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मानस
प्रथम सोपान
(बालकाण्ड)
सतीं समुझि
रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा
लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥
सती ने रघुनाथ
के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिव से छिपाव किया और कहा - हे स्वामिन्! मैंने
कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया।
जो तुम्ह कहा
सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ
धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥
आपने जो कहा वह
झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा विश्वास है। तब शिव ने ध्यान करके देखा
और सती ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया।
बहुरि
राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा
भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥
फिर राम की
माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान
शिव ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छारूपी भावी प्रबल है।
सतीं कीन्ह
सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ
सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥
सती ने सीता
का वेष धारण किया, यह जानकर शिव के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि
यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय
होता है।
दो० - परम
पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत
महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥ 56॥
सती परम
पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके
महादेव कुछ भी नहीं कहते, परंतु उनके हृदय में बड़ा संताप है॥ 56॥
तब संकर प्रभु
पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि
भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥
तब शिव ने
प्रभु राम के चरण कमलों में सिर नवाया और राम का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया
कि सती के इस शरीर से मेरी भेंट नहीं हो सकती और शिव ने अपने मन में यह संकल्प कर
लिया।
अस बिचारि
संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै
गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥
स्थिर-बुद्धि
शंकर ऐसा विचार कर रघुनाथ का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय
सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की।
अस पन तुम्ह
बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा
सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥
आपको छोड़कर
दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप राम के भक्त हैं,
समर्थ हैं और भगवान हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सती के मन
में चिंता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिव से पूछा - ।
कीन्ह कवन पन
कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं
पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥
हे कृपालु!
कहिए,
आपने कौन-सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सती ने
बहुत प्रकार से पूछा, परंतु त्रिपुरारि शिव ने कुछ न कहा।
दो० - सतीं
हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं
संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥ 57(क)॥
सती ने हृदय
में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिव सब जान गए। मैंने शिव से कपट किया। स्त्री स्वभाव
से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥ 57(क)॥
सो० - जलु पय
सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु
जाइ कपट खटाई परत पुनि॥ 57(ख)॥
प्रीति की
सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है,
परंतु फिर कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध
फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥ 57(ख)॥
हृदयँ सोचु
समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिंधु सिव
परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥
अपनी करनी को
याद करके सती के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिंता है कि जिसका वर्णन नहीं
किया जा सकता। शिव कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध
नहीं कहा।
संकर रुख
अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि
न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥
शिव का रुख
देखकर सती ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो
उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परंतु हृदय कुम्हार के आँवे के समान अत्यंत तपे रहा है।
सतिहि ससोच
जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत पंथ
बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥
वृषकेतु शिव
ने सती को चिंतायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार
मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे।
तहँ पुनि संभु
समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
संकर सहज
सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥
वहाँ फिर शिव
अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिव ने
अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखंड और अपार समाधि लग गई।
दो० - सती
बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ
जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥ 58॥
तब सती कैलास
पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था।
उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥ 58॥
नित नव सोचु
सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह
रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥
सती के हृदय
में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख-समुद्र के पार कब जाऊँगी।
मैंने जो रघुनाथ का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना - ।
सो फलु मोहि
बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस
बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥
उसका फल
विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया; परंतु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है,
जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है।
कहि न जाइ कछु
हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं प्रभु
दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥
सती के हृदय
की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सती ने मन में राम का स्मरण किया और कहा -
हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख
को हरनेवाले हैं,
तौ मैं बिनय
करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं मोरें सिव
चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥
तो मैं हाथ
जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिव के चरणों में
प्रेम है और मेरा यह व्रत मन, वचन और कर्म से सत्य है,
दो० - तौ
सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु
जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥ 59॥
तो हे
सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह
(पति-परित्यागरूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए॥ 59॥
एहि बिधि
दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें संबत
सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥
दक्षसुता सती
इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिव ने समाधि खोली।
राम नाम सिव
सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ संभु पद
बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥
शिव रामनाम का
स्मरण करने लगे, तब सती ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिव) जागे। उन्होंने जाकर शिव के चरणों
में प्रणाम किया। शिव ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया।
लगे कहन हरि
कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि
बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥
शिव भगवान हरि
की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्मा ने सब प्रकार से
योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया।
बड़ अधिकार
दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥
नहिं कोउ अस
जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥
जब दक्ष ने
इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यंत अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई
नहीं पैदा हुआ जिसको प्रभुता पाकर मद न हो।
दो० - दच्छ
लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर
सकल सुर जे पावत मख भाग॥ 60॥
दक्ष ने सब
मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं,
दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमंत्रित किया॥ 60॥
किंनर नाग
सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरंचि
महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥
(दक्ष का निमंत्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गंधर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु,
ब्रह्मा और महादेव को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान
सजाकर चले।
सतीं बिलोके
ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
सुर सुंदरी
करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥
सती ने देखा,
अनेकों प्रकार के सुंदर विमान आकाश में चले जा रहे हैं,
देव-सुंदरियाँ मधुर गान कर रही हैं,
जिन्हें सुनकर मुनियों का ध्यान छूट जाता है।
पूछेउ तब सिवँ
कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौं महेसु
मोहि आयसु देहीं। कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥
सती ने
(विमानों में देवताओं के जाने का कारण) पूछा, तब शिव ने सब बातें बतलाईं। पिता के यज्ञ की बात सुनकर सती
कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेव मुझे आज्ञा दें,
तो इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूँ।
पति परित्याग
हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती
मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥
क्योंकि उनके
हृदय में पति द्वारा त्यागी जाने का बड़ा भारी दुःख था,
पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखिर सती भय,
संकोच और प्रेमरस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं - ।
दो० - पिता
भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मैं जाउँ
कृपायतन सादर देखन सोइ॥ 61॥
हे प्रभो!
मेरे पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदर
सहित उसे देखने जाऊँ॥ 61॥
कहेहु नीक
मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज
सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥
शिव ने कहा -
तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई, पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा,
यह अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब लड़कियों को बुलाया है;
किंतु हमारे बैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया।
ब्रह्मसभाँ हम
सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौं बिनु
बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥
एक बार
ब्रह्मा की सभा में हमसे अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम
बिना बुलाए जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी।
जदपि मित्र
प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध
मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥
यद्यपि इसमें
संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ
कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।
भाँति अनेक
संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह प्रभु जाहु
जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥
शिव ने बहुत
प्रकार से समझाया, पर होनहारवश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिव ने कहा
कि यदि बिना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी।
दो० - कहि
देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन
संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥ 62॥
शिव ने बहुत
प्रकार से कहकर देख लिया, किंतु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं,
तब त्रिपुरारि महादेव ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको
बिदा कर दिया॥ 62॥
पिता भवन जब
गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर भलेहिं
मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥
भवानी जब पिता
(दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की,
केवल एक माता भले ही आदर से मिली। बहनें बहुत मुस्कुराती
हुई मिलीं।
दच्छ न कछु
पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकी जरे सब गाता॥
सतीं जाइ
देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख संभु कर भागा॥
दक्ष ने तो
उनकी कुछ कुशल तक नहीं पूछी, सती को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे। तब सती ने जाकर
यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिव का भाग दिखाई नहीं दिया।
तब चित चढ़ेउ
जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न
हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥
तब शिव ने जो
कहा था,
वह उनकी समझ में आया। स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल
उठा। पिछला (पति परित्याग का) दुःख उनके हृदय में उतना नहीं व्यापा था,
जितना महान दुःख इस समय (पति अपमान के कारण) हुआ।
जद्यपि जग
दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो
सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥
यद्यपि जगत
में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं, तथापि जाति-अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सती को बड़ा
क्रोध हो आया। माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया।
दो० - सिव
अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि
हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥ 63॥
परंतु उनसे
शिव का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ। तब वे सारी सभा
को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं - ॥ 63॥
सुनहु सभासद
सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
सो फलु तुरत
लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥
हे सभासदो और
सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिव की निंदा की या सुनी है,
उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भली
भाँति पछताएँगे।
संत संभुपति
अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु
जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥
जहाँ संत,
शिव और लक्ष्मीपति विष्णु भगवान की निंदा सुनी जाए,
वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निंदा
करनेवाले) की जीभ काट ले और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाए।
जगदातमा महेसु
पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मंदमति
निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥
त्रिपुर दैत्य
को मारनेवाले भगवान महेश्वर संपूर्ण जगत के आत्मा हैं,
वे जगत्पिता और सबका हित करनेवाले हैं। मेरा मंदबुद्धि पिता
उनकी निंदा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है।
तजिहउँ तुरत
देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग
अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥
इसलिए चंद्रमा
को ललाट पर धारण करनेवाले वृषकेतु शिव को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत
ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सती ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी
यज्ञशाला में हाहाकार मच गया।
दो० - सती
मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस
बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥ 64॥
सती का मरण
सुनकर शिव के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगु ने
उसकी रक्षा की॥ 64॥
समाचार सब
संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य बिधंस
जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥
ये सब समाचार
शिव को मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर
डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दंड) दिया।
भै जगबिदित
दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
यह इतिहास सकल
जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी॥
दक्ष की
जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई, जो शिवद्रोही की हुआ करती है। यह इतिहास सारा संसार जानता
है,
इसलिए मैंने संक्षेप में वर्णन किया।
सतीं मरत हरि
सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
तेहि कारन
हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥
सती ने मरते
समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिव के चरणों में अनुराग रहे।
इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया।
जब तें उमा
सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं॥
जहँ तहँ
मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥
जब से उमा
हिमाचल के घर जनमीं, तब से वहाँ सारी सिद्धियाँ और संपत्तियाँ छा गईं। मुनियों
ने जहाँ-तहाँ सुंदर आश्रम बना लिए और हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिए।
दो० - सदा
सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुंदर
सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥ 65॥
उस सुंदर
पर्वत पर बहुत प्रकार के सब नए-नए वृक्ष सदा पुष्प-फलयुक्त हो गए और वहाँ बहुत तरह
की मणियों की खानें प्रकट हो गईं॥ 65॥
सरिता सब
पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
सहज बयरु सब
जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥
सारी नदियों
में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर
छोड़ दिया है और पर्वत पर सभी परस्पर प्रेम करते हैं।
सोह सैल
गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
नित नूतन मंगल
गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥
पार्वती के घर
आ जाने से पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसा रामभक्ति को पाकर भक्त शोभायमान होता
है। उस (पर्वतराज) के घर नित्य नए-नए मंगलोत्सव होते हैं,
जिसका ब्रह्मादि यश गाते हैं।
नारद समाचार
सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
सैलराज बड़
आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥
जब नारदजी ने
ये सब समाचार सुने तो वे कौतुक ही से हिमाचल के घर पधारे। पर्वतराज ने उनका बड़ा
आदर किया और चरण धोकर उन्हें उत्तम आसन दिया।
नारि सहित
मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥
निज सौभाग्य
बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥
फिर अपनी
स्त्री सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर में छिड़काया।
हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया और पुत्री को बुलाकर मुनि के चरणों पर
डाल दिया।
दो० -
त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के
दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥ 66॥
(और कहा -) हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं,
आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के
दोष-गुण कहिए॥ 66॥
कह मुनि बिहसि
गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुंदर सहज
सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥
नारद मुनि ने
हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा - तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है। यह
स्वभाव से ही सुंदर, सुशील और समझदार है। उमा, अंबिका और भवानी इसके नाम हैं।
सब लच्छन
संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि
कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥
कन्या सब
सुलक्षणों से संपन्न है, यह अपने पति को सदा प्यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा
और इससे इसके माता-पिता यश पाएँगे।
होइहि पूज्य
सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु
सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा॥
यह सारे जगत
में पूज्य होगी और इसकी सेवा करने से कुछ भी दुर्लभ न होगा। संसार में स्त्रियाँ
इसका नाम स्मरण करके पतिव्रतारूपी तलवार की धार पर चढ़ जाएँगी।
सैल सुलच्छन
सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान
मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥
हे पर्वतराज!
तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं,
उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिता-विहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह)।
दो० - जोगी
जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।
अस स्वामी एहि
कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥ 67॥
योगी,
जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेषवाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है॥ 67॥
सुनि मुनि
गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह
भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥
नारद मुनि की
वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान और मैना) को दुःख हुआ,
किंतु पार्वती प्रसन्न हुईं। नारद ने भी इस रहस्य को नहीं
जाना,
क्योंकि सबकी बाहरी दशा एक-सी होने पर भी भीतरी समझ
भिन्न-भिन्न थी।
सकल सखीं गिरिजा
गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा
देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥
सारी सखियाँ,
पार्वती, पर्वतराज हिमवान और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के
नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते,
(यह विचारकर) पार्वती ने उन
वचनों को हृदय में धारण कर लिया।
उपजेउ सिव पद
कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु
प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥
उन्हें शिव के
चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परंतु मन में यह संदेह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक
न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छिपा लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर बैठ गईं।
झूठि न होइ
देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर
कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥
देवर्षि की
वाणी झूठी न होगी, यह विचार कर हिमवान, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिंता करने लगीं। फिर हृदय में
धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा - हे नाथ! कहिए, अब क्या उपाय किया जाए?
