कंकालमालिनीतन्त्र पटल ५
इससे पूर्व में आपने कंकालमालिनीतन्त्र पटल ५ प्रथम भाग पढ़ा। अब इस पटल का अंतिम भाग और इस तंत्र का भी अंतिम भाग पढेंगे।
कंकालमालिनी तंत्र दक्षिणाम्नाय के अन्तर्गत है ? अर्थात् यह शिव के अघोर मुख से अभिनिःधित है। अभयाचार तन्त्रमतानुसार दक्षिणाम्नाय
से सम्बन्धित है- बगला, वशिनी, त्वरिता, धनदा, महिषघ्नि,
महालक्ष्मी। यह कहा जाता है कि यह तंत्र प्रारम्भ में ५०००० श्लोकों
से युक्त था, परन्तु काल के प्रवाह में लुप्त होते-होते जो
अवशिष्ट है।
कङ्कालमालिनी तंत्र पटल ५
कंकालमालिनीतंत्र पञ्चमः पटलः
कंकालमालिनीतन्त्र पांचवां पटल
कंकालमालिनीतन्त्र पंचम पटल- अंतिम भाग
दशांशं जायते पूर्ण गुरुदेवस्य
पूजनात् ।
अतएव महेशानि भक्त्या गुरुपदं यजेत्
॥१४९।।
गुरुदेव की पूजा करने पर दशांश
स्वतः पूर्ण हो जाता है । अतएव हे महेशानी ! भक्तिपूर्वक गुरु पूजन करे ।।१४९।
दक्षिणां गुरवे दद्यांत सुवर्ण
वाससान्वितम् ।
धानं तिलं तथा दद्यात् धेनुं वापि
पयस्विनीम् ॥१५०।।
गुरुदेव को वस्त्रयुक्त सुवर्ण
दक्षिणा दें। धान-तिल तथा दुग्धवती गौ का दान करे ।।१५०॥
अन्यथा विफलं सर्व कोटिपुरश्चरणेन
किम् ।
कुमारी भोजनं सान्तं सर्वसिद्धि
प्रदायकम् ॥१५१।।
कुमारी भोजिता येन त्रैलोक्यं तेन
भोजितम् ।
पूजनात् दर्शनात् तस्या रमणात्
स्पर्शनात् प्रिये ।
सर्व सम्पूर्णमायाति साघको
भक्तिमानसः ॥१५२।।
अन्यथा समस्त कर्म विफल होगा। कोटि
पुरश्चरण करने पर भी कोई कल नहीं हो सकेगा। कुमारी भोजन कराना सर्व सिद्धिप्रद है।
जो कुमारी भोजन कराते हैं, वे त्रैलोक्य भोजन
का फल प्राप्त करते हैं। हे प्रिये ! कुमारी का दर्शन, स्पर्शन और रमण यदि भक्तिपूर्वक किया जाये, तब साधक
समस्त सिद्धि प्राप्त करते हैं ।।१५१-१५२।।
पुरश्चरण सम्पन्नो वीर-साधनमाचरेत्
।
यस्यानुष्ठान मात्रेण मन्दभाग्योपि
सिध्यति ।।१५३।।
पुरश्चरण युक्त साधक वीराचार
साधन में रत रहे । इस साधना से मन्दभाग्य भी सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।१५३॥
पुत्रदारधनस्नेह - लोभमोहविजितः।
मन्त्रं वा साधयिष्यामि देहं वा
पातपाम्यहम् ।।१५४।।
एवं प्रतिज्ञामासाद्य गुरुमाराध्य
यत्नतः।
बलिदानादिना सर्व मानसः परिपूज्य च
॥१५५॥
स्त्री-पुत्र-धन-स्नेह-लोभ-मोह के
राग से विवर्जित साधक प्रण करे कि मन्त्र सिद्धि प्राप्त करूँगा अन्यथा देह त्याग
करूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा करके सयत्न गुरु आराधना करे । बलि प्रभृति से
सर्वतोभावेन मानस पूजन करे ।।१५४-१५५॥
शरत्काले महापूजा क्रियते या च
वार्षिकी ।
तस्मिन् पक्षे विशेषेण
पुरश्चरणमाचरेत् ।।१५६॥
देव्या बोधं समारभ्य यावत् स्यात्
नवमी तिथिः ।
प्रत्यहं प्रजपेमन्मन्त्रं सहस्त्र
भक्ति-भावतः ॥१५७।।
होमपूजादिकं चैव यथाशक्त्या विधि
चरेत् ॥१५८॥
सप्तम्यादौ विशेषेण
पूजयेदिष्ट-देवताम् ।
अष्टम्यादि नवम्यन्तमपवासपरो भवेत्
।।१५९।।
अष्टमी-नवमी रात्री पूजां कुर्यात्
महोत्सवैः ।
इत्थं जपादिकं कुर्यात् साधक:
स्थिरमानसः॥१६०॥
इस प्रकार से मानस पूजा करते हुये,
साधक को वर्ष में एक बार शरत् कालीन पूजा करना चाहिये। इसके साथ ही
उस पक्ष में एक बार विशेष रूप से पुरश्चरण करे।
देवी के बोधन से प्रारम्भ करके नवमी
पर्यन्त भक्तिपूर्वक प्रतिदिन सहस्त्र संख्यक इष्ट मंत्र जपे । यथा शक्ति होम पूजन
करते हुये सप्तमी आदि तिथियों में विशेषतः इष्ट देवार्चन करे । अष्टमी से नवमी
पर्यन्त उपवास करें । अष्टमी एवं नवमी की रात्रि में महान् उत्सव के साथ पूजन करे
। साधक को स्थिर चित्त होकर इस प्रकार से जपादि अनुष्ठान करना चाहिये ॥१५६-१६०॥
शक्त्या सह वारारोहे कुमारी-पूजनं
चरेत् ।
दशम्यां पारणं
कुन्मित्स्य-मांसादिभिः प्रिये ॥१६१।।
हे वरारोहे ! शक्ति के अनुसार कुमारी पूजन करे। हे प्रिये ! दशमी तिथि को मत्स्यमांसादि द्वारा पारण करे ।।१६१।।
एवं पुरनिया कृत्वा साधकः शिवतां
व्रजेत् ।
अथवान्य-प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते
॥१६२।।
शरत्काले महादेव्या बोधने च
महोत्सवे ।
प्रतिपत्तिथिमारभ्य नवम्यन्तं मम
प्रिये ।
पूर्वोक्त-विधिना मन्त्री कुर्यात्
पुरक्रियां धिया ॥१६३।।
साधक एवं विध पुरश्चरणानुष्ठान करके
शिवत्व प्राप्त करते हैं । अथवा "अन्य प्रकार से भी पुरश्चरण किया जा सकता
है। शरत्काल में शारदीया पूजा महोत्सव में महादेवी का बोधन प्रतिपदा से प्रारम्भ
