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कर्मकाण्ड

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रुद्रयामल तंत्र पटल १२

रुद्रयामल तंत्र पटल १२      

रुद्रयामल तंत्र पटल १२ में काम चक्र के स्वरूप का प्रतिपादन है। इस चक्र का सम्पाद किस रीति से करना चाहिए ? उसमें प्रश्न के प्रकार और उसके फल का विवेचन है। पुनः फलचक्र का, फिर आज्ञाचक्र के स्वरूप एवं फल सभी का निरूपण है ।

रुद्रयामल तंत्र पटल १२

रुद्रयामल तंत्र पटल १२    

रुद्रयामल द्वादश: पटलः भावप्रश्नार्थबोधकथनम्

रुद्रयामल बारहवां पटल 

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल

पञ्चस्वरविधानम्

आनन्दभैरवी उवाच

तद्वामसन्धिदेशस्थमष्टमाङ्कमथो लिखेत् ।

तदधः सन्धिदेशस्थं सप्ताङ्क विलिखेद् बुधः ॥१॥

तदूर्ध्वं वामकोणे च तृतीयाङ्कं लिखेत्ततः ।

तदूर्ध्वं कोणगेहे च युग्माङ्कं विलिखेत्तथा ॥२॥

तद्दक्षिणे गृहे चैकमङ्कवर्णं श्रृणु प्रभो ।

श्री आनन्दभैरवी ने कहा --- उस चक्र के बायीं ओर स्थित सन्धि देश में ८ का अङक लिखे । उसके नीचे की ओर स्थित सन्धि देश में बुद्धिमान् ‍ साधक ७ अङक लिखे । उसके ऊपर बायीं ओर के कोण में ३ का अङ्क लिखे । उसके ऊपर के कोणगृह में २ का अङ्क लिखे । उसके दाहिनी ओर के गृह में १ का अङ्क लिखे । हे प्रभो ! अब उनमें लिखे जाने वाले वर्णों को भी सुनिए ॥१ - ३॥

भावप्रश्नार्थबोधकथनम्

वसुभाव शून्यभावं षष्ठभावञ्च शून्यकम् ॥३॥

एतन्मध्ये नास्ति वर्णं कोणाङ्कञ्च सवर्णकम् ।

टतवर्गौ श श लिखेत् शरे शून्याध एव च ॥४॥

वसु अर्थात् ‍ आठवाँ भाव शून्य तथा छठा भाव शून्य रखे । इनके मध्य में कोई वर्ण नहीं लिखना चाहिए । शेष कोणों में वर्ण के साथ अङकों को भी लिखे । ५ वें कोण में ट वर्ग तथा त वर्ग एवं श ष लिखे । नीचें का कोण शून्य रखे ॥३ - ४॥

वेदाङ्कस्थौ कचवगौं एऐकारसमन्वितौ ।

तृतीयाङ्कास्थितं वर्णं आदिक्षान्तं टवर्गमोम् ॥५॥

चौथे अङ्क में एकार ऐकार से युक्त क वर्ग तथा च वर्ग लिखे तीसरे गृह में अकार से लेकर क्षान्त वर्ण तथा ट वर्ग एवं ओम्‍’ लिखे ॥५॥

तपवगौं युगान्तस्थौ मकारं सावधानतः ।

विलिखेद् दक्षिणे तस्य गेहे चैकाङ्कमध्यके ॥६॥

उयुगं पतवर्गौ च अकारं युग्मशीर्षके ।

एतत् चक्रं कामचक्रं प्रश्नकाले फलप्रदम् ॥७॥

दूसरे में त वर्ग, प वर्ग तथा मकार सावधानी से लिखें उसके दक्षिण वाले गृह में जिसमें एक अङ्क हो उसमें दोनों हृस्व दीर्घ उकार ( उ ऊ ) एवं प वर्ग और त वर्ग लिखे । चक्र के दोनों शिरों पर अकार लिखे । यही कामचक्र है जो प्रश्न काल में फल देने वाला है ॥६ - ७॥

रुद्रयामल बारहवां पटल - महासूक्ष्मफल-ज्ञापकचक्र

वामावर्तेन गणयेत् दशकोणस्थवर्णकान् ।

अनुलोम विलोमेन पञ्चस्वरादिनामतः ॥८॥

यस्मिन्गृहे स्वीयनाम् प्रोप्नोति वेदपारगः ।

तद्गृहावधि प्रश्नार्थं गणयेद्  ग्रहसिद्धये ॥९॥

दशकोण में रहने वाले वर्णों को वामावर्त ( उल्टी ओर ) से गणना करे । किन्तु पञ्च स्वरों वाले नाम पर्यन्त वर्णों को अनुलोम (सीधे सीधे) और विलोम (उल्टी ओर) क्रम से ( ५ + ५ = १० ) गणना करे । वेद पारग विद्वान् ‍ जिस घर में गणना से अपना नाम प्राप्त करे उसी गृह की अवधि तक ग्रहों की सिद्धि के लिए प्रश्न की गणना करे ॥८ - ९॥

नवग्रहनवस्थानं वर्णं ज्ञात्वा सुबुद्धिमान् ।

बाल्यभावादिकं ज्ञात्वा यत्र ग्रहस्थितिर्भवेत् ॥१०॥

तन्नक्षत्रं समानीय द्वाराधिकारमानयेत् ।

विना त्रिकोणयोगेन् षट्‌कोणं लिखेद् बुधः ॥११॥

सुबुद्धिमान् ‍ नवों ग्रहों के नवो स्थानों तथा वर्णों को जान कर फिर जहाँ ग्रहस्थिति हो उनके बाल्यादिभोवों की भी जानकारी करे । उससे नक्षत्र बनाकर फलज्ञान करे । बुद्धिमान् ‍ साधक बिना त्रिकोण बनाये षट्‍कोण की रचना करे ॥१० - ११॥

तन्मध्ये अष्टकोणञ्च भित्वा देवगृहान्तरम् ।

तन्मध्ये चापि षट्‌कोणं तन्मध्ये च त्रिकोणकम् ॥१२॥

क्रमेण विलिखेद् वर्णं दक्षिणावर्त्तयोगतः ।

ऊद्र्ध्ववामदेशभागे अ आ इ च कवर्गकम् ॥१३॥

उसके मध्य में अष्टकोण बना कर उसमें भेद पूर्वक (बॉटकर) देवताओं का घर ( स्थान ) भी निर्माण करे । पुनः उसके मध्य में षट्‍कोण तथा उसके भी मध्य में त्रिकोण की रचना करे । फिर दाहिनी ओर के क्रम से वर्णों को इस प्रकार लिखे - ऊपर की ओर वाम देश भाग में अ आ इ तथा क वर्ग और च वर्ग लिखे ॥१२ - १३॥

तद्दक्षिणे ई इ युगं टवर्गञ्च लिखेद् बुधः ।

दक्षपार्श्व अधोभागे ऋयुगं तु तवर्गकम् ॥१४॥

तदधो लृ लृ ए ऐ रुपञ्च पवर्गञ्च लिखेद् बुधः ।

तद्वामपार्श्वभागे च ओ औ यरलवान् लिखेत् ॥१५॥

शेषगेहे लिखेदं अः शादिक्षान्तं हि शड्‌गृहे ।

बुद्धिमान् ‍ साधक उसके दक्षिण ओर इ ई तथा ट वर्ग वर्ण लिखे । तदनन्तर दाहिनी ओर पार्श्व भाग के अधोभाग में दोनों हृस्व दीर्घ ऋकार ( ऋ ऋ ) तथा त वर्ग लिखे । उसके नीचे लृ लृ ए ऐ , का रूप तथा प वर्ग वर्ण लिखे । फिर उसके बाँई ओर ओ औ य र ल तथा लिखे । शेष गृहों के मध्य तथा आदि कोण में अं अः तथा शेष श ष स ह क्ष आदि ६ वर्णों को लिखे ॥१४ - १६॥

मध्यस्तमादिकोणे च एकाङ्क शार्वकं तनुम् ॥१६॥

रुद्राग्निमूर्तिमनिलं अग्निकोणे लिखेद् बुधः ।

यजमानः पशुपतिमूर्तिषष्ठञ्च दक्षिणे ॥१७॥

फिर एक एक अङ्क के क्रम से सदाशिव के ८ मूर्तियों को इस प्रकार लिखे । नैऋत्य कोण में नाम सहित बुद्धिमान् ‍ साधक रुद्र की एक एक मूर्ति का उल्लेख इस प्रकार करे - अग्नि कोण में रुद्ररुपायाग्निमूर्तये नमः रुद्र की तीसरी मूर्ति लिखे । दक्षिण में पशुपतये यजमान मूर्तये नमः यह षष्ठ मूर्ति लिखे ॥१६ - १७॥

महादेवं सोममूर्तिं सप्तमं नैऋते लिखेत् ।

जलमूर्तिभवं युग्मं पश्च्मिमे विलिखेद् बुधः ॥१८॥

उग्रवीरं वायुमूर्तिं वायुकोणे चतुर्थकम् ।

भीमरुपाकाशमूर्तिं पञ्चमं चोत्तरे लिखेत् ॥१९॥

इसके बाद नैऋत्य कोण में महादेवाय सोममूर्त्तये नमः सप्तम मूर्ति लिखे । पश्चिम में भवाय जलमूर्तये नमः रुद्र की दूसरी मूर्ति लिखे । वायुकोण में उग्रवीराय वायुमूर्त्तये नमः यह चतुर्थ मूर्ति लिखे । तदनन्तर उत्तर दिशा में भीमरुपायाकाशमूर्त्तये नमः रुद्र की पञ्चम मूर्ति लिखे ॥१८ - १९॥

ईशानं सूर्यमूर्तिञ्च ईशाने षड्‌दलं लिखेत् ।

अधःषट्‌कोणमध्ये च षट्‌कोणं विलिखेत्ततः ॥२०॥

ऊद्र्ध्वकोणे ग्रीष्मकालं शिशिरञ्चापि दक्षिणे ।

वर्षाकालमधस्तस्य सर्वाधश्च वसन्तकम् ॥२१॥

शरत्कालं पञ्चकोशे शीतकालञ्च षष्ठ्के ।

त्रिकोणे चापि तन्मध्ये वहिनरुपं वकरकम् ॥२२॥

इसके बाद ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः यह अष्टम मूर्ति ईशान कोण में लिखे । इसके बाद फिर षड्‍दल के मध्य भाग में पुनः षटकोण का निर्माण करे । उसके ऊर्ध्वकोण में ग्रीष्म काल लिखे दक्षिण में शिशिर लिखे । नीचे वर्षा काल और फिर सबसे नीचे बसन्त लिखे । इसके बाद साधक पॉचवें खाने में शरत्काल एवं षष्ठ कोष्ठ में शीतकाल लिखे । पुनः उसके मध्य में त्रिकोण का निर्माण कर तीन बार ’ ( व व व ) वर्ण को लिखे ॥२० - २२॥

लिखित्वा गणयेन्मन्त्री वर्णदेवाङ्कवहिनभिः ।

एतच्चक्रं महासूक्ष्मं फलचक्रं विशारदम् ॥२३॥

मन्त्रज्ञ साधक इस प्रकार लिखकर वर्ण ’ ’ देवता तथा अङ्क् ‍ से प्रारम्भ कर तीन तीन बार गणना करे । यह चक्र महासूक्ष्म तथा बहुत बड़ा चक्र फलचक्र के नाम से प्रसिद्ध है ॥२३॥

रुद्रयामल तंत्र पटल १२    

रुद्रयामल द्वादश पटल - प्रश्नफलबोधक चक्र

अधुना कुलनाथेश पृष्ठचक्रं पुनः श्रृणु ।

विना ज्ञानेन यस्यैवं पृष्ठभावो न जायते ॥२४॥

यदि पृष्ठचक्रभावं जानाति साधकोत्तमः ।

तदा निजफलं ज्ञात्वा सिद्धिमाप्नोति निश्चितम् ॥२५॥

हे नाथ ! अब पृष्ठचक्र को पुनः सुनिए । जिसके बिना जाने पृष्ठ ( प्रश्न ) का ज्ञान नहीं होता । यदि उत्तम साधक पृष्ट (प्रश्न) चक्र का भाव ( फल ) जान ले । तब वह अपना फल भी ज्ञात कर निश्चित रुप से सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥२४ - २५॥

