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- रुद्रयामल तंत्र पटल १२
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रुद्रयामल तंत्र पटल ७
रुद्रयामल तंत्र पटल ७ में कुमारी
पूजन का विधान है। आत्मध्यानपरायण पशुभावापन्न साधक के द्वारा कुमारी पूजा की जाती
है। पूजाविधि में कुमारी की जाति परीक्षा नहीं होती है। धोबी आदि किसी भी जाति की
कन्या को पूजनीय कहा गया है (५-११)। वस्तुतः कुलदेवी की बुद्धि से कुमारी पूजनीय
होती है । यहाँ कुमारी पूजन की विधि सम्यक् रूप से कही गई है। मायाबीज से पाद्य,
लक्ष्मीबीज से अर्ध्यं और सदाशिव मन्त्र से धूपदीप--दान की विधि कही गई है (६०-६१)। अन्त
में कुमारी महामन्त्र का मन्त्रोद्धार किया गया है (६३-६४)। इसके बाद विभिन्न पूजा
विधि और उनका मन्त्रोद्धार वर्णित है (६५-९१) फिर कुमारी स्तोत्र का विधान है
(९२-९४)।
रुद्रयामल तंत्र पटल ७
रुद्रयामल सप्तम: पटलः
रुद्रयामल सातवां पटल
तंत्र
शास्त्ररूद्रयामल
सप्तम पटल - कुमारीस्तोत्र
आनन्दभैरवी उवाच
अथ पूजां प्रवक्ष्यामि
कुमार्याश्चातिदुर्लभाम् ।
व्याधिवर्गविहीनानां शीघ्रं सिद्भ्यति
भूतले ॥१॥
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे महाभैरव !
अब कुमारी की अत्यन्त दुर्लभ पूजा कहती हूँ । व्याधि वर्ग विहीन कन्या पूजन से
साधक को भूमण्डल में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है ॥१॥
तत्प्रकारं महादेव वीराणामधिपाधिक ।
पूजास्थानं महापीठं देवालयमथापि वा
॥२॥
हे वीरों के अधिपाधिप ! हे महादेव
! अब उसका प्रकार सुनिए, कन्यापूजन के लिए (शाक्त) महापीठ अथवा देवालय समुचित स्थान माना गया है ॥२॥
सुन्दरीं परमाननन्दवर्द्धनीं
जयदायिनीम् ।
कालरात्रिस्वरुपां श्रीं गौरीं
रक्ताङुरागिणीम् ॥३॥
सुन्दरी,
परमानन्दवर्द्धिनी, जयदयिनी, कालरात्रिस्वरूपा एवं रक्ताङ्ग रञ्जिता कन्या श्री गौरी का स्वरूप
हैं ॥३॥
कन्यां देवकुलोद्भूतां राक्षसीं वा
नरोत्तमाम् ।
नटीकन्यां हीनकन्यां तथा
कापालिकन्यकाम् ॥४॥
रजककस्यापि कन्यां ते तथा
नापितकन्यकाम् ।
गोपालकन्यकाञ्चैव तथा
ब्राह्मणकन्यकाम् ॥५॥
शूद्रकन्यां वैश्यकन्यां तथा
वैद्यकन्यकाम् ।
चण्डालकन्यकां वापि यत्र
कुत्राश्रमे स्थिताम् ॥६॥
सुह्रद्वर्गस्य कन्यां च समानीय
प्रयत्नतः ।
पूजयेत् परमानन्दैत्मध्याननारायणः
॥७॥
चाहे वह कन्या देवकुल में उत्पन्न
हो अथवा राक्षस कुल में, चाहे नरों के उत्तम
कुल में, चाहे नटी कन्या, चाहे हीन
जाति की कन्या, चाहे कापालिक की कन्या ही क्यों न हों । चाहे
धोबी की कन्या, चाहे नापित की कन्या, गोपाल
की कन्या, ब्राह्मण की कन्या, शूद्र की
कन्या, वैश्य की कन्या, वैद्य की कन्या
अथवा चाण्डालकन्या ही क्यों न हों, किं वा वे जिस किसी आश्रम
में स्थित कन्या ही क्यों न हों, चाहे अपने सुहृद वर्ग की
कन्या ही क्यों न हों, उन्हें प्रयत्न पूर्वक अपने घर लाकर
अध्यात्म परायण (शक्ति स्वरुपा) मान कर उनका अत्यन्त आनन्दपूर्वक पूजन करना चाहिए
॥४ - ७॥
क्रमशः श्रृणु देवेन्द्र
वरहस्तनिषेवित ।
परमानन्दसौन्दर्य कारणान्दविग्रहः
॥८॥
मम पूजां यः करोति प्रत्यहं
शुद्धभक्तितः ।
तस्यावश्यं कुमारीणां पूजनं भोजनं
रवेः ॥९॥
हे वरदान देने वाले ! हे देवेन्द्र
! हे परमानन्दसौन्दर्य ! हे कारणानन्दविग्रह ! अब क्रमशः सुनिए । जो शुद्ध
भक्तिपूर्वक मेरी पूजा प्रतिदिन करते हैं, उन्हें
अवश्य ही कुमारी पूजन कर उनको भोजन कराना चाहिए ॥८ - ९॥
तेजोरुपं विधोश्चाग्नेः सर्वभावे
प्रशस्यते ।
तत्पूजनात् तदालापाद् भोजनादपि तत्
शुभम् ॥१०॥
चाहे सूर्य की पूजा,
चाहे चन्द्रमा की पूजा, चाहे अग्नि
की ही पूजा करने वाला क्यो न हो, सभी भावों में कन्या का
पूजन प्रशस्त माना गया है । कन्या के पूजन से, कन्या से
संभाषण से और कन्या के भोजन से मनुष्य का कल्याण होता है ॥१०॥
मम प्रीतिर्भवेत्साक्षाद्
देवतागुप्तिसंस्थिता ।
बालभैरवदेवस्य कामिनीवटुकस्य च ॥११॥
मत्पुत्रस्य सर्वलोकीपूजितस्य
महौजसः ।
पूजाभिर्विवेधैर्दिव्यैः कुमारी देव
पूजिता ॥१२॥
कन्या पूजन से मैं प्रसन्न होती हूँ
क्योंकि उनमें देवता गुप्त रुप से निवास करते है । सभी लोकों के द्वारा पूजित,
महान् तेजस्वी तथा ब्रह्मचारी मेरे पुत्र बाल भैरव देव की जो
अभीष्ट हैं, वह कुमारी विविध प्रकार के दिव्य पूजन से देवों
के द्वारा पूजित हैं ॥११ - १२॥
कुमारी कन्यका प्रोक्ता सर्वज्ञा
जगदीश्वरी ।
पूजार्थं सर्वलोकास्य समानीय
सुरेश्वराः ॥१३॥
पूजयन्ति महादेवीं
गुप्तभावनिवासिनीम् ।
सदा भोजनवाञ्छार्घ्या
माल्यसन्तुहासिनीम् ॥१४॥
कुमारी कन्या,
सर्वज्ञा एवं जगदीश्वरी कही जाती हैं । सुरेश्वर (= इन्द्र) गण भी
पूजा के लिए गुप्त रुप से निवास करने वाली भूमिस्वरूपा महादेवी भोजन आदि अभीष्ट से
अर्घ्य और मालादि द्रव्यों से सन्तुष्ट होकर प्रसन्न रहने वाली कन्या को समस्त लोक
से लाकर उनका पूजन करते हैं ॥१३ - १४॥
वृथा न रौति सा देवी कुमारी
देवनायिका ।
सरस्वतीस्वरुपा च पूज्यते
सर्वनायकैः ॥१५॥
शिवभक्तैर्विष्णुभक्तैस्तथान्यदेवपूजितैः
।
सर्वलोकैः पूजिता सा चावश्यं
पूज्यते बुधैः ॥१६॥
कुमारी देवनायिका का रोना अर्थात्
असन्तुष्ट होना, व्यर्थ नहीं होता है अतः सभी
श्रेष्ठ लोग सरस्वती स्वरूपा (द्र० ६ . ९६) कन्या का पूजन करते हैं । शिव
भक्त, विष्णु भक्त तथा अन्य देवता भक्त, किं बहुना, समस्त मनुष्यों द्वारा कन्या पूजित हुई
हैं, इसलिए बुद्धिमान् साधक को कन्या का पूजन अवश्य करना
चाहिए ॥१५ - १६॥
पूजया लभते पूजां पूजया लभते
श्रियम् ।
पूजया धनमाप्नोति पूजया लभते महीम्
॥१७॥
पूजया लभते लक्ष्मीं सरस्वतीं
महौजसम् ।
महाविद्याः प्रसीदन्ति सर्वे देवा न
संशयः ॥१८॥
कन्या पूजन से साधक पूजा प्राप्त
करता है,
कन्या पूजन से श्री की प्राप्ति होती है, धन
प्राप्त होता है और पृथ्वी मिलती है। कन्या पूजन से लक्ष्मी
प्राप्त होती है, सरस्वती
प्राप्त होती है, महान् तेज मिलता है और दस महाविद्यायें
प्रसन्न होती हैं । किं बहुना समस्त देवता कन्या पूजन से प्रसन्न होते हैं,
इसमें संशय नहीं ॥१७ - १८॥
बालभैरवब्रह्मेन्द्रा ब्राह्मणा
ब्रह्मवादिनः ।
रुद्राश्च देववर्गाश्च वैष्णवा
विष्णुरुपिणः ॥१९॥
अवताराश्च द्विभुजा विष्णवो
अनुशोभिताः ।
अन्ये दिक्पालदेवाश्च
चराचरगुरुस्तथा ॥२०॥
नानाविद्यायुतास्सर्वे दानवा
कूटशालिनः ।
अपवर्गस्थिता ये ये ते ते तुष्टा न
संशयः ॥२१॥
कन्या पूजन से बाल भैरव (श्री
बटुक) ब्रह्मा, इन्द्र,
ब्रह्मवेता ब्राह्मण, रुद्र, देवगण, विष्णुरूप वैष्णव अवतार, द्विभुजा वाले वैष्णव जन, (स्वारोचिषा आदि) मनु से
शोभित, अन्य दिक्पाल एवं देवता, अनेक
विद्या से युत्त चराचर गुरु, कूटनीति से युक्त दानव और
अपवर्ग में स्थित रहने वाले जो जो जन हैं वे सभी संतुष्ट होते हैं, इसमें संशय नहीं ॥१९ - २१॥
यद्यहं तुष्टिरुपा हि अन्ये लोके च
का कथा ।
कुमारी पूजनं कृत्वा त्रैलोक्यं
वशमानयेत् ॥२२॥
हे देव ! यदि कन्या पूजन से मैं
संतुष्ट होती हूँ तो अन्य लोगों की बात ही क्या? साधक कुमारी पूजन कर समस्त त्रैलोक्य को अपने वश में सकता है ॥२२॥
महाशान्तिर्भवेत् क्षिप्रं
सर्वपुण्य़ं फलप्रदम् ।
तत्तमन्त्रसदुल्लेखात् क्षणात्
