recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

कंकालमालिनीतन्त्र प्रथम पटल

कंकालमालिनीतन्त्र प्रथम पटल 

कंकालमालिनीतन्त्र प्रथम पटल- कङ्काल शब्द से अस्थिपंजर का तात्पर्य ध्वनित होता है, तथापि यहाँ उसका अर्थ है मुण्ड-नरमुण्ड ! जिनकी ग्रीवा नरमुण्ड माला से सुशोभित है, वे हैं कङ्कालमालिनी। जो मुण्डमाला है, वही है वर्णमाला, अर्थात् जिन्होंने वर्णमालारूपी मातृका की माला को अपनी ग्रीवा में धारण किया है, वे हैं कङ्कालमालिनी।

इस तंत्र के प्रथम पटल में वर्णमाला की व्याख्या अंकित है । इस तंत्र के अनुसार अ से अः पर्यन्त स्वर वर्ण सत्वमय है। क से थ पर्यन्त वर्णसमूह को रजोमय तथा द से क्ष पर्यन्त के वर्णसमूह को तमोमय कहा गया है।

यह तंत्र दक्षिणाम्नाय के अन्तर्गत है ? अर्थात् यह शिव के अघोर मुख से अभिनिःधित है। अभयाचार तन्त्रमतानुसार दक्षिणाम्नाय से सम्बन्धित है बगला, वशिनी, त्वरिता, धनदा, महिषघ्नि, महालक्ष्मी। यह कहा जाता है कि यह तंत्र प्रारम्भ में ५०००० श्लोकों से युक्त था, परन्तु काल के प्रवाह में लुप्त होते-होते जो अवशिष्ट है, उसे ही अनुवाद के साथ पाठकगण के लाभार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है। 

कंकालमालिनीतन्त्र प्रथम पटल

कङ्कालमालिनी तंत्र पटल १   

कंकालमालिनीतंत्र प्रथमः पटलः 

कंकालमालिनीतन्त्र पहला पटल 

ॐ नमः श्री गुरवे।

भैरव्युवाच

त्रिपुरेश महेशान पार्वतोप्राणवल्लभ ।

जगद्वन्द्य शूलपाणे वर्णानां कारणं वद् ॥१॥

भैरवी पूछती है-हे त्रिपुरेश, हे महेश, हे पार्वती प्राणवल्लभ ! हे जगद्वन्द्य शूलपाणे ! कृपया वर्णसमूह के कारण का वर्णन करिये ॥१॥

श्री भैरव उवाच

कथयामि वरारोहे वर्णानां भेदमुत्तमम् ।

न प्रकाश्यं महादेवी तव स्नेहात् सुभाषिणी ॥२॥

श्री भैरव कहते हैं-हे वरारोहे, सुभाषिणी महादेवी ! मैं तुम्हारे प्रति प्रेम के कारण परवश होकर वर्णसमूह के अत्युत्कृष्ट रहस्य का वर्णन करता हूँ। यह प्रकाश्य नहीं है॥२॥

यज्ञात्वा योगिनो यान्ति निर्गुणत्वं मम प्रिये ।

तच्छृणुष्व -स्वरूपेण महायौवनविते ।।३।।

हे प्रिये, हे महायौवनविते ! जिसे जानकर योगीगण निगुणत्व प्राप्त करते है, उसका स्वरूप सुनो ॥३॥

शब्दब्रह्मस्वरूपस्तद् आदिक्षान्तं जगत्प्रभः ।

विद्युजिह्वा करालास्या गजिनी धूम्रभैरवी ॥४॥

कालरात्रिविदारी च महारौद्री भयंकरी ।

संहारिणो करालिनी उर्ध्वकेश्याग्रभैरवी ॥५॥

शब्दब्रह्म रूप अकारादिक्षकारान्त ( शब्द समूह) ही जगत का प्रभु है। अ-विद्युजिह्वा, आ-करालास्या इ-गजिनी, ई-धून भरयो, उ कालरात्रि, ऊ-विदारी, ऋ=महारौद्री, ऋ-भयंकरी, संहारिणी, ए-उर्ध्वकेशी, ऐ उग्रभैरवी हैं ॥४-५॥

भीमाक्षी डाकिनी रुद्रडाकिनी चण्डिकेति च ।

एते वर्णाः स्वराः ज्ञेयाः कौलिनी व्यंजना श्रृण ।।६।।

क्रोधीशो वामनश्चण्डो विकायुन्मतभैरवः ।

ज्वालामुखो रक्तदंष्ट्राऽसिताङ्गो बड़वामुखः ॥७॥

विद्युन्मुखो महाज्वालः कपाली भीषणो रुरु:।

संहारी भैरवो दण्डी बलिभूगुग्रशूलधृक् ।।८।।

सिंहनादी अपी न करपलानिर्भयपुरः।

बहरूपी महाकालो जीवात्मा क्षतजोक्षितः ।।९ ।।

ओ-भीमाक्षी, औ-डाकिनी, अं-रुद्रडाकिनी, अ:-चण्डिका ही स्वरवर्णात्मिका है । हे कौलिनी ! अब व्यंजन वर्णों को सुनो।

क-क्रोधीश, ख-वामन, ग-चण्ड, घ-विकारी, ङ-उन्मत्तभैरव, च-ज्वाला मुख, छ- रक्तदष्ट्र, ज=असितांग झ-बड़वामुख, ञ-विद्युन्मुख, ट-महाज्वाल, ठ-कपाली, ड-भीषण, ढ-रुरु, ण-संहारी, त-भैरव, थ- दण्डी, द- बलिभुक, ध-उग्रशूलधृक्, न- सिहनादो, प-कपर्दी, फ-करालाग्नि, ब=भयंकर, भ-बहुरूपी, म-महाकाल, य-जीवात्मा, र-क्षतजोक्षित ।।६-९॥

बसभेदो रक्तश्च चण्डीशो ज्वलनध्वजः ।

वृषध्वजो व्योमवक्त्ररत्रलोक्यग्रसनात्मकः ॥१०॥

ल-बलभृद्, व-रक्त, श-चण्डीश, ष-ज्वलनध्वज, स-वृषध्वज, ह-व्योमवक्त्र, क्ष= त्रैलोक्यग्रसनात्म रूप से ककारादि से क्ष पर्यन्त व्यञ्जन वर्ण को जानना चाहिये ॥१०॥

एते र व्यञ्नना ज्ञेयाः कादिक्षान्ताः क्रमादिताः।

अकारादिक्षकारान्ता वर्गास्तु शिवशक्तयः ॥११॥

पञ्चाशच्च इमे वर्णा ब्रह्मरूपाः सनातनाः ।

येषां ज्ञानं बिना वामे सिद्धिर्नस्याद् गुरुस्तनी ॥१२॥

ते वर्ण सागरा: प्रोक्ता गुणत्रयमयाः शुभे।

विद्युजिह्वामुखं कृत्वा चण्डिकान्तं नगात्मजे ॥१३॥

अकारादि क्षकारान्त वर्ण शिवशक्ति स्वरूप है। यह पचास वर्ण समष्टि सनातन ब्रह्मरूप से विद्यमान है । हे वामे! ज्ञान के बिना सिद्धि संभव ही नहीं है। हे शुभे ! इन्हें गुणत्रय रूप वर्ण सागर कहा जाता है। विद्युजिह्वा अर्थात् अकार से लेकर चण्डिका (विसर्ग) पर्यत वर्णसमूह सत्वगुणयुक्त होते है । ॥११-१३॥

सत्वगुणमया वर्णा रजोगुणमयान श्रण।

कायोशाददाण्डपयन्ता व्यञ्जना राजसाः स्मृताः ।।१४।।

बलिभ ग्वर्णमारंभ्यत्रैलोक्य ग्रसनावधि ।

ज्ञेयोस्तमःस्वरूपान्ते तेभ्यो जातान् श्रृणु प्रिये ।।१५।।

हे नगात्मजे । इस बार रजोगुणयुक्त वर्ण का वर्णन करता हूँ। उन्हें सुनो। क्रोधीश (क) से आरंभ करके दण्डी (थ) पर्यन्त जो व्यंजन है, उन्हें रजोगुणयुक्त जानो।

