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कर्मकाण्ड

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ककारादिकालीसहस्रनामावली

ककारादिकालीसहस्रनामावली

इससे पूर्व आपने ककारादिकालीसहस्रनामस्तोत्रम् का मूल पाठ को पढ़ा। अब यहाँ इसके केवल हिंदी भावार्थ को व केवल ककारादिकालीसहस्रनामावली दिया जा रहा है। पाठकों से अनुरोध कि- इसे न मनोरंजन की दृष्टि से देखें न ही प्रयोग करें क्योंकि इसमें काली माता के गूढ़ रहस्य दिया गया है जिसमें की पञ्चमकार साधना प्रणाली निहित है जिसे की उच्चकोटि के साधक जिन्होंने की भैरवी सिद्ध कर रखी हैं, के द्वारा संभव है सामान्य साधकों के लिए नही। सामान्य साधक काली माता की सात्विक साधना ही संपन्न करें।

ककारादिकालीसहस्रनामावली

ककारादिकालीसहस्त्रनामस्तोत्रम् हिंदी भावार्थ व सहस्रनामावली

ध्यान-शवारूढ़, महाभीम, घोरदंष्ट्रावाली, हँसते हुए मुखवाली, चार भुजाओंवाली (और चारों) हाथों में खड्ग, मुण्ड, वर और अभयमुद्रा धारण करनेवाली। मुण्डमाला धारण करनेवाली, लपलपाती जीभवाली, दिगम्बर, श्मशानालयवासिनी इस प्रकार (के स्वरूपोंवाली) शिवादेवी काली का चिन्तन करना चाहिए ॥ १-२॥

 अनकानेक देवगणों से युक्त, वृक्षलता और पुष्पों से सुशोभित, अति सुन्दर कैलाश नाम का पर्वत है। वहीं पर चारों ओर से घिरे हुए श्रृंगारमण्डप के बीच में समाधि में संलग्न शान्त, आत्माराम और योगिनियों से सेवित मुनि का रूप धारण किये हुए भगवान शंकरजी से पार्वती ने प्रश्न किया अर्थात् पूछा । पार्वती ने कहा-हे देवाधिदेव!आप किसका जप करते हैं और किसे स्मरण करते हैं। यह सम्पूर्ण संसार किसमें लीन होता है और इस सृष्टि की उत्पत्ति किस प्रकार से होती है? इस ब्रह्माण्डरूपी कार्य का सबसे आद्य एवं महान् कारण क्या है? ॥१-४॥

मनारथमयी, वांछामयी, कल्पनामयी, कोटिसिद्धि, ईश्वरत्वसिद्धि, अट्ठारह प्रकार शक्तिसंपात, चराचर जगत् में अव्याहतगति। महेन्द्रजाल, महेन्द्रजाल, इन्द्रजालादि का निर्माण ॥ ५-६॥

अणिमा आदि आठ सिद्धियाँ, परकाया प्रवेश, नवीन सृष्टि की रचना करने की सामर्थ्य, समुद्र शोषण । अमावास्या और दिन के समय चन्द्रमा का दर्शन तथा आठों दिशाओं में प्रत्येक दिशा में चन्द्रदर्शन एवं सूर्यदर्शन, जल में जलमयत्व, अग्नि में अग्निमयत्व, ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रादि देवताओं के निर्माण की क्षमता ॥ ७-९॥

जिससे पाताल की सभी वस्तुएँ दिखाई पड़ती हैं, ऐसी पाताल-गुटिका । यक्ष और बैताल के तुल्य अदृश्य और प्रकट होना। रसायनसिद्धि और सभी जगह गोपनीय हो जाना तथा सम्पूर्ण संसार की वस्तुओं को प्रत्यक्ष कर देनेवाला अञ्जन । इस प्रकार हे शिव! महा मधुमती एवं पद्मावती सिद्धि, भोगवती आदि सिद्धियों की प्राप्ति इस पाप से युक्त कलियुग में और दीर्घायु की प्राप्ति किस प्रकार से होती है॥१०-१२॥

शिव ने कहा-हे प्रिये! मंत्र, जप के बिना, स्तोत्र पाठ के बिना,तपस्या के बिना, बलि, अङ्गन्यास और भूतशुद्धि के बिना । ध्यान, यंत्र और पूजा के बिना, मानसिक क्लेश के बिना एवं शरीर के दुःख के बिना॥१३-१४॥

मनुष्यों को जिस प्रकार सिद्धि प्राप्त होती है, वह उपाय मैं तुम्हें बता रहा हूँ। पचास हजार योजन की वसुन्धरा से युक्त इस ब्रह्माण्डगोलक का ज़ब प्रलय हो जाता है और पाँचों तत्त्वों से सृष्टि (पूर्णरूप) से शुन्य हो जाती है । उस समय तारा नाम से प्रसिद्ध महाकाली ही शेष रह जाती है। हे देवि! उस समय अनंतकोटि ब्रह्माण्डों की रचना करनेवाले ब्रह्मादि भी तुम्हारे दाँत के ग्रास बन जाते हैं तथा महाप्रलय का भार उन्हीं पर स्थापित कर भगवती महाकाली उस शून्य में अपना काला वर्ण बनाकर वाणी से अतीत परा कला के रूप में खेलती हैं ॥१५-१७॥

फिर सष्टि के आरम्भकाल में उसी भगवती (काली) से छाया के रूप में इच्छाशक्ति का निर्माण होता है, जिससे महाकाल की उत्पत्ति होती है। उस समय वह इच्छाशक्ति स्वयं ज्ञानरूप में परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार की विशिष्टताओं से युक्त विज्ञान की उत्पत्ति होती है, फिर स्वयं महेश्वरी अपनी इच्छा से क्रियारूप में परिवर्तित हो गई। इस प्रकार हे देवि! इस संसार में उसी क्रिया ने फिर से समस्त स्थानों में उन-उन देवताओं का स्थापित किया। (इस) ब्रह्माण्ड में समता के रूप में रहनेवाली उस देवी की इसी क्रिया को इच्छा कहते हैं। हे पार्वति! इसे भलीभाँति जानो ॥१८-२२॥

परब्रह्मस्वरूप वह परमात्मा शिव ही भगवती (काली) की इच्छा के रूप में रहने के कारण निर्गुण, शान्त और सच्चिदानंद के विग्रहरूप में अवतरित हुए । उस शाश्वत, सुन्दर, स्वच्छ, सर्वदेवयुक्त, आदिनाथ, निर्गुण, शिव को काली में विपरीत, रति से आसक्त देखकर देवताओं, गन्धर्वो और अप्सराओं का समूह पूजा करने के लिए वहाঁ (स्वयं) आया ॥ २३-२५॥

यक्षिणी, किन्नरी, उर्वशी और तिलोत्तमा आदि को वहाँ उपस्थित देखकर शिवप्राणवल्लभा महाकाली ने महाकाल अर्थात् शिवजी से कहा। त्रैलोक्यसुंदरी, प्राणस्वामिनी, प्राणरञ्जिनी महाकाली ने उन सभी अप्सराओं को वहां उपस्थित देखकर उनके आने का कारण उन सभी से पूछा । उन अप्सराओं ने कहा-हमारे भाग्यरुपी सागर का आज उदय हुआ है, ऐसा कहकर उन अप्सराओं ने मौन होकर शिव की पूजा की।  अप्सराओं ने कहा-हे संसार का प्रिय करनेवाले भगवान शंकर! आप इस संसार के निर्माण करने में संलग्न दिखाई पड़ रहे हैं । इसलिए हे देव! सृष्टि के आरम्भ रूप कार्य के शुभ के लिए हम लोगों को गाने की आज्ञा प्रदान करें, क्योंकि हम वेश्याओं के लिए यही उपयुक्त  है । हे शिवशंकर! जैसे कि यात्रा और उत्सव कार्य में गाना शुभ होता है, उसी प्रकार से त्रिगुणात्मक सृष्टि के आरम्भ होने के कारण शुभ गायन करना आवश्यक है।। २६-३०॥

इस सृष्टि रूप कार्य के लिए विपरीत रति में लगे हुए आपके दर्शन के लिए आप दोनों से ही उत्पन्न हुई करोड़ों इन्द्राणी, ब्रह्माणी और वैष्णवी शक्तियाँ (यहाँ) उपस्थित हुई है। हे सौख्यसागर! वे समस्त शक्तियाँ लज्जायुक्त होकर आपके सम्मुख खड़ी हैं। हे महेश्वर! स्त्रियों को रति से बढकर और कोई अन्य सुख नहीं है, इसीलिए वह सुख को प्रदान करनेवाला रति हम लोग आनन्द से यहाँ देख रहे हैं । ३१-३३॥

हमलोग भी सृष्टि के लिए अपने पतियों से इसी प्रकार की रति (क्रिया) करना चाहते हैं। अप्सराओं की इस प्रकार की बात को श्रवण कर ध्यान में स्थित महादेव ने अपने ध्यान का परित्याग कर दिया और महाकाली से बोले-हे कालि! हे महाकालि! हे रुण्डमाले! हे भैरवी! हे शिवारूपधारिणी! हे क्रूरे! हे भयानक दाँतों से युक्त भगवति! (इस संसार की) अनेक तीनों लोकों की सुन्दरियाँ, कामिनियाँ हमारे सम्मुख हैं ।। ३४-३६॥

हे कालि, हे प्रिये, हे शिवे! इन सुन्दरियों को तुम देखो । अपने ध्यान का परित्याग कर दो, देखो, ये सभी सन्दरियाँ अपने-अपने गृहों को जा रही हैं । हे महाकाली! तुम्हारा रूप तो मात्र महाकाल को ही मनोहर (सुन्दर) दिखाई पड़ता है। किन्तु ये (सभी) अप्सरायें तीनो लोकों को भी मोहित कर लेती हैं। जब माया के वशीभूत उस महाकाल अर्थात् शिव ने महाकाली से इस प्रकार कहा, तब काली ने महाकाल अर्थात् शिवजी से यह कहा ॥ ३७-३९॥

स्त्री का रूप धारण करनेवाली महाकाली ने माया द्वारा अपने को मोहित कर लिया और वे महादेव से (यह) बोली । आज से प्रत्येक युग (चारों युग) में हर योनियों में स्त्रियाँ पैदा होंगी। लता औषधियाँ आदि दिन में लता और औषधि के रूप में दिखाई पड़ेंगी। किन्तु रात्रि के समय ये सभी स्त्रीरूप धारण कर आपस में रतिक्रीड़ा करेंगी ॥ ४०-४१॥

इन्हें प्रत्येक युग में अज्ञान होगा, ऐसा शाप देकर कालिका फिर बोली। जो लोग विपरीत रति में आसक्त होकर मेरा ध्यान एवं भजन करेंगे। मैं उन्हें वर प्रदत्त करुँगी और उनके यहाँ निवास करूँगी । ऐसा कहकर वह छत्तीस खरब छियानबे अरब करोड़ों संख्यावाली कालीरूपी महाविद्या वहीं अदृश्य हो गई ॥ ४२-४४॥

तब शिवजी ने कहा, हा प्राणप्रिये, हा शिवे! तुम कहाँ चली गई? ऐसा अनेकानेक बार विलाप करते हुए तप करने लगे। अब मैं क्या करूँ, अब मैं कहाँ जाऊँ ? इस प्रकार भ्रम में पड़े हुए शिवजी को देखकर उस महाकाली के हृदय में दयाभाव आ गया कि शिवजी हमारे बिना व्याकुल हो रहे हैं । तब काली ने यंत्र में अपने छिपे रहने की बुद्धि विस्तार से शिवजी को बताई। उसी समय से श्रीचक्ररूपी यंत्रयाग में विन्दु के द्वारा महाकाली का दर्शन होने लगा ॥ ४५-४७॥

श्रीचक्ररूपी यंत्र के प्रस्तार की रचना का अभ्यास करनेवाले शिव ने चक्र के बीच में अवस्थित इधर से उधर भ्रमण करते हए त्रिलोकी का दर्शन किया। फिर चक्र के परे भगवती के दर्शन के लिए करोड़ों व अरबों वर्ष व्यतीत हो गए। किन्तु शिवजी को भगवती के दर्शन प्राप्त नहीं हुआ। इसके पश्चात् ही चक्र के परे विन्दु में भक्तप्राणप्रिया श्रीचक्र की नायिका भगवती का जाग्रत दिव्य मनोहररूप दिखाई पड़ा। श्रीचक्र के विन्दु में त्रिपुरसुन्दरी भगवती के उस (दिव्य) रूप को देखकर महादेव अर्थात् शिव ने राजराजेश्वर का रूप धारण कर लिया, उस समय भगवती के कटाक्षमात्र देखने से ही शिवजी त्रिपुरसुन्दरी के रूप में परिवर्तित हो गए ।। ४८-५१।।

शिवजी को त्रिपुरसुन्दरी के रूप में (परिवर्तित) देखकर महाकाली महेश्वरी श्रृङ्गार से शून्य हो गई और सम्पूर्ण स्थावर-जंगमात्मक संसार काली के अंश से रहित हो गया। महेश्वरी महाकाली के श्रृङ्गार शून्य हो जाने के कारण त्रिलोकी की शक्ति समाप्त हो गई। उसमें कोई श्रृङ्गार-सज्जा भी न रह गई। उस समय त्रिपुरसुन्दरी ने महाकाली की प्रार्थना की, जिससे प्रसन्न होकर महाकालिका ने त्रिपुरसुन्दरी से कहा। हे देवेशि! हे प्रिये! समस्त प्राणियों के पूर्वावस्था में नेत्र और केशों पर मेरा अंश बना रहेगा । उस पूर्वावस्था में युवाअवस्था में, मेरा अंश स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेगा । युवाअवस्था के चले जाने के पश्चात् मेरे अंश का लोप हो जाएगा, किन्तु मेरे भक्तों पर मेरी छाया सदैव निश्चित रूप से बनी रहेगी ॥ ५२-५५॥

