गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ५
गरुडपुराण-सारोद्धार (प्रेतकल्प)
में आपने इससे पूर्व में गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ४ को पढ़ा। अब आगे इस गंथ के
मूल पाठ को भावार्थ सहित गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ५ पढेंगे, जिसमें की कर्मविपाकवश
मनुष्य को अनेक योनियों और विविध रोगों की प्राप्ति का वर्णन किया गया है।
गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ५- मूल पाठ
गरुड उवाच
येन येन च पापेन यद्यच्चिह्न
प्रजायते । यां यां योनिं च गच्छन्ति तन्मे कथय केशव॥१॥
श्रीभगवानुवाच यैः पापैर्यान्ति यां
योनिं पापिनो नरकागताः। येन पापेन यच्चि जायते मम तच्छृणु॥२॥
ब्रह्महा क्षयरोगी स्याद् गोघ्नः
स्यात्कुब्जको जडः । कन्याघाती भवेत्कुष्ठी त्रयश्चाण्डालयोनिषु॥३॥
स्त्रीघाती गर्भपाती च पुलिन्दो
रोगवान् भवेत् । अगम्यागमनात्षण्ढो दुश्चर्मा गुरुतल्पगः॥४॥
मांसभोक्ताऽतिरक्ताङ्गः
श्यावदन्तस्तु मद्यपः। अभक्ष्यभक्षको लौल्याद् ब्राह्मणः स्यान्महोदरः॥५॥
अदत्त्वा मिष्टमश्नाति स
भवेद्गलगण्डवान् । श्राद्धेऽन्नमशुचिं दत्त्वा श्वित्रकुष्ठी प्रजायते॥६॥
गुरोर्गर्वेणावमानादपस्मारी
भवेन्नरः। निन्दको वेदशास्त्राणां पाण्डुरोगी भवेद् ध्रुवम्॥७॥
कूटसाक्षी भवेन्मूकः काणः
स्यात्पंक्तिभेदकः। अनोष्ठः स्याद्विवाहनो जन्मान्धः पुस्तकं हरेत्॥८॥
गोब्राह्मणपदाघातात्खञ्जः पॉश्च
जायते । गद्गदोऽनृतवादी स्यात्तच्छ्रोता बधिरो भवेत्॥९॥
गरदः स्याज्जडोन्मत्तः खल्वाटोऽग्निप्रदायकः।
दुर्भगः पलविक्रेता रोगवान् परमांसभुक्॥१०॥
हीनजातौ प्रजायेत रत्नानामपहारकः।
कुनखी स्वर्णहर्ता स्याद्धातुमात्रहरोऽधनः॥११॥
अन्नहर्ता भवेदाखुः शलभो
धान्यहारकः। चातको जलहर्ता स्याद्विषहर्ता च वृश्चिकः॥१२॥
शाकं पत्रं शिखी हृत्वा
गन्धांश्छुच्छुन्दरी शुभान् । मधुदंशः पलं गृध्रो लवणं च पिपीलिका॥१३॥
ताम्बूलफलपुष्पादिहर्ता स्याद्वानरो
वने । उपानत्तृणकार्पासहर्ता स्यान्मेषयोनिषु॥१४॥
यश्च रौद्रोपजीवी च मार्गे
सार्थान्विलुम्पति । मृगयाव्यसनीयस्तु छागः स्याद्वधिके गृहे ॥१५॥
यो मृतो विषपानेन कृष्णसर्पो भवेद्
गिरौ । निरंकुशस्वभावः स्यात् कुञ्जरो निर्जने वने॥१६॥
वैश्वदेवमकर्तारः सर्वभक्षाश्च ये
द्विजाः। अपरीक्षितभोक्तारो व्याघ्राः स्युर्निर्जने वने॥१७॥
गायत्रीं न स्मरेद्यस्तु यो न
सन्ध्यामुपासते । अन्तर्दुष्टो बहिः साधुः स भवेद् ब्राह्मणो बकः॥१८॥
अयाज्ययाजको विप्रः स भवेद्
ग्रामसूकरः। खरो वै बहुयाजित्वात्काको निमन्त्रभोजनात्॥१९॥
पात्रे विद्यामदाता च बलीवर्दो
भवेद् द्विजः । गुरुसेवामकर्ता च शिष्यः स्याद् गोखर: पशुः॥२०॥
गुरुं हुंकृत्य तुंकृत्य विप्रं
निर्जित्य वादतः । अरण्ये निर्जले देशे जायते ब्रह्मराक्षसः॥ २१॥