आनन्दभैरव उवाच

षट्‌कोणं कारयेनमन्त्री विना त्रिकोणसाधनैः ।

तन्मध्ये च चतुष्कोणं तन्मध्ये शादिवर्णकान् ॥२६॥

लिखित्वा विलिखेत्तत्र षडङ्कमध्यदेशतः ।

षडङ्कं दापयेन्मन्त्री दीर्घदीर्घक्रमेण तु ॥२७॥

आनन्दभैरव ने कहा --- मन्त्रज्ञ साधक बिना त्रिकोण बनाये ही षट्‍कोण का निर्माण करे, उसके मध्य में चतुष्कोण फिर उस चतुष्कोण में श ष स ह इन वर्णों को लिखे । ऐसा लिखने के बाद ६ अङ्क के मध्य देश से आरम्भ करके दीर्घ क्रम से ६ अङ्क भी स्थापित करे ॥२६ - २७॥

तदग्रे षड्‌गृहं कुर्यात्तत्राङ्कार्णान् लिखेत्सुधीः ।

ऊद्र्ध्वप्रथमगेहे च कवर्गं विलिखेद् बुधः ॥२८॥

तद्दक्षिणे मन्दिरे च चवर्गं विलिखेद्  बुधः ।

टवर्गं दक्षिण चाधः सर्वाधस्तु तवर्गकम् ॥२९॥

उसके आगे ६ गृह बनावें । उसमें अङ्कों को तथा अक्षरों को इस प्रकार क्रम से लिखे । ऊपर वाले प्रथम गृह में बुद्धिमान् ‍ मन्त्रवेत्ता, क वर्ग लिखे । उसके दक्षिण भाग में स्थित द्वितीय गृह में च वर्ग लिखे और दक्षिण गृह के नीचे ट वर्ग तथा सबसे नीचे त वर्ग लिखे ॥२८ - २९॥

तद्वामे मन्दिरे नाथ पवर्ग वर्णमङुलम् ।

तदूर्ध्वे यादिवान्तं च दक्षिणावर्त्तयोगतः ॥३०॥

अकारादिस्वरान् तत्र मन्दिरे विलिखेद् बुधः ।

यावत् स्वस्थितिर्याति तावत्कालं विचारयेत् ॥३१॥

मेषादिराशिसद्भावं वर्गलेखनमानतः ।

अनुलोमविलोमेन विलिखेत् षष्ठमन्दिरे ॥३२॥

हे नाथ ! फिर उसके बायीं ओर वाले गेह में सभी वर्णों में मङ्गल देने वाला प वर्ग लिखे और उसके ऊपर य र ल व दक्षिणावर्त योग से लिखे । बुद्धिमान् ‍ मन्त्रज्ञ उसी मन्दिर में अकारादि स्वरों को लिखे और जब स्वर लिख ले तब विचार प्रारम्भ करे । जहाँ क वर्गादि वर्ग का नाम लिखा है वहीं उन छः गृहों में मेषादि राशियों को भी अनुलोम विलोम क्रम से लिखे ॥३० - ३२॥

यद्यद्गृहे साध्यनाम चास्ति नाथ स्वरादिकम् ।

एकत्रीकृत्य हरणात यदङ्क प्राप्यते वरम् ॥३३॥

षडङ्केन ततो नाथ हरेदनलसंख्यया ।

यदङ्क प्राप्यते तत्र स राशिस्तत् क्षणस्य च ॥३४॥

जिस जिस गृह में साध्य का नामाक्षर तथा उसमें होने वाले स्वरादि आवें, उन सबको एक स्थान पर रख कर जोड़ने से जो ( योगफल ) अङ्क प्राप्त हो, हे नाथ ! उसमें ६ का भाग देवे । फिर उसमें अनल संख्या ३ जोड़ दें । ऐसा करने से जो अङ्क प्राप्त हो वही उस क्षण की राशि जाननी चाहिए ॥३३ - ३४॥

