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कर्मकाण्ड

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भूतडामर तन्त्र पटल ४

भूतडामर तन्त्र पटल ४   

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा  भूतडामरतन्त्र के पटल ३ में सुन्दरी मन्त्रसाधना, मन्त्रोद्वारवर्णन, मुद्रामन्त्रवर्णन, भूतिनी साधन को दिया गया, अब पटल ४ में श्मशानवासिनी साधन, विविध मुद्राएँ का वर्णन हुआ है।

भूतडामर तन्त्र पटल ४

भूतडामरतन्त्रम् चतुर्थ: पटलम्

भूतडामर तन्त्र पटल ४   

भूतडामरतन्त्र चौंथा पटल 

भूतडामर महातन्त्र

अथ चतुर्थ पटलम्

उन्मत्तभैव्युवाच

भगवन् ! देवदेवेश ! सुरासुरभयप्रद ! ।

श्मशानवासिनीं ब्रूहि यदि तुष्टोऽसि भैरव ! ॥ १ ॥

उन्मत्तभैरवी कहती है- हे देवदेवेश्वर ! आप सुर-असुर को भयग्रस्त करते हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तब श्मशानवासिनी को सिद्ध करने के मन्त्र आदि का उपदेश करें ।। १ ।।

भैरव उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि पितृभूवासिनीमनुम् ।

दीनानामुपकाराय नत्वाग्रे क्रोधभूपतिम् ।। २ ।।

भैरव कहते हैं- मैं क्रोधभूपति को नमस्कार करके दीनों के उपकारार्थ श्मशानवासिनी का मन्त्र कहता हूँ ।। २ ।।

विष प्राथमिक कालबीजं द्विगुणमीरितम् ।

प्रालेयमथ भूतेशबीजं फट् फट् द्वयं पुनः ।

ततः सर्वभूतिनीनां पदं भगवतः पदम् ।

वज्रधरस्य समयमनुपालय संलिखेत् ।

हनवधाक्रमपदं समुद्धृत्य द्वयं द्वयम् ।

भो भो रात्रावितिपदात् श्मशानवासिनीपदम् ।

आगच्छ शीघ्रं कूर्चास्त्रं भूतिन्यावाहकृन्मनुः ॥ ३ ॥

ॐ ह्रीं हुं हुं ॐ ह्रीं फट् फट् सर्वभूतिनीनां भगवतो वज्रधरस्य समयमनुपालय हन हन वध वध आक्रम आक्रम भो भो रात्रौ श्मशानवासिनी आगच्छ शीघ्र हुं फट्' । यह भूतिनी का आवाहन मन्त्र है ॥ ३ ॥

तारं ज्वलयुगं पश्चाद् विधूनैव चलद्वयम् ।

चालयप्रविशौ प्राग्वज्ज्वलतिष्ठद्वयं द्वयम् ।

समयमनुपालय पदं भो भो रात्रावुदीरयेत् ।

श्मशानवासिनी कालद्वयादस्त्रद्वयं द्विठः ।

असौ श्मशानवासिन्या मनुः समयसंज्ञकः ।

श्मशानवासिनी मन्त्रमतो वक्ष्ये यथाक्रमम् ॥ ४ ॥

'ॐ ज्वल जवल विधून चल चल चालय चालय प्रविश प्रविश ज्वल जवल तिष्ठ तिष्ठ समयमनुपालय भो भो रात्रौ श्मशानवासिनि हुं हुं फट् फट् स्वाहा' । यह श्मशानवासिनी का समयसंज्ञक मन्त्र कहा गया है ॥ ४ ॥

