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कर्मकाण्ड

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रुद्रयामल तंत्र पटल ११

रुद्रयामल तंत्र पटल ११     

रुद्रयामल तंत्र पटल ११ में दिव्य, वीर एवं पशु भाव का प्रतिपादन है। भाव से ही सब कुछ प्राप्त होता है। यह तीनों लोक भाव के ही अधीन हैं । इसीलिए बिना भाव के सिद्धि नहीं प्राप्त होती है (४३--४४)।

दक्षिण और बाई नासिका से वायु के आगमन और निर्गमन का फल कहा गया है । मेष, वृष आदि १२ राशियों में क्रमशः १. आज्ञाचक्र २. कामचक्र, ३. फलचक्र, ४. प्रश्न चक्र, ५. भूमिचक्र, ६. स्वर्गचक्र, ७. तुलाचक्र, ८. वारिचक्र, ९. षट्चक्र, १०. सारचक्र, ११. उल्काचक्र और १२. मृत्युचक्र का निर्माण करना चाहिए। इन चक्रों में अनुलोम और विलोम क्रम से षट्कोण बनाना होता है। सभी चक्रों में स्वर ज्ञान और वायु गति को जानकर अपने प्रश्नों का विचार करना चाहिए ।

रुद्रयामल तंत्र पटल ११

रुद्रयामल तंत्र पटल ११ दिव्य-वीर-पशुभावानां स्वरुपकीर्तनम्  

रुद्रयामल एकादश:  पटलः

रुद्रयामल ग्यारहवां पटल 

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल

भावप्रश्नार्थबोधनिर्णयः

आनन्दभैरवी उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि दिव्यभावादिनिर्णयम् ।

यमाश्रित्य महारुद्रो भुवनेश्वरनामधृक् ॥१॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- अब मैं दिव्यभावादि का निर्णयात्मक विषय कहती हूँ जिनके आश्रय से महारुद्र भुवनेश्वरनाम वाले बन गये ॥१॥

यं ज्ञात्वा कमलानाथो देवतानामधीश्वरः ।

चतुर्वेदाधिपो ब्रह्मा साक्षाद्ब्रह्म सनातनः ॥२॥

बटुको मम पुत्रश्च शक्रः स्वर्गाधिदेवता ।

अष्टसिद्धियुताः सर्वे दिक्पालाः खेचरादयः ॥३॥

इतना ही नहीं जिसके ज्ञान से महाविष्णु देवताओं के तथा ब्रह्मदेव चारो वेदों के अधीश्वर हो गये । सनातन साक्षात् ‍ ब्रह्म के ज्ञाता, मेरे पुत्र बटुक गणेश, इन्द्र, किं बहुना स्वर्ग के समस्त देवगण, दिक्पाल एवं खेचरादि आठों सिद्धियों से युक्त हो गये ॥२ - ३॥

तत्प्रकारं महादेव आनन्दनाथभैरव ।

सुरानन्दं ह्रदयानन्द ज्ञानान्द दयामय ॥४॥

श्रृणुस्वैकमना नाथ यदि त्वं सिद्धिमिच्छसि ।

मम प्रियान्दरुप यतो मे त्वं तनुस्थितः ॥५॥

हे महादेव ! हे आनन्दनाथ भैरव ! हे सुरानन्द ! हे हृदयानन्द ! हे ज्ञानानन्द ! हे दयामय ! यदि आप सिद्धि चाहते हैं, तो उनके प्रकारों को चित्त स्थिर कर सुनिए । क्योंकि आप मेरे शरीर में स्थित रहने वाले हैं, मुझे आनन्द देने वाले तथा मेरे प्रिय हैं ॥४ - ५॥

त्रिविधं दिव्यभावञ्च वेदागमविवेकजम् ।

वेदार्थमधमं सम्प्रोक्तं मध्यमं चागमोद्भवम् ॥६॥

उत्तमं सकलं प्रोक्तं विवेकाल्लाससम्भवम् ।

तथैव त्रिविधं भावं दिव्यवीरपशुक्रमम् ॥७॥

वेद आगम एवं विवेक से उत्पन्न होने वाला दिव्यभाव तीन प्रकार कहा गया है १. उनमें वेदार्थ वाला दिव्यभाव अधम २. आगम से उत्पन्न मध्यम तथा ३. विवेकोल्लास से उत्पन्न सकल (कलायुक्त) दिव्यभाव, उत्तम कहा गया है । इसी प्रकार दिव्य, वीर और पशुभेद से सभी भावों के तीन प्रकार कहे गये हैं ॥६ - ७॥

दिव्य-वीर-पशुभावानां स्वरुपकीर्तनम्

दिव्यं विवेकजं प्रोक्तं सर्वासिद्धिप्रदायकम् ।

उत्तमं तद्विजानीयादानन्दससागरम् ॥८॥

विवेक से उत्पन्न दिव्यभाव सभी सिद्धियों का प्रदाता कहा गया है, आनन्द रस का सागर होने से उसको सर्वोत्तम समझना चाहिए ॥८॥

मध्यमं चागमोल्लासं वीरभावं क्रियान्वितम् ।

वेदोद्भवं फलार्थञ्च पशुभावं हि चाधमम् ॥९॥

आगमशास्त्र से उत्पन्न क्रिया युक्त वीरभाव मध्यमतथा ३ फलस्तुति से युक्त वेद से उत्पन्न पशुभाव अधमसमझना चाहिए ॥९॥

सर्वनिन्दा समाव्याप्तं भावानामधमं पशोः ।

उत्तमे उत्तमं ज्ञानं भावसिद्धिप्रदं नृणाम् ॥१०॥

यतः सभी भावों में पशु भाव सभी सभी प्रकार के निन्दा से व्याप्त रहता है इसलिए वह अधम है । मनुष्यों को सिद्धि प्रदान करने के कारण उत्तम ज्ञान उत्तम ( दिव्य भाव ) में ही है ॥१०॥

मध्यमे मधुमत्याश्च मत्कुलागमसम्भवम् ।

अकालमृत्युहरणं भावानामतिदुर्लभम् ॥११॥

मध्यम ( दिव्य भाव ) में मधुमती विद्या है जो मेरे कुलागमशास्त्र से उद्‍भूत है और अकाल मृत्यु को हरण करने वाला सभी भावों में अत्यन्त दुर्लभ वीरभावहै ॥११॥

वीरभावं विना नाथ न सिद्धयति कदाचन ।

अधमे अधमा व्याख्या निन्दार्थवाचकं सदा ॥१२॥

हे नाथ ! इस वीरभावके बिना किसी को कोई सिद्धि मिलने वाली नहीं है । अधम ( पशु भाव ) में अधम व्याख्या है और वह सर्वदा निन्दार्थ का प्रतिपादक है ॥१२॥

यदि निन्दा न करोति तदा तत्फलमाप्नुयात् ।

पशुभावेऽसिद्धिः स्यात् यदि वेदं सदाभ्यसेत् ॥१३॥

पशुभाव में सिद्धि तभी होती है जब साधक सर्वदा वेद का अभ्यास करता रहे । किन्तु उसकी फलावाप्ति तब होती है जब वेदों की निन्दा न करें ॥१३॥

वेदार्थचिन्तनं नित्यं वेदपाठध्वनिप्रियम् ।

सर्वनिन्दविरहितं हिंसालस्यविवर्जितम् ॥१४॥

लोभ-मोह-काम-क्रोध-मद-मात्सर्यवर्जितम् ।

यदि भावस्थितो मन्त्री पशुभावेऽपि सिद्धिभाक् ॥१५॥

पशुभाव में स्थित साधक हिंसा एवं आलस्य का त्याग कर सब प्रकार की निन्दा से विरहित रहकर वेदार्थ का चिन्तन करें, वेदपाठ करे और वेदपाठ के उच्चारण में ध्वनि का ध्यान रखे । लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद और मात्सर्य दोषों से सर्वदा दूर रहे और साधक पशुभाव में स्थित रहे तो उसे पशुभाव में भी सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥१४ - १५॥

पशुभावं महाभावं ये जानन्ति महीतले ।

किमसाध्यं महादेव श्रमाभ्यासेन यान्ति तत् ॥१६॥

श्रमाधीनं जगत् सर्वं श्रमाधीनाश्च देवताः ।

श्रमाधीनं महामन्त्रं श्रमाधीनं परन्तपः ॥१७॥

हे महादेव ! इस पृथ्वीतल में पशुभाव ही महाभाव है - ऐसा जो समझते हैं, उन्हें श्रम और अभ्यास के कारण कोई भी वस्तुअ असाध्य नहीं रहती । क्योंकि जगत् ‍ की सारी वस्तुयें श्रमाधीन हैं । किं बहुना, सारे देवता श्रम से वशीभूत हो जाते हैं । महमन्त्र भी श्रम से सिद्धि देते हैं और तपस्या भी ॥१६ - १७॥

