कृष्णाष्टक

कृष्णाष्टक

श्री कृष्णाष्टक का नियमित पाठ समस्त पापों को नष्ट करने वाला, अपने भक्तों के चित्त को आनन्द देने वाला, शोक हरने वाला, स्वस्थ, धन धान्य से परिपूर्ण और समृद्ध देने वाला तथा सभी प्रकार के भयों का नाश करने वाला है।

श्रीकृष्णाष्टकम्

श्रीकृष्णाष्टकम् 

श्रीकृष्ण अष्टकम् 

श्रियाऽऽश्लिष्टो विष्णुः स्थिरचरगुरुर्वेदविषयो

     धियां साक्षी शुद्धो हरिरसुरहन्ताब्जनयनः ।

गदी शङ्खी चक्री विमलवनमाली स्थिररुचिः

     शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ १॥

जो श्रीलक्ष्मीजी द्वारा आलिङ्गित हैं, व्यापक हैं, सम्पूर्ण चराचर जिनका शरीर है, श्रुति-संवेद्य हैं, समस्त बुद्धियों के साक्षी हैं, शुद्ध हैं, हरि हैं, दैत्यदलन हैं, कमलनयन हैं, शङ्ख, चक्र, गदा और विमल वनमाला धारण किये हाए हैं और स्थिरकान्तिमय हैं, वे शरणागतवत्सल, निखिल भुवनेश्वर । श्रीकृष्णचन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हों॥१॥

यतः सर्वं जातं वियदनिलमुख्यं जगदिदम्

     स्थितौ निःशेषं योऽवति निजसुखांशेन मधुहा ।

लये सर्वं स्वस्मिन्हरति कलया यस्तु स विभुः

     शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ २॥

(सष्टिकाल में) आकाश और पवनादि से लेकर यह सम्पूर्ण जगत् जिनसे उत्पन्न हुआ है, स्थिति के समय भी जो मधुसूदन अपने आनन्दांश से उसकी सर्वथा रक्षा करते हैं तथा लय के समय जो लीलामात्र से उसे अपने ही में लीन कर लेते हैं वे विभु, शरणागतवत्सल निखिल भुवनेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हों॥२॥

असूनायम्यादौ यमनियममुख्यैः सुकरणै-

     र्निरुद्ध्येदं चित्तं हृदि विलयमानीय सकलम् ।

यमीड्यं पश्यन्ति प्रवरमतयो मायिनमसौ

     शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ ३॥

जिस स्तवनीय मायापति को बुधजन, यम-नियमादि उपायों से पहले प्राणों को अपने अधीनकर फिर चित्तनिरोध द्वारा इस सम्पूर्ण जगत्को लीन करके अपने अन्तःकरण में देखते हैं वे ही शरणागतवत्सल, निखिल भुवनेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हों ॥ ३ ॥

पृथिव्यां तिष्ठन्यो यमयति महीं वेद न धरा

     यमित्यादौ वेदो वदति जगतामीशममलम् ।

नियन्तारं ध्येयं मुनिसुरनृणां मोक्षदमसौ

     शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ ४॥

पृथ्वी में रहकर जो पृथ्वी का नियमन करते हैं परन्तु पृथ्वी जिन्हें नहीं जानती (यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिवीं यमयति यं पृथिवी न वेद) आदि श्रुतियों से वेद जिन अमलस्वरूप को जगत्का स्वामी, नियामक, ध्येय और देवता, मनुष्य तथा मुनिजनों को मोक्ष देनेवाला बतलाता है, वे शरणागतपालक, निखिल भुवनेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हों॥४॥

महेन्द्रादिर्देवो जयति दितिजान्यस्य बलतो

     न कस्य स्वातन्त्र्यं क्वचिदपि कृतौ यत्कृतिमृते ।

बलारातेर्गर्वं परिहरति योऽसौ विजयिनः

     शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ ५॥

जिनके बल से इन्द्रादि देवगण दैत्यों को जीतते हैं, जिनकी कृति के बिना किसी कार्य में कोई भी स्वतन्त्र नहीं है तथा जो कवियों के कवित्वाभिमान को और विजयियों के विजयाभिमान को हर लेते हैं, वे शरणागतवत्सल निखिल भुवनेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हों ।। ५॥

विना यस्य ध्यानं व्रजति पशुतां सूकरमुखां

     विना यस्य ज्ञानं जनिमृतिभयं याति जनता ।

विना यस्य स्मृत्या कृमिशतजनिं याति स विभुः

     शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ ६॥

जिनका ध्यान किये बिना मनुष्य सूकरादि पशु-योनियों में पड़ते हैं, जिनके ज्ञान बिना जनता जन्म-मरण के भय को प्राप्त होती है तथा जिनका स्मरण किये बिना सैकड़ों कीट-पतङ्गादि योनियों में गिरना पड़ता है, वे शरणागतवत्सल, निखिल भुवनेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हो ॥ ६॥

नरातङ्कोत्तङ्कः शरणशरणो भ्रान्तिहरणो

     घनश्यामो वामो व्रजशिशुवयस्योऽर्जुनसखः ।

स्वयम्भूर्भूतानां जनक उचिताचारसुखदः

     शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ ७॥

जो प्राणियों के भय को दूर करनेवाले हैं, शरणागतों को शरण देनेवाले तथा भ्रम को दूर करनेवाले हैं, मेघश्याम हैं, सुन्दर हैं, व्रजबालकों के समवयस्क साथी और अर्जुन के सखा हैं, स्वयम्भू हैं, समस्त प्राणियों के पिता हैं तथा उचित आचरणों द्वारा सुख देनेवाले हैं, वे शरणागतवत्सल, निखिल भुवनेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हों ॥७॥

यदा धर्मग्लानिर्भवति जगतां क्षोभकरणी

     तदा लोकस्वामी प्रकटितवपुः सेतुधृदजः ।

सतां धाता स्वच्छो निगमगणगीतो व्रजपतिः

     शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ ८॥

जब संसार को क्षुब्ध कर देनेवाला धर्म का ह्रास होता है, उस समय जो लोक-मर्यादा की रक्षा करनेवाले लोकेश्वर, संत-प्रतिपालक, वेद वर्णित शुद्ध एवं अजन्मा भगवान् उनकी रक्षा के लिये शरीर धारण करते हैं, वे ही शरणागतवत्सल, निखिल भुवनेश्वर व्रजराज श्रीकृष्णचन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हो । ८ ॥

इति हरिरखिलात्माऽऽराधितः शङ्करेण

श्रुतिविशदगुणोऽसौ मातृमोक्षार्थमाद्यः ।

यतिवरनिकटे श्रीयुक्त आविर्बभूव

स्वगुणवृत उदारः शङ्खचक्राञ्जहस्तः ॥ ९॥

इस प्रकार अपनी माता की मुक्ति के लिये श्रीशङ्कराचार्यजी ने श्रुति कथित गुणोंवाले, निखिलात्मा आदि नारायण हरि की आराधना की तो अपने उदार गुणों से युक्त श्रीभगवान् लक्ष्मीजी सहित उनके निकट शङ्ख, चक्र, पद्मादि लिये प्रकट हो गये ॥ ९॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ कृष्णाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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