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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीकृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र
श्रीराधा
के कान्त-परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण का यह समस्त सिद्धियों का प्रदान कर
देने वाला प्रेमामृत नाम वाला स्तोत्र श्रीकृष्ण के नामों का जो अष्टोत्तर शतक
रूपी अमृत है,यह स्तोत्र अत्यन्त दुर्लभ है । इस लोक में जितने भी मन्त्रों के
समूह है तथा स्तोत्र और कवच आदि हैं इस त्रिभुवन में वे सभी इस स्तोत्र के ही
परिशीलन करने से सिद्ध हो जाया करते हैं।
श्रीकृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र कथा-
महामुनि वसिष्ठ जी ने कहा-उस
सम्पूर्ण कारण को भली भांति समझ कर कुम्भ से समुत्पन्न अगस्त्य मुनि ने अपने मन
परम प्रीति करके भार्गव राम से कहा-हे परशुराम ! आप तो महान् भाग वाले हैं। मैं अब
आपके हित की बात कहता हूँ उसका आप श्रवण कीजिए। जिनके द्वारा आप बहुत ही शीघ्र इस
महामन्त्र की सिद्धि की प्राप्ति कर लेंगे । हे महती मति वाले ! यह भक्ति तीन
प्रकार की होती है। उस भक्ति के तीनों प्रकारों के लक्षणों का ज्ञान प्राप्त करके
जो मनुष्य फिर यत्न किया करता है वह बहुत ही शीघ्र पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लिया
करता है । एक बार मैं स्वयं भगवान् अनन्त देव के दर्शन प्राप्त करने की आकांक्षा
से पाताल लोक में गया था जो कि परमानन्द के साथ बड़े-बड़े नाग राजों से सुशोभित
था। हे महाभाग ! यहाँ पर मैंने देखा था कि चारों ओर बड़े-बड़े सिद्ध महापुरुष
विराजमान थे। वहां सनकादिक चारों महासिद्ध-देवर्षि
नारद-गौतम-जाजलि-क्रतु-ऋभु-हंस-अरुणि-वाल्मीकि-शक्ति-आसुरि प्रभृति सभी
मुनीन्द्रगण और ऋषियों के समुदाय विद्यमान थे । हे द्विज ! ये सब और अन्य भी
वात्स्यायन जिनमें प्रमुख थे महान् सिद्धगण वहां पर बैठे हुए थे । ये सभी वहाँ पर
बैठे हुए ज्ञान की पूर्ण प्राप्ति के लिये फणि नायक शेषराज की उपासना कर रहे थे।
वहाँ पर बड़े-बड़े नागेन्द्र और महान आत्मा वाले सिद्ध सभी विराजमान थे उन सबके
साथ फणीन्द्र नायक शेष महाराज की सेवा में मैंने बड़े आदर के साथ प्रणिपात किया था
। मैं वहाँ पर बड़े ही आनन्द से भगवान् विष्णु देव की कथाओं का श्रवण करता हुआ बैठ
गया था। हे महाभाग ! यह भूमि भी जो समस्त भूतों की धात्री स्वरूप वाली है वहीं पर
उन शेष भगवान् के आगे बैठी हुई थी और बहुत ही प्रीति के साथ सदा कथाओं का श्रवण
किया करती थी। वह भूमि साक्षात् इस मही के धारण करने वाले शेष भगवान् से जो-जो भी
पूछा करती है उसको समस्त ऋषिगण वहीं पर संस्थित होकर उनके ही अनुग्रह के होने से
श्रवण किया करते हैं। हे वत्स ! मैंने भी वहां परम शुभ कुष्ण प्रेमामृत का श्रवण
किया था । उस स्तोत्र को मैं अब आपको बतलाऊँगा जिसको प्राप्त करने के लिये तुम
यहाँ पर आये हो।
श्रीकृष्ण प्रेमामृत स्तोत्रम्
