पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

ककारादि कालीसहस्रनाम स्तोत्रं

ककारादि कालीसहस्रनाम स्तोत्रं

इस ककारादि रूपमन्त्रवाली भगवती श्रीमहाकाली के सर्वसाम्राज्य मेधानामक सहस्रनाम स्तोत्रम् मंत्र को स्वयं भगवान शिव ने माता पार्वति से कहा है। यह काली सहस्र नाम स्तोत्र त्रिपुरसुन्दरी को शक्ति प्रदत्त करनेवाला और ककार रूप ही इसका स्वरूप है । महाकाली ने त्रिपुरसुन्दरी को इसका उपदेश दिया था। यह महाकाली द्वारा स्वयं ही बनाया हुआ काली सहस्त्रनाम है । महाकाली कहती है कि- उसमें ककाररूप से मेरा स्वरूप विद्यमान है । जो महासाम्राज्य को प्रदत्त करनेवाला है । इस सहस्रनाम का दूसरा नाम 'वरदान' ही है । जो क्षणमात्र में सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करता है। इससे पूर्व आपने ककारादि काली शतनाम स्तोत्रम् को पढ़ा। अब यहाँ ककारादि कालीसहस्रनामस्तोत्रं मूल पाठ दिया जा रहा है व इसके हिंदी भावार्थ को आने वाले अंक श्रीककारादिकालीसहस्रनामावली में दिया जायेगा।

ककारादि कालीसहस्रनामस्तोत्रम्

ककारादि कालीसहस्रनामस्तोत्रम्

Kakaradi Kali sahastra naam stotra

ध्यानम्

शवारूढां महाभीमां घोरदंष्ट्रां हसन्मुखीम् ।

चतुर्भुजां खङ्ग-मुण्डवराभयकरां शिवाम् ॥१॥

मालाधरां देवीं ललज्जिह्वां दिगम्बराम् ।

एवं संचिन्तयेत् कालीं श्मशानालयवासिनीम् ॥ २ ॥

शवारूढ़, महाभीम, घोरदंष्ट्रावाली, हँसते हुए मुखवाली, चार भुजाओंवाली (और चारों) हाथों में खड्ग, मुण्ड, वर और अभयमुद्रा धारण करनेवाली। मुण्डमाला धारण करनेवाली, लपलपाती जीभवाली, दिगम्बर, श्मशानालयवासिनी इस प्रकार (के स्वरूपोंवाली) शिवादेवी काली का चिन्तन करना चाहिए ॥ १-२॥

ककारादि कालीसहस्रनामस्तोत्रं

कैलासशिखरे रम्ये नानादेवगणावृते ।

नानावृक्षलताकीर्णे नानापुष्पैरलङ्कृते ॥ १॥

चतुर्मण्डलसंयुक्ते श्रृङ्गारमण्डपे स्थिते ।

समाधौ संस्थितं शान्तं क्रीडन्तं योगिनीप्रियम् ॥ २॥

तत्र मौनधरं दृष्ट्वा देवी पृच्छति शङ्करम् ।

अनकानेक देवगणों से युक्त, वृक्षलता और पुष्पों से सुशोभित, अति सुन्दर कैलाश नाम का पर्वत है। वहीं पर चारों ओर से घिरे हुए श्रृंगारमण्डप के बीच में समाधि में संलग्न शान्त, आत्माराम और योगिनियों से सेवित मुनि का रूप धारण किये हुए भगवान शंकरजी से पार्वती ने प्रश्न किया अर्थात् पूछा ।

देव्युवाच ।

किं त्वया जप्यते देव किं त्वया स्मर्य्यते सदा ॥ ३॥

सृष्टिः कुत्र विलीनास्ति पुनः कुत्र प्रजायते ।

ब्रह्माण्डकारणं यत्तत् किमाद्यं कारणं महत् ॥ ४॥

पार्वती ने कहा-हे देवाधिदेव! आप किसका जप करते हैं और किसे स्मरण करते हैं। यह सम्पूर्ण संसार किसमें लीन होता है और इस सृष्टि की उत्पत्ति किस प्रकार से होती है? इस ब्रह्माण्डरूपी कार्य का सबसे आद्य एवं महान् कारण क्या है? ॥१-४॥

मनोरथमयी सिद्धिस्तथा वाञ्छामयी शिव ।

तृतीया कल्पनासिद्धिः कोटिसिद्धीश्वरात्मकम् ॥ ५॥

शक्तिपाताष्टदशकं चराचरपुरीगतिः ।

महेन्द्रजालमिन्द्रादिजालानां रचना तथा ॥ ६॥

मनोरथमयी, वांछामयी, कल्पनामयी, कोटिसिद्धि, ईश्वरत्वसिद्धि, अट्ठारह प्रकार शक्तिसंपात, चराचर जगत् में अव्याहतगति। महेन्द्रजाल, महेन्द्रजाल, इन्द्रजालादि का निर्माण ॥ ५-६॥

अणिमाद्यष्टकं देव परकायप्रवेशनम् ।

नवीनसृष्टिकरणं समुद्रशोषणं तथा ॥ ७॥

अमायां चन्द्रसन्दर्शो दिवा चन्द्रप्रकाशनम् ।

चन्द्राष्टकं चाष्टदिक्षु तथा सूर्याष्टकं शिव ॥ ८॥

जले जलमयत्वं च वह्नौ वह्निमयत्वकम् ।

ब्रह्म-विष्ण्वादि-निर्माणमिन्द्राणां कारणं करे ॥ ९॥

अणिमा आदि आठ सिद्धियाँ, परकाया प्रवेश, नवीन सृष्टि की रचना करने की सामर्थ्य, समुद्र शोषण, अमावास्या और दिन के समय चन्द्रमा का दर्शन तथा आठों दिशाओं में प्रत्येक दिशा में चन्द्रदर्शन एवं सूर्यदर्शन, जल में जलमयत्व, अग्नि में अग्निमयत्व, ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रादि देवताओं के निर्माण की क्षमता ॥ ७-९॥

पातालगुटिका-यक्ष-वेतालपञ्चकं तथा ।

रसायनं तथा गुप्तिस्तथैव चाखिलाञ्जनम् ॥ १०॥

महामधुमती सिद्धिस्तथा पद्मावती शिव ।

तथा भोगवती सिद्धिर्यावत्यः सन्ति सिद्धयः ॥ ११॥

केन मन्त्रेण तपसा कलौ पापसमाकुले ।

आयुष्यं पुण्यरहिते कथं भवति तद्वद ॥ १२॥

जिससे पाताल की सभी वस्तुएँ दिखाई पड़ती हैं, ऐसी पाताल-गुटिका । यक्ष और बैताल के तुल्य अदृश्य और प्रकट होना। रसायनसिद्धि और सभी जगह गोपनीय हो जाना तथा सम्पूर्ण संसार की वस्तुओं को प्रत्यक्ष कर देनेवाला अञ्जन । इस प्रकार हे शिव! महा मधुमती एवं पद्मावती सिद्धि, भोगवती आदि सिद्धियों की प्राप्ति इस पाप से युक्त कलियुग में और दीर्घायु की प्राप्ति किस प्रकार से होती है॥१०-१२॥

श्रीशिव उवाच ।

विना मन्त्रं विना स्तोत्रं विनैव तपसा प्रिये ।

विना बलिं विना न्यासं भूतशुद्धिं विना प्रिये ॥ १३॥

विना ध्यानं विना यन्त्रं विना पूजादिना प्रिये ।

विना क्लेशादिभिर्देवि देहदुःखादिभिर्विना ॥ १४॥

शिव ने कहा-हे प्रिये! मंत्र, जप के बिना, स्तोत्र पाठ के बिना,तपस्या के बिना, बलि, अङ्गन्यास और भूतशुद्धि के बिना । ध्यान, यंत्र और पूजा के बिना, मानसिक क्लेश के बिना एवं शरीर के दुःख के बिना॥१३-१४॥

सिद्धिराशु भवेद्येन तदेवं कथ्यते मया ।

शून्ये ब्रह्मण्डगोले तु पञ्चाशच्छून्यमध्यके ॥ १५॥

पञ्चशून्यस्थिता तारा सर्वान्ते कालिका स्थिता ।

अनन्त-कोटि ब्रह्माण्ड राजदण्डाग्रके शिवे ॥ १६॥

स्थाप्य शून्यालयं कृत्वा कृष्णवर्णं विधाय च ।

महानिर्गुणरूपा च वाचातीता परा कला ॥ १७॥

मनुष्यों को जिस प्रकार सिद्धि प्राप्त होती है, वह उपाय मैं तुम्हें बता रहा हूँ। पचास हजार योजन की वसुन्धरा से युक्त इस ब्रह्माण्डगोलक का ज़ब प्रलय हो जाता है और पाँचों तत्त्वों से सृष्टि (पूर्णरूप) से शुन्य हो जाती है । उस समय तारा नाम से प्रसिद्ध महाकाली ही शेष रह जाती है। हे देवि! उस समय अनंतकोटि ब्रह्माण्डों की रचना करनेवाले ब्रह्मादि भी तुम्हारे दाँत के ग्रास बन जाते हैं तथा महाप्रलय का भार उन्हीं पर स्थापित कर भगवती महाकाली उस शून्य में अपना काला वर्ण बनाकर वाणी से अतीत परा कला के रूप में खेलती हैं ॥१५-१७॥

क्रीडायां संस्थिता देवी शून्यरूपा प्रकल्पयेत् ।

सृष्टेरारम्भकार्यार्थं दृष्टा छाया तया यदा ॥ १८॥

इच्छाशक्तिस्तु सा जाता तथा कालो विनिर्मितः ।

प्रतिबिम्बं तत्र दृष्टं जाता ज्ञानाभिधा तु सा ॥ १९॥

इदमेतत्किंविशिष्टं जातं विज्ञानकं मुदा ।

तदा क्रियाऽभिधा जाता तदीच्छातो महेश्वरि ॥ २०॥

ब्रह्माण्डगोले देवेशि राजदण्डस्थितं च यत् ।

सा क्रिया स्थापयामास स्व-स्वस्थानक्रमेण च ॥ २१॥

तत्रैव स्वेच्छया देवि सामरस्यपरायणा ।

तदिच्छा कथ्यते देवि यथावदवधारय ॥ २२॥

फिर सष्टि के आरम्भकाल में उसी भगवती (काली) से छाया के रूप में इच्छाशक्ति का निर्माण होता है, जिससे महाकाल की उत्पत्ति होती है। उस समय वह इच्छाशक्ति स्वयं ज्ञानरूप में परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार की विशिष्टताओं से युक्त विज्ञान की उत्पत्ति होती है, फिर स्वयं महेश्वरी अपनी इच्छा से क्रियारूप में परिवर्तित हो गई। इस प्रकार हे देवि! इस संसार में उसी क्रिया ने फिर से समस्त स्थानों में उन-उन देवताओं का स्थापित किया। (इस) ब्रह्माण्ड में समता के रूप में रहनेवाली उस देवी की इसी क्रिया को इच्छा कहते हैं। हे पार्वति! इसे भलीभाँति जानो ॥१८-२२॥

युगादिसमये देवि शिवं परगुणोत्तमम् ।

तदिच्छा निर्गुणं शान्तं सच्चिदानन्दविग्रहम् ॥ २३॥

शाश्वतं सुन्दरं शुद्धं सर्वदेवयुतं वरम् ।

आदिनाथं गुणातीतं काल्या संयुतमीश्वरम् ॥ २४॥

विपरीतरतं देवं सामरस्यपरायणम् ।

पूजार्थमागतं देव-गन्धर्वाऽप्सरसां गणम् ॥ २५॥

परब्रह्मस्वरूप वह परमात्मा शिव ही भगवती (काली) की इच्छा के रूप में रहने के कारण निर्गुण, शान्त और सच्चिदानंद के विग्रहरूप में अवतरित हुए । उस शाश्वत, सुन्दर, स्वच्छ, सर्वदेवयुक्त, आदिनाथ, निर्गुण, शिव को काली में विपरीत, रति से आसक्त देखकर देवताओं, गन्धर्वो और अप्सराओं का समूह पूजा करने के लिए वहाঁ (स्वयं) आया ॥ २३-२५॥

यक्षिणीं किन्नरीकन्यामुर्वश्याद्यां तिलोत्तमाम् ।

वीक्ष्य तन्मायया प्राह सुन्दरी प्राणवल्लभा ॥ २६॥

त्रैलोक्यसुन्दरी प्राणस्वामिनी प्राणरञ्जिनी ।

किमागतं भवत्याऽद्य मम भाग्यार्णवो महान् ॥ २७॥

उक्त्वा मौनधरं शम्भुं पूजयन्त्यप्सरोगणाः ।

यक्षिणी, किन्नरी, उर्वशी और तिलोत्तमा आदि को वहाँ उपस्थित देखकर शिवप्राणवल्लभा महाकाली ने महाकाल अर्थात् शिवजी से कहा। त्रैलोक्यसुंदरी, प्राणस्वामिनी, प्राणरञ्जिनी महाकाली ने उन सभी अप्सराओं को वहां उपस्थित देखकर उनके आने का कारण उन सभी से पूछा । उन अप्सराओं ने कहा-हमारे भाग्यरुपी सागर का आज उदय हुआ है, ऐसा कहकर उन अप्सराओं ने मौन होकर शिव की पूजा की। 

अप्सरस ऊचुः ।

संसारात्तारितं देव त्वया विश्वजनप्रिय ॥ २८॥

सृष्टेरारम्भकार्य्यार्थमुद्युक्तोऽसि महाप्रभो ।

वेश्याकृत्यमिदं देव मङ्गलार्थप्रगायनम् ॥ २९॥

प्रयाणोत्सवकाले तु समारम्भे प्रगायनम् ।

गुणाद्यारम्भकाले हि वर्त्तते शिवशङ्कर ॥ ३०॥

अप्सराओं ने कहा-हे संसार का प्रिय करनेवाले भगवान शंकर! आप इस संसार के निर्माण करने में संलग्न दिखाई पड़ रहे हैं । इसलिए हे देव! सृष्टि के आरम्भ रूप कार्य के शुभ के लिए हम लोगों को गाने की आज्ञा प्रदान करें, क्योंकि हम वेश्याओं के लिए यही उपयुक्त  है । हे शिवशंकर! जैसे कि यात्रा और उत्सव कार्य में गाना शुभ होता है, उसी प्रकार से त्रिगुणात्मक सृष्टि के आरम्भ होने के कारण शुभ गायन करना आवश्यक है।। २६-३०॥

इन्द्राणीकोटयः सन्ति तस्याः प्रसवबिन्दुतः ।

ब्रह्माणी वैष्णवी चैव माहेशी कोटिकोटयः ॥ ३१॥

तव सामरसानन्द दर्शनार्थं समुद्भवाः ।

सञ्जाताश्चाग्रतो देव चास्माकं सौख्यसागर ॥ ३२॥

रतिं हित्वा कामिनीनां नाऽन्यत् सौख्यं महेश्वर ।

सा रतिर्दृश्यतेऽस्माभिर्महत्सौख्यार्थकारिका ॥ ३३॥

इस सृष्टि रूप कार्य के लिए विपरीत रति में लगे हुए आपके दर्शन के लिए आप दोनों से ही उत्पन्न हुई करोड़ों इन्द्राणी, ब्रह्माणी और वैष्णवी शक्तियाँ (यहाँ) उपस्थित हुई है। हे सौख्यसागर! वे समस्त शक्तियाँ लज्जायुक्त होकर आपके सम्मुख खड़ी हैं। हे महेश्वर! स्त्रियों को रति से बढकर और कोई अन्य सुख नहीं है, इसीलिए वह सुख को प्रदान करनेवाला रति हम लोग आनन्द से यहाँ देख रहे हैं । ३१-३३॥

एवमेतत्तु चास्माभिः कर्तव्यं भर्तृणा सह ।

एवं श्रुत्वा महादेवो ध्यानावस्थितमानसः ॥ ३४॥

ध्यानं हित्वा मायया तु प्रोवाच कालिकां प्रति ।

कालि कालि रुण्डमाले प्रिये भैरववादिनी ॥ ३५॥

शिवारूपधरे क्रूरे घोरद्रंष्टे भयानके ।

त्रैलोक्यसुन्दरकरी सुन्दर्य्यः सन्ति मेऽग्रतः ॥ ३६॥

हमलोग भी सृष्टि के लिए अपने पतियों से इसी प्रकार की रति (क्रिया) करना चाहते हैं। अप्सराओं की इस प्रकार की बात को श्रवण कर ध्यान में स्थित महादेव ने अपने ध्यान का परित्याग कर दिया और महाकाली से बोले-हे कालि! हे महाकालि! हे रुण्डमाले! हे भैरवी! हे शिवारूपधारिणी! हे क्रूरे! हे भयानक दाँतों से युक्त भगवति! (इस संसार की) अनेक तीनों लोकों की सुन्दरियाँ, कामिनियाँ हमारे सम्मुख हैं ।। ३४-३६॥

