रुद्रयामल तंत्र पटल २८
रुद्रयामल तंत्र पटल २८ में मंत्रसिद्धि
का लक्षण कहा गया है। जब मंत्र सिद्ध होने लगता है तो क्या क्या लक्षण साधक में
प्रगट होते हैं, उन्हें १४ श्लोकों में बताया
गया है, फिर मन्त्र के दोषों का कथन है। भुवनेशी महाविद्या
का वीर्यहीना होना बताया गया है और कामेश्वरी महाविद्या कामराज के द्वारा आविद्ध
बताई गई है (१८) इस प्रकार भैरवी ब्रह्मदेव द्वारा शापित है। फिर अनेक महाविद्याओं
के विधि द्वारा शापित होने का वर्णन है। योगमार्गं के अनुसरण से ही ये प्रसन्न
होती है । इन महाविद्याओं की सिद्धि (१) वीरभाव से होती है अथवा (२) पुरश्चरण कर्म
द्वारा । (३) वीरभाव से स्त्री का पूजन कुल देवी समझकर किया जाता है। षोडशी देवी
ही शक्ति के नाम से अभिहित होती है । (४४) योगमार्ग में संलग्न स्त्री डाकिनी देवी
कही गई है । (४९)। सुन्दरी नारी पराविद्या स्वरूपा है। अतः भाव से पूजन करने से
सिद्धि प्राप्त होती है (६१)। फिर पुरश्चरण प्रक्रिया से महाविद्याओं के शाप के उत्कीलन
की प्रक्रिया वर्णित है (६२-६५)। इसके बाद षट्चक्र भेदन की प्रक्रिया वर्णित है।
कुण्डलिनी महाभगवती योग से चैतन्यमुखी होती है। अतः कन्दवासिनी देवी (कुण्डलिनी)
का स्तोत्र एवं उनका मन्त्र विन्यास भी उन्हीं श्लोकों के मध्य विस्तार से वर्णित
है।
Rudrayamal Tantra Patal 28
रुद्रयामल तंत्र अट्ठाइसवाँ पटल- मंत्रसिद्धीलक्षण
रुद्रयामल तंत्र अष्टाविंशः पटलः
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथाष्टाविंशः पटलः
आनन्दभैरव उवाच
त्रैलोक्यपूजिते कान्ते इदानीं
सिद्धिहेतवे ।
मन्त्रसिद्धेर्लक्षणं तु
योगिनामतिदुर्लभम् ॥ १ ॥
त्वन्मुखाम्भोरुहोल्लासनिःसृतं
परमामृतम् ।
पीत्वा चकार तन्त्राणि यत्तत्र
नास्ति तद् वद ॥ २ ॥
श्री आनन्दभैरव ने कहा—
हे त्रैलोक्यपूजिते ! हे कान्ते ! अब सिद्धि प्राप्ति के लिए और
योगियों के लिए अत्यन्त दुर्लभ मन्त्र सिद्धि का लक्षण कहिए, क्योंकि जिन्होंने आपके मुखाम्भोज से उल्लास पूर्वक निकले हुए परमामृत का
पान कर इन तन्त्र ग्रन्थों की रचना की है, उन तन्त्र
ग्रन्थों में यह नहीं है ॥ १-२ ॥
आनन्दभैरवी उवाच
निश्चयं ते प्रवक्ष्यामि
आनन्दभैरवेश्वर ।
मन्त्रसिद्धेर्लक्षणं तु
योगमार्गानुकूलतः ॥ ३ ॥
आनन्दभैरवी ने कहा—
हे आनन्दभैरवेश्वर ! योगमार्ग के अनुसार मन्त्र सिद्धि के लक्षणों
को निश्चय ही आप से कहती हूँ ।। ३ ॥
नित्यं चेतसि सुस्थिरे
स्थितपथक्लेशादिदोषक्षयं
सर्वञ्चोत्तम'मन्त्रसिद्धिकलितं संलक्षणं शोभनम् ।
मृत्यूनां हरणं जगत्पतिमतिं
सन्दर्शनञ्चोत्तमं
योगोऽक्लेशविवर्द्धनं
समुदयाच्छेशप्रयोगेष्टभाक् ॥ ४ ॥
चित्त के नित्य सुस्थिर हो जाने पर
अथवा स्थित पथ में वर्तमान होने पर क्लेशादि समस्त दोष अपने आप विनष्ट हो जाते
हैं। इसके बाद उत्तम मन्त्र सिद्धि के द्वारा होने वाले शुभ लक्षण साधक में प्रगट
होते हैं। साधक मृत्यु को अपने वश में कर लेता है । जगत्पति (ईश्वर) में उसकी
बुद्धि होने लगती है अथवा उनके उत्तम दर्शन उसे होते हैं। उसका योग बिना क्लेश किए
ही आगे बढ़ता रहता है और योग की समुदयावस्था में वह अपनी इष्टसिद्धि का भाजन बन
जाता है ॥ ४ ॥
नरेन्द्राणां काये प्रविशति हठात्
क्षोभयति तं
पुरे
तेषामूर्ध्वोत्क्रमणचरस्यावरपुरे ।
अधः छिद्रं पश्येत् खचरवनितामेलनमलं
शृणोति प्रमाने जगति जगतां