फिर भी त्रिपुरसुन्दरी की शक्ति क्षीण हो गई और रूप भी सुन्दर न हुआ। इसलिए वह दुःखित हो चिन्ताग्रस्त हो गई। फिर क्षणभर अवस्थित रहकर वह महाकाली का ध्यान करने लगी। क्षणभर में ही महेश्वरी महाकाली प्रसन्न हो गई और त्रिपुरसुन्दरी से बोलीं-हे त्रिपुरसुन्दरि! (मुझसे) वर माँगो, (मुझसे) वर माँगो। त्रिपुरसुन्दरी बोलीं-हे महेश्वरि! मुझे जो वरदान चाहिए, वही वर मुझे दो। मुझे सिद्धि प्रदान करो और उस उपाय को भी बताओ, जिससे मुझमें शक्ति आ जावे॥ ५६-५८ ॥

 तब महाकाली बोलीं-मेरे द्वारा पहले से ही बनाया हुआ मेरा सहस्त्रनाम है । उसमें ककाररूप से मेरा स्वरूप विद्यमान है । जो महासाम्राज्य को प्रदत्त करनेवाला है । उस सहस्रनाम का दूसरा नाम 'वरदान' ही है । जो क्षणमात्र में सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करता है। हे महामाये! मेरे उस सहस्रनाम का पाठ करो। तुम्हें (नि:संदेह)शक्ति प्राप्त होगी। तभी से श्रीविद्या त्रिपुरसुन्दरी उस महाकाली के सहस्रनाम का पाठ करती है (करने लगी)। यह वही काली सहस्र नाम है, जो त्रिपुरसुन्दरी को भी शक्ति प्रदान करनेवाला है। उस काली सहस्रनाम को हे पार्वती! मैं तुमसे कह रहा हूँ,तुम एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो ॥ ५९-६२॥

इस सर्वसाम्राज्यमेधादायक कालीसहस्रनाम के (स्वयं) महाकाल ऋषि हैं, उष्णिक् छन्द हैं, दक्षिणमहाकाली देवता हैं, ह्रीं बीज हैं, हूं शक्ति हैं और क्रीं कीलक हैं । कालिका के वरदान से इष्टसिद्धि के लिए विनियोग है। फिर कीलक द्वारा षडङ्गन्यास, करन्यास और पूर्व की भाँति महाकाली का ध्यान कर अपने मनोरथ सिद्धि के लिए कालीसहस्रनाम का पाठ करें ॥ ६३-६५॥

श्रीककारादिकालीसहस्रनामावली

ॐ अस्य श्रीसर्वसाम्राज्यमेधाकालीस्वरूप-ककारात्मकसहस्रनामस्तोत्रमन्त्राधारनामावलिः महाकाल-ऋषिरुष्णिक्छन्दः, श्रीदक्षिणकाली देवता, ह्रीं बीजम्, ह्रूँ शक्तिः, क्रीं कीलकं, कालीवरदानादिस्वेष्टार्थे जपे विनियोगः ।

न्यास आदि ककारादिकालीसहस्त्रनामस्तोत्रम से करें यहाँ केवल नामावली दिया जा रहा है।

अथ सहस्रनामावलिः ।

ॐ क्रीं काल्यै नमः । ॐ क्रूं कराल्यै नमः । ॐ कल्याण्यै नमः। ॐ कमलायै नमः। ॐ कलायै नमः ।

ॐ कलावत्यै नमः । ॐ कलाढ्यै नमः । ॐ कलापूज्यायै नमः । ॐ कलात्मिकायै नमः ।

ॐ कलाहृष्टायै नमः । ॐ कलापुष्टायै नमः । ॐ कलामस्तायै नमः । ॐ कलाधरायै नमः ।

ॐ कलाकोटिसमाभासायै नमः । ॐ कलाकोटिप्रपूजितायै नमः । ॐ कलाकर्मकलाधरायै नमः ।

ॐ कलापरायै नमः । ॐ कलागमायै नमः । ॐ कलाधारायै नमः । ॐ कमलिन्यै नमः ।

ॐ ककारायै नमः । ॐ करुणायै नमः । ॐ कव्यै नमः । ॐ ककारवर्णसर्वाङ्ग्यै नमः ।

ॐ कलाकोटिप्रभूषितायै नमः । ॐ ककारकोटिगुणितायै नमः । ॐ ककारकोटिभूषणायै नमः ।

ॐ ककारवर्णहृदयायै नमः । ॐ ककारमनुमण्डितायै नमः । ॐ ककारवर्णनिलयायै नमः ।

ॐ काकशब्दपरायणायै नमः । ॐ ककारवर्णमुकुटायै नमः । ॐ ककारवर्णभूषणायै नमः ।

ॐ ककारवर्णरूपायै नमः । ॐ काकशब्दपरायणायै नमः । ॐ ककवीरास्फालरतायै नमः ।

ॐ कमलाकरपूजितायै नमः । ॐ कमलाकरनाथायै नमः । ॐ कमलाकररूपधृषे नमः ।

ॐ कमलाकरसिद्धिस्थायै नमः । ॐ कमलाकरपारदायै नमः । ॐ कमलाकरमध्यस्थायै नमः ।

ॐ कमलाकरतोषितायै नमः । ॐ कथङ्कारपरालापायै नमः । ॐ कथङ्कारपरायणायै नमः ।

ॐ कथङ्कारपदान्तस्थायै नमः । ॐ कथङ्कारपदार्थभुवे नमः । ॐ कमलाक्ष्यै नमः ।

ॐ कमलजायै नमः । ॐ कमलाक्षप्रपूजितायै नमः । ॐ कमलाक्षवरोद्युक्तायै नमः ।

ॐ ककारायै नमः । ॐ कर्बूराक्षरायै नमः । ॐ करतारायै नमः । ॐ करच्छिन्नायै नमः ।

ॐ करश्यामायै नमः । ॐ करार्णवायै नमः । ॐ करपूज्यायै नमः । ॐ कररतायै नमः ।

ॐ करदायै नमः । ॐ करपूजितायै नमः । ॐ करतोयायै नमः । ॐ करामर्षायै नमः ।

ॐ कर्मनाशायै नमः । ॐ करप्रियायै नमः । ॐ करप्राणायै नमः । ॐ करकजायै नमः ।

ॐ करकायै नमः । ॐ करकान्तरायै नमः । ॐ करकाचलरूपायै नमः ।

ॐ करकाचलशोभिन्यै नमः । ॐ करकाचलपुत्र्यै नमः । ॐ करकाचलतोषितायै नमः ।

ॐ करकाचलगेहस्थायै नमः । ॐ करकाचलरक्षिण्यै नमः । ॐ करकाचलसम्मान्यायै नमः ।

ॐ करकाचलकारिण्यै नमः । ॐ करकाचलवर्षाढ्यायै नमः । ॐ करकाचलरञ्जितायै नमः ।

ॐ करकाचलकान्तारायै नमः । ॐ करकाचलमालिन्यै नमः । ॐ करकाचलभोज्यायै नमः ।

ॐ करकाचलरूपिण्यै नमः । ॐ करामलकसंस्थायै नमः । ॐ करामलकसिद्धिदायै नमः ।

ॐ करामलकसम्पूज्यायै नमः । ॐ करामलकतारिण्यै नमः । ॐ करामलककाल्यै नमः ।

ॐ करामलकरोचिन्यै नमः । ॐ करामलकमात्रे नमः । ॐ करामलकसेविन्यै नमः ।

ॐ करामलकवद्ध्येयायै नमः । ॐ करामलकदायिन्यै नमः । ॐ कञ्जनेत्रायै नमः ।

ॐ कञ्जगत्यै नमः । ॐ कञ्जस्थायै नमः । ॐ कञ्जधारिण्यै नमः । ॐ कञ्जमालाप्रियकर्यै नमः ।

ॐ कञ्जरूपायै नमः । ॐ कञ्जनायै नमः । ॐ कञ्जजात्यै नमः । ॐ कञ्जगत्यै नमः ।

ॐ कञ्जहोमपरायणायै नमः । ॐ कञ्जमण्डलमध्यस्थायै नमः । ॐ कञ्जाभरणभूषितायै नमः ।

ॐ कञ्जसम्माननिरतायै नमः । ॐ कञ्जोत्पत्तिपरायणायै नमः । ॐ कञ्जराशिसमाकारायै नमः ।

ॐ कञ्जारण्यनिवासिन्यै नमः । ॐ करञ्जवृक्षमध्यस्थायै नमः । ॐ करञ्जवृक्षवासिन्यै नमः ।

ॐ करञ्जफलभूषाढ्यायै नमः । ॐ करञ्जारण्यवासिन्यै नमः । ॐ करञ्जमालाभरणायै नमः ।

ॐ करवालपरायणायै नमः । ॐ करवालप्रहृष्टात्मने नमः । ॐ करवालप्रियागत्यै नमः ।

ॐ करवालप्रियाकन्थायै नमः । ॐ करवालविहारिण्यै नमः । ॐ करवालमय्यै नमः ।

ॐ कर्मायै नमः । ॐ करवालप्रियङ्कर्यै नमः । ॐ कबन्धमालाभरणायै नमः ।

ॐ कबन्धराशिमध्यगायै नमः । ॐ कबन्धकूटसंस्थानायै नमः । ॐ कबन्धानन्तभूषणायै नमः ।

ॐ कबन्धनादसन्तुष्टायै नमः । ॐ कबन्धासनधारिण्यै नमः । ॐ कबन्धगृहमध्यस्थायै नमः ।

ॐ कबन्धवनवासिन्यै नमः । ॐ कबन्धकाञ्च्यै नमः । ॐ करण्यै नमः ।

ॐ कबन्धराशिभूषणायै नमः । ॐ कबन्धमालाजयदायै नमः । ॐ कबन्धदेहवासिन्यै नमः ।

ॐ कबन्धासनमान्यायै नमः । ॐ कपालमाल्यधारिण्यै नमः । ॐ कपालमालामध्यस्थायै नमः ।

ॐ कपालव्रततोषितायै नमः । ॐ कपालदीपसन्तुष्टायै नमः । ॐ कपालदीपरूपिण्यै नमः ।

ॐ कपालदीपवरदायै नमः । ॐ कपालकज्जलस्थितायै नमः । ॐ कपालमालाजयदायै नमः ।

ॐ कपालजपतोषिण्यै नमः । ॐ कपालसिद्धिसंहृष्टायै नमः । ॐ कपालभोजनोद्यतायै नमः ।

ॐ कपालव्रतसंस्थानायै नमः । ॐ कपालकमलालयायै नमः । ॐ कवित्वामृतसारायै नमः ।

ॐ कवित्वामृतसागरायै नमः । ॐ कवित्वसिद्धिसंहृष्टायै नमः । ॐ कवित्वादानकारिण्यै नमः ।

ॐ कविपूज्यायै नमः । ॐ कविगत्यै नमः । ॐ कविरूपायै नमः । ॐ कविप्रियायै नमः ।

ॐ कविब्रह्मानन्दरूपायै नमः । ॐ कवित्वव्रततोषितायै नमः । ॐ कविमानससंस्थानायै नमः ।

ॐ कविवाच्छाप्रपूरिण्यै नमः । ॐ कविकण्ठस्थितायै नमः । ॐ कंह्रींकंकंकंकविपूर्तिदायै नमः ।

ॐ कज्जलायै नमः । ॐ कज्जलादानमानसायै नमः । ॐ कज्जलप्रियायै नमः ।

ॐ कपालकज्जलसमायै नमः । ॐ कज्जलेशप्रपूजितायै नमः । ॐ कज्जलार्णवमध्यस्थायै नमः ।

ॐ कज्जलानन्दरूपिण्यै नमः । ॐ कज्जलप्रियसन्तुष्टायै नमः । ॐ कज्जलप्रियतोषिण्यै नमः ।

ॐ कपालमालाभरणायै नमः । ॐ कपालकरभूषणायै नमः । ॐ कपालकरभूषाढ्यायै नमः ।

ॐ कपालचक्रमण्डितायै नमः । ॐ कपालकोटिनिलयायै नमः । ॐ कपालदुर्गकारिण्यै नमः ।

ॐ कपालगिरिसंस्थायै नमः । ॐ कपालचक्रवासिन्यै नमः । ॐ कपालपात्रसन्तुष्टायै नमः ।

ॐ कपालार्घ्यपरायणायै नमः । ॐ कपालार्घ्यप्रियप्राणायै नमः । ॐ कपालार्घ्यवरप्रदायै नमः ।

ॐ कपालचक्र रूपायै नमः । ॐ कपालरूपमात्रगायै नमः । ॐ कदल्यै नमः ।

ॐ कदलीरूपायै नमः । ॐ कदलीवनवासिन्यै नमः । ॐ कदलीपुष्पसम्प्रीतायै नमः ।

ॐ कदलीफलमानसायै नमः । ॐ कदलीहोमसन्तुष्टायै नमः । ॐ कदलीदर्शनोद्यतायै नमः ।

ॐ कदलीगर्भमध्यस्थायै नमः । ॐ कदलीवनसुन्दर्यै नमः । ॐ कदम्बपुष्पनिलयायै नमः ।

ॐ कदम्बवनमध्यगायै नमः । ॐ कदम्बकुसुमामोदायै नमः । ॐ कदम्बवनतोषिण्यै नमः ।

ॐ कदम्बपुष्पसम्पूज्यायै नमः । ॐ कदम्बपुष्पहोमदायै नमः । ॐ कदम्बपुष्पमध्यस्थायै नमः ।

ॐ कदम्बफलभोजिन्यै नमः । ॐ कदम्बकाननान्तस्थायै नमः । ॐ कदम्बाचलवासिन्यै नमः ।

ॐ कक्षपायै नमः । ॐ कक्षपाराध्यायै नमः । ॐ कक्षपासनसंस्थितायै नमः ।

ॐ कर्णपूरायै नमः । ॐ कर्णनासायै नमः । ॐ कर्णाढ्यायै नमः । ॐ कालभैरव्यै नमः ।

ॐ कलहप्रीतायै नमः । ॐ कलहदायै नमः । ॐ कलहायै नमः । ॐ कलहातुरायै नमः ।

ॐ कर्णयक्ष्यै नमः । ॐ कर्णवार्त्कथिन्यै नमः । ॐ कर्णसुन्दर्यै नमः । ॐ कर्णपिशाचिन्यै नमः ।

ॐ कर्णमञ्जर्यै नमः । ॐ कविकक्षदायै नमः । ॐ कविकक्षविरूपाढ्यायै नमः ।

ॐ कविकक्षस्वरूपिण्यै नमः । ॐ कस्तूरीमृगसंस्थानायै नमः । ॐ कस्तूरीमृगरूपिण्यै नमः ।

ॐ कस्तूरीमृगसन्तोषायै नमः । ॐ कस्तूरीमृगमध्यगायै नमः । ॐ कस्तूरीरसनीलाङ्ग्यै नमः ।

ॐ कस्तूरीगन्धतोषितायै नमः । ॐ कस्तूरीपूजकप्राणायै नमः । ॐ कस्तूरीपूजकप्रियायै नमः ।

ॐ कस्तूरीप्रेमसन्तुष्टायै नमः । ॐ कस्तूरीप्राणधारिण्यै नमः । ॐ कस्तूरीपूजकानन्दायै नमः ।

ॐ कस्तूरीगन्धरूपिण्यै नमः । ॐ कस्तूरीमालिकारूपायै नमः । ॐ कस्तूरीभोजनप्रियायै नमः ।

ॐ कस्तूरीतिलकानन्दायै नमः । ॐ कस्तूरीतिलकप्रियायै नमः । ॐ कस्तूरीहोमसन्तुष्टायै नमः ।

ॐ कस्तूरीतर्पणोद्यतायै नमः । ॐ कस्तूरीमार्जनोद्युक्तायै नमः । ॐ कस्तूरीचक्रपूजितायै नमः ।

ॐ कस्तूरीपुष्पसम्पूज्यायै नमः। ॐ कस्तूरीचर्वणोद्यातायै नमः। ॐ कस्तूरीगर्भमध्यस्थायै नमः।

ॐ कस्तूरीवस्त्रधारिण्यै नमः। ॐ कस्तूरीकामोदरतायै नमः। ॐ कस्तूरीवनवासिन्यै नमः।

ॐ कस्तूरीवनसंरक्षायै नमः। ॐ कस्तूरीप्रेमधारिण्यै नमः। ॐ कस्तूरीशक्तिनिलयायै नमः।

ॐ कस्तूरीशक्तिकुण्डगायै नमः । ॐ कस्तूरीकुण्डसंस्नातायै नमः। ॐ कस्तूरीकुण्डमज्जनायै नमः।

ॐ कस्तूरीजीवसन्तुष्टायै नमः । ॐ कस्तूरीजीवधारिण्यै नमः । ॐ कस्तूरीपरमामोदायै नमः ।

ॐ कस्तूरीजीवनक्षमायै नमः । ॐ कस्तूरीजातिभावस्थायै नमः । ॐ कस्तूरीगन्धचुम्बनायै नमः ।

ॐ कस्तूरीगन्धसंशोभाविराजितकपालभुवे नमः । ॐ कस्तूरीमदनान्तस्थायै नमः ।

ॐ कस्तूरीमदहर्षदायै नमः । ॐ कस्तूर्यै नमः । ॐ कवितानाढ्यायै नमः ।

ॐ कस्तूरीगृहमध्यगायै नमः । ॐ कस्तूरीस्पर्शकप्राणायै नमः । ॐ कस्तूरीविन्दकान्तकायै नमः ।

ॐ कस्तूर्यामोदरसिकायै नमः । ॐ कस्तूरीक्रीडनोद्यतायै नमः । ॐ कस्तूरीदाननिरतायै नमः ।

ॐ कस्तूरीवरदायिन्यै नमः । ॐ कस्तूरीस्थापनाशक्तायै नमः । ॐ कस्तूरीस्थानरञ्जिन्यै नमः ।

ॐ कस्तूरीकुशलप्रश्नायै नमः । ॐ कस्तूरीस्तुतिवन्दितायै नमः । ॐ कस्तूरीवन्दकाराध्यायै नमः ।

ॐ कस्तूरीस्थानवासिन्यै नमः । ॐ कहरूपायै नमः । ॐ कहाढ्यायै नमः । ॐ कहानन्दायै नमः ।

ॐ कहात्मभुवे नमः । ॐ कहपूज्यायै नमः । ॐ कहेत्याख्यायै नमः । ॐ कहहेयायै नमः ।

ॐ कहात्मिकायै नमः। ॐ कहमालायै नमः। ॐ कण्ठभूषायै नमः। ॐ कहमन्त्रजपोद्यतायै नमः।

ॐ कहनामस्मृतिपरायै नमः । ॐ कहनामपरायणायै नमः । ॐ कहपरायणरतायै नमः ।

ॐ कहदेव्यै नमः । ॐ कहेश्वर्यै नमः । ॐ कहहेत्वै नमः । ॐ कहानन्दायै नमः ।

ॐ कहनादपरायणायै नमः । ॐ कहमात्रे नमः । ॐ कहान्तस्थायै नमः । ॐ कहमन्त्रायै नमः ।

ॐ कहेश्वरायै नमः । ॐ कहगेयायै नमः। ॐ कहाराध्यायै नमः। ॐ कहध्यानपरायणायै नमः।

ॐ कहतन्त्रायै नमः । ॐ कहकहायै नमः । ॐ कहचर्य्यापरायणायै नमः। ॐ कहाचारायै नमः।

ॐ कहगत्यै नमः । ॐ कहताण्डवकारिण्यै नमः । ॐ कहारण्यायै नमः । ॐ कहगत्यै नमः ।

ॐ कहशक्तिपरायणायै नमः । ॐ कहराज्यरतायै नमः । ॐ कर्मसाक्षिण्यै नमः ।

ॐ कर्मसुन्दर्यै नमः । ॐ कर्मविद्यायै नमः । ॐ कर्मगत्यै नमः । ॐ कर्मतन्त्रपरायणायै नमः ।

ॐ कर्ममात्रायै नमः । ॐ कर्मगात्रायै नमः । ॐ कर्मधर्मपरायणायै नमः ।

ॐ कर्मरेखानाशकर्त्र्यै नमः । ॐ कर्मरेखाविनोदिन्यै नमः । ॐ कर्मरेखामोहकर्यै नमः ।

ॐ कर्मकीर्तिपरायणायै नमः । ॐ कर्मविद्यायै नमः । ॐ कर्मसारायै नमः ।

ॐ कर्माधारायै नमः । ॐ कर्मभुवे नमः । ॐ कर्मकार्यै नमः । ॐ कर्महार्यै नमः ।

ॐ कर्मकौतुकसुन्दर्यै नमः । ॐ कर्मकाल्यै नमः । ॐ कर्मतारायै नमः । ॐ कर्मछिन्नायै नमः ।

ॐ कर्मदायै नमः । ॐ कर्मचाण्डालिन्यै नमः । ॐ कर्मवेदमात्रे नमः । ॐ कर्मभुवे नमः ।

ॐ कर्मकाण्डरतानन्तायै नमः । ॐ कर्मकाण्डानुमानितायै नमः । ॐ कर्मकाण्डपरीणाहायै नमः ।

ॐ कमठ्यै नमः । ॐ कमठाकृत्यै नमः । ॐ कमठाराध्यहृदयायै नमः । ॐ कमठायै नमः ।

ॐ कण्ठसुन्दर्यै नमः । ॐ कमठासनसंसेव्यायै नमः । ॐ कमठ्यै नमः । ॐ कर्मतत्परायै नमः ।

ॐ करुणाकरकान्तायै नमः । ॐ करुणाकरवन्दितायै नमः । ॐ कठोरायै नमः ।

ॐ करमालायै नमः । ॐ कठोरकुचधारिण्यै नमः । ॐ कपर्दिन्यै नमः । ॐ कपटिन्यै नमः ।

ॐ कठिन्यै नमः । ॐ कङ्कभूषणायै नमः । ॐ करभोर्वै नमः । ॐ कठिनदायै नमः ।

ॐ करभायै नमः । ॐ करभालयायै नमः । ॐ कलभाषामय्यै नमः । ॐ कल्पायै नमः ।

ॐ कल्पनायै नमः । ॐ कल्पदायिन्यै नमः । ॐ कमलस्थायै नमः । ॐ कलामालायै नमः ।

ॐ कमलास्यायै नमः । ॐ क्वणत्प्रभायै नमः । ॐ ककुद्मिन्यै नमः । ॐ कष्टवत्यै नमः ।

ॐ करणीयकथार्चितायै नमः । ॐ कचार्चितायै नमः । ॐ कचतन्वै नमः ।

ॐ कचसुन्दरधारिण्यै नमः । ॐ कठोरकुचसंलग्नायै नमः । ॐ कटिसूत्रविराजितायै नमः ।

ॐ कर्णभक्षप्रियायै नमः । ॐ कन्दायै नमः । ॐ कथायै नमः । ॐ कन्दगत्यै नमः ।

ॐ कल्यै नमः । ॐ कलिघ्नयै नमः । ॐ कलिदूत्यै नमः । ॐ कविनायकपूजितायै नमः ।

ॐ कणकक्षानियन्त्र्यै नमः । ॐ कश्चित्कविवरार्चितायै नमः । ॐ कर्त्र्यै नमः ।

ॐ कर्तृकाभूषायै नमः । ॐ करिण्यै नमः । ॐ कर्णशत्रुपायै नमः । ॐ करणेश्यै नमः ।

ॐ करणपायै नमः । ॐ कलवाचायै नमः । ॐ कलानिध्यै नमः । ॐ कलनायै नमः ।

ॐ कलनाधारायै नमः । ॐ कलनायै नमः । ॐ कारिकायै नमः । ॐ कारायै नमः ।

ॐ कलगेयायै नमः । ॐ कर्कराश्यै नमः । ॐ कर्कराशिप्रपूजितायै नमः ।

ॐ कन्याराश्यै नमः । ॐ कन्यकायै नमः । ॐ कन्यकाप्रियभाषिण्यै नमः ।

ॐ कन्यकादानसन्तुष्टायै नमः । ॐ कन्यकादानतोषिण्यै नमः । ॐ कन्यादानकरानन्दायै नमः ।

ॐ कन्यादानग्रहेष्टदायै नमः । ॐ कर्षणायै नमः । ॐ कक्षदहनायै नमः । ॐ कामितायै नमः ।

ॐ कमलासनायै नमः । ॐ करमालानन्दकर्त्र्यै नमः ।  ॐ करमालाप्रतोषितायै नमः ।

ॐ करमालाशयानन्दायै नमः । ॐ करमालासमागमायै नमः । ॐ करमालासिद्धिदात्र्यै नमः ।

ॐ करमालायै नमः । ॐ करप्रियायै नमः । ॐ करप्रियाकररतायै नमः ।

ॐ करदानपरायणायै नमः । ॐ कलानन्दायै नमः । ॐ कलिगत्यै नमः । ॐ कलिपूज्यायै नमः ।

ॐ कलिप्रस्वै नमः । ॐ कलनादनिनादस्थायै नमः । ॐ कलनादवरप्रदायै नमः ।

ॐ कलनादसमाजस्थायै नमः । ॐ कहोलायै नमः । ॐ कहोलदायै नमः ।

ॐ कहोलगेहमध्यस्थायै नमः । ॐ कहोलवरदायिन्यै नमः । ॐ कहोलकविताधारायै नमः ।

ॐ कहोलऋषिमानितायै नमः। ॐ कहोलमानसाराध्यायै नमः। ॐ कहोलवाक्यकारिण्यै नमः।

ॐ कर्तृरूपायै नमः । ॐ कर्तृमय्यै नमः । ॐ कर्तृमात्रे नमः । ॐ कर्त्तर्यै नमः । ॐ कनीयायै नमः ।

ॐ कनकाराध्यायै नमः । ॐ कनीनकमय्यै नमः । ॐ कनीयानन्दनिलयायै नमः ।

ॐ कनकानन्दतोषितायै नमः । ॐ कनीयककरायै नमः । ॐ काष्ठायै नमः ।

ॐ कथार्णवकर्यै नमः । ॐ कर्यै नमः । ॐ करिगम्यायै नमः । ॐ करिगत्यै नमः ।

ॐ करिध्वजपरायणायै नमः । ॐ करिनाथप्रियायै नमः । ॐ कण्ठायै नमः ।

ॐ कथानकप्रतोषितायै नमः । ॐ कमनीयायै नमः । ॐ कमनकायै नमः ।

ॐ कमनीयविभूषणायै नमः । ॐ कमनीयसमाजस्थायै नमः । ॐ कमनीयव्रतप्रियायै नमः ।

ॐ कमनीयगुणाराध्यायै नमः । ॐ कपिलायै नमः । ॐ कपिलेश्वर्यै नमः ।

ॐ कपिलाराध्यहृदयायै नमः । ॐ कपिलाप्रियवादिन्यै नमः । ॐ कहचक्रमन्त्रवर्णायै नमः ।

ॐ कहचक्रप्रसूनकायै नमः । ॐ क ए ईल्ह्रींस्वरूपायै नमः । ॐ क ए ईल्ह्रींवरप्रदायै नमः ।

ॐ क ए ईल्ह्रींसिद्धिदात्र्यै नमः। ॐ क ए ईल्ह्रींस्वरूपिण्यै नमः। ॐ क ए ईल्ह्रींमन्त्रवर्णायै नमः।