रुद्रयामल तंत्र पटल १२  - आज्ञाचक्रकथन

आज्ञाचक्रं फलं सिद्धं विद्यानाथ वदामि तत् ।

येन विज्ञातमात्रेण सर्वज्ञो भवति ध्रुवम् ॥३५॥

अकस्मात् शक्तिमाप्नोति विद्यारत्नं ददामि तत् ।

रव्यादिसप्तवारञ्च कृते भद्रविवर्धनम् ॥३६॥

हे नाथ ! अब आज्ञाचक्र पर सिद्ध किए गये फलों को आप से कहती हूँ, जिसके जान लेने मात्र से साधक निश्चित रूप से सर्वज्ञ हो जाता है । जिससे अकस्मात् ‍ सिद्धि प्राप्त होती है, अब उस विद्या रत्न को मैं कहती हूँ । रवि आदि से प्रारम्भ सात वार सत्ययुग में मनुष्यों के कल्याणों को विवर्द्धन करने वाले थे ॥३५ - ३६॥

शन्यादिसत्पवारं च त्रेतायां सौख्यवर्द्धनम् ।

गुर्वादिसप्तवारञ्च द्वापरे धर्मसाधनम् ॥३७॥

शुक्रादिवारसप्तञ्च कलौ युगफलप्रदम् ।

अतः शुक्रादिपर्यन्तं गणयीयं विचक्षणैः ॥३८॥

इसके बाद त्रेता युग में शनि से आरब्ध सात बार मनुष्यों का सौख्य संपादन करते थे । इसके बाद गुरु से प्रारम्भ कर सात बार द्वापर में धर्म साधन के हेतु हुये । किन्तु कलियुग में शुक्र से प्रारम्भ कर सात बार फल देने वाले हुये अतः कलयुग होने के कारण विचक्षण पुरुष को शुक्रवार से ही गणना प्रारम्भ करनी चाहिए ॥३७ - ३८॥

गणयेत् सप्तवारञ्च मध्ये चतुद्र्दले सुधीः ।

पूर्वादिक्रमतो वारान् गणयेद् तन्त्रवित्तमः ॥३९॥  

निजवारो यत्र पत्रे समाप्तिस्तूद्भवञ्च तत् ।

तद्भराशिं समानीय वर्णभेदं समानयेत् ॥४०॥

सुधी साधक चतुर्दल के मध्य में पूर्वादि दिशा के क्रम से शुक्रवार से शुक्रवार से प्रारम्भ कर सातों वारों की गणना करे । अपना वार जिस पत्र पर समाप्त हो वही वार उद‍भव ( पैदा होने वाला ) समझना चाहिए । उसी से नक्षत्र तथा राशि बनाकर उसके वर्णभेद ( बाँटना ) को समझना चाहिए ॥३९ - ४०॥

सामान्यफलमूलञ्च वदार्णादिपत्रभेदतः ।

आज्ञाचक्रं शुभं मन्त्री आज्ञाचक्रं विचारयेत् ॥४१॥

तत्फलाफलमाहात्म्य श्रृणु सङ्केपण्डित ॥४२॥

वर्णों के आदि से तथा पत्रों के भेद से सामान्य़ फल का मूल समझना चाहिए । आज्ञाचक्र अत्यन्त शुभकारी है । अतः मन्त्रसाधक को आज्ञाचक्र का विचार अच्छी तरह जानना चाहिए । अब हे सङ्केत के पण्डित ! उसके फलाफल के माहात्म्य को सुनिए ॥४१ - ४२॥