पुण्ययुतं भवेत् ॥२३॥
कन्या पूजन से शीघ्र ही महाशान्ति
प्राप्त होती हैं, संपूर्ण पुण्य तथा
समस्त फल प्राप्त होते हैं । तन्त्र और मन्त्र में कहे गये समस्त पुण्य क्षण मात्र
में प्राप्त हो जाते हैं ॥२३॥
मन्त्रेण पुटितं कृत्वा जप्त्वा
सिद्धीश्वरो भवेत् ।
यद्यत् प्रकारमुच्चार्य वदामि
सुरसुन्दर ॥२४॥
तत्तत् कार्यमवश्यं च भिन्नबुद्धिं
न कारयेत् ।
(कुमारी) मन्त्र से संपुटित
(मन्त्र) का जप करने से साधक समस्त सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । हे
सुरसुन्दर ! जिन जिन विधानों के प्रकार को मैं कहती हूँ उसे अवश्य करना चाहिए ।
उसमें भेद बुद्धि कदापि न करे ॥२४ - २५॥
भैरव उवाच
अथ बीजप्रभेदञ्च वद शङ्करपूजिते
॥२५॥
यदि मां स्नेहपुञ्जाऽस्ति
मत्कुलार्थप्रवेशिनि ।
वदस्व परमानन्द भैरवि प्राणवल्लभे
॥२६॥
श्रीभैरव ने कहा --- हे शङ्करपूजिते
! हे मेरे कुल के समस्त भावों में प्रविष्ट कराने वाली ! हे भैरवि ! हे
प्राणवल्लभे ! हे परमानन्द ! यदि मुझ आपका स्नेह पुञ्ज हो तो अब कुमारी के बीज
मन्त्र के भेदों को मुझे बताइए ॥२५ - २६॥
आनन्दभैरवी उवाच
श्रृणु नाथ कुलार्थं मे कुमारीपूजने
मनुम् ।
महामन्त्रं महामन्त्रं सिद्धमन्त्रं
न संशयः ॥२७॥
एतन्मन्त्रप्रसादेन जीवन्मुक्तो
भवेत् सुधीः ।
अन्ते देवीपदं याति सत्यमानन्दभैरव
॥२८॥
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे नाथ ! अब
शाक्तों के हित के लिए कुमारी पूजन में प्रयोग किए जाने वाले महामन्त्र को
मुझ से सुनिए । ये महामन्त्र सिद्ध मन्त्र हैं इसमें संशय नहीं । इस मन्त्र की
कृपा होने पर बुद्धिमान् साधक जीवन्मुक्त हो जाता है और अन्त में देवी पद को
प्राप्त कर लेता है । हे आनन्दभैरव ! यह सत्य हैं ॥२७ - २८॥
ऐहिकसुखसम्पत्तिर्मधुमत्याः
प्रसादकम् ।
अवश्यं प्राप्नुयान्मर्तो विश्वास
कुरु शङ्कर ॥२९॥
इस लोक में अवश्य ही साधक को सुख
संपत्ति प्राप्त होती है और यह मन्त्र मधुमती विद्या को प्रसन्न करने वाला
है,
हे शङ्कर ! ऐसा विश्वास करो ॥२९॥
वाग्भवेन पुरः क्षोभं मायाबीजे
गुणाष्टकम् ।
श्रियोबीजे श्रियोलाभो मायाबीजे रिपुक्षयः
॥३०॥
भैरवेण तु बीजेन खेचरत्वं सुरादिभिः
।
कुमारिका ह्यहं नाथ सदा त्वं हि
कुमारकः ॥३१॥
वाग्भव (ऐं) से समस्त पुर क्षुब्ध
हो जाता है । माया बीज (ह्रीं) में आठ गुना फल होता है,
श्रीबीज (श्रीं) से श्री की प्राप्ति तथा माया बीज से शत्रु
का नाश होता है । भैरव बीज (?) से देवताओं के समान
खेचरता (आकाश गमन) प्राप्त होता है । हे नाथ ! वस्तुतः मैं ही सदा कुमारिका
हूँ और आप सदैव कुमार हैं ॥३० - ३१॥
अष्टोत्तरशतं वापि एकां वा
परिपूजयेत् ।
पूजिताः प्रतिपद्यन्ते निद्र्दहन्त्यवमानिताः
॥३२॥
चाहे १०८ की संख्या में चाहे एक ही
कन्या का पूजन करना चाहिए । ये कन्यायें पूजित होने पर सब प्रकार का फल देती हैं ।
किन्तु अपामानित होने पर जला देती हैं ॥३२॥
कुमारी योगिनी साक्षात् कुमारी
परदेवता ।
असुरा अष्टनागाश्च ये ये
दुष्टाग्रहा अपि ॥३३॥
भूतवेतालगन्धर्वा
डाकिनीयक्षराक्षसाः ।
याश्चान्या देवताः सर्वाः भूर्भुवः
स्वश्च भैरव ॥३४॥
पृथिव्यादीनि सर्वाणि ब्रह्माण्डं
सचराचरम् ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च
ईश्वरश्च सदाशिवः ॥३५॥
ते तुष्टाः सर्वतुष्टाश्च यस्तु
कन्यां प्रपूजयेत् ।
कुमारी साक्षात् योगिनी हैं
। कुमारी साक्षात् पर देवता (महाशाक्ति स्वरुपा) हैं । अतः कुमारी के सन्तुष्ट
होने पर असुर, अष्टनाग, दुष्टग्रह,
भूत, वेताल, गन्धर्व,
डाकिनी, यक्ष, राक्षस
तथा अन्य देवता, किं बहुना, हे भैरव !