कीर्तिरतुला ॥ ५ ॥
वह राजाओं के शरीर में प्रविष्ट हो
कर हठात् उन्हें संक्षुब्ध कर देता है जो सबके लिए अगम्य है ऐसे राजाओं के पुर
(शरीर) में वह ऊपर से चला जाता है, नीचे
के सभी छिद्र उसे प्रकट रूप में दिखाई पड़ने लगते हैं और वह देवाङ्गनाओं से भी
मिलता है, शरीर के भीतर होने वाले शब्दों को सुनता है,
इस जगत में रहने वाले सभी लोगों में उसकी कीर्ति अतुलनीय हो जाती है
॥ ५ ॥
इतीह सिद्ध्यादिसुलक्षणेन
प्रयाति वैकुण्ठपुरी मनोरमाम् ।
हितं यदा पश्यति सत्त्वभूभृतां
जगद्विपक्षो निजपक्षमाश्रयेत् ॥ ६ ॥
इस प्रकार की सिद्धि के सुलक्षण
द्वारा वह अत्यन्त मनोरम वैकुण्ठ पुरी तक पहुँच जाता है और जब समस्त जीवों एवं
राजाओं का हित देखता है तो विपक्ष में स्थित सारे जगत् को अपने पक्ष में कर लेता
है ।। ६ ।।
कीर्तिर्भूषणमादि भक्तिसफला
भुक्तिक्रियासंयुता
देवानामतिभक्तियुक्तहृदयं सर्वक्रियादक्षता
।
त्रैलोक्यं निजदास्यकर्मनिपुणं
जित्वा चिरं जीवति
अष्टाङ्गाभ्यसनं'
जगद्वशकरं चैतन्यतामुत्तमम् ॥ ७ ॥
उसे भोग एवं क्रिया से युक्त कीर्ति,
भूषण तथा महाश्री में सफल भक्ति प्राप्त होती है, देवताओं के विषय में उसका हृदय अत्यन्त भक्ति से संयुक्त हो जाता है,
सारी क्रियाओं दक्षता प्राप्त होती है, वह
सारे त्रैलोक्य को अपने दास्य कर्म के योग्य बना लेता है तथा कुशल लोगों को जीतकर
स्वयं बहुत काल तक जीवित रहता है, अष्टाङ्ग योग में उसका अभ्यास
बढ़ने लगता है, सारे जगत् को अपने वश में कर लेता है तथा
उत्तम सचेतनता प्राप्त करता है॥७॥
भोगेच्छारहितं
जगज्जनचमत्कारानुकल्पान्वितं
रोगाणां दरणं विरक्तहृदयं
वैराग्यभक्तिप्रियम् ।
त्यागं संसरणं तथा
शमदयामायाब्धिजालस्य वा
ऐश्वर्य कवितारसं धनजनं लक्ष्मीगणं
जापनम् ॥ ८ ॥
वह भोगेच्छा से विरत रहता है,
जगत के समस्त जनों को अपने चमत्कार के अनुकल्प से वश में कर लेता है,
रोगों को नष्ट कर लेता है और हृदय से विरक्त हो जाता है, उसे वैराग्य तथा भक्ति अच्छी लगती है, वह मायारूप
समुद्र के जाल का त्याग कर देता है तथा शम दयादि योग गुणों को ग्रहण करने लगता है,
उसे ऐश्वर्य, कवितारस, धन, जन, लक्ष्मी, गण एवं
जप की प्राप्ति होने लगती है ॥ ८ ॥
उल्लास हृदयाम्बुजे सुतधनं सम्माननं
सत्पथं
वाञ्छा सागररत्नपूर्णघटितं
कान्तागणान्मोदितम् ।
सङ्केतादिमनुप्रियं
हरिहरब्रह्मैकभावान्वितं
लोकानां गुरुतानिरन्तरशिवानन्दैक
मुद्राधरम् ॥ ९ ॥
एतदुक्तं महादेवोत्तरतन्त्रनिरूपणम्
।
मन्त्रसिद्धिलक्षणं
तदुत्तमाधममध्यमम् ॥ १० ॥
उसका हृदय कमल उल्लसित रहता है सुत
एवं धन,
सम्मान, सदाचार तथा वांच्छा रूप समुद्र से
उत्पन्न हुई अनेक रत्न राशियाँ प्राप्त होने लगती हैं, किं
बहुना वह सतत कान्तागणों का आमोद प्राप्त करता रहता है। सङ्केत अक्षर वाले
मन्त्रों में उसकी प्रीति होने लगती है तथा ब्रह्मा एवं विष्णु में
अभेद सबन्ध का ज्ञान होने लगता है। समस्त लोगों में उसका गौरव बढ़ जाता है तथा वह
निरन्तर शिवानन्द की मात्र एक मुख्य मुद्रा धारण कर लेता है। हे महादेव ! इस
प्रकार उत्तर तन्त्र में निरूपण किए गए मन्त्रों के सिद्धि के लक्षण को मैंने कहा,
वह उत्तम, अधम तथा मध्यम भेद से तीन प्रकार
का होता है ।। ९-१० ।।
मुनयो देवमुख्याश्च नित्यं जन्मनि
जन्मनि ।
दिव्यरूपं नरकुले धृत्वा तृप्यन्ति
चानिशम् ॥ ११ ॥
