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कर्मकाण्ड

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श्रीरामाश्वघाटी चतुष्टय

श्रीरामाश्वघाटी चतुष्टय

डी०पी०कर्मकाण्ड के स्तोत्र श्रृंखला में आचार्य अमृतवाग्भव के द्वारा निर्मित समस्यापूर्तिमय इस श्रीरामचन्द्र की सुन्दर स्तुति का निर्माण अश्वघाटी नामक छन्द के चार श्लोकों में किया गया है, अतः इसे श्रीरामाश्वघाटी चतुष्टय कहा जाता है। इस स्तोत्र के पाठ करने से सभी प्रकार के समस्याओं का निवारण होता है ।

श्रीरामाश्वघाटी चतुष्टय

श्रीरामाश्वघाटी चतुष्टय

Shri Ramashvaghati chatushtay

श्रीरामाश्वघाटी चतुष्टयम्

( समस्या पूर्वात्मकम् )

वीराधिपं निज-पदाराधना-

रत- जनाराधनासु निरतं

धीराकृतिं परमुदाराशयं

सुरजनाराधिताङ्घ्रियुगलम् ।

सीराङ्गजा पतिमुमाराधनीय-

हृदि सारायमाणमिह तं

श्रीरामचन्द्रमहमाराधये

मनसि धाराधराभवपुषम् ॥ १ ॥

वीरों के अधिपति, अपने चरणों की आराधना में लगे हुए भक्तजनों को सन्तुष्ट करने में संलग्न रहने वाले, धीर आकृति वाले अतीव उदार विचारों वाले, देवगणों से पूजित चरणयुगल वाले, भगवती उमा के पति के हृदय में साररूपता को प्राप्त होते हुए, हल की नोक से जन्मी हुई सीताजी के पति, बादल के समान सांवले शरीर वाले उस श्रीरामचन्द्र की आराधना यहाँ अपने मन में मैं कर रहा हूं ।

विशेष-काशीपति विश्वनाथ शिव अपने हृदय में सदा श्रीराम का ध्यान करते रहते हैं, ऐसी परम्परा प्रचलित है। इसी लिए शिव के हृदय में साररूपता को प्राप्त करने की बात स्तोत्र में कही गई है।

कीरायितापि भव-वारांनिधे-

र्भवति पारायणाय ननु सा

गी राम राम इति मारारि-

शासनमुदाराश्रयं बहुमतम् ।

धीराः समेति यदपाराश्रयेण

सुजनाराममादरयुतं

श्रीरामचन्द्र महमाराधये

मनसि धाराधराभवपुषम् ॥ २ ॥

तोतों की तरह रटी जाती हुई भी तो वह 'राम राम' इस प्रकार की वाणी भवसागर से पार ले जा सकती है - ऐसा कामदेव के शत्रु शिव का वह आदेश है जिसे बहुतों ने माना है। तथा जिसका बहुत मान किया जाता है। तथा जिस आदेश का आश्रय बहुत उदार है और जिसका अपार आश्रय लेने से बुद्धि और लक्ष्मी आ जाती हैं। मैं सज्जनों को आराम देने वाले और उनका आदर करने वाले तथा बादलों की जैसी कान्ति से युक्त शरीर वाले श्री रामचन्द्र की आराधना अपने मन में कर रहा हूं।

विशेष - काशीपति शिव का वाराणसी है कि वाराणसी में राम नाम का जप करने वाला भी मुक्त हो ही जाता है। उनके इस आदेश का आश्रय उनकी उदार दृष्टि है । असंख्य लोग सैंकड़ों वर्षों से इस आदेश को आदर पूर्वक मानते रहे हैं। धीः बुद्धिः, राः = लक्ष्मी,(रोरि लोपः) ।

