श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, दसवाँ विश्राम
श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, दसवाँ विश्राम
श्री रामचरित
मानस
प्रथम सोपान
(बालकाण्ड)
नाथ संभुधनु
भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ
किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
हे नाथ! शिव
के धनुष को तोड़नेवाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है,
मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले -
सेवकु सो जो
करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम
जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सेवक वह है जो
सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो,
जिसने शिव के धनुष को तोड़ा है,
वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है।
सो बिलगाउ
बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन
लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥
वह इस समाज को
छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मण
मुसकराए और परशुराम का अपमान करते हुए बोले -
बहु धनुहीं
तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर
ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
हे गोसाईं!
लड़कपन में हमने बहुत-सी धनुहियाँ तोड़ डालीं। किंतु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं
किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुराम कुपित होकर कहने
लगे।
दो० - रे नृप
बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम
तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥ 271॥
अरे राजपुत्र!
काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिव
का यह धनुष क्या धनुही के समान है?॥ 271॥
लखन कहा हँसि
हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु
जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥
लक्ष्मण ने
हँसकर कहा - हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक-से ही हैं। पुराने धनुष के
तोड़ने में क्या हानि-लाभ! राम ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था।
छुअत टूट
रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ
परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
फिर यह तो
छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथ का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण
किसलिए क्रोध करते हैं? परशुराम अपने फरसे की ओर देखकर बोले - अरे दुष्ट! तूने मेरा
स्वभाव नहीं सुना।
बालकु बोलि
बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी
अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥
मैं तुझे बालक
जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है?
मैं बालब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का
शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ।
भुजबल भूमि
भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज
छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
अपनी भुजाओं
के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को
दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटनेवाले मेरे इस फरसे को देख!
दो० - मातु
पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के
अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥ 272॥
अरे राजा के
बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है,
यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करनेवाला है॥ 272॥
बिहसि लखनु
बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि
मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
लक्ष्मण हँसकर
कोमल वाणी से बोले - अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार
मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं।
इहाँ
कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु
सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
यहाँ कोई
कुम्हड़े की बतिया (छोटा कच्चा फल) नहीं है, जो तर्जनी (सबसे आगे की) अंगुली को देखते ही मर जाती हैं।
कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था।
भृगुसुत समुझि
जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर महिसुर
हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥
भृगुवंशी
समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता,
ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गौ - इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं
दिखाई जाती।
बधें पापु
अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम
बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
क्योंकि
इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है,
इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक
वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते
हैं।
दो० - जो
बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष
भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥ 273॥
इन्हें
(धनुष-बाण और कुठार को) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो,
तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि
परशुराम क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले - ॥ 273॥
कौसिक सुनहु
मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
भानु बंस
राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥
हे
विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है,
काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह
सूर्यवंशरूपी पूर्णचंद्र का कलंक है। यह बिल्कुल उद्दंड,
मूर्ख और निडर है।
काल कवलु
होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु
जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
अभी क्षण भर
में यह काल का ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ,
फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो,
तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो।
लखन कहेउ मुनि
सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुँह
तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
लक्ष्मण ने
कहा - हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है?
आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से
वर्णन की है।
नहिं संतोषु त
पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती
तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥
इतने पर भी
संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिए। आप वीरता का
व्रत धारण करनेवाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते।
दो० - सूर समर
करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन
पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥ 274॥
शूरवीर तो
युद्ध में करनी (शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर
कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं॥ 274॥
तुम्ह तौ कालु
हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के
बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
आप तो मानो
काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मण के कठोर वचन सुनते ही
परशुराम ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया।
अब जनि देइ
दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि
बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥
(और बोले -) अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़वा बोलनेवाला बालक मारे जाने के ही
योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है।
कौसिक कहा
छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं
अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥
विश्वामित्र
ने कहा - अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते।
(परशुराम बोले -) तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी, और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने।
उतर देत
छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
न त एहि काटि
कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥
उत्तर दे रहा
है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे शील (प्रेम) से। नहीं तो
इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता।
दो० -
गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड़ न
ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥ 275॥
विश्वामित्र
ने हृदय में हँसकर कहा - मुनि को हरा-ही-हरा सूझ रहा है (अर्थात सर्वत्र विजयी
होने के कारण ये राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं),
किंतु यह लौहमयी (केवल फौलाद की बनी हुई) खाँड़ (खाँड़ा -
खड्ग) है,
ऊख की (रस की) खाँड़ नहीं है (जो मुँह में लेते ही गल जाए।
खेद है,)
मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं;
इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं॥ 275॥
कहेउ लखन मुनि
सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता पितहि
उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥
लक्ष्मण ने
कहा - हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह
उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है।
सो जनु हमरेहि
माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ
ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
वह मानो हमारे
ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करनेवाले
को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ।
सुनि कटु बचन
कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु
देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही॥
लक्ष्मण के
कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने कुठार सम्हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी।
(लक्ष्मण ने कहा -) हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं?
पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ
(तरह दे रहा हूँ)।
मिले न कबहुँ
सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बा़ढ़े॥
अनुचित कहि सब
लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥
आपको कभी
रणधीर बलवान वीर नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हैं। यह
सुनकर 'अनुचित है, अनुचित है' कहकर सब लोग पुकार उठे। तब रघुनाथ ने इशारे से लक्ष्मण को
रोक दिया।
दो० - लखन उतर
आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल
सम बचन बोले रघुकुलभानु॥ 276॥
लक्ष्मण के
उत्तर से,
जो आहुति के समान थे, परशुराम के क्रोधरूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य
राम जल के समान (शांत करनेवाले) वचन बोले - ॥ 276॥
नाथ करहु बालक
पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं पै प्रभु
प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥
हे नाथ ! बालक
पर कृपा कीजिए। इस सीधे और दुधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए। यदि यह प्रभु का
(आपका) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता?