करके नवमी पर्यन्त पूर्वोक्त विधि से करे ।।१६२-१६३।।
अथवान्य-प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते
॥१६४॥
शरत्काले चतुर्थ्यादि नवम्यन्तं
सहस्त्रकम् ।
जपित्वा प्रत्यह भद्रे सप्तम्यादी
प्रपूजयेत् ॥१६५।।
अथवा और एक प्रकार से पुरश्चरण कहा
गया है । शरत्कालीन चतुर्थी से लेकर नवमी पर्यन्त प्रतिदिन १००० जप करे । हे
भद्रे! सप्तमी-अष्टमी तथा नवमी को देवी पूजा करे ।।१६४-१६५।।
तथा सर्वोपचारेस्तु
वस्त्रालंकार-भूषणः ।
महिषैश्छागलै मषेश्चतुर्वर्ग
लभेन्नरः ॥१६६।।
और वस्त्रालंकार भूषण,
महिष, छाग तथा मेष प्रभृति उपचार द्वारा पूजा
करने से साधक चतुर्वर्ग धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्राप्त करता है ।।१६६।।
अष्टमी-सन्धि-बेलायां तेनैव विधिना
पशुम् ।
छित्वा तस्योपरि स्थित्वा
मध्य-नक्तं जपेत् सुधिः ।।१६७।।
अष्टमी सन्धि वेला में पशुओं का
छेदन करके साधक उस पर स्थित होकर मध्यरात्रि में जप करे ॥१६७।।
विभिान-परो भूत्वा वाञ्छितां
सिद्धिमाप्नुयात् ।
नवम्यां नियतं जप्त्वा पूजयित्वा
यथाविधि ।।१६८।।
नवमी को विधिपूर्वक पूजा करके
निरन्तर जप ध्यान करने से निर्भीक साधक अभीष्ट लाभ करता है !।१६८॥
गुरवे दक्षिणां दद्यात् दाम्यां
पारयेत्ततः ।
एवं कृत्वा पुरश्चर्यां किं न
साधयति साधकः ॥१६९॥
अथवान्य-प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
अष्टमी-सन्धि-बेलायामष्टोत्तर-
लता-गृहे ।।१७०॥
गुरु को
दक्षिणा प्रदान करके दशमी को पारण करे। इस प्रकार पुरश्चरण करने से समस्त वांछित
की प्राप्ति हो जाती है।
अन्य प्रकार से पुरश्चरण विधि
कहते हैं । अष्टमी की सन्धि बेला में साधक १०८ लता के गृह में प्रवेश करके सयत्न
लतागण (शक्ति) का पूजन करे ॥१६९-१७०॥
प्रविश्य मंत्री विधिवतासामभ्यय॑
यत्नतः ।
पूर्वोक्त-कल्पमासाद्य
पूजादिकमथाचरन् ।।१७१।।
केवलं कामदेवोऽसौ जपेदष्टोत्तरं शतम
।
महासिद्धौ भवेत् सद्यो
लता-दर्शन-पूजनात् ।।१७२॥
पूर्वोक्त विधि से लता गृह में जाकर
लता गण का पूजन करने पर केवल १०८ इष्ट मंत्र जप से ही साधक कामदेव तुल्य हो
जाता है। लता गण के पूजन तथा दर्शन से साधक महासिद्ध हो जाता है ॥१७१-१७२॥
लता-गहं श्रण प्रौढ़े कामकौतुक
लालसे ।
अष्टौ संख्या अतिक्रम्य
नव-संख्यादि-सांसिका ॥१७३।।
यौबनादि-गुणयुक्ताः साधिकाः काम
गविताः।
स्त्रियो यत्र गृहे सन्ति तद्गृहं
हि लता-गहम् ।।१७४॥
हे प्रौढ़े ! काम कौतुक लालसा
सम्पन्ने ! अब यह कहता हूँ कि लता गृह किसे कहते है ?
अष्ट संख्या अतिक्रम करके नव संख्या युक्त यौवन प्रभृति गुण
समन्विता कामविता साधिका ही लता है। जहाँ ऐसी लता निवास करती है, वही है लता गृह
।।१७३-१७४।।
अथवान्य-प्रकारेण परश्चरणमुच्यते ।
पूर्वोक्तानि महेशानि हेमन्तादि-गतौ
चरेत् ।
साधकः पूर्णतां प्राप्य
सर्व-भोगेश्वरो भवेत् ।।१७५।।
अथवा अब अन्य प्रकार से पुरश्चरण
करें। हे महेशानी ! हेमन्तादि ऋतु में पूर्वोक्त विधि से अनुष्ठान करने पर समस्त
भोगाधिपतित्व प्राप्त हो जाता ॥१७५॥
अथवान्य-प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते
॥१७६॥
चतुर्दशी समारभ्य यावदन्या चतुदशी ।
ताबज्जप्ते महेशानि मंन्त्री
बांञ्छितमाप्नुयात ॥१७७॥
अन्य प्रकार से पुरश्चरण कहा जाता
है। चतुर्दशी से प्रारम्भ करके, जब तक दुबारा
चतुर्दशी न आये, तब तक जप करने से अभीष्ट प्राप्त होता है।
॥१७६-१७७।।
अथवान्य-प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
कृष्णाष्टम्यां समारभ्य यावत्
कृष्णाष्टमी भवेत् ॥१७८।।
सहस्त्र-संख्या जप्ते तु
पुरश्चरणमिष्यते ।
यत् कृत्वा परमेशानि सिद्धिः
स्यान्नात्र संशयः ॥१७९।।
यह अन्य प्रकार का पुरश्चरण है। कृष्णाष्टमी
से प्रारम्भ करके द्वितीय कृष्णपक्षीय अष्टमी ( अर्थात् एक माह ) पर्यन्त प्रतिदिन
१००० जप करे । हे महेशानी ! इससे सर्व सिद्धि प्राप्त होती है ।।१७८-१७९।।
अथवान्य-प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
कृष्णां चतुर्दशी प्राप्य नवम्यन्त
महोत्सवे ॥१८०॥
अष्टमी नवमी-रात्रौ पूजां
कुर्याद्विशेषतः ।
दक्षम्यां पारणं
कुन्मित्स्य-मांसादिभिः प्रिये ।
षट-सहस्त्रं जपेन्नित्यं भक्तिभाव
परायणः ॥१८१॥
अन्य पुरश्चरण-देवी
पूजा प्रभृति महोत्सव में कृष्णा चतुर्दशी से नवमी तक इष्ट पूजन करे । अष्टमी-नवमी
की रात्रि में विशेष पूजन करे। दशमी को मत्स्य मांस आदि द्वारा पारण करे। पूर्वोक्त
दिनों में प्रतिदिन भक्तिपूर्ण होकर ६०० मंत्र जपे ।।१८०-१८१।।