ॐ क ए ईल्ह्रींप्रसूकलायै नमः । ॐ कवर्गायै नमः । ॐ कपाटस्थायै नमः ।

ॐ कपाटोद्घाटनक्षमायै नमः । ॐ कङ्काल्यै नमः । ॐ कपाल्यै नमः ।

ॐ कङ्कालप्रियभाषिण्यै नमः । ॐ कङ्कालभैरवाराध्यायै नमः ।

ॐ कङ्कालमानसंस्थितायै नमः । ॐ कङ्कालमोहनिरतायै नमः ।

ॐ कङ्कालमोहदायिन्यै नमः । ॐ कलुषघ्न्यै नमः । ॐ कलुषहायै नमः ।

ॐ कलुषार्त्तिविनाशिन्यै नमः । ॐ कलिपुष्पायै नमः । ॐ कलादानायै नमः ।

ॐ कशिप्वै नमः । ॐ कश्यपार्चितायै नमः । ॐ कश्यपायै नमः । ॐ कश्यपाराध्यायै नमः ।

ॐ कलिपूर्णकलेवरायै नमः । ॐ कलेवरकर्यै नमः । ॐ काञ्च्यै नमः । ॐ कवर्गायै नमः ।

ॐ करालकायै नमः । ॐ करालभैरवाराध्यायै नमः । ॐ करालभैरवेश्वर्यै नमः ।

ॐ करालायै नमः । ॐ कलनाधारायै नमः । ॐ कपर्दीशवरप्रदायै नमः ।

ॐ कपर्दीशप्रेमलतायै नमः । ॐ कपर्दिमालिकायै नमः । ॐ कपर्दिजपमालाढ्यायै नमः ।

ॐ करवीरप्रसूनदायै नमः । ॐ करवीरप्रियप्राणायै नमः । ॐ करवीरप्रपूजितायै नमः ।

ॐ कर्णिकारसमाकारायै नमः । ॐ कर्णिकारप्रपूजितायै नमः । ॐ करिषाग्निस्थितायै नमः ।

ॐ कर्षायै नमः । ॐ कर्षमात्रसुवर्णदायै नमः । ॐ कलशायै नमः । ॐ कलशाराध्यायै नमः ।

ॐ कषायायै नमः । ॐ करिगानदायै नमः । ॐ कपिलायै नमः । ॐ कलकण्ठ्यै नमः ।

ॐ कलिकल्पलतायै नमः । ॐ कल्पमात्रे नमः । ॐ कल्पलतायै नमः । ॐ कल्पकार्यै नमः ।

ॐ कल्पभुवे नमः । ॐ कर्पूरामोदरुचिरायै नमः । ॐ कर्पूरामोदधारिण्यै नमः ।

ॐ कर्पूरमालाभरणायै नमः । ॐ कर्पूरवासपूर्त्तिदायै नमः । ॐ कर्पूरमालाजयदायै नमः ।

ॐ कर्पूरार्णवमध्यगायै नमः । ॐ कर्पूरतर्पणरतायै नमः । ॐ कटकाम्बरधारिण्यै नमः ।

ॐ कपटेश्वरसम्पूज्यायै नमः । ॐ कपटेश्वररूपिण्यै नमः । ॐ कट्वै नमः ।

ॐ कविध्वजाराध्यायै नमः । ॐ कलापपुष्परूपिण्यै नमः । ॐ कलापपुष्परुचिरायै नमः ।

ॐ कलापपुष्पपूजितायै नमः । ॐ क्रकचायै नमः । ॐ क्रकचाराध्यायै नमः ।

ॐ कथंब्रूमायै नमः । ॐ करलतायै नमः । ॐ कथङ्कारविनिर्मुक्तायै नमः ।

ॐ काल्यै नमः । ॐ कालक्रियायै नमः । ॐ क्रत्वै नमः । ॐ कामिन्यै नमः ।

ॐ कामिनीपूज्यायै नमः । ॐ कामिनीपुष्पधारिण्यै नमः । ॐ कामिनीपुष्पनिलयायै नमः ।

ॐ कामिनीपुष्पपूर्णिमायै नमः । ॐ कामिनीपुष्पपूजार्हायै नमः । ॐ कामिनीपुष्पभूषणायै नमः ।

ॐ कामिनीपुष्पतिलकायै नमः। ॐ कामिनीकुण्डचुम्बनायै नमः। ॐ कामिनीयोगसन्तुष्टायै नमः।

ॐ कामिनीयोगभोगदायै नमः। ॐ कामिनीकुण्डसम्मग्नायै नमः। ॐ कामिनीकुण्डमध्यगायै नमः।

ॐ कामिनीमानसाराध्यायै नमः । ॐ कामिनीमानतोषितायै नमः ।

ॐ कामिनीमानसञ्चारायै नमः। ॐ कालिकायै नमः । ॐ कालकालिकायै नमः ।

ॐ कामायै नमः । ॐ कामदेव्यै नमः । ॐ कामेश्यै नमः । ॐ कामसम्भवायै नमः ।

ॐ कामभावायै नमः । ॐ कामरतायै नमः । ॐ कामार्त्तायै नमः । ॐ काममञ्जर्यै नमः ।

ॐ काममञ्जीररणितायै नमः । ॐ कामदेवप्रियान्तरायै नमः । ॐ कामकाल्यै नमः ।

ॐ कामकलायै नमः । ॐ कालिकायै नमः । ॐ कमलार्चितायै नमः । ॐ कादिकायै नमः ।

ॐ कमलायै नमः । ॐ काल्यै नमः । ॐ कालानलसमप्रभायै नमः । ॐ कल्पान्तदहनायै नमः ।

ॐ कान्तायै नमः । ॐ कान्तारप्रियवासिन्यै नमः । ॐ कालपूज्यायै नमः । ॐ कालरतायै नमः ।

ॐ कालमात्रे नमः । ॐ कालिन्यै नमः । ॐ कालवीरायै नमः । ॐ कालघोरायै नमः ।

ॐ कालसिद्धायै नमः । ॐ कालदायै नमः । ॐ कालाञ्जनसमाकारायै नमः ।

ॐ कालञ्जरनिवासिन्यै नमः । ॐ कालऋद्ध्यै नमः । ॐ कालवृद्ध्यै नमः ।

ॐ कारागृहविमोचिन्यै नमः । ॐ कादिविद्यायै नमः । ॐ कादिमात्रे नमः ।

ॐ कादिस्थायै नमः । ॐ कादिसुन्दर्यै नमः । ॐ काश्यै नमः । ॐ काञ्च्यै नमः ।

ॐ काञ्चीशायै नमः । ॐ काशीशवरदायिन्यै नमः । ॐ क्रींबीजायै नमः ।

ॐ क्रींबीजाहृदयायै नमः । ॐ काम्यायै नमः । ॐ काम्यगत्यै नमः ।

ॐ काम्यसिद्धिदात्र्यै नमः । ॐ कामभुवे नमः । ॐ कामाख्यायै नमः ।

ॐ कामरूपायै नमः । ॐ कामचापविमोचिन्यै नमः । ॐ कामदेवकलारामायै नमः ।

ॐ कामदेवकलालयायै नमः । ॐ कामरात्र्यै नमः । ॐ कामदात्र्यै नमः ।

ॐ कान्ताराचलवासिन्यै नमः । ॐ कामरूपायै नमः । ॐ कालगत्यै नमः ।

ॐ कामयोगपरायणायै नमः । ॐ कामसम्मर्दनरतायै नमः । ॐ कामगेहविकाशिन्यै नमः ।

ॐ कालभैरवभार्यायै नमः । ॐ कालभैरवकामिन्यै नमः । ॐ कालभैरवयोगस्थायै नमः ।

ॐ कालभैरवभोगदायै नमः । ॐ कामधेन्वै नमः । ॐ कामदोग्ध्र्यै नमः । ॐ काममात्रे नमः ।

ॐ कान्तिदायै नमः। ॐ कामुकायै नमः। ॐ कामुकाराध्यायै नमः। ॐ कामुकानन्दवर्द्धिन्यै नमः।

ॐ कार्त्तवीर्यायै नमः । ॐ कार्त्तिकेयायै नमः । ॐ कार्त्तिकेयप्रपूजितायै नमः ।

ॐ कार्यायै नमः । ॐ कारणदायै नमः । ॐ कार्यकारिण्यै नमः । ॐ कारणान्तरायै नमः ।

ॐ कान्तिगम्यायै नमः । ॐ कान्तिमय्यै नमः । ॐ कात्यायै नमः । ॐ कात्यायन्यै नमः ।

ॐ कायै नमः । ॐ कामसारायै नमः । ॐ काश्मीरायै नमः । ॐ काश्मीराचारतत्परायै नमः ।

ॐ कामरूपाचाररतायै नमः । ॐ कामरूपप्रियंवदायै नमः । ॐ कामरूपाचारसिद्ध्यै नमः ।

ॐ कामरूपमनोमय्यै नमः । ॐ कार्त्तिक्यै नमः । ॐ कार्त्तिकाराध्यायै नमः ।

ॐ काञ्चनारप्रसूनभुवे नमः । ॐ काञ्चनारप्रसूनाभायै नमः । ॐ काञ्चनारप्रपूजितायै नमः ।

ॐ काञ्चरूपायै नमः । ॐ काञ्चभूम्यै नमः । ॐ कांस्यपात्रप्रभोजिन्यै नमः ।

ॐ कांस्यध्वनिमय्यै नमः । ॐ कामसुन्दर्यै नमः । ॐ कामचुन्बनायै नमः ।

ॐ काशपुष्पप्रतीकाशायै नमः । ॐ कामद्रुमसमागमायै नमः । ॐ कामपुष्पायै नमः ।

ॐ कामभूम्यै नमः । ॐ कामपूज्यायै नमः । ॐ कामदायै नमः । ॐ कामदेहायै नमः ।

ॐ कामगेहायै नमः । ॐ कामबीजपरायणायै नमः । ॐ कामध्वजसमारूढायै नमः ।

ॐ कामध्वजसमास्थितायै नमः । ॐ काश्यप्यै नमः । ॐ काश्यपाराध्यायै नमः ।

ॐ काश्यपानन्ददायिन्यै नमः । ॐ कालिन्दीजलसंकाशायै नमः ।

ॐ कालिन्दीजलपूजितायै नमः । ॐ कादेवपूजानिरतायै नमः । ॐ कादेवपरमार्थदायै नमः ।

ॐ कार्मणायै नमः । ॐ कार्मणाकारायै नमः । ॐ कामकार्मणकारिण्यै नमः ।

ॐ कार्मणत्रोटनकर्यै नमः । ॐ काकिन्यै नमः । ॐ कारणाह्वनायै नमः ।

ॐ काव्यामृतायै नमः । ॐ कालिङ्गायै नमः ।  ॐ कालिङ्गमर्द्दनोद्यतायै नमः ।

ॐ कालागुरुविभूषाढ्यायै नमः । ॐ कालागुरुविभूतिदायै नमः । ॐ कालागुरुसुगन्धायै नमः ।

ॐ कालागुरुप्रतर्पणायै नमः । ॐ कावेरीनीरसम्प्रीतायै नमः । ॐ कावेरीतीरवासिन्यै नमः ।

ॐ कालचक्रभ्रमाकारायै नमः । ॐ कालचक्रनिवासिन्यै नमः । ॐ काननायै नमः ।

ॐ काननाधारायै नमः । ॐ कार्व्यै नमः । ॐ कारुणिकामय्यै नमः। ॐ काम्पिल्यवासिन्यै नमः।

ॐ काष्ठायै नमः । ॐ कामपत्न्यै नमः । ॐ कामभुवे नमः । ॐ कादम्बरीपानरतायै नमः ।

ॐ कादम्बर्य्यै नमः । ॐ कलायै नमः । ॐ कामवन्द्यायै नमः । ॐ कामेश्यै नमः ।

ॐ कामराजप्रपूजितायै नमः । ॐ कामराजेश्वरीविद्यायै नमः । ॐ कामकौतुकसुन्दर्य्यै नमः ।

ॐ काम्बोजायै नमः । ॐ काञ्चिनदायै नमः । ॐ कांस्यकाञ्चनकारिण्यै नमः ।

ॐ काञ्चनाद्रिसमाकारायै नमः । ॐ काञ्चनाद्रिप्रदानदायै नमः । ॐ कामकीर्त्यै नमः ।

ॐ कामकेश्यै नमः । ॐ कारिकायै नमः । ॐ कान्ताराश्रयायै नमः । ॐ कामभेद्यै नमः ।

ॐ कामार्तिनाशिन्यै नमः । ॐ कामभूमिकायै नमः । ॐ कालनिर्णाशिन्यै नमः ।

ॐ काव्यवनितायै नमः । ॐ कामरूपिण्यै नमः । ॐ कायस्थाकामसन्दीप्त्यै नमः ।

ॐ काव्यदायै नमः । ॐ कालसुन्दर्यै नमः । ॐ कामेश्यै नमः । ॐ कारणवरायै नमः ।

ॐ कामेशीपूजनोद्यतायै नमः । ॐ काञ्चीनूपुरभूषाढ्यायै नमः ।

ॐ कुङ्कुमाभरणान्वितायै नमः । ॐ कालचक्रायै नमः । ॐ कालगत्यै नमः ।

ॐ कालचक्रमनोभवायै नमः । ॐ कुन्दमध्यायै नमः । ॐ कुन्दपुष्पायै नमः ।

ॐ कुन्दपुष्पप्रियायै नमः । ॐ कुजायै नमः । ॐ कुजमात्रे नमः । ॐ कुजाराध्यायै नमः ।

ॐ कुठारवरधारिण्यै नमः । ॐ कुञ्जरस्थायै नमः । ॐ कुशरतायै नमः ।

ॐ कुशेशयविलोचनायै नमः । ॐ कुनठ्यै नमः । ॐ कुरर्य्यै नमः । ॐ क्रुद्धायै नमः ।

ॐ कुरङ्ग्यै नमः । ॐ कुटजाश्रयायै नमः । ॐ कुम्भीनसविभूषायै नमः ।

ॐ कुम्भीनसवधोद्यतायै नमः । ॐ कुम्भकर्णमनोल्लासायै नमः । ॐ कुलचूडामण्यै नमः ।

ॐ कुलायै नमः । ॐ कुलालगृहकन्यायै नमः । ॐ कुलचूडामणिप्रियायै नमः ।

ॐ कुलपूज्यायै नमः । ॐ कुलाराध्यायै नमः । ॐ कुलपूजापरायणायै नमः ।

ॐ कुलभूषायै नमः । ॐ कुक्ष्यै नमः । ॐ कुररीगणसेवितायै नमः । ॐ कुलपुष्पायै नमः ।

ॐ कुलरतायै नमः । ॐ कुलपुष्पपरायणायै नमः । ॐ कुलवस्त्रायै नमः । ॐ कुलाराध्यायै नमः ।

ॐ कुलकुण्डसमप्रभायै नमः । ॐ कुलकुण्डसमोल्लासायै नमः । ॐ कुण्डपुष्पपरायणायै नमः ।

ॐ कुण्डपुष्पप्रसन्नास्यायै नमः । ॐ कुण्डगोलोद्भवात्मिकायै नमः ।

ॐ कुण्डगोलोद्भवाधारायै नमः । ॐ कुण्डगोलमय्यै नमः । ॐ कुह्व्यै नमः ।

ॐ कुण्डगोलप्रियप्राणायै नमः । ॐ कुण्डगोलप्रपूजितायै नमः । ॐ कुण्डगोलमनोल्लासायै नमः ।

ॐ कुण्डगोलबलप्रदायै नमः । ॐ कुण्डदेवरतायै नमः । ॐ क्रुद्धायै नमः ।

ॐ कुलसिद्धिकरापरायै नमः । ॐ कुलकुण्डसमाकारायै नमः । ॐ कुलकुण्डसमानभुवे नमः ।

ॐ कुण्डसिद्ध्यै नमः । ॐ कुण्डऋद्ध्यै नमः । ॐ कुमारीपूजनोद्यतायै नमः ।

ॐ कुमारीपूजकप्राणायै नमः । ॐ कुमारीपूजकालयायै नमः । ॐ कुमार्यै नमः ।

ॐ कामसन्तुष्टायै नमः । ॐ कुमारीपूजनोत्सुकायै नमः । ॐ कुमारीव्रतसन्तुष्टायै नमः ।

ॐ कुमारीरूपधारिण्यै नमः । ॐ कुमारीभोजनप्रीतायै नमः । ॐ कुमार्यै नमः ।

ॐ कुमारदायै नमः । ॐ कुमारमात्रे नमः । ॐ कुलदायै नमः । ॐ कुलयोन्यै नमः ।

ॐ कुलेश्वर्यै नमः । ॐ कुललिङ्गायै नमः । ॐ कुलानन्दायै नमः । ॐ कुलरम्यायै नमः ।

ॐ कुतर्कधृषे नमः । ॐ कुन्त्यै नमः । ॐ कुलकान्तायै नमः । ॐ कुलमार्गपरायणायै नमः ।

ॐ कुल्लायै नमः । ॐ कुरुकुल्लायै नमः । ॐ कुल्लुकायै नमः । ॐ कुलकामदायै नमः ।

ॐ कुलिशाङ्ग्यै नमः । ॐ कुब्जिकायै नमः । ॐ कुब्जिकानन्दवर्द्धिन्यै नमः ।

ॐ कुलीनायै नमः । ॐ कुञ्जरगत्यै नमः । ॐ कुञ्जरेश्वरगामिन्यै नमः ।

ॐ कुलपाल्यै नमः । ॐ कुलवत्यै नमः । ॐ कुलदीपिकायै नमः । ॐ कुलयोगेश्वर्यै नमः ।

ॐ कुण्डायै नमः । ॐ कुङ्कुमारुणविग्रहायै नमः । ॐ कुङ्कुमानन्दसन्तोषायै नमः ।

ॐ कुङ्कुमार्णववासिन्यै नमः । ॐ कुसुमायै नमः । ॐ कुसुमप्रीतायै नमः ।

ॐ कुलभुवे नमः । ॐ कुलसुन्दर्यै नमः । ॐ कुमुद्वत्यै नमः । ॐ कुमुदिन्यै नमः ।

ॐ कुशलायै नमः । ॐ कुलटालयायै नमः । ॐ कुलटालयमध्यस्थायै नमः ।

ॐ कुलटासङ्गतोषितायै नमः । ॐ कुलटाभवनोद्युक्तायै नमः । ॐ कुशावर्त्तायै नमः ।

ॐ कुलार्णवायै नमः । ॐ कुलार्णवाचाररतायै नमः । ॐ कुण्डल्यै नमः । ॐ कुण्डलाकृत्यै नमः ।

ॐ कुमत्यै नमः । ॐ कुलश्रेष्ठायै नमः । ॐ कुलचक्रपरायणायै नमः । ॐ कूटस्थायै नमः ।

ॐ कूटदृष्ट्यै नमः । ॐ कुन्तलायै नमः । ॐ कुन्तलाकृत्यै नमः । ॐ कुशलाकृतिरूपायै नमः ।

ॐ कूर्चवीजधरा यै नमः । ॐ क्वै नमः । ॐ कुं कुं कुं कुं शब्दरतायै नमः ।

ॐ क्रुं क्रुं क्रुं क्रुं परायणायै नमः । ॐ कुं कुं कुं शब्दनिलयायै नमः । ॐ कुक्कुरालयवासिन्यै नमः ।

ॐ कुक्कुरासङ्गसंयुक्तायै नमः । ॐ कुक्कुरानन्तविग्रहायै नमः । ॐ कूर्चारम्भायै नमः ।

ॐ कूर्चबीजायै नमः । ॐ कूर्चजापपरायणायै नमः । ॐ कुलिन्यै नमः । ॐ कुलसंस्थानायै नमः ।

ॐ कूर्चकण्ठपरागत्यै नमः । ॐ कूर्चवीणाभालदेशायै नमः । ॐ कूर्चमस्तकभूषितायै नमः ।

ॐ कुलवृक्षगतायै नमः । ॐ कूर्मायै नमः । ॐ कूर्माचलनिवासिन्यै नमः । ॐ कुलबिन्द्वै नमः ।

ॐ कुलशिवायै नमः । ॐ कुलशक्तिपरायणायै नमः । ॐ कुलबिन्दुमणिप्रख्या नमः ।

ॐ कुङ्कुमद्रुमवासिन्यै नमः । ॐ कुचमर्दनसन्तुष्टायै नमः । ॐ कुचजापपरायणायै नमः ।

ॐ कुचस्पर्शनसन्तुष्टायै नमः । ॐ कुचालिङ्गनहर्षदायै नमः । ॐ कुगतिघ्न्यै नमः ।

ॐ कुबेरार्च्यायै नमः । ॐ कुचभुवे नमः । ॐ कुलनायिकायै नमः । ॐ कुगायनायै नमः ।

ॐ कुचधरायै नमः । ॐ कुमात्रे नमः । ॐ कुन्ददन्तिन्यै नमः । ॐ कुगेयायै नमः ।

ॐ कुहराभाषायै नमः । ॐ कुगेयाकुघ्नदारिकायै नमः । ॐ कीर्त्यै नमः । ॐ किरातिन्यै नमः ।

ॐ क्लिन्नायै नमः । ॐ किन्नरायै नमः । ॐ किन्नर्यै नमः । ॐ क्रियायै नमः ।

ॐ क्रीङ्कारायै नमः । ॐ क्रींजपासक्तायै नमः । ॐ क्रींह्वूंस्त्रींमन्त्ररूपिण्यै नमः ।

ॐ कीर्मिरितदृशापाङ्ग्यै नमः । ॐ किशोर्यै नमः । ॐ किरीटिन्यै नमः । ॐ कीटभाषायै नमः ।

ॐ कीटयोन्यै नमः । ॐ कीटमात्रे नमः । ॐ कीटदायै नमः । ॐ किंशुकायै नमः ।

ॐ कीरभाषायै नमः । ॐ क्रियासारायै नमः । ॐ क्रियावत्यै नमः । ॐ कींकींशब्दपरायै नमः ।

ॐ क्लींक्लींक्लूंक्लैंक्लौंमन्त्ररूपिण्यै नमः । ॐ कांकींकूंकैंस्वरूपायै नमः ।

ॐ कःफट्मन्त्रस्वरूपिण्यै नमः । ॐ केतकीभूषणानन्दायै नमः । ॐ केतकीभरणान्वितायै नमः ।

ॐ कैकदायै नमः । ॐ केशिन्यै नमः । ॐ केशीसूदनतत्परायै नमः । ॐ केशरूपायै नमः ।

ॐ केशमुक्तायै नमः । ॐ कैकेय्यै नमः । ॐ कौशिक्यै नमः । ॐ केरवायै नमः ।

ॐ कैरवाह्लादायै नमः । ॐ केशरायै नमः । ॐ केतुरूपिण्यै नमः ।

ॐ केशवाराध्यहृदयायै नमः । ॐ केशवासक्तमानसायै नमः । ॐ क्लैव्यविनाशिन्यै क्लैं नमः ।

ॐ क्लैंबीजजपतोषितायै नमः । ॐ कौशल्यायै नमः । ॐ कोशलाक्ष्यै नमः । ॐ कोशायै नमः ।

ॐ कोमलायै नमः । ॐ कोलापुरनिवासायै नमः । ॐ कोलासुरविनाशिन्यै नमः ।

ॐ कोटिरूपायै नमः । ॐ कोटिरतायै नमः । ॐ क्रोधिन्यै नमः । ॐ क्रोधरूपिण्यै नमः ।

ॐ केकायै नमः । ॐ कोकिलायै नमः । ॐ कोट्यै नमः । ॐ कोटिमन्त्रपरायणायै नमः ।

ॐ कोट्यनन्तमन्त्रयुतायै नमः । ॐ कैरूपायै नमः । ॐ केरलाश्रयायै नमः ।

ॐ केरलाचारनिपुणायै नमः । ॐ केरलेन्द्रगृहस्थितायै नमः । ॐ केदाराश्रमसंस्थायै नमः ।

ॐ केदारेश्वरपूजितायै नमः । ॐ क्रोधरूपायै नमः । ॐ क्रोधपदायै नमः । ॐ क्रोधमात्रे नमः ।

ॐ कौशिक्यै नमः । ॐ कोदण्डधारिण्यै नमः । ॐ क्रौंञ्चायै नमः । ॐ कौशल्यायै नमः ।

ॐ कौलमार्गगायै नमः । ॐ कौलिन्यै नमः । ॐ कौलिकाराध्यायै नमः ।

ॐ कौलिकागारवासिन्यै नमः । ॐ कौतुक्यै नमः । ॐ कौमुद्यै नमः । ॐ कौलायै नमः ।

ॐ कौमार्यै नमः । ॐ कौरवार्चितायै नमः । ॐ कौण्डिन्यायै नमः । ॐ कौशिक्यै नमः ।

ॐ क्रोधज्वालाभासुररूपिण्यै नमः । ॐ कोटिकालानलज्वालायै नमः ।

ॐ कोटिमार्तण्डविग्रहायै नमः । ॐ कृत्तिकायै नमः । ॐ कृष्णवर्णायै नमः ।

ॐ कृष्णायै नमः । ॐ कृत्यायै नमः । ॐ क्रियातुरायै नमः । ॐ कृशाङ्ग्यै नमः ।

ॐ कृतकृत्यायै नमः । ॐ क्रःफट्स्वाहास्वरूपिण्यै नमः । ॐ क्रौंक्रौंहूंफट्मन्त्रवर्णायै नमः ।

ॐ क्रींह्रींह्रूंफट्नमःस्वधायै नमः । ॐ क्रींक्रींह्रींह्रीं तथा ह्रूंह्रूं फट्स्वाहामन्त्ररूपिण्यै नमः । १०००

ककारादिकालीसहस्त्रनामस्तोत्रम् सहस्रनामावली फलश्रुति

क्रींक्रीं ह्रींह्रीं तथा ह्रूं ह्रूं एवं फट्स्वाहामन्त्ररूपिण्यै। रूपमन्त्रवाली (भगवती श्रीमहाकाली) के सर्वसाम्राज्य मेधानामक सहस्रनाममंत्र को मैंने (हे पार्वति!) तुमसे कहा ॥ १८२ ॥

(हे पार्वती) यह काली सहस्रनाम त्रिपुरसुन्दरी को शक्ति प्रदत्त करनेवाला और ककार रूप ही इसका स्वरूप है । महाकाली ने त्रिपुरसुन्दरी को इसका उपदेश दिया था। त्रिपुरसुन्दरी को वर-प्रदत्त करने के प्रसंग से महाकाली के रहस्य को भी मैंने तुम्हें बताया। इसे (सदैव) गोपनीय रखना चाहिए और श्रद्धापूर्वक इसका पाठ करना चाहिए । प्रात:, मध्याह्न और मध्यरात्रि तथा रात्रि के बीच के समय यज्ञकाल, जपकाल में विशेषरूप से इसका पाठ करना चाहिए ॥ १-३॥

जो (साधना करनेवाला) साधक धैर्यता से युक्त होकर इस कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करते हैं, वे एक साल में ही काली के तुल्य शक्तिवान् हो जाते हैं। जो (साधक) इस स्तोत्र को पढ़ते या दूसरों को पढ़कर सुनाते हैं, वह कालिका के तुल्य शक्तिवान् हो जाते हैं। अवज्ञा से जो इस कालीसहस्रनाम का पाठ करते हैं, वे सभी दुःखों से मुक्त हो जाते हैं और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं, इसके साथ ही साथ वे कवि हो जाते हैं। जिस स्त्री के पुत्र मर जाते हैं, वह मृतबन्ध्या और जिसे एक ही पुत्र होता है,उसे काकबन्ध्या एवं केवल पुत्री उत्पन्न करनेवाली पुत्रीबन्ध्या, पुष्प न होनेवाला पुष्पबन्ध्या और शूल से पीड़ा होने के कारण पुत्र प्रसव न करनेवाली शूलबन्ध्या, सर्वथा पुत्र न उत्पन्न करनेवाली बन्ध्या, इस सभी प्रकार की बन्ध्या स्त्रियों को इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए। इसका पाठ करनेवालों को सुन्दर कवि और दीर्घायु पुत्र, काली के प्रसाद से प्राप्त होते हैं ॥ ४-७॥

इस कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य कीर्ति से युक्त, पांडित्य प्राप्त करते है, इसमें संदेह नहीं है। जिन-जिन कामनाओं की प्राप्ति के लिए मनुष्य महाकाली का ध्यान करते हुए उनके मंत्र का जप करते हैं, वह उन मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेते है। रज, वीर्य, संयोगामृतपुष्प, रजस्वला के पुष्प, कालिपुष्प, योनितोय, पीठतोय, योनिक्षालिततोय से, कस्तूरी, कुमकुम से, नख, कालागुरु, अष्टगंध, धूप, दीप, यव, यावय सयुक्त, लालचंदन, सिंदूर, मत्स्यमांस, भूषण, शहद, चावल, दूध, शुद्ध शोणित सुन्दर रसयुक्त फलादि महोपचार, खून और अति सरस नैवेद्य द्वारा महाकाल की गोद में स्थित महाकाली का पूजन करें। फिर विद्याराज्ञी और कुल्लुका जप करके महाकालीसहस्रनाम का पाठ करें। पाठ करते समय काली में चित्त को लगा दें और पाठकर्ता को सिंदूर का तिलक लगाना चाहिए ॥ ८-१४॥

साधक को पाठ करते समय मुख में ताम्बूल भक्षण कर मुक्तकेश और बिना वस्त्र के रहना चाहिए। शव (मुर्दे) पर स्थित होकर अकेले श्मशान में इसका पाठ करना चाहिए। अकेले घर में, त्रिकोण मध्यगामी बिन्दु के आसन पर या रजोयुक्त स्त्री के साथ और श्रृंगालियों के स्थान पर शयन करने से, खड़े रहकर भोजन करने से काली का दर्शन प्राप्त होता है॥१५-१६॥

उपरोक्त स्थानों पर जो साधक अर्चना करता है, वह अनन्त फल देनेवाला होता है । महाकाली के सहस्रनाम का पाठ करनेवाला साधक ऐश्वर्य में लक्ष्मी के तुल्य, सिद्धि में माता महाकाली के तुल्य ॥१७॥

कविता में श्रीविद्या के तुल्य, सुन्दरता में सुन्दरी के तुल्य, कार्य में समुद्रधारा के तुल्य, श्रुति में श्रुतिधर के तुल्य हो जाता है॥ १८ ॥

त्रैलोक्य के विजय में इंद्र के तुल्य पराक्रमी तथा कलिकाल में शत्रुहन्ता और काव्यकर्ता शिव के तुल्य हो जाता है ॥ १९॥

(ऐसा साधक) दिशाओं और विदिशाओं में चन्द्रमा को प्रगट कर देता है और रात्रि को दिन तथा दिन को रात्रि बनाने में समर्थवान् हो जाता है। (वह) योग में शिव क तुल्य हो जाता है और क्षणमात्र में तीनों लोकों को स्तंभित कर देता है ॥ २०॥

गायनविद्या में तुम्बुरु के तुल्य तथा दान देने में कर्ण के तुल्य होता है। हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल तथा अस्त्र-शस्त्रों का वह स्वामी होता है और उसका जीवन सफल हो जाता है ।। २१ ॥

काकभुशुण्डी के तुल्य आयु में दीर्घजीवी होता है, उसके पास वृद्धावस्था नहीं आती है, वह हमेशा सोलह वर्ष का किशोर बना रहता है ।। २२॥

हे पार्वती! इस संसार में उसके लिये कुछ भी दुर्लभ (अप्राप्य) नहीं होता है । सभी पदार्थ उसके वशीभूत हो जाते हैं, इसमें संदेह की आवश्यकता नहीं । साधना करनेवाला भगवती को रजस्वला के रूप में जानकर उनका ध्यान करे, फिर महाविद्याराज्ञी का पूजन कर कालीसहस्रनाम का पाठ करे। दूसरे की स्त्री का स्पर्श करते हुए परमेश्वरी का पूजन करे और दूसरे की स्त्री का हाथ पकड़कर कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य को समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । (ऐसे साधक का) मनोरथ पूर्ण हो जाता है, ऐश्वर्य में वह कुबेर से भी अधिक सम्पन्न हो जाता है। हे महेशानि! कुल एवं गोलक के वर्णाक्त को लेकर श्मशान में हवन करनेवाला पुरुष ब्रह्मा के लिखे को भी बदल सकता है ।। २३-२७॥

अत्यधिक मनोहर तरुणी (युवती), जो काम के गर्व से इठलाती हो और चंचल हो, उसे प्रयत्न करके बुलावें । फिर न्यासविधि से उसे स्नान करावें, उस (स्त्री को) फूलों का सेज पर बिठावें और स्वयं भूमि पर रहें। फिर देवी के चरणों से युक्त मूलमंत्र का स्मरण करें । हे शिवे, हे महेशानि! फिर संकल्प करके देवी का पूजन कर देवी के मूलमंत्र का जप करें। इसके पश्चात् कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करें, फिर प्रणव का स्मरण करें ॥ २८-३०॥

(साधक) महाकाली के मूलमंत्र से एक सौ आठ बार योनि को अभिमंत्रित कर चुम्बन करे । फिर उस स्त्री के साथ मिलकर काली के मंत्र का जप करे । ऐसा करनेवाला पुरुष समस्त विद्याओं का स्वामी हो जाता है। खंडहर में, श्रृंगालियों के वन में, शिवमन्दिर में, निर्जन स्थान में, तालाब में, गंगा के मध्य में, चौराहे पर, श्मशान में, पर्वत पर, अकेले और शिवामुख में ऋतुमती स्त्री की योनि को मुण्डित कराकर अपने गृह में स्नान करने के पश्चात् या वेश्या के गृह में, कुटनी के गृह में, केले के मण्डप का निर्माण कर उसमें कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है। जंगल में, गुफा में, शत्रु के साथ युद्ध के लिये समरभूमि में, इस कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करे ॥ ३१-३५॥

बालकों को प्रसन्न करने के पश्चात् कालिका स्तोत्र का पाठ एवं महाकाली का ध्यान करते हुए (इस) कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। जो (साधक) ऐसा करते हैं, उनको सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और उनका अभीष्ट सदैव पूर्ण होता है। मुण्डित या अमुण्डित योनि में रतिक्रिया करता हुआ या कोमल चमड़े पर, कुशा निर्मित आसन पर, कफन पर, रजस्वलास्त्री के वस्त्र के आसन पर, बालों को खोल हुए निर्वस्त्र होकर मैथुन किये गये शयन पर, काली का (जो साधक) जप करता हुआ कालीसहस्रनाम का पाठ करता है, उसे खेचरी मुद्रा सिद्ध प्राप्त हो जाती है ॥ ३६-३९॥

चिकुर को पकड़कर दक्षिणाकाली का जप कर शुक्र को निकालनेवाला साधक शताधिक बलवानों का सामना करने में समर्थ हो जाता है। लता का स्पर्श कर जप करे या रमण कर महाकाली का पूजन करें। बिना वस्त्र के परशक्ति का ध्यान करें अपने हाथ से योनि को पकड़कर दक्षिणाकाली का स्मरण करें। इसके उपरान्त कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करे, (ऐसे कृत्य) करनेवाला साधक शिव से भी अधिक शक्तिशाली होता है। लता के मध्य में काली का स्मरण कर सावधान होकर कालीसहस्रनाम का पाठ करना चाहिए। ४०-४२॥

इस प्रकार का साधक एक माह में दशावधान हो जाता है । कालरात्रि में, महारात्रि में,विररात्रि में, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि को संक्रान्ति, अमावस्या, पूर्णमासी शुक्रयुक्त,भौमयुक्त अमावस्या में, सायंकाल मंगल दिनयुक्त नवमी तिथि में और कुलतिथि में कुरुक्षेत्र में प्रयत्नपूर्वक कालीसहस्रनाम का पाठ करना चाहिए। ऐसा साधक सभी अंगों से सुन्दर हो जाता है । किन्नरी सिद्धि उसे प्राप्त हो जाती है। जिस प्राचीन स्थान पर पश्चिमाभिमुख (शिव) लिंग हो, किन्तु नंदी न हो, ऐसे (प्राचीन) स्थान पर बैठकर समस्त कामना सिद्धि के लिए कालीसहस्रनाम का पाठ करना चाहिए । मंगलवार के दिन अर्घ रात्रि में और अमावस्या की अर्द्धरात्रि में काली को ।। ४३-४७॥

उर्द मिश्रित भात, बकरा, खिचड़ी, खीर, भुनी हुई मछली, खून, दूध, दही, गुड़मिश्रित आदि की बलि देकर एक हजार आठ बार कालीसहस्रनाम का पाठ करनेवाला साधक देव-गंधर्व और सिद्धों से सेवित महाकाली को प्राप्त कर लेता है। ४८-४९ ॥

इसमें संदेह नहीं है कि ऐसे पुरुष का आसन भूमि से तीन हाथ ऊपर गगन में स्थित होता है। बिना मन के भी जो मनुष्य महाकाली की स्तुति करता है, वह ब्रह्मादि देवों की गति को भी रोक सकता है और क्षणमात्र में देवी को मोहित कर लेता है । मात्र तीन प्रहर में ही वह दसों महाविद्याओं का आकर्षण कर सकता है, वह विष्णु का निर्माण कर सकता है और यमराज का भी वध कर सकता है। ५०-५२॥

(ऐसा साधक) ध्रुव का उच्चाटन कर सकता है और नवीन सृष्टि के निर्माण में समर्थ हो सकता है। साधक को मेष, महीष, मार्जार, गदहा, बकरा, मनुष्य, गैंडा, सूअर, कबूतर टिट्टिभ, खरगोश आदि के मांस और रक्त, अस्थि, बत्तख, दूध, खीर, पुष्परसस हुआ मद्य, सींधु मद्य, सुगन्धित आसव, योनि का धोया हुआ जल, सम्भोगकाल में योनि और लिंग से निकले हुए रज-वीर्य आदि से जप के अंत में महाकाली का तर्पण कर चाहिए, फिर अपनी सामर्थ्य के अनुसार सर्वसाम्राज्यदायक महाकाली स्तोत्र का पाठ करना चाहिए ॥ ५३-५६ ॥

जो साधक शक्ति का स्पर्श करता हुआ कालीसहस्रनाम का पाठ करता है, वह तीन दिन में ही काली के तुल्य हो जाता है। उसके गृह में हमेशा दक्षिणाकाली निवास करती है । वेश्या के गृह में जाकर (साधक) मुखचुम्बन करें। फिर उसकी योनि में मुख लगाकर उसका अवलेहन करते हुए एक हजार बार जप करे। तदुपरान्त भक्तियुक्त होकर कालीसहस्रनाम का पाठ करे । ऐसा करने से तीन प्रहर में ही काली का दर्शन प्राप्त हो जाता है। नाचनेवाली के गृह में जाकर उसको पुष्पशय्या पर पञ्चमकार से युक्त हो स्थापित करें, पुनः शक्तिन्यास करे। काली के उपभोग युक्त मद्य, मांस आदि युक्त पात्र स्थापित करके वेश्या को निर्वस्त्र करे । वहाँ पर चक्र को संभावित कर आवरण सहित जप करे ॥ ५७-६१ ॥

हे महेश्वरी! सौ बार मस्तक पर न्यास करे, सौ बार केश पर न्यास करे, सौ बार सिंदूर मण्डल के स्थान सीमन्त में न्यास करे। सौ बार दोनों स्तनों पर न्यास करे, सौ बार नाभि पर न्यास करे, हाथ के न्यासों से सौ बार मंत्र का जप करे। फिर योनि पर हाथ रखकर सौ बार तथा सम्भोग काल में तीन सौ बार जप करे। इसके उपरान्त ही

स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। इस प्रकार का साधक एक मास में शतावधान हो जाता है,मातंगिनी या कापालिनी को स्थापित कर ॥ ६२-६४ ॥

दूसरे की स्त्री का आलिंगन करके जप करे और दूसरे की स्त्री का चुम्बन करके पाठ करे। दूसरे की स्त्री का पूजन करें और दूसरे की स्त्री का संमर्दन करे। दूसरे की स्त्री की योनि में लिंग डालें इस प्रकार का साधक शतावधानों में और शक्तिमानों में सबसे बड़ा राजा होता है। गायन विद्या में दक्ष किसी स्त्री को बुलाकर कुलाचार परम्परा के अनुकूल उसकी योनि के विकसित करें। तदुपरान्त उसमें जीभ डालकर सहस्रनाम का पाठ करें। (मृतक) मनुष्य की खोपड़ी पर दीप की माला स्थापित करके (साधक को) जप करना चाहिए। ऐसा करने से साधक महाकवि होता है, इसमें संदेह नहीं है॥६५-७१॥

साधक कामातुर हो शक्ति को बुलाकर योनि पर मूलचक्र लिखकर फिर मन्त्र लिखे। इस प्रकार का साधक मंत्रयुक्त उस योनि का अवलेहन करता हुआ समस्त शास्त्रों के अर्थों का जानकार हो जाता है। (वह) अश्रुत और बिना पठन किये गये वेदादि को भी पढ़ाने में दक्ष होता है। न्यास, पाठ और ध्यान के बिना भी वह चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, सामवेद) का ज्ञाता होता है और तीन वर्ष तक नियमित पाठ करने से त्रिकालज्ञ हो जाता है । ७२-७४॥

चारो प्रकार का पाण्डित्य कालीसहस्रनाम का पाठ करनेवाले साधक को प्राप्त हो जाता है। पूर्णतः निर्जन स्थान में ही महाकाली को बलि प्रदत्त करनी चाहिए। काली का ध्यान, मंत्र का जप, नीलसाधन, सहस्रनाम का पाठ, कालीनाम का जप करने से साधक को सर्वत्र अभ्युदय की प्राप्ति होती है। प्रेतसिद्धि, महाकाली पूजा, महाकाली की बलि, सिंदूर का तिलक, सदैव वेश्याओं से वार्ता, रात्रि के समय वेश्या के घर में रहना और रात्रि में पर्यटन करना, शक्तिपूजा, यौनदृष्टि, हाथ में खड़ग, बिना वस्त्र के बिखरे हुए बाल, वीरवेष, कुलमूर्ति को धारण करने वाला मनुष्य ही महाकाली का भक्त होता है। यदि वह ऐसा नहीं है तो दु:ख को प्राप्त करता है। दुग्धपान करनेवाला, योनि का लेह करनेवाला, ज्ञानी आसव से देखता हुआ मनुष्य वेश्यालता का आश्रय लेने से क्षणभर में  कल्पलता के तुल्य हो जाता है और वेश्याचक्र के समायोग से कालीचक्र के सदृश हो जाता है। (साधना करनेवाला) साधक वेश्या के शरीर के समायोग से स्वयं काली देह के तुल्य हो जाता है । काली ऐसा भी कहती हैं कि मैं अपनी साधना करनेवाले साधक को वेश्या के बीच में कब देखूगी? यही कारण है कि वेश्या उत्तम (श्रेष्ठ) है, वेश्या कन्या, पीठजाति भेद कुलचक्र से ॥ ७५-८३ ॥

जो (साधक इस) कालीसहस्रनाम का पाठ करता है, वह काली दर्शन के फल को (अवश्य) प्राप्त करता है । वेश्याकुल में पैदा हुई कुमारी का भी पूजन करें। कुमारी को वस्त्र और होमादि द्वारा संतुष्ट (प्रसन्न) कर प्रयत्नपूर्वक कालीसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करना चाहिए । (ऐसा करने से) पुरुष तीनों लोकों में विजयी होता है और दिन में चन्द्रमा को भी (आकाश में) प्रगट कर देता है। कुमारी को प्रदत्त किया गया दान अनन्त फल देनेवाला होता है। कुमारी-पूजन का फल अनन्त है, जिसे कहने में मैं सक्षम नहीं हूँ । चंचलतावश (मैंने) जो कुछ कहा हो, उसे क्षमा करें । मैं हाथ जोड़ता हूँ, मात्र एक बाला की पूजा करने से महाकाली अपने आप पूजित हो जाती हैं ।। ८४-८८॥

यह सम्पूर्ण संसार ही कुमारी और शक्तिमय है। इसलिए कुमारी के शरीर में शक्ति का आवाहन कर न्यासादि द्वारा शक्ति को स्थापित करना चाहिए । कुमारी को महाकाली के बायें भाग में स्थापित कर कालीसहस्रनाम का पाठ करें। (ऐसा करने से) मनुष्य सर्वसिद्धीश्वर हो जाता है। इसमें विचार करने की आवश्यकता नहीं है । श्मशान में बिना भय के निवास करें, बालों को बिखेर कर बिना वस्त्र पहने एक हजार धतूरे का पुष्प ले आवें । तत्पश्चात् धतूरे का पुष्प लें (उसमें) वीर्य मिलाकर (काली के प्रत्येक मन्त्र से) क्रमानुसार एक-एक पुष्प का एक हजार बार हवन करें। फिर पूजा कर भगवती का ध्यान करें। ऐसा करनेवाला मनुष्य राजा होता है । ८९-९२ ॥

सम्मार्जनीय में नख, केश और अपना वीर्य रखकर बालों को बिखेरकर और बिना वस्त्र पहने मूलमन्त्र द्वारा श्मशान में, मंगलवार के दिन मध्य रात्रि में हवन करके कालीसहस्रनाम का पाठ करनेवाला साधक राजा को भी (अपनी ओर) आकृष्ट कर लेता है। रजस्वला स्त्री से संभोग कर फिर केशयुक्त आसन पर बैठकर मूलमंत्र का जप करें। फिर मध्यरात्रि में यत्नपूर्वक अपना वीर्य निकालकर (जलती हुई) चिता की अग्नि में हवन करके काली का पूजन करने के उपरान्त कालीसहस्रनाम का पाठ करें।९३-९६ ॥

इस प्रकार का साधक राजा को भी (अपनी ओर) आकृष्ट कर लेता है। इसमें (लेशमात्र) संदेह नहीं है। केले के वन में एक लाख जप करनेवाला साधक मधुमती देवी से स्वयं काम के सदृश पूजित होता है। तदुपरान्त 'श्रीमधुमति स्थावरजंगमान् आकर्षय ठं ठं स्वाहा' यह उच्चारण करें। ऐसा करने से साधक के हाथ में त्रैलोक्याकर्षिणी विद्या सिद्ध हो जाती है ॥ ९७-९९॥

यह मधुमती विद्या नदी, नगर, रत्न, सुवर्ण, स्त्री, पर्वत, वृक्ष, सागर और सुमेरु का भी सरलता से (अपनी ओर) आकृष्ट कर लेती है ॥ १०० ॥

दूर की वस्तु, अलभ्य वस्तु, भूमि के नीचे की वस्तु और स्वर्ग का वृत्तान्त, विद्वानों का रहस्य और राजाओं के रहस्य को भी यथार्थ रूप द्वारा शीघ्रता से प्रकट कर देती है। दूसरे वर्ष पाठ करने से साधना करनेवाले को पद्मावती विद्या सिद्ध हो जाती है॥१०१-१०२॥

पद्मावती विद्या का यह मंत्र है-'ॐ ह्रीं पद्मावति त्रैलोक्यवार्ता कथय कथय स्वाहा ।ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं का वृत्तान्त और तीनों लोकों का वृत्तान्त यह पद्मावती विद्या (स्वयं) बता देती है। पद्मावती विद्या का जप करनेवाला साधक तीनों कालों की ज्ञानी और कवि हो जाता है । हे देवि! तीन वर्षों तक (निरन्तर) कालीसहस्रनाम का पाठ करने से साधक भोगवती कला को प्राप्त कर लेता है। इस कला को प्राप्त करनेवाला मानव का दर्शन करने से ही महाकाल के द्वारा डंसा हुआ मनुष्य और चिता के बीच रखा हुआ पुरुष भी जीवित हो जाता है। इसके साथ ही साथ वह दीर्घजीवी होता है। मृतसञ्जीवनी का यह मंत्र है-''मृतसञ्जीवनी मृतमुत्थापय उत्थापय स्वाहा ।चार वर्षों तक (निरन्तर) कालीसहस्रनाम का पाठ करनेवाले पुरुष को स्वप्नसिद्ध हो जाता है।। १०३-१०७॥

स्वप्नसिद्ध का मन्त्र यह है-'ॐ ह्रीं स्वप्नवाराहि कलिस्वप्ने कथय अमुकस्य अमुकं देहि क्रीं स्वाहा'' ॥१०८॥

चार वर्ष पर्यन्त पाठ करनेवाले मनुष्य के स्वप्न में यह स्वप्नसिद्धा देवी स्थित रहती है । चार वर्षों तक (काली) सहस्रनाम का पाठ करनेवाला (मनुष्य) चारों वेदों का पंडित जाता है । (ऐसे साधक) के हाथ के जल का संयोग होने से मूढ व्यक्ति भी काव्य करनेवाला हो जाता है। उसकी वाणी का श्रवण कर शिला की मूर्ति भी काव्यभाषा बोलने लगती है। माथे पर हाथ रखकर "वाणी वद'' ऐसा उच्चारण करनेवाला साधक जो कहता है,वैसा ही होता है। इस (सम्पूर्ण) ब्रह्माण्ड में और इस संसार में जितनी भी सिद्धियाँ हैं, वे समस्त कालीसहस्रनाम का पाठ करनेवाले साधक को हस्तामलकवत् दिखाई पड़ती है। इतना ही नहीं जितनी भी सिद्धियाँ हैं, वे सभी साधक के स्मरण करते ही उसके समक्ष स्वयं उपस्थित हो जाती है। फिर जप करने की बात की क्या है? विदेश में रहनेवाले उसके सेवक के तुल्य हो जाते हैं और अमावस्या को चन्द्र का दर्शन और चन्द्रग्रहण भी उसे दिखाई पड़ सकता है। काली के भक्त को अष्टमी तिथि को पूर्ण चन्द्रमा और आठों दिशाओं में आठ चन्द्रमा तथा आठ सूर्य भी दिख सकते हैं। अणिमादि सिद्धि, आकाश में किसी बाधा के बिना जाना, सम्पूर्ण चराचर संसार में अव्याहत उसकी गति होती है। । पादुका, खड़ग, वैताल, यक्षिणी, गुह्यकादि ॥१०९-११६॥

तिलक, गुप्तवस्तुओं का प्रत्यक्ष होना, चराचर जगत् का समाचार, मृतसञ्जीवनी सिद्धि, गुटिका, रसायन, उड्डीन सिद्धि, षष्टि सिद्धि, ईशित्व सिद्धि आदि सम्पूर्ण चमत्कारिक गुण उसके वशीभूत हो जाते हैं। इसमें संदेह मत करो, हे पार्वति!॥ ११७-११८॥

ध्वज, दुन्दुभि, वस्त्र, दवा, बिछौना, गृह, भीत, लकड़ी के फलक पर देवी के मंत्रों का लेखन और पूजन (साधक को) करना चाहिए । दशाङ्ग में वर्णित की गई विधि के अनुसार चक्र को बीच में स्थापित करें, फिर उसके चारों ओर अपना नाम लिखें। इस प्रकार के यंत्र को धारण करने से मनुष्य तीनों लोकों में विजयी होता है। इस यंत्र को धारण करनेवाला मनुष्य अकेले ही समर में सैकड़ों, हजारों (योद्धाओं)को हराकर कुशलता से अपने गृह में लौट आता है। वह अकेला ही लोगों को सैंकड़ों अथवा हजारों रूप में दिखाई पड़ता है। यत्नपूर्वक कलश स्थापित कर फिर कालीसहस्रनाम का पाठ करना चाहिए। समस्त विपत्तियों के निवारण के लिए कालीसहस्रनाम का पाठ करते हुए प्रत्येक नाम से जल का छींटा देना चाहिए। यह कालीसहस्रनाम भूत,प्रेत,ग्रह,राक्षस और ब्रह्म राक्षस को भी दूर भगानेवाला है। इसमें संदेह नहीं है कि यह वेताल,भैरव,स्कन्द और विनायकादिकों का भी क्षणभर में विनाश कर देता है।॥ ११९-१२४॥

ग्रहों की बाधा से ग्रसित मनुष्य के शरीर पर कालीसहस्रनाम से भस्म को अभिमंत्रित करके उस भस्म का लेप कर देना चाहिए । मात्र भस्म के प्रक्षेप से सभी (अनिष्टकारी) ग्रह पलायित हो जाते हैं। हे महेश्वरि! कालीसहस्रनाम से अभिमंत्रित मक्खन को (यदि) बन्ध्या स्त्री को खिला दिया जाय, तो वह भी पुत्र उत्पन्न करती है। इसमें संदेह की कोई बात नहीं है। हे शिवे! इस काली के महामंत्र को गले में, बायें हाथ में या योनि में धारण करने से स्त्री बहुत से पुत्रों वाली एवं सौभाग्यशालिनी होती है। समस्त प्रकार सिद्धयों के लिए मनुष्य महाकाली मंत्र को अपने दायें अंग में धारण करें। (ऐसा करने से) वह बलवान्, कीर्तिमान, धन्य और धार्मिक तथा (सभी कार्यों में) सफल होता है॥ १२५१२८॥

"ॐ क्रीं क्रीं दक्षिणकालिके क्रीं स्वाहा" इस मंत्र का दस हजार जप और कालीसहस्रनाम का दस हजार बार पाठ करनेवाला साधक कामिनियों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। (इसके साथ ही साथ) वह आकाश, जल, और पृथ्वी पर निवास करनेवाले समस्त जन्तुओं को आकृष्ट करता है। वशीकरण की इच्छा रखनेवाला साधक ॐ हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणकालिके क्रीं स्वाहा" इस मंत्र का दस हजार बार जप करे॥१२९-१३१॥

(ऐसा करने से) वह उर्वशी को भी अपने वशीभूत कर लेता है, इसमें संदेह नहीं है। क्रीं च दक्षिणकालिके स्वाहा'' इस मंत्र से संपुट लगाकर कालीसहस्रनाम का पाठ करनेवाला साधक तीनों लोकों को भी मारने में समर्थवान् हो जाता है। इस महाविद्या की दीक्षा शुभ दिन में सदाचारयुक्त एवं अच्छे भक्त को ही प्रदत्त करनी चाहिए॥१३२-१३३ ॥

सुविनीत, सुशान्त, जितेन्द्रिय, गुणवान्, भक्त, ज्येष्ठपुत्र, गुरु की भक्ति करनेवाले, वैष्णव, मन, कर्म और वाणी से विशुद्ध, महाकाली को बलि प्रदत्त करनेवाले, वेश्या की पूजन करनेवाले, कुमारी का पूजन करनेवाले, दुर्गा और रुद्र (शिव) के भक्त, महाकाल का जप करनेवाले, अद्वैत सिद्धान्त के अनुयायी, महाकाली के भक्त को भी इस  कालीसहस्रनाम को, जिसे स्वयं महाकाली ने प्रकाशित किया है, प्रदत्त करना चाहिए। हे पार्वति! जो गुरु और देवता के मंत्रों में भेद न मानता हो, वह शिव है, वह गणेश है। जो मन्त्र को सिद्ध करता है, वह साक्षात् शिव है । इसमें (लेशमात्र) संदेह नहीं है। वही शाक्त वैष्णव है, वही सौर है, वही पूर्णरूप से दीक्षित है। कालीसहस्रनाम का उपदेश अयोग्य(व्यक्ति) को नहीं देना चाहिए। ऐसा करने से सिद्धि नहीं होती है॥१३४-१३९॥

वेश्या स्त्री की निन्दा करनेवाले और मदिरा-मांसादि की निन्दा करनेवाले को कभी भी कालीसहस्रनाम स्तोत्र का उपदेश प्रदत्त नहीं करना चाहिए। सुरामुखी महाकाली का स्मरण कर मानव सुरा का आचरण करनेवाला हो जाता है। कवच का मन्त्र यह है - आसां वाग्देवता घोरे परघोरे हूं घोररूपे महाघोरे भीममुखी भीषण्या हेतुर्वामयुगे शिवे क्लीं क्लीं हूं हूं।' इस मंत्र के स्मरण करने मात्र से ही दुष्टों का संहार करनेवाली (भगवती काली) देवी अवतरित हो जाती हैं ॥ १४०-१४५॥

खल को, पराधीन रहनेवाले को, दूसरे की निन्दा करनेवाले को, खल को, दूसरे से विवाह करनेवाले को, काली में आस्था न रखनेवाले को, परदारसेवी को, दुष्ट को यह स्तोत्र प्रदत्त नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा किया जाय तो (उसे) कालीहत्या का पाप लगता है। हमेशा काली में ध्यानमग्न रहनेवाले, काली में भक्ति रखनेवाले कालीभक्त ही धन्य हैं। 'इस कलिकाल में मात्र महाकाली ही श्रेष्ठ है, एवं वर प्रदत्त करनेवाली है। कालीसहस्रनाम के प्रत्येक नाम से बिल्वपत्र और कनैल का पुष्प (काली को) समर्पित कर पूजन करनेवाले साधक को काली वर प्रदत्त करती है ॥ १४६-१४८॥

इस काली सहस्रनाम के प्रत्येक नाम (मंत्र) से महाकाली को कमल पुष्प समर्पित करनेवाले और प्रत्येक नाम से महाकाली के श्रीचक्र का पूजन करनेवाले साधक को भी महाकाली वर प्रदत्त करती हैं। सावधान होकर मंत्र का पाठ करनेवाला साधक कलश के जल से महाकाली के प्रत्येक नाम से यदि जल का छींटा दें, तो उसकी समस्त विपात्तयादूर हो जाती हैं। दमनक के एक हजार पत्ते से काली के हजार नाम द्वारा पूजन करने से (साधक) काली से वर प्राप्त करता है। काली का भक्त महाचक्र लिखकर (यदि) अपने शरीर में धारण करे या किसी (पत्र) पर लिखकर उसे खाये तो महाकाली उसे वर देनेवाली हो जाती है ॥ १४९-१५२ ॥

इस प्रकार की साधना करनेवाला साधक दिव्य शरीर को धारण कर काली के शरीर में स्थिर हो जाता है। महाकाली की भर्त्सना करनेवाले दुष्टों को देखकर भैरव और योगिनियाँ (उनके) रक्तपान करने की इच्छा से नाचने लगती हैं और उनके मांस, अस्थि और उनके चमड़े को भी खा जाती हैं, इसमें संदेह नहीं है । अतः महाकाली की कभी भी मन, वचन तथा कर्म से निन्दा नहीं करनी चाहिए। जो निन्दा करते हैं उनका विनाश निश्चित है। क्रमानुसार दीक्षा लेनेवाले को ही सिद्धि प्राप्त होती है, अन्य को नहीं। जो क्रम से दीक्षा नहीं लेते, उनका मन सिद्ध नहीं होता है। वह अल्पायु हो जाते हैं अर्थात् कम आयु में मर जाते हैं ॥१५३-१५६॥

क्रमानुसार दीक्षा न लेनेवाले पुरुष की धर्मपत्नी, पुत्र और राज्य का विनाश हो जाता है। परन्तु क्रमानुसार दीक्षा लेनेवाला साधक पुत्र, स्त्री और राज्य को भी प्राप्त कर लेता है। जो कालीसहस्रनाम का प्रतिदिन एक बार पाठ करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते है। दो बार प्रतिदिन पाठ करनेवाले की सम्पूर्ण इच्छाएं पूर्ण होती हैं । प्रतिदिन तीन बार पाठ करनेवाला साधक बृहस्पति (देवता) के तुल्य विदग्ध होता है। नित्य (चार बार) पाठ करनेवाला (साधक) चारों वर्णों का स्वामी हो जाता है॥१५७-१५९॥

पाँच बार नित्य पाठ करनेवाला साधक पञ्चज्ञानेन्द्रियों के काम रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दरूपी पाँचों कामनाओं को प्राप्त करता है । (नित्य) छ: बार पाठ करनेवाला साधक ज्ञान-वैराग्यादि छहों ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेता है। नित्य सात बार पाठ करनेवाला सातों कामनाओं से चिन्तित वस्तु को प्राप्त करता है। नित्य आठ बार पाठ करनेवाला साधक आठों दिशाओं का स्वामी हो जाता है। हे देवि! जो (साधक प्रतिदिन) नौ बार पाठ करता है, वह गोरखनाथ आदि नौ नाथों के तुल्य हो जाता है। जो (साधक) प्रतिदिन दस बार पाठ करता है, वह आकाश में दसों दिशाओं में चलनेवाला हो जाता है। जो (साधक प्रतिदिन) बीस बार पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त हो जाते हैं। जो (साधक प्रतिदिन) पच्चीस बार पाठ करते हैं, उनकी समस्त चिन्ताएँ नष्ट हो जाती हैं ॥ १६०-१६३)

जो (साधक प्रतिदिन) पचास बार पाठ करते हैं, वह पञ्चभूत के ईश्वर हो जाते हैं । जो (साधक प्रतिदिन) सौ बार पाठ करते हैं, वह शतानन के सदृश बुद्धिमान् होते हैं। जो (साधक प्रतिदिन) एक सौ पाँच बार पाठ करते हैं, वह राजराजेश्वर हो जाते हैं। जो (साधक प्रतिदिन) एक हजार बार पाठ करते हैं, (ऐसे साधक का) लक्ष्मी स्वयं वरण कर लेती है। तीन हजार बार पाठ करने से (साधक) त्रिनयन के तुल्य हो जाता है। पाँच हजार बार पाठ करने से (साधक) कामकोटि को भी मोहित कर लेता है॥१६४-१६६॥

दस हजार बार पाठ करने से (साधक) दशमुखेश्वर हो जाता है। चौबीस हजार पाठ करने से (साधक को) चौबीस सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । एक लाख बार पाठ करन से (साधक) लक्ष्मीपति के सदृश हो जाता है। तीन लाख बार पाठ करनेवाला शिव को भी जीत लेता है। पाँच लाख बार पाठ करनेवाले (साधक) को पाँच कलाओं की  प्राप्ति होती है। दस लाख बार पाठ करने से दस महाविद्याओं की प्राप्ति हो जाती है। पच्चीस लाख बार पाठ करने से (साधक) दस विद्याओं का स्वामी हो जाता है। पचास लाख बार पाठ करनेवाले (साधक) को महाकाल की समता प्राप्त हो जाती है॥१६७-१७०॥

जो साधक अर्थात् पुरुष एक करोड़ बार पाठ करता है, वह महाकाली को (प्रत्यक्षरूप से) अपनी आँखों के द्वारा देखता है । स्वयं काली उसे वरदान देने की मुद्रा में महाकाल के साथ उसके समक्ष प्रगट होती है। ऐसा पुरुष श्रीविद्या, कालिका, तारा आदि तीनों शक्तियों पर विजय प्राप्त करता है और इन्हें वह अपनी देह में प्रत्यक्षरूप से देखता है। (ऐसा) वह पुरुष ब्रह्मा के लिखे हुए लेख को भी मिटा सकता है और वह किसी देवता का किंकर नहीं रहता है । वह स्वयं राजा के पद को प्राप्त करता है, इसमें संदेह नहीं है ॥ १७१-१७३॥

महादेव जी पार्वती से बोले-हे देवि! त्रिशक्ति की उपासना में क्रमपूर्वक दीक्षा आवश्यक है, जो क्रमानुसार दीक्षा प्राप्त करते हैं, वह बिना किसी संदेह के राजा हो जाते हैं। जो क्रमानुसार दीक्षा नहीं लेते हैं, उसका फल हम पूर्व में ही कह आए हैं। परन्तु क्रमानुसार दीक्षा लेनेवाला पुरुष शिव के तुल्य ही है। इसमें संदेह नहीं करना चाहिए । क्रमानुसार दीक्षा लेनेवाला साधक ही काली को सिद्ध करने में समर्थ होता है। यह वचन (भगवती) काली का है, किन्तु जो क्रमानुसार दीक्षा नहीं लेते हैं, उन्हें पगपग पर सिद्धि की हानि प्राप्त होती है। क्रमानुसार दीक्षा लेनेवाला पुरुष ही इस कलिकाल के मानवों में सर्वश्रेष्ठ है। उसमें कालीसहस्रनाम का पाठ करनेवाला तो धन्य (पूज्य) है॥१७४-१७७॥

हे पार्वति! काली के सन्निधान में दस बार (कालीसहस्रनाम) का पाठ करनेवाला साधक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, इसमें संदेह मत करो । काली, कालीमहाविद्या कलियुग में सिद्धि प्रदत्त करनेवाली है। (इस) कलिकाल में काली ही सिद्ध है और वर प्रदत्त करनेवाली है। कलियुग में एक (मात्र) काली ही अपने साधक को दर्शन देने के लिए तत्पर रहती है। कलियुग में मात्र काली ही विद्यामान हैं, इसमें संदेह नहीं है। इस कलियुग में और महाविद्यायें सिद्धि प्रदान नहीं करती हैं, यह मैं तीन बार शक्ति का उच्चारण करके कह रहा हूँ। कलियुग में काली का परित्याग करके जो सिद्धि चाहता है, मानो वह शक्ति के बिना ही रति, सम्भोग का सुख चाह रहा है। इस कलियुग में काली का परित्याग कर जो सिद्धि चाहता है, वह नीलमणि का परित्याग करके व्यर्थ ही भ्रमवश इधर-उधर दौड़ रहा है। जो काली को छोड़कर मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, ऐसा साधक गुरुध्यान का परित्याग करके सिद्धि चाहता है। कलियुग में काली का परित्याग कर जो राज्य चाहता है, वह भोजन का परित्याग कर भिक्षावृत्ति ही करना चाहता है । इस कलियुग में वही धन्य है, वही ज्ञानी है, वही देवपूजित है ॥ १७८-१८५ ॥

वही दीक्षित होते हुए सुखी है, वही साधु है, वही सत्यवादी एवं वही जितेन्द्रिय है, वही वेद को बोलनेवाला एवं स्वाध्यायी है, इसमें विशेष विचार की आवश्यकता नहीं है। जो साधक शिवरूप गरु का ध्यान और शिवरूप गुरु का स्मरण करते हुए महाकाली का आराधना करता है, वही सदाशिव है, इसमें संदेह नहीं है। अपने में ही काली को मानकर जगदम्बा की पूजा करनी चाहिए। ऐसा साधक तीनों लोक में विजयी होता है, इसम भी संदेह नहीं है । प्रयत्नपूर्वक इस कालीसहस्रनाम' को गोपनीय रखना चाहिए। (क्योंकि) यह सभी रहस्यों का रहस्य है और सम्पूर्ण रहस्यों का अतिक्रमण करने वाला है। कालीसहस्रनाम के अर्ध श्लोक या अर्ध पाठ या चरण के अर्ध का अर्ध और उसका भी अर्ध एवं उसके भी अर्ध का जो पाठ करता है, उसका दिन सफल होता है । हे देवि! सद्यः फलप्राप्ति के लिए इस सहस्रनाम पुस्तक की पूजा करनी अत्यावश्यक है। जहाँ इसकी पूजा होती है, वहाँ महामारी का भय नहीं होता है, न अग्नि का, न वायु का भय रहता है। वहाँ भूतादि का भय नहीं रहता तथा सभी जगह सुख का वातावरण रहता है। कुमकुमादि राग, अलक्तकादि श्रृंगार दूर्वा, हरिद्रा और अगुरु से (इस कालीसहस्रनाम) पुस्तक की पूजा करनी चाहिए ॥ १९२ ॥

समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिए भोजपत्र पर (इस कालीसहस्रनाम) की पुस्तक का लेखन करना चाहिए । हे पार्वति! इस प्रकार मैंने वर्ण के रूप में स्थित (रहनेवाली) भगवती काली के सम्पूर्ण सहस्र नामों को मैंने तुमसे कहा, जो कोई भक्ति-भाव से इस (काली सहस्रनाम) का पाठ करेगा, वह सर्वसिद्धीश्वर हो जायेगा। उनको उत्तम से उत्तम अनेकानेक प्रकार के सुखों की प्राप्ति होगी। सभी विद्याओं में वे पारंगत होंगे, वे पुत्रपौत्रादि और समृद्धि से युक्त होकर सम्पूर्ण प्रकार की सिद्धि प्राप्त करेंगे । (हे पार्वति.) यह सब मैंने तुमसे संक्षिप्त रूप से कहा है, अब और क्या श्रवण करना चाहती हो? ॥१९३-१९५॥

इति श्रीककरादिकालीसहस्रनामस्तोत्रम् ककारादिकालीसहस्रनामावलिः समाप्तम् ॥

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