पंचक

पंचक 

पांच नक्षत्रों के समूह को पंचक कहते हैं। भारतीय वैदिक ज्योतिष के अनुसार जब चन्द्रमा 27 नक्षत्रों में से अंतिम पांच नक्षत्रों अर्थात धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, एवं रेवती में होता है तो उस अवधि को पंचक कहा जाता है। दूसरे शब्दों में जब चन्द्रमा कुंभ और मीन राशि पर रहता है तब उस समय को पंचक कहते हैं। क्योंकि चन्द्रमा 27 दिनों में इन सभी नक्षत्रों का भोग कर लेता है। अत: हर महीने में लगभग 27 दिनों के अन्तराल पर पंचक नक्षत्र आते ही रहते हैं।

पंचक के दौरान किसी शव का अन्त्येष्टि संस्कार (अंतिम संस्कार) करने की मनाही की गई है क्योकि ऐसा माना जाता है कि पंचक में शव का अन्तिम संस्कार करने से उस कुटुंब या गांव में पांच लोगों की मृत्यु हो सकती है। अत: शांतिकर्म कराने के पश्चात ही अंतिम संस्कार करने की सलाह दी गई है।

पंचक

पंचक शान्ति- पुत्तल दहन

शव दाह एक आवश्यक काम है लेकिन पंचक काल होने पर शव दाह करते समय पाँच अलग पुतले बनाकर उन्हें भी अवश्य जलाएं। पंचक में मृत्यु होने पर शव पर पांच पुतले रखे जाते हैं और पंचक दोषों का शांति विधान किया जाता है।

पंचक शान्ति- पुत्तल दहन


(पंचक घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती नक्षत्र में मरने पर पुत्तलविधान कथन)

पञ्चकमरणशान्तिः-पञ्चके मृतस्य पञ्चकानन्तरं दाहे एकादशे सपिण्डी-करणानन्तरं त्रयोदशेऽहनि वा पुण्याहं वाचयित्वा मध्ये होमवेदिं निर्माय तदीशाने कलशे ग्रहान् सम्पूज्याग्नि संस्थाप्य कलशादुत्तरतश्चतुदिक्षु मध्ये पञ्चकलशेषु पञ्चसौवर्णीषु धनिष्ठादिनक्षत्रप्रतिमासु तदधिष्ठातृदेवान् तृदेवान् वसु-वरण-अजैकपत्अहिर्बुध्य-पूष्णः सम्पूज्य तत्पार्श्वे यमान् मृत्युञ्जयं च सम्पूज्य पञ्चसु कलशेषु 'कृणुष्वपाजः' (१३।९-१२) बिभ्राट् (३३।३०४३) आशुः (१७ । ३३-४९) नमस्ते (१६-६३) ऋचंवाचम् (१-२४) इति सूक्तपञ्चकजपार्थे पञ्चब्राह्मणान् एकं वा वृत्वाऽग्नि संस्थाप्य समिच्चरुतिलैः प्रत्येकं प्रतिद्रव्यं १०८, २८, ८ वा हुत्वा षड् ब्राह्मणान् संभोज्य यजमानमभिषिञ्चेत् । इयं शान्तिः पञ्चकशान्तिरित्युच्यते । पञ्चकात्पूर्व मृतस्य पञ्चके दाहप्राप्तौ पुत्तलविधिरेव, न शान्तिकम्। पञ्चके मृतस्य पञ्चकानन्तरं दाहे शान्तिकमेव, न पुत्तलविधिरिति विवेको धर्मसिन्धौ। पञ्चके मृतस्य पञ्चके दाहे उभयमिति सांप्रदायिकाः।

पञ्चकशान्तिविधिः

पंचक में यदि मनुष्य की मृत्यु हुई हो तो गोदान, पुत्तल पूजन होता है। जिसका क्रम इस प्रकार से है- सबसे पहले जौ के आटे में काला तिल मिलाकर या कुश से पांच पुत्तलों का निर्माण करे उसके ऊपर जौ के आटे का अनुलेपन करें। अब दाह करनेवाला अपसव्य होकर बैठे अपने दायें हाथ में कुशा, तिल, जल लेकर यह संकल्प करे-

ॐ अद्य अमुकगोत्रस्य अमुकनामप्रेतस्य घनिष्ठादि-पंचक-नक्षत्रान्तर्गत-(अमुकनक्षत्रे)-प्राणवियोगोत्तरसूचितवंशारिष्टनिवृत्यर्थं दुर्मरणजनितदोषपरिहारार्थं च कृच्छत्रयप्रायश्चित्तपूर्वकपुत्तलकर्म करिष्ये।।

संकल्प की समप्ति के पश्चात् जल भूमि पर छोड़ दे। जौ के आटे में काला तिल मिलाकर या कुश से पांच पुत्तलों का निर्माण करे उसके ऊपर जौ के आटे का अनुलेपन करें और उनका आवाहन निम्न क्रम से करे-

प्रथम-सिर वाले पुत्तल पर तिल छोड़े-ॐ घनिष्ठानक्षत्राधिष्ठातः प्रेतवाह स इहागच्छ।

द्वितीय-दाहिनी कुक्षि वाले पुत्तल पर तिल छोड़े- शतभिषानक्षत्राधिष्ठातः प्रेत इहागच्छ।

तृतीय-बायीं कुक्षिवाले पुत्तल पर तिल छोड़े-पूर्वाभाद्रपदनक्षत्राधिष्ठातः प्रेतप इहागच्छ।

चतुर्थ-नाभि के पास वाले पुत्तल पर तिल छोड़े-उत्तराभाद्रपादनक्षत्राधिष्ठातः प्रेतभूमिप इहागच्छ।

पंचम-पैर के बीच वाले पुत्तल पर तिल छोड़े-रेवतीनक्षत्राधिष्ठातः प्रेतहतः इहागच्छ।

अब पुनः हाथ में कुश,जौ,तिल व जल लेकर निम्न संकल्प करें-

"ॐ अद्य अमुकगोत्रस्य अमुकस्य पंचकमरणजनितवंशानिष्टपरिहारार्थ पंचकविधि करिष्ये।"

इस प्रकार संकल्प कर मन्त्रों से या नाममन्त्रों से पुत्तलों का पूजन करें-

प्रेतवाहनाय नमः॥  प्रेतसर्वाय नमः॥  प्रेतपाय नमः॥  प्रेतभूमिपाय नमः॥  प्रेतहर्ते नमः॥

गन्धादि द्वारा अर्चन कर मृतप्रेत के ऊपर क्रम से प्रथम सिर में, दूसरी नेत्रों में, तीसरी बायें कुक्षी में, चतुर्थ को नाभि में और पाँचवीं को पैरों पर रखकर पूर्वोक्त नाममन्त्रों से ही स्थापनक्रम से घृताहुति देकर दाहकर्ता अग्नि प्रदान करे।

पंचक के पहले मरने पर पंचक में दाह करे तो पुत्तलविधान ही करे । शान्ति न करे। पंचक में मरने पर पंचक के बाद दाह करने पर शान्ति का ही विधान है, पुत्तल की विधि नहीं प्राप्त है। ऐसा धर्मसिन्धु में लिखा है।

पंचक शान्ति समाप्त ।

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