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कर्मकाण्ड

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रूद्रयामल चतुर्थ पटल

रूद्रयामल चतुर्थ पटल

रुद्रयामल चतुर्थं पटक भाग १ में ब्रह्मचक्र का वर्णन है। यह चक्र अकालमृत्यु का हरण करनेवाला है। इसके ज्ञान से साधक ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेता है। ३-११ श्लोक पर्यन्त इस चक्र के बनाने की विधि लिखी है । इस चक्र के गृहों मे अङ्क और  राशियां दोनों लिखी जाती है। इनसे साधक अपने शुभाशुभ का ज्ञान करे। इसके बाद नक्षत्र और उनके स्वामी के विषय में विवेचन किया गया है (१४--२६)। वर्णो की राशियों का विवेचन है (२७३३) । फिर राशिफल का विचार है (३४-४१)। फिर श्रीचक्र का निरूपण किया गया है (४२--७६)। फिर ऋण-धनि चक्र का वर्णन है (७७--१०५)। इन चक्रों के चित्र के लिए पटल ३ का अवलोकन करें।

रूद्रयामलम् चतुर्थ पटल भाग १

रूद्रयामलम् चतुर्थ पटल भाग १

रूद्रयामलम् चतुर्थ: पटल:

रुद्रयामल तंत्र पटल ४       

रूद्रयामलम्

(उत्तरतन्त्रम्)  

चतुर्थः पटलः - ब्रह्मचक्रम्

दीक्षायां सर्वचक्रानुष्ठानम्

श्रीभैरवी उवाच

अथ वक्ष्यामि चक्रान्यत् श्रृणु भैरव सादरम् ।

येन हीना न सिद्‌ध्यन्ति महाविद्या वरप्रदाः ॥१॥

ब्रह्मचक्रम्

तव चक्रं ब्रह्माणा व्यक्तं ब्रह्मचक्रमुदाह्रतम् ।

यस्य ज्ञानात् स्वयं ब्रह्मा स्वबलेन भवं सृजेत् ॥२॥

अकालमृत्युहरणं परं ब्रह्मपदं व्रजे ।

श्रीभैरवी ने कहा --- हे भैरव ! अब अन्य चक्र कहती हूँ उसे आदरपूर्व सुनिए । जिसका ज्ञान न होने से वर देनी वाली महाविद्यायें सिद्ध नहीं होती । वह चक्र आपका है, ब्रह्मा ने उसे प्रगट किया इसलिए उसे ब्रह्मचक्र कहते हैं, जिसका ज्ञान प्राप्त कर ब्रह्मा स्वयं सृष्टि करने में समर्थ हो गये । वह चक्र अकाल मृत्यु का हरण करने वाला है, इसका ज्ञान हो जाने पर साधक अन्त में ब्रह्म पद प्राप्त कर लेता है ॥१ - ३॥

चतुष्कोणे चतुष्कोणं तन्मध्ये च चतुश्चतुः ॥३॥

मध्यगेहं वेष्टयित्वा इष्टं मन्दिरमुत्तमम् ।

अष्टकोणे महादेव षोडशस्वरमालिखेत् ॥४॥

चतुष्कोण बनाकर उसके मध्य में पुनः चतुष्कोण बनावे, फिर उनमें एक एक चतुष्कोण में चार चार चतुष्कोणों की रचना करे । फिर मध्य में स्थित इष्ट ( आठ ) उत्तम मन्दिर को घेर कर, हे महादेव ! आठ कोणों पर १६ स्वर लिखे ॥३ - ४॥

अष्टकोणं वेष्टयित्त्वा वृत्तयुग्मं लिखेत् सुधीः ।

मध्यगेहे चतुष्कोणे कादिक्षान्तञ्च वर्णकम् ॥५॥

दक्षिणावर्त्तयोगेन विलिखेत् साधकोत्तमः ।

तदूद्‌र्ध्वे स्वगृहे चाङ्कं विलिख्य गणयेत् सुधीः ॥६॥

फिर आठ कोणों को घेरकर सुधी साधक दो वृत्तों की रचना करे । तदनन्तर मध्य गेह के चारों कोनों पर ककार से आरम्भ कर क्षकार पर्यन्त वर्णों को लिखे । उत्तम साधक उन वर्णों को दक्षिणावर्त से लिखे । उसके ऊपर अपने गृह में अङ्कों को लिखकर सुधी साधक गणना करे ॥५ - ६॥

चतुर्गेहस्योद्‌र्ध्वदेशे युग्मगेहे क्रमाल्लिखेत् ।

साध्यस्य साधकस्यापि मेषादिकन्यकान्तकम् ॥७॥

अधो लिखेत्तुलाद्यन्तमिति राश्यादिकं शुभम् ।

ततो लिखेद्‍ गेहदक्षे युग्मगेहे महेश्वर ॥८॥

तारकाश्विनी ताराद्यन्तान् दक्षिणतो लिखेत् ।

वर्णक्रमेण विलिखेद्‍ वेदमन्दिरमण्डले ॥९॥

चारगृह के ऊर्ध्व भाव के दो दो गृहों में क्रमपूर्वक साध्य के तथा साधक के मेष से आरम्भ कर कन्या पर्यन्त राशियों को लिखे । उसके नीचे तुला से आरम्भ कर शेष शुभ राशियों को लिखे । हे महेश्वर ! इसके बाद दाहिने गृह के दो गृहों में अश्विनी से लेकर समस्त नक्षत्र पर्यन्त राशियों को वर्णक्रम से चारों मन्दिरों में लिखे ॥७ - ९॥

ऊद्‌र्ध्वाधः क्रमशो लेख्यमङुतारं सुरेश्वर ।

ततो हि गणयेमन्त्री योजयित्वा क्रमेण तु ॥१०॥

सुखं राज्यं धनं वृद्धि कलहं कालदर्शनम् ।

सिद्धिमृद्धिमष्टकोणे विदित्वा च शुभाशुभम् ॥११॥

हे सुरेश्वर ! फिर ऊपर से आरम्भ कर नीचे से क्रमशः अङ्क के ताराओं ( ? ) को लिखे । फिर मन्त्रज्ञ साधक सबको एक में मिलाकर गणना करे । प्रथम सुख, राज्य, धन, वृद्धि, कलह, काल (मृत्यु), सिद्धि, ऋद्धि इस प्रकार का फल उन अष्टकोणों से जानकर अपने शुभाशुभ का विचार करे ॥१० - ११॥

