गुरु कवच

गुरु कवच

कंकालमालिनीतंत्र के तृतीय पटल में वर्णित इस गुरु कवच के पाठ तथा श्रवण करने से मंत्र सिद्धि हो जाती है । समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्राप्त होता है ।

गुरु कवच

गुरु कवच

श्री देव्युवाच

भूतनाथ महादेव कवचं तस्य मे वद ॥१४॥

श्री देवी कहती है- हे भूतनाथ महादेव ! इस बार मुझे कवच का उपदेश करिये ।

श्रीईश्वर उवाच

अथ ते कथयामीशे कवचं मोक्षदायकम् ।

यस्य ज्ञानं बिना देवी न सिद्धिर्न च सद्गतिः॥१५॥

श्री महादेव कहते हैं- हे देवी! उनका कवच मोक्षप्रद है। इसके ज्ञान के अभाव में सिद्धि नहीं मिलती । सद्गति भी नहीं हो सकती।

ब्रह्मादयोऽपि गिरिजे सर्वत्र जयिनः स्मृताः ।

अस्य प्रसादात् सकला वेदागमपुर: सराः ।।१६।।

हे गिरिजे ! इस कवच के प्रभाव से समस्त वेद तथा आगम के तत्वज्ञ ब्रह्मा प्रभृति देवगण सर्वत्र विजयी हो जाते हैं ।

कवचस्यास्य देवेशी ऋषिविष्णुरुदाहृतः ।

छन्दो विराड् देवता च गुरुदेवः स्वयं शिवः ।।१७।।

चतुर्वर्गे ज्ञानमार्गे विनियोगः प्रकीर्तितः ।

सहस्त्रारे महापद्मे कपूरधवलो गुरुः ॥१८॥

हे देवेशी ! इस कवच के ऋषि विष्णु हैं । छन्द विराड है और इसके देवता है गुरुदेव शिव । धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग में सहस्त्रार रूप महापद्म में कर्पूर के समान गुरु ही इस कवच के एकमात्र विनियोग है ।

गुरु कवचम्

वामोरुगतशक्तिर्यः सर्वतः परिरक्षतु ।

परमाख्यो गुरुः पातु शिरसे मम वल्लभे ॥१६॥

जिनके वाम उरु में उपविष्ट शक्ति है, वे परमशिव गुरु सर्वत्र रक्षा करें। हे प्रिये ! परम गुरु मेरे मस्तक की रक्षा करें।

परापराख्यो नासां मे परमेष्टिर्म्मुखं मम ।

कण्ठं मम सदा पातु प्रह्लादानन्द नाथकः ॥२०॥

परापर गुरु मेरी नासिका की, परमेष्ठि गुरु मेरे मुख की रक्षा करें। परम आह्लाद तथा आनन्द के नाथ मेरे कण्ठ की रक्षा करें ।

बाहु द्वौ सनकानन्दः कुमारानन्दनाथकः ।

वशिष्ठानन्दनाथश्च हृदयं पातु सर्वदा ॥२१॥

जो सनक ऋषि को आनन्द प्रदान करते हैं, जो कुमार को आनन्द देने वाले नाथ है, वे मेरे हृदय का रक्षण करें।

क्रोधानन्द: कटि: पातु सुखानन्दः पदं मम ।

ध्यानानन्दश्च सर्वाङ्ग बोधानन्दश्च कानने ॥२२॥

क्रोधानन्द कटि प्रदेश की तथा सुखानन्द पदद्वय का रक्षण करें। ध्यानानन्द मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करे और बोधानन्द कानन ( वन ) में मेरा अनुरक्षण करे ।

सर्वत्र गुरवः पान्तु सर्वे ईश्वररूपिणः ।

इति ते कथितं भद्रे कवचं परमं शिवे ॥२३॥

ईश्वर रूपी समस्त गुरुगण समस्त स्थानों में मेरी रक्षा करें । हे भद्रे ! हे परमशिवे ! मैंने तुमसे यह गुरु कवच कह दिया ।

गुरु कवचम् फलश्रुति

भक्तिहीने दुराचारे दद्यान्मृत्युमवाप्नुयात् ।

अस्यैव पठनाद् देवी धारणाच्छ्रवणात्प्रिये।

मंत्रा: सिद्धाश्च जायन्ते किमन्यत् कथयामि ते ॥२४॥

दुराचारी और भक्तिहीन व्यक्ति को यह कवच नहीं देना चाहिये, अन्यथा मृत्यु अवश्यम्भावी है। हे देवी! इस कवच को धारण करने तथा श्रवण करने से मंत्र सिद्धि हो जाती है और क्या कहूँ?

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ शिखायां वीरवन्दिते ।

धारणान्नाशयेत् पापं गंगायां कलुषं यथा ॥२५॥

हे वीरवन्दिते ! कण्ठ, दक्षिण बाहु अथवा शिखा में इसे धारण करना चाहिये । जैसे गंगा स्नान द्वारा समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार कवच के प्रभाव से समस्त कलुष नष्ट हो जाते है ।

इदं कवचमज्ज्ञात्वा यदि मन्त्रं जपेत् प्रिये।

तत् सर्वं निष्फलं कृत्वा गुरुर्याति सुनिश्चितम् ।।२६।।

हे प्रिये ! इस कवच के बिना जो केवल मात्र मंत्र जप करते हैं, उनका जप गुरुगण नष्ट कर देते हैं, इसे सुनिश्चित मानो ।

शिवे रूष्टे गुरूस्त्राता गुरौ रूष्टे न कश्चनः ।।२७।।

शिव के क्रुद्ध हो जाने पर गुरु रक्षा करते हैं, परन्तु गुरु के रुष्ट हो जाने पर कोई भी रक्षण नहीं कर सकता ।

॥ इति श्री दक्षिणाम्नाये कङ्कालमालिनीतन्त्रे गुरु कवचं तृतीयः पटलः ।।

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment