Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2022
(523)
-
▼
December
(58)
- रुद्रयामल तंत्र पटल २८
- अष्ट पदि ३ माधव उत्सव कमलाकर
- कमला स्तोत्र
- मायातन्त्र पटल ४
- योनितन्त्र पटल ८
- लक्ष्मीस्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल २७
- मायातन्त्र पटल ३
- दुर्गा वज्र पंजर कवच
- दुर्गा स्तोत्र
- योनितन्त्र पटल ७
- गायत्री होम
- लक्ष्मी स्तोत्र
- गायत्री पुरश्चरण
- योनितन्त्र पटल ६
- चतुःश्लोकी भागवत
- भूतडामरतन्त्रम्
- भूतडामर तन्त्र पटल १६
- गौरीशाष्टक स्तोत्र
- योनितन्त्र पटल ५
- भूतडामर तन्त्र पटल १५
- द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र
- गायत्री शापविमोचन
- योनितन्त्र पटल ४
- रुद्रयामल तंत्र पटल २६
- मायातन्त्र पटल २
- भूतडामर तन्त्र पटल १४
- गायत्री वर्ण के ऋषि छन्द देवता
- भूतडामर तन्त्र पटल १३
- परापूजा
- कौपीन पंचक
- ब्रह्मगायत्री पुरश्चरण विधान
- भूतडामर तन्त्र पटल १२
- धन्याष्टक
- रुद्रयामल तंत्र पटल २५
- भूतडामर तन्त्र पटल ११
- योनितन्त्र पटल ३
- साधनपंचक
- भूतडामर तन्त्र पटल १०
- कैवल्याष्टक
- माया तन्त्र पटल १
- भूतडामर तन्त्र पटल ९
- यमुना अष्टक
- रुद्रयामल तंत्र पटल २४
- भूतडामर तन्त्र पटल ८
- योनितन्त्र पटल २
- भूतडामर तन्त्र पटल ७
- आपूपिकेश्वर स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ६
- रुद्रयामल तंत्र पटल २३
- भूतडामर तन्त्र पटल ५
- अवधूत अभिवादन स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ४
- श्रीपरशुराम स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ३
- महागुरु श्रीकृष्ण स्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल २२
- गायत्री सहस्रनाम
-
▼
December
(58)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
महागुरु श्रीकृष्ण स्तोत्र
महागुरु श्रीकृष्ण स्तोत्र - आचार्य
महोदय को जब कभी किसी भी विद्या के अभ्यास में कोई भी कठिनाई उपस्थित होती थी तो
वे भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करते थे । श्रीकृष्ण स्वप्न दर्शन आदि के द्वारा उस
कठिनाई को दूर करने का उपाय बता देते थे जिससे वे बाबा के बिना ही उसे सुलझाकर
विद्या के अभ्यास में आगे बढ़ते थे। किसी शास्त्र के किसी सिद्धान्त के विषय में
यदि उन्हें कभी कोई शंका होती थी तो उसे भी भगवान् कृष्ण उसी तरह से दूर करते थे ।
अतः आचार्य महोदय श्रीकृष्ण को गुरुराज मानते रहे।
आचार्य महोदय के अपने पिता का नाम
भी श्रीकृष्ण था। उनसे उन्होंने सावित्र मन्त्र की और श्रीविद्या के मन्त्र
की दीक्षा प्राप्त की थी। उन दोनों के अभ्यास से उन्हें सभी विद्याओं में साफल्य
की प्राप्ति में काफी सहारा मिलता रहा। अतः अपने पिता को भी वे गुरु मानते रहे।
फिर धर्मशास्त्र के अनुसार पिता भी गुरु होता ही है। आचार्य महोदय की माता का नाम राधादेवी था और सौतेली
माता का रुक्मिणी । घर में पिता के द्वारा रखा हुआ इनका नाम वैद्यनाथ था और वरकल
