वाराह स्तुति
पाताललोक र्में वेदयज्ञमय वाराह को आये
देख देवी वसुन्धरा अति भक्तिविनम्र हो उनकी स्तुति करने लगी।
वाराह स्तुति:
Varah stuti
श्रीवाराह स्तुति
वाराह स्तवन
पृथिवीकृत वाराह स्तुति
श्रीपृथिव्युवाच ।
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष शंखचक्रगदाधर ।
मामुद्धरास्मादद्य त्वं त्वत्तोऽहं
पूर्वमुत्थिता ॥१२॥
पृथिवी बोली - हे शंख,
चक्र, गदा, पद्म धारण
करनेवाले कमलनयन भगवन् ! आपको नमस्कार है । आज आप इस पातालतल से मेरा उद्धार
कीजिये । पूर्वकाल में आप ही से मैं उत्पन्न हूई थी ।
त्वयाहमुद्धृता पूर्वं त्वन्मयाहं
जनार्दन ।
तथान्यानि च भूतानि गगनादीन्यश्षोतः
॥१३॥
हे जनार्दन ! पहले भी आप ही ने मेरा
उद्धार किया था । और हे प्रभो ! मेरे तथा आकाशादि अन्य सब भूतो कें भी आप ही
उपादान कारण हैं ।
नमस्ते
परमात्मात्मन्पुरुषात्मन्नमोस्तु ते ।
प्रधानव्यक्तभूताय कालभूताय ते नमः ॥१४॥
हे परमात्मस्वरूप ! आपको नमस्कार है
। हे पुरुषात्मन् ! आपको नमस्कार है । हे प्रधान ( कारण ) और व्यक्तः (कार्य) रूप
! आपको नमस्कार है । हे कलस्वरूप ! आपको बारम्बार नमस्कार है ।
त्वं कर्ता सर्वभूतानां त्वं पाता
त्वं विनाशकृत् ।
सर्गादिषु प्रभो ब्रह्मविष्णुरुद्रा
त्मरूपधृक् ॥१५॥
हे प्रभो ! जगत की सृष्टि आदि के
लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप धारण
करनेवाले आप ही सम्पूर्ण भूतों की उप्तत्ति, पालन और नाश
करनेवाले हैं ।
सम्भक्षयित्वा सकलं
जगत्येकार्णवीकृते ।
श्षोए! त्वमेव गोविंद चिन्त्यमानो
मनीषिभिः ॥१६॥
और जगत् के एकार्णवरूप ( जलमय )
हो जाने पर, हे गोविन्द । सबको भक्षण कर
अन्त में आप ही मनीषिजनों द्वारा चिन्तित होते हुए जल में शयन करते हैं ।
भवतो यत्परं तत्त्वं तन्न जानाति
कश्चन ।
अवतारेषु यद्रू पं तदर्चन्ति
दिवौकसः ॥१७॥
हे प्रभो ! आपका जो परतत्त्व है उसे
तो कोई भी नहीं जानता; अतः आपका जो रूप
अवतारों में प्रकट होता है उसी की देवगण पूजा करते हैं ।
त्वामाराध्य परं ब्रह्म याता मुक्तिं
मुमुक्षवः ।
वासुदेवमनाराध्य को मोक्षं
समवाप्स्यति ॥१८॥
आप परब्रह्म की ही आराधना करके
मुमुक्षुजन मुक्त है, भला वासुदेव की
आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं ?
यत्किंचिन्मनसा ग्राह्यं
यद्ग्राह्यं चक्षुरादिभिः ।
बुद्ध्या च यत्परिच्छेद्यं तद्रू
पमखिलं तव ॥१९॥
मनसे जो कुछ ग्रहण (संकल्प) किया
जाता हैं,
चक्षु आदि इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण (विषय) करने योग्य है,
बुद्धि द्वारा जो कुछ विचारणीय है वह सब आप ही का रुप है ।
त्वन्मयाहं त्वदाधारा त्वत्सृष्टा
त्वत्समाश्रया ।
माधवीमिति लोकोयमभिधत्ते ततो हि
माम् ॥२०॥
हे प्रभो ! मैं आप ही का रूप हूँ,
आप ही के आश्रित हूँ और आप ही के द्वारा रची गयी हूँ तथा आप ही की
शरण में हूँ। इसीलिये लोक में मुझे ‘माधवी’ भी कहते हैं ।
जयाखिलज्ञानमय जय स्थूलमयाव्यय ।
जयाऽनन्त जयाव्यक्त जय व्यक्तमय
प्रभो ॥२१॥
हे सम्पूर्ण ज्ञानमय ! हे स्थूलमय !
हे अव्यय ! आपकी जय हो ! हे अनंत ! हे अव्यक्त ! हे व्यक्तमय प्रभो ! आपकी जय हो ।
परापरात्मन्विश्वात्मञ्जय
यज्ञपतेऽनघ ।
त्वं यज्ञस्त्वं
वषट्कारस्त्वमॐकारस्त्वमग्नयः ॥२२॥
हे परापर-स्वरुप ! हे विश्वात्मन !
जे यज्ञपते ! हे अनघ ! आपकी जय हो ! हे प्रभो ~! आप
ही यज्ञ हैं, आप ही वषट्कार हैं, आप ही
ओंकार हैं और आप ही (आहवानीयादि) अग्नियाँ हैं ।
त्वं वेदास्त्वं तदङ्गानि त्वं
यज्ञपुरुषो हरे ।
सूर्यादयो ग्रहास्तारा
नक्षत्राण्यखितं जगत् ॥२३॥
हे हरे ! आप ही वेद,
वेदांग और यज्ञपुरुष हैं तथा सूर्य आदि ग्रह, तारे,
नक्षत्र और सम्पूर्ण जगत भी आप ही हैं।
मूर्तामूर्तमदृश्यं च दृश्यं च
पुरुषोत्तम ।
यच्चोक्तं यच्च नैवोक्तं मयात्र
परमेश्वर ।
तत्सर्वं त्वं नमस्तुभ्यं भूयोभूयो
नमोनमः ॥२४॥
हे पुरुषोत्तम ! हे परमेश्वर !
मूर्त-अमृर्त, दृश्य-अदृश्य तथा जो कुछ मैने
कहा है और जो नहीं कहा, वह सब आप ही हैं । अतः आपको नमस्कार
है, बारम्बार नमस्कार है ।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशो पृथिवीकृतं वाराह स्तुति: नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
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