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कर्मकाण्ड

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रूद्रयामल द्वितीय पटल

रूद्रयामल द्वितीय पटल 

रुद्रयामलम् द्वितीय पटल भाग- १ में कुलाचार विधि वर्णित है । पशुभाव में गुरु का ध्यान एवं पूजन वर्णित है (१०—२१)।

रूद्रयामलम् द्वितीय पटल भाग- १

रूद्रयामलम् द्वितीय पटल भाग- १

रूद्रयामलम् द्वितीय: पटल: प्रथम भाग

रुद्रयामल तंत्र पटल २ भाग १  

रूद्रयामलम्

(उत्तरतन्त्रम्)

अथ द्वितीयः पटलः - कुलाचारविधिः

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल

कुलाचारविधिः

भैरवी उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि सर्वदर्शनविद्यया ।

सर्वज्ञ परमानन्दो दयाबीज भयङ्कर ॥१॥

श्रृणुष्वैकमनाः शम्भो कुलाचारविधिं श्रृणु ।

पशूनां व्रतभङादौ विधिं प्रथमतः प्रभो ॥२॥

भैरवी उवाच

भैरवी ने कहा --- हे सर्वज्ञ ! हे परमानन्द ! हे दयामय ! हे भयङ्कर ! अब मैं इसके बाद सर्वदर्शन की विद्या से युक्त कुलाचार की विधि कहती हूँ । हे शम्भो ! उसे सावधान चित्त हो कर श्रवण कीजिए । हे प्रभो ! सर्वप्रथम पशुभाव के व्रत में विघ्न पड़ने पर जिस विधान का पालन करना चाहिए उसे सुनिए ॥१ - २॥

व्रतभङे नित्यभङे नित्यपूजादिकर्मणि ।

सहस्त्रं प्रजमेन्मन्त्री व्रतदोषोपशान्तये ॥३॥

नित्यश्राद्धं तथा सन्ध्यावन्दनं पितृतर्पणम् ।

देवतादर्शनं पीठदर्शनं तीर्थदर्शनम् ॥४॥

गुरोराज्ञापालानञ्च देवतानित्यपूजनम् ।

पशुभावस्थितो मर्त्यो महासिद्धिं लभेद् ध्रुवम् ॥५॥

कुलाचारविधि --- नियम के भङ्ग में, नित्यकर्म में तथा नित्य पूजा में बाधा पड़ने पर मन्त्रज्ञ साधक को व्रत दोष की शान्ति के लिए एक सहस्त्र जप करना चाहिए ऐसे नित्य श्राद्ध सन्ध्यावन्दत पितृ तर्पण देवता दर्शन पीठदर्शन, तीर्थदर्शन, गुरु की अज्ञा का पालन, इष्टदेव का नित्य पूजन करने वाला पशुभाव में स्थित मनुष्य निश्चय ही महासिद्धि प्राप्त करता है ॥३ - ५॥

पशूनां प्रथमो भावो वीरस्य वीरभावनम् ।

दिव्यानां दिव्यभावस्तु तेषां भावास्त्रयः स्मृताः ॥६॥

स्वकुलचारहीनो यः साधकः स्थिरमानसः ।

निष्फालार्थी भवेत् क्षिप्रं कुलाचारप्रभावतः ॥७॥

पशुओं के लिए प्रथम पशुभाव, वीरों के लिए वीरभाव तथा दिव्य साधकों के लिए दिव्यभाव इस प्रकार तीन भाव कहे गए हैं । जो साधक स्वकुलाचार से हीन किन्तु स्थिर चित्त है वह शीघ्र ही कुलाचार के प्रभाव से निष्फल अर्थ वाला हो जाता है ॥६ - ७॥

भैरव उवाच

केनोपायेन भगवतीचरणाम्भोजदर्शनम् ।

प्राप्नोति पद्मवदने पशुभावस्थितो नरः ॥८॥

तत्प्रकारं सुविस्तार्य कथ्यतां कुलकामिनि ।

यदि भक्तिर्दृढा मेऽस्ति यदि स्नेहोऽस्ति मां प्रति ॥९॥

भैरव ने कहा --- हे कमलमुखि ! हे कुलकामिनि ! पशुभाव में स्थित मनुष्य को किस प्रकार भगवती के चरण कमलों का दर्शन प्राप्त होता है ? यदि आपके प्रति मेरी दृढ़ भक्ति तथा मेरे प्रति आपका स्नेह है तो उसका प्रकार अर्थात् उसकी विधि विस्तारपूर्वक मुझसे कहिए ॥८ - ९॥

महाभैरवी उवाच

प्रभाते च समुत्थाय अरुणोदयकालतः ।

निशाष्टदण्डपर्यन्तं पशूनां भाव ईरितः ॥१०॥

प्रातः शय्यादिकं कृत्वा पुनः शय्यास्थितः पशुः ।

गुरुं सञ्चिन्तयेच्छीर्षाम्भोजे साहस्त्रके दले ॥११॥

पशुभाव --- महाभैरवी ने कहा --- प्रातः काल में उठने पर अरुणोदयकाल से पूर्व ८ दण्ड रात्रिपर्यन्त पशुभाव का समय कहा गया है । प्रातःकालिक नित्य क्रिया के पश्चात् ‍ पशुभाव में संस्थित साधक पुनः शय्या पर बैठकर अपने शिरःकमल में स्थित सहस्त्रार दल में अपने गुरु का इस प्रकार ध्यान करे ॥१० - ११॥