दो० - कह
मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर
नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥ 68॥
मुनीश्वर ने
कहा - हे हिमवान! सुनो, विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है,
उसे देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते॥ 68॥
तदपि एक मैं
कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं
बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥
तो भी एक उपाय
मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो
निःसंदेह वैसा ही मिलेगा, जैसा मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया है।
जे जे बर के
दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥
जौं बिबाहु
संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥
परंतु मैंने
वर के जो-जो दोष बतलाए हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिव में हैं। यदि शिव के साथ विवाह
हो जाए तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समान ही कहेंगे।
जौं अहि सेज
सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु कृसानु
सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥
जैसे विष्णु
भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पंडित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और
अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परंतु उनको कोई बुरा नहीं कहता।
सुभ अरु असुभ
सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ
नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥
गंगा में शुभ
और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य,
अग्नि और गंगा की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता।
दो० - जौं अस
हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि
नरक महुँ जीव कि ईस समान॥ 69॥
यदि मूर्ख
मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते हैं, तो वे कल्पभर के लिए नरक मंउ पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी
ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतंत्र) हो सकता है?॥ 69॥
सुरसरि जल कृत
बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें
सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥
गंगा जल से भी
बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगा में मिल
जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है।
संभु सहज समरथ
भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पै
अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥
शिव सहज ही
समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है,
परंतु महादेव की आराधना बड़ी कठिन है,
फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते
हैं।
जौं तपु करै
कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर
अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥
यदि तुम्हारी
कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेव होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में वर अनेक हैं,
पर इसके लिए शिव को छोड़कर दूसरा वर नहीं है।
बर दायक
प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
इच्छित फल
बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥
शिव वर
देनेवाले,
शरणागतों के दुःखों का नाश करनेवाले,
कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करनेवाले हैं।
शिव की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी वांछित फल नहीं मिलता।
दो० - अस कहि
नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह
कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥ 70॥
ऐसा कहकर
भगवान का स्मरण करके नारद ने पार्वती को आशीर्वाद दिया। (और कहा -) हे पर्वतराज!
तुम संदेह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा॥ 70॥
कहि अस
ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकांत
पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥
यों कहकर नारद
मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकांत में पाकर
मैना ने कहा - हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा।
जौं घरु बरु
कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न त कन्या बरु
रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥
जो हमारी
कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लड़की चाहे
कुमारी ही रहे (मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती);
क्योंकि हे स्वामिन्! पार्वती मुझको प्राणों के समान
प्यारी है।
जौं न मिलिहि
बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि
पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥
यदि पार्वती
के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से ही जड़ (मूर्ख) होते हैं।
हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में संताप न हो।
अस कहि परी
चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक
प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥
इस प्रकार
कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवान ने प्रेम से कहा -
चाहे चंद्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारद के वचन झूठे नहीं हो सकते।
दो० - प्रिया
सोचु परिहरहु सबु सुमिरहुभगवान।
पारबतिहि
निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥ 71॥
हे प्रिये! सब
सोच छोड़कर भगवान का स्मरण करो, जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे॥ 71॥
अब जौं
तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै सो तपु
जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥
अब यदि
तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे,
जिससे शिव मिल जाएँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा।
नारद बचन
सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि
तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥
नारद के वचन
रहस्य से युक्त और सकारण हैं और शिव समस्त सुंदर गुणों के भंडार हैं। यह विचारकर
तुम संदेह का त्याग कर दो। शिव सभी तरह से निष्कलंक हैं।
सुनि पति बचन
हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि
नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥
पति के वचन
सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत पार्वती के पास गईं। पार्वती को देखकर
उनकी आँखों में आँसू भर आए। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया।
बारहिं बार
लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु
सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥
फिर बार-बार
उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला भर आया,
कुछ कहा नहीं जाता। जगज्जननी भवानी तो सर्वज्ञ ठहरीं। (माता
के मन की दशा को जानकर) वे माता को सुख देनेवाली कोमल वाणी से बोलीं -।
दो० - सुनहि
मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
सुंदर गौर
सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥ 72॥
माँ! सुन,
मैं तुझे सुनाती हूँ; मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुंदर गौरवर्ण श्रेष्ठ
ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है - ॥ 72॥
करहि जाइ तपु
सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु पितहि
पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥
हे पार्वती!
