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परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्

परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्

परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्- दुर्वासा की भाँति परशुराम भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया (हर बार हताहत क्षत्रियों की पत्नियाँ जीवित रहीं और नई पीढ़ी को जन्म दिया) और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया। रामावतार में रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आये थे। इन्होंने परीक्षा के लिए उनका धनुष रामचन्द्र को दिया। जब राम ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गये कि रामचन्द्र विष्णु के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गये। 'कहि जय जय रघुकुल केतू। भुगुपति गए बनहि तप हेतु॥' यह वर्णन 'राम चरितमानस', प्रथम सोपान में 267 से 284 दोहे तक मिलता है। यहाँ पाठकों के लाभार्थ भगवान श्री परशुराम जी की परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम् (२८ नाम) दिया जा रहा है।

परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्

परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्

ऋषिरुवाच ।

यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलान्तकम् ।

त्रिःसप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्रियां महीम् ॥ १॥

दुष्टं क्षत्रं भुवो भारमब्रह्मण्यमनीनशत् ।

तस्य नामानि पुण्यानि वच्मि ते पुरुषर्षभ ॥ २॥

भूभारहरणार्थाय मायामानुषविग्रहः ।

जनार्दनांशसम्भूतः स्थित्युत्पत्त्यप्ययेश्वरः ॥ ३॥

भार्गवो जामदग्न्यश्च पित्राज्ञापरिपालकः ।

मातृप्राणप्रदो धीमान् क्षत्रियान्तकरः प्रभुः ॥ ४॥

रामः परशुहस्तश्च कार्तवीर्यमदापहः ।

रेणुकादुःखशोकघ्नो विशोकः शोकनाशनः ॥ ५॥

नवीननीरदश्यामो रक्तोत्पलविलोचनः ।

घोरो दण्डधरो धीरो ब्रह्मण्यो ब्राह्मणप्रियः ॥ ६॥

तपोधनो महेन्द्रादौ न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः ।

उपगीयमानचरितः सिद्धगन्धर्वचारणैः ॥ ७॥

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखशोकभयातिगः ।

इत्यष्टाविंशतिर्नाम्नामुक्ता स्तोत्रात्मिका शुभा ॥ ८॥

अनया प्रीयतां देवो जामदग्न्यो महेश्वरः ।

नेदं स्तोत्रमशान्ताय नादान्तायातपस्विने ॥ ९॥

नावेदविदुषे वाच्यमशिष्याय खलाय च ।

नासूयकायानृजवे न चानिर्दिष्टकारिणे ॥ १०॥

इदं प्रियाय पुत्राय शिष्यायानुगताय च ।

रहस्यधर्मो वक्तव्यो नान्यस्मै तु कदाचन ॥ ११॥

॥ इति परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


श्रीपरशुरामाष्टाविंशतिनामावलिः

भूभारभरणार्थाय मायामानुषविग्रहाय नमः ।

जनार्दनांशसम्भूताय । स्थित्युत्पत्त्यप्ययेश्वराय । भार्गवाय ।

जामदग्न्याय । पित्राज्ञापरिपालकाय । मातृप्राणप्रदाय ।

श्रीमते । क्षत्रियान्तकराय । प्रभवे । रामाय । परशुहस्ताय ।

कार्तवीर्यमदापहाय । रेणुकादुःखशोकघ्नाय । विशोकाय ।

शोकनाशनाय । नवीननीरदश्यामाय । रक्तोत्पलबिलोचनाय ।

घोराय । दण्डधराय । धीराय । ब्रह्मण्याय । ब्राह्मणप्रियाय ।

तपोधनाय । महेन्द्राद्रौ न्यस्तदण्डाय । प्रशान्तधिये ।

सिद्धगन्धर्वचारणैरुपगीयमानचरिताय ।

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखशोकभयातिगाय नमः ॥ २८

पायाद्वो जमदग्निवंशतिलको वीरव्रतालङ्कृतो

रामो नाम मुनीश्वरो नृपवधे भास्वत्कुठारायुधः ।

येनाशेषहताहिताङ्गरुधिरैः सन्तर्पिताः पूर्वजाः

भक्त्या चाश्वमखे समुद्रवसना भूर्हन्तकारीकृता ॥

इति श्रीपरशुरामाष्टाविंशतिनामावलिः समाप्ता ।

परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्


आरती श्री परशुराम की

शौर्य तेज बल-बुद्धि धाम की॥

रेणुकासुत जमदग्नि के नंदन।

कौशलेश पूजित भृगु चंदन॥

अज अनंत प्रभु पूर्णकाम की।

आरती कीजे श्री परशुराम की॥

नारायण अवतार सुहावन।

प्रगट भए महि भार उतारन॥

क्रोध कुंज भव भय विराम की।

आरती कीजे श्री परशुराम की॥

परशु चाप शर कर में राजे।

ब्रह्मसूत्र गल माल विराजे॥

मंगलमय शुभ छबि ललाम की।

आरती कीजे श्री परशुराम की॥

जननी प्रिय पितृ आज्ञाकारी।

दुष्ट दलन संतन हितकारी॥

ज्ञान पुंज जग कृत प्रणाम की।

आरती कीजे श्री परशुराम की॥

परशुराम वल्लभ यश गावे।

श्रद्घायुत प्रभु पद शिर नावे॥

छहहिं चरण रति अष्ट याम की।

आरती कीजे श्री परशुराम की॥

परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम् व नामावली तथा आरती समाप्त॥

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