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कर्मकाण्ड

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मुण्डमालातन्त्र पञ्चम पटल

मुण्डमालातन्त्र पञ्चम पटल

मुण्डमालातन्त्र पञ्चम पटल में पुरश्चरण के प्रकार एवं विधि का वर्णन है।

मुण्डमालातन्त्र पञ्चम पटल

मुण्डमालातन्त्रम् पञ्चमः पटलः

मुंडमाला तन्त्र पटल ५    

मुण्डमालातन्त्र'

श्रीदेव्युवाच -

रहस्यातिरहस्यं मं पुरश्चर्याविधि प्रभो !।

वदस्व यदनुष्ठानात् सर्वकामा भवन्ति हि ।।1।।

श्रीदेवी ने कहा - हे प्रभो ! जिसके अनुष्ठान से साधकगण सर्वकाम को प्राप्त हो जाते हैं, वह पुरश्चरण-विधि रहस्य से भी अतिरहस्यात्मक है। इसे हमें बतावें ।

श्रीईश्वर उवाच -

गृहीत्वा सद्गुरोर्दीक्षां शुभकाले दिवानिशि ।

पूवोक्ति-स्थानमासाद्य जपपूजां समाश्रयेत् ।।2।।

श्रीईश्वर ने कहा - दिन में या रात्रि में, शुभकाल में, सदगुरु के निकट से दीक्षा लेकर, पूर्वोक्त किसी स्थान को ग्रहण कर, जप एवं पूजा प्रारम्भ करें ।

अधमो वैष्णवः प्रोक्तो मध्यमः शैवदीक्षितः।

परया दीक्षितो यो वै स एव परमो गुरुः ।।3।।

वैष्णव गुरु अधम हैं, शैव-दीक्षित गुरु मध्यम हैं, जो परा-विद्या में दीक्षित हैं, वह गुरु ही क्षेष्ठ हैं ।

चतुर्दश-सहस्राणि सेवितो ह्यधिराजते ।

ततो भवति देवेशि! परा-पूजारतः पुमान् ॥4

चौदह हजार दिन पर्यन्त सेवायुक्त होकर अवस्थान करें। हे देवेशि ! उसके बाद मानव परा-देवी की पूजा में रत हो जावें।

कायेन मनसा वाचा सुवर्णरजतादिभिः ।

सन्तोष्य परया भक्तया गुरुदीक्षां समाश्रयेत् ॥5

शरीर, मनः एवं वाक्य के द्वारा परम भक्तिभाव से, सुवर्ण एवं रजत प्रभृति द्रव्यों के द्वारा गुरु को सन्तुष्ट कर, गुरु-प्रदत्त दीक्षा का आश्रय लें ।

प्रातःकाले समारभ्य जपेन्मध्यं दिनावधि ।

प्रथमेऽहनि यज् जप्तं तज् जप्तव्यं दिने दिने ॥6

प्रातःकाल से आरम्भ कर मध्याह्न पर्यन्त जप करें । प्रथम दिन जितना जप करें, प्रत्येक दिन उतना ही जप करें ।

न्यूनाधिकं न जप्तव्यमासमाप्तं सदा जपेत् ।

गते प्रथमयामे तु तृतीय-प्रहरावधि ॥7

समाप्ति पर्यन्त, किसी दिन अधिक भी जप न करें, कम भी जप न करें। सर्वदा जप करें। प्रथम प्रहर अतीत हो जाने पर, तृतीय प्रहर पर्यन्त जप करें ।

निशायाञ्च प्रजप्तव्यं रात्रिशेषे जपेन च ।

हविष्यं भक्षयेन्नित्यमेकबारं सुसंयतः ॥8

रात्रि में जप करें । रात्रि-शेष में जप न करें । सुसंयत होकर नित्य एकबार हविष्य का भक्षण करें ।

