यम सूक्तम्
यम सूक्तम् - यमराज हिन्दू धर्म के
अनुसार मृत्यु के देवता हैं। इनका उल्लेख वेद में भी आता है। इनकी जुड़वां बहन
यमुना (यमी) है। यमराज, महिषवाहन (भैंसे पर
सवार) दण्डधर हैं। वे जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक हैं। वे परम भागवत,
बारह भागवताचार्यों में हैं। यमराज दक्षिण दिशा के दिक् पाल कहे
जाते हैं । दक्षिण दिशा के इन लोकपाल की संयमनीपुरी समस्त प्राणियों के लिये,
जो अशुभकर्मा हैं, बड़ी भयप्रद है। यमराज की
पत्नी देवी धुमोरना थी। कतिला यमराज व धुमोरना का पुत्र था। विश्वकर्मा की पुत्री
संज्ञा से भगवान सूर्य के पुत्र यमराज, श्राद्धदेव मनु और
यमुना उत्पन्न हुईं।
यमसूक्त
Yam suktam
[ऋग्वेद के दशम मण्डल का चौदहवाँ
सूक्त 'यमसूक्त' है। इसके ऋषि वैवस्वत
यम हैं। 'यमसूक्त' तीन भागों में
विभक्त है। ऋचा १ से ६ तक के पहले भाग में यम एवं उनके सहयोगियों की सराहना की गयी
है और यज्ञ में उपस्थित होने के लिये उनका आवाहन किया गया है। ऋचा ७ से १२ तक के
दूसरे भाग में नूतन मृतात्मा को श्मशान की दहन – भूमि से निकलकर यमलोक जाने का
आदेश दिया गया है। १३ से १६ तक की ऋचाओं में यज्ञ के हवि को स्वीकार करने के लिये
यम का आवाहन किया गया है। यहाँ सूक्त को अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है-]
यम सूक्तम्
परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्यः
पन्थामनुपस्पशानम् ।
वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं
हविषा दुवस्य ॥ १ ॥
उत्तम पुण्य कर्मों को करनेवालों को
सुखद स्थान में ले जानेवाले, बहुतों के
हितार्थ योग्यमार्ग के द्रष्टा, विवस्वान्के पुत्र, [पितरों के] राजा यम को हवि अर्पण करके उनकी सेवा करें, जिनके पास मनुष्यों को जाना ही पड़ता है ॥ १ ॥
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा
गव्यूतिरपभर्तवा उ ।
यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना
जज्ञानाः पथ्या३ अनु स्वाः ॥ २ ॥
पाप-पुण्य के ज्ञाता सबमें प्रमुख
यम के मार्ग को कोई बदल नहीं सकता। पहले जिस मार्ग से हमारे पूर्वज गये हैं,
उसी मार्ग से अपने-अपने कर्मानुसार हम सब जायँगे ॥ २ ॥
मातली कव्यैर्यमो
अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्वभिर्वावृधानः ।
याँश्च देवा वावृधुर्ये च देवान्
त्स्वाहान्ये स्वधयान्ये मदन्ति ॥ ३ ॥
इन्द्र कव्यभुक् पितरों की सहायता से,
यम अंगिरसादि पितरों की सहायता से और बृहस्पति ऋक्वदादि पितरों की
सहायता से उत्कर्ष पाते हैं। देव जिनको उन्नत करते हैं तथा जो देवों को बढ़ाते हैं,
उनमें से कोई स्वाहा के द्वारा (देव) और कोई स्वधा से (पितर)
प्रसन्न होते हैं ॥ ३॥
इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाऽङ्गिरोभिः
पितृभिः संविदानः ।
आ त्वा मन्त्राः कविशस्ता
वहन्त्वेना राजन् हविषा मादयस्व ॥ ४ ॥
हे यम ! अंगिरादि पितरों के साथ इस
श्रेष्ठ यज्ञ में आकर बैठें। विद्वान् लोगों के मन्त्र आपको बुलायें । हे राजा यम
! इस हवि से संतुष्ट होकर हमें प्रसन्न कीजिये ॥ ४ ॥
अङ्गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम
वैरूपैरिह मादयस्व ।
विवस्वन्तं हुवे यः पिता ते ऽस्मिन्
यज्ञे बर्हिष्या निषद्य ॥ ५ ॥
हे यम ! यज्ञ में स्वीकार करने योग्य
अंगिरस ऋषियों को साथ लेकर आयें। वैरूप नामक पूर्वजों के साथ यहाँ आप भी प्रसन्न
हों। आपके पिता विवस्वान्को भी मैं यहाँ निमन्त्रित करता हूँ (और प्रार्थना करता
हूँ) कि इस यज्ञ में वे कुशासन पर बैठकर हमें सन्तुष्ट करें ॥ ५ ॥
अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो
भृगवः सोम्यासः ।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे
सौमनसे स्याम ॥ ६ ॥
अंगिरा,
अथर्वा एवं भृग्वादि हमारे पितर अभी ही आये हैं और ये हमारे ऋषि
सोमपान के लिये योग्य ही हैं। उन सब यज्ञार्ह पूर्वजों की कृपा तथा मंगलप्रद
प्रसन्नता हमें पूरी तरह प्राप्त हो ॥ ६ ॥
प्रेहि प्रेहि पथिभिः
पूर्व्येभिर्यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः ।
उभा राजाना स्वधया मदन्ता यमं
पश्यासि वरुणं च देवम् ॥ ७ ॥
हे पिता ! जहाँ हमारे पूर्व पितर
जीवन पारकर गये हैं, उन प्राचीन मार्गों
से आप भी जायँ। स्वधाकार – अमृतान्न से प्रसन्न - तृप्त हुए राजा यम और वरुणदेव से
जाकर मिलें ॥ ७ ॥
सं गच्छस्व पितृभिः सं
यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन् ।
हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि सं
गच्छस्व तन्वा सुवर्चाः ॥ ८ ॥
हे पिता ! श्रेष्ठ स्वर्ग में अपने
पितरों के साथ मिलें। वैसे ही अपने यज्ञ, दान
आदि पुण्यकर्मों के फल से भी मिलें। अपने सभी दोषों को त्यागकर इस (शाश्वत) घर की
ओर आयें और सुन्दर तेज से युक्त होकर (संचरण करनेयोग्य नवीन) शरीर धारण करें ॥ ८ ॥
अपेत वीत वि च सर्पतातो ऽस्मा एतं
पितरो लोकमक्रन् ।
अहोभिरद्भिरक्तुभिर्व्यक्तं यमो
ददात्यवसानमस्मै ॥ ९ ॥
हे भूत-पिशाचो ! यहाँ से चले जाओ,
हट जाओ, दूर चले जाओ। पितरों ने यह स्थान इस
मृत मनुष्य के लिये निश्चित किया है। यह स्थान दिन-रात और जल से युक्त है। यम ने
इस स्थान को मृत मनुष्य को दिया है (इस ऋचा में श्मशान के भूत-पिशाचों से
प्रार्थना की गयी है कि वे मृत व्यक्ति के अन्तिम विश्राम स्थल के मार्ग में बाधा
न उपस्थित करें ) ॥ ९ ॥
अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ
शबलौ साधुना पथा ।
अथा पितॄन् त्सुविदत्राँ उपेहि यमेन
ये सधमादं मदन्ति ॥ १० ॥
(हे सद्यः मृत जीव ! ) चार
नेत्रोंवाले चित्रित शरीर के सरमा के दोनों श्वान - पुत्र हैं। उनके पास अच्छे
मार्ग से अत्यन्त शीघ्र गमन करो। यमराज के साथ एक ही पंक्ति में प्रसन्नता से
(अन्नादि का) उपभोग करनेवाले अपने अत्यन्त उदार पितरों के पास उपस्थित हो जाओ (मृत
व्यक्ति से कहा गया है कि उचित मार्ग से आगे बढ़कर सभी बाधाओं को हटाते हुए यमलोक
ले जानेवाले दोनों श्वानों के साथ वह जल्द जा पहुँचे ) ॥ १० ॥
यौ ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ
पथिरक्षी नृचक्षसौ ।
ताभ्यामेनं परि देहि राजन्
त्स्वस्ति चास्मा अनमीवं च धेहि ॥ ११ ॥
हे यमराज! मनुष्यों पर ध्यान
रखनेवाले,
चार नेत्रोंवाले, मार्ग के रक्षक ये जो आपके
रक्षक दो श्वान हैं, उनसे इस मृतात्मा की रक्षा करें। हे राजन्
! इसे कल्याण और आरोग्य प्राप्त करायें ॥ ११ ॥
उरूणसावसुतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ
चरतो जनाँ अनु ।
तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय
पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥ १२ ॥
यम के दूत,
लम्बी नासिकावाले, (मुमूर्षु व्यक्ति के)
प्राण अपने अधिकार में रखनेवाले, महापराक्रमी (आपके) दोनों
श्वान मर्त्यलोक में भ्रमण करते रहते हैं। वे हमें सूर्य के दर्शन के लिये यहाँ आज
कल्याणकारी उचित प्राण दें ॥ १२ ॥
यमाय सोमं सुनुत यमाय जुहुता हविः ।
यमं ह यज्ञो गच्छत्यदग्निदूतो अरंकृतः॥१३॥
यम के लिये सोम का सवन करो तथा यम के
लिये (अग्नि में ) हवि का हवन करो। अग्नि उसका दूत है,
इसलिये अच्छी तरह तैयार किया हुआ यह हमारा यज्ञीय हवि यम के पास
पहुँच जाता है ॥ १३ ॥
यमाय घृतवद्धविर्जुहोत प्र च तिष्ठत
।
स नो देवेष्वा यमद् दीर्घमायुः प्र
जीवसे ॥१४॥
घृत से मिश्रित यह हव्य यम के लिये
(अग्नि में ) हवन करो और यम की उपासना करो। देवों के बीच यम हमें दीर्घ आयु दें,
ताकि हम जीवित रह सकें ॥ १४ ॥
यमाय मधुमत्तमं राज्ञे हव्यं जुहोतन
।
इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः
पूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः ॥ १५ ॥
अत्यधिक माधुर्ययुक्त यह हव्य राजा
यम के लिये अग्नि में हवन करो। (हे यम!) हमारा यह प्रणाम अपने पूर्वज ऋषियों को,
अपने पुरातन मार्गदर्शकों को समर्पित हो जाय ॥ १५ ॥
त्रिकद्रुकेभिः पतति पळुर्वीरेकमिद्बृहत्
।
त्रिष्टुब्गायत्री छन्दांसि सर्वा
ता यम आहिता ॥ १६ ॥
त्रिकद्रुक नामक यज्ञों में हमारा
यह (सोमरूपी सुपर्ण) उड़ान ले रहा है। यम छः स्थानों- द्युलोक,
भूलोक, जल, औषधि,
ऋक् और सूनृत में रहते हैं। गायत्री तथा अन्य छन्द- ये सभी इन यम में
ही सुप्रतिष्ठित किये गये हैं ॥ १६ ॥
• [यमसूक्तम् ऋक्० १०
। १४]
यमसूक्तम्
॥ अथ यम सूक्तम् ॥
ॐ तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायु
स्तदुचंद्रमाः॥
तदेव शुक्रं तद्ब्रह्मताऽआपः स
प्रजापतिः ॥१॥
सर्वेनिमेषाः जज्ञिरे विद्युतः
पुरुषादधि ॥
नैनमूर्द्धन्नतिर्यञ्चन्नमद्धये
परिजग्रभत् ॥२॥
न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम
महद्यशः ॥
हिरण्यगर्भऽइत्येषमामाहि৶ सीदित्येषा
यस्मान्न जातऽइत्येषः ॥ ३॥
एषो हदेवः प्रदिशोनु सर्वाः पूर्वोह
जातः सऽउगर्भेऽअंतः ॥
सऽएवजातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति
सर्वतो मुखः ॥ ४॥
यस्माज्जातन्नपुरा किञ्चनैवयऽआवभूव
भुवनानि विश्वा॥
प्रजापतिः प्रजयास৶रराणस्त्रीणि
ज्योति ৶ सि
सचते षोडशी ॥ ५॥
येनद्यौ रुग्रापृथिवी च दृढायेन
स्वस्तभितं येन नाकः ॥
येऽअंतरिक्षे रजसो विमानः
कस्मैदेवाय हविषा विधेम ॥६॥
यंक्रन्दसीऽअवसा तस्तभानेऽअब्भ्यै
क्षेताम्मनसा रेजमानो ॥
यत्राधिसूरऽउदितो विभाति कस्मै
देवाय हविषा विधेम आपोह यद्बृहतीर्यश्चि दापः ॥७॥
वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहासद्यत्र
विश्वम्भवत्येक नीडम् ॥
तस्मिन्निद৶ सञ्च विचैति सर्व৶ सऽओतः प्रोतश्च
विभूः प्रजासु ॥८॥
प्रतद्वो चेदमृतन्नु
विद्वान्गंधर्वो धामविभृतं गुहासत् ॥
त्रीणिपदानि निहिता गुहास्य
यस्तानिवेद सपितुः पितासत् ॥९॥
स नो बंधुर्जनिता सविधाता धामानि
वेद भुवनानि विश्वा॥
यत्रदेवाऽअमृतमानशानास्तृतीये
धामन्नद्धयैरयन्त ॥१०॥
परीत्यभूतानि
परीत्यलोकान्परीत्यसर्वा: प्रदिशो दिशश्च ॥
उपस्त्थाय प्रथम
जामृतस्यात्मनात्मानमभि संविवेश ॥११॥
परिद्यावा पृथिवी सद्यऽइत्वा
परिलोकान्परिदिशः परिस्वः ॥
ऋतस्य तन्तुं विततँ विचृत्य
तदपश्यत्तदभवत्तदासीत् ॥१२॥
सदसस्पतिमद्भूतम्प्रियमिन्द्रस्य
काम्यम् ॥
सनिम्मेधामयासिष৶ स्वाहा ॥ १३॥
याम्मेधान्देवगणाः पितरश्चोपासते ॥
तयामामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं
कुरुस्वाहा ॥१४॥
मेधाम्मे वरुणो ददातु मेधामग्निः
प्रजापतिः॥
मेधामिन्द्रश्च वायुश्च मेधान्धाता
ददातुमे स्वाहा ॥१५॥
इदम्मे ब्रह्मच क्षत्रञ्चोभे
श्रियमश्रुताम् ॥
मयिदेवा दधत श्रिममुत्तमान्तस्यै ते
स्वाहा॥ १६ ॥
इति: यमसूक्तम् समाप्त॥
यमराज के चौदह नाम
यमराजजी की आराधना के लिए यमराज के
चौदह नामों का पाठ करें । इन्हीं नामों से इनका तर्पण किया जाता है।
यम,
धर्मराज, मृत्यु, अन्तक,
वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय,
औदुभ्बर, दघ्न, नील,
परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र
और चित्रगुप्त ।
यमसूक्तम्
यम मन्त्र
ॐ सुगन्नुपंथां प्रदिशन्नऽएहि,
ज्योतिष्मध्येह्यजरन्नऽआयुः।
अपैतु मृत्युममृतं मऽआगाद्,
वैवस्वतो नो ऽ अभयं कृणोतु।
ॐ यमाय नमः।
यमसूक्तम्
यम का स्वरूप
ऋग्वेद के देवता गोष्ठी में यम का
महत्वपूर्ण स्थान है। ऋग्वेद के तीन सूक्तों में उसके विषय में कथा प्राप्त होती
है (10/135.154)। उनको छोड़कर भी यम का उसकी बहिन के साथ कथोपकथन युक्त एक अन्य भी सूक्त
है। उस सूक्त का नाम 'यमयमीसंवादसूक्त' (10.10)। वरुण-बृहस्पति-अग्नि आदि देवो के साथ भी उसकी स्तुति अनेक मन्त्रो में
प्राप्त होता है । निरुक्तकार यास्क ने उसके विषय में निरुक्त शास्त्र में यम शब्द
की व्युत्पत्ति करते हुए कहते है - 'यमो गच्छतीति सतः'
(10.19 ) इति । यहाँ यम शब्द उपरमार्थक यम् धातु से कर्ता में
निष्पन्न होता है। उसका अर्थ है जो प्राणियों को उपरमण करता है अर्थात् प्राणियों
के प्राण को छुड़ाकर ले जाता है। निरुक्त में यमशब्द से पुनः अग्निदेव कहलाता है।
और भी निरुक्त में कहा गया है - 'अग्निरपि यम उच्यते'
(10.12 ) इति । वहाँ पर यम् धातु प्रदान रूप अर्थ है । यच्छति
प्रयच्छति कामान् स्तोतृभ्यः इति यमः । परलोकतत्त्व विषय में मृत्यु की अमरता विषय
पर और मृत्यु से परे जीवन विषय में ज्ञान यम सूक्त से प्राप्त होता है। यम शब्द का
यमज रूप अर्थ भी है। वहाँ पर यमयमी दोनों पद से दोनों के द्वारा विवस्वत्सरण्वोः
संगमेन जातं यमजापत्यद्वयं का ग्रहण किया जाता है।
ऋग्वेद में यम मृत्यु इस नाम से
मृत्यु के अधिष्ठाता देव रूप से स्तुति की जाती है । मृत आत्मा को वह शरीर देता
है। मृत्यु के बाद सभी मनुष्य उसके समीप ही जाते है। वैसे वेद भी कहता है - 'सङ्गमनं जनानाम् ' ( 10.14.9 ) इति । वह हमारा
पूर्वपुरुष, मृत्यु के बाद परे जो अमृतलोक का मार्ग पहले से
ही जाना जाता है- 'यमो नो गातुं प्रथमो विवेद'
(10.14.2 ) इति । और वहाँ जाकर के वह प्रेत लोक के अधिपति के रूप
