कमलापत्यष्टक

कमलापत्यष्टक

श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्द द्वारा विरचित श्रीकमलापत्यष्टक जरा, जन्म और मरणादि के भय को दूर करनेवाला और भगवान् विष्णु के परमधाम को प्राप्त करानेवाला है।

श्रीकमलापत्यष्टकम्

श्रीकमलापत्यष्टकम्

भुजगतल्पगतं घनसुन्दरं गरुडवाहनमम्बुजलोचनम् ।

नलिनचक्रगदाकरमव्ययं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥१॥

रे मनुष्यों ! जो शेष शय्या पर पौढ़े हुए हैं, नीलमेघ-सदृश श्याम सुन्दर हैं, गरुड़ जिनका वाहन है और जिनके कमल-जैसे नेत्र हैं, उन शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी अव्यय श्रीकमलापति को भजो ॥ १॥

अलिकुलासितकोमलकुन्तलं विमलपीतदुकूलमनोहरम् ।

जलधिजाङ्कितवामकलेवरं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥२॥

भौरों के समान जिनकी काली-काली कोमल अलकें हैं, अति निर्मल सुन्दर पीताम्बर है और जिनके वामाङ्क में श्रीलक्ष्मीजी सुशोभित हैं, रे मनुष्यों ! उन श्रीकमलापति को भजो ॥२॥

किमु जपैश्च तपोभिरुताध्वरैरपि किमुत्तमतीर्थनिषेवणैः ।

किमुत शास्त्रकदम्बविलोकनैर्भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ३॥

जप, तप, यज्ञ अथवा उत्तम-उत्तम तीर्थो के सेवन में क्या रखा है ? अथवा अधिक शास्त्रावलोकन के पचड़े में पड़ने से ही क्या होना है ? रे मनुष्यों ! बस श्रीकमलापति को ही भजो ॥३॥

मनुजदेहमिमं भुवि दुर्लभं समधिगम्य सुरैरपि वाञ्छितम्।

विषयलम्पटतामपहाय वै भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥४॥

इस संसार में यह मनुष्य-शरीर अति दुर्लभ और देवगणों से भी वाञ्छित है-ऐसा जानकर विषय-लम्पटता को त्याग कर रे मनुष्यों! श्रीकमलापति को भजो॥४॥

न वनिता न सुतो न सहोदरो न हि पिता जननी न च बान्धवः ।

व्रजति साकमनेन जनेन वै भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥५॥

इस जीव के साथ स्त्री, पुत्र, भाई, पिता, माता और बन्धुजन कोई भी नहीं जाता, अतः रे मनुष्यों! श्रीकमलापति को भजो ॥ ५॥

सकलमेव चलं सचराचरं जगदिदं सुतरां धनयौवनम् ।

समवलोक्य विवेकदृशा द्रुतं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥६॥

यह सचराचर जगत्, धन और यौवन सभी अत्यन्त अस्थिर हैंऐसा विवेकदृष्टि से देखकर रे मनुष्यों ! शीघ्र ही श्रीकमलापति को भजो ।। ६ ।।

विविधरोगयुतं क्षणभङ्गुरं परवशं नवमार्गमलाकुलम् ।

परिनिरीक्ष्य शरीरमिदं स्वकं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ७॥

यह शरीर नाना प्रकार के रोगों का आश्रय, क्षणिक, परवश तथा मल से भरे हुए नौ मार्गोवाला है-ऐसा देखकर रे मनुष्यों ! श्रीकमलापति को भजो ।। ७ ।।

मुनिवरैरनिशं हृदि भावितं शिवविरिञ्चिमहेन्द्रनुतं सदा ।

मरणजन्मजराभयमोचनं भजत रे मनुजाः कमलापतिम् ॥ ८॥

मुनिजन जिनका अहर्निश हृदय में ध्यान करते है, शिव, ब्रह्मा तथा इन्द्रादि समस्त देवगण जिनकी सर्वदा वन्दना करते हैं तथा जो जरा, जन्म और मरणादि के भय को दूर करनेवाले हैं, रे मनुष्यों! उन श्रीकमलापति को भजो॥८॥

हरिपदाष्टकमेतदनुत्तमं परमहंसजनेन समीरितम् ।

पठति यस्तु समाहितचेतसा व्रजति विष्णुपदं स नरो ध्रुवम् ॥९॥

दास परमहंस द्वारा कहे गये इस अत्युत्तम भगवान् हरि के अष्टक को जो मनुष्य समाहितचित्त से पढ़ता है, वह अवश्य ही भगवान् विष्णु के परमधाम को प्राप्त होता है ॥९॥

इति श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं श्रीकमलापत्यष्टकं सम्पूर्णम् ।

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