वाराहाद्यवताराणां चरितं पापनाशनम्
॥ २,३६.११ ॥
सुखदं
मोक्षदं चैव ज्ञानविज्ञान कारणम् ।
श्रुत्वा सर्वं धरा वत्स
प्रत्दृष्टा तं धराधरम् ॥ २,३६.१२
॥
इस स्तोत्र में वाराह आदि भगवान् के
अवतारों का चरित है जो समस्त प्रकार के पापों का विनाश कर देने वाला होता है । यह
चरित परमाधिक सुख-सौभाग्य के प्रदान करने वाला है-परलोक में जाकर इस भौतिक शरीर के
त्याग करने के पश्चात् मोक्ष का भी देने वाला है जिससे इस संसार में बारम्बार
जन्म-मरण के महान् कष्टों से छुटकारा मिल जाया करता है। और यह चरित ऐसा अद्भुत है
कि जो पूर्ण ज्ञान और विशेष ज्ञान का भी कारण होना है। इस वसुन्धरा देवी ने इन सब
का श्रवण किया था और यह बहुत ही अधिक प्रसन्न हुई थी,
हे वत्स ! फिर धरा के धारण करने वाले अनन्त भगवान् से बोली थी ।११।१२।
उवाच प्रणता भूयो ज्ञातुं
कृष्णविचेष्टितम् ।
धरण्युवाच
अलङ्कृतं जन्म पुंसामपि
नन्दव्रजौकसाम् ॥ २,३६.१३ ॥
परम प्रणत होकर इस भूमि ने फिर
भगवान् कृष्ण की लीला को जानने के लिए प्रार्थना की थी। धरणी ने कहा-भगवान् श्री
कृष्ण चन्द्र जी ने नन्द गोपराज के व्रज में निवास करने वाले ब्रजवासी मनुष्यों का
भी जन्म अपना अवतार धारण कर अनेक अद्भुत लीला विहारों से अलंकृत कर दिया था ।१३।
तस्य देवस्य कृष्णस्य
लीलाविग्रहधारिणः ।
जयोपाधिनियुक्तानि संति
नामान्यनेकशः ॥ २,३६.१४ ॥
अपनी लीला से ही विग्रह (मानवीय
शरीर) धारण करने वाले उन श्री कृष्ण देव के जय की अनेक उपाधियों से नियुक्त अनेक
शुभ नाम है ।१४।
तेषु नामानि मुख्यानि श्रोतुकामा
चिरादहम् ।
तत्तानि ब्रूहि नामानि वासुदेवस्य
वासुके ॥ २,३६.१५ ॥
उन श्रीकृष्ण के नामों में जो बहुत
ही प्रमुख उनके नाम हैं उनके श्रवण करने की कामना वाली मैं बहुत अधिक समय से हो
रही है। हे भगवन्वासुके ! भगवान् वासुदेव के उन परम शुभ नामों को अब कृपा करके
मेरे आगे बतलाइए ।१५।
नातः परतरं पुण्यं त्रिषु लोकेषु
विद्यते ।
शेष उवाच
वसुंधरे वरारोहे जनानामस्ति
मुक्तिदम् ॥ २,३६.१६ ॥
क्योंकि इस संसार में इससे परतर
अर्थात् बड़ा अन्य कोई भी पुण्य नहीं है । तात्पर्य यह है कि भगवान् श्रीकृष्ण के
परम शुभ नामों का स्मरण और श्रवण लोक में सबसे अधिक पुण्य कार्य है। भगवान् शेष ने
कहा-हे परम श्रेष्ठ आरोह वाली वसुन्धरे ! भगवान् श्री कृष्ण के एक सौ आठ नामों का
एक शतक स्तोत्र है और वह मानवों के लिए मुक्ति के प्रदान करने वाला है ।१६।
सर्वमङ्गलमूर्द्धन्यमणिमाद्यष्टसिद्धिदम्
।
महापातककोटिघ्न सर्वतीर्थफलप्रदम् ॥
२,३६.१७ ॥
यह शतक सभी प्रकार के मङ्गल कार्यों
में शिरोमणि है तथा लौकिक साधारण वैभवों की प्राप्ति की तो बात ही क्या है यह तो
अणिमा-महिमा आदि जो आठ सिद्धियाँ हैं उनको भी देने वाला है। बड़े-बड़े महान् जो
करोड़ों प्रकार के पातक हैं उनका भी विनाश कर देने वाला और समस्त तीर्थों के
स्नान-ध्यान तथा अटन का जो पुण्यफल हुआ करता है उनके प्रदान कर देने वाला होता है
।१७।
समस्तजपयज्ञानां फलदं पापनाशनम् ।