(वड़कले) इनके वंश की अल्ल थी। फिर इनके पितामह का नाम भी वैद्यनाथ ही था। इनके
पिता जी का व्यावसायिक सम्बन्ध वाणी विलास प्रेस के साथ भी रहा और उनके घने
सम्पर्क कई एक महानुभावों के साथ रहे।
इस प्रकृत स्तोत्र में अनेकों
स्थानों पर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनके दो दो अर्थ हैं । एक अर्थ
भगवान् श्रीकृष्ण के साथ लगता है और दूसरा अर्थ आचार्य महोदय के पिता श्रीकृष्ण
शास्त्री बरकले से लगता है। कई एक शब्दों का अर्थ भगवान् कृष्ण के निकट सम्बन्धियों
के साथ लगता है और दूसरा ग्रंथ श्रीकृष्ण शास्त्री के संपर्क में आए व्यक्तियों
तथा उनके निकटस्थ सम्बन्धियों से। कई एक श्लोकों के दूसरे अर्थं लगभग स्पष्ट ही
हैं,
परन्तु कई एक के पूरे स्पष्ट नहीं है। आचार्य महोदय के पूरे इतिहास
पर शोध कार्य किया जाए, उनके वंशवर्णन काव्य का पूरा अध्ययन
किया जाए और वाराणसी जाकर पता लगाया जाए तो तभी सारे दो दो अर्थों वाले शब्दों के
दूसरे दूसरे अर्थ का स्पष्टीकरण हो सकता है। इस समय अनुवाद लेखक को जितना भी विदित
है उतने अंश में स्पष्टीकरण किया जा रहा है।
महागुरु श्रीकृष्ण स्तोत्रम्
वैरस्यमस्ति विषयेषु समस्तमेव
हृद्यं न किञ्चिदपि भाति जगच्छरण्य
।
नामैव तेऽलमघनिर्हरणाय शोक-
पायधिशोषणनुतिं कुरुतेऽवलस्ते ॥ १ ॥
हे सारे जगत को शरण देने वाले,
मुझे भोग्य विषयों के प्रति परिपूर्ण विरक्ति है, ये विषय पूरी तरह से रसहीन हैं, कोई भी विषय मेरे
लिए हृदय को अच्छा लगने वाला नहीं है। बस आप का नाम ही पापों का नाश करने के लिए
पर्याप्त है । तो यह बलहीन व्यक्ति आपको ही प्रणाम कर रहा है, क्योंकि आपके प्रति जो प्रणाम है वह शोकों के समुद्रों को 'देने सुखा वाला है ।
श्रीमन्मयूर सुमनोरमपक्ष भूषं
श्री राधिका हृदय कुञ्जविराजमानम् ।
वंशीं करे वरकलाश्रयिणीं वहन्तं
श्रीकृष्णनेव गुरुराजमहं नमामि ॥ २
॥
शोभायमान मोर के अतीव मनोहर पंख
जिनके शिरोभूषण हैं, जो श्रीराधाजी
के हृदय रूपी निकुञ्ज में (सदा) विराजमान बने रहते हैं, उत्तम
संगीत कला को आश्रय देने वाली बांसुरी को जो हाथ में धारण करते हैं, उन गुरुराज श्रीकृष्ण को ही मैं प्रणाम कर रहा हूं।
आचार्य महोदय के पिता जी भी अपनी
प्रथम पत्नी श्री राधा जी के हृदय में विराजमान रहते रहे। उनके वंश का उपनाम
" वरकल" था। वे भी आचार्य महोदय के गुरुराज थे । श्री मयूरेश्वर उनके
बड़े भाई थे। उनके बाल्यकाल में उनके काकपक्षों की भूषा श्री मयूरेश्वर के मन को
खींचती रही । फिर जीवन भर उनके पक्ष को ही वे विभूषित करते रहे । वंश शब्द भी
स्त्रीलिंग विवक्षा से वंशी बन सकता है । तो वे वरकल वंश की बागडोर अपने हाथ में
लिए हुए थे ।
श्री राधिका मुख-महोदधि-
पूर्णचन्द्र
श्रीरुक्मिणी- नयन-नीरज-चित्रभानुम्
।
संसार- रोग - हरणोद्यत वैद्यनाथा-
त्मानं महागुरुमहं प्रणमामि नित्यम्
॥ ३ ॥
जो श्रीराधा जी के मुख रूपी विशाल
समुद्र को उल्लास में लाने के लिए पूर्ण चन्द्रमा हैं,