लघ्वाहारं प्रकुर्वीत युवती-पूजते रतः।

स्वस्त्रियमन्यस्त्रियं वापि पूजयेत् सर्वपर्वसु ।

नाधमे सङ्गतिः कार्या सर्वप्राणिहिते रतः।।9।।

युवती (कुमारी) पूजन में रत होकर, लघु आहार करें । समस्त पर्व-दिनों में अपनी स्त्री या दूसरी स्त्री की पूजा करें। समस्त प्राणियों के हित में रत रहकर, कदापि अधम के साथ सम्बन्ध न करें ।

यस्थ यावान् जपः प्रोक्तस्तद्दशांशमनुक्रमात् ।

तत्तद्-द्रव्यैर्जपस्यान्ते होमं कर्याद दिने दिने ॥10

जिन (देवता) के लिए जितने परिणाम में जप को कहा गया है, उसके दशांश-क्रम से उन-उन द्रव्य (विहित द्रव्य) के द्वारा जप के अन्त में प्रति दिन होम करें ।

होमस्य च दशांशेन तर्पणं प्रोक्तमेव च ।

तर्पणस्य दशांशेन शिरोमार्जनमिष्यते ॥11

होम का दशांश तर्पण करने के लिए कहा गया है। तर्पण के दशांश के द्वारा शिरोमार्जन (अभिषेक) करने के लिए कहा गया है ।

तद्दशांशेन विप्रेन्द्रान् कुर्वीत कुलकन्यकाः।

संभोजयेत् प्रीतियुक्तै र्द्रव्यैर्नानाविधैरपि ।।12।।

उसके दशांश संख्या में, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को एवं कुलकन्याओं को प्रीतियुक्त बनकर, नानाविध द्रव्यों के द्वारा भोजन करावें ।

होमाद्यशक्तो देवेशि ! कुर्याच्य द्विगुणं जपम् ।

यदि पूजाद्यशक्तः स्याद् द्रव्यालाभेन सुन्दरि ।

केवलं जपमात्रेण पुरश्चर्या विधीयते ।।13।।

हे देवेशि ! होमादि में असमर्थ होने पर, द्विगुण जप करें। हे सुन्दरि ! द्रव्यों की अप्राप्ति के कारण यदि पूजादि करने में असमर्थ बन जाते हैं, तब केवल जप-मात्र के द्वारा पुरश्चरण का विधान किया गया है ।

दीव्यो वा यदि वा वीरो भुवि स्यात् साधकोत्रमः ।

स्वेच्छाचार परो भूत्वा एकान्ते सर्वदा जपेत् ।

मत्स्यमांस प्रदानेन शाक्तः कुर्याद् पुरस्क्रियाम् ।।14

इस पृथिवी पर साधकोत्तम, दिव्य हो या वीर हो, वह स्वेच्छा से सदाचारपरायण होकर एकान्त में सर्वदा जप करें। शाक्त मत्स्य एवं मांस-प्रदान के द्वारा पुरश्चरण करें ।

एकरात्रौ श्मशाने वा शवे वा प्रौढ़बालया ।

मयोक्तं भैरवीकल्पे विधानं वरवर्णिनि ॥15

हे वरवर्णिनि ! प्रोढ़ा-बाला-मेरे द्वारा, भैरवीकल्प में, एक रात्रि में, श्मशान या शव में पुरश्चरण करने का विधान किया गया है ।

हस्तमात्रविखाते वा मुण्डे वा विजने वने ।

वीराणां साधनं देवि ! कथितं भुवि दुष्करम् ॥16

हे देवि! इस पृथिवी पर हस्त-परिमित खात (गर्त) में, मुण्ड में अथवा विजन वन में, वीरगणों के लिए दुष्कर साधन को कहा गया है ।

कुमारीपूजनादेव पुरश्चर्याविधिः स्मृतः ।

नानाजातिभवाः कन्या रूपलावण्य-संयुताः ॥17

कुमारी पूजन से ही पुरश्चरण-विधि कही गयी है। रूपलावण्य-युक्ता नाना जातियों की कन्या 'कुमारी' बन सकती हैं।