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि
नाम्नामष्टोतरं शतम् ॥ २,३६.१८ ॥
सभी तरह के अश्वमेधादि यज्ञों एवं
जपों का जो भी फल होता है उसके देने वाला है और सभी पापों के नाश करने वाला है। हे
देवि ! अब आप उस नामों के शतक को सुनिए, मैं
आपको बतलाता हूँ जो एक सौ आठ भगवान् के नामों वाला है।१८
महस्रनाम्नां पुण्यानां त्रिरावृत्त्या
तु यत्फलम् ।
एकावृत्त्या तु कृष्णस्य नामैकं
तत्प्रयच्छति ॥ २,३६.१९ ॥
तस्मात्पुण्यतरं चैतत्स्तोत्रं
पातकनाशनम् ।
परम पुण्यमय अन्य सहस्र नामों की
तीन बार आवृत्ति के करने से जो फल प्राप्त होता है वह पुण्य-फल भगवान् श्रीकृष्ण
के नाम की एक ही आवृत्ति के द्वारा एक ही नाम दिया करता है । इस कारण से यह
स्तोत्र विशेष पुण्य वाला है और पातकों का विनाशक है । ।१९-२० ।
श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
नाम्नामष्टोत्तरशतस्याहमेव ऋषिः
प्रिये ॥ २,३६.२० ॥
छन्दोऽनुष्टुब्देवता तु योगः
कृष्णप्रियावहः ।
हे प्रिये ! इस परम शुभ नामों के
अष्टोत्तर शत का मैं ही ऋषि हूँ । इसका छन्द अनुष्टुप् है और इसका देवता श्री
कृष्ण के प्रिय का आवहन करने वाला योग है । अब यहाँ से आगे वह अष्टोत्तर शतक का
आरम्भ होता है-श्रीकृष्ण-कमला (महालक्ष्मी) के नाथ-बसुदेव के पुत्र वासुदेव और
सनातन अर्थात् सदा सर्वदा से चले आने वाले हैं।२०।२१॥
श्रीकृष्ण शतक स्तोत्रम्
श्रीकृष्णः कमलानाथो वासुदेवः
सनातनः ॥ २,३६.२१ ॥
वसुदेवात्मजः पुण्यो
लीलामानुषविग्रहः ।
श्रीवत्सकौस्तभधरो यशोदावत्सलो हरिः
॥ २,३६.२२ ॥
श्रीकृष्ण-कमला (महालक्ष्मी) के
नाथ-बसुदेव के पुत्र वासुदेव और सनातन अर्थात् सदा सर्वदा से चले आने वाले हैं।वसुदेव
को पुत्र-परम पुण्यमय-लीला ही से मानुष शरीर के धारण करने वाले हैं। श्रीवत्स का
चिह्न और कौस्तुभ मणि धारण के करने वाले-यशोदा के वत्सल और हरि हैं। हरि का अर्थ
होता है पापों के हरण करने वाले हैं।२१- २२।
चतुर्भुजात्तचक्रासिगदाशङ्खाद्युदायुधः
।
देवकीनन्दनः श्रीशो
नन्दगोपप्रियात्मजः ॥ २,३६.२३ ॥
चार भुजाओं में सुदर्शन चक्र,
कौमोदकी गदा, शङ्ख और असि आदि आयुधों के धारण
करने वाले हैं। देवकी के नन्दन श्रीदेवी के स्वामी और नन्दगोप की प्रिया यशोदा के
आत्मज अर्थात् पुत्र हैं।२३।
यमुनावेगसंहारी बलभद्रप्रियानुजः ।
पूतनाजीवितहरः शकटासुरभञ्जनः ॥ २,३६.२४ ॥
यमुना के वेग का संहार करने वाले
बलभद्रजी परम प्रिय अनुज अर्थात् छोटे भाई हैं। पूतना के जीवन का हरण करने वाले
तथा शकटासुर का हनन करने वाले हैं ।२४।
नन्दप्रजजनानन्दी
सच्चिदानन्दविग्रहः ।
नवनीतविलिप्ताङ्गो नवनीतनटोऽनघः ॥ २,३६.२५ ॥
नन्दगोप ब्रह्मजन अर्थात् ब्रजवासी
मनुष्यों को आनन्द देने वाले और सत्-चित् (ज्ञान) तथा आनन्द के शरीर वाले हैं
अर्थात् सत्-चित् और आनन्द ये तीनों ही वस्तुएँ उनके शरीर में विद्यमान हैं। नवनीत
(मक्खन) से विलिप्त अङ्गों वाले हैं जिस समय में यशोदाजी दधि मन्थन कर रही थी उस
समय में दधिभाण्ड का भयंकर नवनीत अपने समस्त अङ्गों में लपेट लिया था। नवजीत के
लिए नट हैं अर्थात् थोड़ा सा नवनीत पाने के लिए गोपाङ्गनाओं के यहां अनेक नृत्य
आदि की लीलायें करने वाले हैं। अनघ अर्थात् निष्पाप स्वरूप वाले हैं ।२५।
नवनीतलवाहारी मुचुकुन्दप्रसादकृत् ।
षोडशस्त्रीसहस्रेशस्त्रिभङ्गी
मधुराकृतिः ॥ २,३६.२६ ॥
नवनीत के घोड़े से भाग का आहार करने
वाले हैं अर्थात् दधि और मक्खन के विक्रय करने वाली ब्रजाङ्गनाओं को मार्ग में
रोककर नवनीत का आहार किया करते हैं। राजा मुचुकुन्द के ऊपर कृपा करने वाले हैं।
जिस समय जरासन्ध से युद्ध हो रहा था तब स्वयं भाग कर वहाँ पर पहुँच गये थे जहाँ पर
विद्रित मुचुकुन्द गुफा में यह वरदान लेकर सो रहा था कि उसे जो भी जगायेगा वह भस्म
हो जायगा। उस पर अपनी पीताम्बर डालकर आप छिप गये थे जरासन्ध ने उसे श्रीकृष्ण समझ
कर जगाया और भस्म हो गया था फिर भगवान् ने दर्शन देकर उसको प्रसन्न किया था। सोलह
सहस्त्र स्त्रियों के स्वामी हैं-त्रिभङ्गी हैं अर्थात् चरण-कटि और ग्रीवा तीनों
को तिरछा करके वंशी वादन करने वाले हैं तथा परमाधिक मधुर आकृति से समन्वित है २६॥
शुकवागमृताब्धीन्दुर्गोविन्दो
गोविदांपतिः ।
वत्सपालनसंचारी धेनुकासुरमर्द्दनः ॥
२,३६.२७ ॥
अमृत के समान जो शुकदेव की वाणी
रूपी सागर है उसके आप चन्द्र हैं अर्थात् शुकदेव जी के द्वारा श्रीमद्भागवत की
रचना हुई उसके प्रकाशन चन्द्र हैं । गोविन्दों के पति हैं। जब आप बालक थे तब ब्रज
में गोवत्सों का पालन करने के लिए वन में सञ्चरण करने वाले हैं तथा धेनुक नामक कंस
के द्वारा प्रेषित असुर का मर्दन करने वाले हैं।२७।
तृणीकृततृणावर्त्तो यमलार्जुनभञ्जनः
।
उत्तालतालभेत्ता च तमालश्यामला
कृतिः ॥ २,३६.२८ ॥
तृणावर्त असुर को तृण के समान हनन
करके डाल दिया है और जो दो अर्जुन वृक्षों का जोड़ा शाप वश वृक्ष हो गये थे उनका
भंजन कर वृक्षों की योनि छुड़ा देने वाले हैं। बहुत ही ऊंचे तालों के भेदन करने
वाले हैं तथा तमाल वृक्षों के सदृश श्यामल आकृति वाले हैं ।२८
गोपगोपीश्वरो योगी सूर्यकोटिसमप्रभः
।
इलापतिः परञ्ज्योतिर्यादवेन्द्रो
यदूद्वहः ॥ २,३६.२९ ॥
ब्रज में समस्त गोप और जो गोपियां
थीं उन सबके ईश है-महा योगी और करोड़ों सूर्यों को प्रभा के समान प्रदीप्त प्रभा
से समन्वित हैं। इला के पति-परम ज्योति स्वरूप यादवों में प्रमुख और यदु कुल के
उद्वहन करने वाले हैं।२९
वनमाली पीतवासाः पारिजातापहरकः ।
गोवर्द्धनाचलोद्धर्त्ता
गोपालः सर्वपालकः ॥ २,३६.३० ॥
वनमाला के धारण करने वाले-पीत वर्ण
के वस्त्रों के पहिनने वाले तथा पारिजात का महेन्द्रपुरी से आहरण करने वाले हैं गोवर्द्धन
गिरि के उद्धर्ता अर्थात् अपनी अंगुलि पर उठाने वाले-गौओं के पालन-पोषण करने वाले
और समस्त चर-अचरों के पालक हैं।३०।
अजो निरञ्जनः कामजनकः कञ्जलोचनः ।
मधुहा मथुरानाथो द्वारकानाथको बली ॥
२,३६.३१ ॥
अजन्मानिरंजन-कामदेव के जन्म दाता
तथा कमलों के सदृश लोचनों वाले हैं। मधु नामक दैत्य के हनन कर्ता--मथुरापुरी के