श्रमाधीनं कुलाचारं पशुभावोपलक्षणम् ।

वेदार्थज्ञानमात्रेण पशुभावं कुलप्रियम् ॥१८॥

स्मृत्यागमपुराणानि वेदार्थविविधानि च ।

अभ्यस्य सर्वशास्त्राणि तत्त्वज्ञानात्तु बुद्धिमान् ॥१९॥

पललमिव धान्यार्थी सर्वशास्त्राणि सन्त्यजेत् ।

ज्ञानी भूत्वा भावसारमाश्रयेत् साधकोत्तमः ॥२०॥

समस्त कुलाचार श्रमाधीन है । अतः पशुभाव का दूसरा नाम श्रमहै । वेदार्थ के ज्ञान मात्रद से पशुभाव कुल (कुण्डलिनी में लीन होने वाले) के लिए प्रिय है । स्मृति, आगम, पुराण या विविध प्रकार के वेदार्थों से युक्त, किं बहुना सभी शास्त्रों का अभ्यास करने से तत्त्वज्ञान हो जाने पर साधक बुद्धिमान् ‍ हो जाता है । इसलिए जिस प्रकार चावल चाहने वाला व्यक्ति धान्य की भूसी को त्याग देता है उसी प्रकार साधकोत्तम साधक भी ज्ञान हो जाने पर समस्त शास्त्रों का त्याग कर देवे और ज्ञान प्राप्त कर भाबों के सार मात्र का आश्रय ग्रहण करे॥१८-२०॥

वेदे वेदक्रिया कार्या मदुक्तवचनादृतः ।

पशूनां श्रमदाहानामिति लक्षणमीरितम् ॥२१॥

तीनों भावों के लक्षण --- वेद में ज्ञानी साधक वेद प्रतिपादित क्रिया करे । मेरे वचनों में आदर भाव रखे । इस प्रकार श्रम से दग्ध होने वाले, पशुओं का यहाँ तक लक्षण कहा गया है ॥२१॥

आगमार्थं क्रिया कार्या मत्कुलागमचेष्ट्या ।

वीराणामुद्धतानाञ्च मत् शरीरनुगामिनाम् ॥२२॥

मच्चेच्छाकुल तत्त्वानामिति लक्षणमीरितम् ।

मेरे कुलागम में कही गई विधि के अनुसार ( वीर भाव का साधक ) आगमार्थ क्रिया करे । इस प्रकार मेरे शरीर का अनुगमन करने वाले निर्भय वीरों को मेरी इच्छा के अनुकूल सर्वदा व्यवहार करना चाहिए । यहाँ तक वीरभाव का लक्षण कहा गया ॥२२ - २३॥

विवेकसूत्रसंज्ञाज्ञा कार्या सुदृढचेतसाम् ॥२३॥

सर्वत्र समभावनां भावमात्रं हि साधनम् ।

सर्वत्र मत्पदाम्भोजसम्भवं सचराचरम् ॥२४॥

पृष्ट्‌वा यत्कुरुते कर्म चाखण्डफलसिद्धिदम् ।

अखण्डज्ञानचित्तानामिति भावं विवेकिनाम् ॥२५॥

निर्मलानन्ददिव्यानामिति लक्षणमीरितम् ।

स्थिर चित्त वालों को अपनी विवेक सूत्र संज्ञा रूप प्रज्ञा के अनुसार मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए । यतः सभी जगत को समभाव से देखने वालों के लिए भावमात्र ही साधन है । समस्त चराचरात्मक जगत् ‍ मेरे चरण कमलों से उत्पन्न हुआ है ऐसी सम बुद्धि रखनी चाहिए। मेरी आज्ञा लेकर साधक, जो भी कर्म करता है वह अखण्ड फल देने वाला होता है । यहाँ तक अखण्ड ज्ञान से युक्त चित्त वाले विवेकी तथा निर्मलानन्द से परिपूर्ण दिव्य ज्ञान वालों के लक्षण कहे गये ॥२३ - २६॥