समस्त भूः भुवः स्वः रुप त्रिलोकी समस्त पृथिव्यादि तत्त्व, चराचरात्मक
समस्त ब्रह्माण्ड, ब्रह्मा, विष्णु,
रुद्र एवं ईश्वर तथा सदाशिव आदि सभी देवगण
कुमारी पूजन करने वाले साधक पर प्रसन्न हो जाते हैं ॥३३ - ३६॥
निधियुक्तां कुमारीं तु पूजयेच्चैव
भैरव ॥३६॥
पाद्यमर्घ्यं तथा धूपं कुङ्कुमं
चन्दनं शुभम् ।
भक्तिभावेन सम्पूज्य कुमारीभ्यो
निवेदयेत् ॥३७॥
प्रदक्षिणात्रयं कुर्यादादौ मध्ये
तथान्ततः ।
पश्चाच्च दक्षिणा देया
रजतस्वर्णमौक्तिकैः ॥३८॥
हे भैरव ! निधि अर्थात् ९ संख्यक
कुमारी का पूजन करना चाहिए । पाद्य, अर्घ्य,
धूप, कुंकुंम, शुभकारक चन्दन आदि
पदार्थ भक्तिपूर्वक कुमारी को निवेदन करना चाहिए । पूजा के आदि में मध्य में अन्त
में तीन प्रदक्षिणा करे। फिर सुवर्ण, रजत तथा मोती से
संयुक्त दक्षिणा देनी चाहिए ॥३६ - ३८॥
दक्षिणां विधिवद्दत्वा कुमारीभ्यः
क्रमेण तु ।
विवाहयेत् स्वयं कन्यां
ब्रह्महत्यां व्यपोहति ॥३९॥
यावच्च पुण्यकाले तु कन्यादानं
प्रकल्पयेत् ।
भुक्तिमुक्तिफलं तस्य सौभाग्यं
सर्वसम्पदः ॥४०॥
विधि पूर्वक दक्षिणा देने के
बाद क्रमशः कुमारियों का विवाह भी कर देना चाहिए । ऐसा करने से ब्रह्महत्या
के पाप से छूट जाता है । पुण्य काल में जितनी ही कन्या का दान करता है,
उसे भुक्ति- मुक्ति, अन्य फल, सौभाग्य तथा सारी संपत्ति प्राप्त हो जाती है ॥३९ - ४०॥
रुद्रलोके वसेन्नित्यं त्रिनेत्रो
भगवान् हरः ।
तीर्थकोटिसहस्त्राणि अश्वमेधसतानि च
॥४१॥
कन्या दान
करने वाला साधक त्रिनेत्र भगवान् सदाशिव का रुप धारण कर रुद्रलोक में निवास
करता है । करोड़ों सहस्त्र तीर्थ का तथा सैकड़ों अश्वमेध यज्ञ का फल उसे प्राप्त हो
जाता है ॥४१॥
तत्फलं लभते सद्यो यस्तु कन्यां
विवाहयेत् ।
बालुकासागरे ज्ञेया
तावदब्दसहस्त्रकम् ॥४२॥
एकैकं कुलामुद्धृत्य रुद्रलोके
महीयते ।
तत्तदिष्टदेवानां प्रीतये तुष्टये
सुधी ॥४३॥
कन्यादानं समाह्रत्य मुक्तिमाप्नोति
भैरव ।
जो कन्या का विवाह कर देता
है शीघ्र ही उसके फल को साधक प्राप्त करता है । वह बालुका सागर में रहने वाले
जितने बालू की संख्या होती है उतने हजार वर्षों तक एक एक कुल का उद्धार कर रुद्रलोक
में पूजा प्राप्त करता है। हे भैरव ! इसलिए अपने उन उन इष्ट देवताओं की प्रीति के
लिए बुद्धिमान् साधक कन्यादान कर मुक्ति प्राप्त करे ॥४२ - ४४॥
तत्तद्वर्षीयकन्यायास्तत्तद्बुद्धया
च साधकः ॥४४॥
विभाव्य शिवरुपत्वं सम्प्रदानीयकारक
।
पूर्णरुपं शिवं ध्यात्वा वरं
सर्वाङसुन्दरम् ॥४५॥
तेजोमयं यशःकान्तं बालभैरवरुपिणम् ।
बटुकोश महादेवं वरयेत् साधकाग्रणीः
॥४६॥
श्रेष्ठ साधक उन उन वर्ण वाली
कन्याओं में उन उन देवताओं की बुद्धि कर (द्र०. ५ , ९६ - १००) एवं दिये जाने वाले वर में शिव की बुद्धि कर तथा पूर्ण
रूप से शिव का ध्यान कर कन्यादान करे अथवा सर्वांग सुन्दर, तेजोमय,
यश, कान्त बाल भैरव रूप, बटुकेश महादेव का वर रुप में वरण करे ॥४४ - ४६॥
बालरुपां भैरवीं च
त्रैलोक्यसुन्दरीं वराम् ।
नानालङ्कारनम्राङीं
भद्रविद्याप्रकाशिनीम् ॥४७॥
चारुहस्यां महानन्दह्रदयां शुभदां
शुभाम् ।
ध्याता द्वादशपत्राब्जे
पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ॥४८॥
सम्प्रदाने समानीय तत्तन्मन्त्रेण
दापयेत् ।
त्रैलोक्यसुन्दरी,
नानालङ्कार से विभूषित, नम्राङ्गी श्रेष्ठ
