
सर्व्वतोक्षिशिरोमुखः॥ ३३.१४ ॥
सहस्रांशुः सहस्रास्यः
सहस्रचरणेक्षणः।
भूतादिर्भूर्भुवः स्वश्च महः सत्यं
तपो जनः॥ ३३.१५ ॥
तुम्हारे हाथ और पैर सब ओर हैं।
नेत्र,
मस्तक और मुख भी सब ओर हैं। तुम्हारे सहस्रों किरणें, सहस्रों मुख, सहस्रों चरण और सहस्रों नेत्र हैं। तुम
सम्पूर्ण भूतों के आदिकारण हो। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्य-ये सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
प्रदीप्तं दीपनं दिव्यं
सर्वलोकप्रकाशकम् ।
दुर्निरीक्षं
सुरेन्द्राणां यद्रूपं तस्य ते नमः॥ ३३.१६ ॥
तुम्हारा
जो स्वरूप अत्यन्त तेजस्वी, सबका प्रकाशक,
दिव्य, सम्पूर्ण लोकों में प्रकाश बिखेरनेवाला
और देवेश्वरों के द्वारा भी कठिनता से देखे जाने योग्य है, उसको
हमारा नमस्कार है।
सुरसिद्धगणैर्जुष्टं
भृग्वत्रिपुलहादिभिः।
स्तुतं परममव्यक्तं यद्रूपं तस्य ते
नमः॥ ३३.१७ ॥
देवता और सिद्ध जिसका सेवन करते हैं,
भृगु, अत्रि और पुलह आदि महर्षि जिसकी स्तुति में
संलग्न रहते हैं तथा जो अत्यन्त अव्यक्त है, तुम्हारे उस स्वरूप
को हमारा प्रणाम है।
वेद्यं वेदविदां नित्यं
सर्वज्ञानसमन्वितम् ।
सर्वदेवातिदेवस्य यद्रूपं तस्य ते
नमः॥ ३३.१८ ॥
सम्पूर्ण देवताओं में उत्कृष्ट
तुम्हारा जो रूप वेदवेत्ता पुरुषों के द्वारा जानने योग्य,
नित्य और सर्वज्ञानसम्पन्न है, उसको हमारा
नमस्कार है।
विश्वकृद्विश्वभूतं च
वश्वानरसुरार्च्चितम् ।
विश्वस्थितमचिन्त्यं च यद्रूपं तस्य
ते नमः॥ ३३.१९ ॥
तुम्हारा जो स्वरूप इस विश्व की
सृष्टि करनेवाला, विश्वमय, अग्नि एवं देवताओं द्वारा पूजित, सम्पूर्ण विश्व में
व्यापक और अचिन्त्य है, उसे हमारा प्रणाम है।
परं यज्ञात् परं वेदात् परं लोकात्
परं दिवः।
परमात्मेत्यभिख्यातं यद्रूपं तस्य
ते नमः॥ ३३.२० ॥
तुम्हारा जो रूप यज्ञ,
वेद, लोक तथा द्युलोक से भी परे परमात्मा नाम से
विख्यात है, उसको हमारा नमस्कार है।
अविज्ञेयमनालक्ष्यमध्यानगतमव्ययम् ।
अनादिनिधनं चैव यद्रूपं तस्य ते
नमः॥ ३३.२१ ॥
जो अविज्ञेय,
अलक्ष्य, अचिन्त्य, अव्यय,
अनादि और अनन्त है, तुम्हारे उस स्वरूप को
हमारा प्रणाम है।
नमो नमः कारणकारणाय,
नमो नमः पापविमोचनाय ।
नमो नमस्ते दितिजार्दनाय,
नमो नमो रोगविमोचनाय ॥ ३३.२२ ॥
प्रभो! तुम कारण के भी कारण हो,
तुमको बारम्बार नमस्कार है। पापों से मुक्त करनेवाले तुम्हें प्रणाम
है, प्रणाम है। तुम दैत्यों को पीड़ा देनेवाले और रोगों से
छुटकारा दिलानेवाले हो। तुम्हें अनेकानेक नमस्कार हैं।
नमो नमः सर्व्ववरप्रदाय,
नमो नमः सर्व्वसुखप्रदाय ।
नमो नमः सर्वधनप्रदाय,
नमो नमः सर्व्वमतिप्रदाय ॥ ३३.२३ ॥
तुम सबको वर,
सुख, धन और उत्तम बुद्धि प्रदान करनेवाले हो।
तुम्हें बारम्बार नमस्कार है।'
इति: ब्रह्माकृत सूर्य स्तवन ॥
सूर्य स्तवन अदितिकृत
कठोर नियम का पालन करती हुई अदिति एकाग्रचित्त
हो आकाश में स्थित तेजोराशि भगवान् भास्कर का स्तवन करने लगीं।
सूर्य स्तवन अदितिकृत
अदितिरुवाच
नमस्तुभ्यं परं सूक्ष्मं सुपुण्यं
बिभ्रतेऽतुलम् ।
धाम धामवतामीशं धामाधारं च शाश्वतम्
॥ ३२.१२ ॥
अदिति बोली-भगवन्! आप अत्यन्त
सूक्ष्म,
परम पवित्र और अनुपम तेज धारण करते हैं। तेजस्वियों के ईश्वर,
तेज के आधार तथा सनातन देवता हैं। आपको नमस्कार है।
जगतामुपकाराय त्वामहं स्तौमि गोपते ।
आददानस्य यद्रूपं तीव्रं तस्मै
नमाम्यहम् ॥ ३२.१३ ॥
गोपते! जगत्का उपकार करने के लिये
मैं आपकी स्तुति-आपसे प्रार्थना करती हूँ। प्रचण्ड रूप धारण करते समय आपकी जैसी
आकृति होती है, उसको मैं प्रणाम करती हूँ।
ग्रहीतुमष्टमासेन कालेनाम्बुमयं
रसम् ।
बिभ्रतस्तव यद्रूपमृग्यजुःसाम्नामैक्येन
तपते तव ॥ ३२.१४ ॥
क्रमश: आठ मास तक पृथ्वी के जलरूप
रस को ग्रहण करने के लिये आप जिस अत्यन्त तीव्र रूप को धारण करते हैं,
उसे मैं प्रणाम करती हूँ।
समेतमग्निषोमाभ्यां नमस्तस्मै
गुणात्मने ।
यद्रुपमृग्यजुःसाम्नामैक्येन तपते
तव ॥ ३२.१५ ॥
विश्वमेतत्त्रयीसंज्ञं नमस्तस्मै
विभावसो ।
यत्तु तस्मात्परं
रूपमोमित्युक्त्वाभिसंहितम् ॥ ३२.१६ ॥
आपका वह स्वरूप अग्नि और सोम से
संयुक्त होता है। आप गुणात्मा को नमस्कार है। विभावसो! आपका जो रूप ऋक्,
यजुष् और साम की एकता से त्रयीसंज्ञक इस विश्व के रूप में तपता है
उसको नमस्कार है। सनातन! उससे भी परे जो 'ॐ' नाम से प्रतिपादित स्थूल एवं सूक्ष्मरूप निर्मल स्वरूप है, उसको मेरा प्रणाम है।
इति: अदितिकृत सूर्य स्तवन ॥
इस प्रकार श्री ब्रह्मपुराण के अध्याय ३३ व ३२ मार्तण्डमाहात्म्य-वर्णन में ब्रह्माकृत सूर्य स्तवन पूर्ण हुआ॥ ३३ ॥
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