अथैवान्य-प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते
।
अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां नवभ्यां
वीरवन्दिते ॥१८२॥
सूर्योदयं समारभ्य यावत सर्योदयो
भवेत् ।
तावज्जप्ते निरातङ्कः सर्व
सिद्धिश्वरो भवेत् ॥१८३॥
अन्य पुरश्चरण-हे
वीर वन्दिते ! देवि ! अष्टमी, नवमी, तथा चतुर्दशी को सूर्योदय से लेकर पुनः सूर्योदय होने तक जप करने से
सर्वसिद्धि का अधिपत्य प्राप्त होता है ।।१८२-१८३॥
अथैवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते
।।१८४॥
अष्टभ्याश्च चतुर्दश्यां
पक्षयोरुभयोरपि ।
अस्तमारभ्य सूर्यस्य यावत
सूर्यास्तमं भवेत् ।
तावज्जप्तो निरातङ्कः सर्व
सिद्धिश्वरो भवेत ॥१८५॥
अन्य प्रकार से पुरश्चरण-शुक्ल
तथा कृष्णपक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी को सूर्यास्त से प्रारम्भ करके पुनः
सूर्यास्त पर्यन्त निरांतक जप करने से सर्व सिद्धीश्वरता प्राप्त हो जाती है
।।१८४-१८५।।
अयवा निर्जनस्थस्य अस्थिशय्यासनेन च
।
उदयान्त दिवा जप्त्वा सर्व
सिद्धिश्वरो भवेत ।।१८६।।
अथवा निर्जन में अस्थियों का आसन
बनाकर सूर्योदय से सूर्यास्त तक जप करें। सर्व सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।।१८६।।
तेनासनेन वा देवी अन्तमारभ्य
भास्वतः।
जपित्वा चास्त-पर्यन्तं साधक:
सिद्धिमाप्नुयात ॥१८७॥
जपान्ते पूजयित्वा च गुरवे दक्षिणां
वदेत ॥१८८।।
अथवा उसी आसन पर पूर्व दिन के
सूर्यास्त से प्रारम्भ करते हुये दूसरे दिन सूर्यास्त तक निरन्तर जप करने पर साधक
को सिद्धि मिल जाती है । जपान्त में पूजा समापन करते हुये गुरु को दक्षिणा
प्रदान कर ॥१८७-१८८।।
अथवान्य-प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ।
सूर्योदयं समारभ्य घटिका च
दश-क्रमात ॥१८९।।
ऋतवः स्युर्वसन्ताद्या अहोरात्र
दिने-दिने ।
वसन्तो ग्रीष्मों वर्षा च
शरद्धेमन्त-शिशिराः ॥१९०॥
वसन्तश्चैव पूर्वान्हे ग्रीष्मो
मध्यन्दिनं तथा ।
अपरान्हे प्रावृषः स्युः प्रदोषे
शरदः स्मृताः।
अर्धरात्रौ तु हेमन्तः शेषे च
शिशिरः स्मृतः ।।१९१॥
अन्य पुरश्चरण-प्रतिदिन
सूर्योदय से दश घटी तक बसन्त प्रभृति ऋतु आते जाते हैं । पूर्वाह्न वसन्त है,
मध्यम ग्रीष्म है, अपराह्न वर्षा, प्रदोष में शरद्, अर्धरात्रि
में हेमन्त एवं शेष रात्रि में शिशिर जाने ॥१८९-१९१॥
सूर्योदयं समारभ्य वसन्तान्तं
समाहितः।
तावज्जप्ते महेशानि पुरश्चर्या हि
सिद्ध्यति ॥१९२॥
तत: पूजादिकं कृत्वा शक्ति-युवतश्च
साधकः ।
गुरवे दक्षिणां दत्वा सर्व
सिद्धिश्वरो भवेत् ॥१९३॥
सूर्योदय से बसन्त के अन्त तक साधक
समाहित होकर जप करे । हे महेशानी ! इससे पुरश्चरण सिद्ध हो जाता है। तदनन्तर अपनी
शक्ति के साथ युक्त होकर पूजा करने के पश्चात गुरु को दक्षिणा दे। इससे सर्वसिद्धि
आयत्त हो जाती है ।।१९२-१९३।।
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
ग्रीष्मादिषु-महेशानि पञ्चस्वतः
साधकः ।
पृथग जप्त्वा वरारोहे पुरश्चर्या हि
सिध्यति ॥१९४।।
अन्य विधि-हे
महेशानी! हे वरारोह। यदि साधक इसी ग्रीष्मादि पंचऋतु में पृथक्-पृथक् रूप से जप
करता है,
तब पुरश्चरण सिद्ध हो जाता है ।।१९४॥
पूर्वोक्त-विधिना सर्व कर्त्तव्यं
वीर-वन्दिते ।
ऋतौ जप्त्वा समस्ते तु शक्तितः
पूजयेत् पराम् ॥१९५॥
एचमाचार्य कृत्यं व धनानामीश्वरो
भवेत. ॥१९६।।
हे वीरवन्दिते ! पूर्वोक्त विधि के
अनुसार सब करे । सभी ऋतु में (एक ही दिन में समस्त ऋतु में ) यथाशक्ति जप करते
हुये देवी पूजन करें । इस प्रकार समस्त अनुष्ठान सम्पन्न करने पर साधक धनेश्वर हो
जाता है ॥१९५-१९६॥
अथवान्य-प्रकारण पुरश्चरण मुच्यत ।
कुमारी-पूजनादेव पुरश्चर्या-विधि
स्मृतः ॥१९७॥
अथवा केवल कुमारी पूजा करने
से भी पुरश्चरण जनित फल मिल जाता है ॥१९७॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
गुरुमानीय संस्थाप्य देववत्
पूजयेद्विभुम् ।
वस्त्रालंकार-भूषाद्यः स्वयं
सन्तोषयेद् गुरुम् ।।१९८।।
अन्य विधि-गुरु
को बैठाकर उनका पूजन देववत् करे । वस्त्र, आभूषण
तथा अलंकारादि से सन्तुष्ट करे ।।१९८॥
तत्सुतं तत्सुतं वापि तत्पत्निंञ्च
विशेषतः ।
पूजयित्वा मनुं जप्त्वा सर्व
सिद्धीश्वरो भवेत् ॥१९९॥
अथवा गुरु पुत्र किवा गुरु पौत्र
अथवा विशेष रूप से गुरु पत्नी की पूजा कर । पूजा समापन मंत्र जपे । इससे
सर्वसिद्धि मिल जाती ।।१९९।।
गुरु-सन्तोष-मात्रेण
दुष्ट-मंत्रोऽपि सिद्ध्यति ।