प्रतिश्रुतं द्विजे दानमदत्त्वा
जम्बुको भवेत् । सतामसत्कारकरः फेत्कारोऽग्निमुखो भवेत्॥२२॥
मित्रधुग्गिरिगृध्रः स्यादुलूकः
क्रयवञ्चनात् । वर्णाश्रमपरीवादात्कपोतो जायते वने॥२३॥
आशाच्छेदकरो यस्तु स्नेहच्छेदकरस्तु
यः। यो द्वेषात् स्त्रीपरित्यागी चक्रवाकश्चिरं भवेत्॥ २४॥
मातृपितृगुरुद्वेषी भगिनीभ्रातृवैरकृत्
। गर्भे योनौ विनष्टः स्याद्यावद्योनिसहस्रशः॥२५॥
श्वश्रोऽपशब्ददा नारी नित्यं
कलहकारिणी । सा जलौका च यूका स्याद्भर्तारं भर्त्सते च या॥२६॥
स्वपतिं च परित्यज्य
परपुंसानुवर्तिनी । वल्गुनी गृहगोधा स्याद् द्विमुखी वाऽथ सर्पिणी॥ २७॥
यः स्वगोत्रोपघाती च
स्वगोत्रस्त्रीनिषेवणात् । तरक्षः शल्लको भूत्वा ऋक्षयोनिषु जायते॥२८॥
तापसीगमनात् कामी भवेन्मरुपिशाचकः ।
अप्राप्तयौवनासंगाद् भवेदजगरो वने॥२९॥
गुरुदाराभिलाषी च कृकलासो भवेन्नरः।
राज्ञीं गत्वा भवेदुष्ट्रो मित्रपत्नीं च गर्दभः॥३०॥
गुदगो विड्वराहः स्याद् वृषः स्याद्
वृषलीपतिः । महाकामी भवेद् यस्तु स्यादश्वः कामलम्पटः॥३१॥
मृतस्यैकादशाहं तु भुञ्जानः श्वा
विजायते । लभेद्देवलको विप्रो योनिं कुक्कुटसंज्ञकाम्॥३२॥
द्रव्यार्थं देवतापूजां यः करोति
द्विजाधमः। स वै देवलको नाम हव्यकव्येषु गर्हितः॥३३॥
महापातकजान् घोरान्नरकान् प्राप्य
दारुणान् । कर्मक्षये प्रजायन्ते महापातकिनस्त्विह ॥ ३४॥
खरोष्ट्रमहिषीणां हि ब्रह्महा
योनिमृच्छति । वृकश्वानशृगालानां सुरापा यान्ति योनिषु॥ ३५॥
कृमिकीटपतङ्गत्वं स्वर्णस्तेयी
समाप्नुयात् । तृणगुल्मलतात्वं च क्रमशो गुरुतल्पगः॥३६॥
परस्य योषितं हृत्वा न्यासापहरणेन च
। ब्रह्मस्वहरणाच्चैव जायते ब्रह्मराक्षसः॥३७॥
ब्रह्मस्वं प्रणयाद्भुक्तं
दहत्यासप्तमं कुलम् । बलात्कारेण चौर्येण दहत्याचन्द्रतारकम्॥३८॥
लौहचूर्णाश्मचूर्णे च विषं च
जरयेन्नरः। ब्रह्मस्वं त्रिषु लोकेषु कः पुमाञ्जरयिष्यति॥३९॥
ब्रह्मस्वरसपुष्टानि वाहनानि बलानि
च । युद्धकाले विशीर्यन्ते सैकताः सेतवो यथा॥४०॥
देवद्रव्योपभोगेन ब्रह्मस्वहरणेन च
। कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥४१॥
स्वमाश्रितं परित्यज्य
वेदशास्त्रपरायणम् । अन्येभ्यो दीयते दानं कथ्यतेऽयमतिक्रमः॥४२॥
ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति विप्रे
वेदविवर्जिते । ज्वलन्तमग्निमुत्सृज्य न हि भस्मनि हूयते॥४३॥
अतिक्रमे कृते तार्क्ष्य भुक्त्वा च
नरकान् क्रमात् । जन्मान्धः सन्दरिद्रः स्यान्न दाता किंतु याचकः॥४४॥
स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेच्च
वसुन्धराम् । षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः॥४५॥
स्वयमेव च यो दत्त्वा
स्वयमेवापकर्षति। स पापी नरकं याति यावदाभूतसम्प्लवम्॥४६॥
दत्त्वा वृत्तिं भूमिदानं यत्नतः
परिपालयेत् । न रक्षति हरेद्यस्तु स पगुः श्वाऽभिजायते॥४७॥
विप्रस्य वृत्तिकरणे लक्षधेनुफलं
भवेत् । विप्रस्य वृत्तिहरणान्मर्कटः श्वा कपिर्भवेत्॥४८॥
एवमादीनि चिह्नानि योनयश्च खगेश्वर
। स्वकर्मविहिता लोके दृश्यन्तेऽत्र शरीरिणाम्॥४९॥
एवं दुष्कर्मकर्तारो भुक्त्वा
निरययातनाम् । जायन्ते पापशेषेण प्रोक्तास्वेतासु योनिषु॥५०॥
ततो जन्मसहस्त्रेषु प्राप्य
तिर्यक्शरीरताम् । दुःखानि भारवहनोद्भवादीनि लभन्ति ते॥५१॥
पक्षिदुःखं ततो भुक्त्वा
वृष्टिशीतातपोद्भवम् । मानुषं लभते पश्चात् समीभूते शुभाशुभे॥५२॥
स्त्रीपुंसोऽस्तु प्रसङ्गेन भूत्वा
गर्भे क्रमादसौ । गर्भादिमरणान्तं च प्राप्य दुःखं म्रियेत्पुनः॥५३॥
समुत्पत्तिर्विनाशश्च जायते
सर्वदेहिनाम् । एवं प्रवर्तितं चक्रं भूतग्रामे चतुर्विधे॥५४॥
घटीयन्त्रं यथा मा भ्रमन्ति मम
मायया। भूमौ कदाचिन्नरके कर्मपाशसमावृताः॥५५॥
अदत्तदानाच्च भवेद् दरिद्रो
दरिद्रभावाच्च करोति पापम्।
पापप्रभावान्नरके प्रयाति
पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी॥५६॥
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म
शुभाशुभम् । नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि॥५७॥
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे
पापचिह्ननिरूपणं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
गरुडपुराण सारोद्धार अध्याय ५-भावार्थ
गरुड़ जी ने कहा –
हे केशव ! जिस-जिस पाप से जो-जो चिह्न प्राप्त होते हैं और जिन-जिन
योनियों में जीव जाते हैं, वह मुझे बताइए।
श्रीभगवान ने कहा –
नरक से आये हुए पापी जिन पापों के द्वारा जिस योनि में आते हैं और
जिस पाप से जो चिह्न होता है, वह मुझसे सुनो। ब्रह्महत्यारा
क्षय रोगी होता है, गाय की हत्या करने वाला मूर्ख और कुबड़ा
होता है। कन्या की हत्या करने वाला कोढ़ी होता है और ये तीनों पापी चाण्डाल योनि
प्राप्त करते हैं।
स्त्री की हत्या करने वाला तथा
गर्भपात कराने वाला पुलिन्द.(भिल्ल) होकर रोगी होता है। परस्त्रीगमन करने वाला
नपुंसक और गुरु पत्नी के साथ व्यभिचार करने वाला चर्म रोगी होता है। मांस का भोजन
करने वाले का अंग अत्यन्त लाल होता है, मद्य
पीने वाले के दाँत काले होते हैं, लालचवश अभक्ष्य भक्षण करने
वाले ब्राह्मण को महोदर रोग होता है। जो दूसरे को दिये बिना मिष्टान्न खाता है,
उसे गले में गण्डमाला रोग होता है, श्राद्ध
में अपवित्र अन्न देने वाला श्वेतकुष्ठी होता है।
गर्व से गुरु का अपमान करने वाला
मनुष्य मिरगी का रोगी होता है। वेदशास्त्र की निन्दा करने वाला निश्चित ही
पाण्डुरोगी होता है। झूठी गवाही देने वाला गूँगा, पंक्तिभेद करने वाला काना, विवाह में विघ्न करने
वाला व्यक्ति ओष्ठ रहित और पुस्तक चुराने वाला जन्मान्ध होता है। गाय और ब्राह्मण
को पैर से मारने वाला लूला-लंगड़ा होता है, झूठ बोलने वाला
हकलाकर बोलता है तथा झूठी बात सुनने वाला बहरा होता है।
विष देने वाला मूर्ख और उन्मत्त
(पागल) तथा आग लगाने वाला खल्वाट (गंजा) होता है। पल (माँस) बेचने वाला अभागा और
दूसरे का मांस खाने वाला रोगी होता है। रत्नों का अपहरण करने वाला हीन जाति में
उत्पन्न होता है, सोना चुराने वाला
नखरोगी और अन्य धातुओं को चुराने वाला
निर्धन होता है। अन्न चुराने वाला चूहा और धान चुराने वाला शलभ (टिड्डी) होता है।
जल की चोरी करने वाला चातक और विष का व्यवहार करने वाला वृश्चिक (बिच्छू) होता है।
शाक-पात चुराने वाला मयूर होता है, शुभ गन्धवाली वस्तुओं को
चुराने वाला छुछुन्दरी होता है, मधु चुराने वाला डाँस,
मांस चुराने वाला गीध और नमक चुराने वाला चींटी होता है।
ताम्बूल,
फल तथा पुष्प आदि की चोरी करने वाला वन में बंदर होता है। जूता,
घास तथा कपास को चुराने वाला भेड़ योनि में उत्पन्न होता है। जो
रौद्र कर्मों (क्रूरकर्मों) से आजीविका चलाने वाला है, मार्ग
में यात्रियों को लूटता है और जो आखेट का व्यसन रखने वाला, वह
कसाई के घर का बकरा होता है।
विष पीकर मरने वाला पर्वत पर काला
नाग होता है। जिसका स्वभाव अमर्यादित है, वह
निर्जन वन में हाथी होता है। बलिवैश्वदेव न करने वाले तथा सब कुछ खा लेने वाले
द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) और
बिना परीक्षण किये भोजन कर लेने वाले व्यक्ति निर्जन वन में व्याघ्र होते हैं। जो
ब्राह्मण गायत्री का स्मरण नहीं करता और जो संध्योपासना नहीं करता, जिसका अन्त:स्वरुप दूषित तथा बाह्य स्वरूप साधु की तरह प्रतीत होता है,
वह ब्राह्मण बगुला होता है।
जिनको यज्ञ नहीं करना चाहिए,
उनके यहाँ यज्ञ कराने वाला ब्राह्मण गाँव का सूअर होता है, क्षमता से अधिक यज्ञ कराने वाला गर्दभ तथा बिना आमंत्रण के भोजन करने वाला
कौआ होता है। जो सत्पात्र शिष्य को विद्या नहीं प्रदान करता, वह ब्राह्मण बैल होता है। गुरु की सेवा न करने वाला शिष्य बैल और गधा होता
है। गुरु के प्रति अपमान के तात्पर्य से हुं या तुं शब्दों का उच्चारण करने वाला
और वाद-विवादों में ब्राह्मण को पराजित करने वाला जल विहीन अरण्य में ब्रह्म
राक्षस होता है।
प्रतिज्ञा करके द्विज को दान न
देनेवाला सियार होता है। सत्पुरुषों का अनादर करने वाला व्यक्ति अग्निमुख सियार
होता है। मित्र से द्रोह करने वाला पर्वत का गीध होता है और क्रय में धोखा देने
वाला उल्लू होता है। वर्णाश्रम की निन्दा करने वाला वन में कपोत होता है। आशा को
तोड़ने वाला और स्नेह को नष्ट करने वाला, द्वेष
वश स्त्री का परित्याग कर देने वाला बहुत काल तक चक्रवाक (चकोर) होता है।
माता-पिता,
गुरु से द्वेष करने वाला तथा बहन और भाई से शत्रुता करने वाला
हजारों जन्मों तक गर्भ में या योनि में नष्ट होता रहता है। सास-ससुर को अपशब्द
कहने वाली स्त्री तथा नित्य कलह करने वाली स्त्री जलौका अर्थात जल जोंक होती है और
पति की भर्त्सना करने वाली नारी जूँ होती है। अपने पति का परित्याग करके परपुरुष
का सेवन करने वाली स्त्री वल्गुनी (चमगादड़ी), छिपकली अथवा
दो मुँह वाली सर्पिणी होती है।
सगोत्र की स्त्री के साथ संबंध
बनाकर अपने गोत्र को विनष्ट करने वाला तरक्ष (लकड़बग्घा) और शल्लक(साही) होकर रीछ
योनि में जन्म लेता है। तापसी के साथ व्यभिचार करने वाला कामी पुरुष मरु प्रदेश
में पिशाच होता है और अप्राप्त यौवन से संबंध करने वाला वन में अजगर होता है। गुरु
पत्नी के साथ गमन की इच्छा रखने वाला मनुष्य कृकलास (गिरगिट) होता है। राजपत्नी के
साथ गमन करने वाला ऊँट तथा मित्र की पत्नी के साथ गमन करने वाला गधा होता है।
गुदा गमन करने वाला विष्ठा भोगी
सूअर तथा शूद्रागामी बैल होता है। जो महाकामी होता है,
वह काम लम्पट घोड़ा होता है। किसी के मरणाशौच में एकादशाह तक भोजन
करने वाला कुत्ता होता है। ददेवद्रव्य भोक्ता देवलक ब्राह्मण मुर्गे की योनि
प्राप्त करता है। जो ब्राह्मणधम द्रव्यार्जन के लिये देवता की पूजा करता है,
वह देवलक कहलाता है। वह देवकार्य तथा पितृकार्य के लिये निन्दनीय
है।
महापातक से प्राप्त अत्यन्त घोर एवं
दारुण नरकों का भोग प्राप्त करके महापातकी व्यक्ति कर्म के क्षय होने पर पुन: इस
मर्त्य लोक में जन्म लेते हैं। ब्रह्महत्यारा गधा, ऊँट और महिषी की योनि प्राप्त करता है तथा सुरापान करने वाला भेड़िया,
कुत्ता एवं सियार की योनि में जाते हैं। स्वर्ण चुराने वाला कृमि,
कीट तथा पतंग कि योनि प्राप्त करता है। गुरु पत्नी के साथ गमन करने
वाला क्रमश: तृण, गुल्म तथा लता होता है।
परस्त्री का हरण करने वाला,
धरोहर का हरण करने वाला तथा ब्राह्मण के धन का अपहरण करने वाला
ब्रह्मरा़क्षस होता है। ब्राह्मण का धन
कपट-स्नेह से खानेवाला सात पीढ़ियों तक अपने कुल का विनाश करता है और बलात्कार तथा
चोरी के द्वारा खाने पर जब तक चन्द्रमा और तारकों की स्थिति होती है, तब तक वह अपने कुल को जलाता है।
लोहे और पत्थरों के चूर्ण तथा विष
को व्यक्ति पचा सकता है, पर तीनों लोकों में
ऎसा कौन व्यक्ति है, जो ब्रह्मस्व (ब्राह्मण के धन) को पचा
सकता है? ब्राह्मण के धन से पोषित की गयी सेना तथा वाहन
युद्ध काल में बालू से बने सेतु – बाँध के समान नष्ट-भ्रष्ट
हो जाते हैं। देवद्रव्य का उपभोग करने से अथवा ब्रह्मस्वरुप का हरण करने से
ब्राह्मण का अतिक्रमण करने से कुल पतित हो जाते हैं।
अपने आश्रित वेद परायण ब्राह्मण को
छोड़कर अन्य ब्राह्मण को दान देना ब्राह्मण का अतिक्रमण करना कहलाता है। वेदवेदांग
के ज्ञान से रहित ब्राह्मण को छोड़ना अतिक्रमण नहीं कहलाता है,
क्योंकि जलती हुई आग को छोड़कर भस्म में आहुति नहीं दी जाती। हे
तार्क्ष्य! ब्राह्मण का अतिक्रमण करने
वाला व्यक्ति नरकों को भोगकर क्रमश: जन्मान्ध एवं दरिद्र होता है, वह कभी दाता नहीं बन सकता अपितु याचक ही रहता है।
अपने द्वारा दी हुई अथवा दूसरे
द्वारा दी गई पृथ्वी को जो छीन लेता है, वह
साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है। जो स्वयं कुछ देकर पुन: स्वयं ले भी
लेता है, वह पापी एक कल्प तक नरक में रहता है। जीविका अथवा
भूमि का दान देकर यत्नपूर्वक उसकी रक्षा करनी चाहिए, जो
रक्षा नहीं करता प्रत्युत उसे हर लेता है, वह पंगु अर्थात
लंगड़ा कुता होता है।
ब्राह्मण को आजीविका देने वाला
व्यक्ति एक लाख गोदान का फल प्राप्त करता है और ब्राह्मण की वृत्तिका हरण करने
वाला बन्दर, कुत्ता तथा लंगूर होता है। हे
खगेश्वर! प्राणियों को अपने कर्म के अनुसार लोक में पूर्वोक्त योनियाँ तथा शरीर पर
चिह्न देखने को मिलते हैं। इस प्रकार दुष्कर्म करने वाले जीव नारकीय यातनाओं को
भोगकर अवशिष्ट पापों को भोगने के लिये इन पूर्वोक्त योनियों में जाते हैं।
इसके बाद हजारों जन्मों तक तिर्यक
(पशु-पक्षी) का शरीर प्राप्त करके वे बोझा ढोने आदि कार्यों से दु:ख प्राप्त करते
हैं। फिर पक्षी बनकर वर्षा, शीत तथा आतप से
दु:खी होते हैं। इसके बाद अन्त में जब पुण्य और पाप बराबर हो जाते हैं तब मनुष्य
की योनि मिलती है। स्त्री-पुरुष के संबंध से वह गर्भ में उत्पन्न होकर क्रमश: गर्भ
से लेकर मृत्यु तक के दु:ख प्राप्त करके पुन: मर जाता है।
इस प्रकार सभी प्राणियों का जन्म और
विनाश होता है। यह जन्म-मरण का चक्र चारों प्रकार की सृष्टि में चलता रहता है।
मेरी माया से प्राणी रहट (घटी यन्त्र) की भाँति ऊपर-नीचे की योनियों में भ्रमण
करते रहते हैं। कर्मपाश बँधे रहकर कभी वे नरक में और कभी भूमि पर जन्म लेते हैं।
दान न देने से प्राणी दरिद्र होता
है। दरिद्र हो जाने पर फिर पाप करता है। पाप के प्रभाव से नरक में जाता है और नरक
से लौटकर पुन: दरिद्र और पुन: पापी होता है। प्राणी के द्वारा किये गये शुभ और
अशुभ कर्मों का फल भोग उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है, क्योंकि सैकड़ों कल्पों के बीत जाने पर भी बिना भोग के कर्म फल का नाश
नहीं होता।
।। इस प्रकार गरुड़ पुराण के
अन्तर्गत सारोद्धार में “पापचिह्ननिरुपण”
नामक पाँचवां अध्याय पूर्ण हुआ ।।
शेष जारी.............. गरुडपुराण-सारोद्धार(प्रेतकल्प)अध्याय- ६ श्लोक हिंदी भावार्थ सहित ।
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