जो श्रीरुक्मिणी जी के नेत्र रूपी कमलों को विकास में लाने के लिए
सूर्य हैं तथा संसार रूपी रोग को हटा देने के लिए उद्यत उत्तम से भी उत्तम वैद्य
स्वरूप हैं उन श्रीकृष्ण रूपी महागुरु को मैं प्रणाम कर रहा हूं ।
श्रीकृष्ण शास्त्री का भी वैसा ही
सम्बन्ध पहले श्रीराधा देवी के साथ और पश्चात् श्री रुक्मिणी के साथ रहा । आचार्य
महोदय वैद्यनाथ नाम वाले थे और संसार रूपी रोग से मुक्त होने को तैयार थे। उनके
पिताजी श्रीकृष्ण शास्त्री ही आचार्य महोदय के रूप में स्थित थे क्योंकि 'आत्मा वै जायते पुत्रः' । फिर श्रीकृष्ण शास्त्री के
पिता जी का भी नाम वैद्यनाथ ही था । अतः वे वैद्यनाथ श्रीकृष्ण शास्त्री के शरीर
के रूप में उपरोक्त न्याय से अवस्थित होकर स्थित रहे। इस प्रकार से यह स्तुति
श्रीकृष्ण शास्त्री के प्रति भी एक साथ ही की जा रही है।
यत्पादपङ्कज-युग- स्मरणेन पुंसां
पापानि यान्ति सकलानि विनाशमाशु ।
तं सर्वदा विमल-मानस-राजहंस
श्रीकृष्णमेव गुरुराजमहं नमामि ॥ ४
॥
जिनके चरण कमलों के युगल का स्मरण
करने से लोगों के सारे पाप जल्दी नष्ट हो जाते हैं, उन निर्मल हृदय रूपी मानस सरोवर में विहार करने वाले राजहंस रूपी गुरुराज
श्रीकृष्ण भगवान् को और अपने पिता श्रीकृष्ण शास्त्री को ही मैं प्रणाम कर रहा हूं
। इस श्लोक का एक ही अर्थ भगवान् श्रीकृष्ण के साथ और श्रीकृष्ण शास्त्री के साथ
लगता है ।
श्रीमन्महेन्द्र-नुत-पाद-
सरोज-युग्मं
श्रीदेवकी-महित-नन्दन दत्तमानम् ।
श्रीराम-वत्सल महनिशमेव चित्ते
श्रीकृष्णमेव गुरुराजमहं नमामि ॥ ५
॥
ऐश्वर्य से विभूषित देवराज इन्द्र
ने जिनके चरण-कमलों की वन्दना की, श्री देवकी के
द्वारा पूजित श्री नन्दगोप ने जिनका बड़ा सम्मान किया, श्री
बलराम ने जिन्हें बहुत प्यार दिया, उन श्रीकृष्ण रूपी
गुरुराज को ही मैं दिन रात हृदय में प्रणाम कर रहा हूँ ।
श्री महेन्द्र जिनके चरण कमलों के युगल
को प्रणाम करते रहे, आचार्य देवकीनन्दन
ने जिन्हें बड़ा सम्मान दिया और श्री रामचन्द्र से जिन्हें बहुत प्यार था, ऐसे गुरुराज श्रीकृष्ण शास्त्री को मैं दिन रात हृदय से प्रणाम कर रहा हूँ
।
विशेष - श्री बल्लभाचार्यपीठ के
पीठेश्वर श्री देवकीनन्दन जी ने उन्हें अपने पीठ में मुख्य पण्डित के रूप में
नियुक्त कर रखा था। राम- चन्द्र उनका दूसरा पुत्र था। श्री महेन्द्र सम्भवतः उनके
कोई शिष्य थे ।
आदौ ददौ जननमुत्तम-वंश-मध्ये
सावित्रिकां तदनु चित्कलया ददौ यः ।
तं ब्रह्मवित्-पुरुष-सम्भव मूल
हेतुं
श्रीकृष्णमेव गुरुराजमहं नमामि ॥ ६
॥
जिस भगवान् कृष्ण ने ही मुझे पहले
तो उत्तम वंश में जन्म दिया, फिर अपनी
परमेश्वरी चिद्रूपा कला के विलास से मुझे विधिवत् मौञ्जीबन्धन संस्कार के द्वारा
गायत्री मन्त्र की दीक्षा दिला दी और साथ ही श्रीविद्या- रूपिणी चित् कला भी दिला
दी ( चित्कलया सह सावित्रिकां ददौ), मुझ जैसे ब्रह्मज्ञानी
पुरुष की उत्पत्ति के मूल कारण के रूप में ठहरे हुए उन गुरुराज श्रीकृष्ण को हो