गणयेद्राशिनक्षत्रं मनुचाहं विवर्जयेत् ।

सुखे सुखमवाप्नोति राज्ये राज्यमवाप्नुयात् ॥१२॥

धने धनवाप्नोति वृद्धौ वृद्धिवाप्नुयात् ।

मेषो वृषामिथुनश्च कर्कटः सिंह एव च ।

कन्यका देवता ज्ञेया नक्षत्राणि पुनः श्रृणु ॥१३॥

राशि तथा नक्षत्र की गणना करे । मृत्यु तथा कलह वाला मन्त्र वर्जित करे । सुख के गृह में सुख तथा राज्यगृह में राज्य की प्राप्ति होती है । धन में धन की प्राप्ति और वृद्धि में वृद्धि की प्राप्ति होती है । १ . मेष, २ . वृष, ३ . मिथुन, ४ . कर्क, ५ . सिंह तथा ६ . कन्या क्रमशः इनके देवता है । अब नक्षत्रों को सुनिए ॥१२ - १३॥

ऊद्‌र्ध्वयुग्मगृहस्यापि दक्षवामे च भागके ।

नक्षत्राणि सन्ति यानि तानि श्रृणु महाप्रभो ॥१४॥

अश्विनी मृगशिरश्लेषा हस्तानुराधिका तथा ।

उत्तरषाढिकार्द्रा वा पूर्वभाद्रपदा तथा ॥१५॥

दक्षाग्रहस्तितास्ताराः स्पष्टीभूताश्च देवताः ।

एतासामधिपा एते राशयो ग्रहरुपिणः ॥१६॥

दोनों गृह के ऊपर दायें तथा बायें भाग में जिन नक्षत्रों का निवास है, हे महाप्रभो ! अब उन्हें सुनिए । अश्विनी, मृगशिर, आश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढा़, आर्द्रा एवं पूर्वाभाद्रपदा - ये दाहिनी ओर की तारायें हैं । ये स्पष्ट रूप से देवता नक्षत्र हैं । इन ताराओं के आगे कही जाने वाली ये सभी राशियाँ अधिपति हैं और ये सभी ग्रह स्वरूप भी हैं ॥१४ - १६॥

कर्कटकेशरी कन्यादेवताः परिकीर्तिताः ।

एतेषाञ्चापि वर्णानामधिपाश्चेति राशयः ॥१७॥

ककास्य(ड?) खकास्य ञकारस्य टकारपः ।

दकारस्य फकारस्य यकारस्य सकारपः ॥१८॥

कर्क, सिंह और कन्या ये देवता राशि हैं जो इन नक्षत्रों के तथा वर्णों की अधिप राशियाँ है ।

( १ ) ककार , खकार तथा ञकार के टकार वाले देवता हैं ।

( २ ) दकार , फकार एवं यकार के सकार वाले देवता हैं ॥१७ - १८॥

नकारस्यापि पतयो ज्ञेयाश्च क्रमशः प्रभो ।

संश्रृणु रोहिणीपुष्या तथा चोत्तरफाल्गुनी ॥१९॥

विशाखा च तथा ज्ञेया पूर्वाषाढा च तारका ।

तथा शतभिषातारा वाममन्दिरपर्वगाः ॥२०॥

हे प्रभो ! इसी प्रकार क्रम से नकार के सभी स्वामियों को समझ लेना चाहिए और अब आगे सुनिए । रोहिणी, पुष्य, उत्तरफाल्गुनी, विशाखा, पूर्वाषाढा़ तथा शतभिषा ये तारायें बायें भाग के मन्दिर में रहने वाली हैं । ( द्र० ४ . १४ ) ॥१९ - २०॥

एतासामधिपा एते राशयो ग्रहरुपिणः ।

मेषो वृषो मिथुनश्च ईश्वरोः परिकीर्तिताः ॥२१॥

एतद्‌गेहस्थितं वर्णमेते रक्षन्त्यनित्यशः ।

ककारस्य नकारस्य ऋकारस्य उकारपः ॥२२॥

इनके स्वामी राशियों को जो ग्रह स्वरूप हैं उन्हें इस प्रकार जानना चाहिए । मेष, वृष और मिथुन इनके स्वामी हैं । इन गृहों में रहने वाले इन - इन वर्णों की ये राशियाँ रक्षा करती हैं, किन्तु नित्य नहीं ।

( ३ ) ककार, नकार तथा ऋकार के उकार वाले स्वामी हैं ॥२१ - २२॥

अकारस्य पकारस्य मकारस्य वकारपः ।

हकारस्यधिपा एते ऋद्धिमोक्षफलप्रदाः ॥२३॥

( ४ ) अकार, षकार, नकार तथा मकार का वकार अक्षर वाली राशि स्वामी है, ये सभी हकार अक्षर के भी स्वामी हैं जो ऋद्धि एवं मोक्ष रुप फल देने वाले हैं ॥२३॥

विमर्श --- १ . टकारप --- टकारं पिबति स्वान्तः स्थापयति - इस व्युत्पत्ति से टकार को अपने नाम में समाविष्ट करने वाला कर्कट ऐसा अर्थ संभव हो सकता है क्या ? ( अर्थात् टकार अक्षर वाली राशि )

२ . सकारप --- यहाँ पर भी सकारं पिबति स्वान्तः अन्तः स्थापयति - इस व्युत्पत्ति से केसरी, अर्थात् सिंह ऐसा अर्थ हो सकता है क्या ? ( अर्थात् ‍ सकार अक्षर वाली राशि )

३ . उकारप --- उकारं पिबतिः स्वान्तः स्थापयति - इस व्युत्पत्ति से मिथुन अर्थ हो सकता है क्या ? ( अर्थात् ‍ उकार अक्षर वाली राशि ) ॥२३॥

दक्षिणाधोगृहस्यापि देवता इति राशयः ।

तुला च वृश्चिकश्चैव धनुश्चैव ग्रहेश्वरः ॥२४॥

( ५ ) दक्षिण गृह के नीचे रहने वाले गृह की ये देवता राशियाँ हैं । हे महेश्वर ! उनके नाम तुला, वृश्चिक और धनु हैं जो ग्रहेश्वर भी कहे जाते हैं ॥२४॥

