मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १७
मन्त्रमहोदधि
तरङ्ग १७ में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान
विधि आदि का वर्णन है।
मन्त्रमहोदधि सप्तदशः तरङ्गः
मन्त्रमहोदधि - सप्तदश तरङ्ग
मंत्रमहोदधि
तरंग १७
मंत्रमहोदधि सत्रहवां तरंग
मन्त्रमहोदधिः
अथ सप्तदश: तरङ्गः
अरित्र
अथेष्टदान् मनून वक्ष्ये
कार्तवीर्यस्य गोपितान् ।
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः
क्षितिमण्डले ॥१॥
शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वारा
अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीर्य के मन्त्रों का आख्यान करता हूँ।जो कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शनचक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥
अभीष्टसिद्धिदः
कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रः
वहिनतारयुतारौद्रीलक्ष्मीरग्नीन्दुशान्तियुक्
।
वेधाधरेन्दुशान्त्याढ्यो
निद्रा(शाग्निबिन्दुयुक् ॥ २॥
पाशो मायांकुशं
पद्मावर्मास्त्रेकार्तवीपदम् ।
रेफो वाय्वासनोऽनन्तो वह्निजौ
कर्णसंस्थितौ ॥ ३॥
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो
हृदन्तिकः।
ऊनविंशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः
॥ ४ ॥
अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का
उद्धार कहते हैं - वह्नि (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो),
इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार)
एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश
(ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ)
अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म
(श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्),
फिर ‘कार्तवी पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या),
कर्ण (उ) सहित वह्नि (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार
युक्त) मेष (न) अर्थात् (ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः)
जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के
प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥
विमर्श - ऊनविंशतिवर्णात्मक
मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों
श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥
अस्य मन्त्रस्य
न्यासकथनपूर्वकपूजाप्रकार
दत्तात्रेयो मुनिश्चास्य
च्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजं
शक्तिधुवश्च हृत् ॥ ५॥
इस मन्त्र के दत्तात्रेय
मुनि हैं,
अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं,
ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥
शेषाद्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेद्
बुधः ।
शान्तियुक्त चतुर्थेन कामादयेन
शिरोङ्गकम् ॥ ६ ॥
इन्द्वात्यवामकर्णाढ्य माययार्घीशयुक्तया
।
शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां
वर्म विन्यसेत् ॥ ७॥
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं
चरेत् ।
बुद्धिमान पुरुष,
शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो,
उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से
शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का,
वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष
कार्तवीर्यार्जुनाय नमः से व्यापक न्यास
करना चाहिए ॥६-८॥
विमर्श - न्यासविधि - आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, ई क्लीं भ्रूं शिरसे
स्वाहा,
हुं शिखायै वषट् क्रैं श्रैं कवचाय हुम्, हुँ फट् अस्त्राय फट् ।
इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर
कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास
करना चाहिए ॥६-७॥
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशके ॥
८॥
दक्षपादे वामपादे सक्थिजानुनि
जंघयोः।
विन्यसेद् बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम्
॥ ९॥
ताराद्यान् नवशेषार्णान् मस्तके च
ललाटके ।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि
वक्त्रे गलेंसके ॥ १०॥
अब वर्णन्यास कहते हैं -
मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम,
जठर, नाभि, गुह्य,
दाहिने पैर बाँये पैर, दोनों सक्थि दोनों ऊरु,
दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का
मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥
सर्वमन्त्रेण सर्वाङ्गे कृत्वा
व्यापकमद्वयः।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्
कार्तवीर्य जनेश्वरम् ॥ ११ ॥
तदनन्तर सभी अङ्गों पर मन्त्र के
सभी वर्णों का व्यापक न्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की सिद्धि हेतु राजा कार्तवीर्य
का ध्यान करना चाहिए ॥११॥
विमर्श - न्यास विधि - ॐ
फ्रों ॐ हृदये,
ॐ व्रीं ॐ जठरे,
ॐ क्लीं ॐ नाभौ ॐ भ्रूं ॐ गुह्ये, ॐ आम ॐ दक्षपादे,
ॐ ह्रीं ॐ वामपादे, ॐ फ्रों ॐ सक्थ्नोः ॐ श्रीं ॐ उर्वोः,
ॐ हुं ॐ जानुनोः ॐ फट् ॐ जंघयोः ॐ कां मस्तके,
ॐ र्त्त ललाटें ॐ वीं भ्रुवोः, ॐ र्यां कर्णयोः
ॐ र्जुं नेत्रयोः ॐ नां नासिकायाम् ॐ यं मुखे,
ॐ नं गले, ॐ मः स्कन्धे
इस प्रकार न्यास कर - ॐ फ्रों श्रीं
क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट्
कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे- से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥८-११॥
उद्यत्सूर्यसहस्रकान्तिरखिलक्षोणीधवैर्वन्दितो
हस्तानां शतपञ्चकेन च दधच्चापानिपूंस्तावता
।
कण्ठे हाटकमालया परिवृतश्चक्रावतारो
हरेः
पायात् स्यन्दनगोरुणाभवसनः
श्रीकार्तवीर्यो नृपः ॥ १२ ॥
अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान
कहते हैं -
उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान
कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५००
हाथों में धनुष तथा ५०० हाथों में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित
कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात्
सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥
लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं
जुहुयात्तिलैः ।
सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे
यजेत्तु तम् ॥ १३॥
वक्ष्यमाणे दशदले वृत्तभूपुरसंयुते ।
सम्पूज्य वैष्णवीः
शक्तीस्तत्रावाद्यार्चयेन् नृपम् ॥ १४ ॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए
। तिलों से तथा चावल होम करे, तथा
वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर
वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी
शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥
विमर्श
- कार्तवीर्य की पूजा षट्कोण युक्त यन्त्र में भी कही गई है । यथा - षट्कोणेषु
षडङ्गानि... (१७. १६) तथ दशदल युक्त यन्त्र में भी यथा - दिक्पत्रें विलिखेत् (१७.
२२) । इसी का निर्देश १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे
दशदले’ में ग्रन्थकार करते हैं ।
केसरों में पूर्व आदि ८ दिशाओं में
एवं मध्य में वैष्णवी शक्तियों की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए-
ॐ विमलायै नमः,
पूर्वे ॐ
उत्कर्षिण्यै नमः, आग्नेये
ॐ ज्ञानायै नमः,
दक्षिणे, ॐ क्रियायै नमः, नैऋत्ये,
ॐ भोगायै नमः,
पश्चिमे ॐ प्रहव्यै नमः,
वायव्ये
ॐ सत्यायै नमः,
उत्तरे, ॐ ईशानायै नमः, ऐशान्ये
ॐ अनुग्रहायै नमः, मध्ये
इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्र से आसन
दे कर मूल मन्त्र से उस पर कार्तवीर्य की मूर्ति की कल्पना कर आवाहन से
पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ
करनी चाहिए ॥१३-१४॥
मध्येग्नीशासुरमरुत्कोणेषु
हृदयादिकान् ।
चतुरङ्ग च सम्पूज्य सर्वतोऽस्त्रं
ततो यजेत् ॥ १५॥
मध्य में आग्नेय,
ईशान, नैऋत्ये, और
वायव्यकोणों में हृदयादि चार अंगो की पुनः चारों दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना
चाहिए ॥१५॥
खड्गचर्मधराध्येयाश्चन्द्राभा
अङ्गमूर्तयः।
षट्कोणेषु षडङ्गानि ततो दिक्षु
विदिक्षु च ॥ १६ ॥
चोरमदविभञ्जनं मारीमदविभञ्जनम् ।
अरिमदविभञ्जनं दैत्यमदविभञ्जनम् ॥
१७ ॥
दुःखनाशं दुष्टनाशं दुरितामयनाशकौ ।
दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः
प्राच्यादिषु सितप्रभाः ॥ १८ ॥
तदनन्तर ढाल और तलवार लिए हुये चन्द्रमा
की आभा वाले षडङ्ग मूर्तियों का ध्यान करते हुये षट्कोणों में षडङ्ग पूजा करनी
चाहिए ।
इसके बाद पूर्वादि चारों दिशाओं में
तथा आग्नेयादि चारों कोणो में १. चोरमदविभञ्जन, २.
मारीमदविभञ्जन, ३. अरिमदविभञ्जन, ४.
दैत्यमदविभञ्जन, ५. दुःख नाशक, ६.
दुष्टनाशक, ७. दुरितनाशक, एवं ८.
रोगनाशक का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्व आदि ८ दिशाओं में श्वेतकान्ति वाली ८
शक्तियों का पूजन करना चाहिए ॥१६-१८॥
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च
यशस्करी ।
आयुष्करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः
॥ १९ ॥
धनकर्यष्टमी परचाल्लोकेशा
अस्त्रसंयुताः।
एवं संसाधितो मन्त्रः प्रयोगार्हः
प्रजायते ॥ २०॥
१. क्षेमंकरी,
२. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यशस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. विद्याकारे, तथा ८. धनकरी ये ८ शक्तियाँ है । फिर
आयुधों के साथ दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की साधना से
मन्त्र के सिद्ध जो जाने पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥
विमर्श - आवरण पूजा विधि -
सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा - आं फ्रों श्रीं हृदयाय
नमः आग्नेये,
ई क्लीं भ्रूम शिरसे स्वाहा ऐशान्ये, हु शिखायै वषट् नैऋत्ये,
क्रैं श्रैं कंवचाय हुम् वायव्ये, हुं फट् अस्त्राय
सर्वदिक्षु ।
षडङ्गपूजा यथा
- ॐ फ्रां हृदयाय नमः,
ॐ फ्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ फ्रां शिखाये वषट् ॐ
फ्रै कवचाय हुम्,
ॐ फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ फ्रः अस्त्राय फट्,
फिर अष्टदलों में पूर्वादि चारों
दिशाओं में चोरविभञ्जन आदि का, तथा आग्नेयादि
चारों कोणो में दुःखनाशक इत्यादि चार नाम मन्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चाहिए -
यथा -
ॐ चोरमदविभञ्जनाय नमः पूर्वे, ॐ मारमदविभञ्जनाय नमः
दक्षिणे,
ॐ अरिमदविभञ्जनाय नमः पश्चिमे, ॐ दैत्यमदविभञ्जनाय नमः
उत्तरे,
ॐ दुःखनाशाय नमः आग्नेये, ॐ दुष्टनाशाय नमः
नैऋत्ये,
ॐ दुरितनाशानाय वायव्ये, ॐ रोगनाशाय नमः
ऐशान्ये ।
तत्पश्चात् पूर्वादि दिशाओं के दलों
के अग्रभाग पर श्वेत आभा वाली क्षेमंकरी आदि ८ शक्तियों का इस प्रकार पूजन करना
चाहिए । यथा -
ॐ क्षेमंकर्यै नमः, ॐ वश्यकर्यै नमः, ॐ श्रीकर्यै नमः,
ॐ यशस्कर्यै नमः ॐ आयुष्कर्यै नमः, ॐ प्रज्ञाकर्यै नमः,
ॐ विद्याकर्यै नमः, ॐ धनकर्यै नमः,
तदनन्तर भूपुर में अपनी अपनी दिशाओं
में इन्द्रादि दश दिक्पालों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे, ॐ रं अग्नये नमः आग्नेये,
ॐ मं यमाय नमः दक्षिणे ॐ क्षं निऋतये नमः नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमें ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,
ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे, ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,
ॐ आं ब्राह्यणे नमः
पूर्वेअशानयोर्मध्ये, ॐ ह्रीं अनन्ताय
नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ।
फिर भूपुर के बाहर उनके वज्रादि
आयुधों की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ शूं शूलाय नमः, ॐ पं पद्माय नमः, ॐ चं चक्राय नमः, इत्यादि ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद
धूप,
दीप एवं नैवेद्यादि उपचारों से विधिवत् कार्तवीर्य का पूजन
करना चाहिए ॥१५-२०॥
कार्तवीर्यार्जुनस्याथ पूजार्थ
यन्त्र उच्यते ॥ २१ ॥
दशदलात्मके यन्त्रे बीजादिस्थापनम्
दिक्पत्रं
विलिखेत्स्वबीजमदनश्रुत्यादिवाक्कर्णिकं
वर्मान्त प्रणवादिबीजदशकं
शेषार्णपत्रान्तरम् ।
ऊष्माढ्यं स्वरकेसरं परिवृतं शेषैः
स्वकोणोल्लसद्
भूतार्णक्षितिमन्दिरावृतमिदं
यन्त्रं धराधीशितुः ॥ २२ ॥
अब कार्तवीय की पूजा के लिए
यन्त्र कहता हूँ । काम्यप्रयोगों में कार्तवीर्यस्य काम्यप्रयोगार्थ
पूजनयन्त्रम् कार्तवीर्यपूजन यन्त्रः -
वृत्ताकार कर्णिका में दशदल बनाकर
कर्णिका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज
(क्लीं), श्रुतिबीज (ॐ) एवं वाग्बीज (ऐं) लिखे, फिरे प्रणव से ले कर वर्मबीज पर्यन्त मूल मन्त्र के १० बीजों को दश दलों
पर लिखना चाहिए । शेष सह सहित १६ स्वरों को केशर में तथा शेष वर्णों से दशदल को
वेष्टित करना चाहिए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वर्णों को लिखना चाहिए । यह
कार्तवीर्यार्जुन पूजा का यन्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥
शलभमावष्टगन्धैलिखित्वा यन्त्रमादरात
।
तत्र कम्भं प्रतिष्ठाप्य
तत्रावाह्यार्चयेन्नृपम ॥२३॥
अब काम्य प्रयोग में अभिषेक विधि
कहते है :-
शुद्ध भूमि में श्रद्धा सहित
अष्टगन्ध से उक्त यन्त्र लिखकर उस पर कुंभ की प्रतिष्ठा कर उसमें कार्तवीर्यार्जुन
का आवाहन कर विधिवत् पूजन करना चाहिए ॥२३॥
स्पृष्ट्वा कुम्भं जपेन्मन्त्रं सहस्त्रं
विजितेन्द्रियः ।
अभिषिञ्चेत्तदम्भोभिः प्रियं
सर्वेष्टसिद्धये ॥ २४॥
फिर अपनी इन्द्रियों को वश में कर
साधक कलश का स्पर्श कर उक्त मुख्य मन्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्तर उस
कलश के जल से अपने समस्त अभीष्टों की सिद्धि हेतु अपना तथा अपने प्रियजनों का
अभिषेक करे ॥२३-२४॥
नानाप्रयोगसाधनम्
पुत्रान्यशो रोगनाशमायुः
स्वजनरञ्जनम् ।
वाक्सिद्धिं सुदृशः कुम्भाभिषिक्तो
लभते नरः ॥ २५ ॥
शत्रूपद्रवमापन्ने ग्रामे वा
पुटभेदने ।
संस्थापयेदिदं
यन्त्रमरिभीतिनिवृत्तये ॥ २६ ॥
अब उस अभिषेक का फल कहते हैं
- इस प्रकार अभिषेक से अभिषिक्त व्यक्ति पुत्र, यश,
आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से प्रेम तथा उपद्रव्य होने पर उनके भय
को दूर करने के लिए कार्तवीर्य के इस मन्त्र को संस्थापित करना चाहिए ॥२५-२६॥
सर्षपारिष्टलशुनकार्पासैौर्यते
रिपुः ।
धत्तूरैः स्तंभ्यते निम्बैढेष्यते
वश्यतेऽम्बुजैः ॥ २७ ॥
उच्चाट्यते विभीतस्य समिभिः खदिरस्य
च ।
कटुतैलमहिष्याज्य:मद्रव्याञ्जनं
स्मृतम् ॥ २८॥
यवर्हतैः श्रियः
प्राप्तिस्तिलैराज्यैरघक्षयः।
दिलतण्डुलसिद्धार्थलाजैर्वश्यो नृपो
भवेत् ॥ २९ ॥
विविध कामनाओं में होम द्रव्य
इस प्रकार है - सरसों, लहसुन एवं कपास के
होम से शत्रु का मारन होता है । धतूर के होम से शत्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर विद्वेषण, कमल के होम से
वशीकरण तथा बहेडा एवं खैर की समिधाओं के होम से शत्रु का उच्चाटन होता है । जौ के
होम से लक्ष्मी प्राप्ति, तिल एवं घी के होम से
पापक्षय तथा तिल तण्डुल सिध्दार्थ (श्वेत सर्षप) एवं लाजाओं के होम से राजा वश में
हो जाता है ॥२७-२९॥
अपामार्गार्कदूर्वाणां होमो
लक्ष्मीप्रदोऽघनुत् ।
स्त्रीवश्यकृत्प्रियंगूणां पुराणां
भूतशान्तिदः ॥ ३० ॥
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षवटबिल्ध्वसमुद्भवाः
।
समिधो लभते हुत्वा पुत्रानायुर्धनं
सुखम् ॥ ३१॥
अपामार्ग,
आक एवं दूर्वा का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नाशक होता है । प्रियंगु
का होम स्त्रियों को वश में करता है । गुग्गुल का होम भूतों को शान्त करता है ।
पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की समिधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु,
धन एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥
निर्मोकहेमसिद्धार्थलवणैश्चोरनाशनम्
।
रोचनागोमयैः स्तम्भो भूप्राप्तिः
शालिभिर्हतैः ॥ ३२ ॥
साँप की केंचुली,
धतूरा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों ) तथा लवण के
होम से चोरों का नाश होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम से स्तंभन होता है तथा शालि
(धान) के होम से भूमि प्राप्त होती है ॥३२॥
होमसंख्या तु सर्वत्र
सहस्रादयुतावधि ।
प्रकल्पनीया मन्त्रज्ञैः
कार्यगौरवलाघवात् ॥ ३३॥
मन्त्रज्ञ विद्वान् को कार्य की
न्यूनाधिकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार
तक निश्चित कर लेनी चाहिए । कार्य बाहुल्य में अधिक तथा स्वल्पकार्य में स्वल्प
होम करना चाहिए ॥३३॥
विमर्श
- सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दश हजार तक कही गई है,
विद्वान् जैसा कार्य देखे वैसा होम करे ॥३३॥
दशमन्त्रभेदानां कथनम्
कार्तवीर्यस्य मन्त्राणामुच्यन्ते
सिद्धिदाभिदाः।
कार्तवीर्यार्जुनं डेन्तमन्ते च
नमसान्वितम् ॥ ३४ ॥
स्वबीजात्यो दशार्णोऽसावन्ये
नवशिवाक्षराः।
अब सिद्धियों को देने वाले कार्तवीर्यार्जुन
के मन्त्रों के भेद कहे जाते हैं -
अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त
कार्तवीर्यार्जुन का चतुर्थ्यन्त, उसके बाद नमः
लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है । अन्य मन्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा
कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥
आद्यबीजद्वयेनाऽसौ द्वितीयो मन्त्र
ईरितः ॥ ३५॥
स्वकामाभ्यां तृतीयोऽसौ
स्वभ्रूभ्यां तु चतुर्थकः ।
स्वपाशाभ्यां पञ्चमोंसौ षष्ठः स्वेन
च मायया ॥ ३६॥
स्वांकुशाभ्यां सप्तमः स्यात्
स्वरमाभ्यामथाष्टमः ।
स्ववाग्भवाभ्यां नवमो
वर्मास्त्राभ्यां तथान्तिमः ॥ ३७॥
उक्त मन्त्र के प्रारम्भ में दो बीज
(फ्रों व्रीं) लगाने से यह द्वितीय मन्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा
कामबीज (क्लीं) सहित यह तृतीय मन्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सहित नवम
मन्त्र और आदि में वर्म (हुं) तथा अन्त में अस्त्र (फट्) सहित दशम मन्त्र
बन जाता है ॥३५-३७॥
विमर्श - कार्तवीर्यार्जुन के दश
मन्त्र - १, फ्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः
२. फ्रों व्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ३. फ्रों क्लीं
कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ४. फ्रों भ्रूं कार्तवीर्यार्जुनाय
नमः ५. फ्रों आं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ६. फ्रों ह्रीं
कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ७. फ्रों क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय
नमः, ८. फ्रों श्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ९. फ्रों ऐं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, १०. हुं
कार्तवीर्यार्जुनाय नमः फट् ॥३४-३७॥
द्वितीयादि नवान्ते तु बीजयोः
स्याद् व्यतिक्रमः।
मन्त्रे तु दशमे वर्णा नववर्मास्त्रमध्यगाः
॥ ३८॥
द्वितीय मन्त्र से लेकर नौवें
मन्त्र तक बीजों का व्युत्क्रम से कथन है और दसवें मन्त्र में वर्म (हुं) और
अस्त्र (फट्) के मध्य नौ वर्ण रख्खे गए हैं ॥३८॥
