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कंकालमालिनीतन्त्र चतुर्थ पटल
कंकालमालिनीतन्त्र चतुर्थ पटल में
महाकाली मंत्र एवं उसके माहात्म्य का अंकन है। इसमें त्र्यक्षर मंत्र भी उपदिष्ट
है। साथ ही महाकाली की सम्यक् पूजाविधि का भी निर्देश दिया गया है।
कङ्कालमालिनी तंत्र पटल ४
कङ्कालमालिनी तंत्र चतुर्थः पटलः
कंकालमालिनीतन्त्र चौथा पटल
श्री पार्वत्युवाच
कथयस्व विरूपाक्ष महाकालीमनुं प्रभो
॥१॥
श्री पार्वती कहती
है-हे विरूपाक्ष, प्रभो ! महाकाली मंत्र का वर्णन करिये ॥१॥
श्री ईश्वर उवाच
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि महाकालीमनुं
प्रिये ।
यस्य विज्ञानमात्रेण
सर्वसिद्धिश्वरो भवेत् ।।२।।
धिया विष्णु समः कान्त्या षड्मुखेन
समः सुखी ।
शौचेन शुचिना तुल्यो बलेन पवनोपमः
॥३॥
श्री ईश्वर
कहते हैं-इस बार मैं महाकाली मंत्र का उपदेश करूंगा। इसके ज्ञानमात्र से
साधक सर्वसिद्धीश्वर हो जाते है । वे श्री में विष्णु के समान,
कान्ति में कार्तिकेय के समान, सुखी, पवित्रता में अग्नि तुल्य, बल में वायु के समान हो जाते हैं ॥२-३!
वागीश्वरसमो वाची धनेन धनपः स्वयम्
।
सार्वज्ञ शम्भुना तुल्यो दाने
दधीचिना समः ॥४॥
आज्ञया देवराजोऽसौ ब्राह्मण्येन
प्रजापतिः।
भृगोरिव तपस्वी च चन्द्रवत्
प्रोतिवद्धनः ।।५।।
तेजसाग्निसमो भक्त्या नारदः
शिवकृष्णयोः ।
रूपेण मदनः साक्षात प्रतापे
भानुसन्निभः ॥६॥
शास्त्रच स्वाङ्गिरसो जामदग्न्याः
प्रतिज्ञया ।
सिद्धानां भैरवः साक्षात् गंङ्ग व
मलनाशकः ।।७।।
वह वाणी में वागीश्वर के
समान,
धन में कुबेर के समान, सर्वज्ञता में शिव
के समान, दान में दधीची के समान हो जाता है।
वह आज्ञा पालन कराने में देवराज,
ब्राह्मणों में ब्रह्मा, भृगु के समान तपस्वी, चन्द्र के समान प्रीति बढ़ाने वाला, अग्नि के समान तेजस्वी, शिव तथा
कृष्ण के प्रति नारद के समान भक्तिमान, रूप
में कामदेव के समान, तथा प्रताप में सूर्य के
समान हो जाता है।
वह शास्त्रचर्चा में आंगीरस,
प्रतिज्ञा में जगदग्नि, सिद्धि में भैरव,
तथा मलनाशकता में गंगा के समतुल्य हो जाता है ॥६-७।।
अथवा बहुनोक्तेन किंवा तेन वरानने ।
न तस्य दुरितं किञ्चित् महाकाली
स्मेरद्विया ॥८॥
शन्दब्रह्ममयीं स्वाहां
भोगमोक्षेकदायिकाम् ।
भोगेन मोक्षमाप्नोति श्रुत्वा
गुरूमसात् परम् ॥९॥
हे वरानने ! अधिक कहने से क्या
प्रयोजन ?