महाविद्या का प्रकाश देने वाली, मन्द मन्द हास्य करने वाली,
महानन्द से परिपूर्ण ह्रदय वाली, कल्याणकारिणी,
मङ्गल स्वरुपा, पूर्ण चन्द्रानना कन्या में
बालरुपा (त्रिपुर) भैरवी का द्वादश पत्र कमल में ध्यान कर दान करने के लिए
लावे और उन उन मन्त्रों से उनका दान भी करे ॥४७ - ४९॥
एतत् श्रुत्वा महावीरो बाल(बल)रुपी
निरञ्जनः ॥४९॥
पुनर्जिज्ञासयामास परमानन्दभैरवीम्
।
इस बात को सुन कर महावीर तथा
मायारहित बालारूपी भैरव ने परमानन्द स्वरूपा महाभैरवी से पुनः जिज्ञासा की ॥४० -
५०॥
आनन्दभैरव उवाच
कुमारीकुलातत्त्वार्थं मन्त्रार्थं
जपनक्रमम् ॥५०॥
यजनादिप्रकारञ्च भोजनादिक्रमं तथा ।
होमदिप्रकियां तस्याः स्तोत्रं
प्रत्येकमेव हि ॥५१॥
कवचं च कुमारीणां वदस्व क्रमशः
प्रिये ।
येन क्रमेण सा विद्या कुमारी
परदेवता ॥५२॥
निर्जने साधकस्याग्रे महावाक्यं
स्वयं वदेत् ।
बालिका चारुनयना केन होतोः प्रसीदति
॥५३॥
तत्प्रकारं वद
स्नेहादानन्दभैरवप्रिये ।
आनन्दभैरव ने कहा --- हे महाभैरवी !
हे प्रिये ! कुमारी कुलतत्त्व के ज्ञान के लिए मन्त्रार्थ,
जपक्रम, यजनादि के प्रकार, भोजनादि का क्रम, होमादि की प्रक्रिया, प्रत्येक का स्तोत्र तथा कुमारी कवच क्रमशः हमें बताइए । जिस क्रम से
कुमारी परदेवता महाविद्या निर्जन स्थान में साधक के आगे स्वयं प्रगट हो कर स्वयं
महावाक्य का प्रतिपादन करें वह बलिका चारुनयना किस प्रकार और किस कारण से प्रसन्न
होती हैं ? हे आनन्दभैरवी ! उस प्रकार को आप कहिए ॥५० - ५४॥
आनन्दभैरवी उवाच
श्रृणु शम्भो प्रवक्ष्यामि कुमारी
कुलमन्त्रकान् ॥५४॥
येन विज्ञानमात्रेण धरणीशो नरोत्तमः
।
सर्वेषा गुरुरुपः स्यात्
कुमारीयजनेन च ॥५५॥
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे शम्भो !
अब कुमारी कुल के मन्त्रों को कहती हूँ उन्हें सुनिए । जिसके जानने मात्र
से उत्तम साधक धरणी पति हो जाता है । कुमारी यजन के प्रभाव से साधक गुरु रुप में
प्रतिष्ठित हो जाता है ॥५४ - ५५॥
एकवर्षा वरा सन्ध्यादिकानां
मनुमुत्तमम् ।
षोडशाच्छान्तरुपाणां मन्त्र श्रॄणु
महाप्रभो ॥५६॥
एक वर्षा वरा सन्ध्यादि नाम वाली
कुमारियों से प्रारम्भ कर (१६ वर्ष वाली अम्बिका) स्वरुप कन्याओं के महामन्त्रों
को और क्रमपूर्वक सभी के मन्त्रों के चैतन्य सिद्धि की सत्क्रिया को भी हे
महाप्रभो ! श्रवण कीजिए ॥५६॥
क्रमादिकञ्च सर्वेषां
चैतन्यसिद्धिसत्क्रियाम् ।
आनीय सुन्दरीं नारीं कुमारीं वरनायिकाम्
॥५७॥
रत्नालङ्कारसंयुक्ता
शङ्कवस्त्रादिशोभिताम् ।
वाग्भवेन जलं नाथ तन्नाम्ना
परिदापयेत् ॥५८॥
श्रेष्ठ सुन्दरी नारी कुलोत्पन्न
रत्नालङ्कार संयुक्त चूडी़ और वस्त्रादि से सुशोभित कन्या को लाकर वाग्भव (ऐं) बीज
के सहित तत्तन्नाम से, हे नाथ ! जल प्रदान
करे ॥५७ - ५८॥
देवीबुद्ध्या सदा ध्यात्वा पूजयेत्
साधकोत्तमः ।
मायाबीजेन तन्नाम्ना पाद्यं दद्यात्
तथा प्रभो ॥५९॥
लक्ष्मीबीजेन चार्घ्यं तु कुर्याद्
बीजेन चन्दनम् ।
मायाबीजेन पुष्पाणि कुमार्यैं
दापयेत् सुधीः ॥६०॥
उत्तम साधक उन उन कन्याओं में उन उन
देवियों की भावना करते हुये पूजन करे । जल प्रदान करने के बाद मायाबीज ’ह्रीं सन्ध्यायै नमः अर्घ्य समर्पयामि’
इस मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करे । पुनः माया बीज ’ह्रीं सन्ध्यायै नमः पुष्पाणि समर्पयामि’ इस
