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परशुरामाष्टकम्
परशुराम राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र थे। वे विष्णु के अवतार और शिव के परम भक्त थे। इन्हें शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। परशुराम भगवान विष्णु के दस अवतारों में से छठे अवतार थे, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये 'जामदग्न्य' भी कहे जाते हैं। पुराणोक्त अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था। इनका जन्म अक्षय तृतीया, (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है। अक्षय तृतीया के दिन सर्वकामना की सिद्धि हेतु यह श्रीपरशुरामाष्टकम् पढ़ने से भूमि, धन, ज्ञान, अभीष्ट सिद्धि, दारिद्रय से मुक्ति, शत्रु नाश, संतान प्राप्ति, विवाह, वर्षा, वाक् सिद्धि आदि की प्राप्ति होती है।यहाँ पाठकों के लाभार्थ भगवान श्री परशुरामजी की तीन अलग-अलग अष्टक दिया जा रहा है।
श्रीपरशुरामाष्टकम्
शुभ्रदेहं सदा क्रोधरक्तेक्षणम्
भक्तपालं कृपालुं कृपावारिधिम्
विप्रवंशावतंसं धनुर्धारिणम्
भव्ययज्ञोपवीतं कलाकारिणम्
यस्य हस्ते कुठारं महातीक्ष्णकम्
रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे ॥ १॥
सौम्यरुपं मनोज्ञं सुरैर्वन्दितम्
जन्मतः ब्रह्मचारिव्रते सुस्थिरम्
पूर्णतेजस्विनं योगयोगीश्वरम्
पापसन्तापरोगादिसंहारिणम्
दिव्यभव्यात्मकं शत्रुसंहारकम्
रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे ॥ २॥
ऋद्धिसिद्धिप्रदाता विधाता भुवो
ज्ञानविज्ञानदाता प्रदाता सुखम्
विश्वधाता सुत्राताऽखिलं विष्टपम्
तत्वज्ञाता सदा पातु माम् निर्बलम्
पूज्यमानं निशानाथभासं विभुम्
रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे ॥ ३॥
दुःख दारिद्र्यदावाग्नये तोयदम्
बुद्धिजाड्यं विनाशाय चैतन्यदम्
वित्तमैश्वर्यदानाय वित्तेश्वरम्
सर्वशक्तिप्रदानाय लक्ष्मीपतिम्
मङ्गलं ज्ञानगम्यं जगत्पालकम्
रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे ॥ ४॥
यश्च हन्ता सहस्रार्जुनं हैहयम्
त्रैगुणं सप्तकृत्वा महाक्रोधनैः
दुष्टशून्या धरा येन सत्यं कृता
दिव्यदेहं दयादानदेवं भजे
घोररूपं महातेजसं वीरकम्
रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे ॥ ५॥
मारयित्वा महादुष्ट भूपालकान्
येन शोणेन कुण्डेकृतं तर्पणम्
येन शोणीकृता शोणनाम्नी नदी
स्वस्य देशस्य मूढा हताः द्रोहिणः
स्वस्य राष्ट्रस्य शुद्धिःकृता
शोभना
रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे ॥ ६॥
दीनत्राता प्रभो पाहि माम् पालक!
रक्ष संसाररक्षाविधौ दक्षक!
देहि संमोहनी भाविनी पावनी
स्वीय पादारविन्दस्य सेवा परा
पूर्णमारुण्यरूपं परं मञ्जुलम्
रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे ॥ ७॥
ये जयोद्घोषकाः पादसम्पूजकाः
सत्वरं वाञ्छितं ते लभन्ते नराः
देहगेहादिसौख्यं परं प्राप्य वै
दिव्यलोकं तथान्ते प्रियं यान्ति ते
भक्तसंरक्षकं विश्वसम्पालकम्
रेणुकानन्दनं जामदग्न्यं भजे ॥ ८॥
॥ इति श्रीपरशुरामाष्टकं सम्पूर्णम्
॥
श्रीपरशुरामाष्टकम् २
आचार्य राधेश्याम अवस्थी ``रसेन्दु'' कृतम्
श्रीमद्भगवत्परशुरामाय नमः ।
विप्रवंशावतंशं सदा नौम्यहं
रेणुकानन्दनं जामदग्ने प्रभो ।
द्रोहक्रोधाग्नि वैकष्टतां लोपकं
रेणुकानन्दनं वन्दते सर्वदा ॥ १॥
क्षत्रदुष्टान्तकं वै करस्यं धनुं
राजतेयस्य हस्ते कुठारं प्रभो ।
फुल्लरक्ताब्ज नेत्रं सदा भास्वरं
रेणुकानन्दनं वन्दते सर्वदा ॥ २॥
तेजसं शुभ्रदेहं विशालौ करौ
श्वेतयज्ञोपवीतं सदाधारकम् ।
दिव्यभाले त्रिपुण्ड्रं जटाजूवरं
रेणुकानन्दनं वन्दते सर्वदा ॥ ३॥
भक्तपालं कृपालं कृपासागरं
रौद्ररूपं करालं सुरैः वन्दितैः ।
जन्मतो ब्रह्मचारी व्रतीधारकः
रेणुकानन्दनं वन्दते सर्वदा ॥ ४॥
ज्ञानविज्ञानशक्तिश्च भण्डारकः
वेदयुद्धेषु विद्यासु पारङ्गतः ।
वासमाहेन्द्रशैले शिवाराधकः
रेणुकानन्दनं वन्दते सर्वदा ॥ ५॥
ज्ञानदाता विधाता सदा भूतले
पापसन्तापकष्टादि संहारकः ।
दिव्यभव्यात्मकं पूर्णं योगीश्वरं
रेणुकानन्दनं वन्दते सर्वदा ॥ ६॥
आर्तदुःखादिकानां सदारक्षकः
भीतदैत्यादिकानां सदा नाशकः ।
त्रीन्गुणः सप्तकृत्वातुभूर्दत्तकः
रेणुकानन्दनं वन्दते सर्वदा ॥ ७॥
शीलकारुण्यरूपं दयासागरं
भक्तिदं कीर्तिदं शान्तिदं मोक्षदम्
।
विश्वमायापरं भक्तसंरक्षकं
रेणुकानन्दनं वन्दते सर्वदा ॥ ८॥
भार्गवस्याष्टकं नित्यं प्रातः सायं
पठेन्नरः ।
तस्य सर्वभयं नास्ति भार्गवस्य
प्रसादतः ॥
इति आचार्य राधेश्याम अवस्थी ``रसेन्दु'' कृतम्
श्रीपरशुरामाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
श्रीपरशुरामाष्टकम् ३
॥ श्रीमद्दिव्यपरशुरामाष्टकस्तोत्रम्
॥
ब्रह्मविष्णुमहेशसन्नुतपावनाङ्घ्रिसरोरुहं
नीलनीरजलोचनं हरिमाश्रितामरभूरुहम्
।
केशवं जगदीश्वरं त्रिगुणात्मकं
परपूरुषं
पर्शुराममुपास्महे मम किङ्करिष्यति
योऽपि वै ॥ १॥
अक्षयं कलुषापहं निरुपद्रवं
करुणानिधिं
वेदरूपमनामयं विभुमच्युतं
परमेश्वरम् ।
हर्षदं
जमदग्निपुत्रकमार्यजुष्टपदाम्बुजं
पर्शुराममुपास्महे मम किङ्करिष्यति
योऽपि वै ॥ २॥
रैणुकेयमहीनसत्वकमव्ययं सुजनार्चितं
विक्रमाढ्यमिनाब्जनेत्रकमब्जशार्ङ्गगदाधरम्
।
छत्रिताहिमशेषविद्यगमष्टमूर्तिमनाश्रयं
- ??
पर्शुराममुपास्महे मम किङ्करिष्यति
योऽपि वै ॥ ३॥
बाहुजान्वयवारणाङ्कुशमर्वकण्ठमनुत्तमं
सर्वभूतदयापरं
शिवमब्धिशायिनमौर्वजम् ।
भक्तशत्रुजनार्दनं निरयार्दनं
कुजनार्दनं
पर्शुराममुपास्महे मम किङ्करिष्यति योऽपि वै ॥
४॥
जम्भयज्ञविनाशकञ्च त्रिविक्रमं
दनुजान्तकं
निर्विकारमगोचरं नरसिंहरूपमनर्दहम्
।
वेदभद्रपदानुसारिणमिन्दिराधिपमिष्टदं
पर्शुराममुपास्महे मम किङ्करिष्यति
योऽपि वै ॥ ५॥
निर्जरं गरुडध्वजं धरणीश्वरं
परमोददं
सर्वदेवमहर्षिभूसुरगीतरूपमरूपकम् ।
भूमतापसवेषधारिणमद्रिशञ्च महामहं
पर्शुराममुपास्महे मम किङ्करिष्यति
योऽपि वै ॥ ६॥
सामलोलमभद्रनाशकमादिमूर्तिमिलासुरं
सर्वतोमुखमक्षिकर्षकमार्यदुःखहरङ्कलौ
।
वेङ्कटेश्वररूपकं
निजभक्तपालनदीक्षितं
पर्शुराममुपास्महे मम किङ्करिष्यति
योऽपि वै ॥ ७॥
दिव्यविग्रहधारिणं निखिलाधिपं परमं
महा-
वैरिसूदनपण्डितं गिरिजातपूजितरूपकम्
।
बाहुलेयकुगर्वहारकमाश्रितावळितारकं
पर्शुराममुपास्महे मम किङ्करिष्यति
योऽपि वै ॥ ८॥
पर्शुरामाष्टकमिदं त्रिसन्ध्यं यः
पठेन्नरः
पर्शुरामकृपासारं सत्यं प्राप्नोति
सत्वरम् ॥
॥ इति श्रीपूसपाटि रङ्गनायकामात्य भार्गवर्षिकृत
श्रीमद्दिव्यपरशुरामाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
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