एतासां तारकाणाञ्च पतयो गदिता मया ।

भरण्यार्द्रघाचित्राज्येष्ठाश्रवनवल्लभाः ॥२५॥

तथोत्तरभाद्रपदा वल्लभाः राशयो मताः ।

अथ गेहस्थितं वर्णं श्रृणु नाथ भयापह ॥२६॥

मेरे द्वारा कही गई ये राशियाँ भरणी, आर्द्रा, मघा, चित्रा, ज्येष्ठा तथा श्रवण नक्षत्रों के स्वामी हैं । इसी प्रकार उत्तराभाद्रपद के भी स्वामी हैं । अब सबके भय को दूर करने वाले, हे नाथ ! इन नक्षत्रों में रहने वाले वर्णों को सुनिए ॥२५ - २६॥

यकारस्य दकारस्य टकारस्य नकारपः ।

धकारस्य वकारस्य चकारस्य यकारपः ॥२७॥

क्षकारपणका एते राशयः परिकीर्तिताः ।

धनवृत्तिप्रदा नित्या नित्यस्थाननिवासिनः ॥२८॥

यकार, दकार, टकार के नकार अक्षर वाली राशि स्वामी है । धकार, वकार तथा चकार के यकार अक्षर वाली राशि स्वामी हैं । इसी प्रकार क्षकार की भी ये राशियाँ स्वामी कही गई हैं । जो धन तथा वृत्ति प्रदान करने वाली हैं तथा अपने स्थान में नित्य निवास करने वाली हैं ॥२७ - २८॥

वामाधोमन्दिरस्यापि वल्लभा इति राशयः ।

मकराधस्तु कोष्ठेषु मीनो राशिफलस्थिताः ॥२९॥

बायीं ओर के नीचे के गृह की भी यही राशियाँ स्वामी हैं, गकार के नीचे वाले कोष्ठकों में मीन ही राशियों के फल रुप से स्थित है ॥२९॥

एतानि भानि रक्षन्ति शूलपाशसिधारकाः ।

पुनर्वसुः कृत्तिका च तथाभवंपूर्वफल्गुनी ॥३०॥

स्वाती मूला धनिष्ठा च रेवती वामगेहगाः ।

एतासमाधिपा एते जलस्था ग्रहदेवताः ॥३१॥

शूल पाश तथा असि ( तलवार ) धारण किए हुये उक्त राशियाँ इन सभी नक्षत्रों की रक्षा करती हैं । पुनर्वसु, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाती, मूल, धनिष्ठा, रेवती इतने नक्षत्र बायीं ओर वाले गृह में निवास करने वाले हैं जिनके स्वामी जलचर गृह देवता हैं ॥३० - ३१॥

एतान् वर्णान् प्ररक्षन्ति गृहस्था नव राशयः ।

धकारस्य जकारस्य टकारस्य तकारपः ॥३२॥

नकारस्य भकारस्य लकारस्य तकारपः ।

कलहादिमहादोषकालदर्शनकारकाः ॥३३॥

इस प्रकार गृहों में रहने वाली नव राशियाँ इन वर्णों की रक्षा करती हैं । धकार, जकार तथा टकार वर्णों की तकार अक्षर वाली राशि स्वामी है । नकार भकार एवं लकार वर्णों की सकार अक्षर वाली राशि स्वामी हैं, जो सभी कलहादि महादोषों वाली तथा काल का दर्शन कराने वाली है ॥३२ - ३३॥

राशयो लोकहा नाथ तन्मन्त्रं परिवर्जयेत् ।

यद्येकदेवतागेहं विभिन्नञ्च सुशोभनम् ॥३४॥

चतुः स्थानं युगस्थानं सर्वत्रापि निषेधकम् ।

एकगेहस्थितं मन्त्रं बहुसौख्यप्रदायकम् ॥३५॥

नाम्न आद्यक्षरं नीत्वा राशिनक्षत्रविस्मृतौ ।

सभाव साधकश्रेष्ठः कलहे कलहं भवेत् ॥३६॥

राशिफल विचार --- हे नाथ ! जो राशियाँ लोकविनाशक है, उन राशि वाले मन्त्रों को त्याग देना चाहिए । यदि एक देवता वाले गृह में भिन्न भिन्न राशि वाले मन्त्र पड़ें तो शुभावह हैं । चौथा तथा दूसरा स्थान सभी मन्त्रों के ग्रहण में निषिद्ध कहा गया है । एक ही गृह में स्थित होने वाले मन्त्र बहुत सौख्य प्रदान करने वाले होते हैं । यदि राशि तथा नक्षत्र ज्ञात न हों तो नाम का आदि अक्षर ले कर गणना करे । समान भाव होने पर श्रेष्ठ साधक, किन्तु कलह में गणना होने पर कलह होता है ॥३४ - ३६॥

रिपुश्चेन्मूलनाशः स्यात् कलहोऽपि सुरेश्वर ।

नेत्रयुग्मे स्वरं पाति सिंहो हि कन्यकां तथा ॥३७॥

कर्णयुग्मं तुला पाति संयुगं वृश्चिको धनुः ।

चयुगं मकरः पाति कुम्भो मीनश्च पाति हि ॥३८॥

ओष्ठाञ्च पाति च तथा अधरं मेष एव च ।

दन्तयुग्मं वृषः पाति मिथुनः शेषगोऽक्षरः ॥३९॥

हे सुरेश्वर ! यदि शत्रु स्थान में नाम पड़े तो मूल सहित सर्वनाश होता है । किं बहुना कलह तो होता ही है । सिंह तथा कन्या नेत्रयुग्म ( इ ई ) स्वर की रक्षा करती है । तथा तुला कर्णयुग्म ( उ ऊ ) की, वृश्चिक धन संयुगं (ए ऐ) की वृश्चिक और धन राशि, चयुग की मकर, कुम्भ एवं मीन ओष्ठ की, अधर की मेष, दन्त युग्म की वृष तथा मिथुन शेष अक्षरों की रक्षा करती हैं ॥३७ - ३९॥