में जाने जाते है। वह ही मृत्यु के परे लोगों के लिए आश्रय का निर्देश किया है।
वैसे वेद में भी कहा गया- 'यमो ददात्यवसानम् अस्मै'
(10.14.9) इति। मृत्यु के परे लोगो के लिए वे जो स्थान आश्रय रूप से
निर्देश किया वहाँ पर पिशाच आदि अशुभशक्ति युक्त अनिष्टविधान के लिए असमर्थ होते
हैं। उसका अपना निवास स्थान स्वर्ग लोक है।
वैदिक मन्त्रों में वह वैवस्वत
कहलाता है। निरुक्त में और बृहद्देवता में वह विवस्वत्सरण्वो के पुत्र के रूप में
इस प्रकार का उपाख्यान प्राप्त होता है। सरमा वंशीय श्वान उसके दूत हैं। और
वेश्वानचार नेत्रों से युक्त है। उनकी नाक विशाल और उनका वर्ण विचित्र है। मृत लोग
जिस मार्ग से जाते है उस मार्ग के वे रक्षक है। वेद में कहा- 'पथिरक्षी' (10.14.11 ) इति । ये श्वान जैसे मृत लोग
के विनाश के लिए समर्थ नही होते हैं, उस प्रकार की वैदिक
ऋषियो के द्वारा प्रार्थना की गई है। और वेद में भी कहा गया है- 'ताभ्याम् एनं परि देहि राजन् स्वस्ति चास्मै अननीतं धेहि'
(10.14.12 ) इति । और अन्ये कौशिक कपोतादयः अपि तस्य दूता: । ( 10.165.
4 ) इति।
ऋग्वेद मन्त्रों में उसे सभी जगह
राजन् इस रूप में सम्बोधन किया गया है। वह लोगो के प्रभु है। अत मन्त्रो में उसे 'विश्पतिः' कहलाता है। मृत लोग स्वर्ग लोक प्राप्त
वरुण के साथ यमराज को भी आनन्द उपभोगरत के रूप में देखते है। वैसे वेद में भी कहा
गया- 'उभा राजाना स्वधया मदन्ता यमं पश्यसि वरुणं च देवम्'
(10.14.9 ) इति । सोमपायी इस नाम का भी कुछ मन्त्रो में उसकी स्तुति
की गई। हमारे पूर्व पुरुषों के साथ एक जगह बैठकर वह सोमपान करते है। वैसे वेद भी
कहते है - ' यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः संपिबते यमः'
(10.135.1 ) इति । वह सभी अच्छे कर्मों का और बुरे कर्मों के साक्षी
रहता है। देवता प्राप्ति पितृदेवो के साथ उसका घनिष्ठ सम्बद्ध है। अग्निदेव के साथ
भी उसकी मित्रता है। अग्नि यम का पुरोहित है। यम को इन्दो - ईरानीदेव यह भी लोक
में सुने जाते हैं, क्योंकि ईरानी धर्म ग्रन्थों में आवेस्ता
का उसका यम नाम अलग से प्राप्त होता है।
ऋषियो के द्वारा प्राकृतिक शक्ति यम
की सृष्टि है ऐसा कल्पना नही किया गया है, अपितु
मृतको के अधिष्ठाता देव रूप से यम की कल्पना की गई है। यम सूक्त में यम ही प्रथम
मरणशील कहा गया है, वह ही मृत्यु के द्वार का सबसे पहले
अतिक्रान्त किया गया है। और मृतको के लिए मार्ग का अन्वेषण उन्होंने किया है। और
वेद में भी कहा गया- 'परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्यः
पन्थामनुपश्पशानम्' (10.14.1) इति ।
यम यमी ये यमज भ्राता के मेल से ही
मनुष्यों की उत्पत्ति की जो कथा सुनाई जाती है, वह
महत्वपूर्ण नहीं है। यम सूक्त में भी उसका समर्थन नही किया गया है। भारतीय कभी भी
उस प्रकार का चिन्तन नही करते है। अपितु संयम धन यम अपनी बहन को इस निन्द्य
कर्मपाश से छुड़ाकर आशीर्वाद देता है । और जिससे वह कामवेग से शान्ता मुक्त होती
है। और अन्त में लज्जित यमी अपने भाई यम के पैर में गिरकर क्षमा मांगती है। जिसके
द्वारा रक्षित संयम धन और यमके द्वारा रक्षित भारतीय संस्कृति है।
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