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कर्मकाण्ड

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भैरवी कवच

भैरवी कवच

इस श्रीत्रिपुर भैरवी कवच का पाठ जहाँ भी होता है वहाँ पर दुर्भिक्ष कभी नहीं होता और न किसी प्रकार की पीड़ा होती है। सभी विघ्न शान्त रहते है। सभी रोग भाग जाते हैं। यह कवच प्राणियों का हर प्रकार से रक्षक है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के फलों का देनेवाला है।

श्रीत्रिपुर भैरवीकवचम्

श्रीत्रिपुर भैरवीकवचम्  

श्रीपार्वत्युवाच -

देवदेव महादेव सर्वशास्त्रविशारद ।

कृपाङ्कुरु जगन्नाथ धर्मज्ञोऽसि महामते ॥ १॥

भैरवी या पुरा प्रोक्ता विद्या त्रिपुरपूर्विका ।

तस्यास्तु कवचन्दिव्यं मह्यङ्कथय तत्त्वतः ॥ २॥

श्री पार्वती बोली: हे देवदेव ! हे महादेव ! हे सर्वशास्त्रविशारद! हे जगन्नाथ! हे महामते! आप धर्मज्ञ हैं। आप मुझ पर कृपा करें। जो आप ने पहले त्रिपुरभैरवी विद्या कही थी उसका दिव्य कवच आप मुझे तत्वतः बतावें।

तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा जगाद जगदीश्वरः ।

अद्भुतङ्कवचन्देव्या भैरव्या दिव्यरूपि वै ॥ ३॥

उनके वचन को सुन कर महादेवजी ने भैरवी देवी के दिव्य रूपी कवच को बताया।

ईश्वर उवाच -

कथयामि महाविद्याकवचं सर्वदुर्लभम् ।

श्रृणुष्व त्वञ्च विधिना श्रुत्वा गोप्यन्तवापि तत् ॥ ४॥

यस्याः प्रसादात्सकलं बिभर्मि भुवनत्रयम् ।

यस्याः सर्वं समुत्पन्नयस्यामद्यापि तिष्ठति ॥ ५॥

ईश्वर बोले: हे देवि! मैं अत्यन्त दुर्लभ महाविद्या का कवच कह रहा हूं। तुम उत्ते विधिपूर्वक सुनो और सुन कर उसे गुप्त रखना। इसके प्रसाद से मैं तीनों लोकों का भरण-पोषण करता हूं। इससे यह सारा संसार उत्पन्न हुआ है और इसमें ही यह सारा संसार स्थित है।

श्रीभैरवीकवचम्  

माता पिता जगद्धन्या जगद्ब्रह्मस्वरूपिणी ।

सिद्धिदात्री च सिद्धास्स्यादसिद्धा दुष्टजन्तुषु ॥ ६॥

सर्वभूतहितकरी सर्वभूतस्वरूपिणी ।

ककारी पातु मान्देवी कामिनी कामदायिनी ॥ ७॥

एकारी पातु मान्देवी मूलाधारस्वरूपिणी ।

इकारी पातु मान्देवी भूरि सर्वसुखप्रदा ॥ ८॥

लकारी पातु मान्देवी इन्द्राणी वरवल्लभा ।

ह्रीङ्कारी पातु मान्देवी सर्वदा शम्भुसुन्दरी ॥ ९॥

एतैर्वर्णैर्महामाया शम्भवी पातु मस्तकम् ।

ककारे पातु मान्देवी शर्वाणी हरगेहिनी ॥ १०॥

मकारे पातु मान्देवी सर्वपापप्रणाशिनी ।

ककारे पातु मान्देवी कामरूपधरा सदा ॥ ११॥

ककारे पातु मान्देवी शम्बरारिप्रिया सदा ।

पकारी पातु मान्देवी धराधरणिरूपधृक् ॥ १२॥

ह्रीङ्कारी पातु मान्देवी आकारार्द्धशरीरिणी ।

एतैर्वर्णैर्महामाया कामराहुप्रियाऽवतु ॥ १३॥

मकारः पातु मान्देवी सावित्री सर्वदायिनी ।

ककारः पातु सर्वत्र कलाम्बरस्वरूपिणी ॥ १४॥

लकारः पातु मान्देवी लक्ष्मीः सर्वसुलक्षणा ।

ह्रीं पातु मान्तु सर्वत्र देवी त्रिभुवनेश्वरी ॥ १५॥

एतैर्वर्णैर्महामाया पातु शक्तिस्वरूपिणी ।

वाग्भवं मस्तकमम्पातु वदनङ्कामराजिका ॥ १६॥

शक्तिस्वरूपिणी पातु हृदययन्त्रसिद्धिदा ।

सुन्दरी सर्वदा पातु सुन्दरी परिरक्षति ॥ १७॥

रक्तवर्णा सदा पातु सुन्दरी सर्वदायिनी ।

नानालङ्कारसंयुक्ता सुन्दरी पातु सर्वदा ॥ १८॥

सर्वाङ्गसुन्दरी पातु सर्वत्र शिवदायिनी ।

जगदाह्लादजननी शम्भुरूपा च मां सदा ॥ १९॥

सर्वमन्त्रमयी पातु सर्वसौभाग्यदायिनी ।

सर्वलक्ष्मीमयी देवी परमानन्ददायिनी ॥ २०॥

पातु मां सर्वदा देवी नानाशङ्खनिधिः शिवा ।

पातु पद्मनिधिर्देवी सर्वदा शिवदायिनी ॥ २१॥

दक्षिणामूर्तिर्माम्पातु ऋषिः सर्वत्र मस्तके ।

पङ्क्तिश्छन्दः स्वरूपा तु मुखे पातु सुरेश्वरी ॥ २२॥

गन्धाष्टकात्मिका पातु हृदयं शङ्करी सदा ।

सर्वसंमोहिनी पातु पातु सङ्क्षोभिणी सदा ॥ २३॥

सर्वसिद्धिप्रदा पातु सर्वाकर्षणकारिणी ।

क्षोभिणी सर्वदा पातु वशिनी सर्वदावतु ॥ २४॥

आकर्षिणी सदा पातु सं मोहिनी सदावतु ।

रतिर्देवी सदा पातु भगाङ्गा सर्वदावतु ॥ २५॥

महेश्वरी सदा पातु कौमारी सर्वदावतु ।

सर्वाह्लादनकारी माम्पातु सर्ववशङ्करी ॥ २६॥

क्षेमङ्करी सदा पातु सर्वाङ्गसुन्दरी तथा ।

सर्वाङ्गयुवतिः सर्वं सर्वसौभाग्यदायिनी ॥ २७॥

वाग्देवी सर्वदा पातु वाणिनी सर्वदावतु ।

वशिनी सर्वदा पातु महासिद्धिप्रदा सदा ॥ २८॥

सर्वविद्राविणी पातु गणनाथः सदावतु ।

दुर्गा देवी सदा पातु बटुकः सर्वदावतु ॥ २९॥

क्षेत्रपालः सदा पातु पातु चावरिशान्तिका ।

अनन्तः सर्वदा पातु वराहः सर्वदावतु ॥ ३०॥

पृथिवी सर्वदा पातु स्वर्णसिम्हासनन्तथा ।

रक्तामृतञ्च सततम्पातु मां सर्वकालतः ॥ ३१॥

सुरार्णवः सदा पातु कल्पवृक्षः सदावतु ।

श्वेतच्छत्रं सदा पातु रक्तदीपः सदावतु ॥ ३२॥

नन्दनोद्यानं सततम्पातु मां सर्वसिद्धये ।

दिक्पालाः सर्वदा पान्तु द्वन्द्वौघाः सकलास्तथा ॥ ३३॥

वाहनानि सदा पान्तु अस्त्राणि पान्तु सर्वदा ।

शस्त्राणि सर्वदा पान्तु योगिन्यः पान्तु सर्वदा ॥ ३४॥

सिद्धाः पान्तु सदा देवी सर्वसिद्धिप्रदावतु ।

सर्वाङ्गसुन्दरी देवी सर्वदावतु मान्तथा ॥ ३५॥

आनन्दरूपिणी देवी चित्स्वरूपा चिदात्मिका ।

सर्वदा सुन्दरी पातु सुन्दरी भवसुन्दरी ॥ ३६॥

पृथग्देवालये घोरे सङ्कटे दुर्गमे गिरौ ।

अरण्ये प्रान्तरे वापि पातु मां सुन्दरी सदा ॥ ३७॥

श्रीत्रिपुर भैरवी कवच फलश्रुति  

इदङ्कवचमित्युक्तं मन्त्रोद्धारश्च पार्वति ।

यः पठेत्प्रयतो भूत्वा त्रिसन्ध्यन्नियतः शुचिः ॥ ३८॥

तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्याद्यद्यन्मनसि वर्तते ।

हे पार्वती ! जो उक्त कवच को और मन्त्रोद्धार को शान्त होकर तीनों संध्याओं में पवित्र और नियत होकर पढ़ता है, उसके सभी अर्थों की सिद्धि होती है। उसके मन में जो जो इच्छाएँ होती है वह सब पूरी होती हैं ।