बलिभुक् (द ) से प्रारम्भ करके त्रैलोक्य ग्रसनत्माक (क्ष ) पर्यन्त समस्त वर्ण तमोगुण युक्त हैं । हे प्रिये ! अब इनकी उत्पत्ति को सुनो ।।१४-१५॥

गुशब्दश्चान्धकारः स्याद्रशब्दस्तन्निरोधकृत ।

अन्धकारविरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ।।१६।।

गकारः सिद्धिदः प्रोक्तो रकारः पापहारकः ।

उकारस्तु भवेद्विष्णस्त्रितयात्मा गुरुः स्वयम् ॥१७॥

गुरु शब्द का अर्थ यह है । ग-अन्धकार । रु अन्धकार का निरोध । जो अज्ञानान्धकार का निरोध करते हैं, वे गुरु है। ग कार सिद्धिदाता तथा र कार पापहारी है, उ कार तो विष्णु है। अतः गुरु स्वयं ही तीन रूपों से युक्त है ।।१६-१७॥

आदावसौ जायते च शब्दब्रह्म सनातनः।

वसुजिह्वा कालराच्या रुद्रडाकिन्यलंकृता ।

विषबीजं श्रुतिमुखं ध्रु वं हालाहल प्रिये ॥ॐ॥१८॥

ॐ तीन वर्णों द्वारा गठित है। वसुजिह्वा अ कार, कालरात्रि उ कार तथा रुद्ररूपी अनुस्वार से ॐ कार गठित है। हे प्रिये ! यह शब्दब्रह्मरूपी बीजमंत्र जगत् प्रपंच के लिये विषस्वरूप है। अर्थात् मायाप्रपंच को नष्ट करनेवाला और श्रुति का मुख है ॥१८॥

चण्डीशः क्षतजारूढो धुम्रभैरव्यलंकृतः।

नादविन्दु समायुक्तं लक्ष्मीबीज प्रकीर्तितम् ॥श्रीं॥१६॥

अब श्री मन्त्रवर्णन सुनो। चण्डीश शकार, क्षतज अर्थात् '' कार पर आरुडा धुम्रभैरवी, ई कार द्वारा अलंकृत तथा नादविन्दु से संयुक्त यह मन्त्र लक्ष्मीदेवी का बीज स्वरुप है। ऐसा तांत्रिक विद्वान करते हैं ॥१९॥

क्रोधीशं क्षतजारूढं धुम्र भौरव्यलकृतम् ।

नादविन्दुयुतं देवो नामबीजं प्रकीतितम् ॥क्रीं।।२०।।

क्रोधीश अर्थात् क कार, क्षतज अर्थात् र कार पर आरुढा धूम्र भैरवी ईकार द्वारा शोभिता तथा नादविन्दु समायुता है। इसको कालिका बीज (नामबीज) क्रीं कहते हैं ॥२०॥

क्रोधीशो बलभृद् बलिभग धुम्रभैरवीनादविन्दुभिः ।

त्रिमूर्तिमन्मथः कामबीजं लोक्यमोहनम् ॥क्लीं।।२१।।

क्रोधीश अर्थात् ककार, बलभृद् अर्थात् ल कार से युक्त धूम्रभैरवी ई कार द्वारा शोभिता होकर त्रिमूर्ति हो जाती है ( अर्थात् क्+ल्+ई ) यह नादविन्दुयुक्त होकर क्लीं रुपी कामबीज द्वारा त्रैलोक्य को मोहित करने में समर्थ है ।।२१।।

क्षतजस्थो व्योमवक्त्रो धूम्रभैरव्यलंकृतः ।

नादविन्दुसुशोभाड्यं मायालज्जा द्वयं स्मृतम् ॥ह्रीं।।२२।।

व्योमवक्त्र अर्थात् ह कार तथा क्षतज अर्थात् र कार, यह दो वर्ग जब धूम्रभैरवी रूपी ई कार द्वारा शोभित होकर नादविन्दू से युक्त हो जाते हैं, तब ह्रीं मन्त्र का गठन होता है। इसे माया बीज अथवा लज्जाबीज कहा -गया है ॥२२॥