मासि-मासि च मंन्त्रस्य संस्कारान्
दशवा चरेत् ।।२००॥
एवं क्रम-विधानेन कृत्वा नित्यं हि
साधकः।
षण्मासाभ्यन्तरे वापि
एक-वर्षान्तरेऽपिवा ॥२०१।।
खाधनैः सुभगे भद्रे यदि सिद्धिनं
जायते ।
उपायास्तत्र कर्तव्याः सत्यमेतन्मतं
श्रृणु ॥२०२॥
गुरु के सन्तोष मात्र से दुष्ट
मंत्र भी सिद्ध हो जाते हैं। मास-मास में मंत्र का दशधा संस्कार करे । जैसे जनन,
जीवन, ताड़न, बोधन,
अभिषेक, विमलीकरण, आप्यायन,
तर्पण, दीपन तथा गुप्ति
। इस विधि से निरवच्छिन्न साधन द्वारा साधक छ मांस में अथवा एक वर्ष में सिद्धि
प्राप्त कर लेना चाहिये । यह मेरा मत है । उस उपाय का श्रवण करो ॥२००-२०२।।
ख्यातिर्वाहन-भूषादि-लाभः सुचिर
जीविता ।
नपाणां तत् कुलानाञ्च वात्सल्यं लोक
वश्यता ।।२०३।।
महाश्वर्य नित्यञ्च
पुत्र-पौत्रादि-सम्पदः ।
अधमा सिद्धयो भद्रे षण्मासाभ्यन्तरे
यदि ॥२०४॥
एक-वर्षान्तरे वापि सन्ति
शंङ्कर-वन्दिते ।
साधकाश्च तदा सिद्धा नात्र कार्या
विचारणा ॥२०५॥
ख्याति,
वाहन तथा भूषणादि लाभ, चिरजीविता, नृप तथा नृप की कृपा लाभ, समस्त लोक वशीकरण, महा ऐश्वर्य प्राप्ति, नित्य पुत्र-पौत्रादि
सम्पत्ति लाभ को अधम सिद्धि कहते हैं । हे भद्रे ! इन्हें छ मांस अथवा एक वर्ष में
प्राप्त हो जाना चाहिये। हे शंकर वन्दिते ! यदि यह सब उक्त समय में प्राप्त हो
बाये, तब साधक को सिद्ध मानना होगा । इसमें अन्य विचारणा की
आवश्यकता नहीं है ॥२०३-२०५॥
अत्रोपायान् प्रवक्ष्यामि यदि
सिद्धि-विलम्बनम् ।
भ्रमणं बोधनं वश्यं पीडनश्च तथा
प्रिये ।।२०६॥
पोषणं तोषणञ्चैव दहनञ्च ततः परम् ।
उपायाः सन्ति सप्तते कृत्वा त्रेता
युगेषु च ॥२०७।।
यदि सिद्धि प्राप्ति में विलम्ब
होता है तब हे प्रिये! भ्रामण, बोधन, वश्य, पीड़न, पोषण, तोषण तथा दहनादि सप्त उपाय त्रेता में शस्त है। ॥२०६-२०७॥
द्वापरे च तथा भद्र उपायं सप्तमं
स्मृतम् ।
न प्रशस्तं कलौ भद्रे सप्त शंकर
भाषितम् ॥२०८॥
ये द्वापर में भी प्रशस्त हैं
किन्तु कलिकाल में प्रशस्त नहीं है। यह शंकर का कथन है ।।२०८।।
डाकिन्यादि-युतं कृत्वा लक्षञ्च
प्रजपेन्मनम् ।।२०९।।
डाकिनी पुटितं कृत्वा यदि सिद्धिनं
जायते ।
राकिनी-पुटित कृत्वा लक्षञ्च
प्रजपेन्मनम ॥२१०।।
तब डाकिनी आदि युक्त करके एक
लाख जप करे। यदि तब भी सिद्धि नहीं मिलती तब राकिनी पुटित करके लक्ष जप
करें ।।२०९-२१०।।
राकिनी पुटितं कृत्वा यदि सिद्धिर्न
जायते ।
लाकिनी पुटितं कृत्वा लक्षञ्च
प्रजपेन्मनम् ।।२११॥
लाकिनी पटितं कत्वा यदि सिद्धिन
जायते ।
काकिनी पटितं कृत्वा लक्षं च
प्रजपेन्मनम् ॥२१२॥
काकिनी पटितं कृत्वा यदि सिद्धिन
जायते ।
शाकिनी पुटितं कृत्वा लक्षञ्च
प्रजपेन्मनम् ।।२१३॥
हाकिनी पुटितं कृत्वा जपल्लक्षं
समाहितः ॥२१४॥
राकिनी
पुटित मंत्र से सिद्धि न होने पर लाकिनी का लाकिनी से सिद्धि न होने
पर काकिनी का, काकिनी पुटित से सिद्धि न मिलने पर शाकिनी पुटित मंत्र का लक्ष जप करे। शाकिनी
पुटित मंत्र समाहित चित्त से एक लाख जपे अन्यथा हाकिनी से पुटित लक्ष बार
जपे ।।२११-२१४॥
तदा सिद्धो भवेन्मंत्रो नात्र
कार्या विचारणा ।
हाकिनी पुटित कृत्वा यदि सिद्धिर्न
जायते ।
पुटितं सत्वरूपिण्या लक्षञ्च
प्रजन्मनम् ॥२१५॥
पू.टितं सत्वरूपिण्या यदि सिद्धिनं
जायते।
ककारादि क्षकारान्ता मातृका
वर्ण-रूपिणी ॥२१६॥
तथा सम्पटितं कृत्वा लक्षञ्च
प्रजपोन्मनम् ।
छिन्न-विद्यादी
मन्त्रातन्त्र-तन्त्र निरूपिताः ।।२१७॥
तब सिद्धि मिल जाती है। यदि इतने पर
भी सिद्धि न मिले तब सत्वरूपिणी का एक लाख जप करे । सत्वरूपिणी पुटित मन्त्र से भी
सिद्धि न मिलने पर ककारादि से क्षकार पर्यन्त वर्णरूपिणी मातृका की शरण ले
और उससे सम्पुटित करके एक लाख जप करे। छिन्न विद्या प्रभृति मंत्रों को समस्त
तन्त्रों ने निरूपित किया है ।।२१५-२१७॥
एते ते सिद्धि मायान्ति
मातका-वर्ण-भावतः ।
निश्चितं मन्त्रसिद्धि स्यानात्र
कार्या विचारणा ॥२१८।।
वर्णमयो प टीकृत्य यदि सिद्धिन
जायते ॥२१९॥
मातृका सम्पुटित मंत्रों से
भिन्न-भिन्न सिद्ध मिलती है। इससे मंत्र सिद्धि होती है। मातृका वर्ण सम्पुटित
मन्त्रों के जाप से विभिन्न सिद्धि मिलती है ॥२१८-२१९।।
ततो गुरुं पटीकृत्य लक्षञ्च
संजयेन्मनम् ।
गुरुदेव-प्रसादेन अतुलां
सिद्धिमाप्नुयात् ।। २२०॥
वर्णरूपिणी मातृका सम्पुटित जप से
भी यदि सिद्धि न मिले तब गुरुबीज पुटित मन्त्र द्वारा लक्ष जप करे । गुरुदेव की
कृपा से अतुला सिद्धि मिलती है ॥२२०॥
श्री पार्वत्युवाच
आदिदेव महादेव आद्यन्त-गोपनं वद ।
यदि नो कथ्यते देव विमुञ्चामि
तदा-तनुम् ।।२२१॥
श्री पार्वती
कहती है-हे आदिदेव महादेव ! आदि तथा अन्त की गोपनीयता का उपदेश करें। हे
देव ! अन्यथा मैं शरीर त्याग कर दूंगी ।।२२१॥
श्री ईश्वर उवाच
आद्यन्त-गोपनं सूक्ष्मं कथं तत्
कथयाम्यहम् ।
जम्बद्वीपस्य वर्षेषु कलौ लोकाधमाः
स्मृताः ।।२२२॥
गुरु भक्ति-विहीनाश्च भविष्यन्ति
पहे-गहे ।
दृष्क्रियायां रताः सर्वे परमज्ञान
लिताः ॥२२३॥
लौकिकाचारिणः सर्वे भविष्यन्ति
गहे-गहे ।
बिना शब्द-परिज्ञानं मन्त्रक्षता
द्विजो भवेत् ॥२२४॥
मम सः श्रीमती-मंत्रः संसारोभन
बन्धनात् ।
कथ्यते देव-देवेशि मन्त्र सर्वत्र
सिद्धिदः ॥२२५।।
जायते तेन में शङ्का कथं में
प्राणवल्लभे ॥२२६॥
श्री ईश्वर
कहते है- आदि और अन्त, गोपन एवं सूक्ष्म
है। उसे मैं कैसे कह सकता हूँ? कलिकाल में
जम्बूद्वीपान्तर्गत् में लोकाधाम है। प्रत्येक गृह में गुरु भक्ति विहीनता है और
सभी दुष्कर्म युक्त होकर परम ज्ञान से वर्जित है।
प्रत्येक घर वालों के लिये लोकाचार
ही प्रधान हो जाता है। जिन्हें शब्द परिज्ञान नहीं है,
ऐसे लोग मंत्रदाता हो गये हैं।
मेरा वह श्रीमती मंत्र जिससे
संसारोद्भव बन्धन से प्राण मिलता है सर्वत्र सिदि प्रद है। हे देवदेवेशि ! हे
प्राण वल्लभे ! ऐसे सिद्धि प्रद मंत्र के रहने संशय चित्त होने का क्या कारण है
।।२२२-२२६॥
श्रो भैरव्युबाच
भतनाथ महाभाग हृदये में कृपां कुरु
।
कथ्यतां कथ्यतां देव यतस्ते सेविका
वयम् ।।२२७॥
श्री भैरवी
कहती हैं-हे भूतनाथ ! हे महाभाग ! मुझ पर कृपा करें! हे देव कृपया कहें ! मैं आपकी
सेविका हूँ ॥२२७॥
श्री ईश्वर उवाच
सुभगे शृण में मातः क पया कथयामि ते
।
प्रथमें डाकिनी बीजं युवती
षोडशाक्षरम् ।।२२८।।
अं आं इंईं उं ऊं ऋं ऋॄं लृं लॄ एं
ऐं ओं औं अं अः ।
डाकिनी देव-देवस्य ईरितं
बोजमुत्तमम् ॥२२९।।
आद्यन्त-प टितं कृत्वा मन्त्रं
लक्षं जपेद् यदि ।
तदा सिद्धो वरारोहे नान्यथा वचनं मम
॥२३०॥
अधुना संम्प्रवक्ष्यामि
राकिनी-बीजमद्भुतम् ।
एकोच्चारण-मात्रेण
सत्यस्त्रेता-युगे भवेत् ॥२३१।।
कखं गं घ ङ च छ ज झंत्रदश तथा
महेश्वरी ।
इति ते कथित भक्त्या राकिनी बीज-मद्भुतम्
॥२३२॥
श्री महादेव
कहते हैं-हे सुभगे ! हे मातः ! श्रवण करो। मैं कृपावशात् प्रथमतः यौवन सम्पन्ना
षोडशाक्षरी डाकिनी बीज कहता हूँ।
अं आं इंईं उं ऊं ऋं ऋॄं लृं लॄ एं
ऐं ओं औं अं अः! यह षोडशाक्षर डाकिनी बीज है, जो देवाधिदेवों का भी अभीष्ट है।
मंत्र के आदि और अन्त में सम्पुटित
करके एक लाख जप करे । हे वरारोहे ! इससे मंत्र सिद्धि होती है । मेरा वचन अन्यथा
नहीं होता। . अब अद्भुद् राकिनी बीज सुनो। इसका एक बार उच्चारण करने मात्र से त्रेता
भी सत्ययुग हो जाता है।
कं खं गं घं चं छं जं झं ञं,
यह दशाक्षरी राकिनी बीज है। तुम्हारी भक्ति देखकर यह बीज
मंत्र कहा गया है ।।२२८-२३२।।
टं ठंडं ढं ण त थ द धं नं दशक
परमेश्वरी ।
इति ते कथित भक्त्या लाकिनी बीज
निर्णयम ।
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि काकिनी
सिद्धि दायिनीम् ।।२३३।।
पं फं बं भं मं यं रं लं अष्टाणः
वीर वन्दिते ।
कथित काकिनी-बीजं
चतुर्वर्ग-फलप्रदम् ।।२३४।।
हे परमेश्वरी ! टं ठं डं ढं णं तं
थं दं धं नं यह दशाक्षरी लाकिनी बीज है। अब सिद्धिप्रद काकिनी बीज कहता हूँ
जो चतुर्वर्ग फलप्रद है। पं फं बं भं मं यं रं लं । हे वीर वन्दिते ! यही अष्टार्ण
काकिनी बीज है ।।२३३-२३४॥
अधुनां सम्प्रवक्ष्यामि सुभगे श्रण
शाकिनीम् ।।२३५॥
वं शं षं सं चतुर्वण
वांछितार्थप्रदं प्रिये ।
इदन्तु शाकिनी-बीजं चतुर्वर्ग
प्रदायकम् ।।२३६।।
हे सुभगे ! अब शाकिनी बीज
सुनो। वं शं षं सं, यह चतुर्वर्ण
इच्छित फल तथा चारो वर्ग प्रदान करने वाले है ।।२३५-२३६।।
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि सुभगे श्रृणु
हाकिनोम् ।
हं लं क्षं हाकिनी-बीजं
क्षिप्रसिद्धि प्रदायकम् ॥२३७॥
सस्वस्वरूपिणी बीजं श्रृण
सिद्धि-प्रदायकम् ।
अंआं इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल ए ऐ ओं औं अं
अः।
षोडशार्ण महाबीजं सत्वमध्ये
प्रकीतितम् ।।२३८।।
हे सुभगे ! डाकिनी बीज सुनो।
हं लं क्षं बीज क्षिप्रता से सिद्धि देते हैं। अब सत्वस्वरूपिणी का बीज सुनो जो
सर्वसिद्धि प्रदायिका है। अं आं इंईं उं ऊं ऋं ऋॄं लृं लॄ एं ऐं ओं औं अं अः यह षोडशाक्षर
महाबीज सत्य स्वरूपिणी का है ॥२३७-२३८॥
रजस्वरूपिणी वीजं
शीघ्रसिद्धि-प्रदायकम् ।