तवैवापि ममेवापि तर्पणं होमभोजनम् ।
सर्वदा कुरुते साधु तन्मनो भवति
ध्रुवम् ॥ १२ ॥
एतत्प्राणवायुपाने
सूक्ष्मचन्द्रनियोजने ।
कर्तव्यं प्रत्यहं कार्यं
दिवारात्रौ मुहुर्मुहुः ॥ १३ ॥
हे महादेव ! मुनि तथा देवगण अनेक
जन्म पर्यन्त मनुष्य कुल में दिव्य रूप धारणकर निरन्तर मन्त्र सिद्धि के द्वारा
तृप्त होते रहते हैं। मन्त्र सिद्धि के लक्षण जिसमें आ जाते हैं वह पुरुष आपको एवं
हमारे निमित्त तर्पण, होम तथा ब्राह्मण भोजन कराता है अथवा अपना मन ऐसे भक्ति के कार्यों में लगाता
है। साधक को चाहिए कि वह प्रतिदिन बारम्बार सूक्ष्मचन्द्र में अपने मन को
सन्निविष्ट करने के लिए इसी प्रकार प्राणवायु का पान करता रहे ।। ११-१३ ॥
अद्यैतत् कर्म संस्कुर्यात्
योगसाधनमुत्तमम् ।
यः श्रीमान् साधु सद्वक्ता
दुष्टमन्त्रोऽपि सिध्यति ॥ १४ ॥
एतद्दोषसमूहं तु वदामि तत्त्वतः
शृणु ।
छिन्नादिदोषदुष्टानां योगतत्त्वेन
सिध्यति ॥ १५ ॥
जो श्रीमान् साधु सद्वक्ता इस
प्रकार से योग साधन को उत्तम प्रकार से सुसंस्कार सम्पन्न करता है उसे अच्छे
मन्त्र की बात क्या ? दुष्ट मन्त्र भी
सिद्ध हो जाते हैं, अब मन्त्रों के उन-उन दोष समूहों
को कहती हूँ, हे सदाशिव ! सावधान हो कर सुनिए। ये छिन्नादि दोषों
से दुष्ट मन्त्र जिस प्रकार योगतत्त्व से सिद्ध होते हैं ।। १४-१५ ।।
देवेन्द्र पाशदुष्टा च भुवनेशी
सुसिद्धिदा ।
आराधिता महाविद्या
वीर्यदर्पविवर्जिता ॥ १६ ॥
एकाक्षरी वीर्यहीना वाग्भवेन
महोज्ज्वला ।
तदवद्युत्तमा देवी तारसम्पुटहसिनी ॥
१७ ॥
भली प्रकार की सिद्धि देने वाली
भुवनेशी देवेन्द्र के पाश से बँधे रहने के कारण सदोष हैं । अतः आराधना करने पर भी
इस महाविद्या में वीर्य तथा दर्प का प्रादुर्भाव नहीं होता। वाग्भव ( ऐं) से महान्
प्रकाश उत्पन्न करने वाली एकाक्षरी वीर्यहीन हैं। इसी प्रकार उत्तम तार (ॐ) के
सम्पुट से हंसिनी भी सर्वथा वीर्यहीना है।।१६-१७।।
आविद्धा कामराजेन विद्या कामेश्वरी
परा ।
शरेण पीडिता पूर्वं भुवनेश्याः
प्रतिष्ठिता ॥ १८ ॥
या कुमारी महाविद्या यया
सप्तारिबोधिका ।
ताराचन्द्रस्वरूपाहं शिवशक्त्या च
केवलम् ॥ १९ ॥
भैरवीणां हि विद्यानां दोषजालं शृणु
प्रभो ।
एतान्दोषान्प्रणश्यन्ति
योगमार्गानुसारिणः ॥ २० ॥
पूर्वकाल में परा कामेश्वरी
महाविद्या कामराज के द्वारा आविद्ध है, अतः
उस शर से पीड़ित रहती है तदनन्तर भुवनेशी ने उसे प्रतिष्ठित किया । जो कुमारी
नाम की महाविद्या है तथा जिसके द्वारा सात शत्रु प्रबुद्ध किए जाते हैं वह शिव
शक्ति से प्रतिष्ठित रहने वाली तारा चन्द्र स्वरूपा हूँ। हे प्रभो ! अब भैरवी
विद्याओं के दोष समूहों को सुनिए । जिससे समस्त योग मार्ग का अनुसरण करने वाले
साधक के लिए ये सभी दोष नष्ट हो जाते हैं ।। १८-२० ॥
यतः कुण्डलिनी देवी योगेन चेतनामुखी
।
अतो योगं सदा कुर्यात्
सर्वमन्त्रप्रसिद्धये ॥ २१ ॥
भैरवी विधिशप्ता च दग्धा च कीलिता
तथा ।
सैव संहारकरी मोहिता चानुमोदिता ॥
२२ ॥
यतः यह कुण्डलिनी देवी
योगमार्ग के द्वारा चेतना प्राप्त करती है अतः सभी मन्त्रों की सिद्धि के लिए
सर्वदा योगमार्ग का अवलम्बन करना चाहिए। यह भैरवी ब्रह्मदेव के द्वारा
शापित हैं, दग्ध है तथा कीलित है, वही संहार करने वाली तब होती है जब ब्रह्मदेव उसको मोहित कर उसका
अनुमोदन करते हैं ।। २१-२२ ।।
रुद्रयामल तंत्र पटल २८
Rudrayamal Tantra Patal 28