यस्य ये ये राशयः स्युस्तस्य तत्तच्छुभं स्मृतम् ।

एकराशिः शुभं नित्यं ददाति च मनोरथम् ॥४०॥

अन्यत्र दुखदं प्रोक्तं साधकः सिद्धिभाग्‍ भवेत् ।

भिन्नराशौ वर्जनीयं कलहं कालदर्शनम् ॥४१॥

जिसकी जो जो राशियाँ होती है, उसके लिए वे वे स्वर शुभ कहे गये हैं, मन्त्र तथा साधक की एक राशि होने पर मनोरथ की सिद्धि प्राप्त होती है । अन्यत्र गृह दुखदायी कहा गया है, अतः साधक अपने राशि के गृह में सिद्धि का भाजन बनता है । इसलिए भिन्न राशि वर्जित करनी चाहिए, वह कलह कराने वाली है तथा काल का दर्शन कराती है ॥४० - ४१॥

रुद्रयामल तंत्र पटल ४       

चतुर्थः पटलः - श्रीचक्रम्

श्रूयतां शैलजानाथ चक्रं श्रीत्रिदशात्मकम् ।

पूर्वपश्चिमभेदेन षट्‌ च रेखाः समालिखेत् ॥४२॥

वामादि दक्षिणान्तञ्च रेखा दश समालिखेत् ।

पञ्चगेहे पूरकाङ्कं सर्वधोहारकाङ्ककम् ॥४३॥

हे शैलजानाथ ! अब श्री देवता के चक्र को सुनिए । पूर्व से पश्चिम की ओर ६ रेखा खींचे । फिर उत्तर से दक्षिणान्त दश रेखा खींचे । पाँच गेह में पूरक अङ्क लिखे । सबके नीचे हारक अङ्क लिखे ॥४२ - ४३॥

तन्मध्ये रचयेदक्षं देवताग्रहसंयुतम् ।

पूरकाङ्कं मध्यगेहे सप्तार्षियुक्तमालिखेत‍ ॥४४॥

उसके मध्य में देवताग्रह से संयुक्त अक्ष की रचना करे । मध्य गृह में सप्तर्षियुक्त पूरक अङ्क लिखे ॥४४॥

तद्‌दक्षिणे द्वादशञ्च तद्‌दक्षेण रसं तथा ।

तद्‌दक्षे अष्टदशके तद्‌दक्षे षोडशस्मृतम् ॥४५॥

उसके दक्षिण द्वादश, उसके भी दक्ष ( रस ) ६, उसके दक्ष १८, उसके भी दक्ष भाग में १६ लिखे - ऐसा कहा गया है ॥४५॥

पूरकाङ्कं ततो लेख्यं इन्द्राद्यङ्कश्च दक्षतः ।

इन्दगेहे च शतकं विधिविद्याफलप्रदम् ॥४६॥

धर्मगेहे शून्यसप्त युगलं विलिखेद्‌ बुधः ।

अन्नन्तमन्दिरे नाथ शून्याष्टवसुरेव च ॥४७॥

उसके बाद पूरक अङ्क लिखें, फिर दक्ष भाग से इन्द्रादि अङ्क लिख्रें । इन्द्र के गृह में विधि विद्या का फल देने वाला शतक लिखे । विद्वान् साधक धर्मगृह में शून्य सात तथा दो लिखे । हे नाथ ! इसके बाद अनन्त मन्दिर में शून्य, आठ तथा ( वसु ) ८ संख्या लिखे ॥४६ - ४७॥

कालीगृहे शून्यवेदवामाद्याङ्कं विलिखेत्ततः ।

धूमावतीमन्दिरे च शून्यखेषु निशापतिम् ॥४८॥

इन्द्राद्या दक्षतो लेख्या अङ्काश्चन्द्राधिदेवताः ।

शून्याष्टचन्द्रयुक्तञ्च सर्वत्र देवता लिखेत् ॥४९॥

इसके बाद काली गृह में शून्य, ( वेद ) ४ तथा वामादि अङ्क लिखे धूमावती के मन्दिर में शून्य तथा ख में (निशापति ) १ लिखे । इन्द्रादि दक्षभाग से लिखे, अङ्क चन्द्राधि देवता, शून्य अष्टचन्द्र से युक्त कर सर्वत्र देवता लिखे ॥४८ - ४९॥

तथाश्विनीकुमारौ च शून्यानलयुगायुगौ ।

तत्पश्चात् पूर्वगेहञ्च सहस्त्रार्कसमन्वितम् ॥५०॥

तारिणीमन्दिरस्थाङ्क शून्यवेदं तथैवं च ।

बगलामुखीगेहस्थं शून्याष्टचन्द्रंसंयुतम् ॥५१॥

ततश्चचन्द्रगृहस्याधो वायुर्गेहं मनोरमम् ।

रन्ध्रवेदात्मकं गेहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥५२॥

फिर शून्य, अनल ३, युग ४ तथा अयुग से युक्त कर दोनों अश्विनीकुमारों को लिखे । उसके बाद सहस्त्रार्क समन्वित पूर्वगृह लिखे । तारा के मन्दिर में रहने वाला अङ्क शून्य वेद ४ है । उसी प्रकार बगलामुखी का गेह शून्य, अष्ट तथा चन्द्र १ से संयुक्त लिखे । इसके बाद उस चन्द्र गृह के नीचे वायु का मनोरम गृह है जो रन्ध० , वेद ४ संख्या से संयुक्त है तथा सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है ॥५० - ५२॥

राहुगेहं महापापं शून्यशून्यमुनिप्रियम् ।

पश्चादेकत्र हस्तञ्च खशून्ययुगलात्मकम् ॥५३॥

षोडशीमन्दिरे शून्यमष्टचन्द्रसमन्वितम् ।

मातङीमन्दिरे शून्यरुद्रचन्द्रसमन्वितम् ॥५४॥

राहु का गृह महापाप संयुक्त है वह शून्य, शून्य तथा मुनि ७ प्रिय है, उसके पश्चात् ‍ एक ही स्थान पर ख १ शून्य युगल अङ्क से युक्त हस्त लिखे । षोडशी मन्दिर शून्य, अष्ट तथा चन्द्र १ से समन्वित लिखे । मातङ्गी मन्दिर शून्य, रुद्र ११ तथा चन्द्र १ समन्वित लिखे ॥५३ - ५४॥