में प्रणाम कर रहा हूँ ।
साथ ही मैं अपने पिता रूपी गुरुराज
श्रीकृष्ण शास्त्री को प्रणाम कर रहा हूँ । उन्होंने पहले तो मुझे अपने उत्तम वरकल
वंश में जन्म दिया, तदनन्तर गायत्री की
भी दीक्षा दी और बाला त्रिपुरा विद्यारूपिणी चित्कला की भी । मेरे ब्रह्मवित् बनने
के मूल कारण वे ही हैं क्योंकि उन्हीं के द्वारा डाले गए शुभ संस्कारों से मैं
ब्रह्मज्ञानी बन गया।
वाणी- विलास-महिता तु यदीय-वंशी
राका शशाङ्क-धवलां हरते सुकीर्तिम्
।
पौराणिकैः सततमेव सुगीत-वंशीं
श्रीकृष्णमेव गुरुराजमहं नमामि ॥ ७
॥
जिस भगवान् कृष्ण की बांसुरी में
वाणी का विलास भरा है जिस कारण से वह पूजित होती रही और अब भी पूर्णिमा के चान्द
के समान शुभ्र कीर्ति को प्राप्त कर रही है तथा जिसकी वंशी के गीतों को पुराणकारों
ने खूब गाया उस गुरुराज श्रीकृष्ण भगवान् को ही मैं नमस्कार करता हूँ ।
इस पद्य के द्वारा आचार्य महोदय
अपने पिता श्रीकृष्ण शास्त्री को भी प्रणाम कर रहे हैं। उनका तथा वरकल वंश का ही
सम्पर्क सम्भवतः वाणी विलास प्रेस के साथ रहा हो और उससे उनका वंश ही यशस्वी बना
हो । वाराणसी के सभी पुराण-शास्त्रज्ञ विद्वान् उनका तथा उनके वंश का बहुत सम्मान
करते थे क्योंकि वे उस शास्त्र के वहाँ अनुपम विशेषज्ञ थे । इस श्लोक के इस अर्थ
के विषय में भी वाराणसी जाकर कुछ शोध कार्य करने की आवश्यकता है। 'मानस' शब्द स्त्री- लिङ्ग विवक्षा से 'मानसी' हो सकता है।
गङ्गाधराद्य-गुरु-पाद- सरोज पूजा-
सम्प्राप्त-
साङ्ग-सरहस्यक-राज-विद्यम् ।
आनन्दनाथममरावलि पूज्यमानं
श्रीकृष्णमेव गुरुराजमहं नमामि ॥ ८
॥
जिन्हें समस्त रहस्यों के समेत
साङ्गोपाङ्ग राजविद्या (श्री विद्या) भगवान शिव रूपी आदिगुरु के चरणों की पूजा
करने से प्राप्त हुई, देवताओं की
श्रेणियों द्वारा पूजित होते हुए उन आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्ण को ही मैं प्रणाम
कर रहा हूं। वे ही मेरे गुरुराज हैं।
मैं अपने पिता श्रीकृष्ण शास्त्री
रूपी गुरुराज को ही प्रणाम कर रहा हूं। उन्होंने समस्त रहस्यों के समेत
साङ्गोपाङ्ग श्रीविद्या को भट्ट गङ्गाधर रूपी अपने सर्वप्रथम गुरु के चरणों की
पूजा के द्वारा प्राप्त किया था। उनका दीक्षा नाम आनन्द नाथ था। सभी भूदेवों की
श्रेणियां उनका सम्मान करती थीं ।
विशेष - यह गङ्गाधर श्रीकृष्ण
शास्त्री के बड़े ताया थे जिन्होंने उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा भी स्वयं दी थी और
रहस्य विद्यार्थी की पूरी दीक्षा देकर पूर्णाभिषेक भी किया था । भगवान् कृष्ण के उपास्य
देव भी गङ्गाधर शिव ही थे।
यद्दर्शिताध्व-पथिकेन मया समस्तं
ब्रह्मामृतब्धि परिपूरित सर्व भावम्
।
दृष्टं जगत् करतलाssमलकेन तुल्यं
श्रीकृष्णमेव गुरुराजमहं नमामि ॥ ९
॥
जिनके द्वारा (समय समय पर ) दिखाए
हुए मार्ग पर चलते हुए मैंने इस सारे जगत् को हथेली पर रखे हुए आंवले के एक फल की
तरह पूरी तरह से देख लिया कि इसके सारे के सारे पदार्थ परब्रह्म रूपी अमृत के