कं खं गं घ ङ च छ ज झ ट ठंडढंणं तं
थं ।
इदं सप्तदशार्ण हि रजोमध्ये
प्रकीतितम् ।।२३९।।
अब शीघ्र सिद्धिदात्री
रजस्वरूपिणी बीज सुनो। कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं । यह
सप्तदशार्ण मन्त्र रजोगुण में स्वीकृत है ।।२३९।।
रम्यं तमोमयी-बीज अधुना ते
वदाम्यहम् ।
दं धं नं पं फंबंभ म य रं लं वं शं
षं सं हं लं क्षं ।
इदं सप्त दशार्ण हि तमोमध्ये
उदाहृतम् ॥२४०॥
यह दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं
लं वं शं षं सं हं लं क्षं रूपी सप्तदशार्ण मंत्र तमोमयी बीज है ॥२४०।।
अधुना सम्प्रयक्ष्यामि मातृका बीज
मद्भुतम् ॥२४१।।
अं आं इंईं उं ऊं ऋं ऋॄं लृं लॄ एं
ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं
फंबंभ म य रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं ।
इदं पञ्चाशदर्ण हि मातृकाया
प्रकीतितम् ॥२४२।।
अब अद्भुद् मातृका बीज सुनो।
उपरोक्त ५० वर्ण ही मातृका हैं ॥२४१-२४२।।
अनुलोमविलोमेन पुटीकृत्य जपं चरेत्
।
लक्षं यावन्महेशानि ततः सिद्धो न
संशयः ।।२४३॥
गुरुबीजं समुद्दिष्टं
गुरुरित्यक्षर-द्वयम् ।।२४४।।
इष्ट मंत्र के साथ-साथ मातृका बीज
को अनुलोम विलोम क्रम से जप करे । हे महेशानी ! इस प्रकार लक्ष जाप करने पर
निसंदिग्ध रूप से सिद्धि मिलती है। "गुरु" इस द्वयक्षर को ही गुरु
बीज कहते हैं ।।२४३-२४४।।
डाकिनी राकिनी देवि लाकिनी काकिनी
ततः ।
शाकिनी हाकिनी संज्ञा सत्व-रूपा तत:
प्रिये ।
रजोरूपा तमोरूपा मातृका रूपिणी
गुरुः ॥२४५।।
हे देवि ! डाकिनी,
राकिनी, लाकिनी, काकिनी,
शाकिनी तथा हाकिनी एवं सत्व स्वरूपिणी हैं। तदनन्तर रजोरूपा,
तमोरूपा एवं मातृकारूप एवं गुरु है ॥२४५॥
एतास्तु परमेशानी मूत्तिः
पञ्चाशदक्षरम् ।
डाकिनी च महादेवि अणिमा-सिद्धि
दायिनी ॥२४६।।
शाकिनी लधिमा-सिद्धिदायिनी लाकिनी
तथा ।
प्राप्ति सिद्धि-दायिनी च काकिनी
काम्य-दायिनी ॥२४७।।
शाकिनी माहिमा-सिद्धि-दायिनी हाकिनी
ततः ।
कामावशायिता-सिद्धि जपादेव
प्रयच्छति ॥२४८।।
हे परमेशानी! यह सब ५० अक्षर ही मूर्त्ति
है। हे महादेवी ! डाकिनी अणिमा सिद्धि देती हैं। राकिनी तथा लाकिनी लघिमा
सिद्धि तथा काम्यफल प्रदायिनी । काकिनी-प्राप्तिरूप सिद्धिदात्री। शाकिनी-महिमा
सिद्धिदात्री । हाकिनी-कामवशायिता सिद्धिदात्री कही गयी है ॥२४६-२४८।।
सत्वरूपा तमोरूपा रजोरूपा तथैव च ।
एताश्चेव महादेवि चतुर्वर्ग ददन्ति
हि ॥२४९।।
हे महादेवि ! सत्वरूपा-रजोरूपा तथा
तमोरूपा धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष देता है ॥२४९॥
पञ्चाशद्वर्णरूपा या निर्वाणं सा
ददाति हि ।
गुरूर्ददाति सकलं
ब्रह्माण्ड-ज्ञानमव्ययम् ॥२५०।।
इति ते कथितं भक्त्या
डाकिन्यादि-विनिर्णयम् ।।२५१।।
यह ५० वर्ण रूपा मातृका देवी निर्वाण
देती है। गुरु अन्यथा ब्रह्माण्ड ज्ञान देते हैं। तुम्हारी भक्ति से मुग्ध होकर इस
प्रकार का विवरण दिया । डाकिनी आदि वर्गों की देवता है ।।२५०-२५१॥
डाकिनी राकिनी चंद लाकिनी काकिनी
तथा ।
शाकिनी डाकिनी देवी वर्णानामंत्र
देवता ।।२५२॥
डाकिनी,
राकिनी, लाकिनी, काकिनी,
शाकिनी, हाकिनी वर्ण की मंत्र देवता है ।२५२।।
गुणानां सिद्धि वर्णानां षड़ेते
अधिदेवताः ।
डाकिनादेविना ज्ञानं वर्णे वर्णे
पृथक् पृथक् ।
अज्ञानात् प्रजन्मत्रं
डाकिन्यादेश्च भक्षणम् ।।२५३।।
बिना वर्ण-परिज्ञानम् कोटि
पुरश्चरणेन किम् ।
तस्य सर्व भवेद् दुःखमरण्ये रोदानं
यथा ।।२५४॥
शृण व्यानं प्रवक्ष्यामि डाकिनीनां
शुचिस्मिते ॥२५५।।
सिद्धिप्रद वर्ण के उक्त छ: अधिदेवता
है। प्रत्येक वर्ण का पृथक्-पृथक् रूप से (डाकिनी प्रभूति के ज्ञान के बिना) मंत्र
जप करने पर यह मंत्र डाकिनी आदि द्वारा भक्षित हो जाता है।
इनके ज्ञान के बिना करोड़ों
पुरश्चरण भी व्यर्थ है । अतः अरण्य में रोदन करने के समान मन्त्र जपने वाला दुःख
का भागी हो जाता है। हे शुचिस्मिते ! मनोयोग से डाकिनी आदि का ध्यान सुनो
॥२५३-२५५।।
ध्यानानि
शरच्चन्द्र प्रतीकाशां द्विभुजां
लोललोचनाम् ।
सिन्दूर-तिलकोद्दीप्त-अञ्जनाजित
लोचनाम् ॥२५६।।
कृष्णाम्बर-परिधानां नानालंडार
भूषिताम् ।
ध्याये च्छशिमखीं नित्या
डाकिनी-मन्त्र सिद्धये ॥२५७॥
ध्यान कहते
हैं। शरतकालीन चन्द्र के समान शुभ्रा, द्विभुजा,
चंचल लोचना, सिन्दूर तिलक द्वारा उद्दीप्ता
तथा अञ्जन से अन्चित लोचनों वाली, कृष्णाम्बर परिधान युक्ता,
नानालंकार भूषिता शशिमुखी डाकिनी देवी का ध्यान करने से