एतेषु मन्त्रवर्येषु स्वानुकूलं
मनुं भजेत् ।
एषामाघे विराट्छन्दोऽन्येषु
त्रिष्टुबुदाहृतम् ॥ ३९॥
इन मन्त्रों मे से जो भी सिद्धादि
शोधन की रिति से अपने अनुकूल मालूम पडे उसी मन्त्र की साधना करनी चाहिए ॥३९॥
इन मन्त्रों में प्रथम दशाक्षर का
विराट् छन्द है तथा अन्यों का त्रिष्टुप छन्द है ॥३९॥
विमर्श - दशाक्षर मन्त्र का
विनियोग- अस्य श्रीकार्तवीर्यार्युनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिविराट्छन्दः
कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः ।
अन्य मन्त्रों क विनियोग
- अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषि स्त्रिष्टुप छन्दः
कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
दशमन्त्रा इमे प्रोक्ताः प्रणवादि
पदानि च ।
तदादिमः शिवार्णः स्यादन्ये तु
द्वादशाक्षरा: ॥४० ॥
एवं विंशति मन्त्राणां यजनं
पूर्ववन्मतम् ।
त्रिष्टुप्छन्दस्तदायेषु
स्यादन्येषु जगतीमता ॥ ४१ ॥
पूर्वोक्त १० मन्त्रों के प्रारम्भ
में प्रणव लगा देने से प्रथम दशाक्षर मन्त्र एकादश अक्षरों का तथा अन्य ९
द्वादशाक्षर बन जाते है । इस प्रकार कार्तवीर्य मन्त्र के २० प्रकार के भेद
बनते है । इनकी साधना पूर्वोक्त मन्त्रों के समान है । उक्त द्वितीय दश संख्यक मन्त्रों
में पहले त्रिष्टुप तथा अन्यों का जगती छन्द है । इन मन्त्रों की साधना में षड्
दीर्घ सहित स्वबीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४०-४१॥
विनियोग
- अस्य श्रीएकादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः
कार्तवीर्यार्जुनो देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जपे विनियोगः ।
अन्य नवके
- अस्य श्रीद्वादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिर्जगतीच्छदः
कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
- फ्रां हृदयाय नमः, फ्रीं शिरसे स्वाहा, फ्रूं शिखायै वषट्,
फ्रैं कवचाय हुम्, फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,
फ्रः अस्त्राय फट् ॥४१॥
दीर्घाढ्यमूलबीजेन कुर्यादेषां
षडङ्गकम् ।
तारो हृत्कार्तवीर्यार्जुनाय
वर्मास्त्रठद्वयम् ।
चतुर्दशार्णो मन्त्रोऽयमस्येज्या
पूर्ववन्मता ॥ ४२ ॥
तार (ॐ),
हृत् (नमः), फिर ‘कार्तवीर्यार्जुनाय’
पद, वर्म (हुं), अ (फट्),
तथा अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का मन्त्र बनता है
इसकी साधना पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥४२॥
विमर्श - चतुर्दशार्ण मन्त्र का
स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमः कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१४) ॥४२॥
भूनेत्र सप्तनेत्राक्षिवणैरस्याङ्गपञ्चकम्
।
मन्त्र के क्रमशः १,
२, ७, २, एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४३॥
विमर्श - पञ्चाङ्गन्यास - ॐ
हृदयाय नमः, नमः शिरसे स्वाहा,
कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट् कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४३॥
तारो हृद्भगवान्डेन्तः
कार्तवीर्यार्जुनस्तथा ॥ ४३॥
वर्मास्त्राग्निप्रियामन्त्रः
प्रोक्तोष्टादशवर्णवान् ।
त्रिवेदसप्तयुग्माक्षिवर्णैः
पञ्चाङ्गक मनोः ॥ ४४ ॥
तार (ॐ),
हृत् (नमः), तदनन्तर चतुर्थ्यन्त भगवत्
(भगवते), एवं कार्तवीर्यार्जुन (कार्तवीर्यार्जुनाय),
फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) उसमें
अग्निप्रिया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्य मन्त्र बनता है ॥४३-४४॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ॐ नमो भगवते कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१८) ॥४४॥
इस मन्त्र के क्रमशः ३,
४, ७, २ एवं २ वर्णों से
पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४४॥
पञ्चाङ्गन्यास
- ॐ हृदयाय नमः, भगवते शिरसे स्वाहा, कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट कवचाय हुम्,
स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४४॥
मन्त्रान्तरकथनम्
नमो भगवते श्रीति
कार्तवीर्यार्जुनाय च ।
सर्वदुष्टान्तकायेति तपोबलपराक्रम ॥
४५॥
परिपालित सप्तान्ते द्वीपाय
सर्वरापदम् ।
जन्यचूडामणान्ते ये सर्वशक्तिमते
ततः ॥ ४६ ॥
सहस्रबाहवे प्रान्ते
वर्मास्त्रान्तो महामनुः।
त्रिषष्टिवर्णवान्प्रोक्तः
स्मरणात्सर्वविघ्नहृत् ॥ ४७॥
नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय,
फिर सर्वदुष्टान्तकाय, फिर ‘तपोबल पराक्रम परिपालिलसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सर्वराजन्य चूडामण्ये सर्वशक्तिमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्र
बनता हैं , जो स्मरण मात्र से सारे विघ्नों को दूर कर देता
है ॥४५-४७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्वदुष्टान्तकाय
तपोबलपराक्रमपरिपालितसप्तद्वीपाय सर्वराजन्यचूडाणये सर्वशक्तिमते सहस्त्रबाहवे हुं
फट् (६३) ॥४५-४७॥
राजन्यचक्रवर्ती च वीरः
शूरस्तृतीयकः ।
माहिष्मतीपतिः पश्चाच्चतुर्थः
समुदीरितः ॥ ४८॥
रेवाम्बुपरितृप्तश्च
कारागेहप्रबाधितः।
दशास्यश्चेति षड्भिः स्यात्पदैर्डेन्तैः
षडङ्गकम् ॥ ४९ ॥
१. राजन्यचक्रवर्ती,
२. वीर, ३. शूर, ४.
महिष्मपति, ५. रेवाम्बुपरितृप्त एवं, ६.