व्योमास्यश्च विदारीस्थं नादविन्दू विराजितम्।

कूर्चकालं क्रोधबीजं जानीहि वीरवन्दिते ॥ हुँ॥२३॥

व्योमास्य ह कार तथा विदारी अर्थात् उकार, इन दो वर्गों को धूम्रभैरवी (ई) के साथ युक्त करके नादविन्दु के साथ युक्त करना चाहिये । यह हूँ मन्त्र में परिणत हो जाता है। हे वीरों द्वारा वन्दिता देवी! इस मंत्र को क्रोधबीज कहते हैं । यह काल के प्रभाव को भी दूर कर देता है ।।२३॥

व्योमास्यः काल रात्र्याइयो बर्मविन्द्विन्दू संयुतः।

कथितं वचनं बीजं कुलाचार प्रियेऽमले ।। हूँ॥२४।।

व्योमास्य ह कार तथा कालरात्रि अर्थात् ऊकार । व्योमास्य ह कार जब काल रात्रि रूप ऊ कार से विभूषित होकर चन्द्रविन्दुरूप कर्म से आच्छादित होता है, तब हूँ बीजमन्त्र का गठन हो जाता है। हे कुलाचारप्रिय स्वच्छरूपिणी ! इसे वायुबीज कहते हैं ॥२४॥

व्योमस्यं क्षतजारूढं डाकिन्या नादविन्दुभिः।

ज्योतिमंन्त्रं समाख्यातं महापातकनाशनम् ।। ह्रौं ।।२५।

व्योमास्य हकार क्षतज रुकार डाकिनी अर्थात् औकार। हकार जब रेफ के साथ युक्त होकर औ कार तथा नादविन्दु से संयुक्त होता है, तब ज्योतिमन्त्र ह्रौं प्रकट हो जाता है। यह सभी प्रकार के महान् पातकों को विध्वस्त कर देता है ।।२५।।

नादविन्दु समायुक्तां समादायोग्रभौरवोम् ।

भौतिकं वार भवं बीजं विद्धि सारस्वतं प्रिये ।। ऐं ॥२६॥

हे प्रिये ! उग्रभैरवी अर्थात् ऐ कार जब नादविन्दु से संयुक्त होता है, तब ऐं का गठन हो जाता है । यह सरस्वती बीज है ॥२६॥

प्रलयाग्निमहाजाल: ख्यात अस्त्रमनुः शिवे ।

रक्तक्रोधीश भीमाख्योऽङ्कुशोऽयं नादविन्दुमान् ।। क्रौं ॥२७॥

हे शिवे ! प्रलयकालीन अग्निज्वाला के समान भयंकर यह क्रौं मन्त्र रक्त क्रोधीश रूप से नादविन्दु समायुक्त होकर श्यामाबीज कहलाता है ॥२७॥

द्वि ठः शिवो वन्हिजाया स्वाहा ज्वलनवल्लभा ।। स्वाहा ।।

संयुक्तं धूम्रभरव्या रक्तस्थं बलिभोजनम् ।

नादविन्दुसमायुक्तं किंङ्किणीबीजमुत्तमम् ।। द्रीं ॥२८॥

सुन्दररूप से मर्यादा के साथ स्वाहा मंत्र का उच्चारण करके अग्नि में हवि को छोड़ा जाता है । अतः यह 'स्वाहा' अग्नि की वल्लभा अथवा जाया है । धूम्रभैरवी का ई कार बलिभाजन अर्थात् द कार जब नाद विन्दु संयुक्त होता है, तब उत्तम किंकीणी बीज का गठन होता है यही द्रीं बीज है ॥२८॥

नादविन्दु समायुक्तं रक्तस्थं बलिभोजनम् ।

करालास्यासनोपेतं विशिकाख्यं महामनम ।। द्रां ॥२९।।

नादविन्दु समायुक्त बलिभोजन (द) आ से युक्त होकर द्रां मन्त्ररूप में परिणत होता है । इसे विशिकारूप महामन्त्र कहते है । यही करालास्यरूप अर्थात आ से संयुक्त होकर द्रां बीज बन जाता है ।।२९।।