नाथ-द्वारका के स्वामी और बलशाली हैं।३१॥
वृन्दावनान्तसंचारी तुलसीदामभूषणः ।
स्यमन्तकमणेर्हर्त्ता
नरनारायणात्मकः ॥ २,३६.३२ ॥
वृन्दावन के मध्य में सञ्चरण करने
वाले-तुलसी की माला से सुशोभित अर्थात् तुलसी की माला के भूषण वाले हैं। स्यमन्तक
नाम वाली मणि को जाम्बवान् से हरण करने वाले तथा नर और नारायण के स्वरूपधारी हैं
।३२।
कुब्जाकृष्टांबरधरो मायी परमपूरुषः
।
मुष्टिकासुरचाणूरमल्लयुद्धविशारदः ॥
२,३६.३३ ॥
कुब्जा जो कंस नृप की चन्दन सेविका
थी वह थी तो परम सुन्दरी किन्तु टेड़े-मेड़े शरीर वाली थी। उसके द्वारा समाकृष्ट
वस्त्रों के धारण करने वाले हैं। कुब्जा श्रीकृष्ण पर मोहित हो गयी थी यह तात्पर्य
है। मायी और परम पुरुष हैं। कंस के मल्ल चाणूर और मुष्टिक असुर थे उनके साथ यस्त्र
युद्ध में परम कोविद हैं।३३।
संसारवैरी
कंसारिर्मुरारिर्नरकान्तकः ।
अनादि ब्रह्मचारी च
कृष्णाव्यसनकर्षकः ॥ २,३६.३४ ॥
इस संसार के वैरी हैं अर्थात् संसार
में होने वाले दुःखों के विनाशक हैं-कंस के निपात करने वाले-मुर दैत्य के नाशक और
नरक नामक असुर के अन्त कर देने वाले हैं । अनादि ब्रह्मचारी हैं अर्थात् ऐसे
ब्रह्मचारी हैं जिनका कभी कोई आदि नहीं है तथा कृष्ण-द्रौपदी के व्यसन के अपकर्षण
करने वाले हैं अर्थात् दुःशासन के द्वारा चीर खींचकर दुर्योधन की सभा में उसको
लज्जित किया जा रहा था उस समय चीर का वर्धन करके उसकी लज्जा की रक्षा करने वाले
हैं।३४।
शिशुपालशिरस्छेत्ता
दुर्योधनकुलान्तकृत ।
विदुराक्रूरवरदो विश्वरूपप्रदर्शकः
॥ २,३६.३५ ॥
राजा शिशुपाल के शिर के छेदन करने
वाले हैं और राजा कौरवेश्वर दुर्योधन के कुल का अन्त कर देने वाले हैं। विदुर और अक्रूर
को वरदानों के प्रदाता हैं और विश्वरूप अर्थात् विराट् स्वरूप के प्रदर्शक हैं ।३५
सत्यवाक्सत्यसंकल्पः सत्यभामारतो
जयी ।
सुभद्रापूर्वजो
विष्णुर्भीष्ममुक्तिप्रदायकः ॥ २,३६.३६
॥
सदा सत्य वचनों वाले तथा सत्य
संकल्पों वाले हैं। सत्यभामा नाम वाली अपनी पटरानी में रति रखने वाले और जयशील हैं
सुभद्रा के बड़े भाई हैं-भगवान् साक्षात् विष्णु का स्वरूप हैं तथा भीष्मपितामह को
मुक्ति देने वाले हैं ।३६ ।
जगद्गुरुर्जगन्नाथो वेणुवाद्य
विशारदः ।
वृषभासुरविध्वंसी
बकारिर्बाणबाहुकृत् ॥ २,३६.३७ ॥
इस सम्पूर्ण जगत् के गुरु हैं-इस जगत्
के नाथ हैं और वेणु (वंशी) के वादन करने में महापंडित हैं। वृषभासुर के विध्वंस
करने वाले हैं-वकासुर के निहन्ता और वाणासुर की बाहुओं के कर्त्तन करने वाले
हैं।३७।
युधिष्टिरप्रतिष्ठाता
बर्हिबर्हावतंसकः ।
पार्थसारथिरव्यक्तो गीतामृतमहोदधिः
॥ २,३६.३८ ॥
राजा युधिष्ठिर को राज्य गद्दी पर
प्रतिष्ठित करने वाले हैं और मयूर की पंख के भूषण वाले हैं। पार्थ पृथा के पुत्र
अर्जुन के रथ के वहन कराने वाले सारथि हैं । इनका ऐसा स्वरूप है जो अव्यक्त है
अर्थात् जिसको कोई पहिचान ही नहीं सकता है-गीता के उपदेशों से जो कि अमृत के समान
हैं यह महोदधि हैं। जैसे अमृत समुद्र से उत्पन्न हुआ था वैसे ही गीता
के उपदेश इनके ही हृदय से निकले हैं।३८।
कालीयफणिमाणिक्यरञ्जितः
श्रीपदांबुजः ।
दामोदरो यज्ञभोक्ता दानवैद्रविनाशनः
॥ २,३६.३९ ॥
कालिय नाग के मस्तक पर नृत्य
करने से माणिक्य मणि से रञ्जित श्रीपद कमल वाले हैं। दाम से बद्ध उदर वाले हैं ।
दधिमन्थन के महाभाण्ड का भङ्ग कर देने पर यशोदा माता ने पकड़कर डोरी से बांध दिया
था तभी से दामोदर नाम हुआ है। यज्ञों के भोक्ता और दानवेन्द्रों के विनाशक है।३९।
नारायणः परं ब्रह्म पन्नगाशनवाहनः ।
जलक्रीडासमासक्तगोपीवस्त्रापहारकः ॥
२,३६.४० ॥
पुण्यश्लोकस्तीर्थपादो वेदवेद्यो
दयानिधिः ।
सर्वतीर्थान्मकः सर्वग्रहरूपी
परात्परः ॥ २,३६.४१ ॥
आप साक्षात् क्षीरशायी नारायण-परं
ब्रह्म और पन्तगों के अशन करने वाले गरुण के वाहन वाले हैं । यमुना के जल
में दिगम्बर होकर क्रीड़ा करने वालो ब्रज बाला गोपियों के वस्त्रों का अपहरण करने
वाले हैं। आप पुण्य अर्थात् परम पुनीत यश वाले है-तीर्थ के समान चरणों वाले वेदों
के द्वारा जानने के योग्य और दया के निधि हैं। समस्त तीर्थों के स्वरूप वाले-सब
ग्रहों से रूप वाले और पर से भी पर है ।४०-४१।
श्रीकृष्ण प्रेमामृत स्तोत्रम् फलश्रुति
श्रीकृष्ण शतकम्
श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
इत्येवं कृष्णदेवस्य
नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।
कृष्णोन कृष्णभक्तेन श्रुत्वा
गीतामृतं पुरा ॥ २,३६.४२ ॥
इस प्रकार से श्रीकृष्ण देव
के एक सौ आठ नामों का यह शतक है। श्रीकृष्ण के भक्त कृष्ण ने अर्थात् वेद
व्यासजी ने पहिले गीतामृत का श्रवण दिया था।४२
स्तोत्रं कृष्णप्रियकरं कृतं
तस्मान्मया श्रुतम् ।
कृष्णप्रेमामृतं नाम परमानन्ददायकम्
॥ २,३६.४३ ॥
कृष्ण द्वैपायन महामुनि ने यह श्रीकृष्ण
के प्रिय को करने वाला स्तोत्र रचित किया था। उन्हीं से इसका श्रवण मैंने किया था।
यह श्रीकृष्ण प्रेमामृत नामक स्तोत्र परमाधिक आनन्द के प्रदान करने वाला है।४३।
अत्युपद्रवदुः खघ्नं परमायुष्य
वर्द्धनम् ।
दानं व्रतं तपस्तीर्थं यत्कृतं
त्विह जन्मनि ॥ २,३६.४४ ॥
पठतां शृण्वतां चैव कोटिकोटिगुणं
भवेत् ।
पुत्रप्रदमपुत्राणामगती नां
गतिप्रदम् ॥ २,३६.४५ ॥
यह अत्यधिक उपद्रव और दुःखों का हनन
करने वाला है तथा इसके श्रवण और पठन से अधिकाधिक आयु का वर्धन होता है । इस लोक
में जन्म ग्रहण करके जो भी कुछ दान-व्रत-तप-तीर्थ आदि किया है वह सभी इस परम पुनीत
स्तोत्र के पढ़ने वालों तथा श्रवण किया है वह सभी इस परम पुनीत स्तोत्र के पढ़ने
वालों तथा श्रवण करने वालों को करोड़ों गुना फल देने वाला होती है । जो पुत्रों से
रहित है उनको यह पुत्रों के प्रदान करने वाला है तथा जिनकी सद्गति का कोई भी साधन
नहीं है उनको सुगति अर्थात् उद्धार के प्रदान करने वाला है।४४-४५
धनवाहं दरिद्राणां जयेच्छूनां
जयावहम् ।
शिशूनां गोकुलानां च पुष्टिदं
पुण्यवर्द्धनम् ॥ २,३६.४६ ॥
जो धन से महीन महान् दरिद्र है उनको