कारागेहप्रबाधितदशास्य - इन ६ पदों के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर षडङ्गन्यास
करना चाहिए ॥४८-४९॥
विमर्श - षडङ्गन्यास का स्वरुप
- राजन्यचक्रवर्तिने हृदयाय नमः, वीराय शिरसे
स्वाहा, शूराय शिखायै वषट्, महिष्मतीपतये
कवचाय हुम्, रेवाम्बुपरितृप्ताय नेत्रत्रयाय वौषट्, कारागेहप्रबाधितशास्याय अस्त्राय फट् ॥४८-४९॥
सिंच्यमानं युवतिभिः क्रीडन्तं
नर्मदाजले ।
हस्तैर्जलौघं रुन्धन्तं
ध्यायेन्मत्तं नृपोत्तमम् ॥ ५० ॥
नर्मदा नदी
में जलक्रीडा करते समय युवतियों के द्वारा अभिषिच्यमान तथा नर्मदा की
जलधारा को अवरुद्ध करने वाले नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान करना चाहिए
॥५०॥
एवं ध्यात्वायुतं मन्त्रं
जपेदन्यत्तु पूर्ववत् ।
पूर्ववत्सर्वमेतस्य समाराधनमीरितम्
॥ ५१॥
इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का
१० हजार जप करना चाहिए तथा हवन पूजन आदि समस्त कृत्य पूर्वोक्त कथित मन्त्र की
विधि से करना चाहिए । इस मन्त्र साधना के सभी कृत्य पूर्वोक्त मन्त्र के समान कहे
गये हैं॥५१॥
हृतनष्टलाभदोऽन्यो मन्त्रः
कार्तवीर्यार्जुनो
वर्णान्नामराजापदं ततः।
उक्त्वा बाहुसहस्रान्ते वान्पदं
तस्य संततः ॥ ५२ ॥
स्मरणादेववर्णान्ते हृतं नष्टं च
सम्पठेत् ।
लभ्यते मन्त्रवर्योऽयं
द्वात्रिंशद्वर्णसंज्ञकः ॥ ५३ ॥
अब कार्तवीर्यार्जुन के अनुष्टुप
मन्त्र का उद्धार कहता हूँ -
‘कार्तवीर्यार्जुनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’
तथा ‘वान्’ कहना चाहिए ।
फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चाहिए । यह ३२ अक्षर का मन्त्र है ।
इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से,
तथा सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए । इसका ध्यान एवं
पूजन आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥५२-५३॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है -
कार्तवीर्याजुनो नाम राजा
बाहुसहस्त्रवान् ।
तस्य संस्मरणादेव हृतं
नष्टं च लभ्यते ॥
विनियोग
- अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिरनुष्टुप्छन्दः
श्रीकार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
पञ्चाङ्गन्यास
- कार्तवीर्यार्जुनो नाम हृदयाय नमः, राजा
बाहुसहस्त्रवान् शिरसे स्वाहा, तस्य संस्मरणणादेव शिखायै
वषट्, हृतं नष्टं च लभ्यते कवचाय हुम्, कार्तवीर्यार्जुनी० अस्त्राय फट् ॥५२-५३॥
पादैः सर्वेण पञ्चाङ्ग
ध्यानयोगादिपूर्ववत् ।
कार्तवीर्यार्जुनगायत्री
कार्तवीर्याय शब्दान्ते
विद्महेपदमीरयेत् ॥ ५४॥
महावीर्यायवर्णान्ते धीमहीति पदं
वदेत् ।
तन्नोऽर्जुनः प्रवर्णान्ते चोदयात्पदमीरयेत्
॥ ५५ ॥
गायत्र्येषार्जुनस्योक्ता प्रयोगादौ
जपेत्तु ताम् ।
‘कार्तवीर्याय’ पद दे बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महावीर्याय’ के बाद ‘धीमहि’
पद कहना चाहिए । फिर ‘तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात्’
बोलना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन का गायत्री मन्त्र है ।
कार्तवीर्य के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना चाहिए ॥५४-५६॥
अनुष्टुभं मनुं रात्रौ जपतां
चौरसञ्चयाः ॥ ५६ ॥
पालयन्ते
गृहाद्दूरं तर्पणाद्वचनादपि ।
रात्रि में इस अनुष्टुप् मन्त्र का
जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्र से तर्पण करने पर
अथवा इसका उच्चारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥
अखिलेप्सितदीपविधानकथनम्
अथो दीपविधिं वक्ष्ये
कार्तवीर्यप्रियंकरम् ॥ ५७ ॥
वैशाखे श्रावणे मार्गे
कार्तिकाश्विनपौषतः ।
माघफाल्गुनयोर्मासे दीपारम्भः
प्रशस्यते ॥ ५८ ॥
अब दीपप्रियः आर्तवीर्यः’
इस विधि के अनुसार कार्तवीर्य को प्रसन्न करने वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक,
आश्विन, पौष, माघ एवं
फाल्गुन में दीपदान करना प्रशस्त माना गया है ॥५७-५८॥
तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ
विना ।
हस्तोत्तराश्विरौद्रेषु
पुष्यवैष्णववायुभे ॥ ५९ ॥
द्विदैवते च रोहिण्यां दीपारम्भः
प्रशस्यते।
चौथ, नवमी तथा चतुर्दशी - इन (रिक्ता) तिथियों को छोडकर, दिनों
में मङ्गल एवं शनिवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय,
आश्विनी, आर्द्रा, पुष्य,
श्रवण, स्वाती, विशाखा
एवं रोहिणी नक्षत्र में कार्तवीर्य के लिए दीपदान का आरम्भ प्रशस्त कहा गया है
॥५९-६०॥
चरमे च व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ
सुकर्मणि ॥ ६० ॥
प्रीतौ हर्षे च सौभाग्ये
शोभनायुष्मतोरपि ।
करणे विष्टिरहिते ग्रहणेोदयादिषु ॥
६१॥
एषु योगेषु पूर्वाणे दीपारम्भः कृतः
शुभः ।
वैघृति,
व्यतिपात, धृति, वृद्धि,
सुकर्मा, प्रीति, हर्षण,
सौभाग्य, शोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा
विष्टि (भद्रा) को छोडकर अन्य करणों में दीपारम्भ करना चाहिए । उक्त योगों में
पूर्वाह्ण के समय दीपारम्भ करना प्रशस्त है ॥६०-६२॥
कार्तिके शुक्लसप्तम्यां
निशीथेऽतीवशोभनः ॥ ६२॥
यदि तत्र रवेर्वारः श्रवणं भं तु
दुर्लभम् ।
अत्यावश्यककार्येषु मासादीनां न
शोधनम् ॥ ६३ ॥
कार्तिक शुक्ल सप्तमी को निशीथ काल
में इसका प्रारम्भ शुभ है । यदि उस दिन रविवार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत
दुर्लभ है । आवश्यक कार्यो में महीने का विचार नहीं करना चाहिए ॥६२-६३॥
आये ह्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी
शयीत कौ ।
प्रातः स्नात्वा शुद्धभूमौ
लिप्तायां गोमयोदकैः ॥ ६४॥
प्राणानायम्य संकल्प्य
न्यासान्पूर्वोदितांश्चरेत् ।
साधक दीपदान से प्रथम दिन उपवास कर
ब्रह्यचर्य का पालन करते हुये पृथ्वी पर शयन करे । फिर दूसरे दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर गोबर और शुद्ध जल से हुई भूमि में प्राणायाम
कर,
दीपदान का संकल्प एवं पूर्वोक्त न्यासों को करे ॥६४-६५॥
षट्कोणं रचयेद् भूमौ
रक्तचन्दनतण्डुलैः ॥ ६५॥
अन्तः स्मरं समालिख्य षट्कोणेषु
समालिखेत् ।
मन्त्रराजस्य
षड्वर्णान्कामबीजविवर्जितान् ॥ ६६ ॥
सणिं पद्मा वर्मचास्त्रं
पूर्वाद्याशासु संलिखेत् ।
वाणैर्वेष्टयेत्तच्च त्रिकोणं तबहिः
पुनः ॥ ६७ ॥
फिर पृथ्वी पर लाल चन्दन मिश्रित