आनन्दभैरव उवाच

दले पूर्वभागे आकारार्थ इन्दुस्फुटे राज्यलाभं हकारान्तशब्दम् ।

सामानार्थभावं विशिष्टार्थयोगं क्रतुक्षेमयुक्तं तथा पुत्रलाभम् ॥४३॥

आनन्दभैरव ने कहा --- पूर्व दिशा में रहने वाले आकार का अर्ध ( अर्थात् ‍ अ ) जिस पर चन्द्र बिन्दु हो ( अर्थात् ‍ अं ) तथा हकारान्त शब्द ( अः ) हो तो राज्य का लाभ होता है । १ . समान रूप से अर्थ की प्राप्ति तथा २ . विशिष्ट अर्थ का योग ३ . क्रतु ( पुण्यकार्य क्षेम से युक्त एवं पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है ॥४३॥

दयायुक्त भूषाश्र्यत्वं जयत्वं

समाप्नोति मर्त्यो विवाहं सुवाहम् ।

सुखं नाथ लोकानुरागं सुभोगं

विभाधावकानां समाप्ते क्षणादिम् ॥४४॥

ऐसा मनुष्य दया से युक्त भूषण का आश्रय वाला, विजयी तथा उत्तम विवाह (पत्नी पुत्र का भोग) प्राप्त करता है। हे नाथ! उसे एवं लोगों का अनुराग तथा भृत्यों से युक्त सुन्दरभोग प्राप्त होता है ॥४४॥

पद्मे दक्षिणपत्रके प्रियपदा मोददह भास्वरं

नानालक्षणदुःखदं शुचिपदा आन्दोलितस्तैरहम् ।

माहेन्द्रामृत योगरगहननं साक्षाद्यमारोपणं

चित्तानां परिचञ्चलं खलगुणाहलादेन सामोदितम् ॥४५॥

कमल के दक्षिण दिशा के पत्र में रहने वाली प्रियपदा मोद ( प्रसन्नता ) को जलाने वाली तथा भास्वर वर्ण की है वह अपने अनेक लक्षणों द्वारा दुःख देने वाली शुचिपटा है, उससे मैं भी कम्पित होती हूँ, वह महेन्द्र के भी अमृतयोग के रागा का हनन करने वाली है, साक्षात् ‍ यम को आरोपित करती है । सबके चित्त को चञ्चल करने वाली तथा दुष्ट गुणों के आहलाद सामोद सामोद ‍ ( प्रसन्नता पूर्वक ) रहने वाली है ॥४५॥

पात्रार्थलाभं यदि वाध एव प्रगच्छति क्रूरखलप्रतापः ।

तथापि हन्तुं न च वर्णमध्ये क्षमः स्वसिद्धं भजते क्षमादि ॥४६॥

सुपात्र का लाभ करने वाली हैं तथा समस्त बाधाओं का तथा दुष्टों की दुष्टता एवं प्रताप को नष्ट करने वाली हैं । वे वर्णमध्य में क्षमा रुप से प्रतिष्ठित हैं जिन स्वयंसिद्धा की साक्षात् ‍ क्षमा आदि भी भजन करते हैं ॥४६॥

रसार्थप्रश्नं कुरुते यदि स्याद् वारो चारो गृहमध्यभागे ।

स्वकीय इन्दुप्रियवद् धुवम् मनोगतं सौख्यविवर्धनञ्च ॥४७॥

यदि रसार्थ प्रश्न गृहमध्य में किया जाय तो युग के आरम्भ के अनुसार सातों वरों के चार अर्थात् ‍ संचार के अनुसार वह निश्चित ही स्वकीय इन्दु का प्रिय अर्थात् ‍ अपने प्रिय अर्थात् ‍ अपने प्रिय का प्रेमी हो जाता है तथा मनोभिलाषित वस्तु प्राप्त होकर सौख्याभिवर्धन होता है ॥४७॥

रुद्रयामल तंत्र पटल १२ - वाग्देवताध्यान   

शत्रूणां हननं तदा कुलगतं सञ्चारवातं मुदा

रोगानां परिमर्दन प्रभुपदे भक्त्यर्थिनां ज्ञापनम् ।

आहलादं ह्रदयाम्बुजेऽमृतधनं तीर्थागमं शोकहं

सूक्ष्मार्थं गणयेत्ततः प्रचपला वाग्देवतादर्शनम् ॥४८॥

वे शत्रुओं का हनन करने वाली हैं तथा कुलगत संस्कारों का सञ्चार करने वाली हैं । वे रोग का नाश करने वाली एवं प्रभु की भक्ति का बोध कराने वाली हैं । जिनका ह्रदयरूपी कमल का अमृतरुपी धन आह्लाद देने वाला है तथा जो तीर्थ एवं आगम से शोक का नाश करने वाली हैं उन सुक्ष्मार्थ गणों में श्रेष्ठ प्रचलपा वाग्देवता का मैं ध्यान करता हूँ ॥४८॥