पश्चरश्मि समुद्धृत्य चलद्वयं पठद्वयम् ।

महापदमतो लेख्यं भूतिनीं साधयेति च ।

कुले प्रिये स्फुरयुगं तद्वद्विसुर कट्द्वयम् ।

ततः प्रतिहतपदं जयविजययुग्मकम् ।

तर्जयुग्मं हुश्चयुग्मं फट्युग्मश्च प्रथद्वयम् ।

विषमग्निप्रियान्तेयं प्रोक्ता दंष्ट्राकरालिनी ॥ ५ ॥

ॐ चल चल पठ पठ महाभूतिनीं साधय कुले प्रिये स्फुर स्फुर विसुर विसुर कट् कट् प्रतिहत जय जय विजय विजय तर्ज तर्ज हुं हुं फट् फट् प्रथ प्रथ ॐ स्वाहा' । यह सर्वसिद्धिदायक मन्त्र है ।। ५ ।।

प्रालेयं प्रथमं गृह्य ततो घोरमुखीपदम् ।

श्मशानवासिनीशब्दात् साधकानुपदात्ततः ।

कुलेऽप्रतिहतपदं सिद्धिदायिक इत्यपि ।

अनादि सृष्टित्रितयं नतिज्वलनवल्लभा ।

इदं घोरमुखीमन्त्रमुक्तमिष्टार्थंसाधकम् ।। ६ ।।

ॐ घोरमुखी श्मशानवासिनी साधकानुकूलेऽप्रतिहतसिद्धिदायिके ॐ ह्रीं ह्रीं नमः स्वाहा' । यह मन्त्र सर्वसिद्धि देता है तथा घोरमुखी मन्त्र-साधना में इष्टार्थ की प्राप्ति कराता है ।। ६ ।।

ब्रह्मसूत्रं समुद्धृत्य तदन्ते तर्जनीमुखि ।

विषद्वयं समाभाष्य ततो विश्वचिताचिते ।

सर्वशत्रुपदाद्गृह्य भयङ्करिपदस्ततः ।

हनद्वयं दहयुगं पच मारय द्वयं द्वयम् ।

ततो ममाकारपदं गृह्य मृत्युक्षयङ्करि ! ।

सर्वनागपदाद् यक्षभक्ष अट्टाट्टहासिनि ।

सर्वभूतेश्वरी कूर्च हताद्विषशिखिप्रिया ॥ ७ ॥

'ॐ तर्जनीमुखि ॐ ॐ विश्वचिताचिते सर्वशत्रुभयङ्करि हन हन दह दह पच पच मारय मारय ममाकारस्य मृत्युक्षयङ्करि सर्वनाग पदाद् यक्षभक्ष अट्टाट्टहासिनि सर्वभूतेश्वरि हुं हत ॐ स्वाहा ॥ ७ ॥

वेदादितोऽग्नेश्च प्रियान्ता तज्जयजयोन्मुखी ।

अनादिबीजमाभाष्य ततः कमललोचनि ! ।

मनुष्यवत्सले देवि ! सर्वदुःखविनाशिनि ।

साधकानुपदात् कूले प्रिये! जयपदद्वयम् ।

द्वे गृहीत्वा कालबीजे मन्त्रं ग्राह्यं पदं नतिः ।

वह्निप्रियान्तयुक्तेयं देवी कमललोचनी ॥ ८ ॥

ॐ कमललोचनि मनुष्यवत्सले सर्वदुःखविनाशिनि साधकानुकूले प्रिये जय जय हुं हुं फट् नमः स्वाहा'। यह का कमललोचनी मन्त्र उपासकों के लिए सर्वसिद्धिप्रदायक है ।। ८ ॥

विषाद्या विकटमुखि ततो दंष्ट्राकरालिनि ! ।

ज्वलद्वयपदाद्गृह्य सर्वयक्षभयङ्करि ! ।

धीरधीरपदं गृह्य गच्छ गच्छ पदं ततः ।

भो भोः साधक किमाज्ञापयसि हुं पदक्रमात् ।

शिवोऽन्ताचेरिता देवि विकटास्येष्टसिद्धिदा ॥ ९ ॥

ॐ विकटमुखि दंष्ट्राकरालिनि ज्वल ज्वल सर्वयक्षभयङ्करि धीर धीर गच्छ गच्छ भो भोः साधक किमाज्ञापयसि हूं'। यह विकटामन्त्र इष्टसिद्धि देता है ।। ९ ।।

