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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
कात्यायनी स्तुति
श्रीराम कृत कात्यायनी स्तुति का
नित्य पाठ करने से जीवन में सभी शत्रुओं का नाश होता है और सभी मनोरथ पूर्ण होता
है।
श्रीराम कृत कात्यायनी स्तुति:
॥ श्रीराम उवाच ॥
नमस्ते त्रिजगद्वन्द्ये संग्रामे
जयदायिनि ।
प्रसीद विजयं देहि कात्यायनि
नमोऽस्तु ते ॥ १ ॥
श्रीरामजी बोले-त्रिलोकवन्दनीया!
युद्ध में विजय देनेवाली ! कात्यायनि आपको बार-बार नमस्कार है। आप मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे विजय प्रदान करें।
सर्वशक्तिमये दुष्टरिपुनिग्रहकारिणि
।
दुष्टजृम्भिणि संग्रामे जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ २ ॥
सर्वशक्तिमयी,
दुष्ट शत्रुओं का निग्रह करनेवाली, दुष्टों का
संहार करनेवाली भगवती ! संग्राम में मुझे विजय प्रदान करें आपको नमस्कार है।
त्वमेका परमा शक्तिः
सर्वभूतेष्ववस्थिता ।
दुष्टं संहर संग्रामे जयं देहि नमोऽस्तु
ते ॥ ३ ॥
आप ही सभी प्राणियों में निवास
करनेवाली परा शक्ति हैं। संग्राम में दुष्ट राक्षस का संहार करें और मुझ विजय प्रदान
करें,
आपको नमस्कार है।
रणप्रिये रक्तभक्षे मांसभक्षणकारिणि
।
प्रपन्नार्तिहरे युद्धे जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ ४ ॥
युद्धप्रिये! 'शरणागत की पीड़ा हरनेवाली तथा [ राक्षसों का"] रक्त एवं मांस भक्षण
करनेवाली जगदम्बे ! युद्ध में मुझे विजय प्रदान करें, आपको नमस्कार है।
खट्वाङ्गासिकरे
मुण्डमालाद्योतितविग्रहे ।
ये त्वां स्मरन्ति दुर्गेषु तेषां
दुःखहरा भव ॥ ५ ॥
हाथ में खट्वांग तथा खड्ग धारण
करनेवाली एवं मुण्डमाला से सुशोभित विग्रहवाली भगवती! विषम परिस्थितियों
में जो आपका स्मरण करते हैं, उनका दुःख हरण
कीजिये।
त्वत्पादपङ्कजादैन्यं नमस्ते
शरणप्रिये ।
विनाशय रणे शत्रून् जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ ६ ॥
शरणागतप्रिये! आप अपने चरणकमल के
अनुग्रह से दीनता का नाश कीजिये; युद्धक्षेत्र में
शत्रुओं का विनाश कीजिये और मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको
नमस्कार हैं, पुनः नमस्कार हैं।
अचिन्त्यविक्रमेऽचिन्त्यरूपसौन्दर्यशालिनि
।
अचिन्त्यचरितेऽचिन्त्ये जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ ७ ॥
आपका पराक्रम,
रूप, सौन्दर्य तथा चरित्र अपरिमित होने के
कारण सम्पूर्ण रूप से चिन्तन का विषय बन नहीं सकता। आप स्वयं भी अचिन्त्य हैं।
मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है।
ये त्वां स्मरन्ति दुर्गेषु देवी
दुर्गविनाशिनीम् ।
नावसीदन्ति दुर्गेषु जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥
जो लोग विपत्तियों में दुर्गति का
नाश करनेवाली आप भगवती का स्मरण करते हैं, वे
विषम परिस्थितियों में दुःखी नहीं होते। आप मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है।
महिषासप्रिये संख्ये
महिषासुरमर्दिनि ।
शरण्ये गिरिकन्ये मे जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥
युद्ध में महिषासुर का मर्दन
करनेवाली तथा उस महिषासुर के रक्तपान में अभिरुचि रखनेवाली,
शरण ग्रहण करने योग्य हिमालयसुता! आप मुझे विजय प्रदान कीजिये,
आपको नमस्कार है।
प्रसन्नवदने चण्डिचण्डासुरविमर्दिनि
।
संग्रामे विजयं देहि शत्रुञ्जहि
नमोऽस्तु ते ॥ १० ॥
चण्डासुर का नाश करनेवाली
प्रसन्नमुखी चण्डिके ! युद्ध में शत्रुओं का संहार कीजिये और मुझे विजय प्रदान
कीजिये,
आपको नमस्कार है।
रक्ताक्षि रक्तदशने
रक्तचर्चितगात्रके ।
रक्तबीजनिहन्त्री त्वं जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ ११ ॥
रक्तवर्ण के नेत्रवाली,
रक्तरञ्जित दन्तपक्तिवाली तथा रक्त से लिप्त शरीरवाली भगवती! आप
रक्तबीज का संहार करनेवाली हैं। आप मुझे विजय प्रदान करें, आपको
नमस्कार है।
निशुम्भशुम्भसंहन्त्रि विश्वकत्रि
सुरेश्वरि ।
जहिशत्रून् रणे नित्यं जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ १२ ॥
निशुंभ तथा शुंभ का संहार करनेवाली
तथा जगत की सृष्टि करनेवाली सुरेश्वरि! आज नित्य युद्ध में शत्रुओं का संहार
कीजिये और मुझे विजय प्रदान कीजिये, आपको
नमस्कार है।
भवान्येतज्जगत्सर्वं त्वं पालयसि
सर्वदा ।
रक्ष विश्वमिदं मातर्हत्वैतान्
दुष्टराक्षसान् ॥ १३ ॥
भवानी! आप सर्वदा इस सम्पूर्ण जगत का
पालन करती हैं। मातः ! आप इन दुष्ट राक्षसों को मारकर इस विश्व की रक्षा कीजिये।
त्वं हि सर्वगता
शक्तिर्दुष्टमर्दनकारिणि ।
प्रसीद जगतां मातर्जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ १४ ॥
दुष्टों का संहार करनेवाली भगवती! आप
सबमें विद्यमान रहनेवाली शक्तिस्वरूपा है। जगतमाता! प्रसन्न होइए, मुझे विजय प्रदान
कीजिये, आपको नमस्कार है ।
दुर्वृत्तवृन्ददमनि
सद्वृत्तपरिपालिनि ।
निपातय रणे शत्रुञ्जयं देहि
नमोऽस्तु ते ॥ १५ ॥
दुराचारियों का दमन करनेवाली तथा सदाचारियों
का सम्यक पालन करनेवाली भगवती ! युद्ध में शत्रुओं का संहार कीजिये और मुझे विजय
प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है।
कात्यायनि जगन्मातः प्रपन्नार्तिहरे
शिवे ।
संग्रामे विजयं देहि भयेभ्यः पाहि
सर्वदा ॥ १६ ॥
शरणागतों का दुःख दूर करनेवाली,
कल्याण प्रदान करनेवाली जगन्माता कात्यायनी ! युद्ध में मुझे
विजय प्रदान कीजिये और भय से सदा रक्षा कीजिये ।
॥ इति श्रीमहाभागवते देवीपुराणे श्रीमहादेवनारद संवादे श्रीरामकृता कात्यायनीस्तुतिः ॥
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