रुद्रयामल तंत्र अट्ठाइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र अष्टाविंशः पटलः- भैरवीलक्षणम्
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
महामदोन्मत्तचित्ता मूच्छिता
वीर्यवर्जिता ।
स्तम्भिता मारिताच्छिन्ना विद्धा
रुद्धा च त्रासिता ॥ २३ ॥
निर्बीजा शक्तिहीना च सुप्ता मत्ता
च घूर्णिता ।
पराङ्मुखी नेत्रहीना सा भीता
दुःसंस्कृता ॥ २४ ॥
सुषुप्ता भेदिता प्रौढा बालिका
मालिनी क्षमा ।
भयदा युवती क्रूरा दाम्भिका
शोकसङ्कटा ॥ २५ ॥
निस्त्रिंशका सिद्धिहीना कूटस्था
मन्दबुद्धिदा ।
हीनकर्णा हीननासा
अतिक्रुद्धाङ्गभङ्गुरा ॥ २६ ॥
कलहा कलहप्रीता
भ्रष्टस्थानक्षयाकुला ।
धर्मभ्रष्टा चातिवृद्धातिबाला
सिद्धिनाशिनी ॥ २७ ॥
कृतवीर्या महाभीमा क्रोधपुंजा च
ध्वंसिनी ।
कालविद्या सूक्ष्मधर्मा विधर्मा
धर्ममोहिनी ॥ २८ ॥
दुर्गस्थिता क्षिप्तचित्ता प्रचण्डा
चण्डगामिनी ।
उल्कावच्चलती तीक्ष्णा मन्दाहारा
निरंशका ॥ २९ ॥
तत्त्वहीना केकरा च
घूर्णितालिङ्गिता जिता ।
अतिगुप्ता क्षुधार्त्ता च धूर्त्ता
ध्यानस्थिरास्थिरा ॥ ३० ॥
एता विद्याः प्रसन्नाः
स्युर्योगकालनिरोधनात् ।
वीरभावेन सिद्धिः स्यात्
पुरश्चरणकर्मणा ॥ ३१ ॥
महामद से उन्मत्त चित्तवाली,
मूर्च्छित रहने वाली, वीर्य से वर्जित,
जड़भाव में रहने वाली, मारी हुई, छिन्ना, विद्धा, रुद्धा,
त्रासिता, निर्बीजा, शक्तिहीना,
सुप्ता, मत्ता, चक्कर
काटने वाली, उद्भ्रान्त, पराङ्मुखी,
नेत्रहीना, भीता, दुःसंस्कृता,
सुषुप्ता, भेदिता, प्रौढ़ा,
बालिका, मालिनी, क्षमा,
भयदा, युवती, क्रूरा,
दम्भकारिणी, शोक से उद्विग्न रहने वाली,
बिना शस्त्र वाली, सिद्धिहीना, कूटस्थ, मन्दबुद्धि प्रदान करने वाली, कर्ण रहित, नासिका रहित, अत्यन्त
क्रोधी स्वभाव वाली, भंगुरा, कलहा,
कलहप्रीता, भ्रष्टस्थान, क्षय से आकुल रहने वाली, धर्मप्रष्टा, अतिवृद्धा, अतिबाला, सिद्धिनाशिनी,
कृतवीर्या, महाभीमा, क्रोधपुञ्जा,
ध्वंसिनी, कालविद्या, सूक्ष्मधर्मा,
विधर्मा, धर्ममोहिनी, दुर्गस्थिता,
क्षिप्तचित्ता, प्रचण्डा, चण्डगामिनी, उल्कावच्चलती, तीक्ष्णा,
मन्दाहारा, निरंशका, तत्त्वहीना,
केकरा, घूर्णिता, अलिंगिता,
जिता, अतिगुप्ता, क्षुधार्त्ता,
धूर्ता, ध्यानस्थिरा एवं अस्थिरा—ये सब महाविद्यायें विधि शप्त हैं। ये योगमार्ग के अनुसरण से प्रसन्न होती
हैं। इनकी सिद्धि वीरभाव से होती हैं अथवा पुरश्चरण कर्म से होती है ।। २३-३१ ॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २८ - भैरवीचक्रम्
Rudrayamal Tantra Patal 28
रुद्रयामल तंत्र अट्ठाइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र अष्टाविंशः पटलः
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
आनन्दभैरवी उवाच
तत्र वीरो यजेत् कान्तां
परकीयामथापि वा ।
स्वीयामलङ्कारयुक्तां सुन्दरीं
चारुहासिनीम् ॥ ३२ ॥
मदनानलतप्ताङ्गीमासवानन्द विग्रहाम्
।
योगिनीं कौलिनी योग्यां धर्मशीलां
कुलप्रियाम् ॥ ३३ ॥
इसके बाद पुनः आनन्दभैरवी ने कहा—महाविद्या की उपासना के लिए वीरभाव को प्राप्त कर अपनी स्त्री अथवा अन्य
की स्त्री का पूजन करना चाहिए। अपनी स्त्री सुन्दरी हो मन्द हास्य से युक्त
हो, नाना प्रकार के अलङ्कारों से सुशोभित हो। कामाग्नि से
संतप्त हो, आसव के आनन्द से सारा शरीर आनन्द पूर्ण हो,
योगिनी, कुलमार्ग (महाशक्ति) की उपासिका हो,