विषं ध्रुविपदं कर्णपिशाचिनि ततः परम् ।

कटुद्वय धूनयुग महासुरपदं ततः ।

पूजिते भिन्दयुगलं महाकर्णपिशाचिनि ।

भो भो हुं साधकपदं किङ्करोम्युच्चरेत् ततः ।

लज्जाबीजं विसर्गान्तं कालादस्त्रयुगं लिखेत् ।

वह्निप्रियान्तमित्युक्तमुद्धरेन्मनुविग्रहम् ॥ १० ॥

ॐ ध्रुविकर्णपिशाचिनि कटु कटु धून धून महासुरपूजिते भिन्द भिन्द महाकर्णपिशाचिनि भो भो साधक किङ्करोमि ह्रीं अ: हुं हुं फट् फट् स्वाहा' । यह कर्णपिशाचिनी मन्त्र सर्वज्ञानप्रद है ।। १० ॥

विषं ध्रुविपदं लेख्यं सरुकटुद्वयं द्वयम् ।

स्तम्भयद्वयमाभाष्य चालयद्वयमीरयेत् ।

मोहय द्वयतो विद्युत्करालीपदमुद्धरेत् ।

अतिभूतचरस्याग्रे विलिखेत् सिद्धिदायिके ।

हु फें भयङ्करी बीजमन्त्राग्निदयितान्वितम् ।

इति विद्युत्करायुक्ता वाञ्छितार्थप्रदायिनी ॥। ११ ॥

ॐ ध्रुवि ध्रुवि सरु सरु कटु कटु स्तम्भय स्तम्भय चालय चालय मोहय मोहय विद्युत्करालिनि अतिभूतचरस्य सिद्धिदायिके हुं फें भयङ्करी फट् 'स्वाहा' । यह विद्युत्कराली मन्त्र वांछित फल देने वाला है ।। ११ ।।

विषं सौम्यमुखीं गृह्याकर्षयद्वयमुद्धरेत् ।

ततः सर्वभूतिनीनां जयद्वयमुदीरयेत् ।

भो भोस्ततः साधकेति पदं तिष्ठद्वयं ततः ।

समयमन्वितिपदं पालयेति पदं ततः ।

साधु साधु ततो भो भोः किमाज्ञापयसि द्वयम् ।

किलिद्वयाग्निजायान्तः प्रोक्तः सौम्यमुखीमनुः ।। १२ ।।

'ॐ सौम्यमुखि आकर्षय आकर्षय सर्वभूतिनीनां जय जय भो भोः साधक तिष्ठ तिष्ठ समयमनुपालय साधु साधु भो भोः किमाज्ञापयसि किलि किलि स्वाहा'। यह सौम्यमुखी मन्त्र साधकों के लिए फलदायक है ।। १२ ।।

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि पितृभूमिनिवासिनीम् ।

कर्णपैशाचिकीं मुद्रां यया सिद्धिरनुत्तमा ।। १३ ।।

अब मैं श्मशानवासिनी कर्णपिशाचिनी देवी का वर्णन करता हूँ। उनकी निम्नलिखित मुद्रा द्वारा उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है ।। १३ ।।

कृत्वाऽन्योन्यस्ततो मुष्टि कनिष्ठे वेष्टयेदुभे ।

ततः प्रसायं तर्जन्यौ वक्त्रदेशे नियोजयेत् ।

दंष्ट्राकरालिनी मुद्रा कथिता सा महाप्रभा ॥ १४ ॥

दोनों हाथों की मुट्ठी को बन्द करके दोनों कनिष्ठा उँगलियों को परस्पर एक-दूसरे में फँसायें । तदनन्तर तर्जनी को फैलाकर उसे मुख से लगाये। यह दंष्ट्राकरालिनी मुद्रा है ॥ १४ ॥