जौं लरिका कछु
अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ कृपा सिसु
सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥
बालक यदि कुछ
चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनंद से भर जाते हैं। अतः इसे छोटा
बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं।
राम बचन सुनि
कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने॥
हँसत देखि नख
सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥
राम के वचन
सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मण कुछ कहकर फिर मुसकरा दिए। उनको हँसते
देखकर परशुराम के नख से शिखा तक (सारे शरीर में) क्रोध छा गया। उन्होंने कहा - हे
राम! तेरा भाई बड़ा पापी है।
गौर सरीर
स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ़
अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही॥
यह शरीर से
गोरा,
पर हृदय का बड़ा काला है। यह विषमुख है,
दुधमुँहा नहीं। स्वभाव ही टेढ़ा है,
तेरा अनुसरण नहीं करता (तेरे-जैसा शीलवान नहीं है)। यह नीच
मुझे काल के समान नहीं देखता।
दो० - लखन
कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन
अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥ 277॥
लक्ष्मण ने
हँसकर कहा- हे मुनि! सुनिए, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और
विश्वभर के प्रतिकूल चलते (सबका अहित करते) हैं॥ 277॥
मैं तुम्हार
अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं
जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥
हे मुनिराज!
मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़
नहीं जाएगा। खड़े-खड़े पैर दुःखने लगे होंगे, बैठ जाइए।
जौं अति प्रिय
तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं
जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥
यदि धनुष
अत्यंत ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाए और किसी बड़े गुणी (कारीगर) को बुलाकर
जुड़वा दिया जाए। लक्ष्मण के बोलने से जनक डर जाते हैं और कहते हैं - बस,
चुप रहिए, अनुचित बोलना अच्छा नहीं।
थर थर काँपहिं
पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
भृगुपति सुनि
सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होई बल हानी॥
जनकपुर के
स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं (और मन-ही-मन कह रहे हैं कि) छोटा कुमार बड़ा ही
खोटा है। लक्ष्मण की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुराम का शरीर क्रोध से जला जा रहा
है और उनके बल की हानि हो रही है (उनका बल घट रहा है)।
बोले रामहि
देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु
सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें॥
तब राम पर
एहसान जनाकर परशुराम बोले - तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मन का
मैला और शरीर का कैसा सुंदर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा!
दो० - सुनि
लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने
सकुचि परिहरि बानी बाम॥ 278॥
यह सुनकर
लक्ष्मण फिर हँसे। तब राम ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा,
जिससे लक्ष्मण सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरु के पास चले गए॥ 278॥
अति बिनीत
मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ
तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥
राम दोनों हाथ
जोड़कर अत्यंत विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले - हे नाथ! सुनिए,
आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न
कीजिए (उसे सुना-अनसुना कर दीजिए)।
बररै बालकु
एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥
तेहिं नाहीं
कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥
बर्रै और बालक
का एक स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर उसने (लक्ष्मण ने) तो कुछ
काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूँ।
कृपा कोपु बधु
बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं॥
कहिअ बेगि जेहि
बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥
अतः हे
स्वामी! कृपा, क्रोध, वध और बंधन, जो कुछ करना हो, दास की तरह (अर्थात दास समझकर) मुझ पर कीजिए। जिस प्रकार से
शीघ्र आपका क्रोध दूर हो। हे मुनिराज! बताइए, मैं वही उपाय करूँ।
कह मुनि राम
जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि कें कंठ
कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥
मुनि ने कहा -
हे राम! क्रोध कैसे जाए; अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसकी गर्दन पर
मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या?
दो० - गर्भ
स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत
देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥ 279॥
मेरे जिस
कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं,
उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा
हूँ॥ 279॥
बहइ न हाथु
दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
भयउ बाम बिधि
फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥
हाथ चलता नहीं,
क्रोध से छाती जली जाती है। (हाय!) राजाओं का घातक यह कुठार
भी कुंठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी समय भी कृपा कैसी?
आजु दया दुखु
दुसह सहावा। सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा॥
बाउ कृपा
मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥
आज दया मुझे
यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मण ने मुसकराकर सिर नवाया (और कहा -)
आपकी कृपारूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं, मानो फूल झड़ रहे हैं।
जौं पै कृपाँ
जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
देखु जनक हठि
बालकु एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥
हे मुनि! यदि
कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होने पर तो शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे।
(परशुराम ने कहा -) हे जनक! देख, यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरी में घर (निवास) करना चाहता
है।
बेगि करहु किन
आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृपु ढोटा॥
बिहसे लखनु
कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥
इसको शीघ्र ही
आँखों की ओट क्यों नहीं करते? यह राजपुत्र देखने में छोटा है,
पर है बड़ा खोटा। लक्ष्मण ने हँसकर मन-ही-मन कहा - आँख मूँद
लेने पर कहीं कोई नहीं है।
दो० -
परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु सरासनु
तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥ 280॥
तब परशुराम
हृदय में अत्यंत क्रोध भरकर राम से बोले - अरे शठ! तू शिव का धनुष तोड़कर उलटा
हमीं को ज्ञान सिखाता है॥ 280॥
बंधु कहइ कटु
संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु
मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥
तेरा यह भाई
तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो
युद्ध में मेरा संतोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे।
छलु तजि करहि
समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति बकहिं
कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ॥
अरे
शिवद्रोही! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाई सहित तुझे मार डालूँगा। इस
प्रकार परशुराम कुठार उठाए बक रहे हैं और राम सिर झुकाए मन-ही-मन मुसकरा रहे हैं।
गुनह लखन कर
हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
टेढ़ जानि सब
बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥
(राम ने मन-ही-मन कहा -) गुनाह (दोष) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते हैं।
कहीं-कहीं सीधेपन में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग किसी की भी वंदना
करते हैं;
टेढ़े चंद्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता।
राम कहेउ रिस
तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेहिं रिस जाइ
करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी॥
राम ने
(प्रकट) कहा - हे मुनीश्वर! क्रोध छोड़िए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर
आगे है,
जिस प्रकार आपका क्रोध जाए, हे स्वामी! वही कीजिए। मुझे अपना अनुचर (दास) जानिए।
दो० - प्रभुहि
सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें
कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥ 281॥
स्वामी और
सेवक में युद्ध कैसा? हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! क्रोध का त्याग कीजिए। आपका (वीरों
का-सा) वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था, वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है॥ 281॥
देखि कुठार
बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु जान पै
तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा॥
आपको कुठार,
बाण और धनुष धारण किए देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ
गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश (रघुवंश) के स्वभाव के
अनुसार उसने उत्तर दिया।
जौं तुम्ह
औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु चूक
अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥
यदि आप मुनि
की तरह आते, तो हे स्वामी! बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल को क्षमा
कर दीजिए। ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिए।
हमहि तुम्हहि
सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम मात्र लघु
नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥
हे नाथ! हमारी
और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा-सा नाम
और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम।
देव एकु गुनु
धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम
तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥
हे देव! हमारे
तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता - ये) नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से
आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए।
दो० - बार बार
मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति
सरुष हसि तहूँ बंधू सम बाम॥ 282॥
राम ने
परशुराम को बार-बार 'मुनि' और 'विप्रवर' कहा। तब भृगुपति (परशुराम) कुपित होकर (अथवा क्रोध की हँसी
हँसकर) बोले - तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है॥ 282॥
निपटहिं द्विज
करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप स्त्रुवा
सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥
तू मुझे निरा
ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को स्त्रुवा,
बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यंत भयंकर अग्नि जान।
समिधि सेन
चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मैं एहिं परसु
काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥
चतुरंगिणी
सेना सुंदर समिधाएँ (यज्ञ में जलाई जानेवाली लकड़ियाँ) हैं। बड़े-बड़े राजा उसमें
आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों
जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किए हैं (अर्थात जैसे मंत्रोच्चारण पूर्वक 'स्वाहा' शब्द के साथ आहुति दी जाती है,
उसी प्रकार मैंने पुकार-पुकार कर राजाओं की बलि दी है)।
मोर प्रभाउ
बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भंजेउ चापु
दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥
मेरा प्रभाव
तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है।
धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है।
राम कहा मुनि
कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट
पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥
राम ने कहा -
हे मुनि! विचारकर बोलिए। आपका क्रोध बहुत बड़ा है और मेरी भूल बहुत छोटी है।
पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?
दो० - जौं हम
निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग
सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥ 283॥
हे भृगुनाथ!
यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिए, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है,
जिसे हम डर के मारे मस्तक नवाएँ?॥ 283॥
देव दनुज
भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं रन हमहि
पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥
देवता,
दैत्य, राजा या और बहुत-से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान हों,
यदि रण में हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक
लड़ेंगे,
चाहे काल ही क्यों न हो।
छत्रिय तनु
धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
कहउँ सुभाउ न
कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥
क्षत्रिय का
शरीर धरकर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलंक लगा दिया। मैं स्वभाव से ही
कहता हूँ,
कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते।
बिप्रबंस कै
असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि मृदु
गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥
ब्राह्मणवंश
की ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है (अथवा जो भयरहित होता है,
वह भी आपसे डरता है) रघुनाथ के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन
सुनकर परशुराम की बुद्धि के परदे खुल गए।
राम रमापति कर
धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु
आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥
(परशुराम ने कहा -) हे राम! हे लक्ष्मीपति! धनुष को हाथ में (अथवा लक्ष्मीपति
विष्णु का धनुष) लीजिए और इसे खींचिए, जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुराम धनुष देने लगे,
तब वह आप ही चला गया। तब परशुराम के मन में बड़ा आश्चर्य
हुआ।
दो० - जाना
राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि
बोले बचन हृदयँ न प्रेमु अमात॥ 284॥
तब उन्होंने
राम का प्रभाव जाना, (जिसके कारण) उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ
जोड़कर वचन बोले - प्रेम उनके हृदय में समाता न था - ॥ 284॥
जय रघुबंस बनज
बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र
धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥
हे रघुकुलरूपी
कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुलरूपी घने जंगल को जलानेवाले अग्नि! आपकी जय
हो! हे देवता, ब्राह्मण और गौ का हित करनेवाले! आपकी जय हो। हे मद,
मोह, क्रोध और भ्रम के हरनेवाले! आपकी जय हो।
बिनय सील
करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद
सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥
हे विनय,
शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यंत
चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देनेवाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छवि
धारण करनेवाले! आपकी जय हो।
करौं काह मुख
एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत
कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता॥
मैं एक मुख से
आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेव के मनरूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने
अनजाने में आपको बहुत-से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे क्षमा
कीजिए।
कहि जय जय जय
रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभयँ कुटिल
महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥
हे रघुकुल के
पताका स्वरूप राम! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुराम तप के लिए वन को चले गए। (यह
देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनःकल्पित) डर से (राम से तो परशुराम भी
हार गए,
हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग
गए।
दो० - देवन्ह
दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर
नारि सब मिटी मोहमय सूल॥ 285॥
देवताओं ने
नगाड़े बजाए, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गए।
उनका मोहमय (अज्ञान से उत्पन्न) शूल मिट गया॥ 285॥
अति गहगहे
बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
जूथ जूथ मिलि
सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं॥
खूब जोर से
बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल-साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर नेत्रोंवाली तथा
कोयल के समान मधुर बोलनेवाली स्त्रियाँ झुंड-की-झुंड मिलकर सुंदर गान करने लगीं।
सुखु बिदेह कर
बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
बिगत त्रास भइ
सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥
जनक के सुख का
वर्णन नहीं किया जा सकता, मानो जन्म का दरिद्री धन का खजाना पा गया हो! सीता का भय
जाता रहा;
वे ऐसी सुखी हुईं जैसे चंद्रमा के उदय होने से चकोर की
कन्या सुखी होती है।
जनक कीन्ह
कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
मोहि कृतकृत्य
कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं॥
जनक ने
विश्वामित्र को प्रणाम किया (और कहा -) प्रभु ही की कृपा से राम ने धनुष तोड़ा है।
दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो सो कहिए।
कह मुनि सुनु
नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु
भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥
मुनि ने कहा -
हे चतुर नरेश! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था; धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता,
मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है।
दो० - तदपि
जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र
कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥ 286॥
तथापि तुम
जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा
आचार हो वैसा करो॥ 286॥
दूत अवधपुर
पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥
मुदित राउ कहि
भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥
जाकर अयोध्या
को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लाएँ। राजा ने प्रसन्न होकर कहा - हे कृपालु! बहुत
अच्छा! और उसी समय दूतों को बुलाकर भेज दिया।
बहुरि महाजन
सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
हाट बाट मंदिर
सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥
फिर सब
महाजनों को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर नवाया। (राजा ने कहा -)
बाजार,
रास्ते, घर, देवालय और सारे नगर को चारों ओर से सजाओ।
हरषि चले निज
निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
रचहु बिचित्र
बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥
महाजन प्रसन्न
होकर चले और अपने-अपने घर आए। फिर राजा ने नौकरों को बुला भेजा (और उन्हें आज्ञा
दी कि) विचित्र मंडप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वे सब राजा के वचन सिर पर धरकर और
सुख पाकर चले।
पठए बोलि गुनी
तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
बिधिहि बंदि
तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥
उन्होंने अनेक
कारीगरों को बुला भेजा, जो मंडप बनाने में कुशल और चतुर थे। उन्होंने ब्रह्मा की
वंदना करके कार्य आरंभ किया और (पहले) सोने के केले के खंभे बनाए।
दो० - हरित
मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना देखि
बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥ 287॥
हरी-हरी
मणियों (पन्ने) के पत्ते और फल बनाए तथा पद्मराग मणियों (माणिक) के फूल बनाए। मंडप
की अत्यंत विचित्र रचना देखकर ब्रह्मा का मन भी भूल गया॥ 287॥
बेनु हरित
मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
कनक कलित
अहिबेलि बनाई। लखि नहिं परइ सपरन सुहाई॥
बाँस सब
हरी-हरी मणियों (पन्ने) के सीधे और गाँठों से युक्त ऐसे बनाए जो पहचाने नहीं जाते
थे (कि मणियों के हैं या साधारण)। सोने की सुंदर नागबेली (पान की लता) बनाई,
जो पत्तों सहित ऐसी भली मालूम होती थी कि पहचानी नहीं जाती
थी।
तेहि के रचि
पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकुता दाम सुहाए॥
मानिक मरकत
कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥
उसी नागबेली
के रचकर और पच्चीकारी करके बंधन (बाँधने की रस्सी) बनाए। बीच-बीच में मोतियों की
सुंदर झालरें हैं। माणिक, पन्ने, हीरे और फिरोजे, इन रत्नों को चीरकर, कोरकर और पच्चीकारी करके, इनके (लाल, हरे, सफेद और फीरोजी रंग के) कमल बनाए।
किए भृंग
बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
सुर प्रतिमा
खंभन गढ़ि काढ़ीं। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ीं॥
भौंरे और बहुत
रंगों के पक्षी बनाए, जो हवा के सहारे गूँजते और कूजते थे। खंभों पर देवताओं की
मूर्तियाँ गढ़कर निकालीं, जो सब मंगल द्रव्य लिए खड़ी थीं।
चौकें भाँति
अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाईं॥
गजमुक्ताओं के
सहज ही सुहावने अनेकों तरह के चौक पुराए।
दो० - सौरभ
पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।
हेम बौर मरकत
घवरि लसत पाटमय डोरि॥ 288॥
नील मणि को
कोरकर अत्यंत सुंदर आम के पत्ते बनाए। सोने के बौर (आम के फूल) और रेशम की डोरी से
बँधे हुए पन्ने के बने फलों के गुच्छे सुशोभित हैं॥ 288॥
रचे रुचिर बर
बंदनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥
मंगल कलश अनेक
बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥
ऐसे सुंदर और
उत्तम बंदनवार बनाए मानो कामदेव ने फंदे सजाए हों। अनेकों मंगल-कलश और सुंदर ध्वजा,
पताका, परदे और चँवर बनाए।
दीप मनोहर
मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहिं मंडप
दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥
जिसमें मणियों
के अनेकों सुंदर दीपक हैं, उस विचित्र मंडप का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। जिस
मंडप में जानकी दुलहिन होंगी, किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके।
दूलहु रामु
रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोग उजागर॥
जनक भवन कै
सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥
जिस मंडप में
रूप और गुणों के समुद्र राम दूल्हे होंगे, वह मंडप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिए। जनक के
महल की जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखाई देती है।
जेहिं तेरहुति
तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो संपदा नीच
गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥
उस समय जिसने
तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े। जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो संपदा
सुशोभित थी, उसे देखकर इंद्र भी मोहित हो जाता था।
दो० - बसइ नगर
जेहिं लच्छि करि कपट नारि बर बेषु।
तेहि पुर कै
सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥ 289॥
जिस नगर में
साक्षात लक्ष्मी कपट से स्त्री का सुंदर वेष बनाकर बसती हैं,
उस पुर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी
सकुचाते हैं॥ 289॥
पहुँचे दूत
राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
भूप द्वार
तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥
जनक के दूत
राम की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुँचे। सुंदर नगर देखकर वे हर्षित हुए। राजद्वार
पर जाकर उन्होंने खबर भेजी, राजा दशरथ ने सुनकर उन्हें बुला लिया।
करि प्रनामु
तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि बिलोचन
बाँचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती॥
दूतों ने
प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी बाँचते
समय उनके नेत्रों में जल (प्रेम और आनंद के आँसू) छा गया,
शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई।
रामु लखनु उर
कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
पुनि धरि धीर
पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥
हृदय में राम
और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुंदर चिट्ठी है, राजा उसे हाथ में लिए ही रह गए,
खट्टी-मीठी कुछ भी कह न सके। फिर धीरज धरकर उन्होंने
पत्रिका पढ़ी। सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गई।
खेलत रहे तहाँ
सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
पूछत अति
सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥
भरत अपने
मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गए। बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते
हैं - पिताजी! चिट्ठी कहाँ से आई है?