समुद्र से भरे हुए हैं, उन श्रीकृष्ण
भगवान् रूपी गुरुराज को ही मैं प्रणाम कर रहा हूं ।
भगवान् श्रीकृष्ण ही स्वप्नदर्शन आदि
के द्वारा आचार्य महोदय की समस्त शङ्काओं को दूर करते हुए उनके आध्यात्मिक साधना
मार्ग को प्रशस्त बनाते रहे ।
विशेष –
इधर से श्री आचार्य महोदय की इस प्रकार की ज्ञान दृष्टि जो खुल गई
उसका प्रथम कारण उनके पिता श्रीकृष्ण शास्त्री के द्वारा दी गई श्रीविद्या की
दीक्षा ही थी। अतः यह स्तुति साथ ही श्रीकृष्ण शास्त्री के प्रति भी की गई है।
ज्ञान दृष्टि के खुल जाने पर सब कुछ पर ब्रह्म ही दीखता है, जैसे
समुद्र तरंग, बुदबुद, वेला आदि के रूप
में दीखता है ।
श्रीराधिका-महित-कृष्ण महागुरुत्था-
ऽहंभावपूरिततमुः प्रभुवैद्यनाथः ।
एक: स्फुरद्वरकलो हृदयोल्लसन्तीम्
उल्लासयन् विजयते स्वविसर्गशक्तिम्
॥ १० ॥
श्री राधा जी के द्वारा पूजित
श्रीकृष्ण भगवान् रूपी महा- गुरु की कृपा से उद्गत परिपूर्ण अहम्भाव से परिपूरित
शरीर वाला, अपनी उत्तम कला को गतिशील बनाता
हुआ एक प्रभु वरकल वैद्यनाथ हो अपने हृदय में उल्लास को प्राप्त होने वाली
पारमेश्वरी विसर्ग शक्ति को उल्लास में लाता हुआ सर्वोत्कृष्ट है, अतः उसी की जयकार हो ।
इस श्लोक द्वारा आचार्य महोदय
स्वात्म-परमेश्वर की जयकार कर रहे हैं। ऐसे ऐसे सुन्दर स्तोत्रों के निर्माण कार्य
में उनकी उत्तम काव्यकला ही गतिशील हो रही है। ऐसी काव्यसृष्टि का निर्माण भी
मूलतः पारमेश्वरी सृष्टि शक्ति का ही एक उदाहरण है । अतः इसे विसर्ग शक्ति का
उल्लास कहा गया । ज्ञानी समस्त विश्व को अपने आप ही के रूप में देखता है। यही
परिपूर्ण अहंभाव होता है।
विशेष - श्रीकृष्ण शास्त्री भी श्री
राधादेवी से पूजा प्राप्त करते रहे । वे भी आचार्य महोदय के महागुरु थे। जिस शरीर
में उनका अहम्भाव भरा रहा उस शरीर की उत्पत्ति श्रीकृष्ण शास्त्री से हुई थी। तो
इस पद्य में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ ही साथ श्रीकृष्ण शोस्त्री का भी स्मरण
सम्मान पूर्वक किया गया है ।
आधारादि सहस्र-पत्र कमलं
यावच्चमत्कारकृत्-
तेजो नील-पयोद-कोमल-रुचि
श्रीराधिकाराधितम् ।
योगाभ्यास-परायणैरपि महाकष्टेन यत्
प्राप्यते
तद्वन्दे यदनुग्रहेण ससुखं प्राप्तं
गुरोः पद्युगम् ॥ ११ ॥
जो तेज मूलाधार चक्र से लेकर के
सहस्रदल कमल तक (विविध) चमत्कारों को उद्बुद्ध करता है,
जिसकी कान्ति सांवले रंग के मेघ की कान्ति के समान कोमल है, जिस तेज की आराधना श्रीराधा जी ने की है, जिसे
योगाभ्यास में लगे हुए साधक बड़े कष्ट से प्राप्त करते हैं और जिसके अनुग्रह मैंने
अनायास ही सद्गुरु के चरणयुगल को प्राप्त किया उसी तेज को मैं प्रणाम कर रहा हूं ।
वह तेज एक ओर श्रीकृष्ण भगवान् हैं,
क्योंकि वे ही चित्कला के रूप में कुण्डलिनी के सभी चक्रों में
विविध चमत्कार का उदय कराते हैं, क्योंकि मूलतः सभी
प्राणियों का चित्प्रकाश वे ही हैं। श्याम मेघ की कान्ति तो उनके शरीर में
प्रसिद्ध ही है। योगी जन बड़े कष्ट से उन्हें ही प्राप्त करते हैं। ऐसा प्रतीत
होता है कि उन्हीं के अनुग्रह से आचार्य महोदय को श्री दुर्वासा मुनीश्वर जैसे
उत्तम गुरु की कृपा प्राप्त हुई । कुण्डलिनी देवी का वर्ण भी सांवला होता है।
विशेष –
श्रीकृष्ण शास्त्री भी योगाभ्यास के द्वारा कुण्डलिनी के सभी चक्रों
में विशेष विशेष चमत्कारों को जगाते रहे। उनके शरीर की कान्ति भी हल्के सांवले
वर्ण की थी। श्री राधा देवी उनकी पत्नी कष्टमयी तपस्या से ही इस प्रकार के पिता से
जन्म मिलता है। उनके द्वारा दी गयी श्री विद्या का अभ्यास भी आचार्य महोदय के लिए
सद्गुरु की अनायास प्राप्ति का एक कारण बना होगा। इस तरह से इस पद्य के द्वारा भी
एक ओर से भगवान् श्रीकृष्ण को और साथ ही दूसरी ओर से अपने पिता श्रीकृष्ण
शांस्त्री को प्रणाम किया गया है।
महागुरु श्रीकृष्ण स्तोत्रम् लेखक परिचय
इत्थं श्रीगुरुराजपादयुगलं श्लेषेण
कृष्णाह्वयं
ध्यातं ब्रह्म हृदम्बुजे वसतु मे
राधा-हृदालिङ्गितम् ।
नित्योन्निद्र-विमर्शना-परवशः
स्वात्म-प्रकाशः सदा
किञ्च प्रार्थनयाऽनया सरलया
प्रीणातु राधाधवः ॥ १२ ॥
श्री गुरुराज के जिस चरण युगल का
ध्यान मैंने इस (पूर्वोक्त) प्रकार से श्लेषमयी रचना के द्वारा,
श्रीकृष्ण नाम से किया तथा जो राधा के हृदय के द्वारा सदा आलिंगित
होता रहता है वही परब्रह्म स्वरूप (चरण युगल) मेरे हृदय कमल में सदा ठहरा रहे और
साथ ही वहाँ सदैव विकास को प्राप्त होते हुए स्वात्मविमर्शन में लगा हुआ
स्वात्मप्रकाश भी मेरे हृदय कमल में चमकता रहे तथा श्री राधापति श्रीकृष्ण भगवान्
और श्रीकृष्ण शास्त्री मेरी इस सरल प्रार्थना से प्रसन्न और सन्तुष्ट हो जाएं ।
विशेष- प्रकाश ब्रह्म की अनपेक्ष
सत्ता है और विमर्श उसकी परमेश्वरता का चमत्कार है । स्फुट विमर्श से हीन प्रकाश
तो सुषुप्ति जैसी शून्यता में प्रकट होने वाला प्रकाश होता है। तुर्या के स्वात्म
प्रकाश के साथ ही साथ अपनी परमेश्वरता का चमत्कार भी होता रहता है,
वही उसकी आनन्द-धनता है । उसी की सतत गति से उम्मनता के लिए आचार्य
महोदय प्रार्थना कर रहे हैं।
श्रीमद्विक्रमभूपतेरथ गते सिंहाधिपे
वत्सरे ।
पञ्चम्यां भृगुवासरे सितदले चैत्रे
कुलोल्लासिना ।
काश्मीरान्तरनन्तनागसविधे
कार्कोट-नागस्थले
विप्रेरण ग्रथितां पठन् स्तुतिमिमां
पुष्णात्वभीष्टं जनः ॥ १३ ॥
विक्रम सम्वत् १९८७ में,
चैत्र के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को शुक्रवार के दिन अपने कुल को
उल्लास में लाने वाले विद्यावान् ब्राह्मण ने कश्मीर देश में अनन्तनाग के समीप
स्थित काकोर्टनाग नामक स्थान पर स्तोत्र की रचना की । जो भी चाहे वह इस स्तुति का
पाठ करता हुआ अपना अभीष्ट सिद्ध करे ।
इत्याचार्य श्रीमद् अमृतवाग्भव-
प्ररणीतं महागुरु- श्रीकृष्ण स्तोत्रं सम्पूर्णम्
इस प्रकार से श्रीमान् अमृतवाग्भवाचार्य के द्वारा निर्मित यह महागुरु श्रीकृष्ण का स्तोत्र पूरा हो गया ।
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: