गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय १

गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय १

गरुडपुराण-सारोद्धार (प्रेतकल्प) में आपने इससे पूर्व में प्रेतकल्प की महिमा, पढ़ने या सुनाने व पूजन विधि को विषय प्रवेश के रूप में पढ़ा। अब आगे इस गंथ के मूल पाठ को भावार्थ सहित क्रमशः पढेंगे यहाँ सर्वप्रथम गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय १ को दिया जा रहा है, जिसमें की भगवान् विष्णु तथा गरुड के संवाद में गरुडपुराण-सारोद्धार का उपक्रम, पापी मनुष्यों की इस लोक तथा परलोक में होनेवाली दुर्गति का वर्णन, दशगात्र के पिण्डदान से यातना देह का निर्माण का वर्णन किया गया है।

गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय १

गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय १- मूल पाठ

धर्मदृढबद्धमूलो वेदस्कन्धः पुराणशाखाढ्यः । क्रतुकुसुमो मोक्षफलो मधुसूदनपादपो जयति॥१॥

नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत॥२॥

एकदा मुनयः सर्वे प्रातर्तुतहुताग्नयः । सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात्॥३॥

ऋषय ऊचुः कथितो भवता सम्यग्देवमार्गः सुखप्रदः। इदानीं श्रोतुमिच्छामो यममार्ग भयप्रदम्॥४॥

तथा संसारदुःखानि तत्क्लेशक्षयसाधनम् । ऐहिकामुष्मिकान् क्लेशान् यथावद्वक्तुमर्हसि॥५॥

सूत उवाच शृणुध्वं भो विवक्ष्यामि यममार्ग सुदुर्गमम् । सुखदं पुण्यशीलानां पापिनां दुःखदायकम्॥६॥

यथा श्रीविष्णुना प्रोक्तं वैनतेयाय पृच्छते । तथैव कथयिष्यामि संदेहच्छेदनाय वः॥७॥

कदाचित् सुखमासीनं वैकुण्ठं श्रीहरिं गुरुम् । विनयावनतो भूत्वा पप्रच्छ विनतासुतः॥८॥

गरुड उवाच भक्तिमार्गो बहुविधः कथितो भवता मम । तथा च कथिता देव भक्तानां गतिरुत्तमा॥ ९ ॥

अधुना श्रोतुमिच्छामि यममार्गं भयंकरम् । त्वद्भक्तिविमुखानां च तत्रैव गमनं श्रुतम्॥१०॥

सुगमं भगवन्नाम जिह्वा च वशवर्तिनी । तथापि नरकं यान्ति धिग् धिगस्तु नराधमान्॥११॥

अतो मे भगवन् ब्रूहि पापिनां या गतिर्भवेत् । यममार्गस्य दुःखानि यथा ते प्राप्नुवन्ति हि॥१२॥

श्रीभगवानुवाच वक्ष्येऽहं शृणु पक्षीन्द्र यममार्गं च येन ये । नरके पापिनो यान्ति शृण्वतामपि भीतिदम्॥१३॥

ये हि पापरतास्तार्क्ष्य दयाधर्मविवर्जिताः । दुष्टसङ्गाश्च सच्छास्त्रसत्संगतिपराङ्मुखाः॥१४॥

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । आसुरं भावमापन्ना दैवीसम्पद्विवर्जिताः॥१५॥

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः। प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥१६॥

ये नरा ज्ञानशीलाश्च ते यान्ति परमां गतिम् । पापशीला नरा यान्ति दुःखेन यमयातनाम्॥१७॥

पापिनामैहिकं दुःखं यथा भवति तच्छृणु । ततस्ते मरणं प्राप्य यथा गच्छन्ति यातनाम्॥१८॥

सुकृतं दुष्कृतं वाऽपि भुक्त्वा पूर्वं यथार्जितम् । कर्मयोगात् तदा तस्य कश्चिद् व्याधिः प्रजायते॥१९॥

आधिव्याधिसमायुक्तं जीविताशासमुत्सुकम् । कालो बलीयानहिवदज्ञातः प्रतिपद्यते॥२०॥

तत्राप्यजातनिर्वेदो म्रियमाणः स्वयम्भृतैः । जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ॥२१॥

आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल इवाहरन् । आमयाव्यप्रदीप्ताग्निरल्पाहारोऽल्पचेष्टितः॥२२॥

वायुनोत्क्रमतोत्तारः कफसंरुद्धनाडिकः । कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते॥२३॥

शयानः परिशोचद्भिः परिवीतः स्वबन्धुभिः । वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशंगतः॥२४॥

एवं कुटुम्बभरणे व्यापृतात्माऽजितेन्द्रियः। म्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयास्तधीः ॥२५॥

तस्मिन्नन्तक्षणे ताशें दैवी दृष्टिः प्रजायते । एकीभूतं जगत्सर्वं न किंचिद्वक्तुमीहते॥२६॥

विकलेन्द्रियसंघाते चैतन्ये जडतां गते । प्रचलन्ति ततः प्राणा याम्यैर्निकटवर्तिभिः॥२७॥

स्वस्थानाच्चलिते श्वासे कल्पाख्यो ह्यातुरक्षणः। शतवृश्चिकदंष्ट्रस्य या पीडा साऽनुभूयते॥२८॥

फेनमुगिरते सोऽथ मुखं लालाकुलं भवेत् । अधोद्वारेण गच्छन्ति पापिनां प्राणवायवः॥२९॥

यमदूतौ तदा प्राप्तौ भीमौ सरभसेक्षणौ । पाशदण्डधरौ नग्नौ दन्तैः कटकटायितौ॥३०॥

ऊर्ध्वकेशौ काककृष्णौ वक्रतुण्डौ नखायुधौ । स दृष्ट्वा त्रस्तहृदयः सकृन्मूत्रं विमुञ्चति॥३१॥

अगुष्ठमात्रः पुरुषो हाहा कुर्वन् कलेवरात् । तदैव गृह्यते दूतैर्याम्यैः पश्यन् स्वकं गृहम्॥३२॥

यातनादेहमावृत्य पाशैर्बद्ध्वा गले बलात् । नयतो दीर्घमध्वानं दण्ड्यं राजभटा यथा॥३३॥

तस्यैवं नीयमानस्य दूताः संतर्जयन्ति च । प्रवदन्ति भयं तीव्र नरकाणां पुनः पुनः॥३४॥

शीघ्रं प्रचल दुष्टात्मन् यास्यसि त्वं यमालयम्। कुम्भीपाकादिनरकांस्त्वां नयावोऽद्य मा चिरम् ॥३५॥

एवं वाचस्तदा श्रृण्वन् बन्धूनां रुदितं तथा । उच्चैर्हाहेति विलपंस्ताड्यते यमकिङ्करैः॥ ३६॥

तयोर्निर्भिन्नहृदयस्तर्जनैर्जातवेपथुः । पथि श्वभिर्भक्ष्यमाण आर्तोऽघं स्वमनुस्मरन्॥ ३७॥

क्षुत्तृट्परीतोऽर्कदवानलानिलैः संतप्यमानः पथि तप्तबालुके।

कृच्छ्रेण पृष्ठे कशया च ताडितश्चलत्यशक्तोऽपि निराश्रमोदके ॥ ३८॥

तत्र तत्र पतञ्छ्रान्तो मूर्च्छितः पुनरुत्थितः। यथा पापीयसा नीतस्तमसा यमसादनम्॥३९॥

त्रिभिर्मुहूर्तेभ्यां वा नीयते तत्र मानवः। प्रदर्शयन्ति दूतास्ता घोरा नरकयातनाः॥४०॥

मुहूर्तमात्रात् त्वरितं यमं वीक्ष्य भयं पुमान् । यमाज्ञया समं दूतैः पुनरायाति खेचरः॥४१॥

आगम्य वासनाबद्धो देहमिच्छन् यमानुगैः। धृतः पाशेन रुदति क्षुत्तृड्भ्यां परिपीडितः॥४२॥

भुङ्क्ते पिण्डं सुतैर्दत्तं दानं चातुरकालिकम् । तथापि नास्तिकस्ताय तृप्तिं याति न पातकी॥४३॥

पापिनां नोपतिष्ठन्ति दानं श्राद्धं जलाञ्जलिः । अतः क्षुद्व्याकुला यान्ति पिण्डदानभुजोऽपि ते॥४४॥

भवन्ति प्रेतरूपास्ते पिण्डदानविवर्जिताः । आकल्पं निर्जनारण्ये भ्रमन्ति बहुदुःखिताः॥४५॥

नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अभुक्त्वा यातनां जन्तुर्मानुष्यं लभते न हि॥४६॥

अतो दद्यात् सुतः पिण्डान् दिनेषु दशसु द्विज । प्रत्यहं ते विभाज्यन्ते चतुर्भागैः खगोत्तम॥४७॥

भागद्वयं तु देहस्य पुष्टिदं भूतपञ्चके । तृतीयं यमदूतानां चतुर्थं सोपजीवति॥४८॥

अहोरात्रैश्च नवभिः प्रेतः पिण्डमवाप्नुयात् । जन्तुनिष्पन्नदेहश्च दशमे बलमाप्नुयात्॥४९॥

दग्धे देहे पुनर्देहः पिण्डैरुत्पद्यते खग । हस्तामात्रः पुमान् येन पथि भुंक्ते शुभाशुभम्॥५०॥

प्रथमेऽहनि यः पिण्डस्तेन मूर्धा प्रजायते । ग्रीवास्कन्धौ द्वितीयेन तृतीयाद्धृदयं भवेत्॥५१॥

चतुर्थेन भवेत् पृष्ठं पञ्चमान्नाभिरेव च । षष्ठे च सप्तमे चैव कटी गुह्यं प्रजायते॥५२॥

ऊरुश्चाष्टमे चैव जान्वङ्ग्री नवमे तथा । नवभिर्देहमासाद्य दशमेऽह्नि क्षुधा तृषा॥५३॥

पिण्डजं देहमाश्रित्य क्षुधाविष्टस्तृषार्दितः। एकादशं द्वादशं च प्रेतो भुङ्क्ते दिनद्वयम्॥५४॥

त्रयोदशेऽहनि प्रेतो यन्त्रितो यमकिङ्करैः। तस्मिन् मार्गे व्रजत्येको गृहीत इव मर्कटः॥५५॥

षडशीतिसहस्राणि योजनानां प्रमाणतः । यममार्गस्य विस्तारो विना वैतरणी खग॥५६॥

अहन्यहनि वै प्रेतो योजनानां शतद्वयम् । चत्वारिंशत् तथा सप्त दिवारात्रेण गच्छति॥५७॥

अतीत्य क्रमशो मार्गे पुराणीमानि षोडश। प्रयाति धर्मराजस्य भवनं पातकी जनः॥५८॥

सौम्यं सौरिपुर नगेन्द्रभवनं गन्धर्वशैलागमौ क्रौञ्चं क्रूरपुरं विचित्रभवनं बह्वापदं दुःखदम्।

नानाक्रन्दपुरं सुतप्तभवनं रौद्रं पयोवर्षणं शीताढ्यं बहुभीति धर्मभवनं याम्यं पुरं चाग्रतः॥५९॥

याम्यपाशैभृतः पापी हाहेति प्ररुदन् पथि । स्वगृहं तु परित्यज्य पुरं याम्यमनुव्रजेत्॥६०॥

इति गरुडपुराणे सारोद्धारे पापिनामैहिकामुष्मिकदुःखनिरूपणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

 

गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय १-भावार्थ

धर्म ही जिसका सुदृढ़ मूल है, वेद जिसका स्कन्ध(तना) है, पुराण रूपी शाखाओं से जो समृद्ध है, यज्ञ जिसका पुष्प है और मोक्ष जिसका फल है, ऎसे भगवान मधुसूदन रूपी पादप – (जैसे वृक्ष सबको आश्रय देता है, वैसे ही भगवान भी अपने चरणारविन्द में आश्रय देकर सबकी रक्षा करते हैं इसीलिए भगवान मधूसूदन को यहां पादप वृक्ष की उपमा दी गई है) कल्पवृक्ष की जय हो। देव क्षेत्र नैमिषारण्य में स्वर्ग लोक की प्राप्ति की कामना से शौनकादि ऋषियों ने एक बार सहस्त्रवर्ष में पूर्ण होने वाला यज्ञ प्रारम्भ किया।

एक समय प्रात:काल के हवनादि कृत्यों का सम्पादन कर के उन सभी मुनियों ने सत्कार किए गये आसनासीन सूत जी महाराज से आदरपूर्वक यह पूछा

ऋषियों ने कहा हे सूत जी महाराज्! आपने सुख देने वाले देवमार्ग का सम्यक निरूपण किया है। इस समय हम लोग भयावह यममार्ग के विषय में सुनना चाहते हैं। आप सांसारिक दुखों को और उस क्लेश के विनाशक साधन को तथा इस लोक और परलोक के क्लेशों को यथावत वर्णन करमें समर्थ है, अत: उस का वर्णन कीजिए।

सूतजी बोले हे मुनियों! आप लोग सुनें! मैं अत्यन्त दुर्गम यममार्ग के विषय में कहता हूँ, जो पुण्यात्मा जनों के लिए सुखद और पापियों के लिए दु:खद है। गरुड़ जी के पूछने पर भगवान विष्णु ने उनसे जैसा कुछ कहा था, मैं उसी प्रकार आप लोगों के संदेह की निवृत्ति के लिए कहूँगा। किसी समय वैकुण्ठ में सुखपूर्वक विराजमान परम गुरु श्रीहरि से विनतापुत्र गरुड़ जी ने विनय से झुककर पूछा

गरुड़ जी ने कहा हे देव! आपने भक्ति मार्ग का अनेक प्रकार से मेरे समक्ष वर्णन किया है और भक्तों को प्राप्त होने वाली उत्तम गति के विषय में भी कहा है। अब हम भयंकर यम मार्ग के विषय में सुनना चाहते हैं। हमने सुना है कि आपकी भक्ति से विमुख प्राणी वहीं नरक में जाते हैं। भगवान का नाम सुगमतापूर्वक लिया जा सकता है, जिह्वा प्राणी के अपने वश में है तो भी लोग नरक में जाते हैं, ऎसे अधम मनुष्यों को बार-बार धिक्कार है। इसलिए हे भगवान! पापियों को जो गति प्राप्त होती है तथा यम मार्ग में जैसे वे अनेक प्रकार के दु:ख प्राप्त करते हैं, उसे आप मुझसे कहें।

श्रीभगवान बोले हे पक्षीन्द्र! सुनो, मैं उस यममार्ग के विषय में कहता हूँ, जिस मार्ग से पापीजन नरक की यात्रा करते हैं और जो सुनने वालों के लिये भी भयावह है।

हे तार्क्ष्य! जो प्राणी सदा पाप परायण है, दया और धर्म से रहित हैं, जो दुष्ट लोगों की संगति में रहते हैं, सत्-शास्त्र और सत्संगति से विमुख है, जो अपने को स्वयं प्रतिष्ठित मानते हैं, अहंकारी हैं तथा धन और मान के मद से चूर हैं, आसुरी शक्ति को प्राप्त हैं तथा दैवी सम्पत्ति से रहित हैं, जिनका चित्त अनेक विषयों में आसक्त होने से भ्रान्त हैं, जो मोह के जाल में फंसे हैं और कामनाओं के भोग में ही लगे हैं, ऎसे व्यक्ति अपवित्र नरक में गिरते हैं. जो लोग ज्ञानशील हैं, वे परम गति को प्राप्त होते हैं। पापी मनुष्य दु:खपूर्वक यम यातना प्राप्त करते हैं। पापियों को इस लोक में जैसे दु:ख की प्राप्ति होती है और मृत्यु के पश्चात वे जैसी यम यातना को प्राप्त होते हैं, उसे सुनो।

यथोपार्जित पुण्य और पाप के फलों को पूर्व में भोगकर कर्म के सम्बन्ध से उसे कोई शारीरिक रोग हो जाता है। आधि (मानसिक रोग) और व्याधि (शारीरिक रोग) से युक्त तथा जीवन धारण करने की आशा से उत्कण्ठित उस व्यक्ति की जानकारी के बिना ही सर्प की भाँति बलवान काल उसके समीप आ पहुँचता है। उस मृत्यु की सम्प्राप्ति की स्थिति में भी उसे वैराग्य नहीं होता. उसने जिनका भरण-पोषण किया था, उन्हीं के द्वारा उसका भरण-पोषण होता है, वृद्धावस्था के कारण विकृत रूप वाला और मरणाभिमुख वह व्यक्ति घर में अवमाननापूर्वक दी हुई वस्तुओं को कुत्ते की भाँति खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है।

वह रोगी हो जाता है, उसे मन्दाग्नि हो जाती है और उसका आहार तथा उसकी सभी चेष्टाएँ कम हो जाती हैं। प्राण वायु के बाहर निकलते समय आँखें उलट जाती हैं, नाड़ियाँ कफ से रुक जाती हैं, उसे खाँसी और श्वास लेने में प्रयत्न करना पड़ता है तथा कण्ठ से घुर-घुर से शब्द निकलने लगते हैं।

चिन्तामग्न स्वजनों से घिरा हुआ तथा सोया हुआ वह व्यक्ति कालपाश के वशीभूत होने के कारण बुलाने पर भी नहीं बोलता। इस प्रकार कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही निरन्तर लगा रहने वाला, अजितेन्द्रिय व्यक्ति अन्त में रोते बिलखते बन्धु-बान्धवों के बीच उत्कट वेदना से संज्ञाशून्य होकर मर जाता है। हे गरुड़ ! उस अन्तिम क्षण में प्राणी को व्यापक दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे वह लोक-परलोक को एकत्र देखने लगता है। अत: चकित होकर वह कुछ भी नहीं कहना चाहता। यमदूतों के समीप आने पर भी सभी इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं, चेतना जड़ीभूत हो जाती है और प्राण चलायमान हो जाते हैं।

आतुरकाल में प्राण वायु के अपने स्थान से चल देने पर एक क्षण भी एक कल्प के समान प्रतीत होता है और सौ बिच्छुओं के डंक मारने जैसी पीड़ा होती है, वैसी पीड़ा का उस समय उसे अनुभव होने लगता है। वह मरणासन व्यक्ति फेन उगलने लगता है और उसका मुख लार से भर जाता है। पापीजनों के प्राणवायु अधोद्वार (गुदामार्ग) से निकलते हैं।

उस समय दोनों हाथों में पाश और दण्ड धारण किये, नग्न, दाँतों को कटकटाते हुए क्रोधपूर्ण नेत्र वाले यम के दो भयंकर दूत समीप में आते हैं। उनके केश ऊपर की ओर उठे होते हैं, वे कौए के समान काले होते हैं और टेढ़े मुख वाले होते हैं तथा उनके नख आयुध की भाँति होते हैं। उन्हें देखकर भयभीत हृदयवाला वह मरणासन्न प्राणी मल-मूत्र का विसर्जन करने लगता है। अपने पाँच भौतिक शरीर से हाय-हाय करते हुए निकलता हुआ तथा यमदूतों के द्वारा पकड़ा हुआ वह अंगुष्ठ मात्र प्रमाण का पुरुष अपने घर को देखता हुआ यमदूतों के द्वारा यातना देह से ढक कर के गले में बलपूर्वक पाशों से बाँधकर सुदूर यममार्ग यातना के लिए उसी प्रकार ले जाया जाता है, जिस प्रकार राजपुरुष दण्डनीय अपराधी को ले जाते हैं। इस प्रकार ले जाये जाते हुए उस जीव को यम के दूत तर्जना कर के डराते हैं और नरकों के तीव्र भय का पुन: पुन: वर्णन करते हैं – (सुनाते हैं)।

यमदूत कहते हैं रे दुष्ट ! शीघ्र चल, तुम यमलोक जाओगे। आज तुम्हें हम सब कुम्भीपाक आदि नरकों में शीघ्र ही ले जाएँगे।

इस प्रकार यमदूतों की वाणी तथा बन्धु-बान्धवों का रुदन सुनता हुआ वह जीव जोर से हाहाकार करके विलाप करता है और यमदूतों के द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। यमदूतों की तर्जनाओं से उसका हृदय विदीर्ण हो जाता है, वह काँपने लगता है, रास्ते में कुत्ते काटते हैं और अपने पापों का स्मरण करता हुआ वह पीड़ित जीव यममार्ग में चलता है। भूख और प्यास से पीड़ित होकर सूर्य, दावाग्नि एवं वायु के झोंको से संतृप्त होते हुए और यमदूतों के द्वारा पीठ पर कोड़े से पीटे जाते हुए उस जीव को तपी हुई बालुका से पूर्ण तथा विश्राम रहित और जल रहित मार्ग पर असमर्थ होते हुए भी बड़ी कठिनाई से चलना पड़ता है। थककर जगह-जगह गिरता और मूर्च्छित होता हुआ वह पुन: उठकर पापीजनों की भाँति अन्धकारपूर्ण यमलोक में ले जाया जाता है।

दो अथवा तीन मुहूर्त्त में वह मनुष्य वहाँ पहुँचाया जाता है और यमदूत उसे घोर नरक यातनाओं को दिखाते हैं। मुहूर्त मात्र में यम को और नारकीय यातनाओं के भय को देखकर वह व्यक्ति यम की आज्ञा से आकाश मार्ग से यमदूतों के साथ पुन: इस लोक (मनुष्यलोक) में चला आता है। मनुष्य लोक में आकर अबादि वासना से बद्ध वह जीव देह में प्रविष्ट होने की इच्छा रखता है, किंतु यमदूतों द्वारा पकड़कर पाश में बाँध दिये जाने से भूख और प्यास से अत्यन्त पीड़ित होकर रोता है।

हे तार्क्ष्य ! वह पातकी प्राणि पुत्रों से दिए हुए पिण्ड तथा आतुर काल में दिए हुए दान को प्राप्त करता है तो भी उस नास्तिक को तृप्ति नहीं होती। पुत्रादि के द्वारा पापियों के उद्देश्य से किए गये श्राद्ध, दान तथा जलांजलि उनके पास ठहरती नहीं। अत: पिण्डदान का भोग करने पर भी वे क्षुधा से व्याकुल होकर यममार्ग में जाते हैं। जिनका पिण्डदान नहीं होता, वे प्रेतरूप में होकर कल्प पर्यन्त निर्जन वन में दु:खी होकर भ्रमण करते रहते हैं।

सैकड़ो करोड़ कल्प बीत जाने पर भी बिना भोग किए कर्म फल का नाश नहीं होता और जब तक वह पापी जीव यातनाओं का भोग नहीं कर लेता, तब तक उसे मनुष्य शरीर भी प्राप्त नहीं होता। हे पक्षी! इसलिए पुत्र को चाहिए कि वह दस दिनों तक प्रतिदिन पिण्डदान करे। हे पक्षिश्रेष्ठ! वे पिण्ड प्रतिदिन चार भागों में विभक्त होते हैं। उनमें दो भाग तो प्रेत के देह के पंचभूतों की पुष्टि के लिए होते हैं, तीसरा भाग यमदूतों को प्राप्त होता है और चौथे भाग से उस जीव को आहार प्राप्त होता है। नौ रात-दिनों में पिण्ड को प्राप्त करके प्रेत का शरीर बन जाता है और दसवें दिन उसमें बल की प्राप्ति होती है। हे खग! मृत व्यक्ति के देह के जल जाने पर पिण्ड के द्वारा पुन: एक हाथ लंबा शरीर प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह प्राणी यमलोक के रास्ते में शुभ और अशुभ कर्मों के फल को भोगता है।

पहले दिन जो पिण्ड दिया जाता है, उससे उसका सिर बनता है, दूसरे दिन के पिण्ड से ग्रीवा गरदन और स्कन्ध(कन्धे) तथा तीसरे पिण्ड से हृदय बनता है। चौथे पिण्ड से पृष्ठभाग (पीठ), पाँचवें से नाभि, छठे तथा सातवां पिण्ड से क्रमश: कटि (कमर) और गुह्यांग उत्पन्न होते हैं। आठवें पिण्ड से ऊरु (जाँघें) और नवें पिण्ड से जानु (घुटने) तथा पैर बनते हैं। इस प्रकार नौ पिण्डों से देह को प्राप्त कर के दसवें पिण्ड से उसकी क्षुधा और तृषा – (भूख-प्यास) ये दोनों जाग्रत होती हैं। इस पिण्डज शरीर को प्राप्त कर के भूख और प्यास से पीड़ित जीव ग्यारहवें तथा बारहवें दो दिन भोजन करता है। तेरहवें दिन यमदूतों के द्वारा बन्दर की तरह बँधा हुआ वह प्राणी अकेला उस यममार्ग में जाता है। हे खग! मार्ग में मिलने वाली वैतरणी को छोड़कर यमलोक के मार्ग की दूरी का प्रमाण छियासी हजार योजन है।

वह प्रेत प्रतिदिन रात-दिन में दो सौ सैंतालीस योजन चलता है। मार्ग में आये हुए इन सोलह पुरों (नगर) को पार कर के पातकी व्यक्ति धर्मराज के भवन में जाता है. 1) सौम्यपुर, 2) सौरिपुर, 3) नगेन्द्र भवन, 4) गन्धर्वपुर, 5) शैलागम, 6) क्रौंचपुर, 7) क्रूरपुर, 8) विचित्रभवन, 9) बह्वापदपुर, 10) दु:खदपुर, 11) नानाक्रन्दपुर, 12) सुतप्तभवन, 13) रौद्रपुर, 14) पयोवर्षणपुर, 15) शीताढ्यपुर तथा 16) बहुभीतिपुर को पार करके इनके आगे यमपुरी में धर्मराज का भवन स्थित है। यमराज के दूतों के पाशों से बँधा हुआ पापी जीव रास्ते भर हाहाकार करता रोता हुआ अपने घर को छोड़ करके यमपुरी को जाता है।

।।इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में पापियों के इस लोक तथा परलोक के दु:ख का निरुपणनामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ।।

शेष जारी.............. गरुडपुराण-सारोद्धार(प्रेतकल्प)अध्याय- २ श्लोक हिंदी भावार्थ सहित ।

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