दो० - कुसल
प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
सुनि सनेह
साने बचन बाची बहुरि नरेस॥ 290॥
हमारे प्राणों
से प्यारे दोनों भाई, कहिए सकुशल तो हैं और वे किस देश में हैं?
स्नेह से सने ये वचन सुनकर राजा ने फिर से चिट्ठी पढ़ी॥ 290॥
सुनि पाती
पुलके दोउ भ्राता। अधिन सनेहु समात न गाता॥
प्रीति पुनीत
भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥
चिट्ठी सुनकर
दोनों भाई पुलकित हो गए। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीर में समाता नहीं। भरत
का पवित्र प्रेम देखकर सारी सभा ने विशेष सुख पाया।
तब नृप दूत
निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
भैया कहहु
कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥
तब राजा दूतों
को पास बैठाकर मन को हरनेवाले मीठे वचन बाले - भैया! कहो,
दोनों बच्चे कुशल से तो हैं? तुमने अपनी आँखों से उन्हें अच्छी तरह देखा है न?
स्यामल गौर
धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
पहिचानहु
तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥
साँवले और
गोरे शरीरवाले वे धनुष और तरकस धारण किए रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम उनको पहचानते हो तो उनका
स्वभाव बताओ। राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार-बार इस प्रकार कह (पूछ) रहे हैं।
जा दिन तें
मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
कहहु बिदेह
कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥
(भैया!) जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गए, तब से आज ही हमने सच्ची खबर पाई है। कहो तो महाराज जनक ने
उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय (प्रेम भरे) वचन सुनकर दूत मुसकराए।
दो० - सुनहु
महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
रामु लखनु
जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥ 291॥
(दूतों ने कहा -) हे राजाओं के मुकुटमणि! सुनिए, आपके समान धन्य और कोई नहीं है,
जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं,
जो दोनों विश्व के विभूषण हैं॥ 291॥
पूछन जोगु न
तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
जिन्ह के जस
प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥
आपके पुत्र
पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाश स्वरूप हैं। जिनके यश
के आगे चंद्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है।
तिन्ह कहँ
कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
सीय स्वयंबर
भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥
हे नाथ! उनके
लिए आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा
जाता है?
सीता के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक-से-एक बढ़कर योद्धा
एकत्र हुए थे।
संभु सरासनु काहुँ
न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
तीनि लोक महँ
जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥
परंतु शिव के
धनुष को कोई भी नहीं हटा सका। सारे बलवान वीर हार गए। तीनों लोकों में जो वीरता के
अभिमानी थे, शिव के धनुष ने सबकी शक्ति तोड़ दी।
सकइ उठाइ
सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
जेहिं कौतुक
सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥
बाणासुर भी,
जो सुमेरु को भी उठा सकता था, भी हृदय में हारकर परिक्रमा करके चला गया और जिसने खेल से
ही कैलास को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ।
दो० - तहाँ
राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ चाप
प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥ 292॥
हे महाराज!
सुनिए,
वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए) रघुवंशमणि राम ने
बिना ही प्रयास शिव के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़
डालता है!॥ 292॥
सुनि सरोष
भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु
निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥
धनुष टूटने की
बात सुनकर परशुराम क्रोध में भरे आए और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखलाईं।
अंत में उन्होंने भी राम का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार
विनती करके वन को गमन किया।
राजन रामु
अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
कंपहिं भूप
बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥
हे राजन! जैसे
राम अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेज निधान फिर लक्ष्मण भी हैं,
जिनके देखने मात्र से राजा लोग ऐसे काँप उठते थे,
जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से काँप उठते हैं।
देव देखि तव
बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥
दूत बचन रचना
प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥
हे देव! आपके
दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर
कोई चढ़ता ही नहीं)। प्रेम, प्रताप और वीर-रस में पगी हुई दूतों की वचन रचना सबको बहुत
प्रिय लगी।
सभा समेत राउ
अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते
मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना॥
सभा सहित राजा
प्रेम में मग्न हो गए और दूतों को निछावर देने लगे। (उन्हें निछावर देते देखकर) यह
नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे। धर्म को
विचारकर (उनका धर्मयुक्त बर्ताव देखकर) सभी ने सुख माना।
दो० - तब उठि
भूप बसिष्ट कहुँ दीन्हि पत्रिका जाई।
कथा सुनाई
गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥ 293॥
तब राजा ने
उठकर वशिष्ठ के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को बुलाकर सारी कथा
गुरुजी को सुना दी॥ 293॥
सुनि बोले गुर
अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
जिमि सरिता
सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥
सब समाचार
सुनकर और अत्यंत सुख पाकर गुरु बोले - पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों से
छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती।
तिमि सुख
संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
तुम्ह गुर
बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥
वैसे ही सुख
और संपत्ति बिना ही बुलाए स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती है। तुम जैसे
गुरु,
ब्राह्मण, गाय और देवता की सेवा करनेवाले हो,
वैसी ही पवित्र कौसल्यादेवी भी हैं।
सुकृती तुम्ह
समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
तुम्ह ते अधिक
पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥
तुम्हारे समान
पुण्यात्मा जगत में न कोई हुआ, न है और न होने का ही है। हे राजन! तुमसे अधिक पुण्य और
किसका होगा, जिसके राम-सरीखे पुत्र हैं।
बीर बिनीत धरम
ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
तुम्ह कहुँ
सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥
और जिसके
चारों बालक वीर, विनम्र, धर्म का व्रत धारण करनेवाले और गुणों के सुंदर समुद्र हैं। तुम्हारे लिए सभी
कालों में कल्याण है। अतएव डंका बजवाकर बारात सजाओ।
दो० - चलहु
बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाई।
भूपति गवने
भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥ 294॥
और जल्दी चलो।
गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, ‘हे नाथ! बहुत अच्छा’ कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में
गए॥ 294॥
राजा सबु
रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि संदेसु
सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥
राजा ने सारे
रनिवास को बुलाकर जनक की पत्रिका बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से
भर गईं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का (जो दूतों के मुख से सुनी थीं) वर्णन किया।
प्रेम
प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥
मुदित असीस
देहिं गुर नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥
प्रेम में
प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनकर प्रफुल्लित होती हैं।
बड़ी-बूढ़ी (अथवा गुरुओं की) स्त्रियाँ प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं। माताएँ
अत्यंत आनंद में मग्न हैं।
लेहिं परस्पर
अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाई जुड़ावहिं छाती॥
राम लखन कै
कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥
उस अत्यंत
प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती हैं। राजाओं में
श्रेष्ठ दशरथ ने राम-लक्ष्मण की कीर्ति और करनी का बारंबार वर्णन किया।
मुनि प्रसादु
कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए दान आनंद
समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥
'यह सब मुनि की कृपा है' ऐसा कहकर वे बाहर चले आए। तब रानियों ने ब्राह्मणों को
बुलाया और आनंद सहित उन्हें दान दिए। श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले।
सो० - जाचक
लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ
सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥ 295॥
फिर भिक्षुकों
को बुलाकर करोड़ों प्रकार की निछावरें उनको दीं। 'चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरंजीवी हों'॥ 295॥
कहत चले
पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार सब
लोगन्ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥
यों कहते हुए
वे अनेक प्रकार के सुंदर वस्त्र पहन-पहनकर चले। आनंदित होकर नगाड़ेवालों ने बड़े
जोर से नगाड़ों पर चोट लगाई। सब लोगों ने जब यह समाचार पाया,
तब घर-घर बधावे होने लगे।
भुवन चारिदस
भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि सुभ कथा
लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥
चौदहों लोकों
में उत्साह भर गया कि जानकी और रघुनाथ का विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग
प्रेममग्न हो गए और रास्ते, घर तथा गलियाँ सजाने लगे।
जद्यपि अवध
सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥
तदपि प्रीति
कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥
यद्यपि
अयोध्या सदा सुहावनी है, क्योंकि वह राम की मंगलमयी पवित्र पुरी है,
तथापि प्रीति-पर-प्रीति होने से वह सुंदर मंगल रचना से सजाई
गई।
ध्वज पताक पट
चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक कलस तोरन
मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥
ध्वजा,
पताका, परदे और सुंदर चँवरों से सारा बाजा बहुत ही अनूठा छाया हुआ
है। सोने के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हलदी, दूब, दही, अक्षत और मालाओं से -
दो० - मंगलमय
निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
बीथीं सींचीं
चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥ 296॥
लोगों ने
अपने-अपने घरों को सजाकर मंगलमय बना लिया। गलियों को चतुरसम से सींचा और (द्वारों
पर) सुंदर चौक पुराए। (चंदन, केशर, कस्तूरी और कपूर से बने हुए एक सुगंधित द्रव को चतुरसम कहते
हैं)॥ 296॥
जहँ तहँ जूथ
जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
बिधुबदनीं मृग
सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिमोचनि॥
बिजली की-सी
कांतिवाली चंद्रमुखी, हरिन के बच्चे के-से नेत्रवाली और अपने सुंदर रूप से कामदेव
की स्त्री रति के अभिमान को छुड़ानेवाली सुहागिनी स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृंगार
सजकर,
जहाँ-तहाँ झुंड-की-झुंड मिलकर,
गावहिं मंगल
मंजुल बानीं। सुनि कल रव कलकंठि लजानीं॥
भूप भवन किमि
जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥
मनोहर वाणी से
मंगल गीत गा रही हैं, जिनके सुंदर स्वर को सुनकर कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहल
का वर्णन कैसे किया जाए, जहाँ विश्व को विमोहित करनेवाला मंडप बनाया गया है।
मंगल द्रब्य
मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
कतहुँ बिरिद
बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥
अनेकों प्रकार
के मनोहर मांगलिक पदार्थ शोभित हो रहे हैं और बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं। कहीं भाट
विरुदावली (कुलकीर्ति) का उच्चारण कर रहे हैं और कहीं ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे
हैं।
गावहिं सुंदरि
मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
बहुत उछाहु
भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥
सुंदरी
स्त्रियाँ राम और सीता का नाम ले-लेकर मंगलगीत गा रही हैं। उत्साह बहुत है और महल
अत्यंत ही छोटा है। इससे (उसमें न समाकर) मानो वह उत्साह (आनंद) चारों ओर उमड़ चला
है।
दो० - सोभा
दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ सकल सुर
सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥ 297॥
दशरथ के महल
की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि राम ने अवतार लिया है॥ 297॥
भूप भरत पुनि
लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥
चलहु बेगि
रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥
फिर राजा ने