मंत्र सिद्धि हो जाती है ।।२५६-२५७।।
अरुणादित्य-संकाशा द्विभुजां
मृगलोचनाम् ।
सिन्दूर -
तिलकोद्दीप्त-अंजनाजित-लोचनम् ।।२५८।।
शुल्काम्वर परिधानां नानाभरण
भूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं राकिनी
मंत्रसिद्धये ।।२५९।।
नवोदित आदित्य के समान दीप्ति वाली,
द्विभुजा, मृगलोचना, सिन्दुर
तिलक से शोभिता, अंजन युक्त नेत्रों वाली, शुल्काम्बर परिधान युता, नाना आभरण विभूषिता शशिमुखी
राकिनी का ध्यान करने से मंत्र सिद्धि (राकिनी मन्त्र सिद्धि ) हो जाती है
॥२५८-२५९।।
सिन्दूरवर्ण-संशाशा द्विभुजां खंज
नेक्षणाम् ।
सिन्दूर तिलको
द्दीप्तं-अंजनाजित-लोचनम् ॥२६०।।
शुक्लाम्बर-परिधानां नानालङ्कार
भूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं लाकिनी
मंत्रसिद्धये ॥२६१।।
सिन्दूर के समान रक्तवर्णा,
द्विभुजा, खंजन नयना, सिन्दूर
तिलको से दीप्ता, अंजन अंजित नेत्रों वाली, शुक्लाम्बर परिधाना, नाना अलंकार भूषिता शशिमुखी लाकिनी
देवी के ध्यान से उनके मन्त्र की सिद्धि होती है ॥२६०-२६१॥
यवा-यावक संकाशां द्विभुजां
खंजनेक्षणाम् ।
सिन्दूरतिलकोहीप्त मंजनाजित लोचनाम्
।।२६२॥
शुक्लाम्बर परिधानां
नानाभरणभूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिसखीं नित्यं
काकिनी-मन्त्रसिद्धये ।।२६३॥
आलवतक (आलता) के समान रक्त वर्णा,
द्विभुजा, खंजन के समान चपल नेत्रों वाली,
तिलकोद्दीप्ता, अंजन अंजित चक्षयुतां, श्वेत वसन परिधाना, नाना अलंकारों से विभूषिता
शशिमुखी राकिनी के ध्यान से उनका मन्त्र सिद्ध हो जाता है ।।२६२-२६३।।
शुक्लज्योतिः प्रतीकाशा द्विभजां
मृगलोचनाम् ।
सिन्दूर तिल कोद्दीप्त अंजनाजित
लोचनाग ॥२६४।।
कृष्णाम्बर परिधानां नानालंकार
भूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं शाकिनी
मंत्र सिद्धये ॥२६५।।
शुभ्र ज्योति स्वरूपा,
द्विभुजा, मृगलोचना, सिन्दूर
तिलक से उद्दीप्ता, अंजनाजित लोचना, कृष्णाम्बर
परिधाना, नाना अलंकार विभूषिता, शशिमुखी
शाकिनी का ध्यान करने से उनके मन्त्र सिद्ध हो जाते है ॥२६४-२६५।।
शुक्ल-कृष्णारुणाभासा द्विभुजां
लोल-लोचनाम् ।
भ्रमद् भ्रमर संडाशां
कुटिलालक-कुन्तलाम ॥२६६।।
सिन्दूर - तिलकोद्दीप्त -
अजनाजित-लोचनाम् ।
रक्त वस्त्र-परिवानां शुक्ल -
वस्त्रोत्तरीयिणीम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं
हाकिनी-मंत्रसिद्धये ॥२६७।।
जिनको दीप्ति शुक्ल कृष्ण तथा अरुण
है,
जो द्विभुजा, लोल लोचना है, भाम्यमाण भ्रमर की तरह जिनकी केशराशि कुन्तल है, जो सिन्दूर तिलक से उद्दीप्त है, अंजनांजित लोचनों
वाली है, रक्त वस्त्र पहनती हैं, जिनका
उत्तरीय श्वेत है, ऐसी शशिमुखी हाकिनी का ध्यान करने
से उनका मन्त्र सिद्ध हो जाता है ।।२६६-२६७॥
त्रिगुणायाश्च देवेशि ध्यानं पूर्व
उदाहृतम् ।
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि
मातृका-ध्यानमुत्तमम् ।।२६८।।
पंञ्चाशल्लिपिभिर्विभक्त-मुखदोःपन्मध्य-पक्षस्थलीम्,
भास्वन्मौलि-निबद्ध-चन्द्र-शबालामापीन-तुङ्गस्तनीम्
।
मुद्रामक्षगुणं सुघाड्य कलशं
विद्याश्च हस्ताम्बुज ।
विभ्राणां विशप्रभा त्रिनयनां
वाग्दे तामाश्रये ॥२६९।।
हे देवेशि ! त्रिगुणमयी सत्व,
रज एवं तमः रूपा का ध्यान पूर्वकथित है । अब उत्कृष्ट मातृका ध्यान सुनो।
५० लिपियों के मातृका ध्यान द्वारा
मुख,
हस्त, चरण, कटि तथा
वक्षस्थल विभक्त हो गया है। जिनकी मौलि में देदीप्यमान चन्द्र खण्ड निबद्ध है,
जो पीनस्तनी है, कर कमलों में मुद्रा, अक्षमाला, अमृत कलश तथा पुस्तक धारण करती है,
जो विशद प्रभा से युक्त है, जो तीन नेत्रों
वाली है, हम उन वागदेवता की शरण लेते है ।।२६८-२६९।।
गुरोरपि महेशानि
पूर्वोक्त-ध्यानमाचरन् ।
पाद्यादिभिर्वरारोहे-सांम्पूज्य
प्रजपेन्मनूम् ।।२७०।।
हे महेशानी ! गुरुदेव का भी
पूर्वोक्त ध्यान करे! हे वरारोहे ! उन्हें पाद्यादि द्वारा सम्पूजित करके पूजा समापनार्थ
मन्त्र जप करे ।।२७०।।
पूर्वोक्तः यस्य यदी तन्मत्रं तस्य
निर्णयम् ।
अंडाकिन्यं नमः स्वाहा कं राकिन्यै
नमस्तत: ॥२७१।।
टंलाकिन्यै नमः स्वाहा पं काकिन्यै
नमस्ततः ।
वं शाकिन्यै नमः स्वाहाहं हाकिन्यै
नमस्ततः ।।२७२॥
तत्तत् ध्यानेन इत्युक्त्वा पूजयेदुपचारतः
॥२७३॥
पहले जिसका जो बीज कहा है,
उसी से उनका मन्त्र निर्णीत होता है। जैसे अं डाकिन्यै नमः
स्वाहाः । कं राकिन्यै नमः स्वाहा, टं लाकिन्यै नमः
स्वाहा, पं काकिन्यै नमः स्वाहा, वं