कृत्वा वामकरे मुष्टि मध्यमान्तु प्रसारयेत् ।

तर्जन्यौ वा प्रसार्योभे मुद्रा घोरमुखी मता ।। १५ ।।

बायें हाथ की मुट्ठी को बन्द करे। मध्यमा तर्जनी को फैलाये। यह है घोरमुखी मुद्रा ।। १५ ।।

बद्ध्वान्योऽन्यं ततो मुष्टि कनिष्ठे द्वे च वेष्टयेत् ।

ततः प्रसार्य तर्जन्यो वक्त्रदेशे निवेशयेत् ।

कथिता तर्जनीमुद्रा सर्वसिद्धिप्रदायिनी ।। १६ ।

दोनों मुट्ठियों को बन्द करके दोनों हाथों की कनिष्ठा अँगुलियों को एक दूसरे से सटाकर तथा दोनों तर्जनियों को फैलाते हुए उन्हें मुख से लगाये । यह है तर्जनी मुद्रा । इससे साधक समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है ।। १६ ।।

अस्या एव च मुद्राया भग्ना कार्या तु मध्यमा ।

प्रसार्यानामिका मुद्रा प्रोक्ता कमललोचनी ॥ १७ ॥

उक्त तर्जनी मुद्रा में केवल दोनों मध्यमा उँगलियों को टेढ़ा करके रखे और दोनों अनामिका उंगलियों को प्रसारित करें। यह है कमललोचनी मुद्रा ।। १७ ।।

अस्या एव तु मुद्राया प्रवेश्याऽनामिका पुनः ।

कनिष्ठान्तु प्रसार्यासौ विकटास्या प्रकीर्तिता ॥ १८ ॥

कमललोचनी मुद्रा में अनामिकाओं को मुट्ठी में से फैलायें और दोनों कनिष्ठाओं को प्रसारित करें। यह है विकटास्या मुद्रा ।। १८ ।।

दक्षपाणिकृता मुष्टिस्तर्जनीन्तु प्रसारयेत् ।

ख्यातैषाऽरुन्धती मुद्रा सर्वाभीष्टप्रदायिनी ॥ १९॥

दाहिने हाथ की मुट्ठी बाँधकर तर्जनी को फैलाये। यह है अरुन्धती मुद्रा, जिससे सभी वांछित फल प्राप्त होते हैं ।। १९ ।।

अस्या एव तु मुद्रायास्तर्जन्याकृष्य मध्यमाम् ।

प्रसार्य दर्शयेदेषा मुद्रा विद्युत्करालिनी ॥ २० ॥

अरुन्धती मुद्रा में यदि तर्जनी से मध्यमा को खींचा जाये और फैलाया जाये, तब वह विद्युत्करालिनी मुद्रा हो जाती है ॥ २० ॥

दक्षमुष्टि विधायाथ कनिष्ठान्तु प्रसारयेत् ।

प्रोक्ता सोम्यमुखी मुद्रा वाञ्छितार्थं फलप्रदा ॥ २१ ॥

दाहिनी मुट्ठी बाँधकर कनिष्ठा उँगली को फैलाने से सौम्यमुखी मुद्रा बनती है। इससे साधक को वांछित फल प्राप्त होता है ।। २१ ।

अथासां साधनं वक्ष्ये दरिद्राणां हिताय च ।

कुर्वीरन् चेटिकाकर्म देव्योऽमूः साधकस्य च ।। २२ ॥

इसके पहले जितने मन्त्र कहे गये हैं, अब उनका प्रयोग-विधान कहा जाता है। इस प्रकार से साधना करने से देवीगण साधक का दासत्व स्वीकार करती हैं ।। २२ ।।