दिव्ये तु त्रिविधं भावं यो जानति महीतले ॥२६॥

न नश्यति महावीरः कदाचित् साधकोत्तमः ।

दिव्यभावं विना नाथ मत्पदाम्भोजदर्शनम् ॥२७॥

य इच्छति महादेव स मूढः साधकः कथम् ।

पशुभावं प्रथमएक द्वितीये वीरभावकम् ॥२८॥

तृतीये दिव्यभावञ्च दिव्यभावत्रय्म क्रमात् ।

तत्प्रकारं श्रृणु शिव त्रैलोक्यपरिपावन ॥२९॥

इस पृथ्वीतल में दिव्यभाव में इन तीन लक्षणों को जो जानता है ऐसा महावीर साधक श्रेष्ठ कभी भी विनष्ट नहीं होता । हे नाथ ! दिव्यभाव के बिना जो साधक मेरे चरण कमलों का दर्शन चाहता है वह महामूर्ख है । फिर वह साधक कैसे हो सकता है? प्रथम पशुभाव, द्वितीय वीरभाव, और तृतीय दिव्य भाव है, इस प्रकार क्रम से दिव्यभाव के तीन भेद होते हैं । हे त्रैलोक्य को पवित्र करने वाले सदाशिव ! अब उन भावों के प्रकारों को सुनिए ॥२६ - २९॥

भावत्रयविशेषज्ञः षडाधारस्य भेदनः ।

पञ्चतत्त्वार्थभावज्ञो दिव्याचाररतः तदा ॥३०॥

स एव भवति श्रीमान् सिद्धनामादिपारगः ।

शिववद् विहरेत् सोऽपि अष्टैश्वर्यसमन्वितः ॥३१॥

तीन भावों को विशेष रुप से जानने वाला, षट्‍चक्रों का भेदन करने वाला, पञ्चतत्त्वार्थ के भावों का ज्ञानी तथा दिव्याचार में जो निरत है ऐसा ही साधक श्रीमान् ‍ एवं सिद्धों में श्रेष्ठ होता है । वह अष्ट ऐश्वर्य से समन्वित हो कर शिव के समान ब्रह्माण्ड में विहार करता है ॥३० - ३१॥

सर्वत्र शुचिभावेन आनन्दघनसाधनम् ।

प्रातःकालादिमध्याहनकालपर्यन्तधारणम् ॥३२॥

भोजनञ्चोक्तद्रव्येण संयमादिक्रमेण वा ।

यः साधयति स सिद्धो दिव्यभावे पशुक्रमात् ॥३३॥

सभी स्थानों पर पवित्र भाव से प्रातःकाल से मध्याह्न काल पर्यन्त आनन्दघन सच्चिदानन्द का साधन करने वाला और उनकी धारणा करने वाला, शास्त्र प्रतिपादित पदार्थों का भोजन करने वाला और क्रमशः संयम पथ पर अग्रसर रहने वाला तथा दिव्यभाव में पशुभाव के क्रम से साधक करने वाला साधक सिद्ध होता है॥३२-३३॥

रूद्रयामलतंत्र एकादश पटल - दिव्यभाव वीरभाव

दिव्यभावे वीरभावं वदामि तत्पुनः श्रृणु ।

मध्याहनादिकासन्ध्यान्तं शुचिभावेन साधनम् ॥३४॥

जपनं धारणं वापि चित्तमादाय यत्नतः ।

एकान्तनिर्जने देशे सिद्धो भवति निश्चितम् ॥३५॥

हे शङ्कर ! अब जिस प्रकार दिव्यभाव में वीरभाव होता है उसे श्रवण कीजिए । जो पवित्रता पूर्वक मध्याह्न से लेकर सन्ध्यापर्यन्त चित्त स्थिर रख कर किसी एकान्त निर्जन प्रदेश में जप तथा (ध्यान एवं) धारणा करता है, वह निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है ॥३४ - ३५॥

तत्कालं वीरभावार्थं भावमात्रं हि साधनम् ।

भावेन लभते सिद्धिं वीरादन्यन्न कुत्रचित् ॥३६॥

वीरभाव की प्राप्ति के लिए ऊपर कहे गये काल में भावमात्र ही साधन है । क्योंकि भाव सिद्धि प्राप्त होती है । वीरभाव भाव ( त्रय ) से अलग पदार्थ नहीं है वही भाव है ॥३६॥