मन्त्र से कुमारी को पुष्प समर्पित करे ॥५९ - ६०॥
सदाशिवेन मन्त्रेण धूपदीपौ महोत्तमौ
।
दत्त्वा षड्डुमन्त्रेण पूजयेद
देवनायकः ॥६१॥
तत्प्रकारं महादेव
श्रृणुष्वानन्दरुपधृक ।
महातेजोमयं शुभ्रं ह्रदयं
हस्तदक्षिणैः ॥६२॥
विभाव्य प्रपठेद् धीमान्
तन्मन्त्रं श्रृणु शङ्कर ।
आदौ वाग्मभवमुच्चार्य मायां
लक्ष्मीं तु कूर्चकम् ॥६३॥
तदनन्तर सदाशिव के मन्त्र (ॐ
नमः शिवाय) से उत्तम धूप दीप प्रदान कर षडङ्गमन्त्र से इस प्रकार न्यास करे ।
षडङ्गन्यास
--- हे आनन्द रुप वाले ! हे महादेव ! उस षडङ्गन्यास के प्रकार को सुनिए । महातेजोमय
शुभ्र स्वरुप का ध्यान कर हृदय पर दाहिना हाथ रखकर धीमान् साधक को मन्त्र पढना
चाहिए । हे शङ्कर ! अब उस मन्त्र को सुनिए । सर्वप्रथम वाग्भव (ऐं) उच्चारण कर
माया (ह्रीं) लक्ष्मी बीज (श्रीं) कूर्च (हूं) का उच्चारण करे ॥६१ - ६३॥
प्रेतबीजं ततो ब्रूयात्
सविसर्गेन्दुबिन्दुकम् ।
कुलशब्दं समुच्चार्य कुमारिके ततो
वदेत् ॥६४॥
ह्रदयायः नमः प्रोच्य ततः शिरसि
भावयेत् ।
शुक्लवर्णं सर्वमयं बीजमुच्चार्य
संन्यसेत् ॥६५॥
हकारं वाग्भवाढ्यञ्च वकारं
वाग्भवार्थकम् ।
मायां लक्ष्मीं वाग्भवं च
द्विठान्ते शिरसे पदम् ॥६६॥
वहिनजायावधिर्मन्त्रो न्यसेत् साधकः
।
फिर विसर्ग और विन्दु से युक्त
प्रेत बीज (हंसोः) का उच्चारण कर ’कुल
कुमारिके’ पद का उच्चारण करे ।
तदनन्तर ’हृदयाय नमः’ कहकर हृदय
का स्पर्श करे । मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ’ऐं
ह्रीं श्रीं हूँ हंसोः कुलकुमारिके हृदयाय नमः’ । इसके बाद शिरः स्थान में शुक्ल वर्ण सर्वमय बीज (ॐ) का ध्यान करे ।
वाग्भव से युक्त हकार, वाग्भव से युक्त वकार, फिर माया (ह्रीं), फिर लक्ष्मी (श्रीं), फिर वाग्भव (ऐं), फिर दो ठ अर्थात् वह्निजाया
(स्वाहा) इतना उच्चारण कर शिरः प्रदेश में दाहिने हाथ से स्पर्श कर न्यास करे ॥६४
- ६७॥
शिखामध्ये कृष्णवर्णं
नीलाञ्चनचयप्रभम् ॥६७॥
विभाव्य संन्यसेन्मन्त्री
कुमारीकुलासिद्धये ।
आदौ प्रणवमुद्धृत्व तदन्ते
वहिनसुन्दरी ॥६८॥
शिखायै च समुद्धृत्य वषट्कारं ततो
वदेत् ।
तदनन्तर शिखा में काले अञ्जन के
समूह के समान काले वर्ण का ध्यान कर ’कुमारी
कुल’ की सिद्धि के लिए
मन्त्र साधक इस मन्त्र से न्यास करे । प्रथम प्रणव (ॐ) का उच्चारण करे । उसके बाद
वह्नि सुन्दरी (स्वाहा) का उच्चारण करे । फिर ’शिखायै
वषट् ’ का उच्चारण कर शिखा स्थान में न्यास करे ॥६७ -
६९॥
विमर्श --- यथा --- ॐ स्वाहा शिखायै
वषट्।
ततः कवचमध्ये च बलवन्तं सुतेजसम्
॥६९॥
प्रथमारुणसङ्काशं ध्यात्वा
चारुकलेवरम् ।
वाग्भवञ्च समुच्चार्य कुलशब्दं ततो
वदेत् ॥७०॥
वागीश्वरीपदं पश्चात् कवचाय ततो
वदेत् ।
तारकब्रह्मशब्दञ्च कवचन्यासजालकम्
॥७१॥
इसके बाद कवच के मध्य में (दोनों
बाहु) में महाबलवान् अत्यन्त तेजस्वी, सुन्दर,
सूर्योदय से प्रथम होने वाले अरूण के समान लाल वर्ण का ध्यान कर
वाग्भव (ऐं) का उच्चारण कर, फिर ’कुल’
शब्द, फिर ’वागीश्वरि’
पद, फिर ’कवचाय’ पद, तदनन्तर तारक ब्रह्मा (हुं) का उच्चारण कर दोनों
बाहु में न्यास करें। यहाँ तक कवचन्यास के अक्षर समूह को कहा गया ॥६९ - ७१॥
विमर्श --- यथा --- ऐं कुल
वागीश्वरि कवचाय हुँ ।
ततो नेत्रत्रयं ध्यात्वा महाबीजं
महाप्रभम् ।
रक्तवर्ण कोटिकोटिवामण्डल मण्डितम्
॥७२॥