जो साधक महाकाली का स्मरण करते है, उनमें
कोई भी पाप नहीं रह जाता।
वे शब्दब्रह्ममयी, स्वाहारूपिणी, भोग-मोक्ष की एकमात्र प्रदायिका है। उनकी आराधन पद्धति को गुरु से सुनने के पश्चात् भोग में ही मोक्ष मिल जाता है ।।८-९।।
तां विद्यां शृणु वक्ष्यामि यथा
भैरवतां ब्रजेत् ॥१०॥
उस विद्या को मैं तुमसे कहता हूँ,
जिसके द्वारा मैं भैरवत्व प्राप्त कर सका ॥१०॥
क्रोधीशं क्षतजारूढं
धूम्रभरवलक्षितम् ।
नादविन्दुसमायुक्तं मन्त्रं
स्वर्गऽपि दुर्लभम् ॥११॥
एकाक्षरीसमा नास्ति विद्या विभवने
प्रिये ।
महाकाली गुह्यविद्या कलिकाले च
सिद्धिदा ॥१२॥
क्रोधीश को क्षतजारुढ़ करके,
धूम्रभैरवी से संयुक्त करे। उसमें नाद और विन्दु का योग करने से जो
मंत्र (क्रीं) गठित होता है, वह स्वर्ग में भी दुर्लभ है।
हे प्रिये ! इस एकाक्षरी विद्या
के समान त्रिभुवन में कोई विद्या नहीं है। कलिकाल में गुह्यविद्यारूपिणी महाकाली
सिद्धि देने वाली है। अब मैं कालिका के सम्बन्ध में कहूँगा ।।११-१२
अथान्यत् संम्प्रवक्ष्यामि दक्षिणां
कालिकां पराम् ।
वाग्भवं बीजमच्चार्य कामराजं ततः
परम् ।
मायाबीजं ततो भद्रे यक्षरं
मन्त्रमीरितम् ॥१३॥
प्रथमतः वाग्भवबीज का उच्चारण करे ।
तब कामबीज का उच्चारण करे। पश्चात् में मायाबीज का उच्चारण करे। अब तीन अक्षर का
मंत्र हो गया। अर्थात् ऐं क्लीं ह्रीं ॥१३॥
कामराजं ततो कच्न मायाबोजमतः परम् ।
अपरं यक्षारं प्रोक्तं पूर्वोक्तं
फलदं प्रिये ॥१४॥
हलाहलं समच्चार्य मायादयमतः परम् ।
एतत्तु यक्षरं देवो सर्वकामफलप्रदम्
॥१५॥
कामबीज उच्चारण करके कूर्च बीज,
तदनन्तर मायाबीज का उच्चारण करने से त्र्यक्षर मंत्र होता है,
जो पूर्वकथित मंत्र के समान फलप्रद है। (अर्थात क्ली हुँ ह्रीं)।
हे देवी! हलाहल का उच्चारण करके दो
मायाबीज का उच्चारण करें। इससे भी त्र्यक्षर मंत्र गठित हो जाता है। (अर्थात्,
ॐ ह्रीं ह्रीं) वह त्र्यक्षर मंत्र
सर्व प्रकार की कामनाओं में फलदायक है ।।१४-१५।।
एतेषाञ्चंव मंत्राणां फलमन्यत्
श्रृणु प्रिये ।
म काल नियमों नास्ति
नारिमित्रादिदूषणम् ॥१६॥
कायक्लेषकरं नैव प्रयासो नास्य
साधने ।
दिवा वा यदि वा रात्री जपः सर्वत्र
शोभनः ॥१७॥
भोगमोक्षविरोधोऽत्र साधने नास्ति
निश्चितम ।
भोगेन लभते मोक्ष नगेऽपि विद्ययानया
॥१८॥
हे प्रिये ! इन सब मन्त्रों का अन्य
फल भी सुनो । इन सब मन्त्रों के उच्चारण, जप
के लिये समयबद्धता नहीं है। इसमें शत्रुमित्रादि विचारजनित कोई बन्धन अथवा दूषण भी
नहीं हो सकता ।
इनकी साधना में कोई शारीरिक परिश्रम
अथवा विशेष चेष्टा का भी कोई प्रयोजन नहीं है। दिन अथवा रात्रि में अथवा किसी भी
समय,
किंवा सर्वक्षण (सर्वदा ) इसका जप करे।
इनकी जप साधना द्वारा भोग एवं मोक्ष
दोनों प्राप्त होता है। यह निश्चित है । इन विद्याओं के द्वारा भोग में ही मोक्ष
प्राप्त हो जाता है ॥१६-१८।।
अस्या जपात्तथा ध्यानात्
लभेन्मुक्तिं चतुर्विधाम् ।
नानया सदशीविद्या नानया सदृशो जपः
॥१९॥
उक्त मंत्रों के जप द्वारा अथवा
ध्यान के द्वारा चार प्रकार की मुक्ति (सायुज्य-सालोक्य-सारुप्य-सार्ष्टि) प्राप्त
हो जाती है। इसके समान विद्या तथा जप अन्य है ही नहीं ॥१९॥
नानया सदशं ध्यानं नानया सदशं तपः।
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यपूर्ण
वदाम्यहम् ॥२०॥
अनया सदशी विद्या नास्ति सिद्धिः
सुगोचरे ।
अथ संपतो वक्ष्ये पूजाविधिमनुत्तमम्
॥२१॥
विस्तारे कस्य वा शक्तिः को वा
जनाति तत्वतः ।
पूजा च त्रिविधा प्रोक्ता
नित्य-नैमित्ति-काम्यते ॥२२॥
तत्रौव नित्यपूजाञ्च वक्ष्ये ताञ्च
निशामय ।
भैरवांस्य ऋषिः प्रोक्तः उष्णिक छन्द
उदाहृतम् ॥२३॥
इसके समान ध्यान अथवा तप नहीं है।
यह तुमसे सत्य की शपथ लेकर कहता है। इसके समान विद्या अथवा सिद्धि त्रिभुवन में
परिलक्षित नहीं हो सकती। अब मैं संक्षेप में पूजाविधि का वर्णन करता हूँ।
विस्तार से पूजा करने की शक्ति किसे
है ?
