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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
कुण्डली कवच
रुद्रयामल तंत्र पटल ३३ में कुल
कुण्डली कवच का वर्णन है। इसका पाठ करने से रोगी रोग से मुक्त,बंदी बन्धन से मुक्त होता है तथा राज्यहीन को राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति
और पुत्रहीनो को सुन्दर पुत्र की प्राप्ति
होती है। इस कवच लिखकर शिखा या दक्षिण भुजा में धारण करने से सभी मनोकामना पूर्ण
होती और सिद्धि मिलती है।
रुद्रयामल तंत्र पटल ३३
Rudrayamal Tantra Patal 33
रुद्रयामल तंत्र तैंतीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र त्रयस्त्रिंशः पटल:
कुण्डलिनीकवचम् अथवा कन्दवासिनीकवचम्
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथ त्रयस्त्रिंशः पटल:
श्री आनन्दभैरवी उवाच
अथ वक्ष्ये महादेव कुण्डलीकवचं
शुभम् ।
परमानन्ददं सिद्धं
सिद्धवृन्दनिषेवितम् ॥ १ ॥
आनन्दभैरवी ने कहा-
हे महादेव ! अब इसके अनन्तर कल्याणकारी कुण्डलिनी कवच कहती हूँ । यह कवच
परमानन्द देने वाला तथा सिद्ध है और सिद्ध समूहों से सुसेवित है ॥ १ ॥
यत्कृत्वा योगिनः सर्व
धर्माधर्मप्रदर्शकाः ।
ज्ञानिनो मानिनो धर्मा विचरन्ति
यथामराः ॥ २ ॥
सिद्धयोऽप्यणिमाद्याश्च करस्थाः
सर्वदेवताः ।
एतत् कवचपाठेन देवेन्द्रो योगिराड्
भवेत् ॥ ३ ॥
इसके पाठ करने से सभी योगी,
धर्म-अधर्म का ज्ञान करने वाले, ज्ञानी मानी
तथा धर्मवान् हो जाते हैं और देवताओं के समान पृथ्वी पर विचरण करते हैं।
उनके हाथ में सभी अणिमादि सिद्धियाँ तथा सभी देवता हो जाते हैं। इस कवच के पाठ से
पाठकर्ता देवेन्द्र तथा योगिराज बन जाता है ।। २-३ ॥
ऋषयो योगिनः सर्वे जटिला: कुलभैरवाः
।
प्रातः काले त्रिवारं च मध्याहने
वारयुग्मकम् ॥ ४ ॥
सायाने वारमेकं तु पठेत् कवचमेव च ।
पठेदेवं महायोगी कुण्डलीदर्शनं
भवेत् ॥ ५ ॥
सभी योगीजन इसका पाठ करने से ऋषि
एवं जटा धारण करने वाले भैरव बन जाते हैं। प्रातः काल में तीन बार,
मध्याह्नकाल में दो बार, सायङ्काल में एक बार
यदि महायोगी इस कवच का पाठ करें तो उन्हें साक्षात् कुण्डलिनी का दर्शन प्राप्त हो
जाता है ।। ४-५ ।।
श्रीकुलकुण्डलीकवचस्तोत्रम् अथवा कन्दवासिनीकवचम्
कुलकुण्डलीकवचस्य ब्रह्मेन्द्र
ऋषिर्गायत्री छन्दः, कुलकुण्डली देवता
सर्वाभीष्टसिद्धार्थे विनियोगः ॥
इस कुलकुण्डली कवच के ब्रह्मेन्द्र
ऋषि है;
गायत्री छन्द है और कुलकुण्डली देवता है, सभी
अभीष्टसिद्धि के लिए इनका विनियोग है।
विधि—
हाथ में जल लेकर 'अस्य कुलकुण्डलीकवचस्य ब्रह्मेन्द्र ऋषिर्गायत्री छन्दः, कुलकुण्डली देवता सर्वाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः' पर्यन्त वाक्य पढ़कर पाठकर्ता उस जल को पृथ्वी पर अथवा किसी पात्र में
गिरा देवे ।
कुलकुण्डलीकवचम्
ॐ ईश्वरी जगतां धात्री ललिता