धन का वहन कराने वाला है और जो सर्वत्र युद्ध स्थल में अपनी विजय के इच्छुक हैं
उनको जय देने वाला है। यह स्तोत्र शिशुओं की और गोकुलों की पुष्टि का बढ़ाने वाला
है।४६
बालरोगग्रहादीनां शमनं शान्तिकारकम्
।
अन्ते कृष्णस्मरणदं भवतापत्रयापहम्
॥ २,३६.४७ ॥
बालरोग और ग्रहों आदि का शमन करने
वाला तथा मरम शान्ति के करने वाला है। यह समय में श्रीकृष्ण को स्मृति का देने
वाला तथा संसार के तीनों (आध्यात्मिक-आधिभौतिक-आधिदैविक तापों का अपहरण करने वाला
है।४७।
असिद्धसाधकं भद्रे जपादिकरमात्मनाम्
।
कृष्णाय
यादवेन्द्राय ज्ञानमुद्राय योगिने ॥ २,३६.४८
॥
नाथाय रुक्मिणीशाय नमो
वेदान्तवेदिने ।
इमं मन्त्रं महादेवि जपन्नेव दिवा
निशम् ॥ २,३६.४९ ॥
हे भद्रे ! यह स्तोत्र अपने असिद्ध
जप आदि के साधन करने वाला अर्थात् सिद्धि कारक है। पादवेन्द्र-ज्ञान की मुद्रा
वाले-योगी-रुक्मिणी के स्वामी वेदान्त के वेदी नाथ श्री कृष्ण के लिए नमस्कार
है--हे महादेवि ! यह मन्त्र है इसका अहर्निश जाप करते रहना चाहिए ।४८-४९।
सर्वग्रहानुग्रहभाक्सर्वप्रियतमो
भवेत् ।
पुत्रपौत्रैः परिवृतः
सर्वसिद्धिसमृद्धिमान् ॥ २,३६.५०
॥
निषेव्य
भोगानन्तेऽपिकृष्णासायुज्यमाप्नुयात् ।
इस परमोत्तम एवं दिव्य स्तोत्र का
सेवन करने वाला पुरुष समस्त ग्रहों के अनुग्रह को प्राप्त करने वाला हो जाता है और
वह सभी का परम प्रिय बन जाया करता है। इस अष्टोत्तर शतक कृष्ण स्तोत्र के श्रवण
तथा पठन करने से भजन पुत्र-पौत्रादि से परिवृत होता है और उसके सभी प्रकार की
सिद्धियों को समृद्धि हो जाया करती है । वह मनुष्य इस लोक में सब प्रकार के सुखों
का उपभोग करके भी अन्त समय में भगवान श्रीकृष्ण के सायुज्य की प्राप्ति किया करता है
।५०-५१।
इति श्रीकृष्ण प्रेमामृत स्तोत्रम् अथवा
श्रीकृष्ण शतकम् अथवा श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् ॥
यहाँ नीचे इस श्रीकृष्ण प्रेमामृत
स्तोत्र में वर्णित श्रीकृष्ण के १०८ नामों को दिया जा रहा है-
श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामावलिः
ॐ अस्य श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रस्य
श्रीशेष ऋषिः, अनुष्टुप्-छन्दः,
श्रीकृष्णो देवता, श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे
श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामजपे
विनियोगः ।
॥ अथ श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामावलिः
॥
ॐ
श्रीकृष्णाय नमः ।
ॐ कमलानाथाय नमः ।
ॐ वासुदेवाय नमः ।
ॐ सनातनाय नमः ।
ॐ वसुदेवात्मजाय नमः ।
ॐ पुण्याय नमः ।
ॐ लीलामानुषविग्रहाय नमः ।
ॐ श्रीवत्सकौस्तुभधराय नमः ।
ॐ यशोदावत्सलाय नमः ।
ॐ हरये नमः । १०
ॐ
चतुर्भुजात्तचक्रासिगदाशङ्ख्याद्युदायुधाय नमः ।
ॐ देवकीनन्दनाय नमः ।
ॐ श्रीशाय नमः ।
ॐ नन्दगोपप्रियात्मजाय नमः ।
ॐ यमुनावेगसंहारिणे नमः ।
ॐ बलभद्रप्रियानुजाय नमः ।
ॐ पूतनाजीवितापहराय नमः ।
ॐ शकटासुरभञ्जनाय नमः ।
ॐ नन्दव्रजजनानन्दिने नमः ।