तरुणादित्यसङ्काशं तेजोबिम्बं महागुरुम् ।

अनन्तान्तमहिमासागरं शशिशेखरम् ॥१२॥

महाशुभ्रं भासुराङं द्विनेत्र द्विभुजं विभुम् ।

आत्मोपलब्धिर्विषमं तेजसा शुक्लवाससम् ॥१३॥

गुरुध्यान --- मध्याहन कालीन सूर्य के समान तेजो बिम्ब वाले, महा महिमा के सागर, अपने मस्तक पर चन्द्रमा को धारण किए हुए महागुरु शङ्कर का ध्यान करे । अत्यन्त स्वच्छ, देदीप्यमान अङ्ग वाले, दो नेत्र तथा दो भुजाओं वाले, सर्वव्यापक, आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करने में अद्वितीय, महातेजस्वी शुक्लाम्बर विभूषित गुरु का ध्यान करे ॥१२ - १३॥

आज्ञाचक्रोद्र्ध्वनिकरं कारणं जगतां मुखम् ।

धर्मार्थकाममोक्षाङु वराभयकरं विभिम् ॥१४॥

आज्ञाचक्र से ऊपर विराजमान, जगत् ‍ के मुख्य कारण, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टय रुप अङ्ग वाले, हाथ में वर और अभयमुद्रा धारण करने वाले श्री गुरु का ध्यान करे ॥१४॥

प्रफुल्लकमलारुढं सर्वज्ञं जगदीश्वरम ।

अन्तःप्रकाशचपलं वनमालाविभूषितम् ॥१५॥

रत्नालङकारभूषाढ्यं देवदेवं सदा भजेत् ।

अन्तर्यागक्रमेणैव पद्मपुष्पैः समर्चयेत् ॥१६॥

विकसित कमल पर आरूढ़, सर्वज्ञ, जगदीश्वर, अन्तः प्रकाश से देदीप्यमान वनमाला से विभूषित, रत्ननिर्मित अलङ्कार से भूषित इस प्रकार के देवाधिदेव गुरु का सदा भजन करे । तदनन्तर अन्तर्याग क्रम ( मानसोपचारों ) से कमल पुष्पों द्वारा उनकी अर्चना करे ॥१५ - १६॥

एकान्तभक्त्या प्रणमेदायुरारोग्यवृद्धये ।

अथ मध्ये जपेन्मन्त्रमाद्यन्तप्रणवेन च ॥१७॥

मध्ये वाग्भवमायोज्य गुरुनाम ततः परम् ।

आनन्दनाथशब्दान्ते गुरुं डेऽन्तं समुद्धरेत् ॥१८॥

नमः शब्दं ततो ब्रूयात् प्रणवं सर्वसिद्धिदम् ।

महागुरोर्मनुं जप्त्वा सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ॥१९॥

फिर अपने आयु और आरोग्य़ की वृद्धि के लिए एकमना भक्ति युक्त होकर उन्हें प्रणाम करे । इसके बाद आद्यन्त प्रणत लगाकर मध्य में वाग्भव ( ऐं ), फिर गुरु का नाम, फिर आनन्दनाथ शब्द के अन्त में गुरु शब्द की चतुर्थी, तदनन्तर नमः शब्द लगाकर सर्वसिद्धि प्रणव का उच्चारण करे । इस प्रकार महान सिद्धि देने वाले गुरु मन्त्र का जप करने से साधक संपूर्ण सिद्धियों का स्वामी बन जाता है ॥१७ - १९॥

वाक्‍सिद्धिर्वदनाम्भोजे गुरुमन्त्रप्रभावतः ।

शतमष्टोत्तरं नित्य सहस्त्रं वा तथाष्टकम् ॥२०॥

प्रजप्यार्पणणमाकृत्य प्राणायामत्रयञ्चरेत् ।

वाग्भवेन ततः कुर्यात् प्राणायामविधं मुदा ॥२१॥

इस गुरुमन्त्र के जप के प्रभाव से साधक के मुख कमल में वाक्सिद्धि हो जाती है । उसकी विधि इस प्रकार है, नित्य १०८ बार अथवा १००८ बार इस मन्त्र का जप कर गुरु को जप निनेदित कर । फिर वाग्भव ( ऐं ) मन्त्र से प्राणायाम में कही गई विधि के अनुसार तीन प्राणायाम करे ।

॥इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने कुलाचारविधिः भैरवीभैरवसंवादे द्वितीयः पटलः ॥२॥

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल उत्तरतन्त्र का द्वितीय पटल भाग १ समाप्त हुआ ॥२ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र द्वितीय पटल भाग- २ 

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