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कर्मकाण्ड

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गोविन्दाष्टक

गोविन्दाष्टक

जो पुरुष गोविन्दाष्टकम् के इस स्तोत्र को निरन्तर पढ़ता है, वह नाना भोगों को भोगकर, पापों से रहित होकर भगवान् विष्णु के वैकुण्ठलोक धाम को जाता है।

गोविन्दाष्टक

गोविन्दाष्टकम्

गोविन्दाष्टकं स्वामिब्रह्मानन्दकृतम्

चिदानन्दाकारं श्रुतिसरससारं समरसं

निराधाराधारं भवजलधिपारं परगुणम् ।

रमाग्रीवाहारं व्रजवनविहारं हरनुतं

सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ १॥

जो चिदानन्दस्वरूप है, श्रुति का सुमधुर सार है, समरस है, निराश्रयों का आश्रय है, संसारसागर का पार करानेवाला है, परगुणाश्रय है, श्रीलक्ष्मीजी के गले का हार है, वृन्दावनविहारी है तथा भगवान् शङ्कर से सम्पूजित है, अरे ! उस परमानन्दकन्द गोविन्द का सदैव भजन कर ॥१॥

महाम्भोदिस्थानं स्थिरचरनिदानं दिविजपं

सुधाधारापानं विहगपतियानं यमरतम् ।

मनोज्ञं सुज्ञानं मुनिजननिधानं ध्रुवपदम्

सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ २॥

जिसका महासमुद्र आश्रय है, जो चराचर का आदिकारण है, देवों का संरक्षक है, अमृतपान करानेवाला है, गरुड़ ही जिसका वाहन है, जो यमों (अहिंसा, सत्यादि) में बसा हुआ है, मनोज्ञ है, ज्ञानस्वरूप है, मुनिजनों का आश्रय है, ध्रुवस्थान है, अरे ! उस परमानन्दकन्द गोविन्द को सदैव भज ॥२॥

धिया धीरैर्ध्येयं श्रवणपुटपेयं यतिवरैः

महावाक्यैज्ञेयं त्रिभुवनविधेयं विधिपरम् ।

मनोमानामेयं सपदि हृदि नेयं नवतनुं

सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ ३॥

धीर पुरुषों द्वारा बुद्धि से जिनका ध्यान किया जाता है और कर्णपुटों से पान किया जाता है, योगिजन जिसे महावाक्यों द्वारा जान पाते हैं, जो त्रिलोकी का विधाता और विधिवाक्यों से परे है, जिसे मन प्रमाणों द्वारा नहीं जान सकता तथा जो हृदय में शीघ्र ही धारण करने योग्य है एवं नूतन तनुधारी है, अरे ! उस परमानन्दकन्द गोविन्द का सदैव भजन कर ॥ ३ ॥

महामायाजालं विमलवनमालं मलहरं

सुबालं गोपालं निहतशिशुपालं शशिमुखम् ।

कलातीतं कालं गतिहतमरालं मुररिपुं

सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ ४॥

जिसका माया रूपी महाजाल है, जिसने निर्मल वनमाला धारण किया है, जो मल का अपहरण करनेवाला है, जिसका सुन्दर भाल है, जो गोपाल है, शिशुपालवधकारी है, जिसका चाँद-सा मुखड़ा है, जो सम्पूर्ण कलातीत है, काल है, अपनी सुन्दर गति से हंस का भी विजय करनेवाला है, मुर दैत्य का शत्रु है, अरे ! उस परमानन्दकन्द गोविन्द का सदैव भजन कर ॥४॥

नभोबिम्बस्फीतं निगमगणगीतं समगतिं

सुरौघे सम्प्रीतं दितिजविपरीतं पुरिशयम् ।

गिरां पन्थातीतं स्वदितनवनीतं नयकरं

सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ ५॥

जो आकाशबिम्ब के समान व्यापक है, जिसका शास्त्र संकीर्तन करते हैं, जो सबकी समान गति है, देवताओं से परम प्रसन्न तथा दैत्यों का विरोधी है, बुद्धिरूपी गुहा में स्थित है, वाणी की गति से बाहर है, नवनीत का आस्वादन करनेवाला है तथा नीति का संस्थापक है, अरे ! उस परमानन्दकन्द गोविन्द का सदैव भजन कर ॥ ५॥

परेशं पद्मेशं शिवकमलजेशम् शिवकरं

द्विजेशं देवेशं तनुकुटिलकेशं कलिहरम् ।

खगेशं नागेशं निखिलभुवनेशं नगधरं

सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ ६॥

जो परमेश्वर है, लक्ष्मीपति है, शिव और ब्रह्मा का भी स्वामी है, कल्याणकारी है, द्विज और देवों का ईश्वर है, महीन और धुंघराले केशोंवाला है, कलिमलहारी है, आकाश सञ्चारी सूर्य का भी शासक है, धरातलधारी शेष है, सम्पूर्ण भुवनमण्डल का स्वामी है, गोवर्धनधारी है ! अरे, उस परमानन्दकन्द गोविन्द का सदैव भजन कर ॥६॥

रमाकान्तं कान्तं भवभयलयान्तं भवसुखं

दुराशान्तं शान्तं निखिलहृदि भान्तं भुवनपम् ।

विवादान्तं दान्तं दनुजनिचयान्तं सुचरितं

सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ ७॥

जो लक्ष्मीपति है, विमल द्युति है, भवभयहारी है, संसार का सुख है, दुराशा का काल है, शान्त है, सम्पूर्ण हृदयों में भासमान है, त्रिभुवन का प्रतिपालक है, विवाद का जहाँ अन्त हो जाता है, दमशील है, दैत्य-दल-दलन है, सुन्दर चरित्रवाला है, अरे ! उस परमानन्दकन्द गोविन्द का सदैव भजन कर ॥७॥

जगज्ज्येष्ठं श्रेष्ठं सुरपतिकनिष्ठं क्रतुपतिं

बलिष्ठं भूयिष्ठं त्रिभुवनवरिष्ठं वरवहम् ।

स्वनिष्ठं धार्मिष्ठं गुरुगुणगरिष्ठं गुरुवरं

सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ ८॥

जो संसार में सबसे बड़ा है, श्रेष्ठ है, सुरराज इन्द्र का अनुज (वामन) है, यज्ञपति है, बलिष्ठ है, भूयिष्ठ है, त्रिभुवन में सर्वश्रेष्ठ है, वरदायक है, आत्मनिष्ठ है, धर्मिष्ठ है, महान् गुणों से गौरवयुक्त है, गुरुवर है, अरे! उस परमानन्दकन्द गोविन्द का सदैव भजन कर ॥ ८॥

गदापाणेरेतद्दुरितदलनं दुःखशमनं

विशुद्धात्मा स्तोत्रं पठति मनुजो यस्तु सततम् ।

स भुक्त्वा भोगौघं चिरमिह ततोऽपास्तवृजिनो

वरं विष्णोः स्थानं व्रजति खलु वैकुण्ठभुवनम् ॥

जो विशुद्धात्मा पुरुष गदापाणि गोविन्द के इस पापनाशन, दुःखदलन स्तोत्र को निरन्तर पढ़ता है, वह चिरकाल पर्यन्त नाना भोगों को भोगकर, पापों से रहित होकर भगवान् विष्णु के परमपावन धाम वैकुण्ठलोक को अवश्यमेव जाता है॥९॥

॥ इति श्रीपरमहंसस्वामि ब्रह्मानन्द विरचितं श्री गोविन्दाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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