शाकिन्यै नमः स्वाहा, हं हाकिन्यै नमः स्वाहा । उन-उन देवियों का पूर्व कथित ध्यान करके इस-इस मन्त्र का उच्चारण करते
हुये उपचार पूर्वक पूजन करे ।।२७१-२७३।।
उक्त बीजेन पुटितं कृत्वा मंत्र
जपेत् यदि ।
तदा सिद्धो भवेन्मत्रो
शापादिदोषदूषितः ।।२७४॥
तदनन्तर पूर्वोक्त बीज में सम्पूटित
मन्त्रों का जप करना चाहिये । इससे मन्त्रों का शापादि विमोचन होता है और
मन्त्रसमूह सिद्ध हो जाते है ।।२७४।।
इति ते कथितं दिव्यं कलि कालस्य
सम्मतम् ।।२७५।।
कलौ भारतवर्षे च नान्यद्वर्ष कदाचन
।
शमादि-षोडश-भाण्डारं
डाकिनी-सिद्धि-संयुतम् ।।२७६॥
इस प्रकार जो कलिकाल में दिव्य है
उसे कहा गया । कलियुग में भारतवर्ष के समान कोई वर्ष नहीं है। डाकिनी सिद्धि से
शमादि षोडश भण्डार प्राप्त हो जाते हैं ॥२७५-२७६॥
चण्डिकादि दश-भाण्डारं
काकिनी-सिद्धि संयुतम् ।
शोभादि दश-भाण्डार लाकिनी-सिद्धि
निर्णयम् ।।२७७।।
गदादि दश-भाण्डारं शकिनी सिद्धि
निर्णयम् ।
कल्याणीत्यादि कीर्त्यन्तं शाकिनो
सिद्ध-निर्णयम् ।।२७८।।
काकिनी सिद्धि चण्डिकादि दश भण्डार
प्राप्ति,
लाकिनी सिद्धि-शोभादि दश भण्डार प्राप्ति, राकिनी सिद्धि गदादि दश भण्डार प्राप्ति, शाकिनी
सिद्धि कल्याणी से कीर्ति पर्यन्त प्राप्ति ।।२७७-२७८॥
वद्धादि विलक्षणान्तं हाकिनी
सिद्धि-निर्णयम् ।
गरुदेगं बिनाभद्रे निष्फलं श्रमः
केवलम् ।।२७९।।
कलिकाले वरारोहे कलहं गुरु-शिष्ययोः
।
भविष्यति न संदेहः प्रहारं
गुरु-शिष्ययोः ।।२८०।।
हाकिनी सिद्धि होने पर विलक्षण
पर्यन्त सिद्ध हो जाता है हे भद्रे ! गुरु के बिना साधक का सर्व परिश्रम विफल हो
जाता है।
हे वरारोहे! कलिकाल में गुरु शिष्य
में कलह होती है, यहाँ तक कि मारपीट
भी हो जाती है ॥२७९-२८०॥
इति ते कथितं सर्व कालिकाया:
सुदुर्लभम् ।
कालिका भैरवो देवे जागत्ति हि सदा
कलौ ॥२८१॥
तारा चव महाविद्या तथा त्रिपुरसुन्दरी
।
धनदा छिन्नमस्ता च मातंङ्गी
बगलामुखी ।।२८२॥
त्वरिता अन्नपूर्णा च तथा
वाग्वादिनी प्रिये ।
महिषघ्नी विशालाक्षी तारिणी
भूषनेशिका ॥२८३॥
धमावती भैरवी च तथा
प्रत्यङ्गिरादिका ।
दुर्गा शाकम्भरी चैव कलिकाले हि
निद्रिता ।।२८४॥
मैंने अति दुर्लभ कालिका मंत्र
साधना का उपदेश दिया है । कलिकाल में भैरव तथा कालिका देवी सदा
जागते रहते हैं । कलिकाल में महाविद्या तारा,
त्रिपुर सुन्दरी, धनदा, छिन्नमस्ता,
मातंगी, बगलामुखी, त्वरिता,
अन्नपूर्णा, वाग्वादिनी, महिषघ्नि, विशालाक्षी, तारिणी,
भुवनेश्वरी, धूमावती, भैरवी,
प्रत्यंगिरा प्रभृति, दुर्गा, शाकंभरी निद्रित रहती है
॥२८१-२८४॥
एतासां जप मात्रेण निद्राभङ्गति
जायते ।
निद्राभों कुत देवि सिद्धि हानिश्च
जायते ॥२८५॥
कि तासां जप पूजायां हानिः
स्यादुत्तरोत्तम् ।
ब्राह्मण क्षत्रिये वैश्ये शूद्र
विद्या प्रशस्यते ।।२८६।।
जप मात्र से इनकी निद्रा भंग हो
जाती है। हे देवि ! निद्रा भंग से ही सिद्धि हानि होती है। इनका जप पूजन करने से
उत्तरोत्तर क्षति होती है। क्षत्रिय, ब्राह्मण,
वैश्य, शूद्र सभी के लिये मन्त्र विद्या
प्रशस्त है ।।२८५-२८६॥
सत्यादि च चतुयुग सर्व-जातिषु
कालिका ।
प्रशस्ता च कालिका विद्या अस्याश्च
फलबोधिका ॥२८७।।
चारों युगों में सभी जाति के लिये कालिका
प्रशस्ता है। कालिका विद्या सबके लिये फलदायिका है ॥२८७॥
उपायास्तत्र वक्ष्यामि येन सिद्धिः
प्रजायते ।
सहस्त्रं डाकिनीमंत्रं निशार्या
प्रजपेत् यदि ।
बहुकाले तदा सिद्धिर्जायते नात्र
संशयः ।।२८८।।
वह सिद्धि प्रद उपाय कहता हूँ।
निशाकाल में १००० डाकिनी मन्त्र बहुत समय तक जपने से अवश्य सिद्धि मिलती ॥२८८।।
स्त्री शूद्राणां पुरश्चयी नास्ति
भद्रे कदाचन ।
अपपूजा सदैवासां प्रशरता वीरवन्दिते
॥२८९।।
हे भद्रे! स्त्री तथा शुद्र कभी भी
पुरश्चरण न करें। हे वीरवन्दिते ! इनके लिये सदा जप पूजा प्रशस्त है ।।२८९।।
चन्द्र-सूर्योपरागे च शूद्राणां
सिद्धिरुन्तमा ।
जायते सुभगे मात गुरु भक्तिभवेत यदि
॥२९०॥
तदा सिद्धिमवाप्नोति गरुभक्त्या
विशेषतः ॥२९१॥
चन्द्र-सूर्य ग्रहण काल में मउ जप
द्वारा शूद्र भी सिद्धि प्राप्त करते हैं । यदि गुरु भक्ति है तब उस गुरु भक्ति से
ही सभी सिद्धियाँ मिल जाती है ॥२९-२९१॥
॥ इति दक्षिणाम्नाये श्री
कङ्कालमालिनीतंत्र पञ्चमः पटलः समाप्तः ।।
॥ दक्षिणाम्नाय का श्री कंकालमालिनी
तंत्र पंचम पटल समाप्त ।।
॥ इति कंकालमालिनी तंत्र समाप्त ॥
कंकालमालिनीतन्त्र का पुर्व का पटल
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