सुन्दरीवीक्षणं कर्म कुरु कालि प्रिये शिवे ।

ध्यानं मुञ्च महादेवि ता गच्छन्ति गृहं प्रति ॥ ३७॥

तव रूपं महाकालि महाकालप्रियङ्करम् ।

एतासां सुन्दरं रूपं त्रैलोक्यप्रियकारकम् ॥ ३८॥

एवं मायाभ्रमाविष्टो महाकालो वदन्निति ।

इति कालवचः श्रुत्वा कालं प्राह च कालिका ॥ ३९॥

हे कालि, हे प्रिये, हे शिवे! इन सुन्दरियों को तुम देखो । अपने ध्यान का परित्याग कर दो, देखो, ये सभी सन्दरियाँ अपने-अपने गृहों को जा रही हैं । हे महाकाली! तुम्हारा रूप तो मात्र महाकाल को ही मनोहर (सुन्दर) दिखाई पड़ता है। किन्तु ये (सभी) अप्सरायें तीनो लोकों को भी मोहित कर लेती हैं। जब माया के वशीभूत उस महाकाल अर्थात् शिव ने महाकाली से इस प्रकार कहा, तब काली ने महाकाल अर्थात् शिवजी से यह कहा ॥ ३७-३९॥

माययाऽऽच्छाद्य चात्मानं निजस्त्रीरूपधारिणी ।

इतः प्रभृति स्त्रीमात्रं भविष्यति युगे युगे ॥ ४०॥

वल्ल्याद्यौषधयो देवि दिवा वल्लीस्वरूपताम् ।

रात्रौ स्त्रीरूपमासाद्य रतिकेलिः परस्परम् ॥ ४१॥

स्त्री का रूप धारण करनेवाली महाकाली ने माया द्वारा अपने को मोहित कर लिया और वे महादेव से (यह) बोली । आज से प्रत्येक युग (चारों युग) में हर योनियों में स्त्रियाँ पैदा होंगी। लता औषधियाँ आदि दिन में लता और औषधि के रूप में दिखाई पड़ेंगी। किन्तु रात्रि के समय ये सभी स्त्रीरूप धारण कर आपस में रतिक्रीड़ा करेंगी ॥ ४०-४१॥

अज्ञानं चैव सर्वेषां भविष्यति युगे युगे ।

एवं शापं च दत्वा तु पुनः प्रोवाच कालिका ॥ ४२॥

विपरीतरतिं कृत्वा चिन्तयन्ति मनन्ति ये ।

तेषां वरं प्रदास्यामि नित्यं तत्र वसाम्यहम् ॥ ४३॥

इत्युक्त्वा कालिका विद्या तत्रैवान्तरधीयत ।

त्रिंशत्-त्रिखर्व-षड्वृन्द-नवत्यर्बुदकोटयः ॥ ४४॥

इन्हें प्रत्येक युग में अज्ञान होगा, ऐसा शाप देकर कालिका फिर बोली। जो लोग विपरीत रति में आसक्त होकर मेरा ध्यान एवं भजन करेंगे। मैं उन्हें वर प्रदत्त करुँगी और उनके यहाँ निवास करूँगी । ऐसा कहकर वह छत्तीस खरब छियानबे अरब करोड़ों संख्यावाली कालीरूपी महाविद्या वहीं अदृश्य हो गई ॥ ४२-४४॥

दर्शनार्थं तपस्तेपे सा वै कुत्र गता प्रिया ।

मम प्राणप्रिया देवी हाहा प्राणप्रिये शिवे ॥ ४५॥

किं करोमि क्व गच्छामि इत्येवं भ्रमसङ्कुलः ।

तस्याः काल्या दया जाता मम चिन्तापरः शिवः ॥ ४६॥

यन्त्रप्रस्तारबुद्धिस्तु काल्या दत्तातिसत्वरम् ।

यन्त्रयागं तदारभ्य पूर्वं चिद्घनगोचरा ॥ ४७॥

तब शिवजी ने कहा, हा प्राणप्रिये, हा शिवे! तुम कहाँ चली गई? ऐसा अनेकानेक बार विलाप करते हुए तप करने लगे। अब मैं क्या करूँ, अब मैं कहाँ जाऊँ ? इस प्रकार भ्रम में पड़े हुए शिवजी को देखकर उस महाकाली के हृदय में दयाभाव आ गया कि शिवजी हमारे बिना व्याकुल हो रहे हैं । तब काली ने यंत्र में अपने छिपे रहने की बुद्धि विस्तार से शिवजी को बताई। उसी समय से श्रीचक्ररूपी यंत्रयाग में विन्दु के द्वारा महाकाली का दर्शन होने लगा ॥ ४५-४७॥

श्रीचक्रं यन्त्रप्रस्ताररचनाभ्यासतत्परः ।

इतस्ततो भ्रम्यमाणस्त्रैलोक्यं चक्रमध्यकम् ॥ ४८॥

चक्रपारदर्शनार्थं कोट्यर्बुदयुगं गतम् ।

भक्तप्राणप्रिया देवी महाश्रीचक्रनायिका ॥ ४९॥

तत्र बिन्दौ परं रूपं सुन्दरं सुमनोहरम् ।

रूपं जातं महेशानि जाग्रत्त्रिपुरसुन्दरि ॥ ५०॥

रूपं दृष्ट्वा महादेवो राजराजेश्वरोऽभवत् ।

तस्याः कटाक्षमात्रेण तस्या रूपधरः शिवः ॥ ५१॥

श्रीचक्ररूपी यंत्र के प्रस्तार की रचना का अभ्यास करनेवाले शिव ने चक्र के बीच में अवस्थित इधर से उधर भ्रमण करते हए त्रिलोकी का दर्शन किया। फिर चक्र के परे भगवती के दर्शन के लिए करोड़ों व अरबों वर्ष व्यतीत हो गए। किन्तु शिवजी को भगवती के दर्शन प्राप्त नहीं हुआ। इसके पश्चात् ही चक्र के परे विन्दु में भक्तप्राणप्रिया श्रीचक्र की नायिका भगवती का जाग्रत दिव्य मनोहररूप दिखाई पड़ा। श्रीचक्र के विन्दु में त्रिपुरसुन्दरी भगवती के उस (दिव्य) रूप को देखकर महादेव अर्थात् शिव ने राजराजेश्वर का रूप धारण कर लिया, उस समय भगवती के कटाक्षमात्र देखने से ही शिवजी त्रिपुरसुन्दरी के रूप में परिवर्तित हो गए ।। ४८-५१।।

विना शृङ्गारसंयुक्ता तदा जाता महेश्वरी ।

विना काल्यंशतो देवि जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ ५२॥

न श्रृङ्गारो न शक्तित्वं क्वापि नास्ति महेश्वरी ।

सुन्दर्य्या प्रार्थिता काली तुष्टा प्रोवाच कालिका ॥ ५३॥

सर्वासां नेत्रकेशेषु ममांशोऽत्र भविष्यति ।

पूर्वावस्थासु देवेशि ममांशस्तिष्ठति प्रिये ॥ ५४॥

सावस्था तरुणाख्या तु तदन्ते नैव तिष्ठति ।

मद्भक्तानां महेशानि सदा तिष्ठति निश्चितम् ॥ ५५॥

शिवजी को त्रिपुरसुन्दरी के रूप में (परिवर्तित) देखकर महाकाली महेश्वरी श्रृङ्गार से शून्य हो गई और सम्पूर्ण स्थावर-जंगमात्मक संसार काली के अंश से रहित हो गया। महेश्वरी महाकाली के श्रृङ्गार शून्य हो जाने के कारण त्रिलोकी की शक्ति समाप्त हो गई। उसमें कोई श्रृङ्गार-सज्जा भी न रह गई। उस समय त्रिपुरसुन्दरी ने महाकाली की प्रार्थना की, जिससे प्रसन्न होकर महाकालिका ने त्रिपुरसुन्दरी से कहा। हे देवेशि! हे प्रिये! समस्त प्राणियों के पूर्वावस्था में नेत्र और केशों पर मेरा अंश बना रहेगा । उस पूर्वावस्था में युवाअवस्था में, मेरा अंश स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेगा । युवाअवस्था के चले जाने के पश्चात् मेरे अंश का लोप हो जाएगा, किन्तु मेरे भक्तों पर मेरी छाया सदैव निश्चित रूप से बनी रहेगी ॥ ५२-५५॥

शक्तिस्तु कुण्ठिता जाता तथा रूपं न सुन्दरम् ।

चिन्ताविष्टा तु मलिना जाता तत्र च सुन्दरी ॥ ५६॥

क्षणं स्थित्वा ध्यानपरा काली चिन्तनतत्परा ।

तदा काली प्रसन्नाऽभूत् क्षणार्द्धेन महेश्वरी ॥ ५७॥

वरं ब्रूहि वरं ब्रूहि वरं ब्रूहीति सादरम् ।

फिर भी त्रिपुरसुन्दरी की शक्ति क्षीण हो गई और रूप भी सुन्दर न हुआ। इसलिए वह दुःखित हो चिन्ताग्रस्त हो गई। फिर क्षणभर अवस्थित रहकर वह महाकाली का ध्यान करने लगी। क्षणभर में ही महेश्वरी महाकाली प्रसन्न हो गई और त्रिपुरसुन्दरी से बोलीं-हे त्रिपुरसुन्दरि! (मुझसे) वर माँगो, (मुझसे) वर माँगो।

सुन्दर्युवाच ।

मम सिद्धिवरं देहि वरोऽयं प्रार्थ्यते मया ॥ ५८॥

तादृगुपायं कथय येन शक्तिर्भविष्यति ।

त्रिपुरसुन्दरी बोलीं-हे महेश्वरि! मुझे जो वरदान चाहिए, वही वर मुझे दो। मुझे सिद्धि प्रदान करो और उस उपाय को भी बताओ, जिससे मुझमें शक्ति आ जावे॥ ५६-५८ ॥

श्रीकाल्युवाच ।

मम नामसाहस्रं च मया पूर्वं विनिर्मितम् ॥ ५९॥

मत्स्वरूपं ककाराख्यं मेधासाम्राज्यनामकम् ।

वरदानाभिधं नाम क्षणार्द्धाद्वरदायकम् ॥ ६०॥

तत्पठस्व महामाये तव शक्तिर्भविष्यति ।

ततः प्रभृति श्रीविद्या तन्नामपाठतत्परा ॥ ६१॥

तदेव नामसाहस्रं सुन्दरीशक्तिदायकम् ।

कथ्यते नामसाहस्रं सावधानमनाः श्रृणु ॥ ६२॥

तब महाकाली बोलीं-मेरे द्वारा पहले से ही बनाया हुआ मेरा सहस्त्रनाम है । उसमें ककाररूप से मेरा स्वरूप विद्यमान है । जो महासाम्राज्य को प्रदत्त करनेवाला है । उस सहस्रनाम का दूसरा नाम 'वरदान' ही है । जो क्षणमात्र में सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करता है। हे महामाये! मेरे उस सहस्रनाम का पाठ करो। तुम्हें (नि:संदेह) शक्ति प्राप्त होगी। तभी से श्रीविद्या त्रिपुरसुन्दरी उस महाकाली के सहस्रनाम का पाठ करती है (करने लगी)। यह वही काली सहस्र नाम है, जो त्रिपुरसुन्दरी को भी शक्ति प्रदान करनेवाला है। उस काली सहस्रनाम को हे पार्वती! मैं तुमसे कह रहा हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो ॥ ५९-६२॥

सर्वसाम्राज्यमेधाख्यनामसाहस्रकस्य च ।

महाकाल ऋषिः प्रोक्त उष्णिक्छन्दः प्रकीर्तितम् ॥ ६३ ॥

देवता दक्षिणा काली मायाबीजं प्रकीर्तितम् ।

ह्रूँ शक्तिः कालिकाबीजं कीलकं परिकीर्तितम् ॥ ६४ ॥

ध्यानं च पूर्ववत्कृत्वा साधयेदिष्टसाधनम् ।

कालिका वरदानादि-स्वेष्टार्थे विनियोगतः ।

कीलकेन षडङ्गानि षड्दीर्घाबीजेन कारयेत् ॥ ६५ ॥

इस सर्वसाम्राज्यमेधादायक कालीसहस्रनाम के (स्वयं) महाकाल ऋषि हैं, उष्णिक् छन्द हैं, दक्षिणमहाकाली देवता हैं, ह्रीं बीज हैं, हूं शक्ति हैं और क्रीं कीलक हैं । कालिका के वरदान से इष्टसिद्धि के लिए विनियोग है। फिर कीलक द्वारा षडङ्गन्यास, करन्यास और पूर्व की भाँति महाकाली का ध्यान कर अपने मनोरथ सिद्धि के लिए कालीसहस्रनाम का पाठ करें ॥ ६३-६५॥

ककारादि काली सहस्रनाम स्तोत्रम्

विनियोगः

ॐ अस्य श्रीसर्वसाम्राज्यमेधाकालीस्वरूप-ककारात्मकसहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य महाकाल-ऋषिरनुष्टुप्छन्दः, श्रीदक्षिणकाली देवता, ह्रीं बीजम्, ह्रूँ शक्तिः, क्रीं कीलकं, कालीवरदानादिस्वेष्टार्थे जपे विनियोगः ।

इस श्रीसर्वसाम्राज्यमेधादायक ककाररूप कालीसहस्रनाम स्तोत्र मन्त्र के महाकाल-ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदक्षिणकाली देवता, ह्रीं बीज, ह्रूँ शक्ति, क्रीं कीलक, काली के वरदान से सकल अभीष्ट सिद्धि के लिए यह विनियोग है ।

न्यासः

न्यास में जिस- जिस अंगों को कहा गया है उनका स्पर्श करते जावें-

ऋष्यादिन्यासः

ॐ महाकाल ऋषये नमः शिरसि ।

उष्णिक्छन्दसे नमः मुखे ।

श्री दक्षिणकालीदेवतायै नमः हृदये ।

ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये ।

ह्रूँ शक्तये नमः पादयोः ।

क्रीं कीलकाय नमः नाभौ ।

विनियोगायनमः सर्वाङ्गे ।

इति ऋष्यादिन्यासः ।

कराङ्गन्यासः

ॐ क्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ क्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।

ॐ क्रूं मध्यमाभ्यां नमः ।

ॐ क्रैं अनामिकाभ्यां नमः ।

ॐ क्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।

ॐ क्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

इति कराङ्गन्यासः ।

षडङ्गन्यासः

ॐ क्रां हृदयाय नमः ।

ॐ क्रीं शिरसे स्वाहा ।

ॐ क्रूं शिखायै वषट् ।

ॐ क्रैं कवचाय हुं ।

ॐ क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ क्रः अस्त्राय फट् ।

इति हृदयादि षडङ्गन्यासः ।

अथ ध्यानम् ।

ॐ करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।

कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमालाविभूषिताम् ॥१॥

दक्षिणा काली जो अत्यंत विकराल, भयानक, खुले केशों वाली, चार भुजाओं वाली, मुंडमाला धारण करने वाली और दिव्य स्वरूप वाली है।

सद्यश्छिन्नशिरःखड्गवामोर्ध्वाधःकराम्बुजाम् ।

अभयं वरदं चैव दक्षिणाधोर्ध्वपाणिकाम् ॥२ ॥

जिनके कमल सदृश बाएं हाथ की ऊपरी और निचली उंगलियों के मध्य में कटा हुआ सिर और एक तलवार है तथा दाहिने हाथ की ऊपरी और निचली अंगुलियों में निर्भयता और वरदान की मुद्रा है।

महामेघप्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बराम् ।

कण्ठावसक्तमुण्डालीगलद्रुधिरचर्चिताम् ॥३॥

महामेघ के समान कांति वाली, वस्त्रहीन और जिनके गले में मुण्डों की माला लटकी हुई है जिससे रक्त की धारा गिर रही हैं।

कर्णावतंसतानीतशवयुग्मभयानकाम् ।

घोरदंष्ट्राकरालास्यां पीनोन्नतपयोधराम् ॥४ ॥

जिनके कान के आभूषणों के रूप में शवों के जोड़े लटक रहे हैं, मुंह में भयानक नुकीले दांत हैं और जो भयानक मुस्कान वाली और विशाल तथा भारी वक्ष वाली हैं।

शवानां करसङ्घातैः कृतकाञ्चीं हसन्मुखीम् ।

सृक्कद्वयगलद्रक्तधाराविस्फुरिताननाम् ॥५ ॥

शवों के हाथों से बनी करधनी वाली, हँसमुख और दोनों कोनों से रक्त की धारा बहने के कारण चमकता हुआ मुखमंडल वाली है।

घोररूपां महारौद्रीं श्मशानालयवासिनीम् ।

दन्तुरां दक्षिणव्यापिमुक्तलम्बकचोच्चयाम् ॥६॥

भयानक रूप वाली, अत्यंत क्रोधित, श्मशान में निवास करने वाली, बड़े- बड़े दांतों वाली और जिनके बाल लंबे और बिखरे हुए हैं।

शवरूपमहादेवहृदयोपरि संस्थिताम् ।

शिवाभिर्घोररूपाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् ॥७॥

जो शवरूप शिव के हृदय के ऊपर विराजमान हैं, जो चारों दिशाओं में भयानक रूप धारण की हुई शिवाओं से घिरी हुई हैं।

महाकालेन सार्धोर्धमुपविष्टरतातुराम् ।

सुखप्रसन्नवदनां स्मेराननसरोरुहाम् ॥८॥

एवं सङ्चिन्तयेद्देवीं श्मशानालयवासिनीम् ॥९॥  

जो महाकाल के साथ, ऊपर की ओर बैठे हुए, आनंदित, कामुक, सुखद और प्रसन्न मुख वाली, खिलते हुए कमल के समान मुख वाली हैं। इस प्रकार, श्मशान में निवास करने वाली देवी का ध्यान करना चाहिए।

अथ ककारादि कालीसहस्रनामस्तोत्रम् प्रारम्भः

ॐ क्रीं काली क्रूँ कराली च कल्याणी कमला कला ।

कलावती कलाढ्या च कलापूज्या कलात्मिका ॥ १॥

कलादृष्टा कलापुष्टा कलामस्ता कलाधरा ।

कलाकोटि कलाभासा कलाकोटिप्रपूजिता ॥ २॥

कलाकर्मकलाधारा कलापारा कलागमा ।

कलाधारा कमलिनी ककारा करुणा कविः ॥ ३॥

ककारवर्णसर्वाङ्गी कलाकोटिविभूषिता ।

ककारकोटिगुणिता कलाकोटिविभूषणा ॥ ४॥

ककारवर्णहृदया ककारमनुमण्डिता ।

ककारवर्णनिलया काकशब्दपरायणा ॥ ५॥

ककारवर्णमुकुटा ककारवर्णभूषणा ।

ककारवर्णरूपा च ककशब्दपरायणा ॥ ६॥

ककवीरास्फालरता कमलाकरपूजिता ।

कमलाकरनाथा च कमलाकररूपधृक् ॥ ७॥

कमलाकरसिद्धिस्था कमलाकरपारदा ।

कमलाकरमध्यस्था कमलाकरतोषिता ॥ ८॥

कथङ्कारपरालापा कथङ्कारपरायणा ।

कथङ्कारपदान्तस्था कथङ्कारपदार्थभूः ॥ ९॥

कमलाक्षी कमलजा कमलाक्षप्रपूजिता ।

कमलाक्षवरोद्युक्ता ककारा कर्बुराक्षरा ॥ १०॥

करतारा करच्छिन्ना करश्यामा करार्णवा ।

करपूज्या कररता करदा करपूजिता ॥ ११॥

करतोया करामर्षा कर्मनाशा करप्रिया ।

करप्राणा करकजा करका करकान्तरा ॥ १२॥

करकाचलरूपा च करकाचलशोभिनी ।

करकाचलपुत्री च करकाचलतोषिता ॥ १३॥

करकाचलगेहस्था करकाचलरक्षिणी ।

करकाचलसम्मान्या करकाचलकारिणी ॥ १४॥

करकाचलवर्षाढ्या करकाचलरञ्जिता ।

करकाचलकान्तारा करकाचलमालिनी ॥ १५॥

करकाचलभोज्या च करकाचलरूपिणी ।

करामलकसंस्था च करामलकसिद्धिदा ॥ १६॥

करामलकसम्पूज्या करामलकतारिणी ।

करामलककाली च करामलकरोचिनी ॥ १७॥

करामलकमाता च करामलकसेविनी ।

करामलकबद्ध्येया करामलकदायिनी ॥ १८॥

कञ्जनेत्रा कञ्जगतिः कञ्जस्था कञ्जधारिणी ।

कञ्जमालाप्रियकरी कञ्जरूपा च कञ्जना ॥ १९॥

कञ्जजातिः कञ्जगतिः कञ्जहोमपरायणा ।

कञ्जमण्डलमध्यस्था कञ्जाभरणभूषिता ॥ २०॥

कञ्जसम्माननिरता कञ्जोत्पत्तिपरायणा ।

कञ्जराशिसमाकारा कञ्जारण्यनिवासिनी ॥ २१॥

करञ्जवृक्षमध्यस्था करञ्जवृक्षवासिनी ।

करञ्जफलभूषाढ्या करञ्जारण्यवासिनी ॥ २२॥

करञ्जमालाभरणा करवालपरायणा ।

करवालप्रहृष्टात्मा करवालप्रिया गतिः ॥ २३॥

करवालप्रिया कन्या करवालविहारिणी ।

करवालमयी कर्मा करवालप्रियङ्करी ॥ २४॥

कबन्धमालाभरणा कबन्धराशिमध्यगा ।

कबन्धकूटसंस्थाना कबन्धानन्तभूषणा ॥ २५॥

कबन्धनादसन्तुष्टा कबन्धासनधारिणी ।

कबन्धगृहमध्यस्था कबन्धवनवासिनी ॥ २६॥

कबन्धकाञ्चीकरणी कबन्धराशिभूषणा ।

कबन्धमालाजयदा कबन्धदेहवासिनी ॥ २७॥

कबन्धासनमान्या च कपालाकल्पधारिणी ।

कपालमालामध्यस्था कपालव्रततोषिता ॥ २८॥

कपालदीपसन्तुष्टा कपालदीपरूपिणी ।

कपालदीपवरदा कपालकज्जलस्थिता ॥ २९॥

कपालमालाजयदा कपालजपतोषिणी ।

कपालसिद्धिसंहृष्टा कपालभोजनोद्यता ॥ ३०॥

कपालव्रतसंस्थाना कपालकमलालया ।

कवित्वामृतसारा च कवित्वामृतसागरा ॥ ३१॥

कवित्वसिद्धिसंहृष्टा कवित्वादानकारिणी ।

कविपृज्या कविगतिः कविरूपा कविप्रिया ॥ ३२॥

कविब्रह्मानन्दरूपा कवित्वव्रततोषिता ।

 

कविमानससंस्थाना कविवाञ्च्छाप्रपूरिणी ॥ ३३॥

कविकण्ठस्थिता कं ह्रीं कंकंकं कविपूर्तिदा ।

कज्जला कज्जलादानमानसा कज्जलप्रिया ॥ ३४॥

कपालकज्जलसमा कज्जलेशप्रपूजिता ।

कज्जलार्णवमध्यस्था कज्जलानन्दरूपिणी ॥ ३५॥

कज्जलप्रियसन्तुष्टा कज्जलप्रियतोषिणी ।

कपालमालाभरणा कपालकरभूषणा ॥ ३६॥

कपालकरभूषाढ्या कपालचक्रमण्डिता ।

कपालकोटिनिलया कपालदुर्गकारिणी ॥ ३७॥

कपालगिरिसंस्थाना कपालचक्रवासिनी ।

कपालपात्रसन्तुष्टा कपालार्घ्यपरायणा ॥ ३८॥

कपालार्घ्यप्रियप्राणा कपालार्घ्यवरप्रदा ।

कपालचक्ररूपा च कपालरूपमात्रगा ॥ ३९॥

कदली कदलीरूपा कदलीवनवासिनी ।

कदलीपुष्पसम्प्रीता कदलीफलमानसा ॥ ४०॥

कदलीहोमसन्तुष्टा कदलीदर्शनोद्यता ।

कदलीगर्भमध्यस्था कदलीवनसुन्दरी ॥ ४१॥

कदम्बपुष्पनिलया कदम्बवनमध्यगा ।

कदम्बकुसुमामोदा कदम्बवनतोषिणी ॥ ४२॥

कदम्बपुष्पसम्पूज्या कदम्बपुष्पहोमदा ।

कदम्बपुष्पमध्यस्था कदम्बफलभोजिनी ॥ ४३॥

कदम्बकाननान्तःस्था कदम्बाचलवासिनी ।

कच्छपा कच्छपाराध्या कच्छपासनसंस्थिता ॥ ४४॥

कर्णपूरा कर्णनासा कर्णाढ्या कालभैरवी ।

कलप्रीता कलहदा कलहा कलहातुरा ॥ ४५॥

कर्णयक्षी कर्णवार्ता कथिनी कर्णसुन्दरी ।

कर्णपिशाचिनी कर्णमञ्जरी कविकक्षदा ॥ ४६॥

कविकक्षाविरूपाढ्या कविकक्षस्वरूपिणी ।

कस्तूरीमृगसंस्थाना कस्तूरीमृगरूपिणी ॥ ४७॥

कस्तूरीमृगसन्तोषा कस्तूरीमृगमध्यगा ।

कस्तूरीरसनीलाङ्गी कस्तूरीगन्धतोषिता ॥ ४८॥

कस्तूरीपूजकप्राणा कस्तूरीपूजकप्रिया ।

कस्तूरीप्रेमसन्तुष्टा कस्तूरीप्राणधारिणी ॥ ४९॥

कस्तूरीपूजकानन्दा कस्तूरीगन्धरूपिणी ।

कस्तूरीमालिकारूपा कस्तूरीभोजनप्रिया ॥ ५०॥

कस्तूरीतिलकानन्दा कस्तूरीतिलकप्रिया ।

कस्तूरीहोमसन्तुष्टा कस्तूरीतर्पणोद्यता ॥ ५१॥

कस्तूरीमार्जनोद्युक्ता कस्तूरीचक्रपूजिता ।

कस्तूरीपुष्पसम्पूज्या कस्तूरीचर्वणोद्यता ॥ ५२॥

कस्तूरीगर्भमध्यस्था कस्तूरीवस्त्रधारिणी ।

कस्तूरीकामोदरता कस्तूरीवनवासिनी ॥ ५३॥

कस्तूरीवनसंरक्षा कस्तूरीप्रेमधारिणी ।

कस्तूरीशक्तिनिलया कस्तूरीशक्तिकुण्डगा ॥ ५४॥

कस्तूरीकुण्डसंस्नाता कस्तूरीकुण्डमज्जना ।

कस्तूरीजीवसन्तुष्टा कस्तूरीजीवधारिणी ॥ ५५॥

कस्तूरीपरमामोदा कस्तूरीजीवनक्षमा ।

कस्तूरीजातिभावस्था कस्तूरीगन्धचुम्बना ॥ ५६॥

कसतूरीगन्धसंशोभाविराजितकपालभूः ।

कस्तूरीमदनान्तःस्था कस्तूरीमदहर्षदा ॥ ५७॥

कस्तूरीकवितानाढ्या कस्तूरीगृहमध्यगा ।

कस्तूरीस्पर्शकप्राणा कस्तूरीविन्दकान्तका ॥ ५८॥

कस्तूर्य्यामोदरसिका कस्तूरीक्रीडनोद्यता ।

कस्तूरीदाननिरता कस्तूरीवरदायिनी ॥ ५९॥

कस्तूरीस्थापनासक्ता कस्तूरीस्थानरञ्जिनी ।

कस्तूरीकुशलप्रश्ना कस्तूरीस्तुतिवन्दिता ॥ ६०॥

कस्तूरीवन्दकाराध्या कस्तूरीस्थानवासिनी ।

कहरूपा कहाढ्या च कहानन्दा कहात्मभूः ॥ ६१॥

कहपूज्या कहाख्या च कहहेया कहात्मिका ।

कहमालाकण्ठभूषा कहमन्त्रजपोद्यता ॥ ६२॥

कहनामस्मृतिपरा कहनामपरायणा ।

कहपरायणरता कहदेवी कहेश्वरी ॥ ६३॥

कहहेतु कहानन्दा कहनादपरायणा ।

कहमाता कहान्तःस्था कहमन्त्रा कहेश्वरी ॥ ६४॥

कहज्ञेया कहाराध्या कहध्यानपरायणा ।

कहतन्त्रा कहकहा कहचर्य्यापरायणा ॥ ६५॥

कहाचारा कहगतिः कहताण्डवकारिणी ।

कहारण्या कहरतिः कहशक्तिपरायणा ॥ ६६॥

कहराज्यनता कर्मसाक्षिणी कर्मसुन्दरी ।

कर्मविद्या कर्मगतिः कर्मतन्त्रपरायणा ॥ ६७॥

कर्ममात्रा कर्मगात्रा कर्मधर्मपरायणा ।

कर्मरेखानाशकर्त्री कर्मरेखाविनोदिनी ॥ ६८॥

कर्मरेखामोहकरी कर्मकीर्तिपरायणा ।

कर्मविद्या कर्मसारा कर्माधारा च कर्मभूः ॥ ६९॥

कर्मकारी कर्महारी कर्मकौतुकसुन्दरी ।

कर्मकाली कर्मतारा कर्मच्छिन्ना च कर्मदा ॥ ७०॥

कर्मचाण्डालिनी कर्मवेदमाता च कर्मभूः ।

कर्मकाण्डरतानन्ता कर्मकाण्डानुमानिता ॥ ७१॥

कर्मकाण्डपरीणाहा कमठी कमठाकृतिः ।

कमठाराध्यहृदया कमठाकण्ठसुन्दरी ॥ ७२॥

कमठासनसंसेव्या कमठी कर्मतत्परा ।

करुणाकरकान्ता च करुणाकरवन्दिता ॥ ७३॥

कठोरा करमाला च कठोरकुचधारिणी ।

कपर्दिनी कपटिनी कठिना कङ्कभूषणा ॥ ७४॥

करभोरूः कठिनदा करभा करभालया ।

कलभाषामयी कल्पा कल्पना कल्पदायिनी ॥ ७५॥

कमलस्था कलामाला कमलास्या क्कणत्प्रभा ।

ककुद्मिनी कष्टवती करणीयकथार्चिता ॥ ७६॥

कचार्चिता कचतनुः कचसुन्दरधारिणी ।

कठोरकुचसंलग्ना कटिसूत्रविराजिता ॥ ७७॥

कर्णमक्षप्रिया कन्दा कथाकन्दगतिः कलिः ।

कलिघ्नी कलिदूती च कविनायक-पूजिता ॥ ७८॥

कणकक्षानियन्त्री च कश्चित्कविवरार्चिता ।

कर्त्री च कर्तृका भूषाकारिणी कर्णशत्रुपा ॥ ७९॥

करणेशी करणपा कलवाचा कलानिधिः ।

कलना कलनाधारा कलना कारिका करा ॥ ८०॥

कलगेया कर्कराशिः कर्कराशि-प्रपूजिता ।

कन्याराशिः कन्यका च कन्यकाप्रियभाषिणी ॥ ८१॥

कन्यकादानसन्तुष्टा कन्यकादानतोषिणी ।

कन्यादानकरानन्दा कन्यादानग्रहेष्टदा ॥ ८२॥

कर्षणा कक्षदहना कामिता कमलासना ।

करमालानन्दकर्त्री करमालाप्रपोषिता ॥ ८३॥

करमालाशयानन्दा करमालासमागमा ।

करमालासिद्धिदात्री करमालाकरप्रिया ॥ ८४॥

करप्रिया कररता करदानपरायणा ।

कलानन्दा कलिगतिः कलिपूज्या कलिप्रसूः ॥ ८५॥

कलनादनिनादस्था कलनादवरप्रदा ।

कलनादसमाजस्था कहोला च कहोलदा ॥ ८६॥

कहोलगेहमध्यस्था कहोलवरदायिनी ।

कहोलकविताधारा कहोलऋषिमानिता ॥ ८७॥

कहोलमानसाराध्या कहोलवाक्यकारिणी ।

कर्तृरूपा कर्तृमयी कर्तृमाता च कर्तरी ॥ ८८॥

कनीया कनकाराध्या कनीनकमयी तथा ।

कनीयानन्दनिलया कनकानन्दतोषिता ॥ ८९॥

कनीयककराकाष्ठा कथार्णवकरी करी ।

करिगम्या करिगतिः करिध्वजपरायणा ॥ ९०॥

करिनाथप्रियाकण्ठा कथानकप्रतोषिता ।

कमनीया कमनका कमनीयविभूषणा ॥ ९१॥

कमनीयसमाजस्था कमनीयव्रतप्रिया ।

कमनीयगुणाराध्या कपिला कपिलेश्वरी ॥ ९२॥

कपिलाराध्यहृदया कपिलाप्रियवादिनी ।

कहचक्रमन्त्रवर्णा कहचक्रप्रसूनका ॥ ९३॥

कए‍ईलह्रींस्वरूपा च कए‍ईलह्रींवरप्रदा ।

कए‍ईलह्रींसिद्धिदात्री कए‍ईलह्रींस्वरूपिणी ॥ ९४॥

कए‍ईलह्रींमन्त्रवर्णा कए‍ईलह्रींप्रसूकला ।

कवर्गा च कपाटस्था कपाटोद्घाटनक्षमा ॥ ९५॥

कङ्काली च कपाली च कङ्कालप्रियभाषिणी ।

कङ्कालभैरवाराध्या कङ्कालमानसंस्थिता ॥ ९६॥

कङ्कालमोहनिरता कङ्कालमोहदायिनी ।

कलुषघ्नी कलुषहा कलुषार्तिविनाशिनी ॥ ९७॥

कलिपुष्पा कलादाना कशिपुः कश्यपार्चिता ।

कश्यपा कश्यपाराध्या कलिपूर्णकलेवरा ॥ ९८॥

कलेश्वरकरी काञ्ची कवर्गा च करालका ।

करालभैरवाराध्या करालभैरवेश्वरी ॥ ९९॥

कराला कलनाधारा कपर्दीशवरप्रदा ।

कपर्दीशप्रेमलता कपर्दिमालिकायुता ॥ १००॥

कपर्दिजपमालाढ्या करवीरप्रसूनदा ।

करवीरप्रियप्राणा करवीरप्रपूजिता ॥ १०१॥

कर्णिकारसमाकारा कर्णिकारप्रपूजिता ।

करिषाग्निस्थिता कर्षा कर्षमात्रसुवर्णदा ॥ १०२॥

कलशा कलशाराध्या कषाया करिगानदा ।

कपिला कलकण्ठी च कलिकल्पलता मता ॥ १०३॥

कल्पलता कल्पमाता कल्पकारी च कल्पभूः ।

कर्पूरामोदरुचिरा कर्पूरामोदधारिणी ॥ १०४॥

कर्पूरमालाभरणा कर्पूरवासपूर्तिदा ।

कर्पूरमालाजयदा कर्पूरार्णवमध्यगा ॥ १०५॥

कर्पूरतर्पणरता कटकाम्बरधारिणी ।

कपटेश्ववरसम्पूज्या कपटेश्वररूपिणी ॥ १०६॥

कटुः कपिध्वजाराध्या कलापपुष्पधारिणी ।

कलापपुष्परुचिरा कलापपुष्पपूजिता ॥ १०७॥

क्रकचा क्रकचाराध्या कथम्ब्रूमा करालता ।

कथङ्कारविनिर्मुक्ता काली कालक्रिया क्रतुः ॥ १०८॥

कामिनी कामिनीपूज्या कामिनीपुष्पधारिणी ।

कामिनीपुष्पनिलया कामिनीपुष्पपूर्णिमा ॥ १०९॥

कामिनीपुष्पपूजार्हा कामिनीपुष्पभूषणा ।

कामिनीपुष्पतिलका कामिनीकुण्डचुम्बना ॥ ११०॥

कामिनीयोगसन्तुष्टा कामिनीयोगभोगदा ।

कामिनीकुण्डसम्मग्ना कामिनीकुण्डमध्यगा ॥ १११॥

कामिनीमानसाराध्या कामिनीमानतोषिता ।

कामिनीमानसञ्चारा कालिका कालकालिका ॥ ११२॥

कामा च कामदेवी च कामेशी कामसम्भवा ।

कामभावा कामरता कामार्ता काममञ्जरी ॥ ११३॥

काममञ्जीररणिता कामदेवप्रियान्तरा ।

कामकाली कामकला कालिका कमलार्चिता ॥ ११४॥

कादिका कमला काली कालानलसमप्रभा ।

कल्पान्तदहना कान्ता कान्तारप्रियवासिनी ॥ ११५॥

कालपूज्या कालरता कालमाता च कालिनी ।

कालवीरा कालघोरा कालसिद्धा च कालदा ॥ ११६॥

कालञ्जनसमाकारा कालञ्जरनिवासिनी ।

कालऋद्धिः कालवृद्धिः कारागृहविमोचिनी ॥ ११७॥

कादिविद्या कादिमाता कादिस्था कादिसुन्दरी ।

काशी काञ्ची च काञ्चीशा काशीशवरदायिनी ॥ ११८॥

क्रां बीजा चैव क्रीं बीजा हृदयाय नमस्स्मृता ।

काम्या काम्यगतिः काम्यसिद्धिदात्री च कामभूः ॥ ११९॥

कामाख्या कामरूपा च कामचापविमोचिनी ।

कामदेवकलारामा कामदेवकलालया ॥ १२०॥

कामरात्रिः कामदात्री कान्ताराचलवासिनी ।

कामरूपा कालगतिः कामयोगपरायणा ॥ १२१॥

कामसम्मर्दनरता कामगेहविकासिनी ।

कालभैरवभार्या च कालभैरवकामिनी ॥ १२२॥

कालभैरवयोगस्था कालभैरवभोगदा ।

कामधेनुः कामदोग्ध्री काममाता च कान्तिदा ॥ १२३॥

कामुका कामुकाराध्या कामुकानन्दवर्द्धिनी ।

कार्त्तवीर्य्या कार्त्तिकेया कार्त्तिकेयप्रपूजिता ॥ १२४॥

कार्य्या कारणदा कार्य्यकारिणी कारणान्तरा ।

कान्तिगम्या कान्तिमयी कात्या कात्यायनी च का ॥ १२५॥

कामसारा च काश्मीरा काश्मीराचारतत्परा ।

कामरूपाचाररता कामरूपप्रियंवदा ॥ १२६॥

कामरूपाचारसिद्धिः कामरूपमनोमयी ।

कार्त्तिकी कार्त्तिकाराध्या काञ्चनारप्रसूनभूः ॥ १२७॥

काञ्चनारप्रसूनाभा काञ्चनारप्रपूजिता ।

काञ्चरूपा काञ्चभूमिः कांस्यपात्रप्रभोजिनी ॥ १२८॥

कांस्यध्वनिमयी कामसुन्दरी कामचुम्बना ।

काशपुष्पप्रतीकाशा कामद्रुमसमागमा ॥ १२९॥

कामपुष्पा कामभूमिः कामपूज्या च कामदा ।

कामदेहा कामगेहा कामबीजपरायणा ॥ १३०॥

कामध्वजसमारूढा कामध्वजसमास्थिता ।

काश्यपी काश्यपाराध्या काश्यपानन्ददायिनी ॥ १३१॥

कालिन्दीजलसङ्काशा कालिन्दीजलपूजिता ।

कादेवपूजानिरता कादेवपरमार्थदा ॥ १३२॥

कर्मणा कर्मणाकारा कामकर्मणकारिणी ।

कार्म्मणत्रोटनकरी काकिनी कारणाह्वया ॥ १३३॥

काव्यामृता च कालिङ्गा कालिङ्गमर्दनोद्यता ।

कालागरुविभूषाढ्या कालागरुविभूतिदा ॥ १३४॥

कालागरुसुगन्धा च कालागरुप्रतर्पणा ।

कावेरीनीरसम्प्रीता कावेरीतीरवासिनी ॥ १३५॥

कालचक्रभ्रमाकारा कालचक्रनिवासिनी ।

कानना काननाधारा कारुः कारुणिकामयी ॥ १३६॥

काम्पिल्यवासिनी काष्ठा कामपत्नी च कामभूः ।

कादम्बरीपानरता तथा कादम्बरीकला ॥ १३७॥

कामवन्द्या च कामेशी कामराजप्रपूजिता ।

कामराजेश्वरीविद्या कामकौतुकसुन्दरी ॥ १३८॥

काम्बोजजा काञ्छिनदा कांस्यकाञ्चनकारिणी ।

काञ्चनाद्रिसमाकारा काञ्चनाद्रिप्रदानदा ॥ १३९॥

कामकीर्तिः कामकेशी कारिका कान्तराश्रया ।

कामभेदी च कामार्तिनाशिनी कामभूमिका ॥ १४०॥

कालानलाशिनी काव्यवनिता कामरूपिणी ।

कायस्था कामसन्दीप्तिः काव्यदा कालसुन्दरी ॥ १४१॥

कामेशी कारणवरा कामेशीपूजनोद्यता ।

काञ्ची-नूपुरभूषाढ्या-कुङ्कुमाभरणान्विता ॥ १४२॥

कालचक्रा कालगतिः कालचक्रामनोभवा ।

कुन्दमध्या कुन्दपुष्पा कुन्दपुष्पप्रिया कुजा ॥ १४३॥

कुजमाता कुजाराध्या कुठारवरधारिणी ।

कुञ्चरस्था कुशरता कुशेशयविलोचना ॥ १४४॥

कुमठी कुररी कुद्रा कुरङ्गी कुटजाश्रया ।

कुम्भीनसविभूषा च कुम्भीनसवधोद्यता ॥ १४५॥

कुम्भकर्णमनोल्लासा कुलचूडामणिः कुला ।

कुलालगृहकन्या च कुलचूडामणिप्रिया ॥ १४६॥

कुलपूज्या कुलाराध्या कुलपूजापरायणा ।

कुलभूषा तथा कुक्षिः कुररीगणसेविता ॥ १४७॥

कुलपुष्पा कुलरता कुलपुष्पपरायणा ।

कुलवस्त्रा कुलाराध्या कुलकुण्डसमप्रभा ॥ १४८॥

कुलकुण्डसमोल्लासा कुण्डपुष्पपरायणा ।

कुण्डपुष्पप्रसन्नास्या कुण्डगोलोद्भवात्मिका ॥ १४९॥

कुण्डगोलोद्भवाधारा कुण्डगोलमयी कुहूः ।

कुण्डगोलप्रियप्राणा कुण्डगोलप्रपूजिता ॥ १५०॥

कुण्डगोलमनोल्लासा कुण्डगोलबलप्रदा ।

कुण्डदेवरता क्रुद्धा कुलसिद्धिकरा परा ॥ १५१॥

कुलकुण्डसमाकारा कुलकुण्डसमानभूः ।

कुण्डसिद्धिः कुण्डऋद्धिः कुमारीपूजनोद्यता ॥ १५२॥

कुमारीपूजकप्राणा कुमारीपूजकालया ।

कुमारीकामसन्तुष्टा कुमारीपूजनोत्सुका ॥ १५३॥

कुमारीव्रतसन्तुष्टा कुमारीरूपधारिणी ।

कुमारीभोजनप्रीता कुमारी च कुमारदा ॥ १५४॥

कुमारमाता कुलदा कुलयोनिः कुलेश्वरी ।

कुललिङ्गा कुलानन्दा कुलरम्या कुतर्कधृक् ॥ १५५॥

कुन्ती च कुलकान्ता च कुलमार्गपरायणा ।

कुल्ला च कुरुकुल्ला च कुल्लुका कुलकामदा ॥ १५६॥

कुलिशाङ्गी कुब्जिका च कुब्जिकानन्दवर्द्धिनी ।

कुलीना कुञ्जरगतिः कुञ्जरेश्वरगामिनी ॥ १५७॥

कुलपाली कुलवती तथैव कुलदीपिका ।

कुलयोगेश्वरी कुण्डा कुङ्कुमारुणविग्रहा ॥ १५८॥

कुङ्कुमानन्दसन्तोषा कुङ्कुमार्णववासिनी ।

कुसुमा कुसुमप्रीता कुलभूः कुलसुन्दरी ॥ १५९॥

कुमुद्वती कुमुदिनी कुशला कुलटालया ।

कुलटालयमध्यस्था कुलटासङ्गतोषिता ॥ १६०॥

कुलटाभवनोद्युक्ता कुशावर्ता कुलार्णवा ।

कुलार्णवाचाररता कुण्डली कुण्डलाकृतिः ॥ १६१॥

कुमतिश्च कुलश्रेष्ठा कुलचक्रपरायणा ।

कूटस्था कूटदृष्टिश्च कुन्तला कुन्तलाकृतिः ॥ १६२॥

कुशलाकृतिरूपा च कूर्चबीजधरा च कूः ।

कुं कुं कुं कुं शब्दरता क्रूं क्रूं क्रूं क्रूं परायणा ॥ १६३॥

कुं कुं कुं शब्दनिलया कुक्कुरालयवासिनी ।

कुक्कुरासङ्गसंयुक्ता कुक्कुरानन्तविग्रहा ॥ १६४॥

कूर्चारम्भा कूर्चबीजा कूर्चजापपरायणा ।

कुलिनी कुलसंस्थाना कूर्चकण्ठपरागतिः ॥ १६५॥

कूर्चवीणाभालदेशा कूर्चमस्तकभूषिता ।

कुलवृक्षगता कूर्मा कूर्माचलनिवासिनी ॥ १६६॥

कुलबिन्दुः कुलशिवा कुलशक्तिपरायणा ।

कुलबिन्दुमणिप्रख्या कुङ्कुमद्रुमवासिनी ॥ १६७॥

कुचमर्दनसन्तुष्टा कुचजापपरायणा ।

कुचस्पर्शनसन्तुष्टा कुचालिङ्गनहर्षदा ॥ १६८॥

कुमतिघ्नी कुबेरार्च्या कुचभूः कुलनायिका ।

कुगायना कुचधरा कुमाता कुन्ददन्तिनी ॥ १६९॥

कुगेया कुहराभासा कुगेया कुघ्नदारिभा ।

कीर्तिः किरातिनी क्लिन्ना किन्नरा किन्नरीक्रिया ॥ १७०॥

क्रीङ्कारा क्रीञ्जपासक्ता क्रीं हूँ स्त्रीं मन्त्ररूपिणी ।

किर्मीरितदृशापाङ्गी किशोरी च किरीटिनी ॥ १७१॥

कीटभाषा कीटयोनिः कीटमाता च कीटदा ।

किंशुका कीरभाषा च क्रियासारा क्रियावती ॥ १७२॥

कींकींशब्दपरा क्लां क्लीं क्लूँ क्लैं क्लौं मन्त्ररूपिणी ।

काँ कीं कूँ कैं स्वरूपा च कः फट् मन्त्रस्वरूपिणी ॥ १७३॥

केतकीभूषणानन्दा केतकीभरणान्विता ।

कैकदा केशिनी केशी केशीसूदनतत्परा ॥ १७४॥

केशरूपा केशमुक्ता कैकेयी कौशिकी तथा ।

कैरवा कैरवाह्लादा केशरा केतुरूपिणी ॥ १७५॥

केशवाराध्यहृदया केशवासक्तमानसा ।

क्लैब्यविनाशिनी क्लैं च क्लैं बीजजपतोषिता ॥ १७६॥

कौशल्या कोशलाक्षी च कोशा च कोमला तथा ।

कोलापुरनिवासा च कोलासुरविनाशिनी ॥ १७७॥

कोटिरूपा कोटिरता क्रोधिनी क्रोधरूपिणी ।

केका च कोकिला कोटिः कोटिमन्त्रपरायणा ॥ १७८॥

कोट्यानन्तमन्त्रयुक्ता कैरूपा केरलाश्रया ।

केरलाचारनिपुणा केरलेन्द्रगृहस्थिता ॥ १७९॥

केदाराश्रमसंस्था च केदारेश्वरपूजिता ।

क्रोधरूपा क्रोधपदा क्रोधमाता च कौशिकी ॥ १८०॥

कोदण्डधारिणी क्रौञ्चा कौशल्या कौलमार्गगा ।

कौलिनी कौलिकाराध्या कौलिकागारवासिनी ॥ १८१॥

कौतुकी कौमुदी कौला कुमारी कौरवार्चिता ।

कौण्डिन्या कौशिकी क्रोधा ज्वालाभासुररूपिणी ॥ १८२॥

कोटिकालानलज्वाला कोटिमार्त्तण्डविग्रहा ।

कृत्तिका कृष्णवर्णा च कृष्णा कृत्या क्रियातुरा ॥ १८३॥

कृशाङ्गी कृतकृत्या च क्रः फट्स्वाहास्वरूपिणी ।

क्रौं क्रौं हूँ फट्मन्त्रवर्णा क्रां ह्रीं ह्रूँ फट्स्वरूपिणी ॥ १८४॥

क्रींक्रींह्रींह्रीं तथा ह्रूँ हूँफट्स्वाहामन्त्ररूपिणी ।

इति श्रीसर्वसाम्राज्यमेधानाम सहस्रकम् ॥ १८५॥

॥ इति श्रीमदादिनाथमहाकालविरचितायां महाकालसंहितायां कालकालीसंवादे सुन्दरीशक्तिदानाख्यं कालीस्वरूप मेधासाम्राज्यप्रदं सहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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