योग्य हो, धर्म का आचरण करने वाली हो, कुल से प्रीति रखने वाली हो ।। ३२-३३ ॥
दीक्षितां लोलवदनां
वदनाम्भोजमोहिनीम् ।
नानादेशस्थितां कन्यां युवतीं
परिपूजयेत् ॥ ३४ ॥
जापिकां मन्दहास्यां च मन्दमन्द
गतिप्रियाम् ।
कृशाङ्गीमतिसौन्दर्यामलङ्कृतकलेवराम्
॥ ३५ ॥
शक्ति की दीक्षा से दीक्षित हो,
चञ्चल मुख वाली ( बोलने में चतुर) हो इतना ही नहीं अपने मुख कमल की
शोभा से सबको मोह लेने वाली हो । इसके अभाव में किसी देश में उत्पन्न हुई युवती
कन्या का भी पूजन किया जा सकता है। वह जप करने वाली, मन्द
मन्द हास्य से युक्त, मन्द मन्द गति से प्रेम करने वाली हो,
पतले शरीर वाली, अत्यन्त सौन्दर्य से संयुक्त
तथा शरीर पर अलङ्कार धारण करने वाली हो ।। ३४-३५ ।।
कोटिकन्याप्रदानेन यत्फलं लभते नरः
।
तत्फलं लभते सद्यः कामिनीपरिपूजनात्
॥ ३६ ॥
ततः षोडशकन्याश्च योगिन्यो
योगसिद्धये ।
पूजयेत् परया भक्त्या
वस्त्रालङ्कारभूषणैः ॥ ३७ ॥
मनुष्य करोड़ों कन्या दान से
जितना फल प्राप्त करता है, उतना फल वह उसी
क्षण कामिनियों के पूजन प्राप्त कर लेता है। इसके बाद अपनी योगसिद्धि के
लिए योगिनी स्वरूपा षोडश कन्याओं का अत्यन्त भक्ति से युक्त हो वस्त्र, अलङ्कार तथा आभूषणों से पूजन करना चाहिए ।। ३६-३७ ॥
नानाविधैः पिष्टकान्नैः पक्वान्नैः
प्राणसम्भवैः ।
दधिदुग्धघृतैश्चापि नवनीतैः
सशर्करैः ॥ ३८ ॥
उपलाखण्डमिश्रान्नैः
नानारसफलान्वितैः ।
चूडादिभिर्नारिकेलैः
कपिलैर्नागरङ्गकैः ॥ ३९ ॥
नानागन्धफलैश्चैव नानागन्धसमन्वितैः
।
मृगनाभिचन्दनैश्च श्रीखण्डैर्नवपल्लवैः
॥ ४० ॥
पूजयेत्ताः प्रयत्नेन जलजैः
स्थलजैस्तथा ।
नानासुगन्धिपुष्पैश्च
रक्तचन्दनकुङ्कुमैः ॥ ४१ ॥
अनेक प्रकार के पिष्टान्नों से,
प्राण (बल) देने वाले पक्वान्नो से, दही,
दूध, घृत, नवनीत,
मिश्री, खाँड आदि मिश्रित पदार्थों से अनेक
प्रकार के फलों के रस से चूड़ा, नारिफल, पीले पीले पके पके नारंग फलों से, अनेक प्रकार के
सुगन्ध युक्त फलों से, अनेक प्रकार के गन्ध द्रव्यों से,
कस्तूरी से, चन्दन से, नवीन
पल्लवों से, जल में उत्पन्न होने वाले तथा स्थल में उत्पन्न
होने वाले अनेक प्रकार के सुगन्ध युक्त पुष्पों से, रक्त
चन्दन से एवं केशर से प्रयत्नपूर्वक उनका पूजन करना चाहिए ।। ३८-४१ ।।
पूजयेत् शून्यगृहे च निर्जने विपिने
तथा ।
कुलदेवीं समानीय स्वागतं प्रवदेनु ॥
४२ ॥
अर्षोदकेन संशोध्यामृतीकरणमाचरेत् ।
शक्तिञ्चाभिमुखीं नीत्वा वीरयोगी
भवेद्ध्रुवम् ॥ ४३ ॥
शक्तिं च षोडशी देवीं
कुलचक्रप्रियां शुभाम् ।
महाशक्तिं शृणु प्राणवल्लभे
श्रीकलावतीम् ॥ ४४ ॥
उनका पूजन शून्य गृह में निर्जन
अथवा वन में करे। उन्हें अपनी कुलदेवी समझकर तदनन्तर 'स्वागतम्' ऐसा वचन
उच्चारण करे । अर्ध के जल से शुद्ध कर अमृतीकरण करे । इस प्रकार शक्ति को
अपने अनुकूल बनाकर साधु निश्चय ही वीरयोगी बन जाता है। कुलचक्र से प्रेम करने वाली,
परम कल्याणकारिणी षोडशी देवी ही शक्ति के नाम से अभिहित हैं।
अब हे प्राणवल्लभ ! श्री कला से युक्त उन महाशक्तियों को श्रवण कीजिए ।। ४२-४४ ।।
ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्रा
वेश्या च सुन्दरी ।
कुलभूषासमाक्रान्ता मानिनी
नातिपिङ्गला ॥ ४५ ॥
ब्राह्मणी,
क्षत्रिया, वैश्या तथा शूद्रा अथवा वेश्या जो