कौन इसका तात्त्विक विधान जानता है ?
पूजा तीन प्रकार
की होती है । नित्य-नैमित्तिक तथा काम्य रूपी तीन पूजा का वर्णन करता हूँ।
अब नित्य पूजा को सुनो ।
इसके ऋषि हैं भैरव । इसका छन्द उष्णिक छन्द है ।२०-२३॥
देवता मुनिभिः प्रोक्ता महाकाली
पुरातनी ।
विनियोगस्तु विद्यायाः पुरूषार्थचतुष्टयै
॥२४॥
इसकी देवता हैं पुरातनी महाकाली ।
यह ऋषियों का कथन है। इस विद्या का विनियोग है अर्थ-धर्म-काम-मोक्षरूप पुरुषार्थ
चतुष्टय ।।२४॥
पंचशुद्धि विहीनेन यत्कृतं न च तत्
कृतम् ।
पंञ्चशुद्धि बिना पूजा अभिचाराय
कल्प्यते ॥२५॥
पंचशुद्धि के अभाव में पूजा करना
अथवा न करना समान स्थिति है। पंचशुद्धि के विना जो पूजा की जाती है,
यह केवल अभिचार ही है ॥२५॥
आत्मशुद्धिः स्थान शुद्धिद्रव्यस्य
शोधनस्तथा ।
मंत्र शुद्धिदवशुद्धि:
पंञ्चशुद्धिरितीरिता ॥२६॥
आत्मशोधन,
स्थानशोधन, द्रव्यशोधन, मंत्रशोधन,
तथा देवता का शोधन ही पंचशुद्धि है ॥२६॥
भूप्रदेशे स मे शुद्धिः
पुष्पप्रकरसंड कुले ।
आसनं कल्पयेदादी कोमलं कम्बलन्तु वा
॥२७॥
वामे गुरून पुन त्वा दक्षिणे गणपति
विभा ।
भूतशुद्धि तथा कुर्यात पूजायोग्यो
यथा भवेत ॥२८।।
समतल भूमि का शोधन करे। उपकरणों का
भी शुद्धीकरण करे। इसके लिये केवल पुष्प ही एकमात्र शोधन का कारण है। सर्वप्रथम
कोमल आसन अथवा कम्बलासन बिछाये।
वामभाग में गुरु को नमस्कार
करे। दक्षिण में गणेश को प्रणाम करे । इसके पश्चात् इस प्रकार भूतशुद्धि
करे,
जिससे पूजा की उपयुक्तता आ सके ।।२७-२८।।
प्राणायामादि विधिवत्
ऋष्यादिन्यासमाचरेत् ।
भादौ शुद्धिभैरवाय ऋषये नम इत्यथ ॥२९
॥
उष्णिक छन्दसे नमसा मुझे छन्दो
विनिर्दिशेत् ।
मम प्रिये महाकाली देवतायै नमो हृदि
॥३०॥
विविध प्राणायामादि करे । ऋषिन्यास,
अंगन्यास आदि का अनुष्ठान करे । आदि में शुद्धि के ऋषि भैरव
को नमस्कार करके उष्णिक छन्द को नमस्कार करे । नमस्कार करते हुये मुख से छन्द को
निर्देश करे। (अर्थात् यह कहे कि उष्णिक् छन्द को नमस्कार करता हूँ) हे प्रिये !
तदनन्तर हृदय में महाकाली देवता को नमन करे।
ह्रीं बीजाय नमः पूर्वे हं शक्तये
नमोऽप्यथ ।
कवित्वार्थे विनियोग इति विन्यस्य
वांच्छया ॥३१॥
केवलां मातृकां न्यस्य बोजन्यासं
समाचरेत ।
ॐ का अंगुष्ठयोर्नस्य ॐ क्रीं
तर्जन्योनमः ॥३२॥
पूर्व में ह्रीं बीज को नमस्कार
करने के लिये "ह्रीं बीजाय नमः" का प्रयोग करे। तत्पश्चात् "हुँ
शक्तये नमः" द्वारा शक्ति को नमस्कार करना चाहिये । कवित्व की प्राप्ति
के लिये इस प्रकार से कामनानुसार न्यास करे । केवल मातृकान्यास करके बीजन्यास का
अनुष्ठान करे। "ॐ क्रां" मंत्र के द्वारा अंगुष्ठद्वय का न्यास
होता है । ॐ क्रीं मन्त्र के द्वारा दोनों तर्जनी का न्यास करे ॥३१-३२।।
ॐ क्रू मव्यमयोर्नस्य ऊँ के
अनामिकाद्वयोः ।
ऊँ क्रौं कनिष्ठायगले ऊँ क्र: करलले
तथा ॥३३॥
पुनर्ह दयादिष्वते यॊतियुक्तः
षडङ्गकम् ।
षट्दीघं भावं स्वबीजैः प्रणवाद्ये
स्तु विन्यसेत् ॥३४॥
"ॐ क्रूं'
मन्त्र द्वारा मध्यमा अंगुली का, "ॐ
क्रैं' मन्त्र द्वारा अनामिका का, "ॐ क्रौं" द्वारा दोनों कनिष्ठिका उंगलियों
का तथा "ॐ क्रः करतले फट्" द्वारा दोनों करतल का न्यास करे।
इसके पश्चात् हृदयादि अंग का न्यास
करे इसमें प्रणवादि स्वबीज के द्वारा ही अंगन्यास करना चाहिये,
जैसे ॐ हृदयाय नमः, ॐ शिरसे स्वाहा,
ॐ शिखायै वषट्, ॐ कवचाय हुँ,
ॐ नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ
करतलपृष्ठाभ्यां फट्। इत्यादि स्वबीज का अर्थ है साधक का
गुरु प्रदत्तबीज मंत्र, जिसके आगे प्रणव लगा हो ॥३३-३४॥
वर्णन्यासं तथा कुर्यात् येन
देवीमयो भवेत् ।
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल च हृदये
न्यसेत् ॥३५॥
ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ वै दक्षिण
भुजे ।
ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ व वामके भुजे
॥३६॥
ण त थ द ध न प फ ब भ दक्ष जङ्घके
न्यसेत् ।
म य र ल व श ष स ह ल क्ष वाम जंडके
॥३७॥
पंचधा सप्तधा वापि मूलविद्यां
समुच्चरन् ।
शिव आदि च पादान्तं
न्यसेद्व्यापकमुत्तमम् ॥३८॥
वर्णन्यास इस प्रकार करने चाहिये
जिसके द्वारा साधक देवीमय हो जाये। जैसे-
"अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋॄं लृं
लॄं नमः" यह कहकर हृदय का न्यास करे।
एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं नमः-दक्षिण
भुजे
ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं नमः-वाम
भुजे
तं थं दं धं नं पं फं बं भं नमः
दक्षिण उरु
मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं
नमः वाम उरु
इस प्रकार मूल बीज के उच्चारण
द्वारा पांच अथवा सात बार न्यास करे। मस्तक से लेकर पैर तक उत्तम रूप से व्यापक
न्यास करना पड़ता है ।।३५-३६।।
नित्यन्यास इति प्राक्तं सर्व एव
सुखावहः।
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि
भरवाकारदायकम् ॥३९॥
हिमालयगिरेमध्ये नगरे भैरवस्य च ।
दिव्यस्थाने महापीठे मणिमण्डपराजिते