अत्यन्त प्रौढ़बाला या कोकिला वरदायिनी ।

नानाद्रव्यैः प्रियकरैर्भक्ष्यभोज्यादिभिः शुभैः ।

पूजयेत् परभावेन नानारूपमनोहराम् ।।18

जो कन्या अत्यन्त प्रौढ़ा है, वह कोकिला वरदायिनी होती है। सुन्दर, प्रियकर, नाना भक्ष्य एवं भोज्यादि द्रव्यों के द्वारा नानारूपा मनोहरा कुमारी की परभाव से (देवी ज्ञान से) पूजा करें ।

भागिनी-कन्यका वापि दौहित्री वा कुटुम्बिनी ।

मातृवर्जं सदा पूज्या नानाजाति-समुद्भवा ।।19।।

माता को छोड़कर, भगिनी की कन्या, दौहित्री, कुटुम्बिनी कन्या एवं नाना जातियों की कन्या, कुमारीरूप में सर्वदा ही पूज्य हैं ।

अथवान्य-प्रकारेण पुरश्चरणमिष्यते ।

कृष्णां चतुर्दशीं प्राप्य नवम्यान्तु महोत्सवे ।

अष्टमी-नवमी-रात्रौ पूजां कुर्याद् विशेषतः ।।20

अथवा अन्य प्रकार से पुरश्चरण किया जाता है। कृष्णचतुर्दशी प्राप्त होने पर, नवमी में, महोत्सव में, अष्टमी या नवमी की रात्रि में विशेषरूप में पूजा करें ।

दशम्यां पारणं कुर्याद् मत्स्यमांसादिभिः प्रिये!।

षट्सहस्रं जपेन्नित्यं भक्तिभावपरायणः ॥21

हे प्रिये ! दशमी में मत्स्य-मांसादि के द्वारा पारण करें। भक्ति-भाव-परायण कर प्रतिदिन छः हजार जप करें।

चतुर्दशी समारभ्य यावदन्या चतुर्दशी ।

तावज्जपेन् महेशानि! पुरश्चरणमिष्यते ।।22।।

हे महेशानि ! चतुर्दशी से आरम्भ कर, जब तक अन्य चतुर्दशी न आवे, तब तक जप करें। यह पुरश्चरण कहा जाता है ।

केवलं जपमात्रेण मन्त्राः सिद्धा भवन्ति हि ।

विना होमादि दानेन विशेषात् पीठपूजने ।।23।।

होम एवं दानादि को छोड़कर, केवल जप-मात्र के द्वारा मन्त्र सिद्ध हो जाता है। पीठ पर पूजा करने पर, विशेषरूप से मन्त्र सिद्ध हो जाता है ।

योनिपीठं महापीठं कामपीठं तथा परम् ।

तयोरेकतरे पूजां रुद्रदेह इव परः ।।24।।

महापीठ योनिपीठ एवं कामपीठ को अति श्रेष्ठ जानें । इन उभय में से एक की पूजा करें। इससे रुद्र-देह के समान श्रेष्ठ बन जाता है ।

तीर्थे तिथिविशेषे च ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।

गुरोरनुग्रहे चैव दीक्षाकालः शुभः स्मृतः ।।25 ।।

तीर्थ में, तिथिविशेष में, चन्द्र एवं सूर्य के ग्रहण काल में दीक्षाकाल शुभ है। गुरु के अनुग्रह से भी दीक्षाकाल शुभ हो जाता है ।

इति मुण्डमालातन्त्रे पञ्चमः पटलः ।।5।।

मुण्डमालतन्त्र के पञ्चम पटल का अनुवाद समाप्त ॥5

आगे जारी............. मुण्डमालातन्त्र पटल ६

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