गोरोचनाकुङ्कुमेन रक्तचन्दनकेन वा ॥ ३९॥

स्वयम्भूकुसुमैः शुक्लैर्भूमिपुत्रे शनौ सुरे ।

श्मशाने प्रान्तरे वापि शून्यागारे शिवालये ॥ ४०॥

स्वशक्त्या गुरुणा यन्त्रम्पूजयित्वा कुमारिकाः ।

तन्मनुम्पूजयित्वा च गुरुपङ्क्तिन्तथैव च ॥ ४१॥

देव्यै बलिन्निवेद्याथ नरमार्जारसूकरैः ।

नकुलैर्महिषैर्मेषैः पूजयित्वा विधानतः ॥ ४२॥

धृत्वा सुवर्णमध्यस्तङ्कण्ठे वा दक्षिणे भुजे ।

सुतिथौ शुभनक्षत्रे सूर्यस्योदयने तथा ॥ ४३॥

धारयित्वा च कवचं सर्वसिद्धिलभेन्नरः ।

गोरोचन तया केशर से या छाल चन्दन से सफेद स्वयंभू-फूलों से मङ्गलवार, शनिवार तथा रविवार को श्मशान में, एकान्त में शून्य घर में अथवा शिवालय में अपनी शक्ति के अनुसार यन्त्र की पूजा करके कुमारियों तथा उस मन्त्र की और गुरुपंक्ति की पूजा करके देवी को बनबिलाव, सूअर, नेवला, भैंसा तथा भेड़ा की बलि से विधानपूर्वक पूजा करके उसे सुवर्ण के मध्य में रखकर कण्ठ में या दाहिने हाथ में धारण करके उत्तम तिथि में शुभ नक्षत्र में, सूर्योदय के समय उस कवच को धारण करके मनुष्य समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है।

कवचस्य च माहात्म्यन्नाहवर्षशतैरपि ॥ ४४॥

शक्नोमि तु महेशानि वक्तुन्तस्य फलन्तु यत् ।

न दुर्भिक्षफलन्तत्र न चापि पीडनन्तथा ॥ ४५॥

हे महेशानि ! मैं कवच के महात्म्य को सौ वर्षों में भी कहने में समर्थ नहीं हो सकता। उसका फल यह है कि वहाँ पर दुर्भिक्ष कभी नहीं होता और न किसी प्रकार की पीड़ा होती है।

सर्वविघ्नप्रशमनं सर्वव्याधिविनाशनम् ॥ ४६॥

सर्वरक्षाकरञ्जन्तोश्चतुर्वर्गफलप्रदम् ।

यत्र कुत्र न वक्तव्यन्न दातव्यङ्कदाचन ॥ ४७॥

सभी विघ्न शान्त रहते है। सभी रोग भाग जाते हैं। यह कवच प्राणियों का हर प्रकार से रक्षक है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के फलों का देनेवाला है।

मन्त्रम्प्राप्य विधानेन पूजयेत्सततं सुधीः ।

तत्रापि दुर्लभं मन्ये कवचन्देवरूपिणम् ॥ ४८॥

मन्त्र पाकर सुधी विधान से सदा पूजा करे। वहाँ पर भी देव रूपी कवच को मैं दुर्लभ मानता हूं।

गुरोः प्रसादमासाद्य विद्याम्प्राप्य सुगोपिताम् ।

तत्रापि कवचन्दिव्यन्दुर्लभम्भुवनत्रये ॥ ४९॥

श्लोकवा स्तवमेकवा यः पठेत्प्रयतः शुचिः ।

तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्याच्छङ्करेण प्रभाषितम् ॥ ५०॥

गुरु का प्रसाद प्राप्त कर अत्यन्त गुप्त विद्या को पाकर वहाँ भी तीनों लोकों में दुर्लभ दिव्य कवच का जो कोई वस्तुतः एक श्लोक भी पवित्र होकर पढ़ता है उसकी सर्वार्थ सिद्धि होती है। ऐसा शङ्कर ने कहा है।

गुरुर्द्देवो हरः साक्षात्पत्नी तस्य च पार्वती ।

अभेदेन यजेद्यस्तु तस्य सिद्धिरदूरतः ॥ ५१॥

गुरु साक्षात्‌ देव महादेव हैं और उनकी पत्नी पार्वती हैं। जो इनकी अभेद दृष्टि से पूजा करता है सिद्धियाँ उसके निकट आ जाती हैं।

इति श्रीरुद्रयामले भैरवभैरवीसंवादे श्रीत्रिपुर भैरवीकवचं सम्पूर्णम् ॥

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