॥४०॥
इस प्रकार से नित्यन्यास कहा
गया है,
जो साधकों के लिये सुखदायक है। इस प्रकार अब ध्यान का वर्णन करूंगा
जो भैरव के आकार ( भैरव रूपता) को प्रदान करता है। हिमालय के पर्वत शृंग
अथवा भैरव नगरी ( काशी) प्रभृति दिव्यस्थान में, मणिमण्डप के
द्वारा शोभित महापीठ में ॥३९-४०॥
नारदाद्यर्मुनिश्रेष्ठः संसोवित
पदाम्बुजाम् ।
तत्र व्यायन्महाकालीमाद्यां
भेरववन्दिताम् ॥४१॥
नारद प्रभृति मुनिगण द्वारा जिनका
चरणकमल सेवित है, भैरव वन्दित उन महाकाली का ध्यान करे ॥४१॥
नोलेन्दीवरवर्णिनीं यग्मपीन
तुंङ्गस्तनीम् ।
सुप्तश्रीहरिपीठराजितवती भीमां
त्रिनेत्रां शिवाम् ॥
मुद्रा खड्गकरां वराभय युतां
चित्राम्बरोद्दीपनीं ।
वन्दे चंञ्चल
चन्द्रकान्तमणिभिर्मालां दधानां पराम् ॥४२॥
जिनका वर्ण नील इन्दीवर पुष्प के
समान है,
जिनके दोनों स्तन अत्यन्त उन्नत है, जो सुप्त श्रीहरि
की शय्या के शेषनाग के समान शोभायमान है, जो अति
भयंकर होने पर भी शिवस्वरूपा तथा त्रिनेत्रा हैं, जो मुद्रा
तथा खड्ग धारण करती है, जो वर तथा अभय देने वाली है, वे महाकाली चित्राम्बर द्वारा उद्दीपनी है। जो चञ्चल
चन्द्रकान्तमणि द्वारा रचित माला धारण करती है, उनकी हम सतत्
वन्दना करते है ॥४२॥
ध्यानान्तरं प्रवक्ष्यामि श्रण गौरी
गिरेः स्मृते ।
तत्र पीठे महादेवीं काली
दानवसेविताम् ।।४३।।
हे हिमालय की पुत्री गौरी!
अब मैं एक अन्य ध्यान का वर्णन करता हूँ। उसे सुनो। महादेवी काली
सदा दानवों के द्वारा सेविता हैं ।।४३॥
मेघाङ्गी विगताम्बरां शवशिवारूढां
त्रिनेत्रां पराम् ।
कर्णालम्बित वाणयुग्मलसितां
मुण्डावलीमण्डिताम् ॥४४॥
वामाघोर्ध्व कराम्बुजे नरः शिरः
खड्गञ्च सव्येतरे ।
दानाभीति विमुक्त केशनिचया ध्येया
सदा कालिका ॥४५।।
जिनका अंग मेघ के समान है,
जो दिगम्बरी है, शिविका पर आरुढ़ा तथा
त्रिनयना है, जिनके कर्ण लम्बायमान वाणयुग्म के द्वारा शोभित
है तथा जो मुण्डावली से मण्डित, विभूषिता है, जिनके वाम करकमलों में उर्ध्व तथा अधः मुण्डमाला विभूषित है, दक्षिण हाथ में खड्ग सुशोभित है, जिनके बाल
(केशराशि) विमुक्त खुले है, उन कालिका देवी का सदा
ध्यान करना चाहिये ।।४४-४५॥
अपरञ्च प्रवक्ष्यामि ध्यानं परमदुर्लभम्
।
काली करालवदनां घोरदंष्ट्रां
त्रिलोचनाम् ।
स्मरच्छवकरभणी कृतकाञ्ची दिगम्बराम्
॥४६॥
अब एक और ध्यान का वर्णन
करता है जो जगत में अत्यन्त दुर्लभ है। करालवदना, त्रिलोचना, घोरदंष्ट्रा, और
जिन्होंने शवों की करपंक्ति के द्वारा स्वयं को सुशोभित किया है उन दिगम्बरा काली
का स्मरण करना चाहिये ।।४।।
वीरासनसमासीनां महाकालोपरिस्थिताम्
।
श्रतिमलसमाकीर्ण सूक्कणी
घोरनादिनीम् ॥४७॥
जो महाकाल के ऊपर वीरासन में बैठी
है,
जिनके ओष्ठों का प्रान्तभाग (किनारा ) कानों तक विस्तृत हैं,
वे घोर नाद करने वाली हैं ॥४७॥
मुण्डमालागलद्रक्त चवितां
पीवरस्तनीम् ।
मदिरामोदितास्फाल कम्पिताखिल
मेदिनीम् ॥४८॥