सुन्दर स्वरूप से युक्त हों उत्तम कुल तथा उत्तम आभूषण से अलंकृत हों, मानिनी हों तथा अत्यन्त पिङ्गल केशों वाली न हों, उन्हें
दीक्षित कर उनकी पूजा करनी चाहिए ।। ४५ ।।
रजकी नटकी कौला श्यामाङ्गी
स्थूलविग्रहा ।
सङ्केतागमना भार्या विदग्धा रञ्जकी
तथा ॥ ४६ ॥
खटकी कोलकन्या च कुलमार्गप्रवर्तिका
।
सर्वाङ्गसुन्दरी भव्या चारुनेत्रा
हसन्मुखी ॥ ४७ ॥
यद्यद्दीक्षारतास्तास्तु देया
दीक्षा तदा प्रभो ।
सूक्ष्मतन्त्रानुसारेण कथितं
पूर्वसूचितम् ॥ ४८ ॥
रजकी, नटकी, कोल कुलोत्पन्न, चाहे
श्यामाङ्गी हो अथवा मोटे शरीर वाली हों सङ्केत स्थान पर पुरुष से सम्बन्ध रखने
वाली किसी की भार्या हो, विदग्धा अथवा सबको प्रसन्न रखने
वाली हों, खटकी कोलकन्या कुल मार्ग में प्रवृत्त रहने वाली
हों, सर्वांग सुन्दरी, भव्या, सुन्दर नेत्रों वाली, हँसने वाली ये सभी शक्तियाँ
है। पूजा काल में यदि इनकी दीक्षा न हुई हो तो हे प्रभो ! पूजा के लिए इनको
दीक्षित कर लेना चाहिए। यह सब हमने पूर्व ग्रन्थों में सूचित सूक्ष्मतन्त्र के
अनुसार कहा ।। ४६-४८ ॥
सर्वाङ्गसुन्दरी शुद्धा
शुद्धलोककुलोद्भवा ।
युवती योगनिरता सा देवी डाकिनी मता
॥ ४९ ॥
तामानीय महामन्त्रं दापयेदिष्टसिद्धये
।
ततस्ताः पूजनीयास्तु दीक्षाहीनास्तु
नाचरेत् ॥ ५० ॥
जिसके प्रत्येक अङ्ग सुन्दरता से
युक्त हों, जो शुद्ध तथा शुद्धलोगों के बीच
में शुद्ध कुल में उत्पन्न हुई हों, ऐसी योगमार्ग में संलग्न
रहने वाली युवती डाकिनी देवी के नाम से कही गई हैं। ऐसी युवती को अपने
स्थान पर लाकर अपनी इष्ट सिद्धि के लिए महामन्त्र से दीक्षित करे। तब उनकी पूजा
करे। बिना दीक्षा के उनकी पूजा न करे ।। ४९-५० ।।
श्रीकृष्णराममन्त्रं तु
दापयेत्सत्त्वसिद्धये ।
ताभ्य आदौ ततो मृत्युञ्जयमन्त्रं
ततश्चरेत् ॥ ५१ ॥
आनन्दभैरवीबीजं देवीं शक्तिं
स्वबीजकम् ।
अथवा सिद्धमन्त्रं तु श्रीविद्यायाः
प्रदापयेत् ॥ ५२ ॥
उनमें तेज बल की सिद्धि के लिए
सर्वप्रथम श्रीकृष्ण अथवा राम का मन्त्र प्रदान करे। तदनन्तर महामृत्युञ्जय
का जप करे। अथवा आनन्दभैरवी बीज, देवी की शक्ति का बीज,अथवा अपने इष्टदेव का
बीज, अथवा श्रीविद्या का बीज, अथवा कोई सिद्ध मन्त्र उन्हें प्रदान करे ।। ५१-५२ ।।
किं वा केवलमायां तु
क्रोधारुणकराकृतिम् ।
ज्वलन्तीं मूलपद्मे तु
स्वयम्भूकुसुमाकराम् ॥ ५३ ॥
एतद्भूतां महामायां तस्मै दत्वा जयी
भवेत् ।
आदौ वामकर्णपुटे अग्निवारं परे
त्रयम् ॥ ५४ ॥
अथवा क्रोध से लाल,
हाथ की आकृति वाली, मूलाधार पद्म में
देदीप्यमान् स्वयंभू लिङ्ग रूप पुष्प को अपने कर कमलों में धारण करने वाली केवल माया
का ही उपदेश प्रदान करे। इस प्रकार के स्वरूप वाली महामाया की दीक्षा उसे
देकर साधक स्वयं का लाभ करता है। सर्वप्रथम बायें कान में तीन बार, तदनन्तर दाहिने कान में तीन बार मन्त्र दीक्षा का विधान कहा
गया है ।। ५३-५४ ॥
अतः शिक्षां सदानन्ददीक्षान्ते
कारयेद् बुधः ।
दीक्षामूलं जपं सर्व दीक्षामूलं
गुरोः कृपा ॥ ५५ ॥
दीक्षामाश्रित्य मायां या जपेत् सा
खेचरी परा ।
तस्याः पूजनमात्रेण प्रसन्नाहं न
संशयः ॥ ५६ ॥
इसके बाद सर्वदा आनन्द देने वाली
दीक्षा के अन्त में बुद्धिमान् साधक उसे इस प्रकार उपदेश करे। सारे जप की मूल दीक्षा
है। गुरु की कृपा का मूल भी दीक्षा ही है। दीक्षा ग्रहण के उपरान्त माया
मन्त्र का जप करे, अथवा परा खेचरी
क्रिया का आश्रय लेवे । क्योंकि माया के पूजन मात्र से मैं प्रसन्न होती हूँ,
इसमें संशय नहीं ।। ५५-५६ ॥
जगतां जगदीशानां नारीरूपेण
संस्थितिः ।
अहं नारी न सन्देहः सुन्दरी
कुत्सिता परा ॥ ५७ ॥
सुन्दरीपालनार्थाय विनाशायाशु
कुत्सिता ।
साधकस्य भ्रान्तिरूपा संहिताः
परिभावयेत् ॥ ५८ ॥
या परा मोक्षदा विद्या सुन्दरी
कामचारिणी ।
भाविनी सा भवानी च तां विद्यां
परिपूजयेत् ॥ ५९ ॥
इस समस्त जगत् की तथा समस्त
जगदीश्वरों की नारीरूप में ही संस्थिति है इसीलिए मैं भी नारी रूप धारण की हुई
हूँ। इसमें संदेह नही । नारी दो प्रकार की है एक सुन्दरी दूसरी कुत्सिता ।
सुन्दरी नारी पालन करने के लिए है तथा दूसरी कुत्सिता विनाश के लिए है यह तो साधक
की भ्रान्ति है, अतः उसे दोनों में शक्ति के
स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। पराविद्या मोक्ष देने वाली सुन्दरी तथा कामचारिणी है,
वही भाविनी है, वही भवानी है। अतः उसी
पराविद्या का पूजन करना चाहिए ।। ५७-५९ ।।
रुद्रयामल तंत्र पटल २८
Rudrayamal Tantra Patal 28
रुद्रयामल तंत्र अट्ठाइसवाँ पटल - भैरवीपूजा
रुद्रयामल तंत्र अष्टाविंशः पटलः
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
तस्या अङ्गे स्थिरा नित्यं देवताया
अहं प्रभो ।
यश्च योगी सर्वसमः स सर्वात्मा
नयेत् किल ॥ ६० ॥
अन्यथा सिद्धिहानिः स्याद्
भावाभावविचारणात् ।
बिना भावं न सिद्ध्येत्तु भावानां
भावराशिग ॥ ६१ ॥
हे प्रभो ! उस पराविद्या रूप देवता
के अंग में मैं स्थिर रूप से निवास करती हूँ। सब में समता रखने वाला जो सर्वात्मा
योगी है वही उसे प्राप्त कर सकता है। यह सुन्दर है या यह सुन्दर नहीं हैं—इस प्रकार के विचार से साधक की सिद्धि की हानि होती है। अतः हे भावों के
भावराशि से प्राप्त होने वाले प्रभो! भाव के बिना सिद्धि नहीं प्राप्त होती ।।
६०-६१ ।।
कुलपुरश्चरणं कुर्यात्
कुलाकुलविमुक्तये ।
योगी स्यादव्ययो धीरो
विद्वान्मुक्तो हि जीवने ॥ ६२ ॥
ब्राह्मणीं सुन्दरीं चैव संस्थाप्य
क्रमतो यजेत् ।
वामहस्ते महार्घ्यं तु दक्षिणे आसनादिकम्
॥ ६३ ॥
कुल तथा अकुल से छुटकारा के लिए कुल
(महाशक्ति) का पुरश्चरण करना चाहिए । इस प्रकार का पुरश्चरण करने वाला
सर्वथा विकार रहित धीर योगी होता है, वह
विद्वान् अपने जीते जी ही विमुक्त रहता है । सुन्दरी ब्राह्मणी को स्थापित (बैठा)
कर एक एक के क्रम से उसका पूजन करे। उसके बायें हाथ में अर्घ्य प्रदान करें और
दाहिने हाथ में आसनादि देवे ।। ६२-६३ ।।
दद्यात् पाद्यमासनानि तत्तन्नाम्ना
च स्वागतम् ।
तत्तदा अर्धपात्रस्थजलेन
प्रोक्षयेच्च ताः ॥ ६४ ॥
धेनुमुद्रां समाकृत्य वं
मन्त्रेणामृतीक्रियाम् ।
अमृतीकरणान्ते च रूपभेदं समानयेत् ॥
६५ ॥
संज्ञाभिर्नामकरणं कृत्वा
चासनमर्पयेत् ।
तत्तन्नामों से (पाद्यं समर्पयामि,
आसनं समर्पयामि, स्वागतं समर्पयामि) पाद्य,
आसन तथा स्वागत समर्पित करना चाहिए। उसके पहले अर्घ्यपात्र के जल से
समस्त पूजन सामग्री का प्रोक्षण करे। फिर धेनुमुद्रा प्रदर्शित कर व
मन्त्र के द्वारा अमृतीकरण करे। अमृतीकरण करने के अन्त में रूप भेद की कल्पना करे।
शक्ति परक संज्ञा से पुनः उसका नामकरण करे। फिर आसन समर्पित करे ।। ६४-६६ ॥
श्रीभैरवी उवाच
अथ कान्त प्रवक्ष्यामि
षट्चक्रभेदनक्रियाम् ॥ ६६ ॥
यत्कृत्वा अमरा लोके विचरन्ति
चराचरे ।
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्