ॐ सच्चिदानन्दविग्रहाय नमः । २०
ॐ नवनीतविलिप्ताङ्गाय नमः ।
ॐ नवनीतनटाय नमः ।
ॐ अनघाय नमः ।
ॐ नवनीतलवाहारिणे नमः ।
ॐ मुचुकुन्दप्रसादकाय नमः ।
ॐ षोडशस्त्रीसहस्रेशाय नमः ।
ॐ त्रिभङ्गिने नमः ।
ॐ मधुराकृतये नमः ।
ॐ शुकवागमृताब्धिन्दवे नमः ।
ॐ गोविन्दाय नमः । ३०
ॐ गोविदाम्पतये नमः ।
ॐ वत्सवाटीचराय नमः ।
ॐ अनन्ताय नमः ।
ॐ धेनुकासुरभञ्जनाय नमः ।
ॐ तृणीकृततृणावर्ताय नमः ।
ॐ यमलार्जुनभञ्जनाय नमः ।
ॐ उत्तालतालभेत्रे नमः ।
ॐ तमालश्यामलाकृतये नमः ।
ॐ गोपगोपीश्वराय नमः ।
ॐ योगिने नमः । ४०
ॐ कोटिसूर्यसमप्रभाय नमः ।
ॐ इलापतये नमः ।
ॐ परञ्ज्योतिषे नमः ।
ॐ यादवेन्द्राय नमः ।
ॐ यदूद्वहाय नमः ।
ॐ वनमालिने नमः ।
ॐ पीतवाससे नमः ।
ॐ पारिजातापहारकाय नमः ।
ॐ गोवर्धनाचलोद्धर्त्रे नमः ।
ॐ गोपालाय नमः । ५०
ॐ सर्वपालकाय नमः ।
ॐ अजाय नमः ।
ॐ निरञ्जनाय नमः ।
ॐ कामजनकाय नमः ।
ॐ कञ्जलोचनाय नमः ।
ॐ मधुघ्ने नमः ।
ॐ मथुरानाथाय नमः ।
ॐ द्वारकानायकाय नमः ।
ॐ बलिने नमः ।
ॐ वृन्दावनान्तसञ्चारिणे नमः । ६०
ॐ तुलसीदामभूषणाय नमः ।
ॐ स्यमन्तकमणेर्हर्त्रे नमः ।
ॐ नरनारायणात्मकाय नमः ।
ॐ कुब्जाकृष्टाम्बरधराय नमः ।
ॐ मायिने नमः ।
ॐ परमपूरुषाय नमः ।
ॐ
मुष्टिकासुरचाणूरमल्लयुद्धविशारदाय नमः ।
ॐ संसारवैरिणे नमः ।
ॐ कंसारये नमः ।
ॐ मुरारये नमः । ७०
ॐ नरकान्तकाय नमः ।
ॐ अनादिब्रह्मचारिणे नमः ।
ॐ कृष्णाव्यसनकर्षकाय नमः ।
ॐ शिशुपालशिरश्छेत्रे नमः ।
ॐ दुर्योधनकुलान्तकाय नमः ।
ॐ विदुराक्रूरवरदाय नमः ।
ॐ विश्वरूपप्रदर्शकाय नमः ।
ॐ सत्यवाचे नमः ।
ॐ सत्यसङ्कल्पाय नमः ।
ॐ सत्यभामारताय नमः । ८०
ॐ जयिने नमः ।
ॐ सुभद्रापूर्वजाय नमः ।
ॐ जिष्णवे नमः ।
ॐ भीष्ममुक्तिप्रदायकाय नमः ।
ॐ जगद्गुरवे नमः ।
ॐ जगन्नाथाय नमः ।
ॐ वेणुनादविशारदाय नमः ।
ॐ वृषभासुरविध्वंसिने नमः ।
ॐ बाणासुरकरान्तकाय नमः ।
ॐ युधिष्ठिरप्रतिष्ठात्रे नमः । ९०
ॐ बर्हिबर्हावतंसकाय नमः ।
ॐ पार्थसारथये नमः ।
ॐ अव्यक्तगीतामृतमहोदधये नमः ।
ॐ कालीयफणिमाणिक्यरञ्जितश्रीपदाम्बुजाय
नमः ।
ॐ दामोदराय नमः ।
ॐ यज्ञभोक्त्रे नमः ।
ॐ दानवेन्द्रविनाशनाय नमः ।
ॐ नारायणाय नमः ।
ॐ परस्मै ब्रह्मणे नमः ।
ॐ पन्नगाशनवाहनाय नमः । १००
ॐ
जलक्रीडासमासक्तगोपीवस्त्रापहारकाय नमः ।
ॐ पुण्यश्लोकाय नमः ।
ॐ तीर्थकराय नमः ।
ॐ वेदवेद्याय नमः ।
ॐ दयानिधये नमः ।
ॐ सर्वतीर्थात्मकाय नमः ।
ॐ सर्वग्रहरूपिणे नमः ।
ॐ परात्परस्मै नमः । १०८
इति श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामावलिः ॥
इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यभागे तृतीय उपोद्धातपादे भार्गवचरिते श्रीकृष्ण प्रेमामृत स्तोत्रम् अथवा श्रीकृष्ण शतकम् अथवा श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् च श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामावलिः षट्त्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३६॥
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