नर्मदाष्टक

नर्मदाष्टक

श्रीशंकरजी के पसीने  से उत्त्पन्न परम पवित्र नदी माँ नर्मदा के पास खड़े होकर पूरी श्रद्धा से यदि श्री नर्मदाष्टक का पाठ किया जाए तो माँ नर्मदा शीघ्र प्रसन्न होतीं है और मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूरी होने लगती हैं।

नर्मदाष्टकम्

श्री नर्मदाष्टकम् 

श्री नर्मदा अष्टक                                                    

सविन्दु सिन्धु-सुस्खलत्तरंगभंगरंजितं

द्विषत्सु पापजातजात करिवारी संयुतं ।

कृतांतदूत कालभूत भीतिहारी वर्मदे,

त्वदीय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे ।।१।।

(अंत समय में ) यम-दूतों तथा (सर्वदा) कल-भूतों के भय का हरण करके, रक्षा करनेवाली, हे माँ नर्मदा देवि ! अपने जल-कणों द्वारा समुद्र की उछलती हुई लहरों में रोचक दृश्य उत्पन्न करने वाले तथा शत्रुओं के भी पाप-समुदाय को नाश करने वाले, निर्मल जल-सहित आपके चरण कमलों को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥

त्वदंबु लीनदीन मीन दिव्य संप्रदायकं,

कलौ मलौघभारहारि सर्वतीर्थनायकं ।

सुमत्स्य, कच्छ, नक्र, चक्र, चक्रवाक शर्मदे,

त्वदीय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे ।।२।।

मत्स्य (मछ्ली), कच्छ (कछुआ), नक्र (मगर) इत्यादि जल-जींव-समुदाय, तथा चक्रवाक (चकई-चकवा) आदि पक्षी-समुदाय को सुख देनेवाली हे नर्मदा जी ! आपके जल में मग्न रहनेवाले दीन-दु:खी मतस्यों को दिव्य (स्वर्ग) पद देनेवाले, तथा इस कलियुग के पापपुञ्जरूपी भार को हारनेवाली, और सर्व तीर्थों (जालों) मे श्रेष्ठ ऐसे जल-युक्त आपके चरणकमलों को मैं प्रणाम करता हूँ ।।२।।

महागभीर नीरपूर पापधूत भूतलं,

ध्वनत् समस्त पातकारि दारितापदाचलम् ।

जगल्लये महाभये मृकंडुसूनु हर्म्यदे,

त्वदिय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे ॥३॥

महान भयंकर संसार के प्रलय में मार्कण्डेय ऋषि को आश्रय देनेवाली, हे नर्मदा देवि ! अत्यंत गंभीर जल के प्रवाह द्वारा पृथ्वी-तल के पापों को धोनेवाले, तथा अपने कलकल शब्दों द्वारा समस्त पातकों को नाश करने वाले तथा संकटों के पर्वतों को विदीर्ण करने वाले, ऐसे आपके जलयुक्त चरण कमलों को मैं प्रणाम करता हूँ ॥३॥

गतं तदैव मे भयं त्वदंबुवीक्षितं यदा,

मृकण्डुसूनु शौनकासुरारिसेवितं सदा।

पुनर्भवाब्धि जन्मजं भवाब्धि दु:ख वर्मदे,

त्वदिय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे ॥४॥

मार्कण्डेय, शौनक, तथा देवताओं से निरंतर सेवन किए गए,आपके जल को जिस समय मैंने देखा, उसी समय मेरे जन्म-मरण-रूप दु:ख और संसार-सागर में उत्पन्न हुए समस्त भय भाग गए । संसाररूपी समुद्र के दु:खों से मुक्त करेने वाली, हे नर्मदा जी ! आपके चरणकमलों को मैं प्रणाम करता हूँ ॥४॥

अलक्ष्य-लक्ष किन्नरामरासुरादि पूजितं,

सुलक्ष नीरतीर धीरपक्षी लक्षकूजितं।

वशिष्ठ शिष्ट पिप्पलादि कर्दमादि शर्मदे,

त्वदिय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे ॥५॥

वसिष्ठ ऋषि, श्रेष्ठ पिप्पलाद ऋषि, तथा कर्दम आदि ऋषियों को सुख देने वाली, हे माँ नर्मदा देवि ! अदृश्य लाखों किन्नरों (देवयोनि विशेष ), देवताओं, तथा मनुष्यों से पूजन किए गए, और प्रत्यक्ष आपके जल के किनारे निवास करने वाले लाखों पक्षियों से कूजित (किलकिलाहट) किए गए, आपके चरण कमलों को मैं प्रणाम करता हूँ॥५॥

सनत्कुमार नाचिकेत कश्यपादि षट्पदै,

घृतंस्वकीय मानसेषु नारदादि षट्पदै: ।

रविंदु रंतिदेव देवराज कर्म शर्मदे,

त्वदिय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे ॥६॥

सूर्य, चन्द्र, रंतिदेव और इंद्रादि देवताओं को सुख देनेवाली, हे माँ नर्मदा जी ! सनत्कुमार नाचिकेत, कश्यप, अत्रि, तथा नारदादि ऋषिरूप जो भ्रमर उनसे अपने-अपने मन में धारण किए गए, ऐसे आपके चरण कमलों को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ ॥६॥

अलक्ष्यलक्ष्य लक्ष पाप लक्ष सार सायुधं,

ततस्तु जीव जन्तु-तन्तु भुक्ति मुक्तिदायकम् ।

विरंचि विष्णु शंकर स्वकीयधाम वर्मदे,

त्वदिय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे ॥७॥

ब्रह्मा, विष्णु, तथा इनको अपना-अपना पद (सामर्थ्य तथा स्थान) देनेवाली, हे माँ नर्मदा देवि ! जिनकी गणना करने को मन भी नहीं पहुचता, ऐसे असंख्य पापों को नाश करने के लिए प्रबल आयुध (तीक्ष्ण तलवार) के समान, तथा आपके किनारे पर रहनेवाले जीव ( बड़े-बड़े प्राणी) जन्तु (छोटे प्राणी) तन्तु (लता-वीरुध) अर्थात् स्थावर-जंगल समस्त प्राणियों को इस लोक का सुख तथा परलोक (मुक्ति) का सुख देनेवाले, ऐसे आपके चरणकमलों को मैं प्रणाम करता हूँ ॥७॥

अहोमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे,

किरात-सूत वाडवेषु पंडिते शठे-नटे ।

दुरन्त पाप-तापहारि सर्वजन्तु शर्मदे,

त्वदिय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे ॥८॥

अहो ! शंकर जी की जटाओं से उत्पन्न रेवा जी के किनारे मैंने अमृत के समान आनंददायक कलकल शब्द सुना, समस्त जाति के प्राणियों को सुख देनेवाली, हे माँ नर्मदा जी ! किरात (भील) सूत ( भाट ) बाडव (ब्राह्मण) पंडित (विद्वान) शठ (धूर्त) और नट, इनके अनंत पाप पुंजों के तापों को हरण करनेवाली, ऐसे आपके चरण कमलों को मैं प्रणाम करता हूँ ॥

इदंतु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये यदा,

पठंति ते निरंतरं न यान्ति दुर्गतिं कदा ।

सुलभ्य देह दुर्लभं महेशधाम गौरवं,

पुनर्भवा नरा न वै विलोकयन्ति रौरवम् ॥९॥

जो भी इस नर्मदाष्टक का प्रति-दिन तीन काल ( प्रात:, सायं, मध्यान्ह) मे पाठ करते है, वे कभी भी दुर्गति को नहीं प्राप्त होते, तथा अन्य लोकों को दुर्लभ ऐसे सुंदर शरीर धरण का कर शिवलोक को गमन करते है, तथा इस लोक मे सुख पाते है और पुनर्जन्म के बंधन से छूट कर कभी भी रौरवादि नरकों को नहीं देखते ॥९॥

॥इति नर्मदाष्टकम् पूर्ण॥

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