॥ ६७ ॥
योगेन जीववर्गाश्च भवन्त्यमररूपिणः
।
षट्चक्रे च महापद्मे
सर्वसत्त्वगुणान्विते ॥ ६८ ॥
श्री भैरवी ने कहा-
हे कान्त ! अब षट्चक्र भेदन की क्रिया कहती हूँ जिसे करने के बाद योगीगण
अमर होकर,
इस चराचर लोक में विचरण करते हैं। यह षट्चक्र भेदन अकाल मृत्यु का
हरण करने वाला है तथा समस्त व्याधियों का विनाश करने वाला है। सम्पूर्ण सत्त्व
गुणों से युक्त इस षट्चक्र रूप महापद्म में युक्त होने से समस्त जीव वर्ग देव
स्वरूप हो जाते हैं ॥ ६६-६८ ।।
धर्माधर्मे मनोराज्ये
सर्वविद्यानिधौ क्रतौ ।
कलिकल्मषमुख्यानां सर्वपापापहारकम्
॥ ६९ ॥
मनो दत्वा महाकाले जीवाः सर्वत्र
गामिनः ।
एतच्छ्रुत्त्वा महावीरो विवेकी
परमार्थवित् ॥ ७० ॥
पुनर्जिज्ञासयामास ज्ञानज्ञेयेन
शङ्करः ।
धर्माधर्म स्वरूप मनोराज्य वाले,
सर्वविद्यानिधान एवं क्रतुस्वरूप इन महाकाल में कलि के समस्त पापों को दूर करने वाले अपने मन को संयुक्त कर जीव सर्वत्र गमनशील हो जाता है,
इस बात को सुनकर विवेकी, परमार्थवेत्ता,
महावीर और ज्ञान ज्ञेय भगवान् शङ्कर ने पुनः जिज्ञासा की ।।
६९-७१ ।।
Rudrayamal Tantra Patal 28
रुद्रयामल तंत्र अट्ठाइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र अष्टाविंशः पटलः
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
आनन्दभैरव उवाच
षट्चक्रभेदनकथां कथयस्व वरानने ॥ ७१
॥
हिताय सर्वजन्तूनां
हिरण्यवर्णमण्डितम् ।
प्रकाशयस्व वरदे योगानामुदयं वद ॥
७२ ॥
आनन्दभैरव ने कहा-
हे वरानने! अब आप सभी प्राणियों के हित के लिए षट्चक्रों के भेदन की क्रिया को
कहिए। हे वरदे! हिरण्यवर्ण से मण्डित उन षट्चक्रों को प्रकाशित कीजिए तथा जिससे
योगों का उदय होता है उसे भी कहिए ।। ७१-७२ ।।
येन योगेन धीराणां हितार्थं
वाञ्छितं मया ।
कालक्रमेण सिद्धिः स्यात्
कालजालविनाशनात् ॥ ७३ ॥
कालक्षालनहेतोश्च पुनरुद्यापनं
कृतम् ।
आनन्दभैरवी उवाच
आदौ कुर्यात् परानन्दं
रससागरसम्भवम् ॥ ७४ ॥
मान्द्यं मन्दगुणोपेतं शृणु
तत्क्रममुत्तमम् ।
स्तोत्रं कुर्यात् मूलपद्ये
कुण्डलिन्याः पुरष्क्रियाम् ॥ ७५ ॥
जिस योग से मैं धीर पुरुषों का हित
चाहता हूँ तथा उनके काल जाल के विनाश के द्वारा कालक्रम से उनको सिद्धि भी मिले,
उसे कहिए। काल के प्रक्षालन के लिए ही मैने इस प्रकार के उद्यापन का
आरम्भ किया है।
आनन्दभैरवी ने कहा-
हे शङ्कर ! साधक सर्वप्रथम रस सागर से उत्पन्न एवं मन्दगुण से युक्त परानन्द
प्राप्ति का प्रयत्न करे। अतः उसका उत्तम क्रम सुनिए । मूलपद्म में रहने वाली कुण्डलिनी
का पुरश्चरण करे तथा उसका स्तोत्र पढ़े ।। ७३-७५ ।।
अब इससे आगे श्लोक ७६ से १०२ में कुण्डलिनी
स्तोत्र को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने भावासननिर्णये पाशवकल्पे षट्चक्र प्रकाशे भैरव भैरवीसंवादे
कन्दवासिनिस्तोत्रं नाम अष्टाविंशः पटलः ॥ २८ ॥
॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र में
महातन्त्रोद्दीपन में भावार्थनिर्णय में पाशवकल्प में षट्चक्रप्रकाश में
भैरव-भैरवी संवाद के कन्दवासिनीस्तोत्र नामक अठ्ठाइसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय
कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई॥२८॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल २९
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