विराजितं कोटिपुण्यार्जिततेजसि
भास्करे ।
वाग्भवं च समुच्चार्य कुलेश्वरैपदं
ततः ॥७३॥
नेत्रत्रयाय शब्दान्ते वौषट्
लोचनमन्त्रकम् ।
इसके बाद नेत्रत्रय में महाप्रभा
वाले रक्त वर्ण के करोड़ों जवा मण्डल मण्डित महाबीज का जो करोड़ों सूर्य में विराजित
है उसका ध्यान कर वाग्भव (ऐं) का उच्चारण कर फिर ’कुलेश्वरि’ पद फिर नेत्रत्रयाय वौषट्’ का उच्चारण कर नेत्रत्रय का न्यास करे ॥७२ - ७४॥
विमर्श --- यथा --- ऐं कुलेश्वरि
नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ततः साधकमन्त्री च वामहस्ततले तथा
॥७४॥
मध्यमातर्जनीभ्यां च
तालद्वयमुपाचरेत् ।
तन्मन्त्रं
कोटिसूर्योग्रज्योत्स्नाजालप्रभम् ॥७५॥
महाकाशोद्भवं शब्दं
महोग्रपरिपीडनम् ।
मायाबीज तथास्ताय पदमुद्धृत्य
यत्नतः ॥७६॥
फिर मन्त्रज्ञ साधक बायें हाथ पर
दाहिने हाथ की मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों से करोड़ों सूर्य की किरण समूहों के समान
प्रभा वाले महाकाश में उत्पन्न महानग्र शब्द का ध्यान क्रा प्रथम माया बीज (ह्रीं)
फिर ’अस्त्राय’ पद फिर पान्त ठान्त वर्ण (फट्) महामन्त्र
उच्चारण कर दो ताली देवे ॥७४ - ७६॥
विमर्श --- यथा --- ह्रीं
अस्त्राय फट् ।
पान्तठान्तं समुद्धृत्य महामन्त्रं
प्रकीर्तितम् ।
ततस्तस्या ह्रन्निलये ध्यात्वा च
परिवारकान् ॥७७॥
पूजयेद् यत्नतो मन्त्री
भेषजामृतधारया ।
तर्पयेत् पूजयेद् भक्त्या भैरवं
बालभैरवम् ॥७८॥
इसके बाद कुमारी के ह्रदयाकाश में
परिवार का ध्यान कर मन्त्रज्ञ यत्नपूर्वक ध्यान कर भेषजरुप अमृत धारा से उनका पूजन
करे । तदनन्तर बटुक भैरव का पूजन कर उनका तर्पण करे ॥७७ - ७८॥
देवताभिः पूजयित्वा परिवारान्
क्रमेण वै ।
ततो वाग्भमुच्चार्य सिद्धजयाय
शब्दतः ॥७९॥
पूर्वं पदं समुच्चार्य वक्त्राय नम
ईरितः ।
ततो वाग्भवमुच्चार्य जयाय
शब्दमुद्धरेत् ॥८०॥
उत्तरवक्त्रमुद्धृत्य चतुर्थ्यन्तं
नमःपदम् ।
क्रमशः देवताओं के साथ परिवार का
पूजन कर,
तदनन्तर वाग्भव (ऐं), फिर सिद्धजयाय ’ पद, फिर ’ पूर्व ’ पद, फिर ’ वक्त्राय नमः ’
से पूर्व मुख, इसके बाद वाग्भव ( ऐं ) उच्चारण
कर ’ जयाय ’ शब्द, फिर चतुर्थ्यन्त उत्तरवक्त्र ( उत्तरवक्त्राय ), फिर
नमः पद का उच्चारण कर उत्तर मुख का पूजन करे ॥७९ - ८१॥
विमर्श --- पूर्वमुख के लिए
मन्त्र है - ऐं सिद्धजायाय पूर्ववक्त्राय नमः ’ ।
उत्तरमुख के लिए मन्त्र
है - ’
ऐं जयाय उत्तरवक्त्राय नमः ’ ।
ततो वाग्भवमाया श्री बीजमुच्चार्य
यत्नतः ॥८१॥
कुब्जिके पश्चिमान्ते च वक्त्राय नम
इत्यपि ।
ततो वाग्भमुचार्य कालिके
पदमुच्चरेत् ॥८२॥
फिर वाग्भव ( ऐं ),
माया ( ह्रीं) और श्रीबीज ( श्रीं ) का यत्नपूर्वक उच्चारण करे ।
कुब्जिके पश्चिम - वक्त्राय नमः’ से पश्चिम वक्त्र पूजन करे
। तदनन्तर बाग्भव ( ऐं ) का उच्चारण कर ’ कालिके ’ पद का उच्चारण कर ’ दक्षवक्त्राय ’ शब्द के अन्त में ’ नमः ’ शब्द
का उचारण करे ॥८१ - ८२॥
विमर्श --- पश्चिममुख के लिए
मन्त्र है -’ ऐं हीं श्रीं
कुब्जिके पश्चिमवक्त्राय नमः ’ ।
दक्षिणमुख के लिए मन्त्र
है - ऐं कालिके दक्षवक्त्राय नमः ’ ।
दक्षवक्त्राय शब्दान्ते नामामन्त्रं
प्रकीर्तितम् ।
एतन्मन्त्राक्षरं नाथ समुच्चार्य
कुलेश्वर ॥८३॥
पूजयित्वा क्रमेणैव भास्करं
परिपूजयेत् ।
चन्द्रं दिक्पालदेवञ्च सन्ध्यादीन्
परिपूजयेत् ॥८४॥
हे नाथ ! यहाँ तक हमने कुमारी
मन्त्रों को कहा । हे कुलेश्वर ! इन मन्त्राक्षरों का उच्चारण कर उन उन मुखों का
पूजन करे । फिर भास्कर, चन्द्रमा, दिक्पाल एवं सन्ध्यादि का पूजन करे ॥८३ - ८४॥
वीरभद्राम महाकालीं कौलिनीं
कुलगामिनीम् ।
अष्टादशभुजां कालीं चतुर्वर्गा
प्रपूजयेत् ॥८५॥
फिर वीरभद्रा,
महाकाली, कुल में गमन करने वाली कौलिनी,
अष्टादशभुजा काली तथा चतुर्वर्गा देवी का पूजन करे ॥८५॥
नैवेद्यादीन् समानीय
नानाभोज्यादिसंयुतम् ।
दुग्धं घनावृतं क्षीर पक्वान्नं पक्वसत्फलम्
॥८६॥
यद्यत्कालोपयोग्यञ्च
शर्करामधुमिश्रितम् ।
पञ्चतत्त्वं कुलद्रव्यं
निजकल्याणवर्धनम् ॥८७॥
नानाद्रव्यञ्च नैवेद्यं
स्वस्वकल्पोक्तसाधितम् ।
कुमारीभ्यो निवेधैवं
नानासौरभशोभितम् ॥८८॥
अनेक प्रकार के भोज्यान्न से युक्त
नैवेद्य आदि जैसे दूध, दही, पक्वान्न, पके हुये उत्तमोत्तम फल, तत्तत्कालों में उपयोग योग्य फल, शर्करा, मधुमिश्रित पञ्चतत्त्व (पञ्चामृत), अपना कल्याण
बढा़ने वाला कुलद्रव्य और अनेक प्रकार के नानाविध नैवेद्य निवेदित करे । फिर अनेक
प्रकार के सुगन्ध से मिश्रित शीतल जल लाकर बुद्धिमान् साधक उन कन्याओं को प्रदान
करे ॥८६ - ८८॥
शीतलं जलमानीय दद्यात्ताभ्यो
महासुधीः ।
ततो हितं महामन्त्रं
कुमार्याश्चातिदुर्लभम् ॥८९॥
अथवा स्वीयमूलञ्च जप्त्वा
सिद्धीश्वरो भवेत् ।
समर्थप्राणवायूनां धारयेत्कारयेत्
स्वयम् ॥९०॥
अष्टाङादिप्रणाम च कुर्वन् स्तोत्रं
पठन् दिशेत् ॥९१॥
इसके बाद अपना हित करने वाला
अत्यन्त दुर्लभ कुमारी का महामन्त्र अथवा अपने इष्टदेवता का मन्त्र जपने से
साधक सभी सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । यदि प्राण वायु के धारण करने में
समर्थ हो तो प्राणायाम करे । अन्त में निम्नलिखित कुमारी स्तोत्र का पाठ कर
साष्टाङ्ग प्रणाम करे ॥८९ - ९१॥
रुद्रयामल सातवां पटल कुमारी स्तोत्र
नमामि कुलकामिनीं
परमभाग्यसन्दायिनीम् ।
कुमाररतिचातुरीं
सकलसिद्धिमानन्दिनीम् ॥९२॥
परम भाग्य को देने वाली कुल कामिनी
को नमस्कार करता हूँ । कुमार साधकों के लिए आनन्द प्रदान करने वाली,
समस्त सिद्धियों को देने वाली, आनन्द
स्वरुपिणी कुमारी को नमस्कार करता हूँ ॥९२॥
प्रवलगुटिकामृजां
रजतरागवस्त्रन्विताम् ।
हिरण्यकुलभूषणां भुवनवाक्यकुमारी
भजे ॥९३॥
ध्यान
- मूँगा की गुटिका के समान अत्यन्त स्वच्छ स्वरूप वाली स्वर्णमय परिधान से अलंकृत
हीरे का आभूषण धारण करने वाली भुवनेश्वरी स्वरुपा कुमारी की मैं सेवा करता
हूँ ॥९३॥
इति मन्त्रेण संन्यस्य तारिणीं
परिपूजयेत् ।
शिवं गणेशं सम्पूज्य प्रणमेत्
साधकोत्तमः ॥९४॥
इस मन्त्र से न्यास कर तारिणी
स्वरुपा कुमारी का पूजन करे । फिर साधकोत्तम शिव गणेश का पूजन कर उन्हें भी
प्रणाम करे ॥९४॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरमतन्त्रे
महान्त्रोद्दीपने कुमार्युपचर्याविन्यासे सिद्धमन्त्रप्रकरणे दिव्यभावनिर्णये
सप्तम पटलः ॥७॥
॥ इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र
में महातंत्रोद्दीपन में कुमारी पुजाविन्यास वाले सिद्धमन्त्र प्रकरण में दिव्य भाव
के निर्णय में सातवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥
७ ॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र अष्टम पटल
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