चावलों से षट्कोण का निर्माण करे । पुनः उसके भीतर काम बीज (क्लीं) लिख कर षट्कोणों
में मन्त्रराज के कामबीज को छोडकर शेष बीजो को (ॐ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं)
लिखना चाहिए । सृणि (क्रों) पद्म (श्रीं) वर्म (हुं) तथा अस्त्र (फट्) इन चारों
बीजों को पूर्वादि चारों दिशाओं में लिखना चाहिए । फिर ९ वर्णों
(कार्तवीर्यार्जुनाय नमः) से उन षड्कोणों को परिवेष्टित कर देना चाहिए । तदनन्तर
उसके बाहर एक त्रिकोण निर्माण करना चाहिए ॥६५-६७॥
एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद्
दीपभाजनम् ।
स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं
तदभावतः ॥ ६८ ॥
कांस्यपात्रं मृण्मयं च कनिष्ठं
लोहजं मृतौ ।
शान्तये मुद्गचूर्णोत्थं सन्धौ
गोधूमचूर्णजम् ॥ ६९ ॥
अब दीपस्थापन एवं पूजन का प्रकार
कहते हैं –
इस प्रकार से लिखित मन्त्र पर दीप
पात्र को स्थापित करना चाहिए । वह पात्र सोने, चाँदी
या ताँबे का होना चाहिए । उसके अभाव में काँसे का अथवा उसके भी अभाव में मिट्टी का
या लोहे का होना चाहिए । किन्तु लोहे का और मिट्टी का पात्र कनिष्ठ (अधम) माना गया
है ॥६८-६९॥
शान्ति के और पौष्टिक कार्यो के लिए
मूँगे के आटे का तथा किसी को मिलाने के लिए गेहूँ के आँटे का दीप-पात्र बनाकर
जलाना चाहिए ॥६९॥
बुध्नेषूदर्ध्व समानं तु पात्रं
कुर्यात्प्रयत्नतः ।
अर्कदिग्वसुषट्
पञ्चचतुराभांगुलैर्मितम् ॥ ७० ॥
ध्यान रहे कि दीपक का निचला भाग
(मूल) एवं ऊपरी भाग आकृति में समान रुप का रहे । पात्र का परिमाण १२,
१०, ८, ६, ५, या ४ अंगुल का होना चाहिए ॥७०॥
आज्यपलसहस्रं तु पात्रं शतपलैः
कृतम् ।
आज्येयुतपले पात्रं पलपञ्चशतीकृतम्
॥ ७१॥
पञ्चसप्ततिसंख्ये तु पात्रं
षष्टिपलं मतम् ।
त्रिसहसे घृतपले शरार्कपलभाजनम् ॥
७२ ॥
द्विसहस्रे शरशिवं शतार्द्ध
त्रिंशता मतम् ।
शतेक्षिशरसंख्यातमेवमन्यत्र
कल्पयेत् ॥ ७३॥
सौ पल के भार से बने पात्र में एक
हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में
१० हजार पल घी, ६० पल के भार से बनाये गये पात्र में ७५ पल
घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी,
११५ पल भार से बनाये गये दीप-पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये
पात्र में १०० पल घी डालना चाहिए । इस प्रकार जितना घी जलाना हो अनुसार पात्र के
भार की कल्पना कर लेनी चाहिए ॥७१-७३॥
नित्ये दीपे वह्निपलं पात्रमाज्यं
पलं स्मृतम् ।
एवं पात्रं प्रतिष्ठाप्य वर्तीः
सूत्रोत्थिताः क्षिपेत् ॥ ७४ ॥
एका तिस्रोऽथवा पञ्च सप्ताद्या
विषमा अपि ।
तिथिमानाद्य सहस्रं
तन्तुसंख्याविनिर्मिताः ॥ ७५॥
नित्यदीप में ३ पल के भार का पात्र
तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थापित कर सूत की बनी
बत्तियाँ डालनी चाहिए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बत्तियाँ डालिनी
चाहिए । ऐसे सामान्य नियमानुसार विषम सूतों की बनी बत्तियाँ होनी चाहिए ॥७४-७५॥
गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र
शुद्धवस्त्रविशोधितम् ।
सहस्रपलसंख्यादिदशान्तं
कार्यगौरवात् ॥ ७६ ॥
दीप-पात्र में शुद्ध-वस्त्र से छना
हुआ गो घृत डालना चाहिए । कार्य के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १०००
पल परिमाण पर्यन्त घी की मात्रा होनी चाहिए ॥७६॥
सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां
षोडशांगुलाम् ।
तदा वा तदद्धां वा सूक्ष्मायां
स्थूलमूलकाम् ॥ ७७॥
विमुच्चेद् दक्षिणे भागे पात्रमध्ये
कृताग्रकाम् ।
पात्राद् दक्षिणदिग्देशे
मुक्त्वांगुलचतुष्टयम् ॥ ७८ ॥
अधोऽग्रां दक्षिणाधारां
निखनेच्छुरिकां शुभाम् ।
दीपं प्रज्वालयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्वकम्
॥ ७९ ॥
सुवर्ण आदि निर्मित्त पात्र के
अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८
या ४ अंगुल की एक मनोहर शलाका बनाकार उक्त दीप पात्र के, भीतर
दाहिनी ओर से शलाका का अग्रभाग कर डालना चाहिए । पुनः दीप पात्र से दक्षिण दिशा
में ४ अंगुल जगह छोडकर भूमि में अधोमुख एक छुरी या चाकू गाडना चाहिए । फिर गणपति
का स्मरण करते हुये दीप की जलाना चाहिए ॥७७-७९॥
दीपात् पूर्वे तु दिग्भागे
सर्वतोभद्रमण्डले ।
तण्डुलाष्टदले वाऽपि
विधिवत्स्थापयेद्धटम् ॥ ८०॥
तत्रावाह्य नृपाधीशं
पूर्ववत्पूजयेत् सुधीः ।
जलाक्षताः समादाय दीपं
संकल्पयेत्ततः ॥ ८१॥
दीपक से पूर्व दिशा में सर्वतोभद्र मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर मिट्टी का घडा विधिवत् स्थापित करना चाहिए ।
उस घट पर कार्तवीर्य का आवाहन कर साधक को पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन करना चाहिए
। इतना कर लेने के बाद हाथ में जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चाहिए
॥८०-८१॥
दीपसंकल्पमन्त्रोऽथ कथ्यते द्वीषु
भूमितः ।
प्रणवः पाशमाये च शिखाकार्ताक्षराणि
च ॥ ८२॥
वीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्र
च ।
बाहवे इति वर्णान्ते
सहस्रपदमुच्चरेत् ॥ ८३॥
क्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय
च ।
आत्रेयायानुसूयान्ते गर्भरत्नाय
तत्परम् ॥ ८४॥
नभोग्नीवामकर्णेन्दुस्थितौ पाशद्वयं
ततः ।
दीपं गृहाण त्वमुकं रक्ष रक्ष पदं
पुनः ॥ ८५॥
दुष्टान्नाशय युग्मं स्यात्तथा पातय
घातय ।
शत्रूजहि द्वयं माया तारः स्वं
बीजमात्मभूः ॥ ८६ ॥
वहिनजाया अनेनाथ दीपवर्येण पश्चिमा ।
भिमुखेनामुकं रक्ष अमुकान्ते
वरप्रदा ॥ ८७॥
नायाकाश द्वयं वाम नेत्रचन्द्रयुतं
शिवा ।
वेदादिकामचामुण्डा स्वाहा
तुःपुःसबिन्दुकौ ॥ ८८ ॥
प्रणवोऽग्नि प्रियामन्त्रो
नेत्रबाणधराक्षरः।
अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प
मन्त्र कहते हैं - यह (द्वि २ इषु ५ भूमि १ अंकाना वामतो गतिः) एक सौ बावन
अक्षरों का माला मन्त्र है ।
प्रणव (ॐ),
पाश (आं), माया (ह्रीं), शिखा (वषट्), इसके बाद ‘कार्त्त’
इसके बाद ‘वीर्यार्जुनाय’ के बाद ‘माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे’ इन वर्णों के बाद ‘सहस्त्र’ पद
बोलना चाहिए । फिर ‘क्रतुदीक्षितहस्त दत्तात्रेयप्रियाय
आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय’, फिर वाम कर्ण (ऊ), इन्दु(अनुस्वार) सहित नभ (ह) एवं अग्नि (र्) अर्थात् (हूँ) पाश आं,
फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष
दुष्टानाशय नाशय’, फिर २ बार ‘पातय’
और २ बार ‘घातय’ (पातय
पातय घातय घातय), ‘शत्रून जहि जहि’, फिर
माया (ह्रीं) तार (ॐ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (क्लीं) और फिर
वाहिनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन
दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर
वामनेत्रे (ई), चन्द्र (अनुस्वार) सहित २ बार आकाश (ह)
अर्थात् (हीं हीं), शिवा (ह्रीं), वेदादि
(ॐ), काम (क्लीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’
फिर सानुस्वर तवर्ग एवं पवर्ग (तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं),
फिर प्रणव (ॐ) तथा अग्निप्रिया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का
दीपदान मन्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥
विमर्श - दीप संकल्प के मन्त्र
का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ आं ह्रीं वषट् कार्तवीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय
सहस्त्रबाहवे, सहस्त्रक्रतुदीक्षितहस्ताय
दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय ह्रूं आं इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष
रक्ष दुष्टान्नाशय नाशय पातय पातय घातय घातय शत्रून जहि जहि ह्रीं ॐ फ्रों क्लीं
स्वाहा अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकवरप्रदानाय हीं हीं ह्रीं ॐ
क्लीं व्रीं स्वाहा तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं ॐ स्वाहा (१५२) ॥८२-८९॥
दत्तात्रेयो मुनिर्मालामन्त्रस्य
परिकीर्तितः ॥ ८९ ॥
छन्दोमित कार्तवीर्यार्जुनो देवः
शुभावहः ।
चामुण्डया षडङ्गानि
चरेत्षड्दीर्घयुक्तया ॥ ९०॥
इस मालामन्त्र के दत्तात्रेय
ऋषि,
अमित छन्द तथा कार्तवीर्यार्जुन देवता हैं । षड्दीर्घसहित चामुण्डा
बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥८९-९०॥
विमर्श विनियोग - अस्य
श्रीकार्तवीर्यमालमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषिरमितच्छन्दः कार्तवीर्याजुनी
देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
- ॐ व्रां हृदयाय नमः, व्रीं शिरसे स्वाहा,
व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्,
व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥८९-९०॥
ध्यात्वा देवं ततो मन्त्रं
पठित्वान्ते क्षिपेज्जलम् ।
ततो नवाक्षरं मन्त्रं सहस्रं
तत्पुरो जपेत् ॥ ९१ ॥
दीप संकल्प के पहले कार्तवीर्य का
ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्र का उच्चारण कर जल नीचे भूमि
पर गिरा देना चाहिए । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर
मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥९१॥
तारोऽनन्तो बिन्दुयुक्तो मायास्वं
वामनेत्रयुक् ।
कूर्माग्नी शान्तिचन्द्राढ्यौ
वह्निनार्यकुशं ध्रुवः ॥ ९२॥
नवाक्षर मन्त्र का उद्धार
- तार (ॐ), बिन्दु (अनुस्वार) सहित अनन्त
(आ) (अर्थात् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र
सहित स्वबीज (फ्रीं), फिर शान्ति (ई) और चन्द्र (अनुस्वार)
सहित कूर्म (व) और अग्नि (र) अर्थात् (व्रीं), फिर वह्निनारी
(स्वाहा), अंकुश (क्रों) तथा अन्त में ध्रुव (ॐ) लगाने से
नवाक्षर मन्त्र बनता है । यथा - ॐ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा क्रों ॐ ॥९२॥
ऋषिः पूर्वः स्मृतोऽनुष्टुप्छन्दो
ह्यन्यत्तु पूर्ववत् ।
सहस्रं मन्त्रराजं च जपित्वा कवचं
पठेत् ॥ ९३॥
इस मन्त्र के पूर्वोक्त दत्तात्रेय
ऋषि हैं । अनुष्टुप् छन्द है तथा इसके देवता और न्यास पूर्वोक्त मन्त्र के समान
है। (द्र० १७. ८९-९०) इस मन्त्र का एक हजार जप कर कवच का पाठ करना चाहिए । (यह कवच
डामर तन्त्र में हुं के साथ कहा गया है ) ॥९३॥
विमर्श - विनियोग- अस्य
नवाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिः अनुष्टुप्छन्दः कार्तवीर्यार्जुनो
देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
- व्रां हृदयाय नमः व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं
शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्,
व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥९३॥
एवं दीपप्रदानस्य
कर्ताऽऽप्नोत्यखिलेप्सितम् ।
दीपप्रबोधकाले तु वर्जयेदशुभां
गिरम् ॥ ९४ ॥
इस प्रकर दीपदान करने वाला व्यक्ति
अपना सारा अभीष्ट पूर्ण कर लेता है । दीप प्रज्वलित करते समय अमाङ्गलिक शब्दों का
उच्चारण वर्जित है ॥९४॥
विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं
परिकीर्तितम् ।
शद्राणा मध्यम प्रोक्त म्लेच्छस्य
बधबन्धदम ॥९५॥
आख्वोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य
सुखावहम् ।
अब दीपदान के समय शुभाशुभ शकुन
का निर्देश करते हैं -
दीप प्रज्वलित करते समय ब्राह्मण का
दर्शन शुभावह है । शूद्रों का दर्शन मध्यम फलदायक तथा म्लेच्छ दर्शन बन्धदायक माना
गया है । चूहा और बिल्ली का दर्शन अशुभ तथा गौ एवं अश्व का दर्शन शुभकारक है ॥९४-९६॥
दीपज्वालासमासिद्ध्यै वक्रा
नाशविधायिनी ॥ ९६ ॥
सशब्दा भयदा कर्तरुज्ज्वला सखदा मता
।
कृष्णा तु शत्रुभयदा वमन्ती
पशुनाशिनी ॥ ९७ ॥
कृते दीपे यदा पात्रं भग्नं दृश्येत
दैवतः।
पक्षादक् तदागच्छेद्यजमानो यमालयम्
॥ ९८ ॥
दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो सिद्धि
और टेढी मेढी हो तो विनाश करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का शब्द भय
कारक होता है । ज्योतिपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कर्ता को सुख प्राप्त होता है । यदि
काला हो तो शत्रुभयदायक तथा वमन कर रहा हो तो पशुओं का नाश करता है । दीपदान करन
के बाद यदि संयोगवशात् पात्र भग्न हो जावे तो यजमान १५ दिन के भीतर यम लोक
का अतिथि बन जाता है ॥९६-९८॥
वर्त्यन्तरं यदा कुर्यात्कार्य
सिद्धयेद्विलम्बतः।
नेत्रहीनो भवेत्कर्ता
तस्मिन्दीपान्तरे कृते ॥ ९९ ॥
अशुचिस्पर्शने त्वाधिर्दीपनाशे तु
चौरभीः ।
श्वमार्जाराखसंस्पर्श भवेद भूपतितो
भयम् ॥ १०० ॥
अब दीपदान के शुभाशुभ कर्तव्य
कहते हैं - दीप में दूसरी बत्ती डालने से कार्य सिद्ध में विलम्ब है,
उस दीपक से अन्य दीपक जलाने वाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है । अशुद्ध
अशुचि अवस्था में दीप का स्पर्श करने से आधि व्याधि उत्पन्न होती है । दीपक के नाश
होने पर चोरों से भय तथा कुत्ते, बिल्ली एवं चूहे आदि
जन्तुओं के स्पर्श से राजभय उपस्थित होता है ॥९९-१००॥
यात्रारम्भे वसुपलैः कृतो
दीपोऽखिलेष्टदः।
तस्माद्दीपः प्रयत्नेन
रक्षणीयोऽन्तरायतः ॥ १०१॥
यात्रा करते समय ८ पल की मात्रा
वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूर्ण करता है । इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों से
सावधानी पूर्वक दीप की रक्षा करनी चाहिए जिससे विघ्न न हो ॥१०१॥
आ समाप्तेः प्रकुर्वीत ब्रह्मचर्य च
भूशयम ।
स्त्रीशूद्रपतितादीनां सम्भाषामपि
वर्जयेत् ॥ १०२॥
दीप की समाप्ति पर्यन्त कर्ता
ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये भूमि पर शयन करे तथा स्त्री,
शूद्र और पतितो से संभाषण भी न करे ॥१०२॥
जपेत्सहस्रं प्रत्येक मन्त्रराजं
नवाक्षरम ।
तोत्रपाठ प्रतिदिन निशीथिन्यां
विशेषतः ॥ १०३॥
प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर
समाप्ति पर्यन्त प्रतिदिन नवाक्षर मन्त्र (द्र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र
का पाठ विशेष रुप से रात्रि के समय करना चाहिए ॥१०३॥
एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो
मन्त्रनायकम् ।
सहस्त्रं प्रजपेद्रात्रौ सोऽभीष्टं
क्षिप्रमाप्नुयात् ॥ १०४ ॥
निशीथ काल में एक पैर से खडा हो कर
दीप के संमुख जो व्यक्ति इस मन्त्रराज का १ हजार जप करता है वह शीघ्र ही अपना
समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥
समाप्य शोभने घस्त्रे सम्भोज्य
द्विजनायकान् ।
कुम्भोदकेन कर्तारमभिषिञ्चेन्मनु
स्मरन् ॥ १०५॥
इस प्रयोग को उत्तम दिन में समाप्त
कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद कुम्भ के जल से मूलमन्त्र द्वारा
कर्ता का अभिषेक करना चाहिए ॥१०५॥
कर्ता तु दक्षिणां दद्यात् पुष्कलां
तोषहेतवे ।
गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्यसुतो
नृपः ॥ १०६ ॥
कर्ता साधक अपने गुरु को
संतोषदायक एवं पर्याप्त दक्षिणा दे कर उन्हें संतुष्ट करे । गुरु के
प्रसन्न हो जाने पर कृतवीर्य पुत्र कार्तवीर्यार्जुन साधक के सभी अभीष्टों को
पूर्ण करते हैं ॥१०६॥
गुर्वाज्ञया स्वयं कुर्याद्यदि वा
कारयेद् गुरुम् ।
कृत्वा रत्नादिदानेन दीपदानं
धरापतेः ॥ १०७ ॥
गुर्वाज्ञामन्तरा कुर्याद्यो दीपं
स्वेष्टसिद्धये ।
प्रत्युतानुभवत्येष हानिमेव पदे पदे
॥ १०८ ॥
यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं
करना चाहिए अथवा गुरु को रत्नादि दान दे कर उन्हीं से कार्तवीर्याजुन को दीपदान
कराना चाहिए । गुरु की आज्ञा लिए बिना जो व्यक्ति अपनी इष्टसिद्धि के लिए इस
प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कार्यसिद्धि की बात तो दूर रही,
प्रत्युत वह पदे पदे हानि उठाता है ॥१०७-१०८॥
दीपदानविधिं ब्रूयात्कृतघ्नादिषु नो
गुरुः ।
दृष्टेभ्यः कथितो मन्त्रो
वक्तुर्दुःखावहो भवेत् ॥ १०९॥
उत्तमं गोघृतं प्रोक्तं मध्यमं
महिषीभवम् ।
तिलतैले तु तादृक्स्यात्कनीयोऽजादिज
घृतम् ॥ ११० ॥
आस्यारोगे सुगन्धेन दद्यात्तैलेन
दीपकम् ।
सिद्धार्थसम्भवनाथ द्विषतां
नाशहेतवे ॥ १११॥
फलैर्दशशतैर्दीपे विहिते चेन्न
दृश्यते ।
कार्यसिद्धिस्तदात्रिस्तु दीपः
कार्यो यथाविधि ॥ ११२॥
कृतघ्न आदि दुर्जनों को इस दीपदान
की विधि नहीं बतानी चाहिए । क्योंकि यह मन्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने
वाले को दुःख देता है । दीप जलाने के लिए गौ का घृत उत्तम कहा गया है,
भैंस का घी मध्यम तथा तिल का तेल भी मध्यम कहा गया है । बकरी आदि का
घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगन्धित तेलों से दीप दान करना चाहिए ।
शत्रुनाश के लिए श्वेत सर्वप के तेल का दीप दान करना चाहिए । यदि एक हजार पल वाले
दीप दान करने से भी कार्य सिद्धि न हो तो विधि पूर्वक तीन दीपों का दान करना चाहिए
। ऐसा करने से कठिन से भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाता है ॥१०९-११२॥
तदा सुदुर्लभं कार्य सिद्ध्यत्येव न
संशयः ।
यथाकथंचिद्यः कुर्याद् दीपदानं
स्ववेश्मनि ॥ ११३ ॥
विघ्नाः सर्वेरिभिः साकं तस्य
नश्यन्ति दूरतः ।
सर्वदा जयमाप्नोति पुत्रान्
पौत्रान् धनं यशः ॥ ११४ ॥
यथाकथंचिद्यो दीपं नित्यं गेहे समाचरेत्
।
कार्तवीर्यार्जुनप्रीत्यै सोऽभीष्टं
लभते नरः ॥ ११५ ॥
जिस किसी भी प्रकार से जो व्यक्ति
अपने घर में कार्तवीर्य के लिए दीपदान करता है, उसके
समस्त विघ्न और समस्त शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव विजय प्राप्त करता
है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यश प्राप्त
करता है । पात्र, घृत, आदि नियम किए
बिना ही जो व्यक्ति किसी प्रकार से प्रतिदिन घर में कार्तवीर्यार्जुन की प्रसन्नता
के लिए दीपदान करता है वह अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥११३-११५॥
दीपप्रियः कार्तवीर्यों मार्तण्डो
नतिवल्लभः।
देवानां तोषकराणि नमस्कारादीनि
स्तुतिप्रियो
महाविष्णुर्गणेशस्तर्पणप्रियः ॥ ११६ ॥
दुर्गाऽर्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियः
शिवः।
तस्मात्तेषां प्रतोषाय
विदध्यात्तत्तदादृतः॥ ११७ ॥
तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के लिए क्रियमाण
कर्तव्य का निर्देश करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं -
कार्तवीर्यार्जुन को दीप अत्यन्त
प्रिय है,
सूर्य को नमस्कार प्रिय है, महाविष्णु को स्तुति प्रिय है, गणेश को तर्पण, भगवती
जगदम्बा को अर्चना तथा शिव को अभिषेक प्रिय है ।
इसलिए इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका प्रिय संपादन करना चाहिए ॥११६-११७॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रकथनं नाम सप्तदशस्तरङ्गः ॥ १७ ॥
॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित
मन्त्रमहोवधि के सप्तदश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ०
सुधाकर मालवीयकृत 'अरित्र' नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १७ ॥
आगे पढ़ें- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १८
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