भरत को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी राम की बारात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई (भरत और
शत्रुघ्न) आनंदवश पुलक से भर गए।
भरत सकल साहनी
बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
रचि रुचि जीन
तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥
भरत ने सब
साहनी (घुड़साल के अध्यक्ष) बुलाए और उन्हें (घोड़ों को सजाने की) आज्ञा दी,
वे प्रसन्न होकर उठ दौड़े। उन्होंने रुचि के साथ (यथायोग्य)
जीनें कसकर घोड़े सजाए। रंग-रंग के उत्तम घोड़े शोभित हो गए।
सुभग सकल सुठि
चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाति न
जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥
सब घोड़े बड़े
ही सुंदर और चंचल करनी (चाल) के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए
लोहे पर रखते हों। अनेकों जाति के घोड़े हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। (ऐसी तेज चाल के हैं) मानो हवा
का निरादर करके उड़ना चाहते हैं।
तिन्ह सब छयल
भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
सब सुंदर सब
भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥
उन सब घोड़ों
पर भरत के समान अवस्थावाले सब छैल-छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुंदर हैं और
सब आभूषण धारण किए हुए हैं। उनके हाथों में बाण और धनुष हैं तथा कमर में भारी तरकस
बँधे हैं।
दो० - छरे
छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग पदचर
असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥ 298॥
सभी चुने हुए
छबीले छैल, शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवार के साथ दो पैदल सिपाही हैं,
जो तलवार चलाने की कला में बड़े निपुण हैं॥ 298॥
बाँधें बिरद
बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
फेरहिं चतुर
तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥
शूरता का बाना
धारण किए हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खड़े हुए। वे चतुर अपने घोड़ों को
तरह-तरह की चालों से फेर रहे हैं और भेरी तथा नगाड़े की आवाज सुन-सुनकर प्रसन्न हो
रहे हैं।
रथ सारथिन्ह
बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
चवँर चारु
किंकिनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं॥
सारथियों ने
ध्वजा,
पताका, मणि और आभूषणों को लगाकर रथों को बहुत विलक्षण बना दिया है।
उनमें सुंदर चँवर लगे हैं और घंटियाँ सुंदर शब्द कर रही हैं। वे रथ इतने सुंदर हैं,
मानो सूर्य के रथ की शोभा को छीने लेते हैं।
सावँकरन अगनित
हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
सुंदर सकल
अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥
अगणित
श्यामवर्ण घोड़े थे। उनको सारथियों ने उन रथों में जोत दिया है,
जो सभी देखने में सुंदर और गहनों से सजाए हुए सुशोभित हैं
और जिन्हें देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं।
जे जल चलहिं
थलहि की नाईं। टाप न बूड़ बेग अधिकाईं॥
अस्त्र सस्त्र
सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥
जो जल पर भी
जमीन की तरह ही चलते हैं। वेग की अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं डूबती।
अस्त्र-शस्त्र और सब साज सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया।
दो० - चढ़ि
चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
होत सगुन
सुंदर सबहि जो जेहि कारज जात॥ 299॥
रथों पर चढ़-चढ़कर
बारात नगर के बाहर जुटने लगी, जो जिस काम के लिए जाता है, सभी को सुंदर शकुन होते हैं॥ 299॥
कलित
करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
चले मत्त गज
घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥
श्रेष्ठ
हाथियों पर सुंदर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजाई गई थीं,
सो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घंटों से सुशोभित होकर
(घंटे बजाते हुए) चले, मानो सावन के सुंदर बादलों के समूह (गरजते हुए) जा रहे हों।
बाहन अपर अनेक
बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
तिन्ह चढ़ि
चले बिप्रबर बृंदा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥
सुंदर
पालकियाँ,
सुख से बैठने योग्य तामजान (जो कुर्सीनुमा होते हैं) और रथ
आदि और भी अनेकों प्रकार की सवारियाँ हैं। उन पर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के समूह चढ़कर
चले,
मानो सब वेदों के छंद ही शरीर धारण किए हुए हों।
मागध सूत बंदि
गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
बेसर ऊँट बृषभ
बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥
मागध,
सूत, भाट और गुण गानेवाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारी पर चढ़कर चले। बहुत जातियों के खच्चर,
ऊँट और बैल असंख्य प्रकार की वस्तुएँ लाद-लादकर चले।
कोटिन्ह
काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
चले सकल सेवक
समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥
कहार करोड़ों
काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकार की इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णन कौन कर
सकता है। सब सेवकों के समूह अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले।
दो० - सब कें
उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
कबहिं देखिबे
नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर॥ 300॥
सबके हृदय में
अपार हर्ष है और शरीर पुलक से भरे हैं। (सबको एक ही लालसा लगी है कि) हम
राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को नेत्र भरकर कब देखेंगे॥ 300॥
गरजहिं गज
घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥
निदरि घनहि
घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥
हाथी गरज रहे
हैं,
उनके घंटों की भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों की
घरघराहट और घोड़ों की हिनहिनाहट हो रही है। बादलों का निरादर करते हुए नगाड़े घोर
शब्द कर रहे हैं। किसी को अपनी-पराई कोई बात कानों से सुनाई नहीं देती।
महा भीर भूपति
के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥
चढ़ी अटारिन्ह
देखहिं नारीं। लिएँ आरती मंगल थारीं॥
राजा दशरथ के
दरवाजे पर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाए तो वह भी पिसकर धूल
हो जाए। अटारियों पर चढ़ी स्त्रियाँ मंगल-थालों में आरती लिए देख रही हैं।
गावहिं गीत
मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना॥
तब सुमंत्र
दुइ स्यंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी॥
और नाना
प्रकार के मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यंत आनंद का बखान नहीं हो सकता। तब
सुमंत्र ने दो रथ सजाकर उनमें सूर्य के घोड़ों को भी मात करनेवाले घोड़े जोते।
दोउ रथ रुचिर
भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥
राज समाजु एक
रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥
दोनों सुंदर
रथ वे राजा दशरथ के पास ले आए, जिनकी सुंदरता का वर्णन सरस्वती से भी नहीं हो सकता। एक रथ
पर राजसी सामान सजाया गया और दूसरा जो तेज का पुंज और अत्यंत ही शोभायमान था,
दो० - तेहिं
रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाई नरेसु।
आपु चढ़ेउ
स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥ 301॥
उस सुंदर रथ
पर राजा वशिष्ठ को हर्षपूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी (पार्वती) और गणेश का स्मरण करके (दूसरे) रथ पर चढ़े॥ 301॥
सहित बसिष्ठ
सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें॥
करि कुल रीति
बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥
वशिष्ठ के साथ
(जाते हुए) राजा दशरथ कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देव गुरु बृहस्पति के साथ इंद्र हों। वेद की विधि से
और कुल की रीति के अनुसार सब कार्य करके तथा सबको सब प्रकार से सजे देखकर,
सुमिरि रामु
गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई॥
हरषे बिबुध
बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता॥
राम का स्मरण
करके,
गुरु की आज्ञा पाकर पृथ्वी पति दशरथ शंख बजाकर चले। बारात
देखकर देवता हर्षित हुए और सुंदर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे।
भयउ कोलाहल हय
गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥
सुर नर नारि
सुमंगल गाईं। सरस राग बाजहिं सहनाईं॥
बड़ा शोर मच
गया,
घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाश में और बारात में (दोनों
जगह) बाजे बजने लगे। देवांगनाएँ और मनुष्यों की स्त्रियाँ सुंदर मंगलगान करने लगीं
और रसीले राग से शहनाइयाँ बजने लगीं।
घंट घंटि धुनि
बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥
करहिं बिदूषक
कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना॥
घंटे-घंटियों
की ध्वनि का वर्णन नहीं हो सकता। पैदल चलनेवाले सेवकगण अथवा पट्टेबाज कसरत के खेल
कर रहे हैं और फहरा रहे हैं (आकाश में ऊँचे उछलते हुए जा रहे हैं।) हँसी करने में
निपुण और सुंदर गाने में चतुर विदूषक (मसखरे) तरह-तरह के तमाशे कर रहे हैं।
दो० - तुरग
नचावहिं कुअँर बर अकनि मृदंग निसान।
नागर नट
चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥ 302॥
सुंदर
राजकुमार मृदंग और नगाड़े के शब्द सुनकर घोड़ों को उन्हीं के अनुसार इस प्रकार नचा
रहे हैं कि वे ताल के बंधान से जरा भी डिगते नहीं हैं। चतुर नट चकित होकर यह देख
रहे हैं॥ 302॥
बनइ न बरनत
बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥
चारा चाषु बाम
दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥
बारात ऐसी बनी
है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी
बाईं ओर चारा ले रहा है, मानो संपूर्ण मंगलों की सूचना दे रहा हो।
दाहिन काग
सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥
सानुकूल बह
त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥
दाहिनी ओर कौआ
सुंदर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार
की (शीतल,
मंद, सुगंधित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ
(सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं।
लोवा फिरि
फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥
मृगमाला फिरि
दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥
लोमड़ी
फिर-फिरकर (बार-बार) दिखाई दे जाती है। गाएँ सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं।
हरिनों की टोली (बाईं ओर से) घूमकर दाहिनी ओर को आई, मानो सभी मंगलों का समूह दिखाई दिया।
छेमकरी कह छेम
बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥
सनमुख आयउ दधि
अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥
क्षेमकरी
(सफेद सिरवाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बाईं ओर सुंदर
पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए हुए सामने
आए।
दो० - मंगलमय
कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु सब साचे
होन हित भए सगुन एक बार॥ 303॥
सभी मंगलमय,
कल्याणमय और मनोवांछित फल देनेवाले शकुन मानो सच्चे होने के
लिए एक ही साथ हो गए॥ 303॥
मंगल सगुन
सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें॥
राम सरिस बरु
दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥
स्वयं सगुण
ब्रह्म जिसके सुंदर पुत्र हैं, उसके लिए सब मंगल शकुन सुलभ हैं। जहाँ राम-सरीखे दूल्हा और
सीता-जैसी दुलहिन हैं तथा दशरथ और जनक-जैसे पवित्र समधी हैं,
सुनि अस
ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥
एहि बिधि
कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥
ऐसा ब्याह
सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे (और कहने लगे -) अब ब्रह्मा ने हमको सच्चा कर दिया।
इस तरह बारात ने प्रस्थान किया। घोड़े, हाथी गरज रहे हैं और नगाड़ों पर चोट लग रही है।
आवत जानि
भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥
बीच-बीच बर
बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए॥
सूर्यवंश के
पताका स्वरूप दशरथ को आते हुए जानकर जनक ने नदियों पर पुल बँधवा दिए। बीच-बीच में
ठहरने के लिए सुंदर घर (पड़ाव) बनवा दिए, जिनमें देवलोक के समान संपदा छाई है,
असन सयन बर
बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥
नित नूतन सुख
लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥
और जहाँ बारात
के सब लोग अपने-अपने मन की पसंद के अनुसार सुहावने उत्तम भोजन,
बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मन के अनुकूल नित्य नए सुखों को
देखकर सभी बारातियों को अपने घर भूल गए।
दो० - आवत
जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
सजि गज रथ पदचर
तुरग लेन चले अगवान॥ 304॥
बड़े जोर से
बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करनेवाले
हाथी,
रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले॥ 304॥
श्री राम चरित
मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, दसवाँ विश्राम समाप्त॥
शेष
जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- बालकाण्ड मासपारायण,
ग्यारहवाँ विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस बालकांड मासपारायण, नवाँ विश्राम
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