रूद्रयामलतंत्र एकादश पटल - उत्तम साधक के लक्षण

रात्रौ गन्धादिसम्पूर्णस्ताम्बूलपूरिताननः ।

विजयानन्दसम्पन्नो जीवात्मपरमात्मनोः ॥३७॥

ऐक्यं चित्ते समाधाय आनन्दोद्रेकसंभम्रः ।

यो जपेत् सकलां रात्रिं गतभीर्निजने गृहे ॥३८॥

स भवेत् कालिकादासो दिव्यानामुत्तमोत्तमः ।

रात्रि में गन्धादि से परिपूर्ण हो कर मुख में ताम्बूल का बीड़ा चबाते हुये विजय और आनन्द से संपन्न जो साधक निर्भय हो कर किसी निर्जन स्थान अथवा घर में जीवात्मा और परमात्मा में ऐक्य की भावना करते हुये सारी रात जप करता है वही महाकाली का दास दिव्यों में उत्तमोत्तम साधक कहा गया है ॥३७ - ३९॥

एवं भावत्रयं ज्ञात्वा यः कर्म साधयेत्ततः ॥३९॥

अष्टैश्वर्ययुतो भूत्वा सर्वज्ञो भवति ध्रुवम् ।

भावत्रयाणां मध्ये तु भावपुण्यार्थनिर्णयम् ॥४०॥

श्रृणु नाथ प्रवक्ष्यामि सावधानाऽवधारय ।

अकस्मात् सिद्धिमाप्नोति ज्ञात्वा सङ्केत्तलाञ्छितम् ॥४१॥

यो जानाति महादेव तस्य सिद्धिर्न संशयः ।

द्वादशे पटले सूक्ष्मसङ्केतार्थ्म वदामि तत् ॥४२॥

इस प्रकार तीनों भावों का लक्षण जान कर जो कर्म करता है वह अष्ट ऐश्वर्यों से युक्त हो कर निश्चित रूप से सर्वज्ञ हो जाता है । हे नाथ ! तीनों भावों में रहने वाले भावमात्र के पुण्यों को मैं कहता हूँ, सावधान हो कर सुनिए ।

साधक जिसके संकेत मात्र से अकस्मात् ‍ सिद्धि प्राप्त कर लेता है, हे महादेव ! उसे निःसंदेह सिद्धि प्राप्त होती है । उस सूक्ष्मभाव का संकेतार्थ मैं द्वादश पटल में कहूँगी ॥३९ - ४२॥

आनन्दभैरवी उवाच

एकादशे च पटले शुद्धभावार्थनिर्णयम् ।

भावेन लभ्यते सर्वं भावाधीनं जगत्त्रयम् ॥४३॥

भावं विना महादेव न सिद्धिर्यायते क्वाचित् ।

पशुभावाश्रयाणाञ्च अरुणोदयकालतः ॥४४॥

दशदण्डाश्रितं कालं प्रश्नार्थं केवलं प्रभो ।

चक्रं द्वादशराशेश्च मासद्वादशकस्य च ॥४५॥

आनन्दभैरवी ने पुनः कहा --- इस एकादश पटल में शुद्ध भावार्थ का निरूपण किया गया है । भाव से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । यह तीनों जगत् ‍ भावाधीन ही है । हे महादेव ! भाव के बिना कभी किसी को सिद्धि नहीं प्राप्त होती ।

भाव प्रश्न के लिए कला --- पशुभाव का आश्रय लेने वाले साधकों को अरुणोदय काल से दश दण्ड ( ४घण्टे ) पर्यन्त काल का आश्रय लेना चाहिए । हे विभो ! केवल भाव प्रश्नार्थबोधक प्रश्न के लिए भी यही काल उचित है । इसी प्रकार विचक्षण पुरुषों को द्वादाश पटल में कहूँगी ॥३९ - ४२॥

दशदण्डे विजानीयाद् भावाभावं विचक्षणः ।

अनुलोमविलोमेन पञ्चस्वरविभेदतः ॥४६॥

बाल्य कैशोरसौन्दर्यं यौवनं वृद्धसञ्ज्ञकम् ।

अस्त(अष्ट)मितंक्रमाज्ज्ञेयो विधिः पञ्चस्वरः स्वयम् ॥४७॥

स्वकीयं नासिकाग्रस्थं पञ्चमं परिकीर्तितम् ।

नासापुट के पञ्चस्वर का महत्त्व और उनकी संज्ञा - इसमें अनुलोम एवं विलोम क्रम से तथा पञ्च स्वरों के भेद से बाल्यावस्था, किशोरावस्था तथा सौन्दर्ययुक्त यौवन और वृद्धावस्था एवं अस्तमित ( मृत ) संज्ञा वाला काल क्रमशः जानना चाहिए । पञ्चस्वरों में इसी का विधान है । हे भैरव ! उक्त चार स्वरों ( द्र०११ . ४७ ) के अतिरिक्त नासिका के अग्राभाग में स्थित रहने वाला पाँचवाँ स्वर भी कहा गया है ॥४६ - ४८॥