आथर्वे पत्रमध्ये निवसति कमला कोमला वाद्यदात्री

आगन्तव्यादिवार्ता कथयति सहसा सर्वदा मङुलानि ।

नित्यावश्यं प्रतापं प्रियगनहितां प्रेमभावाश्रयत्त्वं

नित्यं कान्तामुखाम्भोरुहविमलमधुप्रेमपानाभिलाषम् ॥४९॥

आथर्व पत्र ( चौथे ) पत्र में कोमल स्वभाव वाली वाद्यों को देने वाली तथा कमला का निवास है । वह किसी आने वाले का सन्देश सहसा कहती है, सर्वदा मङ्गल करती है, नित्य आवश्यक प्रताप उत्पन्न करती है, प्रियगणों की हितकारिणी है, प्रेमभाव का आश्रय करती है, वह कान्ता के विमल कमल मुख के मधु प्रेम का अभिलाष उत्पन्न करती है ॥४९॥

मेषे तृप्तिमुपैति सिंह इषुभिः कुम्भेन तेषाम फलं

लाभं कुञ्चरघातकेषु रजतं चौर्यण यद्यद्गतम् ।

एवं कास्यविहारणं शतपले सूर्योदयात्तिष्ठति

प्रातः कालफलाफलं कथयति श्रीकेशरीमध्यगः ॥५०॥

मेष में प्रश्नकर्ता सदैव तृप्ति करता है, सिंह का धनु तथा कुम्भ राशि के साथ फल इस प्रकार है - सिंह राशि वाले को रजत की प्राप्ति तथा चोरी से साप्त माल का लाभ होता है । सूर्योदय से १०० पल तक कास्य विहारण स्थित है । इस प्रकार सिंह राशि वाला पुरुष प्रातः काल अपने फलाफल को प्रगट करता है ॥५०॥

पश्यादेकशतं पलेन्दुधनुषा व्याप्तं यदा भूतले

वित्तानां हरणं तदा जलगते मित्रस्य राज्यदिकम् ।

दूरस्थादिकथागतादिसमयं शत्रोर्महापीडनं

वाञ्छावर्गकुलोदय समुदयात् सूर्यस्य चागण्यते ॥५१॥

धनु राशि वाला भूतल में अपने इन्द्र धनुष से एक सौ धनुष् ‍ पर्यन्त देखता है ॥५१॥

शेषे चैकशते फले समुदिते कुम्भो महदुर्बली

दारिद्रयस्त कथा कदा सुविषयं विद्यार्थभूषञ्च यम् ।

लाभं देशविदेशकार्यगमनं शीघ्रं धनाद्यागमं

देवानां खलु दर्शनार्थकथनं व्यामोहसन्नाशनम् ॥५२॥

वारे शुक्रे शनिगतदिन लवटाहौ च सूर्ये

नित्यं ज्ञानोदयनिजपथ आयुषां निर्णयं तत् ।

अष्टौ वर्गानुदयति मुदा प्राप्य वीरो महत्त्वं

लोको दोषं प्रथमखचरे चायुषां पृष्टमात्रम् ॥५३॥

अर्थ अस्पष्ट है ॥५२ - ५३॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने भावप्रश्ननार्थबोधनिर्णये पाशवकल्पे आज्ञाचक्रसारसङ्केते सिद्धमन्त्रप्रकरणे भैरवीभैरवसंवादे द्वादशः पटलः ॥१२॥

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन के भावबोधनिर्णय में पाशवकल्प के आज्ञाचक्रसारसङ्केत में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भैरवी भैरव संवाद में बारहवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई॥१२॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल १३  

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