गत्वा श्मशानं प्रजपेन्मनुमष्टसहस्रकम् ।

सर्वेषामेव मन्त्राणां पूर्वमेषा पुरस्क्रिया ॥

पितृभूमौ समास्थाय दधिक्षोद्रघृतान्वितम् ।

हुनेदष्टसहस्रन्तु खादिरं समिधं सुधीः ॥

सिद्धे होमे समागत्य पितृभूवासिनी वदेत् ।

किं करोमि वद त्वं मे सन्तुष्टा साधकं प्रति ॥

साधकेनापि वक्तव्यं किङ्करी चेटिका भव ।

यच्छतीह दीनारच क्षेत्रकर्म करोति च ॥

मत्स्यमांसं बलि क्षेत्रवाटिकायां प्रदापयेत् ।

यत्रैकविंशरात्रिश्च चेटीकर्म करोति च ॥ २३ ॥

श्मशान में जाकर उन देवता का ८००० मन्त्र जपे । सब प्रकार की मन्त्रसिद्धि में यह करना चाहिए। फिर वहाँ दही, घी, शहद के साथ खैर की लकड़ी से ८००० हवन करें। इसका समापन होने पर श्मशानवासिनी देवी साधक के समक्ष आकर पूछती हैं कि क्या कार्य है ? मैं तुमसे सन्तुष्ट हूँ' । इस सिद्धि के अनन्तर देवी साधक को सोने की मुद्रा देकर उसका क्षेत्रकर्म करती हैं। तब साधक मत्स्य-मांसादि बलि प्रदान करें। २१ दिन ऐसी साधना करने पर देवी गुप्त रूप से साधक का क्षेत्र कर्म करती हैं ॥ २३ ॥

अथवा प्रजपेद्रात्री श्मशानेऽष्टसहस्रकम् ।

शतघ्नदिक्सहायाढया भूतिन्याऽऽयाति वक्ति च ॥

किं करोमीति तच्छ्रुत्वा साधको भाषते पुनः ।

किङ्करी भव दासी त्वं गृहकर्म कुरुष्व मे ।। २४ ।।

अथवा रात्रि के समय श्मशान में जाकर ८००० ( आठ हजार ) जप करें। इससे भूतिनी एक हजार परिजनों के साथ आकर साधक से कहती है- 'मैं तुम्हारा क्या कार्य करूँ ? साधक कहे कि 'तुम मेरी किंकरी बनकर गृहकार्य करो' ।। २४ ।।

पितृभूमौ तु यामिन्यां जपेदष्टसहस्रकम् ।

शतघ्नदिक्सहायाच्या भूतिन्यायातिसन्निधिम् ।।

मत्स्यमांसौदनबलिं गृह्य हृष्टा प्रयच्छति ।

वासोयुग्ममलङ्कारं दीनारं प्रतिवासरम् ॥

सहस्रयोजनाद्दिव्यां नारीमानीय यच्छति ।

सुगुप्तं चेटिकाकर्म यावज्जीवं करोति च ।। २५ ।।

इति भूतडामरमहातन्त्रे पिशाचिनीचेटिकासाधनं नाम चतुर्थ पटलम् ।

रात्रिकाल में श्मशान में बैठकर ८००० जप करें। इस प्रकार के साधन द्वारा भूतिनी अपने एक हजार परिवार जनों के साथ आकर साधक द्वारा मत्स्य- मांसादि उपहार एवं अन्नभोग अर्पित किये जाने पर सन्तुष्ट होती हैं और साधक को प्रतिदिन वस्त्रयुगल तथा स्वर्णमुद्रा प्रदान करती हैं। सहस्र योजन दूर की भी दिव्या कामिनी को लाकर साधक को देती हैं। यह कामिनी जीवनपर्यन्त साधक का दासीकर्म करती है ।। २५ ।।

भूतडामर महातन्त्र का चतुर्थ पटल समाप्त ।

आगे पढ़ें.................. भूतडामरतन्त्र पटल ५ 

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