वायोरधोवरुणस्य गृहं सप्तशशिप्रियम् ।

तरुणी गेहमध्ये च शून्याष्टकसमन्वितम् ॥५५॥

बुधगेहस्थिताङ्कञ्च शून्यचन्द्रयुगात्मकम् ।

भुवनेशीमन्दिरथं शून्याष्टकशशिप्रियम् ॥५६॥

वायु के नीचे वरुण का गृह है जो सात तथा शशि २ प्रिय है तरुणीगृह को शून्य तथा अष्ट संख्या से समन्वित लिखना चाहिए । बुध गेह में रहने वाले अङ्क शून्य, चन्द्र तथा युग ४ संख्यायें हैं इसी प्रकार भुवनेशी मन्दिर का अङ्क शून्य, आठ तथा शशि १ संख्या वाला है ॥५५ - ५६॥

वरुणाधः कुबेरस्य गृहस्थं षट्‌ च युग्मकम् ।

आनन्तभैरवी गेहे दशकं परिकीर्ततम् ॥५७॥

धरणीगृहामध्ये च शून्ययुग्मेन्दुसंयुतम् ।

भैरवी गृहमध्यस्थं शून्ययुगलचन्द्रकम् ॥५८॥

वरुण के नीचे कुबेर का गृह षट् ‍ तथा दो संख्या वाला है । आनन्दभैरवी का गृह दश संख्या वाला कहा गया है । धरणी गृह में शून्य युग्म तथा इन्दु १ संयुक्त लिखें । भैरवी का गृह शून्य युगल तथा चन्द्र संख्या वाला है ॥५७ - ५८॥

राशिगृहस्थितं शून्यर्षिचन्द्रमण्डलसंयुतम् ।

कुबेराधः स्वकं चक्रस्थिताङ्कं सर्वासिद्धिदम् ॥५९॥

ईश्वरवस्य गृहस्थञ्च सप्तशून्ययुगात्मकम् ।

तिरस्कारिण्या गेहस्थं सहस्त्राङ्कसमन्वितम् ॥६०॥

शशि गृह शून्य ऋषि ७ तथा चन्द्रमण्डल १ से संयुक्त है । कुबेर के नीचे श्री चक्र में रहने वाले अङ्क सर्वसमृद्धि प्रदान करने वाले हैं । ईश्वर सदाशिव के गृह में रहने वाले अङ्क सप्त, शून्य तथा युगात्मक ४ हैं । तिरस्करिणी का गृह एक हजार संख्या से समन्वित है ॥५९ - ६०॥

किङ्किणीमन्दिरं पश्चादष्टचन्द्रसमन्वितम् ।

छिन्नमस्तागृहं पश्चाच्छून्याष्टचन्द्रमण्डलम् ॥६१॥

वागीश्वरीगृहं पश्चात् सप्तमं चन्द्रमण्डलम् ।

महाफलप्रदातार धर्मो रक्षति तं पुनः ॥६२॥

इसके पश्चात् किंकिणी का मन्दिर ८ आठ तथा चन्द्र संख्या समन्वित है, इसके पश्चात् छिन्नमस्ता का गृह शून्य, अष्ट तथा चन्द्रमण्डलात्मक १ है । इसके पश्चात् वागीश्वरी का गृह सप्तम तथा चन्द्रमण्डल १ युक्त है, यह गृह महाफल देने वाला है, जिसकी स्वयं धर्म रक्षा करते हैं ॥६१ - ६२॥

ईश्वस्य अधोगेहे बटुकस्य गृहं ततः ।

शून्याष्टमांद्य स्वगृहं धर्मार्थकाममोक्षदम् ॥६३॥

तत्पश्चात् डाकिनीगेहं खशून्यमुनिसंयुतम् ।

हन्ति साधकसौख्य हि क्षणादेव न संशयः ॥६४॥

इसके बाद ईश्वर सदाशिव के गृह के नीचे बटुक का गृह है । इनका स्वयं का गृह शून्य, आठ तथा आद्य १ अङ्क समन्वित है जो धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष देने वाला है । इसके पश्चात् ‍डाकिनी का गृह है जो ख शून्य तथा मुनि ७ संख्या से संयुक्त है । यह गृह साधक के समस्त सौख्य को क्षण मात्र में विनष्ट करने वाला है - इसमे संशय नहीं ॥६३ - ६४॥

स्वगृहे स्वीयमन्त्रस्य फलदं परिकीर्तितम् ।

भीमादेवीगृहं पश्चात् खससप्तचन्द्रमण्डलम् ॥६५॥

भयदं सर्वदेशे तु वर्जयेद्‍ गृहान्तरम् ।

लक्षवर्णं लिखेत् शेषगृहे द्वे पण्डितोत्तमः ॥६६॥

अपने गृह में अपना - अपना मन्त्र फल देने वाला है - ऐसा कहा गया है । इसके बाद भीमा देवी का गृह है जो ख शून्य, सप्त तथा चन्द्रमण्डल से संयुक्त है । अन्य गृह सभी स्थानों पर भय प्रदान करते हैं । इसलिए उन्हें वर्जित कर देना चाहिए । इसके बाद उत्तम, श्रेष्ठ, विद्वान् शेष दो गृह में ल और क्ष इन दो वर्णों को लिखे ॥६५ - ६६॥

इन्द्रगेहावधिं धीरो वकारादिकवर्णकम् ।

क्षकरान्तं लिखेत्तत्र गणयेत् साधकस्ततः ॥६७॥

धीर साधक इन्द्रगेह ( द्र० ४ . ४६ ) से प्रारम्भ कर वकार से लेकर क वर्ग पर्यन्त वर्ण लिखे । फिर श, , , , क्ष - इस प्रकार क्षकारान्त वर्ण लिखे । फिर साधक गणना करे ॥६७॥

पूरकाङ्कमूद्‌र्ध्वदेशे हारकाङ्कमधो लिखेत् ।

निजनामाक्षरं यत्र तत्कोष्ठाङ्कं महेश्वर ॥६८॥

नीत्त्वा च पूजयेद्विद्वान् स्वस्वगेहोर्ध्वदेशगैः ।

अङ्कैस्ततो हरेर्नाथ अधोऽङ्के हार्यशेषकम‍ ॥६९॥

विस्तारञ्चेद्‌देवताङस्तदङ शुभदः स्मृतः ।

अल्पाङ शुभदः साकधदस्य सुखावहः ॥७०॥

ऊर्ध्वदेश में पूरक अङ्क लिखे, नीचे हारकाङक लिखे । इसके बाद, हे महेश्वर ! यहाँ आपने नाम का अक्षर हो विद्वान उस कोष्ठ का अङ्क लेकर पूजा करे । फिर उसके ऊपर वाले गृह के अङ्क से भाग देवे । यदि देवता का अङ्क बडा हो तो वह अङ्क शुभ देने वाला होता है । अल्पाङ्क भी शुभ देने वाला कहा गया है जो साधक के लिए सुखावह है ॥६८ - ७०॥

एकाक्षरे महासौख्यं तत्रापि गणयेद्‍ वचः ।

धीराङ्कः शून्यगामी च देवताङस्तथा विभो ॥७१॥

तदा नैव शुभं विद्यादशुभाय प्रकल्प्यते ।

एके धनमाप्नोति द्वितीये राजवल्लभः ॥७२॥

तृतीये जाप्यसिद्धिः स्याच्चतुर्थे मरणं ध्रुवम ।

पञ्चमे पञ्चमानः स्यात् षष्ठे दुःखोत्कटानि च ॥७३॥

एकाक्षर में महान् सुख की प्राप्ति होती है । उसमें भी वर्णों की गणना करनी चाहिए । हे विभो ! यदि धीराङ्क (अधोङ्क ) तथा देवताङ्क शून्य आवे तो शुभ नहीं होता । वह सर्वदा अशुभ देने में समर्थ होता है । एक में धन की प्राप्ति, द्वितीय में राजवल्लभ, तृतीय में जप से सिद्धि, किन्तु चतुर्थ में निश्चित रुप से मरण कहा गया है । पञ्चम में व्यक्ति की कीर्ति, छठवें में उत्कट दुःख प्राप्त होता है ॥७१ - ७३॥

शैवानां शाक्तवर्णानामित्यङ्कः परिगृह्यते ।

वैष्णवानां निषेधे च पञ्चमाङ्को निषेधकः ॥७४॥

यासां यासां देवतानां हिंसा तिष्ठति चेतसि ।

तन्मन्त्रग्रहणादेवाष्टैश्वर्ययुतो भवेत् ॥७५॥

यद्‌देवस्याश्रिता ये तु तद्‌गृहाङ्कं हरन्ति ते ।

ऊद्‌र्ध्वाङ्केन पूरयित्त्वा अधोऽङ्केन हरेत्सदा ॥७६॥

शैवों के लिए तथा शक्ति के लिए इतने ही वर्णों के अङ्क के ग्रहण का विधान है । वैष्णवों के लिए पञ्चम अङ्क निषिद्ध है । जिन - जिन देवताओं की हिंसा चित्त में स्थित हो, उन - उन देवताओं के मन्त्र ग्रहण से साधक आठों ऐश्वर्यों से युक्त हो जाता है । जो लोग जिस देवता के अधीन होते हैं वे उन देवताओं के गृह के अङ्क को लेते हैं । इसलिए ऊपर के अङ्क से पूर्ण कर नीचे के अङ्क से उसका हरण ( भाग ) करे ॥७४ - ७६॥

ऋणिधनिमहाचक्रं वक्ष्यामि श्रृणु तत्त्वतः ।

दर्शनादेव कोष्ठस्य जानति पूर्वजन्मगम् ॥७७॥

देवं बहुतराङेषु ज्ञात्वा सिद्धीश्वरो भवेत् ।

निजसेव्यां महाविद्यां गृहीत्वा मुक्तिमाप्नुयात् ॥७८॥

कोष्ठशुद्धञ्च मन्त्रञ्च ये गृहणन्ति द्विजोत्तमाः ।

तेषां दुःखानि नश्यन्ति ममज्ञा बलवत्तरा ॥७९॥

ऋणधनिचक्र --- हे सदाशिव ! अब ऋणी तथा धनी का चक्र तत्त्वतः वर्णन करती हूँ । उस कोष्ठ के दर्शन मात्रा से पूर्व जन्म के ऋणी तथा धनी का ज्ञान हो जाता है । अनेक प्रकार के अङ्कों में मन्त्र देवता का ज्ञान कर साधक सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । अपनी सेवा के योग्य महाविद्या के मन्त्रों को ग्रहण कर साधक मुक्ति प्राप्त कर लेता है । कोष्ठ से शुद्ध मन्त्रों का जो द्विजोत्तम ग्रहण करते हैं उनके समस्त दुःख दूर हो जाते हैं, यह हमारी बलवत्तर आज्ञा है ॥७७ - ७९॥

कोष्ठशुद्धं महामन्त्रं फलदं रुद्रभैरव ।

न हातव्यं महामन्त्रं सद्‍गुरुप्रियदर्शनात् ॥८०॥     

तत्र कोष्ठं न विचार्य चेज्जानति विचार्यकम् ।

महाविद्या महामन्त्रे विचार्यकोटिपुण्यभाक्‍ ॥८१॥

हे रुद्र ! हे भैरव ! कोष्ठ से शुद्ध किया गया मन्त्र ही फल देने वाला है । सद्गुरु के प्रिय दर्शन से प्राप्त हुये महामन्त्र का भी त्याग नहीं करना चाहिए । उस विषय में कोष्ठ का विचार न कर अपने विचार को ही मानना चाहिए । यदि महाविद्याओं के महामन्त्र में विचार पूर्वक ( परीक्षित ) मन्त्र ग्रहण करने से करोड़ों गुना पुण्य का लाभ भी होता है तो भी सदगुरु का मन्त्र लेना चाहिए ॥८० - ८१॥

अविचारे चोक्तफलं ददाति कामसुन्दरी ।

कोष्ठान्येकादशान्येव देवेन पूरितानि च ॥८२॥

( सदगुरु से प्राप्त मन्त्र का ) यदि विचार न भी किया जाय तो कामसुन्दरी ललिता महाविद्या जैसा उसका फल कहा गया है । उतना फल तो वह देती ही हैं । ( इस चक्र में ) मात्र ११ कोष्ठक हैं, जिसे स्वयं महादेव ने परिपूर्ण किया है ॥८२॥

अकारादिहकारान्तं लिखेत् कोष्ठेषु तत्त्ववित् ।

प्रथमं पञ्चकोष्ठेषु ह्रस्वदीर्थक्रमेण तु ॥८३॥

द्वयं द्वयं लिखेत्तत्र विचारे खलु साधकः ।

शेषेष्वेकैकशो वर्णान् क्रमशस्तु लिखेत्सुधीः ॥८४॥

तत्त्ववेत्ता उन कोष्ठों में अकार से आरम्भ कर हकार पर्यन्त वर्ण लिखे । प्रथम पाँच कोष्ठों में हृस्व दीर्घ क्रम से साधक विचारपूर्वक दो दो वर्णों को लिखे । फिर सुधी साधक शेष कोष्ठों में क्रमपूर्वक एक एक वर्ण लिखे ॥८३ - ८४॥

अमावर्ण द्वयस्यार्द्धवधिस्तु क्रमशोऽङ्कम् ।

आद्यमन्दिरमध्ये तु षष्ठाङ्कं विलिखेद्‍ बुधः ॥८५॥    

द्वितीये षष्ठचिन्हञ्च तृतीये च गृहे तथा ।

चतुर्थे गगनाङ्कञ्च पञ्चमे चक्रत्रयं तथा ॥८६॥

षष्ठचापे चतुर्थञ्च सप्तमे च चतुर्थकम् ।

अष्टमे गगनाङ्कञ्च नवमे दशमं तथा ॥८७॥

अ से लेकर म पर्यन्त दो वर्णों के अवधि में क्रमशः अङ्कानुसार वर्ण लिखे । बुद्धिमान् ‍ प्रथम मन्दिर में छठवाँ वर्ण लिखे । द्वितीय में भी छठें चिन्ह को लिखे तृतीय गृह में तथा चतुर्थ गृह में गगनाङ्क ( ह ) लिखना चाहिए । पञ्चम में तीन चक्र लिखे । षष्ठ गृह में चतुर्थ वर्ण, सप्तम में भी चतुर्थ वर्ण, अष्टम में गगनाड्क ( ह ) तथा नवम में दशम वर्ण लिखे ॥८५ - ८७॥

शेषमन्दिरमध्ये तु त्रयाङ्कं विलिखेत्ततः ।

एते नाथ साध्यवर्णाः कथिताः क्रमशो ध्रुवम् ॥८८॥

शेष मन्दिर में तीसरा वर्ण लिखे। हे नाथ ! ये साध्य मन्त्र के वर्ण हैं जिन्हें मैने आप से निश्चित रूप से कहा है॥८८॥

कथयामि साधकार्णं सकलार्थानिरुपणम् ।

आद्यगेहे द्वितीयञ्च द्वितेये च तृतीयकम् ॥८९॥

तृतीये पञ्चमं प्रोक्तं गगनं वेदपञ्चके ।

षष्ठे युगलमेवं हि सप्तमे चन्द्रमण्डलम् ॥९०॥

अष्टमे गगनं प्रोक्तं नवमे च चतुर्थकम् ।

वेदञ्च दशमे प्रोक्तं चन्द्रमेकादशे तथा ॥९१॥

अब संपूर्ण प्रयोजनों के निरूपण करने वाले साधक के अक्षरों को कहती हूँ । प्रथम गृह में द्वितीय और द्वितीय में तृतीय वर्ण लिखे । तृतीय गृह में पाँचवाँ, चौथे तथा पाँचवे गृह में गगन ( ह ) लिखे । षष्ठ में युगल वर्ण, सप्तम में चन्द्रमण्डल लिखे । अष्टम गृह में गगन ( ह ) वर्ण, नवम में चतुर्थ वर्ण, दशवें गृह में चौथा वर्ण, एकादश में चन्द्र वर्ण लिखे ॥८९ - ९१॥

साधकार्णाः स्मृताः त्वेते वर्नमण्डलमध्यगाः ।

साध्यवर्णान् महादेव स्वरव्यञ्जनभेदकान् ॥९२॥

एवं हि सर्वमन्त्रार्णानमष्टाद्यङ्कै प्रपूरयेत् ।

एकीकृत्य हरेदष्टसंख्याभिः क्षणवल्लभे ॥९३॥

यस्यापहस्थितं वर्णं तन्नेभव्यं मनौ शुभे ।

साधकाभिधानवर्णान् स्वरव्यञ्जनभेदकान् ॥९४॥

वर्ण मण्डल के मध्य में रहने वाले इतने ही साधक के वर्ण हैं । हे महादेव ! स्वर व्यञ्जन को अलग अलग कर साध्यवर्णों को एकत्रित करे, यह प्रक्रिया समस्ता वर्णों के लिए जोड़कर आठ संख्या से भाग दे । जिस मन्त्र में साधक वर्णों से कम शेष बचे, उस शुभ मन्त्र को भी कदापि न ग्रहण करे । इसी प्रकार साधक के वर्णों के स्वरों तथा व्यञ्जनों को अलग - अलग कर लेवे ॥९२ - ९४॥

पृथक्‍ पृथक्‍ संस्थितांश्च व्यक्तं श्रृणु पुनः पुनः ।

द्वितीयाद्यङ्कचन्द्रान्ते संपूर्वाष्टभिराहरेत् ॥९५॥

मन्त्रो यस्त्वाधिकाङ्क स्यात्तदा मन्त्रं जपेत् सुधीः ।

समेऽपि च जपेमन्त्रं न जपेत्तु ऋणाधिके ॥९६॥

फिर पृथक् पृथक् संस्थित उन वर्णों को द्वितीयादि अंक से भाग दे । यदि मन्त्र में साधक की अपेक्षा अधिक अङ्क आवे तो सुधी साधक उस मन्त्र का जप करे । सम होने पर भी मन्त्र का जप किया जा सकता है । किन्तु ऋण की अधिकता होने पर कदापि उस मन्त्र का जप न करे ॥९५ - ९६॥

शून्ये मृत्युं विजानीयात्तस्माच्छून्यं विवर्जयेत् ।

द्वितीयाद्यङ्कजालञ्च वैष्णव सुखदं स्मृतम् ॥९७॥

द्वितायाद्यङ्कजालञ्च वैष्णवे सुखदं स्मृतम् ।

द्वितीयाद्यङ्कजालञ्च तथा वै परिकीर्तितम् ॥९८॥

यदि शेष शून्य़ बचे तो भी उस मन्त्र का जप कदापि न करे । क्योंकि शून्य मृत्यु का सूचक है । द्वितीयादि अङ्क समुदाय वैष्णवों के लिए सुखदायी कहे गये हैं । यतः द्वितीयादि अङ्क जाल वैष्णवों के लिए सुखदायी हैं, अतः द्वितीयादि अङ्कजाल भी उसी प्रकार का कहा गया है ॥९७ - ९८॥

इन्द्राद्यङ्कं तथा सौरे शाक्ते शुभप्रदम् ।

तथा दिक्‌संख्यकाङ्कञ्च साधकस्य शुभप्रदम् ॥९९॥

तदङ्कं श्रृणु यत्नेन पूर्ववत् सकलं स्मृतम् ।

स्थलञ्चैव विभिन्नाङ्कमूद्‌र्ध्वाधश्च क्रमेण तु ॥१००॥   

साध्याङ्कान् साधकाङ्काँ पूरयेद्‍ गृहसंख्यया ।

गुणिते तु ह्रते चापि यच्छेषं जायते स्फुटम् ॥१०१॥

हे नाथ ! इन्द्रादि अङ्क सूर्य - मन्त्र तथा शाक्ति - मन्त्र में शुभप्रद हैं उसी प्रकार दिक् ‍ १० संख्या वाले अङ्क साधक के लिए शुभप्रद हैं । हे सदाशिव ! और सब तो पूर्ववत् ‍ है केवल उन अङ्कों को प्रयत्नपूर्वक सुनिए । विभिन्न अङ्कों से युक्त ऊपर से नीचे तक क्रमशः साध्य के अङ्कों को तथा साधक के अङ्कों को एक में मिला देवे और उसे ९ से पूर्ण करे । फिर जितनी गृह की संख्या हो उसे ८ से गुणा करे । फिर स्पष्टरुपा से जो शेष बचे उससे फल विचार करे ॥९९ - १०१॥

तदङ्कं कथयाम्यत्र एकादशगृहे स्थितम् ।

इन्द्रतारास्वर्गरवितिथिषड्‌वेददाहनाः ॥१०२॥   

अष्टवसु नवाङ्कस्थाः साध्यार्णगुणिता इति ।

दिग्भूगिरिश्रुतिगजवहिनपर्वतपञ्चमाः ॥१०३॥

वेदषष्ठानलाङ्कञ्च गणयेत् साधकाक्षरान् ।

नामाद्यक्षरमारभ्य यावन्मन्त्राक्षरं भवेत् ॥१०४॥

तत्संख्याञ्च त्रिधा कृत्वा सप्तभिः संहरेद्‍ बुधः ।

अधिकं च ऋणं प्रोक्तं तच्छेषं धनमुच्यते ॥१०५॥

एकादश गृह में रहने वाले उन अङ्कों को यहाँ कहती हूँ - ये अंक इन्द्र तारा २७ . स्वर्ग, रवि १२, तिथि २७, षड् ६, वेद ४, दहन ३, अष्टवसु ८ तथा नवाङ्क ९ में स्थित वर्ण का गुणा साध्य वर्ण से करे । नाम के आदि अक्षर से लेकर जितने मन्त्र के अक्षर हों उन संख्याओं को तीन भागों में बाँट देवे । फिर सात का भाग देवे । यदि अधिक शेष हो तो ऋण, यदि कम शेष हो तो धन कहा जाता है ॥ १०२ - १०५॥

अथवान्यप्रकारञ्च कृत्वा मन्त्रं समाश्रयेत् ।

नामाद्यक्षरमारभ्य यावत् साधकवर्णकम् ॥१०६॥

तावत्संख्यां सप्तगुणं कृत्वा वामैर्हरेद्‍ बुधः ।

श्रीविद्येतरविद्यायां गणना परिकीर्तिता ॥१०७॥

 ( १ ) अथवा एक दूसरा भी प्रकार है जिससे परीक्षा कर मन्त्र का आश्रय ग्रहण करे नाम के आदि अक्षर से आरम्भ कर जितना भी साधक का वर्ण हो उसकी गणना करे । फिर जितनी संख्या हो, उसमें सात का गुणा करे। फिर वाम ( उलट कर ) संख्या से भाग देवे । किन्तु यह गणना श्री विद्या से इतर महाविद्याओं वाले मन्त्र में करने का विधान है ॥१०६ - १०७॥

अधवान्यप्रकरञ्च सकलान् साधकक्षरान् ।

स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विगुणीकृत्य साधकः ॥१०८॥

साध्ययुक्तं ततः कृत्वा स्वरव्यञ्जनभेदकम् ।

अष्टाभिः संहरेदङ्कं श्रृणु संहारविग्रहम् ॥१०९॥

( २ ) अथवा परीक्षा का एक और भी प्रकार है । साधक के सभी अक्षरों के स्वर और व्यञ्जनों को अलग अलग कर उसकी गणना करे । फिर साधक स्वयं उसका दुगुना करे । इस प्रकार साध्य के स्वर एवं व्यञ्जन अक्षरों को अलग अलग जोड़कर आठ का भाग देवे, फिर उसके संहार - विग्रह ( = फल ) को सुनिए ॥१०८ - १०९॥

पूर्वचारक्रमं सम्यक्‍ सर्वत्रामि शुभाशुभम् ।

अस्य विचारमात्रेण सिद्धिः सर्वाथिसाधिका ॥११०॥

पूर्वजन्माराधितायां तां प्राप्नोति हि देवताम् ।

इसमें पूर्वाचार के क्रम से ही सम्यक् शुभाशुभ फल जानना चाहिए इसके केवल विचार मात्र से ही सर्वार्थ साधिका सिद्धि प्राप्त होती है । साधक ने पूर्व जन्म में जिस देवता की आराधना की हैं उसी देवता को वह प्राप्त करता है ॥११० - १११॥

॥ इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन में सर्वचक्रानुष्ठान में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भाव निर्णय में भैरव-भैरवी संवाद में चतुर्थ पटल भाग १ की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ ४ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र चतुर्थ पटल भाग २

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