नारद ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता
को भी अच्छी लगी है। तप सुख देनेवाला और दुःख-दोष का नाश करनेवाला है।
तपबल रचइ
प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु
करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥
तप के बल से
ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही विष्णु सारे जगत का पालन करते
हैं। तप के बल से ही शंभु (रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही
शेष पृथ्वी का भार धारण करते हैं।
तप अधार सब
सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥
सुनत बचन
बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥
हे भवानी! सारी
सृष्टि तप के ही आधार पर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात सुनकर माता
को बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया।
मातु पितहि
बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
प्रिय परिवार
पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥
माता-पिता को बहुत
तरह से समझाकर बड़े हर्ष के साथ पार्वती तप करने के लिए चलीं। प्यारे कुटुंबी,
पिता और माता सब व्याकुल हो गए। किसी के मुँह से बात नहीं
निकलती।
दो० - बेदसिरा
मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।
पारबती महिमा
सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥ 73॥
तब वेदशिरा
मुनि ने आकर सबको समझाकर कहा। पार्वती की महिमा सुनकर सबको समाधान हो गया॥ 73॥
उर धरि उमा
प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
अति सुकुमार न
तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥
प्राणपति
(शिव) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वती वन में जाकर तप करने लगीं। पार्वती
का अत्यंत सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को तज
दिया।
नित नव चरन
उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल
फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥
स्वामी के
चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की
सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाए,
फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए।
कछु दिन भोजनु
बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि
परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥
कुछ दिन जल और
वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किया - जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर
गिरते थे,
तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया।
पुनि परिहरे
सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥
देखि उमहि तप
खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥
फिर सूखे पर्ण
(पत्ते) भी छोड़ दिए, तभी पार्वती का नाम 'अपर्णा' हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गंभीर
ब्रह्मवाणी हुई - ।
दो० - भयउ
मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
परिहरु दुसह
कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥ 74॥
हे पर्वतराज
की कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को) त्याग दे। अब
तुझे शिव मिलेंगे॥ 74॥
अस तपु काहुँ
न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
अब उर धरहु
ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥
हे भवानी! धीर,
मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ
ब्रह्मा की वाणी को सदा सत्य और निरंतर पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर।
आवै पिता
बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
मिलहिं
तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥
जब तेरे पिता
बुलाने आएँ, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक
समझना।
सुनत गिरा
बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित
सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥
(इस प्रकार) आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वती प्रसन्न हो
गईं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया। (याज्ञवल्क्य भरद्वाज से बोले कि)
मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया, अब शिव का सुहावना चरित्र सुनो।
जब तें सतीं
जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं सदा
रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥
जब से सती ने
जाकर शरीर त्याग किया, तब से शिव के मन में वैराग्य हो गया। वे सदा रघुनाथ का नाम
जपने लगे और जहाँ-तहाँ राम के गुणों की कथाएँ सुनने लगे।
दो० - चिदानंद
सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं महि
धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥ 75॥
चिदानंद,
सुख के धाम, मोह, मद और काम से रहित शिव संपूर्ण लोकों को आनंद देनेवाले
भगवान हरि (राम) को हृदय में धारण कर पृथ्वी पर विचरने लगे॥ 75॥
कतहुँ मुनिन्ह
उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
जदपि अकाम
तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥
वे कहीं
मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं राम के गुणों का वर्णन करते थे। यद्यपि
सुजान शिव निष्काम हैं, तो भी वे भगवान अपने भक्त (सती) के वियोग के दुःख से दुःखी
हैं।
एहि बिधि गयउ
कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
नेमु प्रेमु
संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥
इस प्रकार बहुत
समय बीत गया। राम के चरणों में नित नई प्रीति हो रही है। शिव के (कठोर) नियम,
(अनन्य) प्रेम और उनके हृदय
में भक्ति की अटल टेक को (जब राम ने) देखा।
प्रगटे रामु
कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
बहु प्रकार
संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥
तब कृतज्ञ
(उपकार माननेवाले), कृपालु, रूप और शील के भंडार, महान तेजपुंज भगवान राम प्रकट हुए। उन्होंने बहुत तरह से
शिव की सराहना की और कहा कि आप के बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है।
बहुबिधि राम
सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
अति पुनीत
गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥
राम ने बहुत
प्रकार से शिव को समझाया और पार्वती का जन्म सुनाया। कृपानिधान राम ने
विस्तारपूर्वक पार्वती की अत्यंत पवित्र करनी का वर्णन किया।
दो० - अब
बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु
सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥ 76॥
(फिर उन्होंने शिव से कहा -) हे शिव! यदि मुझ पर आपका स्नेह है,
तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगने दीजिए कि आप
जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें॥ 76॥
कह सिव जदपि
उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
सिर धरि आयसु
करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥
शिव ने कहा -
यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परंतु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा
यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ।
मातु पिता गुर
प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब
भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥
माता,
पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना विचारे ही शुभ समझकर करना
(मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा
मेरे सिर-माथे है।
प्रभु तोषेउ
सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
कह प्रभु हर
तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥
शिव की भक्ति,
ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु राम संतुष्ट
हो गए। प्रभु ने कहा - हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब हमने जो कहा है,
उसे हृदय में रखना।
अंतरधान भए अस
भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥
तबहिं
सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥
इस प्रकार
कहकर राम अंतर्धान हो गए। शिव ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली। उसी समय
सप्तर्षि शिव के पास आए। प्रभु महादेव ने उनसे अत्यंत सुहावने वचन कहे - ।
दो० - पारबती
पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि
पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥ 77॥
आप लोग
पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर (उन्हें
पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा) पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को
दूर कीजिए॥ 77॥
रिषिन्ह गौरि
देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥
बोले मुनि
सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥
ऋषियों ने
(वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान तपस्या ही हो। मुनि बोले - हे शैलकुमारी!
सुनो,
तुम किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो?
केहि अवराधहु
का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
कहत बचन मनु
अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥
तुम किसकी
आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं?
(पार्वती ने कहा -) बात
कहते मन बहुत सकुचाता है। आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे।
मनु हठ परा न
सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
नारद कहा सत्य
सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥
मन ने हठ पकड़
लिया है,
वह उपदेश नहीं सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है। नारद
ने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना पंख के ही उड़ना चाहती हूँ।
देखहु मुनि अबिबेकु
हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥
हे मुनियो! आप
मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं सदा शिव को ही पति बनाना चाहती हूँ।
दो० - सुनत
बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।
नारद कर
उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥ 78॥
पार्वती की
बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पड़े और बोले - तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न
हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है?॥ 78॥
दच्छसुतन्ह
उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर
घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥
उन्होंने जाकर
दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा।
चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ।
नारद सिख जे
सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन
सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥
जो
स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो
कपटी है,
शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान बनाना
चाहते हैं।
तेहि कें बचन
मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज
कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥
उनके वचनों पर
विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन,
गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहननेवाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखनेवाला है।
कहहु कवन सुखु
अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
पंच कहें सिवँ
सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥
ऐसे वर के
मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले पंचों
के कहने से शिव ने सती से विवाह किया, परंतु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला।
दो० - अब सुख
सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह
के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥ 79॥
अब शिव को कोई
चिंता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने
वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं?॥ 79॥
अजहूँ मानहु
कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
अति सुंदर
सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥
अब भी हमारा
कहा मानो,
हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुंदर,
पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं।
दूषन रहित सकल
गुन रासी।पति पुर बैकुंठ निवासी॥
अस बरु
तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥
वह दोषों से
रहित,
सारे सद्गुकणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और बैकुंठपुरी का रहनेवाला है। हम ऐसे वर
को लाकर तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वती हँसकर बोलीं - ।
सत्य कहेहु
गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
कनकउ पुनि
पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥
आपने यह सत्य
ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है, इसलिए हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है,
सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं
छोड़ता।
नारद बचन न
मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥
गुर कें बचन
प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥
अतः मैं नारद
के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं
है,
उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती।
दो० - महादेव
अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु
रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥ 80॥
माना कि
महादेव अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गु णों के धाम हैं,
पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है॥ 80॥
जौं तुम्ह मिलतेहु
प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु
संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥
हे मुनीश्वरे!
यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती,
परंतु अब तो मैं अपना जन्म शिव के लिए हार चुकी! फिर
गुण-दोषों का विचार कौन करे?
जौं तुम्हरे
हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह
आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥
यदि आपके हृदय
में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता,
तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं। खिलवाड़ करने वालों को
आलस्य तो होता नहीं (और कहीं जाकर कीजिए)।
जन्म कोटि लगि
रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद
कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥
मेरा तो करोड़
जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिव को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिव सौ बार कहें,
तो भी नारद के उपदेश को न छोड़ूँगी।
मैं पा परउँ
कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
देखि प्रेमु
बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥
जगज्जननी
पार्वती ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप अपने घर जाइए,
बहुत देर हो गई। (शिव में पार्वती का ऐसा) प्रेम देखकर ज्ञानी
मुनि बोले - हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!!
दो० - तुम्ह
माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।
नाइ चरन सिर
मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥ 81॥
आप माया हैं
और शिव भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं। (यह कहकर) मुनि पार्वती
के चरणों में सिर नवाकर चल दिए। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥ 81॥
जाइ मुनिन्ह
हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
बहुरि
सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥
मुनियों ने
जाकर हिमवान को पार्वती के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए,
फिर सप्तर्षियों ने शिव के पास जाकर उनको पार्वती की सारी
कथा सुनाई।
भए मगन सिव
सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
मनु थिर करि
तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥
पार्वती का
प्रेम सुनते ही शिव आनंदमग्न हो गए। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को
चले गए। तब सुजान शिव मन को स्थिर करके रघुनाथ का ध्यान करने लगे।
तारकु असुर
भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
तेहिं सब लोक
लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥
उसी समय तारक
नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को
जीत लिया,
सब देवता सुख और संपत्ति से रहित हो गए।
अजर अमर सो
जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
तब बिरंचि सन
जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥
वह अजर-अमर था,
इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह
की लड़ाइयाँ लड़कर हार गए। तब उन्होंने ब्रह्मा के पास जाकर गुहार की। ब्रह्मा ने
सब देवताओं को दुःखी देखा।
दो० - सब सन
कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
संभु सुक्र
संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥ 82॥
ब्रह्मा ने
सबको समझाकर कहा - इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिव के वीर्य से पुत्र उत्पन्न
हो,
इसको युद्ध में वही जीतेगा॥ 82॥
मोर कहा सुनि
करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सतीं जो तजी
दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥
मेरी बात
सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा। सती ने जो दक्ष के यज्ञ में
देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है।
तेहिं तपु
कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
जदपि अहइ
असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥
उन्होंने शिव
को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिव सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो
बड़े असमंजस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो।
पठवहु कामु
जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥
तब हम जाइ
सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥
तुम जाकर
कामदेव को शिव के पास भेजो, वह शिव के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भंग करे)।
तब हम जाकर शिव के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह
करा देंगे।
एहि बिधि
भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥
अस्तुति
सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥
इस प्रकार से
भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा - यह सम्मति बहुत
अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण
करनेवाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजावाला कामदेव प्रकट हुआ।
दो० - सुरन्ह
कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
संभु बिरोध न
कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥ 83॥
देवताओं ने
कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर
देवताओं से यों कहा कि शिव के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥ 83॥
तदपि करब मैं
काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि
तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥
तथापि मैं
तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे
के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं।
अस कहि चलेउ
सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस
हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥
यों कह और
सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसंतादि) सहायकों के
साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिव के साथ विरोध करने से
मेरा मरण निश्चित है।
तब आपन प्रभाउ
बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिं
बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥
तब उसने अपना
प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न
की ध्वजावाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई।
ब्रह्मचर्ज
ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग
बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥
ब्रह्मचर्य,
नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई।
छं० - भागेउ
बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत
कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का
करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि
रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
विवेक अपने
सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए। उस समय वे सब
सद्ग्रंथरूपी पर्वत की कंदराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान,
वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रंथों में ही लिखे रह गए,
उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत में खलबली मच गई (और सब कहने
लगे -) हे विधाता! अब क्या होनेवाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिरवाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण
उठाया है?
दो० - जे सजीव
जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज
मरजाद तजि भए सकल बस काम॥ 84॥
जगत में
स्त्री-पुरुष संज्ञावाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गए॥ 84॥
सब के हृदयँ
मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि
अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥
सबके हृदय में
काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं।
नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने
(मिलने-जुलने) लगीं।
जहँ असि दसा
जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ
जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥
जब जड़ (वृक्ष,
नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है?
आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरनेवाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का)
समय भुलाकर काम के वश में हो गए।
मदन अंध
ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर
किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥
सब लोक कामांध
होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव,
दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल - ।
इन्ह कै दसा न
कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त
महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥
ये तो सदा ही
काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध,
विरक्त, महामुनि और महान योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री
के विरही हो गए।
छं० - भए
कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर
नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं
पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि
ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
जब योगीश्वर
और तपस्वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे,
वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को
पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्रह्मांड
के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।
सो० - धरी न
काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे
रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥ 85॥
किसी ने भी
हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। रघुनाथ ने जिनकी रक्षा की,
केवल वे ही उस समय बचे रहे॥ 85॥
उभय घरी अस
कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि
ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥
दो घड़ी तक
ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिव के पास पहुँच गया। शिव को देखकर कामदेव डर गया,
तब सारा संसार फिर जैसा-का- तैसा स्थिर हो गया।
भए तुरत सब
जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि
मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥
तुरंत ही सब
जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा पिए हुए) लोग मद (नशा) उतर जाने पर सुखी
होते हैं। दुर्धर्ष (जिनको पराजित करना अत्यंत ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार
पाना कठिन है) भगवान (संपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश,, ज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र
(महाभयंकर) शिव को देखकर कामदेव भयभीत हो गया।
फिरत लाज कछु
करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत
रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥
लौट जाने में लज्जा
मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय
रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसंत को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें
सुशोभित हो गईं।
बन उपबन
बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु
उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥
वन-उपवन,
बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए।
जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उम़ड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा।
छं० - जागइ
मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगंध
सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि
बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक
सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा॥
मरे हुए मन
में भी कामदेव जागने लगा। वन की सुंदरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा
मित्र शीतल-मंद-सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गए,
जिन पर सुंदर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंस,
कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर
नाचने लगीं॥
दो० - सकल कला
करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल
समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥ 86॥
कामदेव अपनी
सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाय) करके हार गया,
पर शिव की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा॥ 86॥
देखि रसाल
बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
सुमन चाप निज
सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥
आम के वृक्ष
की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया। उसने पुष्प-धनुष
पर अपने (पाँचों) बाण चढ़ाए और अत्यंत क्रोध से (लक्ष्य की ओर) ताककर उन्हें कान
तक तान लिया।
छाड़े बिषम
बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥
भयउ ईस मन
छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥
कामदेव ने
तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिव के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग
गए। ईश्वर (शिव) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा।
सौरभ पल्लव
मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
तब सिवँ तीसर
नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥
जब आम के
पत्तों में (छिपे हुए) कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ,
जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिव ने तीसरा नेत्र खोला,
उनके देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया।
हाहाकार भयउ
जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
समुझि कामसुख
सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥
जगत में बड़ा
हाहाकर मच गया। देवता डर गए, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिंता करने
लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए।
छं० - जोगी
अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति
बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई॥
अति प्रेम करि
बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष
कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
योगी निष्कंटक
हो गए,
कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही
मूर्च्छित हो गई। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिव के पास
गई। अत्यंत प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो
गई। शीघ्र प्रसन्न होनेवाले कृपालु शिव अबला (असहाय स्त्री) को देखकर सुंदर (उसको
सांत्वना देनेवाले) वचन बोले -
दो० - अब तें
रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
बिनु बपु
ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥ 87॥
हे रति! अब से
तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना शरीर के ही सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति
से मिलने की बात सुन॥ 87॥
जब जदुबंस
कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय
होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥
जब पृथ्वी के
बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में कृष्ण का अवतार होगा,
तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न
होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा।
रति गवनी सुनि
संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह समाचार
सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥
शिव के वचन
सुनकर रति चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब
समाचार सुने तो वे बैकुंठ को चले।
सब सुर बिष्नु
बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक-पृथक
तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥
फिर वहाँ से
विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिव थे। उन सबने शिव की अलग-अलग स्तुति की,
तब शशिभूषण शिव प्रसन्न हो गए।
बोले
कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह
प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥
कृपा के
समुद्र शिव बोले - हे देवताओ! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्मा ने कहा - हे प्रभो! आप अंतर्यामी हैं,
तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ।
दो० - सकल
सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि
देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥ 88॥
हे शंकर! सब
देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह
देखना चाहते हैं॥ 88॥
यह उत्सव
देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु जारि रति
कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥
हे कामदेव के
मद को चूर करनेवाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के
सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया,
सो बहुत ही अच्छा किया।
सासति करि
पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबतीं तपु
कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥
हे नाथ!
श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दंड देकर फिर कृपा किया करते
हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार कीजिए।
सुनि बिधि
बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह
दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥
ब्रह्मा की
प्रार्थना सुनकर और प्रभु राम के वचनों को याद कर शिव ने प्रसन्नतापूर्वक कहा - 'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके 'जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो'
ऐसा कहने लगे।
अवसरु जानि
सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
प्रथम गए जहँ
रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥
उचित अवसर
जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्मा ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले
वहाँ गए जहाँ पार्वती थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोदयुक्त,
आनंद पहुँचानेवाले) वचन बोले - ।
दो० - कहा
हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥
अब भा झूठ
तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥ 89॥
नारद के उपदेश
से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया,
क्योंकि महादेव ने काम को ही भस्म कर डाला॥ 89॥
श्री राम चरित
मानस- बालकाण्ड, मासपारायण,तीसरा विश्राम समाप्त॥
शेष जारी....पढे
श्रीरामचरित मानस- बालकाण्ड मासपारायण, चौथा विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस बालकांड मासपारायण, दूसरा विश्राम
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