धूमोज्वल करालाग्नि उर्व के शीन्दुविन्दुभिः ।

यगान्तकारकं बोजं वीरपत्नि प्रकाशितम् ।। फें॥३०॥

हे वीरपत्नी ! धूम्र के द्वारा उज्वल करालाग्नि जब चन्द्र तथा विन्दु के द्वारा उर्ध्वकेशी हो जाता है, तब युगान्तकारक के बीज प्रकाशित होता है। ( करालाग्नि = फकार, उर्ध्व केशी = ए कार, इन्दुविन्दु =)॥३०॥

विदार्या नेक्षितो गुह्यो बलिभुक् क्षतजोक्षितः ।

नादविन्दु समायुक्तो विज्ञेयः पिशिताशनः ॥ ॥३१ ।।

वलिभुक '' और क्षतजोक्षित र जब क्रमशः उकार और नादविन्दु हो जाता है, तब भीषण बीज का गठन होता है ॥३१॥

संहारिणा स्थितञ्चोर्द्ध केशिनन्तु कपदिनम् ।

नादविन्दु समायक्तं बीजं वैतालिकं स्मृतम् ।। पृं॥३२॥

संहारी लृ कार एवं उर्ध्वकेशी ए कार युक्त कपर्दी पकार नादविन्दु से मिलित होकर बैंतालिक वीज पृं रूप में परिणत हो जाता है ॥३२॥

सनादविन्दु क्रोधोशं गुह्ये संहारिणी स्थितम् ।

कम्पिनीबी जमित्यक्तं चण्डिकाख्यं मनोहरम् ।।।।३३।।

क्रोधीश ककार तथा संहारिणी र कार । क के निम्न में लृ तथा नादविन्दु युक्त होने से मनोहर चण्डिकाख्य कम्पिनी बीज गठित होता है ।।३३।।

कादिनं समादाय क्षतजोक्षित संस्थितम् ।

संयुक्तं धूम्रभरव्या ध्वांक्षोऽयं नादविन्दूमान् ।।प्रीं।।३४।।

कपर्दी प, क्षतजोक्षित र तथा धूम्रभैरवी ई कार, यह सब ( रेफ के साथ ) संयुक्त होकर नादविन्दुमिलित रूप से सुन्दर प्रीं मन्त्र का गठन करते है ॥३४॥

कपालीद्वयमादाय महाकालेन मण्डितम् ।

सनाद स्तनमित्यक्तं चण्डिकाख्यं पयोधरम् ।।ठं ठं॥३५॥

कपाली = ठ, महाकाल = म । मकार तथा दो उकार को नादविन्दुयुक्त करने से यह मंत्र प्रकट होता है, जो चण्डिका का स्तनरूप कहा गया है।

कगलाग्निस्थितो धमध्वजो गुह्ये सबिन्दुमान् ।

संयुक्तो धम्रभर व्या स्मृता फेत्कारिणी प्रिये ।।स्फ्रीं।।३६।।

करालाग्नि फ, धुमध्वज स, धूम्रभैरवी ई के संयुक्तीकरण से रेफ युक्त नादविन्दु समन्वित फेत्कारिणी मंत्र कहा जाता है ॥३६॥

क्षतजो क्षितमारौँ नादविन्दुसमन्वितम् ।

विदारीभूषितं देवी बीजं वैवस्वतात्मकम् ।।३७।।

हे देवी! क्षतजोक्षित र, विदारी उ तथा नादविन्दु समन्वित यह रुं मन्त्र वैवस्वत सूर्यस्वरूप मंत्र कहा गया है ।।३६।।

॥ इति दक्षिणाम्नाये कंकालमालिनीतन्त्र प्रथमः पटलः ।।१ ।।

दक्षिणाम्नाय के कंकालमालिनीतंत्र का प्रथम पटल समाप्त ॥

आगे जारी............. कंकालमालिनीतंत्र पटल 2  

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]