भीराशि-नाश-करमारात्-करं

विपदपारार्णवस्य महतः

ह्रीरादृता किल यदाराधने

तु भव-कारालयं वितनुते ।

श्रीरायता भवति नाss-

राधयेऽद्य इह नारायणं तमतुलं

श्रीरामचन्द्र महमाराधये

मनसि धाराधराभवपुषम् ॥ ३ ॥

भय के समूहों का नाश करने वाले, विपत्तियों के बहुत बड़े अपार समुद्र को दूर करने वाले, उस अतुल महिमा वाले भगवान् नारायण की आराधना नेतृत्व सामर्थ्य वाला मैं आज कर रहा हूँ जिसकी आराधना के विषय में अपनाई गई लज्जा संसार रूपी कारागार की वृद्धि करती है। फिर मैं बादलों के समान श्याम शरीर वाले श्रीरामचन्द्र की आराधना अपने मन में कर रहा हूँ ।

विशेष- आरात्= दूर। श्रीराम की आराधना में लज्जा नहीं की जानी चाहिए। उससे आराधना करने की प्रवृत्ति मन्द पड़ेगी और उससे संसार रूपी कारागार में रहने की अवधि बढ़ जाएगी। 'नृ’' शब्द से 'ना' बनता है और उसका व्यंग्य अर्थ होता है समाज का अग्रणी । [ अद्य (अहं) ना नारायणमाराधये ] । वह नारायण ही, रामचन्द्र है जिसकी आराधना की जा रही है।

श्रीरालयं विशति कारालयं

विपदपारापि याति सुभगा

स्त्री राधनी रतिप-मारार्दिता

जघन-भारानताऽनुभजते ।

धीरादृतस्य ननु नारायणस्य

दया राघवस्य तमिह

श्रीराम चन्द्रमहमाराधये

मनसि धाराधराभवपुषम् ॥ ४ ॥

धीर पुरुषों के द्वारा आदृत श्रीरघुपति रूपी भगवान् नारा की दया से तो लक्ष्मी घर में आती है, अपार विपदा भी कारागार को चली जाती है और रति के पति कामदेव के प्रभाव से पीड़ित हुई, जघन के भार से झुकी हुई, अतीव सुन्दर स्त्री आराधना करती हुई अनुगामिनी बन कर सेवा करती है । तो उसी बादलों के समान सांवले शरीर वाले रघुपति श्री रामचन्द्र की आराधना मैं यहां अपने मन में कर रहा हूं ।

विशेष- राध्नोतीति राधनी, आराधनपरा ।

श्रीरामाश्वघाटी चतुष्टयम् लेखक परिचय

सिंहाधिपमिते वर्षे वैक्रमे मासि फाल्गुने ।

पीठे जालन्धरे शेराठाण ग्राम-निवासिनः ॥ ५ ॥

अवस्थी-बदरीदत्त शर्मणो वेश्मनि स्थितः ।

तस्य प्रार्थनया रुच्यं समस्यापूर्तिरूपकम् ॥ ६ ॥

श्रीरामचन्द्र सम्बद्धमश्वघाटी-चतुष्टयम् ।

स्तुतिरूपं विनिरमाद्विद्वानमृतवाग्भवः ॥ ७ ॥

वि० सम्वत् १९८७ में, फाल्गुन के महीने में, जालन्धरपीठ (कांगड़ा) में, शेराठाण ग्राम में निवास करने वाले बदरीदत्त शर्मा अवस्थी के घर में ठहरे हुए विद्वान् अमृतवाग्भव ने उसकी प्रार्थना से समस्यापूर्तिमय इस श्रीरामचन्द्र की सुन्दर स्तुति का निर्माण अश्वघाटी नामक छन्द के चार श्लोकों में किया ।

विशेष – “कान्तं मनोरमं रुच्यम्" (अ को. ३-१-५२)

इत्याचार्यश्रीमदमृतवाग्भवप्रणीतं समस्यापूर्तिरूपं श्रीरामाश्वघाटीचतुष्टयं सम्पूर्णम् ।

श्रीमान् आचार्य अमृतवाग्भव के द्वारा निर्मित यह समस्या पूर्ति रूपी श्रीरामाश्वघाटी चतुष्टय पूरा हो गया ।

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