सुन्दरी परा ।
कुण्डली कुलरूपा च पातु मां
कुलचण्डिका ॥ ६ ॥
ॐ ईश्वरी,
कुलरूपा, जगत् का पालन करने वाली परा, सुन्दरी, ललिता, कुण्डलिनी कुल
चण्डिका मेरी रक्षा करें ।। ६ ।।
शिरो मे ललिता देवी पातूग्राख्या
कपोलकम् ।
ब्रह्ममन्त्रेण पुटिता भ्रूमध्यं
पातु मे सदा ॥ ७ ॥
नेत्रत्रयं महाकाली कालाग्निभक्षिका
शिखाम् ।
दन्तावलीं विशालाक्षी
ओष्ठमिष्टानुवासिनी ॥ ८ ॥
ललिता देवी मेरे शिर की रक्षा करें।
उग्रनाम वाली देवी मेरे कपोल की तथा ब्रह्ममन्त्र से सम्पुटित देवी मेरे भूमध्य की
रक्षा करें। महाकाली तीनों नेत्रों की, कालाग्नि
भक्षिका देवी शिखा की, विशालाक्षी दन्त समूहों की एवं इष्ट (
यज्ञकर्म में) में निवास करने वाली मेरे ओष्ठ की रक्षा करें ।। ७-८ ।।
कामबीजात्मिका विद्या अधरं पातु मे
सदा ।
ऌयुगस्था गण्डयुग्मं माया विश्वा
रसप्रिया ॥ ९ ॥
भुवनेशी कर्णयुग्मं चिबुकं
क्रोधकालिका ।
कपिला मे गलं पातु सर्वबीजस्वरूपिणी
॥ १० ॥
कामबीजात्मिका महाविद्या सर्वदा
मेरे अधर की रक्षा करें। दो प्रकार के लृकार में रहने वाली,
रस से प्रेम करने वाली, विश्वा एवं माया दोनों
गण्डस्थलों की रक्षा करें। भुवनेशी दोनों कानों की, क्रोधकालिका
देवी चिबुक की और सर्व बीजस्वरूपिणी कपिला मेरे गले की रक्षा करें ।। ९-१० ।।
मातृकावर्णपुटिता कुण्डली कण्ठमेव च
।
हृदयं कालपृथ्वी च कङ्काली पातु मे
मुखम् ॥ ११ ॥
भुजयुग्मं चतुर्वर्गा
चण्डदोर्दण्डखण्डिनी ।
स्कन्धयुग्मं स्कन्दमाता हालाहलगता
मम ॥ १२ ॥
मातृका वर्णों से सम्पुटित
कुण्डलिनी कण्ठ की और कालपृथ्वी हृदय की तथा कङ्काली देवी मेरे मुख की रक्षा करें।
चण्ड के दोनों बाहुओं को खण्ड खण्ड करने वाली चतुर्वर्गा देवी मेरे दोनों भुजाओं
की,
हालाहल (विष) में रहने वाली स्कन्दमाता मेरे दोनों कन्धों की रक्षा
करें ।। ११-१२ ॥
अगुल्य कुलानन्दा श्रीविद्या
नखमण्डलम् ।
कालिका भुवनेशानी पृष्ठदेशं सदावतु
॥ १३ ॥
पार्श्वयुग्मं महावीरा वीरासनधराभया
।
पातु मां कुलदर्भस्था
नाभिमुदरमम्बिका ॥ १४ ॥
कटिदेश पीठसंस्था महामहिषघातिनी ।
लिङ्गस्थानं महामुद्रा भगं मालामनुप्रिया
॥ १५ ॥
कुलानन्दा अंगुली के अग्रभागों की,
श्रीविद्या समस्त नखमण्डलों की कालिका तथा भुवनेशानी सर्वदा मेरे
पृष्ठदेश की रक्षा करें । वीरासन धारण करने वाली महावीरा और अभया मेरे दोनों
पार्श्व भाग की, कुलदर्भस्था मेरी तथा अम्बिका मेरे नाभि और
उदर प्रदेश की रक्षा करें। पीठ में निवास करने वाली देवी महामहिषघातिनी मेरे
कटिदेश की, महामुद्रा लिङ्गस्थान की और माला से प्रेम करने
वाली मेरे भग (= ऐश्वर्य ) की रक्षा करें॥१३-१५॥
भगीरथप्रिया धूम्रा मूलाधारं
गणेश्वरी ।
चतुर्दलं कक्ष्यपूज्या दलानं मे
वसुन्धरा ॥ १६ ॥
शीर्ष राधा रणाख्या च ब्रह्माणी पातु
मे मुखम् ।
मेदिनी पातु कमला वाग्देवी पूर्वगं
दलम् ॥ १७ ॥
भगीरथ प्रिया धूम्रा और गणेश्वरी
मेरे मूलाधार की, कक्ष्य पूज्या देवी
मेरे( कुण्डली के ) चतुर्दल की तथा वसुन्धरा देवी दल के
अग्रभाग की रक्षा करें। राधा तथा रणाख्या मेरे शिरोभाग की, ब्रह्माणी
मुख की और भेदिनी वाग्देवी कमला मेरी कुण्डलिनी के पूर्वदल की रक्षा करें ।। १६-१७
।।
छेदिनी दक्षिणे पातु पातु चण्डा
महातपा ।
चन्द्रघण्टा सदा पातु योगिनी वारुणं
दलम् ॥ १८ ॥
उत्तरस्थं दलं पातु
पृथिवीमिन्द्रपालिता ।
चतुष्कोण कामविद्या
ब्रह्मविद्याब्जकोणकम् ॥१९॥
छेदिनीदेवी दक्षिण दल की,
महातपा, चण्डा, चन्द्रघण्टा
एवं योगिनी पश्चिम दल की रक्षा करें । उत्तर दल की, इन्द्र
पालिता पृथ्वी (भूपुर) की, कामविद्या चतुष्कोणों की तथा ब्रह्मविद्या
कमलरूप कोणों की रक्षा करें॥१८-१९ ॥
अष्टशूलं सदा पातु सर्ववाहनवाहना ।
चतुर्भुजा सदा पातु डाकिनी
कुलचञ्चला ॥ २० ॥
मेढ्रस्था मदनाधारा पातु मे
चारुपङ्कजम् ।
स्वयम्भूलिङ्ग चार्वाका कोटराक्षी
ममासनम् ॥ २१ ॥
कदम्बवनमापातु कदम्बवनवासिनी ।
वैष्णवी परमा माया पातु मे वैष्णवं
पदम् ॥ २२ ॥
सर्ववाहन वाहना चतुर्भुजा कुलचञ्चला
डाकिनी सदैव मेरे अष्टशूल की रक्षा करें । मेढ्र पर रहने वाली मदनाधारा मेरे
सुन्दर कमल की रक्षा करें। चार्वाका स्वयंभू लिङ्ग की तथा कोटराक्षी मेरे आसन की
रक्षा करें। कदम्ब वनवासिनी कदम्बवन की रक्षा करें तथा वैष्णवी परमा माया मेरे
वैष्णव पद की रक्षा करें ॥ २०-२२ ।।
षड्दल राकिणी पातु राकिणी कामवासिनी
।
कामेश्वरी कामरूपा श्रीकृष्णं
पीतवाससम् ॥ २३ ॥
वनमालां वनदुर्गा शङ्ख मे शङ्खिनी
शिवा ।
चक्रं चक्रेश्वरी पातु कमलाक्षी
गदां मम ॥ २४ ॥
कामवासना वाली राकिणी देवी षड्दल की
तथा कामरूपा कामेश्वरी उस पर रहनेवाले पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण की रक्षा करें। मेरी
वनमाला की रक्षा वनदुर्गा करें । शिवा शङ्खिनी शङ्ख की,
चक्रेश्वरी चक्र की तथा कमलाक्षी मेरे गदा की रक्षा करें ।। २३-२४
।।
पद्मं मे पद्मगन्धा च पद्ममाला
मनोहरा ।
रादिलान्ताक्षरं पातु लाकिनी
लोकपालिनी ॥ २५॥
षड्दले स्थितदेवांश्च पातु
कैलासवासिनी ।
अग्निवर्णा सदा पातु गणं मे
परमेश्वरी ॥ २६ ॥
पद्मगन्धा पद्म की,
मनोहरा पद्ममाला की, ब भ म य र ल इन छः
अक्षरों की लोकपालिनी लाकिनी रक्षा करें। कैलास वासिनी षड्दल पर स्थित देवताओं की,
अग्निवर्णा परमेश्वरी मेरे गणों की सदैव रक्षा करें ।। २५-२६ ॥
मणिपूरं सदा पातु मणिमालाविभूषणा ।
दशपत्रं दशवर्णं डादिफान्तं
त्रिविक्रमा ॥ २७ ॥
मणिमाला विभूषणा मणिपूर की सदा
रक्षा करें । त्रिविक्रमा मणिपूर में रहने वाले ड ढ त थ द ध न प फ इन दश वर्णों से
युक्त दश पत्ते वाले पद्म की रक्षा करें ॥। २७ ॥
पातु नीला महाकाली भद्रा भीमा
सरस्वती ।
अयोध्यावासिनी देवी महापीठनिवासिनी
॥ २८ ॥
वाग्भवाद्या महाविद्या कुण्डली
कालकुण्डली ।
दशच्छदगतं पातु रुद्रं रुद्रात्मकं
मम ॥ २९ ॥
नीला, महाकाली, भद्रा, भीमा, सरस्वती, अयोध्यावासिनी देवी, महापीठाधिवासिनी,वाग्भवाद्या, महाविद्या, कुण्डली
और कालकुण्डली, दशच्छद पर रहने वाले मेरे रुद्रात्मक रुद्र
की रक्षा करें ॥ २८-२९ ॥
सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरा पातु
सूक्ष्मस्थाननिवासिनी ।
राकिणी लोकजननी पातु कूटाक्षरस्थिता
॥ ३० ॥
तैजसं पातु नियतं रजकी राजपूजिता ।
विजया कुलबीजस्था तवर्ग तिमिरापहा ॥
३१ ॥
(मेरे) सूक्ष्म से सूक्ष्म ( पाप
की रक्षा करें। सूक्ष्म स्थान में रहने वाली कूटाक्षर स्थिता, लोकजननी राकिणी नियमपूर्वक मेरे तेज की रक्षा करें । राजपूजिता, रजकी, कुलबीजस्था, तिमिरापहा
विजया त वर्ग की रक्षा करें ।। ३०-३१ ।।
मन्त्रात्मिका मणिग्रन्थिं भेदिनी
पातु सर्वदा ।
गर्भदाता भृगुसुता पातु मां
नाभिवासिनी ॥ ३२ ॥
नन्दिनी पातु सकलं कुण्डली
कालकम्पिता ।
हृत्पद्मं पातु कालाख्या धूम्रवर्णा
मनोहरा ॥ ३३ ॥
मन्त्रात्मिका भेदिनी सर्वदा
मणिग्रन्थि की रक्षा करें। नाभि में रहने वाली, गर्भदाता
भृगुसुता (लक्ष्मी) मेरी रक्षा करें। नन्दिनी, कालकम्पिता,
कुण्डली सम्पूर्ण वस्तुओं की रक्षा करें। मनोहरा, धूर्मवर्णा एवं कालाख्या हृत्पद्म की रक्षा करें ।। ३२-३३ ।।
दलद्वादशवर्णं च भास्करी
भावसिद्धिदा ।
पातु मे परमा विद्या कवर्गं
कामचारिणी ॥ ३४ ॥
चवर्ग चारुवसना व्याघ्रास्या
टङ्कधारिणी ।
चकारं पातु कृष्णाख्या काकिनीं पातु
कालिका ॥ ३५ ॥
भावसिद्धि प्रदान करने वाली भास्करी
द्वादशवर्ण वाले दल की रक्षा करें। कामचारिणी परमा विद्या क वर्ग की रक्षा करें।
मनोहर वेश भूषा वाली व्याघ्रमुखी टङ्कधारिणी च वर्ग की रक्षा करें। कृष्णा नाम
वाली काकिनी कालिका चकार की रक्षा करें ।। ३४-३५ ॥
टकुराङ्गी टकारं मे जीवभावा महोदया
।
ईश्वरी पातु विमला मम
हृत्पद्यवासिनी ॥ ३६ ॥
कर्णिकां कालसन्दर्भा योगिनी
योगमातरम् ।
इन्द्राणी वारुणी पातु कुलमाला
कुलान्तरम् ॥ ३७ ॥
जीवभाव को प्राप्त होने वाली,
महान् अभ्युदय देने वाली, टकुराङ्गी टकार की
रक्षा करें। मेरे हृदयरूप कमल में निवास करने वाली विमला ईश्वरी मेरी रक्षा करें।
कालसंदर्भा कर्णिका की, योगिनी योगमाता की, इन्द्राणी, वारुणी एवं कुलमाला कुलान्तर की रक्षा
करें ।। ३६-३७ ।।
तारिणी शक्तिमाता च कण्ठवाक्यं
सदावतु ।
विप्रचित्ता महोग्रोग्रा प्रभा
दीप्ता घनासना ॥ ३८ ॥
वाक्स्तम्भिनी वज्रदेहा वैदेही
वृषवाहिनी ।
उन्मत्तानन्दचित्ता च क्षणोशीशा
भगान्तरा ॥ ३९ ॥
मम षोडशपत्राणि पातु मातृतनुस्थिता
।
सुरान् रक्षतु वेदज्ञा सर्वभाषा च
कर्णिकाम् ॥ ४० ॥
तारिणी तथा शक्ति माता मेरे कण्ठगत
वाक्य की सदा रक्षा करें। १. विप्रचित्ता, २
. महोग्रा, ३. उग्रा, ४. प्रभा,
५. दीप्ता, ६. घनासना, ७
वाक्स्तम्भिनी, ८. वज्रदेहा, ९. वैदेही,
१०. वृषवाहिनी, ११. उन्मत्ता, १२. आनन्दचित्ता, १३. क्षोणीशा ( क्षणोशी ?
), १४. ईशा, १५. (?) तथा
१६. भगान्तरा मेरे षोडश पत्रों की रक्षा करें। मातृतनुस्थिता देवताओं की रक्षा
करें, वेदज्ञा सर्वभाषा कर्णिका की रक्षा करें ।। ३८-४० ।।
ईश्वरार्द्धासनगता प्रपायान्मे
सदाशिवम् ।
शाकम्भरी महामाया साकिनी पातु
सर्वदा ॥ ४१ ॥
भवानी भवमाता च पायाद्
भ्रूमध्यपङ्कजम् ।
द्विदलं व्रतकामाख्या
अष्टाङ्गसिद्धिदायिनी ॥ ४२ ॥
ईश्वर के आधे आसन पर रहने वाली मेरे
सदाशिव की रक्षा करें। शाकम्भरी, महामाया एवं
साकिनी मेरी सर्वदा रक्षा करें। भवानी, भवमाता मेरे
भूमध्यस्थ पङ्कज की रक्षा करें । अष्टाङ्ग सिद्धि देने वाली व्रतकामाख्या भू पङ्कज
में रहने वाले द्विदल की रक्षा करें ।। ४१-४२ ॥
पातु नासामखिलानन्दा मनोरूपा
जगत्प्रिया ।
लकारं लक्षणाक्रान्ता
सर्वलक्षणलक्षणा ॥ ४३ ॥
कृष्णाजिनधरा देवी क्षकारं पातु
सर्वदा ।
द्विदलस्थं सर्वदेवं सदा पातु
वरानना ॥ ४४ ॥
जगत्प्रिया,
मनोरूपा एवं अखिलानन्दा मेरे नासिका की रक्षा करें। लक्षणाक्रान्ता
एवं सर्व- लक्षणलक्षणा लकार की रक्षा करें। कृष्णमृग का चर्म धारण करने वाली देवी
सर्वदा क्षकार की रक्षा करें। वरानना देवी द्विदल पर रहने वाले सभी देवों की रक्षा
करें ॥। ४३-४४ ॥
बहुरूपा विश्वरूपा हाकिनी पातु
संस्थिता ।
हरापरशिवं पातु मानसं पातु पञ्चमी ॥
४५ ॥
षट्चक्रस्था सदा पातु
षट्चक्रकुलवासिनी ।
अकारादिक्षकारान्ता
बिन्दुसर्गसमन्विता ॥ ४६ ॥
बहुरूपा,
विश्वरूपा, संस्थिता हाकिनी, हरा परशिव की रक्षा करें तथा पञ्चमी मेरे मन की रक्षा करें। षट्चक्रो में
रहने वाली एवं षट्चक्र कुल में निवास करने वाली बिन्दु तथा सर्ग अर्थात् विसर्ग
युक्त अकारादि से लेकर क्षकारान्त वर्ण समुदाय की रक्षा करें ॥४५-४६॥
मातृकार्णा सदा पातु कुण्डली
ज्ञानकुण्डली ।
देवकाली गतिप्रेमा पूर्णा गिरितटं
शिवा ॥ ४७ ॥
उड्डीयानेश्वरी देवी सकलं पातु
सर्वदा ।
कैलासपर्वतं पातु कैलासगिरिवासिनी ॥
४८ ॥
पातु मे डाकिनीशक्तिलांकिनी राकिणी
कला ।
साकिनी हाकिनी देवी षट्चक्रादीन्
प्रपातु मे ॥ ४९ ॥
ज्ञान का कुण्डल धारण करने वाली
कुण्डली मातृका वर्णों की रक्षा करें। देवकाली, गतिप्रेमा
तथा पूर्ण शिवा गिरितट से रक्षा करें । उड्डीयानेश्वरी देवी सर्वदा हमारे सम्पूर्ण
वस्तुओं की रक्षा करें । कैलास गिरिवासिनी देवी कैलास पर्वत की रक्षा करें ।
डाकिनी, लाकिनी, राकिणी, साकिनी, हाकिनी तथा कला ये छः शक्ति देवी हमारे
षट्चक्रों की सर्वदा रक्षा करें ।। ४७-४९ ।।
कैलासाख्यं सदा पातु पञ्चानन
तनूद्भवा ।
हिरण्यवर्णा रजनी
चन्द्रसूर्याग्निभक्षिणी ॥ ५० ॥
सहस्रदलपद्मं मे सदा पातु कुलाकुला
।
सहस्रदलपद्मस्था दैवतं पातु खेचरी ॥
५१ ॥
पञ्चाननतनूद्भवा देवी कैलास नाम की
रक्षा करें, हिरण्यवर्णा रजनी चन्द्र
सूर्याग्नि भक्षिणी तथा कुलाकुला हमारे सहस्रदल पद्म की सदा रक्षा करें। खेचरी
सहस्रदल पद्म पर रहने वाले समस्त देवताओं की रक्षा करें॥ ५०-५१ ॥
काली तारा षोडशाख्या मातङ्गी
पद्यवासिनी ।
शशिकोटिगलद्रूपा पातु मे सकलं तमः ॥
५२॥
वने घोरे जले देशे युद्धे वादे श्मशानके
।
सर्वत्र गमने ज्ञाने सदा मां पातु
शैलजा ॥ ५३ ॥
काली, तारा, षोडशी, मातङ्गी, महालक्ष्मी जिनका स्वरूप करोड़ों चन्द्रमा के समान कान्तिमान् है वे मेरे समस्त
अज्ञान रूप अन्धकार की रक्षा करें। घोर वन में, जल प्रदेश
में, युद्ध में, विवाद में, श्मशान में और सभी स्थानों की यात्रा में तथा ज्ञान में शैलजा मेरी रक्षा
करें ।। ५२-५३ ॥
पर्वते विविधायासे विनाशे पातु
कुण्डली ।
पादादिब्रह्मरन्ध्रान्तं सर्वाकाशं
सुरेश्वरी ॥ ५४ ॥
सदा पातु सर्वविद्या सर्वज्ञानं सदा
मम ।
नवलक्षमहाविद्या दशदिक्षु प्रपातु
माम् ॥ ५५ ॥
पर्वत पर अनेक प्रकार के आयास साध्य
कार्य में तथा विनाश में कुण्डली हमारी रक्षा करें । पैर से लेकर ब्रह्मरन्ध्र
पर्यन्त तथा सभी सर्वाकाश में सुरेश्वरी हमारी रक्षा करें । सर्वविद्या सदैव मेरे
सर्वज्ञान की रक्षा करें। नव लाख की संख्या में होने वाली महाविद्या देवियाँ दशों
दिशाओं में हमारी रक्षा करें ।। ५४-५५ ।।
श्रीकुलकुण्डलीकवचस्तोत्रम् अथवा कन्दवासिनीकवचम् फलश्रुति
इत्येतत् कवचं देवि कुण्डलिन्याः
प्रसिद्धिदम् ।
ये पठन्ति ध्यानयोगे
योगमार्गव्यवस्थिताः ॥ ५६ ॥
ते यान्ति मुक्तिपदवीमैहिके नात्र
संशयः ।
मूलपद्मे मनोयोगं कृत्वा
हृदासनस्थितः ॥ ५७ ॥
मन्त्रं ध्यायेत् कुण्डलिनीं
मूलपद्मप्रकाशिनीम् ।
धर्मोदयां
दयारूढामाकाशस्थानवासिनीम् ॥ ५८ ॥
प्रकृष्ट सिद्धि देने वाले कुण्डलिनी देवी के इस कवच का जो लोग
योगमार्ग का पालन करते हुए ध्यान पूर्वक पाठ करते हैं वे इसी लोक में मुक्त हो
जाते हैं। इसमें संशय नहीं । मूलाधार के चतुर्दल पद्म में हृदयासन पर स्थित हो मन
लगाकर मन्त्र का जप करते हुए मूलाधार पद्म को प्रकाशित करने वाली, धर्म की अभ्युदयकारिणी दयावती आकाश स्थान में रहने वाली कुण्डलिनी का
ध्यान करना चाहिए ।। ५६-५८ ।।
अमृतानन्दरसिकां विकलां सुकलां
शिताम् ।
अजितां रक्तरहितां विशक्तां
रक्तविग्रहाम् ॥ ५९ ॥
रक्तनेत्रां कुलक्षिप्तां
ज्ञानाञ्जनञ्जयोज्ज्वलाम् ।
विश्वाकारां मनोरूपां मूले ध्यात्वा
प्रपूजयेत् ॥ ६० ॥
वह कुण्डलिनी देवी अमृतानन्द की
रसिक कला रहित (निराकार) सुकला (साकार) शुभ्रवर्णा, अजिता, राग रहित, विशेष आसक्ति
वाली, रक्तवर्ण की विग्रह वाली, रक्तनेत्रा,
कुल में निवास करने वाली, ज्ञान रूप अञ्जन से
विजयोज्ज्वला, विश्वाकारा, मनोरूपा
हैं। मूलाधार में स्थित इस प्रकार के स्वरूप वाली उन कुण्डलिनी का ध्यान कर साधक
को पूजा करनी चाहिए ।। ५९-६० ॥
यो योगी कुरुते एवं स सिद्धो नात्र
संशयः ।
रोगी रोगात् प्रमुच्येत बद्धो
मुच्येत बन्धनात् ॥ ६१ ॥
राज्यं श्रियमवाप्नोति राज्यहीनः
पठेद्यदि ।
पुत्रहीनो लभेत् पुत्रं योगहीनो
भवेद्वशी ॥ ६२ ॥
जो योगी ऐसा करता है वह सिद्ध हो
जाता इसमें संशय नहीं । इसका पाठ करने से रोगी रोग से मुक्त हो जाता है,
बन्धन में पड़ा हुआ व्यक्ति बन्धन मुक्त हो जाता है । यदि राज्य
भ्रष्ट इसका पाठ करे तो वह राज्य तो प्राप्त करता ही है श्री भी प्राप्त करता है
पुत्रहीन पुत्र प्राप्त करता है, योग न जानने वाला
जितेन्द्रिय हो जाता है ।। ६१-६२ ।
कवचं धारयेद्यस्तु शिखायां के
दक्षिणे भुजे ।
वामा वामकरे धृत्वा
सर्वाभीष्टमवाप्नुयात् ॥ ६३ ॥
स्वर्णे रौप्ये तथा ताम्रे
स्थापयित्वा प्रपूजयेत् ।
सर्वदेशे सर्वकाले पठित्वा
सिद्धिमाप्नुयात् ॥ ६४ ॥
स भूयात् कुण्डलीपुत्रो नात्र
कार्या विचारणा ॥ ६५ ॥
जो साधक शिखा में अथवा दक्षिण भुजा
में इस कवच को धारण करता अथवा स्त्री बाई भुजा में धारण करे तो उनके सारे अभीष्टों
की तत्काल सिद्धि हो जाती है। स्वर्ण के या चाँदी के अथवा ताम्रपात्र में देवी की
स्थापना कर पूजा करनी चाहिए। सभी स्थान पर सभी काल में (कवच ) पढ़ने से सिद्धि
प्राप्त होती है। ऐसा पुरुष कुण्डली का पुत्र बन जाता है,
इसमें विचार की आवश्यकता नहीं ।। ६३-६५ ॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सिद्धिविद्याप्रकरणे षट्चक्रप्रकाशे भैरवीभैरवसंवादे
कन्दवासिनीकवचं नाम त्रयस्त्रिशः पटलः ॥ ३३ ॥
॥ श्री रुद्रयामल के उत्तरतन्त्र के
महातन्त्रोद्दीपन के सिद्धि विद्या प्रकरण में षष्टचक्रप्रकाश में भैरवी भैरव
संवाद में कन्दवासिनी कवच नामक तैंतीसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी
व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३३ ॥
आगे जारी............ रूद्रयामल तन्त्र पटल ३४
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