वामे खड्गं छिन्नमुण्डं धारिणी
दक्षिणे करे ।
बरामययुतां धोर वदनां लोलजिहिकाम्
॥४९।।
शकुन्तपक्ष संयुक्तं वाणकर्ण विभूषिताम्
।
शिवाभि?ररावाभिः सेवितां प्रलयोदिताम् ।।५०।।
जो मुण्डमालाओं से बह रहे रक्त
द्वारा चर्चित है, जिनके स्तन अत्यन्त
स्थूल है, जो मदिरापान से मत्त होकर समग्र पृथ्वी को
कम्पित कर रही है, जिनके वाम हस्तों में खड्ग तथा दक्षिण
हस्तों में छिन्न मुण्ड है, जो वराभय-प्रदायिनी है, घोर वदना तथा चंचल चिह्वा वाली हैं, उन काली
का ध्यान करे । जिनके कान शकुन्तपक्ष संयुक्त बाण द्वारा विभूषित है, जो समागत प्रलय के समान घोर नाद (र व ) कर रही हैं, शिवाओं
द्वारा सेविता हैं ॥४८-५०॥
चण्डहास चण्डनाद चण्डाख्यानंश्च
भेरवैः।
गहीत्वा नरकंडाले जयशब्द परायणः ।।५१।।
सेविताखिलसिद्धौधनिभिः सेवितां पराम
।
एषामन्यतमं ध्यानं कृत्वा च
साधकोत्तमः ।।५२॥
जिनके पास प्रचण्ड हास्य,
प्रचण्डनाद तथा प्रचण्ड कलरव द्वारा जयशब्द परायण भैरवगण नरकंकाल
धारण करके स्थित रहते हैं, जो निखिल सिद्ध, मुनिगण द्वारा सेविता है उन काली का ध्यान उत्तम साधकों को करना
चाहिये । ॥५१-५२।।
मानसैरुपचारैश्च
सोऽहमात्मानमर्चयेत् ।
ततो देवीं समभ्यर्च्य अर्घ्यद्वयं
निवेदयेत् ॥५३॥
इस ध्यान में मानसोपचार के द्वारा सोऽहं
मंत्र से आत्मार्चन करे । तदनन्तर देवी की पूजा का समापन करते हुये अर्घ्य
प्रदान करे ॥५३॥
दशपञ्चाश पद्मषु पीठपूजां समाचरेत्
।
तत्राबाह्य महादेवीं नियमेन समाहितः
।
ततो ध्यायेन्महादेवीं कालिकां
कुलभूषणम् ॥५४॥
दशदलपद्म ( मणिपूर ) में पूजा करके पीठ पूजा करे । वहाँ पर देवी का आवाहन करते हुये नियमपूर्वक समाहित होकर कौलिकों की भूषणस्वरूपा महादेवी कालिका का ध्यान करे ।।५४।।
महाकालं यजेत् यत्नात् पीठशक्ति ततो
यजेत् ।।५५।।
पहले महाकाल का पुजन करे,
तत्पश्चात् पीठस्थ शक्ति की यत्नपूर्वक पूजा करे ॥५५॥
काली कपालिनी कुल्लां कुरुफुल्लां
विरोधिनीम् ।
विप्रचितां तथा चैव बहिः षट्कोणके
पुनः ।।५६।।
उग्रामुग्रप्रभां दीप्तां तत्र
त्रिकोणके पुनः ।
नीलां घनां बलाकाञ्च तथा पर
त्रिकोणके ।।५७॥
वे काली,
कपालिनी, कुल्ला, कुरुकुल्ला
तथा विरोधिनी हैं। विविध प्रकृष्ट चित्तवाली काली की बहिःपूजा के पश्चात्
पुनः स्वाधिष्ठान में उनका पूजन करे।
स्वाधिष्ठान में पूजन करने के
अनन्तर पुनः त्रिकोण (मूलाधार ) में उग्रप्रभा दीप्ता उग्रमूर्ति कालिका का
पूजन करे। तदनन्तर परत्रिकोण में नील एवं घन मेघद्युति वाली बलाकारूपिणी का पूजन
करे ॥५६-५७॥
मात्री मुद्रां नित्याञ्चैव
तथैवान्तस्त्रिकोणके।
पर्वा श्यामा असिकरा मुण्डमाला
विभूषणा ॥५८॥
अब अन्तः त्रिकोण में मुद्रा
प्रदर्शन करते हुये ध्यान करें। (त्रिकोण के तीन रूप यहाँ कहे गये हैं । यथा
त्रिकोण,
पर त्रिकोण, अन्तः त्रिकोण)। ध्यान इस
प्रकार है, जो शर्वा, श्यामा, हाथ में खड्ग धारिणी, मुण्डमाला से विभूषिता है ।।५८॥
तज्जंनी पामहस्तेन धारयन्ती