यन्नासापुटमध्ये तु वायुर्भवति भैरव ॥४८॥

तन्नासापुटमध्ये तु भावाभावं विचिन्तयेत् ।

आकाशं वायुरुपं हि तैजसं वारुणं प्रभो ॥४९॥

पार्थिवं क्रमशो ज्ञेयं बाल्यास्तादिक्रमेण तु ।

हे भैरव ! जिस नासिका के छिद्र के मध्य से वायु बहती हो, साधक उसी नासापुट के द्वारा बहते हुये वायु से कार्य के भावाभाव की परीक्षा करे । हे प्रभो ! बाल्य, कैशोर, युवा, वृद्ध और अस्तादि भेद के क्रम के से प्रथम बाल्य की आकाश संज्ञा, द्वितीय कैशोर की वायु संज्ञा, तृतीय यौवन की तैजस संज्ञा, चतुर्थ वृद्धावस्था की वरुण संज्ञा तथा पञ्चम अस्तमित की पार्थिवसंज्ञा समझनी चाहिए ॥४८ - ५०॥

वामोदये शुभा वामा दक्षिणे पुरुषः शुभः ॥५०॥

स्वर का फल विचार --- (प्रस्थान काल में) बायें स्वर के चलते यदि स्त्री दिखाई पड़ जाय तो वह शुभ है तथा दाहिना स्वर चलते समय यदि पुरुष दिखाई पड़े तो शुभ है ॥५०॥

वायुनां गमनं ज्ञेयं गगनावधिरेव च ।

केवलं मध्यदेशे तु गमनं पवनस्य च ॥५१॥

तदाकाशं विजानीयाद् बाल्यभावं प्रकीर्तितम् ।

तिर्यग्गतिस्तु नासाग्रे वायोरुदयमेव च ॥५२॥

बाल्य भाव --- नासिकास्थ वायु का गमन गगन पर्यन्त कहा गया है, यदि नासिकास्थ वायु मध्यदेश में चले तो पवन का गमन समझना चाहिए । इसे आकाशतत्त्व का तथा बाल्यभाव का उदय कहना चाहिए । जब नासिका के अग्रभाग से वायु तिरछी चले तो वायुतत्त्व का उदय समझना चाहिए ॥५१ - ५२॥

केवलं भ्रमणं ज्ञेयं सर्वमङ्गलमेव च ।

किशोर तद्विजानीयाद् वायौ तिर्यग्गतौ विभो ॥५३॥

हे विभो ! वायु के तिरछे चलने पर किशोरावस्था जाननी चाहिए । उसमें प्रश्नकर्ता के केवल भ्रमण करना पड़ता है किन्तु सभी प्रकार का मङ्गल भी होता है ॥५३॥

केवलोर्द्धवनासिकाग्रे वायुर्गच्छति दण्डवत् ।

तत्तैजसं विजानीयाद् गमनं बलवद् भवेत् ॥५४॥

जब नासिका के ऊर्ध्वभाग से दण्डे के समान केवल सीधा वायु चले तो तैजस तत्त्व का उदय समझना चाहिए । उसमें यात्रा बलवती होती है ॥५४॥

तद्वृद्धगतभावञ्च विलम्बोऽधिकचेष्टया ।

प्राप्नोति परमां प्रीतिं वरुणाम्भोदये रुजाम् ॥५५॥

जब अधिक चेष्टा करने पर भी विलम्ब से वायु बहे तो वृद्धावस्था समझनी चाहिए । इस वरुण रूप अम्भस का उदय होने से रोगों की उत्पत्ति जाननी चाहिए ॥५५॥

यदाधो गच्छति क्षिप्रं किञ्चिद् ऊर्ध्वमगोचरम् ।

यदा करोति प्रश्वासं तदा रोगोल्बणोदयः ॥५६॥

इसी प्रकार जब नासिकास्थ वायु नीचे चले और ऊपर की ओर न दिखाई पडे़ तो वह श्वास रोग देकर शरीर को उपद्रवग्रस्त कर देता है ॥५६॥

पृथिव्या उन्नतं भाग्यं योगातपप्रपीडितम् ।

अस्तमितं महादेव अनुलोमविलोमतः ॥५७॥

पवनो गच्छति क्षिप्रं वामदक्षिणभेदतः ।

वामनासापुटे याति पृथिवी जलमेव च ॥५८॥

सदा फलाफलं दत्ते मुदिता कुण्डमण्डले ।

हे महादेव ! यह पृथ्वी तत्त्व का वायु है जो रोग आतप से प्रपीडित करता है । अनुलोम से विलोम की ओर चलने वाले वायु की अस्तमितसंज्ञा है ।

कभी बायें से दक्षिण और कभी दक्षिण से बायें वायु बहुत शीघ्रता से चलता है । जब वायु दक्षिण से बायें नासिकापुट मे प्रवेश करे तो पृथ्वी और जल तत्त्व का उदय समझना चाहिए । वह नासा रुपी मुदित कुण्डमण्डल में फलाफल दोनों ही प्रदान करता है ॥५७ - ५९॥

तयोर्वै वायवी शक्तिः फलभागं तदा लभेत् ॥५९॥

यद्येवं वामभागे तु वामायाः प्रश्नकर्मणि ।

यदि तत्र पुमान् प्रश्नं करोति वामगामिने ॥६०॥

तदा रोगमवाप्नोति कर्महीनो भवेद् ध्रुवम् ।

यदि वायूदयो वामे दक्षिणे पुरुषः स्थितः ॥६१॥

तदा फलमवाप्नोति द्रव्यागमनदुर्लभम् ।

अकस्माद् द्रव्यहानिः स्यान्मनोगतफलापहम् ॥६२॥

यदि स्त्री प्रश्न करने वाली हो और वामभाग से वायवी शक्ति प्रवाहित हो तो उसे शुभ फल मिलता है । यदि वाम नासा चलते समय पुरुष प्रश्न करे तो उसे रोग की प्राप्ति होती है । वह निश्चय ही कर्महीन रहता है । यदि बायें से वायु का उदय हो और प्रश्नकर्ता पुरुष दाहिनी ओर स्थित हो तो उसे सुफल प्राप्त नहीं होता है । द्रव्य ( धन ) का आगमन दुर्लभ होता है । अकस्मात् ‍ उसके द्रव्य की हानि होती है और उसके समस्त मनोगत फल नष्ट हो जाते हैं ॥५९ - ६२॥

सुहृद् भङ्गविवादञ्च भिन्नभिन्नोदये शुभम् ।

केवलं वरुणस्यैव पुरुषो दक्षिणे शुभम् ॥६३॥

उसके मित्र नष्ट हो जाते हैं और उसे विवाद का सामना करना पड़ता है । आकाशादि तत्त्वों का शुभाशुभ फल विचार -( उस वॉई नासिका से वायु के उदय की अपेक्षा ) भिन्न भिन्न तत्त्वों के उदय में वह शुभकारी है । पुरुष के दक्षिण नासा से चलने वाल जल तत्त्व शुभकारी है ॥६३॥

अशुभं पृथिवीदक्षे भेदोऽयं वरदुर्लभः ।

सदोदय दक्षिणे च वायोस्तैजसे एव च ॥६४॥

यदि दाहिने भाग से पृथ्वी तत्त्व चलता हो तो वह अशुभ है । दक्षिण नासिका से यदि वायु और तैजस तत्त्व प्रवाहमान हो तो वह सर्वदा अभ्युदयकारक है, किन्तु इस स्वर भेद का ज्ञान होना बहुत दुर्लभ है ॥६४॥