शुचिस्मिता ।
ब्रह्माद्यास्तथा बाह्ये यजेत्
पूर्वदलकमात् ॥५९॥
वामहस्त में जिन्होंने तर्जनी धारण
किया है,
वे शुचिस्मिता है । अब ब्राह्मी प्रभृति देवीगण को भी पूर्वदलक्रम
से बाह्यपूजा करे ।।५९॥
ब्राह्मी नारायणी चैव तथैव च
महेश्वरी ।
चामुण्डापि च कौमारी तथा
चैवापराजिता ॥६०॥
वाराही च तथा पूज्या नारसिंही तथैव
च ।
सर्वासामपि दातव्या वलिः पूजा तथैव
च ॥६१॥
अनुलेयनकं गन्धं वपदीपौ च पानकम ।
त्रिस्त्रि: पूजा च कर्तव्या
सर्वासामपि साधकः ॥६२॥
ब्राह्मी,
नारायणी, माहेश्वरी प्रभुति की पूजा करे । चामुण्डा,
कौमारी, अपराजिता, वाराही और नारसिंही का भी पूजन करना चाहिये । समस्त देवियों की बलि द्वारा
पूजा करे । उन्हें अनुलेपन, गन्ध, धूप,
दीप तथा पान निवेदित कर । समस्त पूर्वोक्त देवियों का पूजन तीन-तीन
बार करे ।।६०-६२।।
पुनर्गन्धादिभिः पूजा जप्त्वा शेषं
समर्पयेत् ।
समयं चार्चयेत् देव्या
योगिनी-योगिभिः सह ॥६३॥
मधु मांस तथा मत्स्यं यत् किंचित्
कुलसाधमम् ।
शक्त्यं दत्वा तत: पश्चात् गुरुवे
विनिवेदयेत् ॥६४॥
पुनः गन्धादि द्वारा पूजन करें और
यथाशक्ति जप करें। अन्त में जप का समर्पण कर दे । योगिनी-योगी की पूजा
साथ-साथ ही करे।
मधु-मांस,
मत्स्य आदि कुलसाधन द्वारा कुलम्नाय के मत में विहित उपचारों द्वारा
पूजन करें। पहले शक्ति को इन वस्तुओं को अर्पित करे, तदनन्तर
गुरु को भी अर्पित करे ।।६३-६४॥
तदनुज्ञां मूनि कृत्वा शेषं चात्मनि
योजयेत् ।
मधु मांस बिना यस्तु कुल पूजां
समाचरेत् ।
जन्मान्तर सहस्त्रस्य सुकृतिस्तस्य
नश्यति ।।६५।।
तदनन्तर गुरु का आदेश
शिरोधार्य करके स्वयं प्रसाद ग्रहण करे । जो मधु मांसांदि के बिना कुलपूजन करता है,
उसके हजारों जन्मों का सुकृत नष्ट हो जाता है ॥६॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन मकार
पञ्चर्यजेत् ।
मधुना न विना मंत्रं न मंत्रण बिना
मधु ।
परस्पर विरोधेन कथं सिध्यन्ति
साधकाः ॥६६॥
इस प्रकार समस्त मकार पंञ्चकादि (
मत्स्य-मुद्धा-मांस-मद्य-मैथुन ) के द्वारा प्रयत्न पूर्वक पूजन करे । मद्य के
बिना मंत्र तथा मंत्र के बिना मद्य वियुक्ताबस्था के द्योतक है । इनकी वियुक्ति से
मन्त्रसिद्धि कैसे हो सकेगी? ॥६६॥
कुण्ड कुम्भ रूपालादि पदार्थानां
निषेवनम ।
सौरे तन्त्र विरुद्धश्च शैवे शाक्ते
महाफलम् ॥६७॥
सौरतंत्र में कुण्ड-कुंभ-कपाल आदि सेवन करना वर्जित है। परन्तु शैव तथा शाक्त मार्ग में यह सब महत् फल प्रदायक है ॥६७॥
ब्रह्माण्डखण्ड सम्भूत मशेष रत्न
सम्भवम ।
श्वेतं पीतं सुगन्धिञ्च निर्मलं
भूरि तेजसम ॥६८॥
अथवा कुम्भमध्येऽस्मिन् स्त्रवन्तं
परमामृतम् ।
अन्तर्लयो बहिमध्ये त्रिकोणोदर
वत्तिनी ॥६९॥
तद्वाह्यं स्फाटिकोदार मणिचन्द्रञ्च
मण्डलम ।
तेनामृतेन तद्वाह्ये चिन्तयेत्
परमामृतम ॥७०॥
ब्रह्माण्ड खण्ड से उत्पन्न अनन्त रत्न,
श्वेत, पीत, सुगन्ध,
निर्मल तथा प्रभूत तेजयुक्त इस कुम्भ से अर्थात् शरीर के उर्ध्व देश
सहस्त्रार से परमामृत सर्वदा स्त्रवित होता रहता है । सहस्त्रार चक्र में जो
त्रिकोण विद्यमान है, उसमें से झरते हुये अमृत का ध्यान करते
रहने से अन्तर्लय हो जाता है।
स्फटिक के समान स्वच्छ मणियुक्त
पात्र में जो बाह्य अमृत् है, उस अमृत के
द्वारा परमामृत का चिन्तन करे ।।६८-७०।।
आरम्भस्तरुणः प्रौढ़स्तदन्ते तु
न्यासः पुनः ।
ऐभिरुल्लासवान योगी स्वयं शिवमयो
यतः ॥७१।।
सर्वशेषे च देवेशि सामान्याव्य
पदेऽपयत् ।
विशेषाय शिरे दत्वा देव्याः
प्रियतमो भवेत् ॥७२॥
साङ्गक्रिया पदे दत्वा सामान्यायं
शिव भवेत् :
इत्युक्त्वा स परामयी शक्तितोषण
कारकः ।।७३।।
चिन्तन आरंभ करे,
आरंभ में तारुण्य कि तदनन्तर प्रौढ़ावस्था (अन्तः प्रदेश में )
प्राप्त होने लगती है। इसके पश्चात् न्यास करे। ऐसे अनुष्ठान के द्वारा उल्लास
मिलता है । अब योगी शिव के समान हो जाता है । हे देवेशी ! सर्वान्त में
शक्ति के चरणों में सामान्य अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । मस्तक में विशेष अर्घ्य
देने से वह कुलसाधक देवी को प्रिय हो जाता है। समस्त क्रिया का देवी के चरणों में
अर्पण करने के उपरान्त मस्तक में सामान्य अर्घ्य देना ही चाहिये।
उन पराशक्ति को प्रसन्न रखने वाले शिव
इस इस प्रकार उपदेश करते हुये कहते हैं कि-॥७१-७३॥
भोगेन लभते मोक्षं बहना जल्पितेन
किम् ।
नियमः पुरुष ज्ञेयो न योषित्सु
कदाचन ।।७४।।
यद्वा तद्वा येन केन सर्वदा
सर्वतोऽपि च ।
योषितां ध्यान योगेन शुद्धशेषं न
संशयः ।।७५।।
इस मार्ग में भोग से ही मोक्ष मिलने
लगता है। अब अधिक कहने से क्या लाभ ? इस
मार्ग का समस्त नियम पुरुष के ही लिये है। शक्ति (स्त्री) के लिये कोई नियम
नहीं है। वे किसी भी प्रकार से सर्वक्षेत्र में ध्यान कर सकती है । ध्यान द्वारा
ही स्त्री विशुद्ध हो जाती है । यह निःसंदिग्ध है ॥७४-७५।।।
बालाम्वा यौवनोन्मत्तां वृद्धाम्बा
युवतीं तथा ।
कुत्सिताम्वा महादुष्टां नमस्कृत्य
विसर्जयेत् ।।७६॥
तासा प्रहारो निदाञ्च
कोटिल्यमप्रियं तथा ।
सर्वथा न च कर्त्तव्यं अन्यथा
सिद्धिरोधकुत् ॥७७॥
बालिका,
यौवनोन्मत्ता युवती, वृद्धा, कुत्सिता, महादुष्टा, अर्थात्
प्रत्येक प्रकार की स्त्रियों को नमस्कार करके विदा करे। स्त्रियों पर प्रहार करना,
उनके प्रति कुटिलाचरण करना, उनके प्रति अप्रिय
आचरण करना वर्जित है। ऐसा करने पर सिद्धि के मार्ग में अवरोध उत्पन्न हो जाता है
।।७६-७७।।
इति ते कथितं शेषमाचरेत् लक्षणं
प्रिये ।
नित्यपूजाक्रम भक्त्या ज्ञात्वा
सिद्धिमवाप्नुयात् ॥७८॥
हे प्रिये । इस प्रकार से साधना
करे। पूर्वोक्त नित्यपूजा का भक्तिपूर्वक अनुष्ठान करने से सिद्धि प्राप्त
हो जाती है ।।७८।।
॥ इति दक्षिणाम्नाये
कंङ्कालमालिनीतंत्रे चतुर्थः पटलः ।।
दक्षिणाम्नाय के कंकालमालिनी तंत्र का चतुर्थ पटल समाप्त ।।
आगे जारी............. कंकालमालिनीतंत्र पटल ५
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