आकाशस्य विजानीयात् शुभाशुभफलं प्रभो ।

यदि भाग्यवशादेव वायोर्मन्दा गतिर्भवेत् ॥६५॥

दक्षनाशामध्यदेशे तदा वामोदयं शुभम् ।

तदा वामे विचारञ्च वायुतेजोद्वयस्य च ॥६६॥

ज्ञात्वोदयं विजानीयाद् मित्रे हानिः सुरे भयम् ।

एवं सुभवनागारे यदि गच्छति वायवी ॥६७॥

तस्मिन् काले पुमान् दक्षो दक्षभागस्थसम्मुखः ।

तदा कन्यादानफलं यथा प्राप्नोति मानवः ॥६८॥

हे प्रभो ! आकाश तत्त्व के भी शुभाशुभ फल का विचार करना चाहिए । यदि भाग्यवश दक्षिण नासा के मध्य में वायु की गति धीमी हो और उसकी अपेक्षा वामोदय हो तो शुभ है । उस समय बायें नासिका से वायु का विचार करना चाहिए । यदि वायु और तैजस दोनों तत्त्व का उदय हो तो मित्र की हानि तथा देवताओं का भय समझना चाहिए । इसी प्रकार यदि किसी सुन्दर मकान में वायवी तत्त्व प्रवाहमान हो तो उस समय पुरुष दाहिने अथवा दक्षिण भाग में अथवा सम्मुख स्थित हो तो वह पुरुष कन्यादान ( विवाह ) का फल प्राप्त करता है ॥६५ - ६८॥

तदा वायुप्रदादेन प्राप्नोति धनमुत्तमम् ।

देशान्तरस्थभावार्त्ता आयान्ति पुत्रसम्पदः ॥६९॥

उस समय वह वायवी तत्त्व की कृपा से उत्तम धन प्राप्त करता है तथा देशान्तर में रहने वाले सम्बन्धी का समाचार मिलता है और उसे पुत्र एवं संपत्ति वहाँ से प्राप्त होती है ॥६९॥

बाल्यादिकं भावत्रयं राशिभेदे शुभं दिशेत्

एतच्चक्रे फलं तस्य राशिद्वादशचक्रके ॥७०॥

राशिभेद होने पर बाल्यादिक तीनों भावों का शुभ फल कहना चाहिए । द्वादशराशि चक्र से उसका सूक्ष्म फल समझना चाहिए ॥७०॥

सूक्ष्मं फलं विजानीयात् चक्रं नाम श्रृणु प्रभो ।

आज्ञाचक्रं कामचक्रं फलचक्रञ्च सारदम् ॥७१॥

प्रश्नचक्रं भूमिचक्रं स्वर्गचक्रं ततः परम् ।

तुलाचक्रं वारिचक्रं षट्‌चक्रं त्रिगुणात्मकम् ॥७२॥

सारचक्रमुल्काचक्र् मृत्युचक्रं क्रमात्प्रभो ।

षट्‌कोण चात्र जानीयादनुलोमविलोमतः ॥७३॥

हे प्रभो ! अब आप उन चक्रों के नामों को सुनिए -

१. आज्ञाचक्र, २. कामचक्र, ३. सारद फलचक्र, ४. प्रश्नचक्र, ५. भूमिचक्र उसके बाद ६. स्वर्गचक्र, ७. तुलाचक्र, ८. वारिचक्र, ९. त्रिगुणात्मक षट्‍चक्र, १०. सारचक्र, ११. उल्काचक्र, तथा १२. मृत्युचक्र । हे प्रभो ! क्रमशः इन चक्रों में अनुलोम तथा विलोम के अनुसार षट्‍कोण समझना चाहिए ॥७१ - ७३॥

सर्वचक्रे स्वरज्ञानं सर्वत्र वायुअसङुतिम् ।

सर्वप्रश्नादिसञ्चारं भावेन जायते यदि ॥७४॥

तदा तद्दण्डमानञ्च ज्ञात्वा राश्ययुदयं बुधः ।

कुर्यात् प्रश्नइचारञ्च यदि कीर्तिमिहेच्छति ॥७५॥

यदि सभी चक्रों में स्वरज्ञान, वायु की संगति पूर्वक सभी प्रकार के प्रश्नों का सञ्चार भाव से उत्पन्न हो तो उस समय बुद्धिमान् ‍ को यदि कीर्ति की अभिलाष हो तो उस उस दण्ड के मान् ‍ से राशि का उदय समझकर प्रश्न पर विचार करना चाहिए ॥७४ - ७५॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने भावबोधनिर्णये पशुभावविचारे सारसङ्केते सिद्धमन्त्रप्रकरणे भैरवीभैरवसंवादे एकादशः पटलः ॥११॥

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन के भावबोधनिर्णय में पशुभाव विचार के सारसंकेत में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भैरवी भैरव संवाद में ग्यारहवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ ११ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल १२ 

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